अथ कला-ड्रामा (कहानी) : प्रकाश मनु

Ath Kala-Drama (Hindi Story) : Prakash Manu

1

माफ कीजिए, कहानी शुरू करने से पहले एक छोटी-सी आदत (आप चाहे तो इसे सनक भी कह सकते हैं) के बारे में बता दूँ। वह यह कि इतवार को लेकर मैं काफी संवेदनशील हूँ।

पता नहीं किसने कहा है, ‘ईमान गया तो सब कुछ गया, ईमान बचा तो सब कुछ बच गया।’ मैंने लिखने वाले अज्ञात लेखक से क्षमा-याचना के साथ इसे थोड़ा-सा बदल दिया है, यानी ‘इतवार गया तो सब कुछ गया, इतवार बचा तो सब कुछ बच गया!’ और उसे किसी सुभाषित की तरह अपने अध्ययन-कक्ष की दीवार पर टाँग लिया है।

बाकी दिन चाहे जैसे रोते-बिसूरते बीतें, पर इतवार को मैं भरपूर जीना चाहता हूँ। इतवार का हर लम्हा मेरे लिए खुशी का एक जाम होता है और मैं चाय के प्याले के साथ अपनी मनपसंद चित्रा-जगजीतसिंह की गजलें सुनते या गुनगुनाते हुए, इसे घूँट-घूँट पीना चाहता हूँ। कभी घर के लॉन में हलके कदमों से टहलता हूँ, कभी अपने प्रिय लेखकों की पुस्तकें खोलकर बैठ जाता हूँ। और इससे लगता है, जैसे सारी थकान निचुड़ गई हो। पूरे हफ्ते मन फूलों जैसा महका-महका रहता है।

ज्यादातर मेरी कोशिश कामयाब हो ही जाती है, क्योंकि मैं अक्सर मिलने वालों को इसीलिए इतवार की बजाए बाकी दिनों की शामों को आमंत्रित करता हूँ। वे हैरान होकर कहते हैं, “कहिए तो इतवार को आ जाऊँ?”

और मैं उनकी हैरानी को और बढ़ाता हुआ कहता हूँ, “अजी, आज ही आ जाइए न! या कल...! इतवार का क्या इंतजार करते हैं?”

वे खुश हो जाते हैं और मेरी योजना कामयाब हो जाती है।

2

पर इस बार कुछ ऐसा घट गया, जिससे मैं वाकई डरता था।

यह बादलों के मौसम वाला एक खुशनुमा इतवार था। हलकी-हलकी फुहार पड़ रही थी। मन हलका होकर मस्त हवा के झोंकों में बहा जा रहा था। मैं अधलेटा-सा, खिड़की खोलकर बाहर रिमझिम का संगीत सुन रहा था। इतने में ही मेघदूत जी पधार गए। आकाश के बादल या अपने कालिदास वाले ‘मेघदूत’ नहीं, धरती के बल्कि हमारे अपने मोहल्ले के महान आधुनिक चित्रकार मेघदूत जी।

“अरे भई सुधांशु जी, कहाँ हो?...जिंदा भी हो या नहीं!” बाहर से ही उन्होंने आवाज लगाई और धड़धड़ाते हुए भीतर बैठक में दाखिल हो गए।

कोई हफ्ते भर की बढ़ी हुई दाढ़ी। बादामी रंग का ढीला-सा कुरता और चूड़ीदार पाजामा। कुल मिलाकर मेघदूत जी अपनी सदाबहार पोशाक में थे और एक खास रौ में। ये ऐसे पल होते जब सामने वाला कोई भी हो, मेघदूत जी केवल अपनी बात करते थे और उन पर अपनी महानता की छाप छोड़ने का भूत सवार रहता था।

सचमुच इस खुशनुमा मौसम में मेघदूत जी का बगैर सूचना के यों पधार जाना खल गया।

“बैठिए मेघदूत जी!” मैंने अपनी आवाज की कड़वाहट छिपाते हुए कहा।

“कोई नहीं समझता, भइए, कोई नहीं! एक तुम हो, इसीलिए चले आते हैं!” जुमला फेंककर वह सिर पर हाथ रखकर बैठ गए।

