Ateet Hoti Prampara (Hindi Story) : Ramgopal Bhavuk
अतीत होती परम्परा (कहानी) : रामगोपाल भावुक
‘पापा आप जानते हैं कि वे हार्ट पेशेंट हैं। डॉक्टर ने कहा था बिना उनके के परामर्श के उन्हें कोई दवा न दी जाये और आप अपने मन से मम्मी को दवायें देते रहते हैं। आप जाने क्या करते रहते हैं? हम लोग वहाँ रोज-रोज नहीं आ सकते। मैं नौकरी के काम में उलझा हूँ और सब लोग बच्चों की पढ़़ाई में। आपका सिर्फ एक ही काम था, मम्मी का ध्यान रखना। सो आप से यह भी नहीं होता! मैं क्या करूँ आखिर।’
महेन्द्र फोन पर अपने पिता शंकर सहाय से धरा प्रवाह बोले जा रहा था ।
शंकर सहाय ने क्षण भर में पुत्र के मन की सारी स्थिति समझ ली । वे बोले-‘चिन्ता की ऐसी कोई बात नहीं है। तुम यहाँ की चिन्ता नहीं करो। तुम तो अपनी नौकरी ध्यान से करते रहो। मम्मी की स्थिति पूरी तरह कन्ट्रोल में है। अब यहाँ चक्कर लगाने की जरूरत भी नहीं है।’
वह बोला -‘ठीक है, मम्मी से बात कराओ।’
उन्होंने फोन पत्नी को पकड़ा दिया।
महेन्द्र ने पूछा-‘मम्मी कैसी हो?’
मम्मी की आवाज मुश्किल से निकली-‘ वेटा अब तो ठीक...ही..... हूँ।.... बच गई।’ यह सुनकर वह उन्हें स्वास्थ्य के बारे में हिदायतें देने लगा तो उन्होंने फोन पति को पकड़ा दिया।
यह रोज का क्रम था कि महेन्द्र पापा से मम्मी के स्वास्थ्य के बारे में सुबह- शाम चर्चा कर लेता। वह अपनी माँ के स्वास्थ्य को इतना नाजुक भी नहीं मान रहा था, क्योंकि बुढ़ापे में कोई न कोई बीमारी लगी हीं रहती हैं और दवायें भी देर से असर करतीं हैं।
महेन्द्र की माँ का स्वभाव है कि मोहल्ले में किसी के यहाँ दुःख-तकलीफ के बारे में सुना और पहुँच गई उसकी मदद करने।
वे परम्पराओं की अच्छी जानकार हैं। मोहल्ले में किसी के यहाँ शादी-ब्याह के नेग- जोग शुरू हुए कि सब कहते- बुलाओ महेन्द्र की माँ को। ...और वे भी हर क्षण रीति-रिवाजों के पालन कराने में कटिबद्ध रहतीं। वे नहीं चाहतीं कि उन परम्पराओं का कोई किन्चित भी उलंघन करे। वे उन्हें देवी-देवताओं की तरह महत्व देतीं हैं।
जब मोहल्ले के लोगों को यह पता चला कि महेन्द्र की माँ की तबियत खराब है तो लोग उनके हाल-चाल जानने उनके घर आने लगे। एक दिन मोहल्ले की चार -पाँच औरतें मिलने आ गईं। मन्जू की ताई ने आते ही पूछा-‘‘ आपकी इतनी तबियत खराब है और आपके लड़के- बच्चे नहीं दिख रहे हैं?’ ’
वे मुश्किल से जवाब दे पा रहीं थीं, बोलीं-‘लड़का नौकरी का बींधा है। आजकल के युग में सरकारी नौकरी करना बड़ा कठिन है। अब तो घर- घर नेता हो गये हैं। बड़ा नाती सुधीर आगे की पढ़ाई के लिये दिल्ली जा रहा है।....और छोटा नाती मनीष इन्टर की पढ़ाई के साथ- साथ पी0ई0टी0 की तैयारी कर रहा है।’
