अथ दरिद्र-पुरुष आख्यान : मृणाल पाण्डे
Ath Dridra Purush Aakhyan : Mrinal Pande
कोसल और मगध अगल बगल के सम्पन्न राज्य थे जिनके बीच विकट स्पर्धा और हिरस थी। मगध ईर्ष्यावश कोसल का किया अनकिया करने की ताक में रहता था, और उसी तरह कोसलिये भी मगध की नाव में छेद करने को सदा तत्पर रहते।
वे दिन बूढे कहते हैं, बहुत अच्छे थे। संसद संसद जैसी और राजे राजा जैसे हुआ करते थे। दूसरे के फटे में टाँग देने की बजाय सब अपने काम से काम रखते थे। पिता से मिले सिंहासन पर बैठ कर राजा दिन-रात राज करते और उनकी प्रजा अपना-अपना पैतृक धंधा सँभालती थी। किसान खेती करते, बुनकर करते बुनकरी। हाथ का काम करने को बढई-लुहार- सुतार-कुम्हार आदि थे। वणिक वाणिज्य करते थे और मल्लाह नाव चलाते हुए मालदार लोगों को नदियाँ पार कराते रहते। वनों में बहेलिये घूमते हुए पशु पक्षी पकडते बेचते।
हर किसी के बच्चे बचपना करते थे, उन पर निगरानी रखते बूढे अपना बुढापा काटते थे।
जहां तक माताओं बहिन-बेटियों का सवाल है, सत्पुरुषों के घर में यह नित्यवासिनी थीं। कुल औरतें दो प्रकार की होती थीं : भली और बुरी। भली औरतें ही माता, ब्याहता अथवा भगिनी या पुत्री होतीं। अंतिम दो कोटियाँ अस्थायी सदस्यायें मान्य होने के कारण सुयोग्य मालिक मिलते ही यथासमय अपने श्वसुरकुल को रोती धोती भेज दी जातीं।
युवावस्था में सभी भली महिलायें घर में बच्चे जनतीं, उनको पालतीं, घरवाले के पैतृक काम में उसका यथासंभव हाथ बटातीं, और उसके बाद भी जो काफी काम बच रहता उसको अकेली अपने हाथों से करतीं। उनको मरने की भी फुर्सत न थी, फिर भी हर वर्ष वे बडी संख्या में मर जाया करती थीं। सुहागिनें मरतीं तो इससे मंदिर में दीप जला कर, ‘वर दे वीणावादिनि वर दे,’ जैसी द्विअर्थी प्रार्थनायें गानेवाली कतिपय कुमारियों के भाग खुल जाते। विधाता की लीला।
इन निरंतर जीने, ब्याही जाने, बच्चे जनने तथा काम करते करते मरनेवालियों के विपरीत अनेक बुरी औरतें भी होती थीं। वे प्राय: दीर्घजीवी होती थीं और नाना आभूषणों से दमकती, विहँसती कोसल से मगध तथा मगध से कोसल तक नगरी तथा राजसभा में अनिर्बाध आती जाती रहती थीं। उनके पुरुष प्राय: पति नहीं, अंगरक्षक मात्र होते और वे इन औरतों के अपत्यों के पिता भी नहीं माने जाते थे। जब रात गये वे घर जाते, तो भली पत्नियोंवाले सत्पुरुष गाहक जो पत्नियों की रोगी दशा अथवा अकाल मृत्यु से बुरी औरतों के पास आने को बाध्य थे, उनकी कमाई पर पलते पुरुषों को जायाजीव्य या रूपजीवी कह कर उनका तिरस्कार करते। ऐसे पुरुष सबकी दृष्टि में संदिग्ध थे और हिंसक घटनाओं के बाद दंडाधिकारी सबसे पहले उनकी ही पकड धकड करते थे।
स्वैराचारिणी महिलाओं द्वारा अपने इन पालतू पुरुषों को बचाने का प्रयास नहीं किया जाता था। पकड गये सो पकड गये। सारी कमाई तो वे ही घर लाती थीं यह पुरुष कौन उनके घर के कोठे भखार भरते थे ? बच्चे भी कुछ दिन रो धो कर चुप हो जाते। बुरीवाली का भरतार मरे कौन गली में ? एक बहु प्रचलित उक्ति थी।