उनके आते ही वातावरण संजीदा हो गया था। अघोषित कफ्र्यू की तरह।

“कुछ परेशान हैं क्या?” मैंने जिज्ञासा प्रकट की।

“होगा क्या, कुछ नहीं! न कोई कला समझता है, न समझना चाहता है! फिर भी मैं जुटा हूँ साधना में। आखिर आज नहीं तो कल दुनिया मुझे जानेगी, पहचानेगी कि एक मेघदूत हुआ करता था जिसने अपनी जिंदगी गला दी। मगर पाया क्या...? लोग कुछ समझना ही नहीं चाहते। मैं कहाँ-कहाँ सिर खपाऊँ?” उनके चेहरे पर फिर से दुख की काली-काली घटाएँ गहराने लगीं।

उनका प्रवचन जारी रहा, “कोई समझे न समझे, मैं तो भाई चित्रों में प्रतीकात्मकता की तरजीह है देता हूँ। यानी जो आप दिखाना चाहते हैं, वह बिलकुल मत दिखाइए और जो नहीं दिखाना चाहते, वह पेश कर दीजिए! इसे कहते हैं कला...आर्ट...पेटिंग! लेकिन हमारे चित्रकार हैं कि घसियारे, अभी तक सोलहवीं सदी से बाहर निकलने को तैयार ही नहीं है। धिक्कार है हमें, धिक्कार है सबको, अगर हम कोई क्रांति नहीं कर पाए!”

अचानक वह तैश में आ गए और लाल अंगारे की तरह दहकने लगे।

3

सुबह-सुबह इतना प्रचंड भावोच्छ्वास झेलने का जिगरा मुझमें नहीं है, पर एक कड़वी सजा समझकर निगल गया। मन का सारा स्वाद खराब हो गया। सिर में हलका-हलका दर्द महसूस होने लगा था।

“चाय पिएँगे?” वातावरण को हलका करने की गरज से मैंने कहा।

“हाँ...हाँ, क्यों नहीं? चाय के साथ नाश्ता भी चलेगा। सुजाता भाभी जी को पकौड़े बनाने के लिए बोल दो। मैं तो घर से ही सोचकर आया था, हैं...हैं!”

मेघदूत जी की नाक फुरफुराने लगी। उनकी फरमाइश भीतर पहुँचाकर लौटा, तो वे फिर शुरू हो गए।

“हाँ, तो मैं कह रहा था कि चित्रकार दुनिया में असल में केवल तीन हुए हैं। माइकिल एंजलो, रेफल और ल्योनार्दो द विंसी—और इनमें भी किसका योगदान कितना है, इसको लेकर विद्वानों में काफी मतभेद पाया जाता है! नहीं, असल में बात यह नहीं है, बात असल में...समस्या! समस्या आप जानते हैं, क्या है?”

चित्रकला का पूरा इतिहास समस्याओं समेत वह सुबह-सुबह मेरे कानों में उँड़ेल देना चाहते थे।

मैं वाकई घबरा गया। विषय को मोड़ देने के लिए वैसे ही पूछ लिया, “वैसे आजकल आप क्या कर रहे हैं? मेरा मतलब है, कोई खास चित्र—कोई खास कल्पना, आपकी तूलिका जिसे आँकने के लिए बेकरार हो!”

“अरे हाँ, याद आया! ऐसा है यार, कि आज चित्रकला प्रदर्शनी है मेरी। मैं तो यही बताने आया था, पर मैं भूल ही गया। इसको कहते हैं कला की सच्ची स्प्रिट, यानी कलाकार का आत्मसमर्पण! अपने ‘आधुनिक कला’ वाले राजा भैया इसी को ‘आत्मतर्पण’ बोल देते हैं। मगर भाई, असल चीज तो है आत्मसमर्पण! कहते हैं कि माइकिल एंजलो चित्र बनाते समय एकदम समाधिस्थ हो जाता था! दीन-दुनिया का कोई होश नहीं, किसी और ही संसार में पहुँच जाता था...!”