बन्टी की माँ ने कहा-‘.....और बहू को तो ऐसी हालत में सेवा करने आना चाहिये था और बहू-बेटा किस दिन के लिये होते हैं।’
महेन्द्र की माँ ने उन्हें समझाते हुये कहा-‘आप सच कहतीं हैं पर बहू भी क्या करै? सारे दिन बच्चों के काम-काज में लगी रहती है। सुबह से ही घर में आने-जाने वालों का ताँता लगा रहता है। इतना बड़ा घर उसकी देख- भाल करना खेल नहीं है।’
मन्जू की ताई ने कहा-‘बहन, आप चाहे जो कहें, घर के सारे काम-काज एक तरफ ,उन्हें दुःख-तकलीफ में माँ-वाप की सेवा करने आना ही चाहिये। यहाँ रहते नहीं कम से कम आपको देखने तो आते ही।’
महेन्द्र की माँ ने उन्हें पुनः समझाया- ‘उसके पापा के पास महेन्द्र का तो रोज फोन आता रहता हैं कि मम्मी यहीं आ जायें। मैं गाड़ी भेज देता हूँ । मुझे ही वहाँ अच्छा नहीं लगता। जब परबस हो जायेगी तो वह गाड़ी में डाल ले जायेगा ,फिर तो वहाँ जाकर रहना ही पड़ेगा। जब तक हाथ-पैर चल रहे हैं तब तक यहाँ से जाने वाली नहीं हूँ।’
इस बात पर बन्टी की माँ ने परामर्श दिया-‘आप यहीं रहें, हम अपने बच्चों के पास रह रहे हैं तो सब के सब चारों तरफ से हमारी खाल खीच रहे हैं। न जीने दे रहे हैं और न मरने दे रहे हैं।’
मन्जू की ताई ने कहा-‘आप यहीं ठीक हैं। पास में रहेंगे तो किसी न किसी बात पर हो ही जाती है। चार बरतन खटकते ही हैं। हमारे घर में केवल दो भाई-एक बहिन हैं। दोनों भाइयों की पत्नियाँ अपना-अपना हाथ बनाने में लगीं हैं। कुछ कहो तो बडी बहू कहतीं है कि हम अपना सब कुछ छोटी को चुपचाप दे रहे हैं।......और छोटी बहू कहती फिर रही है कि इन्हें तो अपनी लड़की के ब्याह का सोच है, हमारे इनकी चिन्ता नहीं है कि इन्हें कहीं काम-धन्धे से लगा दें।’
महेन्द्र की माँ ने समझाया-‘आपको लड़की‘ के ब्याह की चिन्ता होना स्वाभाविक है। हमें भी वख्त-बेवख्त अपनी लड़की के दुःख-सुख में सोचना ही पड़ता है। सम्भव है हमारी बहू-रानी को भी यही बात खटकती हो।’
बन्टी की माँ बोली-‘हमारी छोटी बहू तो बड़े-बूढ़ों के दबा-दबाकर पैर छूने की परम्परा को, व्यर्थ का आडंबर मानती है। नये मार्डन लड़के बच्चों को यह बात क्यों अच्छी लगने लगी। वह कहती है, उसने इस तरह से पैर छूने की परम्परा किसी और क्षेत्र में नहीं देखी। यह मुझ से नहीं होता। मन ही मन गालियाँ देते जाओ और दबा-दबा कर पैर छूते जाओ।’
जब वे अब चलीं गईं तो वह सोच में डूब गई- बहू भी क्या करे! इस बुढ़ापे में कोई न कोई रोग लगे ही रहते हैं। काम धन्धा छोड़कर वह हम बूढ़ों की देख- भाल करने यहीं तो बैठी नहीं रहेगी।
दूसरे दिन उनकी पुत्री वसुधा आ गई। आते ही बोली-‘मम्मी तुम इतनी बीमार हो.... और आपने मुझे सूचना भी नहीं दी। सुना है दवा रिएक्शन कर गई।’
यह कहकर उसने पूछा-‘...और भाभी नहीं आईं?’
वे बोली-‘वह नहीं आ पाई होगी, फिर किसी के मन में क्या है? क्या पता?’