इन स्त्रियों की कला के सादर औपचारिक उल्लेख का प्रश्न ही नहीं उठता था।
राज समाज में उन दिनों हर किसी द्वारा अपनी नियत जगह सादर स्वीकार कर लेने के कारण देश सोने की चिडिया बन गया था।
उपरोक्त जनों के अतिरिक्त कुछ ऐसे छोटे मोटे शिष्ट समाज से वाह्य वर्ग भी थे जिनमें गृहत्यागी जोगी जती तथा कलाकार आते थे। जोगी जती घुमंतू थे जब लहर उठी जंगल चले जाते। कलाकार नगरवासी थे और नाच, गा, या लिख कर नगरवासियों का मनोरंजन कर कुछ कमा लेते थे।
जब जब अलबेला कुछ रचने की बात उठती तो राजभवन में उनको बुलवाया जाता था। जो उनके लिये हर्ष तथा शेष कलाकारों के लिये कोप का विषय बनता।
राजकाज की सुनें। सुमुहूर्त में प्रात: गा गा कर स्वस्तिवाचन करते बटुक दल महाराज को जाग्रत करते थे। स्नानादि के उपरांत रेशमी वस्त्रों तथा सुवर्णाभरणों से मंडित किये जाकर वे प्रतिदिन सभा में आते जहाँ ‘अहो सिंह आया !’ जैसी हर्षध्वनि से उनका स्वागत होता। सिंहासन पर बैठ कर राजा लंबे लंबे वाक्योंवाले व्याख्यान देते। उनके हर कथन पर सुंदर वस्त्रों से आवेष्टित सांसद भद भद चौकी पीट कर, या अहो ! अहो ! कह हर्ष व्यक्त करते।
इसके तथा प्रतिपक्षी राज्य की निंदा के अतिरिक्त किसी के पास कोई विशेष काम नहीं था।
एक बार देश देशांतर में जाने कैसे बात फैल गई कि कोसल में सब तरह का माल बिक जाता है। कुछ भी बेचने ले जाओ, भर हाथ मुद्रायें दे कर कोसलवासी खरीद लेते हैं। मगध के लोगों को बात बडी चुभी। सभा में जब मगधनरेश को यह बताया गया, तो उन्होंने अपने सभासदों से कहा, ‘चिंता न करो। मैं अभी के अभी एक कुछ ऐसा अलबेला बनवा देता हूँ जिसका खरीदार कोई न निकले। फिर उस माल को कोसल भेज कर देखते हैं, कि क्या होता है ?’
सांसदों ने स्वामिभक्त सांसदों की भाँति करतलध्वनि से नरेश के प्रस्ताव का स्वागत किया। चलो इसी बहाने कलाकार राजभवन में आयेंगे, कुछ दिन खूब नई नई तरह का कौतुक होगा, यह सोच सोच कर वे सब प्रसन्न हुए।
राजा ने कलाकारों से सघन विमर्श किया और उन्होने राजा की इच्छानुसार लोहे का अपशकुनिया दरिद्र-पुरुष का पुतला तैयार कर दिया। उसके एक हाथ में था झाडू और दूसरे में सूर्य। यह चकित करनेवाली प्रतिमा एक बोरे में लपेट कर कोसल की हाट में बेचने के लिये मगध राज्य के एक व्यापारी स्थूलभद्र को दे दी गई जिसका कारोबार दोनो राज्यों में चलता था।
‘कोसल जा कर अन्य सब वस्तुएं बेचने के बाद ही इस लौह पुरुष को गाडी से बाहर लाना और इसका मूल्य एक लाख स्वर्णमुद्रायें बताना। यदि गाहक न मिले, तो सीधे राजभवन जा कर बाहर खडे हो उच्च स्वर में कोसल नगरी को बार बार दोष देना और लौट आना।’ स्थूलभद्र से महाराज ने कहा।
मगधनरेश के कहे के अनुसार स्थूलभद्र वणिक ने कोसल जा कर अपना नियमित बेचनेवाला सामान तुरत फुरत बेच डाला। जब कुछ और न बचा तो व्यवहारियों ने उसके शकट की ओर उंगली दिखा कर पूछा, ‘अहो यह तेरी गाडी में क्या पडा है ? यह भी तनिक दिखा तो सही।’ स्थूलभद्र ने बोरा खोला और अपशकुनिया नग्न पुतला निकाल कर कहा, ‘यह दरिद्र पुरुष की लौह प्रतिमा है। खरीदोगे ?’