कहते-कहते एक क्षण के लिए वे रुके। उनके चेहरे पर ‘परम शांति’ विराज गई। फिर वे अचानक बाहरी दुनिया में लौटे, “तो ऐसा है, सुधांशु जी, आपको चलना है। आप जैसे कला-मर्मज्ञों से कला जीवित है, वरना क्या है कि...”

इतने में ही सुजाता चाय और गरमागरम पकौड़े लेकर आ गई।

“नमस्ते, भाभी जी। आप भी आ रही हैं न चित्रकला-प्रदर्शनी में?” पकौड़ों की प्लेट को प्यार से अपने पास खिसकाते हुए उन्होंने कहा।

“किसके चित्रों की प्रदर्शनी?” सुजाता ने उड़ते-उड़ते पूछा।

“मेरी, और किसकी?” मेघदूत जी थोड़ा आहत हुए।

“अब ये मुन्नू और टुन्नू आने दें तो...!” कहती हुई सुजाता भुन-भुन करती भीतर चली गई।

मैंने मन ही मन सुजाता की व्यवहार-बुद्धि को दाद दी।

“अब यही तो चक्कर है भइए, गृहस्थी में आदमी एक दफा उलझा तो उलझता चला गया। इसीलिए हमने तो यह झंझट ही नहीं पाला, हैं...हैं...हैं!”

मेघदूत जी की पूरी बत्तीसी एकाएक सामने आ गई। फिर अचानक गंभीर होकर उन्होंने कहा, “खैर, भाभी जी को छोड़िए, आप तो आ रहे हैं न?”

“समय क्या रखा है...?”

“बस, यही सवेरे ग्यारह बजे उद्घाटन है। अपने जिलाधीश महोदय हैं न आंनदीलाल जी ‘सदानंद’। वे उद्घाटन के लिए मान गए हैं।...बड़े सज्जन पुरुष हैं साहब। कला-मर्मज्ञ...ऐन कला-मर्मज्ञ! जैसा पद, वैसी योग्यता। मुझे तो सिर-आँखों पर रखते हैं! आप मिले हैं न उनसे?”

“नहीं।”

“ओह!” उनके चेहरे पर मेरे लिए दया भाव प्रकट हो गया, जैसे कह रहे हों, “ओह, बेचारा!”

“देखिए, फिर तो आप जरूर आइएगा। इस बहाने उनसे मिलना भी हो जाएगा।”

फिर मेघदूत जी जाने के लिए उठ खड़े हुए, “देखिए, जरूर आइएगा। मैं दिल की गहराइयों से आपका इंतजार करूँगा। एक आप ही तो हैं जो मीडिया में...!” कहते-कहते वे भावुक हो गए।

“अच्छा...!”

पर इस अच्छा के पीछे की अनिच्छा, पता नहीं वह कैसे भाँप गए! रुके। चौंके। फिर मेरी ओर देखकर कहा, “मैं अपने मित्र शुभंकर जी को भेज दूँगा। वे आपको ले जाएँगेे।”

“क्या...भयंकर जी? आप भयंकर जी को भेज देंगे मुझे लेने? नहीं...नहीं, मैं खुद ही आ जाऊँगा।” हवा में हलकी ठंडक के बावजूद मैं पसीने-पसीने।

“अरे, भयंकर जी नहीं, शुभंकर जी।” मेरी घबराहट भाँपकर तसल्ली देते हुए वे बोले। फिर उन्होंने समझाया, “दरअसल नाम तो इनका शंभूपरसाद था। पर जब से चित्रकला के मैदान में दो-दो हाथ करने उतरे हैं, इन्होंने खुद को शुभंकर कहना, कहलवाना शुरू कर दिया है।”

सुनकर जान में जान आई। मैंने हवा में जल्दी-जल्दी कुछ लंबी साँसें लीं।

4

खैर, वे गए और मैं जल्दी-जल्दी तैयार होने में लग गया। सिर पर सवार इस संकट की घड़ी से बचने के लिए हर हाल में साढ़े दस बजे तक तैयार होकर बाहर निकल जाना चाहता था।