वसुधा ने समझाया-‘मम्मी मैं भी क्या करूँ? इसी समय हमारे मकान का निर्माण कार्य चल रहा है। मुझे भी आज ही लौटकर जाना पड़ेगा।’
यह कह कर वह चाय बनाने रसोईघर में चली गई।
धीरे-धीर स्वास्थ्य सुधरने लगा। एक-डेढ माह का समय गुजर गया। वह अपनी घर गृहस्थी का काम करने लगीं।
उस दिन शंकर सहाय के यात्रा के साथी मिलने आये थे तो पति -पत्नी अन-मने से थे। पशुपतिनाथ और कामाख्या यात्रा का प्रोग्राम उनकी बीमारी से पहले ही बन गया था। उन्होंने ट्रेन के टिकिट भी रिर्जव करवा लिये थे। उधेड़बुन चल रही थी कि यात्रा की जाये या नहीं। जो मित्र साथ जा रहे थे ,वे यात्रा करने पर जोर देने लगे।
यात्रा का समय पास आ गया। तैयारी की जाने लगी। महेन्द्र की माँ सोच रही थी-जब लोग तीर्थ यात्रा पर जाते हैं, उस समय उनके परिजन उन्हें विदा करने जरूर आ जाते हैं। क्या पता फिर मिलना हो न हो? यात्रा तो यात्रा है। हालांकि पहले जमाने में यात्रा बहुत कठिन होती थी। अब समय बदल गया है किन्तु यात्रा पर जाते समय आज भी वही चलन चल रहा है। ऐसे मौके पर बहू मुझसे मिलने जरूर आयेगी। यही सोचते -सोचते यात्रा का दिन आ गया।
उन्हें विदा करने मोहल्ले-पड़ोस के लोग आने लगे।
इतने दिनों बाद बहू के आने की खुशी में बड़े उत्साह में महेन्द्र की माँ चलने को तैयार होकर बैठ गई। पुत्र का सूबह ही फोन आ गया था -मम्मी मैं आ रहा हूँ। वह सोचने लगी उसके साथ बहू-रानी भी साथ आ रही होगी। कुछ ही देर में अकेला पु़त्र महेन्द्र आ खड़ा हुआ।
जिसे आना चाहिये था, बहू-रानी उसे विदा करने नहीं आई। एक क्षण उसके मन में आया कि वह अपनी यात्रा निरस्त करदे। किन्तु अब यह उचित नहीं है। यह सोचकर उसने चलने के लिये अपना बैग उठा लिया। यह देखकर महेन्द्र ने उसके हाथ से बैग अपने हाथ में ले लिया। उन्हें एक हजार का नोट देते हुये, वह अपने पापा की ओर मुड़कर बोला-‘आपने अपना एटीएम कार्ड रख लिया या नहीं।
वह बोले-‘रख तो लिया है ’
‘आप तो फोन कर देना। जितने की जरूरत होगी आपके खाते में डाल दूँगा।’
महेन्द्र की माँ को न चाहते हुये भी पुत्र के दिये हजार रुपये का नोट रखना पड़ा।
इसी समय दामाद और बेटी भी उनसे मिलने आ गये। दामाद हाथ में एक पेकिट लिये था। वह अपनी सासू माँ को देते हुये बोला-‘आपकी बेटी रास्ते के लिये खाना बनाकर लाई है, इसे रखलें।’
शंकर सहाय ने कहा-‘इसकी जरूरत नहीं है। हमारे पास रास्ते के लिये पर्याप्त खाना है, फिर आपकी मम्मी परम्परावादी हैं। वे लड़की के घर का एक ग्रास भी ग्रहण नहीं करने वालीं। मैं तो कहता हूँ, इस जमाने में लड़का और लड़की सब बराबर हैं।’
महेन्द्र की माँ समझ गईं कि पति लड़की के यहाँ का खाना रखना चाहते है, न लेने में उनका मन दुःखी होगा। यह सोचकर उसने पेकिट दामाद के हाथ से ले लिया।
चलते वक्त मान्य-धान्य को कुछ दान-दक्षिणा देने की परम्परा है। यह सोचकर शंकर सहाय ने पत्नी से कहा-‘इन्हें कुछ दे तो दो।’
उसने सौ-सौ के दो नोट उन्हें देने के लिये निकाले और दामाद की ओर हाथ बढ़ाया। वह बोला-‘मम्मी अभी नहीं, जब आप लौटकर आयेंगे, तब ले लेंगे। अभी आप रखलें।’
वे बोलीं-‘लौटकर भगवान और देगा। यह तो हमारे यात्रा बजट में पहले से ही है।’ दामाद और बेटी को पैसे लेने पड़े। परम्परा का पालने हो जाने से महेन्द्र की माँ को अच्छा लगा।
यों कचपचाते मन से यात्रा शुरू हो गई। स्टेशन के छूटते ही वह पति से बोली-‘महेन्द्र की कार खाली आई थी । बहू-रानी को आना होता तो जरूर आ जाती। मेरी तो यह समझ नहीं आता उसके मन में ऐसी कौनसी ऐंठ है !’
