अतृप्ति : आचार्य चतुरसेन शास्त्री

Atripti : Acharya Chatursen Shastri

हृदय! अब तुम क्या करोगे? तुम जिसके लिये इतना सज धज कर बैठे थे उसका तो जवाब आ गया। जन्म से लेकर आज तक जो तुमने सीखा था-जिसका अभ्यास किया था, उसकी तो अब जरूरत ही नहीं रही। न जाने तुम्हारा कैसा स्वभाव था। तुम सब कुछ फिर के लिये उठा रखते थे। तुमने तृप्त होकर भी उससे बात नहीं करने दी। आँख भर कर कभी उसे देखने नहीं दिया। मन भर कभी प्यार नहीं करने दिया। तुम यह सब काम फिरके लिये उठा रखते थे। तुम कहते में डर क्या है? कोई गैर तो है ही नहीं, अपनी ही वस्तु है। फिर देखा जायगा। अब कहो---अब भी फिर देखने की आशा करते हो?

तुम वर्तमान को कुछ समझते ही न थे। तुम उसे स्वप्न कह कर पुकारते थे। कभी कभी उसे छाया कहकर उसका तिरस्कार करते थे। मैं तुम्हे कितना समझाता था---वर्तमान से लाभ उठाओ, वर्तमान दौड़ा जा रहा है। इसे पकड़ लो। पर तुम आलसी की तरह नित्य यही कहते थे---जाने भी दो, वह भविष्य आता है। वही पका हुआ सुख है वही अनन्त है। यह वर्तमान तो मुसाफिर की तरह भाग दौड़ में है। इसमे कितना सुख भोगा जाय? आने दो भविष्य के धवल महल को। वहाँ तृप्त होकर पीवेगे और जी भर कर सोवेगे। लो अब बताओ कहाँ हैं---अब वे अट्टालिकाऐं? वह धवल महल? मैं बहुत भूखा हूँ, प्यासा हूँ, थका हुआ हूँ। मैं अब चलकर रस पीऊंगा और जरा सोऊंगा।

क्यों? सुस्त क्यों, हो गये? ठण्डे क्यों पड़ गये? चुप क्यों हो गये? बोलो न, मेरा जी घबड़ा रहा है। तुम्हे देखकर बेचैनी बढ़ रही है। सच कहो मामला क्या है? तुम्हारे विश्वास पर, तुम्हारी बातोंमे आकर मैंने अपने जन्म-जन्मान्तरों की पूजी लगा दी थी। तुम्हारी योग्यता पर मुझे भरोसा था। मैंने तुम्हे देखा भाला नहीं, कुछ खोज-जॉच नहीं की। तुमने जो कहा, आँख कान बन्द करके मान लिया। अब बताओ क्या करूँ? न तब तुम्हारा कहना टाला था-न अब टालूँगा।

बताओ न? अब क्या करू? चुप क्यों हो? स्तब्ध क्यों बैठे हो? क्या कारबार एकदम फेल हो गया? या दिवाला निकल गया? मैं अब कहीं का न रहा? बोलो न, इस तरह चुपचाप आह भरने से तो न चलेगा।

वे दिन अब भी याद हैं। मानो वही दृश्य वही समय वही छटावही सब कुछ ऑखो मे फिर रहा है। पर ऑखों के सामने कुछ नहीं है। हाय! कैसी वह नदी थी, कैसा उसपर स्वच्छ चन्द्र और नीलाकाश चमक रहा था, कैसा उसका प्रतिविम्ब जल मे पड़ रहा था कैसी उसके तट के श्याम छाया रूप वृक्ष और लतायें झुक झुक कर पंखा कर रही थीं। और तुम मुझे कुछ भी पेट भरके देखने नहीं देते थे। जब मैं चन्द्र को देखता था तब तुम कहते---नहीं पहले इस जल की छटा को देखो। जब मैं उसे देखता था---तब तुम कहते--नहीं पहले इस निकुंज छाया को देखो। मैं जब उसे देखता तब तुम कहते थे---नहीं, पहले इस छप छप शब्द को सुनो। फिर तुम मेरी ऑखे बन्द कर देते थे। मुझसे तुम्हें क्या जलन थी? सुख से तुम्हे क्या चिढ़ थी? तृप्ति से तुम्हे क्या द्वेष था?

तुम्हारी वह कुलबुलाहट...चुलबुलाहट...कहाँ गई? अब क्यों इस तरह सुस्त सिर नीचा किये बैठे हो। मेरे सर्वनाश- कारी वंचक! मैं तुम्हें दया करके छोडूँगा नहीं।

किसी की भी नहीं सुनते थे, ऐसे धुन के अन्धे हो गये थे। हँसी रुकती ही न थी, चैन पड़ता ही नहीं था। इतना रोका था, धमकाया था, फटकारा था। पर सब चिकने घड़े पर पानी की तरह ढल गया? लो अब बैठे बैठे रोओ।

  • मुख्य पृष्ठ : आचार्य चतुरसेन शास्त्री : हिन्दी कहानियाँ, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां
  • मुख्य पृष्ठ : संपूर्ण हिंदी कहानियां, नाटक, उपन्यास और अन्य गद्य कृतियां