नाम बताते ही आँखें फिराते हुए गाहक खिसकने लगे।
वणिक् बोला ‘ मैंने तो सुना था कि कोसल में सब बिक जाता है। इस नगरी का कोई भी नागरिक एक लाख स्वर्णमुद्रायें दे कर इसे मोला सकता है। अरे मगध के कलाकारों का गढा हुआ बढिया टिकाऊ माल है। ले भी लो। वापिस जा कर कहूंगा कि नहीं बिका तो मेरे बंधुगण तुम कोसलवालों की कृपणता का उपहास करेंगे।’
इसके बाद भी कोसलवासी दरिद्र पुरुष की विरूप नग्न मूर्ति से आँखें फिराये कर दूर खिसकते रहे।
तब स्थूलभद्र वणिक् राजद्वार पर गया और वहाँ चौराहे पर खडा हो सबको सुनाते हुए चिल्ला चिल्ला कर कहने लगा: ‘हम मगध से एक दुर्लभ दरिद्र पुरुष का पुतला बनवा कर लाये थे जिसे कोसल का कोई नागरिक नहीं खरीद रहा। अब तो कोसलाधिराज महाराज ही इसे लें तो लें, अन्यथा अब मैं इस कोसल पर कृपण कायर नगरी का लांछन लगा कर वापिस मगध जाता हूँ।’
कोसल की प्रतिष्ठा बनाये रखने को उद्यत कोसलराज ने उसे भीतर बुलवा लिया। दरिद्र पुरुष का वह नग्न पुतला ले कर स्थूलभद्र वणिक् सभा में घुसा तो सभ्य सभासदों ने आँखें मींच लीं। पर मगध के उपहास से बचने को कोसल नरेश ने एक लाख सुवर्ण मुद्रायें दे कर दरिद्र पुरुष का वह विरूप पुतला खरीद कर उसे राजभंडार में रखवा दिया।
जैसा कि हम पहले कह आये राजा तब अनिर्बाध राज करते थे। रीत्यानुसार करतल ध्वनि करने के बाद सभा विसर्जित हुई और सांसद घर चले गये।
रात्रि का पहला प्रहर था जब एक तेजस्वी बलशाली पुरुष अचानक कोसल नरेश के शयनागार में आया और बोला, ‘मैं जाता हूँ।’
‘तुम कौन ?’
‘मैं गजधिष्ठाता।’
‘क्यों जाते हो ?’
‘जिस राजभण्डार में साक्षात् दरिद्र पुरुष खडा हो वहां राजकीय गजधन, गोधन, वारिधन कैसे रहें ?’
‘ठीक है, जाओ।’ कोसलाधीश ने कहा।
उसके जाने के रात के दूसरे प्रहर में शयनकक्ष में लाल वस्त्रधारिणी एक दिव्य महिला आई, ’महाराज मैं भी सदल बल चली।’
‘तुम कौन भद्रे ?’ आँख मलते महाराज ने पूछा।
‘मैं हूँ राज्यश्री।’
‘क्यों जाती हो ?’
‘सोना दे कर दारिद्र्य खरीदनेवाले राजा के पास श्री कैसे रहे ?’
‘ठीक है। शीघ्र जाओ।’ सक्रोध राजा बोला।
चतुर्थ प्रहर में विशाल वक्षस्थलवाला एक अन्य पुरुष आया बोला, ‘महाराज आज्ञा दें। मैं भी चला।’
‘तुम कौन भ्राता ?’ महाराज ने पूछा।
‘मैं साहस- पुरुष।’
अबकी बारी कोसलाधीश शैया त्याग उठ खडे हुए : ‘ मित्र साहस, तुम तो मुझे मत छोडो।’
‘तब आपने दारिद्र्य क्यों खरीदा ? जहाँ दरिद्रता है वहाँ साहस कैसे रहेगा ?’