पर अभी पहनने के लिए कपड़े निकाले ही थे कि ठीक दस बजकर दस मिनट पर एक विराटाकार व्यक्तित्व भीतर लपकता हुआ दिखाई दिया। हट्टा-कट्टा शरीर, थोड़ी-सी आगे निकली हुई तोंद। माथे पर झूलते हुए घुँघराले बाल। नुकीली, लंबी मूँछें, खद्दर का कुरता और धोती। देखने में यह व्यक्ति किसी पहलवान से कम नहीं लगता था।

पहचानने में भूल नहीं हुई कि हो न हो, यही शुभंकर जी हैं।

“नमस्ते...! आप तो तैयार ही बैठे थे।” शुभंकर जी ने अट्टहास किया तो उनकी मूँछें बेवजह फड़फड़ाने लगीं।

मुझे जाने क्यों उनके अट्टहास में एक विजेता का-सा गर्व दिखाई पड़ा। मानो उनसे कहा गया हो, जैसे भी हो, ‘सुधांशु के बच्चे’ को पकड़कर लाना है। सो शुभंकर जी ताल ठोंककर ‘जय बजरंग बली’ कहकर दौड़े आए हों और अपनी सफलता पर गद्गद हो रहे हों।

“अगर भागे भी तो इनसे छूट नहीं सकते और फिर तो ये सचमुच कचूमर ही निकाल देंगे।” उनकी विशाल काया पर भरपूर नजर डालकर मैंने मन ही मन कहा। सचमुच शुभंकर जी किसी यमदूत से कम नहीं लग रहे थे और मैं उनके साथ ऐसे चल दिया, जैसे बकरा जिबह करने के लिए ले जाया जाता है।

खैर, मन ही मन अपने आप पर भन्नाते और उस घड़ी को कोसते हुए जब मेघदूत जी से परिचय हुआ था, मैं वधशाला...(ओह, जबान फिसल गई न!) सॉरी, चित्रकला प्रदर्शनी में पहुँचा।

5

एक छोटे-से गलियारे में यह प्रदर्शनी सजाई गई थी। उसके प्रवेश-द्वार पर परदा टँगा था, क्योंकि अभी विधिवत उद्घाटन होना बाकी था। बाहर टीन की टूटी-फूटी कुर्सियों पर 15-20 लोग बैठे थे। मैं भी वहाँ जा बैठा और जिलाधीश आनंदीलाल ‘सदानंद’ जी की ‘सामूहिक प्रतीक्षा’ में शामिल हो गया।

एक बजे तक मीटिंग में ‘आनंद’ का संचार करने वाले आनंदीलाल नहीं आए और हम 25-30 लोग मुहर्रमी सूरत बनाए बैठे रहे। इस बीच कुछ लोग उठ गए, कुछ अखबार या पत्रिका में डूब गए, जिन्हें वे शायद इसी प्रयोजन से साथ लाए थे। दो-एक मौसम पर और दो-चार राजनीति पर बतियाने लगे।

मैं चुपचाप मेघों से घिरे आसमान का नजारा ले रहा था। वह किसी महान चित्रकार के विशाल कैनवस सरीखा लग रहा था।

हवा ठंडी-ठंडी थी, मौसम सुहावना था। पर जो बात घर पर थी, वह यहाँ कहाँ? घर पर मजे से पसरकर या यहाँ-वहाँ टहलते हुए रेडियो या टेपरिकार्डर पर गीत-गजलें सुनना या अपने टुन्नुओं-मुन्नुओं के साथ खेलते हुए अपने बचपन और बीते दिनों को याद करना एक बात है और यहाँ कुर्सियों में धँसकर बैठना बिलकुल अलग चीज।

इस बीच एक दफा चाय आई। काली, जली हुई चाय। एक में से दो कप बनाए गए, तब वह पूरी पड़ी। उसके कालेपन को लक्षित करके ‘कलात्मक चाय’ कहते हुए सबने उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और हौले-हौले सिप करके पी।

काफी देर इंतजार करने के बाद भी जब जिलाधीश महोदय अपने आनंद की बरखा करने नहीं आए तो आखिर वहाँ बैठे लोगों में सबसे ज्यादा बुजुर्ग भूलाराम जी बखेड़ा वाले से (शायद उनकी उम्र और चाँदी जैसे बालों का ख्याल करके) फीता काटकर बाकायदा प्रदर्शनी का उद्घाटन करने का अनुरोध किया गया।

वैसे भूलाराम जी बखेड़ा वाले उसी दफ्तर में बड़े बाबू थे, जहाँ मेघदूत जी क्लर्क के रूप में काम किया करते थे। उन्होंने मेघदूत जी की तारीफ में एक प्रेरणादायक प्रसंग सुनाया कि मेघदूत जी शुरू से ही दफ्तर में लेट आते थे और थोड़ी देर बाद ही सामने वाले स्टूल पर टाँगें फैलाकर खर्राटे भरने लगते थे। इसी से उन्होंने अंदाज लगा लिया कि ये जरूर कोई बड़ी शख्सियत हैं—और अगर नहीं हैं तो होने वाले हैं!

“तो सज्जनो, मैं जानता था कि यह अजीबोगरीब शख्स एक दिन कुछ बनकर दिखाएगा। और आज वह शुभ दिन आ गया है। आज इनकी चित्रकला-प्रदर्शनी का उद्घाटन जिलाधीश महोदय कर रहे हैं...!”

लोगों की फुसफुसाहट और हँसी देखकर शायद भूलाराम जी बखेड़ा वाले अपनी गलती भाँप गए। झेंप मिटाने के लिए जोश में आकर बोले, “नहीं कर रहे तो क्या, करने वाले तो थे। आज नहीं तो कल करेंगे। बल्कि कल कोई और बड़ा अफसर करेगा, परसों मुख्यमंत्री, फिर प्रधानमंत्री, फिर राष्ट्रपति...! और आप देखेंगे कि एक दिन कामयाबी की सीढिय़ाँ चढ़ते-चढ़ते कला का यह अनमोल सितारा एक राष्ट्रीय, बल्कि अंतर्राष्ट्रीय हस्ती बन जाएगा। इतनी बड़ी हस्ती के इनके ऑटोग्राफ लेने के लिए स्कूल-कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ ही नहीं, अमिताभ बच्चन, धोनी और सलमान खान भी लाइन में लगा करेंगे...लाइन में!”

कहते-कहते वे खुशी के मारे छलछला आए आँसुओं को पोंछने लगे।

वातावरण वाकई बोझिल हो गया।

अब मेघदूत जी उठे। आँखें गीली-गीली सी, जैसे अभी बरस पड़ेंगी। भरे हुए गले से बड़े बाबू यानी भूलाराम जी बखेड़ा वाले का आभार प्रकट किया। फिर कहा, “चलिए बंधुओ, अब मैं चित्रों से आपका परिचय करा दूँ।”

हम सब श्रद्धाभिभूत होकर उनके पीछे-पीछे गलियारे में दाखिल हुए।

6

वहाँ भीतर रंगों का—तेज नीले, पीले, हरे रंगों का सैलाब था।

एक चित्र की ओर इशारा करके मेघदूत जी मेरी और मुखाबित होकर बोले, “सुधांशु जी, यह चित्र देखिए। कुछ पहचाना आपने?...नहीं पहचाना? दरअसल इसमें बड़ी गूढ़ कला है, यह जिंदगी का चित्र है!”

“पर इसमें तो केवल दरवाजे दिखाई पड़ रहे हैं, कोई चालीस, पचासेक छोटे-बड़े दरवाजे...?” मैंने कला की उर्वरा धरती पर शंका का एक छोटा बीज डाला।

“नहीं, इसे यों कहिए कि दरवाजों में दरवाजों में दरवाजे हैं। और भइए, यही तो जिंदगी है। यानी हर मोड़ पर एक दरवाजा खुलता है और आप उसमें दाखिल हो जाते हैं। जरा...जरा आप सिंबोलिक ढंग से सोचिए!” मेघदूत जी देखते ही देखते कुछ गहरे-गहरे और रहस्यात्मक हो गए।