‘ तू मेरे पास था तभी तो इसे खरीदा। जिन मगधवालों के पास साहस नहीं था उन्होंने इसे स्वयं नहीं खरीदा। मुझे लांछित कराने यहाँ भेजा।’ यह कह कर महाराज ने छुरा निकाला और कहा, ‘ तुम मुझे बस दो माह का समय दो मैं इस दरिद्र पुरुष का लाभ उठाऊंगा फिर इसे हटा दूंगा। अभी राजभवन से तुम तभी जा सकोगे जब यह कोसल नरेश मर जायेगा।’
साहस पुरुष बोला,’ऐसा न करो। मैं तुम पर विश्वास करता हूँ। तुम्हारे साथ वहाँ दो माह और रहूंगा और वचन देता हूँ कि मेरे सभी अन्य साथी भी लौटेंगे।’
प्रात:काल कोसल नरेश ने दरिद्र नारायण का पुतला राजसभा में मँगवा कर रात का आँशिक वृत्तांत कह कर सभा को अपने साहस तथा पराक्रम के प्रति आश्वस्त बनाया।
‘अहो वनराज सिंह सम तेजस्वी हमारे परम साहसी महाराज !’ कहते हुए सारी सभा ने चौकियाँ थपथपा कर हर्ष ध्वनि की।
तदुपरांत कोसलनरेश की एक सहस्त्र विशेष गायिकाओं की टोली मगध जा कर घर घर में गीतों से प्रचारित करने लगी कि किस प्रकार कोसलनरेश के राजकीय कोष में दुर्लभ रूप में साक्षात् दरिद्र पुरुष विराजे हैं। कौन कहता है कि दरिद्रता का धनकुबेरों से विरोध है ? होता तो क्या कोसल इतना संपन्न बना रहता ?
धीमे धीमे पहले काम से मरती महिलायें और फिर मगध के गरीब पुरवासी भी फुसफुसा कर सराहना भाव से कहने लगे, कि अहो कोसल मगध से श्रेष्ठ है जहाँ झाडू तथा सूर्य लिये साक्षात् दरिद्र पुरुष राजकोष में प्रतिष्ठित हैं। क्यों न हम भी वहीं जा बसें ? माह भर बाद कोसल ने मगध पर चढाई कर दी। मगध पर अपना ध्वज फहरा कर कोसलनरेश के उस विशाल क्षेत्र का एकछत्र सम्राट् बनने पर पुरवासियों ने कहा, मगध तो जब से दरिद्र पुरुष के पुतले ने यहाँ से कूच किया, श्रीहीन हो चला था। अच्छा है अब हम सब कोसल की समृद्धि का भोग करेंगे, पराधीन हुए तो क्या ?
मगध पर पाई अभूतपूर्व विजय पर कोसल में घर घर दीप जले। कोसलाधीश ने धूमधाम से राजसूय यज्ञ किया। मगध त्याग कर कोसल आ गईं नर्तकियों गायिकाओं ने नाच गा कर कोसलाधिपति तथा नागरिकों का चित्त प्रसन्न किया।
जब स्थिति तनिक शांत हुई तो समाचार मिला कि कोसल की समृद्धि का सुन कर गंगा के पश्चिम से कुरु पांचाल के राजा अभिमल्ल की एक विशाल अक्षौहिणी कोसलाधीश के साम्राज्य पर चढाई के लिये तैयार हो रही है।
‘इस दरिद्र पुरुष ने अपनी निर्माता नगरी को तो फटेहाल बना ही दिया। अब मेरे लिये दरिद्रता को सादर रखने का प्रयोजन पूरा हुआ।’ यह कहते हुए कोसल नरेश ने वह करामाती पुतला भाण्डार से निकलवा कर कुरु पाँचाल के बाज़ार में बिकवाली को उसी स्थूलभद्र वणिक् के हाथों भिजवाते हुए कहा कि यदि खरीदनेवाला न मिले तो सीधे कुरु राजसभा में जाकर राजा अभिमल्ल से कहना इसी अपशकुनिया दरिद्र पुरुष की प्रतिमा के कारण मगधनरेश ने अपने राज्य से हाथ धोया है। अब इसे यदि राजा अभिमल्ल न खरीदेगा तो अर्थ होगा कि कुरु पांचालवालों में तो कोसल द्वारा पराजित मगध से भी कम साहस है।’
कोसलनरेश की आशानुरूप कुरुपांचाल की सेनाओं ने गंगा पार नहीं की।
इस प्रकार दरिद्र पुरुष के निर्माण तथा दरिद्रता के कूटनीतिक महत्व विषयक यह आख्यान समाप्त हुआ।