कैसा दरवाजा खुलता है? कैसे दाखिल हो जाते हैं? कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। पर इस नाजुक मौके पर ज्यादा बहस करना ठीक नहीं था, सो चुप रहा।

इसके बाद जो चित्र था, उसमें पूरे कैनवस पर एक विशाल ठूँठ दिखाया गया था, जिसमें एक बड़ी-सी गाँठ थी।

“इसे तो आप देखते ही समझ गए होंगे कि...” मेघदूत जी मंद-मंद मुसकराए।

“जी हाँ, ठूँठ!” एक व्यक्ति ने कहा।

“ठूँठ!” मेघदूत जी हँसे। यह एक अलग तरह की हँसी थी। सामने वाले पर बुरी तरह तरस खाने वाली।

“जी नहीं, जी नहीं!” वह हँसे तो हँसते ही गए। उनकी आँखें बुरी तरह मिचमिचा रही थीं। होंठ फड़फड़ा रहे थे, “यही तो आप लोग समझ नहीं पाते, आह!”

फिर थोड़ी देर बाद उन्होंने बताया, “यह औरत है, औरत का संपूर्ण चित्र...!”

“औरत का संपूर्ण चित्र!” दर्शकों में से किसी ने दोहराया, हालाँकि समझ कोई नहीं पाया। यह सबके चेहरों से साफ पता लग रहा था।

“क्या नहीं लगता?” मेघदूत जी की गहरी-गहरी निगाह ‘स्काईलार्क’ की तरह मुझ पर गिरी। मैंने मासूमियत से ‘वाह...वाह’ वाली मुद्रा में सिर हिला दिया।

“देखो, सुधांशु जी समझ गए, मगर आप लोग नहीं समझ पाए!” उन्होंने किसी बाजीगर की तरह दोनों हाथ फैलाते हुए कहा, “असल में इस ठूँठ में यह जो गाँठ है, यह है असली औरत—क्योंकि औरत एक पहेली है और उसका कोई भी सिरा, कभी भी हमारे हाथ नहीं आता! भई, सीधी सी बात है, हैं...हैं...हैं!” वह मुझे छोड़कर बाकी सब पर तरस खा रहे थे।

“अब तो समझ गए न?” उन्होंने प्यार से मेरी बगल में खड़े मि. मिनोचा के कंधे थपथपा दिए।

लगा कि समझ में तो उनके खाक नहीं आया था, पर अगर कहते कि नहीं समझा तो फिर यही धाराप्रवाह भाषण सुनना पड़ता। इसलिए इस दफा उन्होंने भी मजबूरी में ‘हाँ’ में सिर हिलाने में ही खैरियत समझी।

“अब जरा आगे आइए। आपको इस प्रदर्शनी की सबसे नायाब कलाकृति दिखाएँ।” एकाएक वह लहर में आ गए।

हम लोग थोड़ा-सा आगे बढ़े और कई आँखें उस चित्र पर एक साथ टँग गईं, जिसमें एक लंबी-सी खड़ी रेखा के ऊपर एक पड़ी रेखा थी। आसपास दो काले-भूरे गोले थे।

“देखा आपने, यह लंबी-सी नाक...और चिंतापूर्ण ललाट? ये जलती-बुझती आँखें! यह आदमी की महत्वाकांक्षा है! कैसा लगा चित्र?”

“वाकई सुंदर है!” अब सभी ने जिरह करना छोड़ दिया था। कुछ देर के लिए दिमाग पर ताला लगाकर रखना बेहतर था।

“अब थोड़ा-सा और आगे आइए। इसी क्रम में एक और चित्र, जिसमें जीवन की विडंबना का चित्रण है! ‘जीवन में विडंबना और विडंबना में जीवन’—यह है इसका शीर्षक। मुझे महीनों लग गए यह शीर्षक खोजने में, पर आखिर जिन खोजा तिन पाइयाँ!” एक गद्गद आनंद-भाव।

हमने चित्र देखा। पूरे कैनवस पर नीला रंग पुता हुआ था, जिसे बीच-बीच में काले रंग की आड़ी-तिरछी लकीरों से खूब काटा-पीटा गया था।

“देखिए बंधुओ, आसमान जमीन पर गिर चुका है। टुकड़े-टुकड़े हो चुका है और सिसक रहा है। यानी यह आज का वक्त है, जहाँ जीने के लिए कोई गुंजाइश नहीं है।” मेघदूत जी एकाएक दार्शनिक गहराइयों में प्रवेश कर गए।

मगर हमारे ‘दुनियादार’ चेहरों पर परेशानी के भाव पढक़र उन्होंने कहा, “इस बात को आप अभी नहीं, आज से दस साल बाद समझ पाएँगे, जब दुनिया थोड़ी समझदार हो चुकी होगी। खैर, अब अगला चित्र देखिए। यह आदमी किसी लाश को उठाए है, है न? एक नंगी, अधजली लाश—क्या है यह?”

“क्या है यह?” सबकी आँखों पर प्रश्नवाचक चिह्न लटक गया।

“असल बात यह है कि यह लाश किसी और की नहीं, बल्कि इसी आदमी की है। यह खुद अपनी ही लाश ढो रहा है। यह आदमी, मैं, आप, कोई भी हो सकता है। देखिए कितनी खूबसूरती है इसमें!...कला! आहा, कला! ओहो, कला!” मेघदूत जी बाकायदा कथक नृत्य की मुद्रा में आ गए।

मजबूरी में हमें ‘हाँ’ कहना पड़ा और कलाकार की संभावनापूर्ण कला की दाद देनी पड़ी।

आखिरी चित्र में एक नारी आकृति का ‘आभास’ पैदा किया गया था और जो भी ‘स्त्रीनुमा चीज’ वहाँ दिखाई गई थी, उसका वक्ष अैर कूल्हे बेहद उभरे हुए थे। चेहरे की जगह दो-तीन आड़ी तिरछी लकीरें थीं, जो एक-दूसरे को काट रही थीं। कोई पहचानने में भूल न कर जाए, इसलिए इस चित्र के नीचे उसका शीर्षक भी मोटे-मोटे अक्षरों में टाँक दिया गया था—‘स्वप्न सुंदरी!’

इस चित्र का प्रशस्ति-गान हमें सुनाया जाता, इससे पहले ही प्रवेश-द्वार की ओर अचानक शोर उभरा और सबका ध्यान उधर खिंच गया।

7

“चल! कोण सी कला है, अम देखते हैं इब्बी...!” एक खाकी तूफान-सा धमधमाता हुआ प्रदर्शनी-कक्ष में प्रवेश कर रहा था।

मालूम पड़ा कि थानेदार भुजंगीलाल यादव आए हैं।

“थानेदार साहब...?” सभी उपस्थित लोग बुरी तरह चौंक गए।

“हाँ, और साथ में चार सिपाही भी हैं। हाथ में डंडे लिए हुए।” रमेश जी ने घबराए स्वर में कहा, “मैंने खुद अपनी आँखों से देखा है।”

“ऐं, सच?” सत्येंद्र जी ने भयभीत स्वर में पूछा।

मि. मिनोचा के सुर्ख गाल इस समय एकदम निचुड़े-निचुड़े लग रहे थे। मेघदूत जी भी कम बदहाल नहीं थे। भूलाराम जी बखेड़ा वाले सोच रहे थे, ओह, मैं किस बखेड़े में आन पड़ा?

“पर इसमें तो कोई सरकार विरोधी चीज नहीं है, न भ्रष्टाचार और महँगाई की आलोचना की गई है। यह तो कला है, इसमें सरकारी दखल...?” कहते-कहते शुभंकर जी रुक गए। थानेदार सिपाहियों सहित भीतर दाखिल हो चुके थे।

“आपमें मेघनाथ कोण है?” थानेदार ने भीतर आते ही कड़क आवाज में पूछा।

मेघदूत जी सिर झुकाए आगे बढ़े, जैसे फाँसी के फंदे पर झूलने जा रहे हों। बाकी लोग भी सकते में आ गए, काटो तो खून नहीं।

पर थानेदार भुजंगीलाल यादव के चेहरे पर गुस्सा नहीं, मुसकराहट थी। (...ओह गजब!) इसी से उसकी काली, लंबी मूँछें, जगमग-जगमग हो रही थीं। उसने आगे बढक़र कलाकार के कंधे थपथपाते हुए अभयदान दिया, “ऐसा है मेघनाथ बाबू, कि जिलाधीश साहब को एक जरूरी मीटिंग अटेंड करनी थी। इसलिए खुद नहीं आ पाए। अपनी जगह मुझे भेज दिया है। बताइए, क्या करना है...? आप लोग बिलकुल घबराइए नहीं, मैं सब ठीक-ठाक कर दूँगा!”

यह पता चला तो भय से थर-थर काँपते मेघदूत जी की जान में जान आई। बाकी लोग भी जो डर के मारे दीवार से जा चिपके थे, अब फिर से चलने-फिरने, बोलने-बतियाने लगे।

खैर, उद्घाटन तो हो चुका था। अब थानेदार साहब के लिए इन आधुनिक चित्रों की व्याख्या का काम दोबारा शुरू किया गया। इस बीच मौका देखकर मैं भाग जाना चाहता था, पर मेघदूत जी ने शहर के प्रतिष्ठित पत्रकार और कला-पारखी के रूप में मेरा परिचय देकर मुझे अनावश्यक रूप से चेप दिया था। यहाँ तक कि उन चित्रों की व्याख्या का काम भी अब मुझे सौंप दिया गया था।

गरदन फँस चुकी थी और उससे मुक्त होने की कोशिश में मैं सिर्फ छटपटा सकता था। जो बातें मैंने मेघदूत जी से सुनी थीं, अब वे ही ब्योरेवार मुझे अपनी खाकी वरदी की तरह ही अकड़े हुए थानेदार भुजंगीलाल यादव को समझानी पड़ीं।

बताते समय मेरा चेहरा विवर्ण हो गया था, जीभ सूख रही थी। पर उन चित्रों की तारीफ में चेहरे पर नकली उत्साह पैदा करना पड़ रहा था। पता नहीं, मेरे शब्द-कौशल का असर था या किसी और बात का, थनेदार महोदय काफी प्रभावित लग रहे थे और लगतार मुसकराए जा रहे थे।

अंत में उन्होंने दो शब्द कहे, “प्यारे भाइयो, हम यहाँ एक महान चित्तरकार के चित्तर देखने और उन्हें श्रद्धांजलि देने आए हैं। चित्तर भी कैसे-कैसे? एक-एक चित्तर में कई-कई रंग। कहीं हरा है तो कहीं नीला, कहीं लाल तो कहीं आसमानी। कहीं एकबारगी चिट्टा सफेद वा-वा-वा...वा जी, वा! तो भाइयो, हम सब एक-दूसरे पर ऐसे ही प्यार के रंग छिड़कें। यही क्या नाम है, इस मेघदूत नाम के सच्चे कलाकार को सच्ची श्रद्धांजलि होगी। अच्छा जी, भाइयो, धन्यवाद!”

कहकर उन्होंने गर्व और प्रसन्नता के साथ फड़फड़ाती मूँछों से चारों ओर देखा, फिर अपनी कुर्सी पर विराज गए।

मैंने चोर नजर से देखा, ‘भाषण-वाषण में क्या है जी? बातों में से बातें निकालना तो हमें भी खूब आता है!’ जैसी तसल्ली उनके चेहरे पर दिप-दिप कर रही थी।

उसके बाद कुछ नाश्ते-पानी का प्रोग्राम था। पर अब तक दिल किसी अड़ियल घोड़े की तरह एकदम बेकाबू हो गया था।

चुपके से मेघदूत जी की नजरों से बचता हुआ मैं बाहर आया। ताजी हवा में दो-तीन लंबी-लंबी साँसें लीं और जितनी तेजी से हो सकता था, घर की और सरपट दौड़ लगा दी।

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