शंकर सहाय ने यात्रा खराब नहीं करना चाही ,समझाया-‘तुम्हें अपने पुत्र से तो कोई शिकायत नहीं है ना?’
वह बोली-‘हमें पैसों की जरूरत नहीं थी। उसने अपना कर्तव्य समझा इसीलिये वह हजार का नोट दे गया है। वह भी मजबूर है, इधर गिरे तो कुंआ उधर गिरे तो खाई। घर चलाने के लिये पत्नी की नब्ज साधना भी जरूरी है।’
अब तक अगला स्टेशन आ गया तो यह बात विदा होगई। कहते हैं- यात्रा में घर साथ रहा फिर तो घर ही रहना ठीक है। यह सोचकर ध्यान यात्रा पर केन्द्रित हो गया।
पशुपतिनाथ के बाद नेपाल घूमे और कामाख्या देवी के दर्शन के बाद आसाम की स्वर्ग जैसी सुन्दर घरती पर भ्रमण करने निकल पड़े। बृहद पाट बाली ब्रह्मपुत्र नदी के मध्य छोटी सी पहाड़ी पर शंकर जी का प्राचीन मन्दिर आकर्षण का केन्द्र है। वहाँ नदी के तेज प्रवाह में हिचकोले लेते स्टीमर की सहायता से बड़ी ही मुश्किल से जा पाय। लेकिन वहाँ जाकर खड़े हुए तो सारी दुनिया भूल गये।
नाविक बता रहा था कि भारतवर्ष में बाकी तो सारे दरिया नदी कहलाते हैं और एक ब्रह्मपुत्र नद कहलाता है। सचमुच नद की ही तरह मीलों चौड़ा पाट है इसका और इतना तेज वहाव ही तो सिद्ध करता है कि यह बहती हुई जल राशी है किसी रुक कर ठेलें मारता हुआ तालाब या बाँध का पानी नहीं। रोमांचक यात्रा के बाद टापू पर पहुँचना अद्भुत था। चारों तरफ पानी ही पानी, जल पक्षी और जन शून्यता ने अहसास कराया कि जब दुनिया बनी होगी तो मनु और शतरूपा को कैसा नीरव वातावरण मिला होगा। वहाँ से लौटकर हम कई दिनों तक आनन्द में डूबे रहे।
इस तरह पन्द्रह दिनों व्यतीत हो गये। लौटते वख्त ट्रेन के रास्ते में होने से पटना साहब के दर्शन करने रुक गये। वहाँ के दर्शन करने के उपरान्त महेन्द्र की माँ दुकान से कुछ सामान खरीद ने लगीं। कुछ शगुन के कड़े-चूडियाँ खरीद कर ले आईं और पति को दिखाते हुये बोली-‘देखना ये कड़े बहू और बिटिया को कैसे लगेंगे?’
उन्होंने सोचा- बहू-रानी इनसे बात ही नहीं कर रही है और ये हैं कि उसके लिये शगुन की चीजें खरीद कर ले जा रही हैं। इन्हें पूरा भरोसा हैं कि लौटते समय बहू मिलने जरूर आयेगी। यह सोचकर उन्होंने कह दिया-‘अच्छे हैं, उसको बहुत अच्छे लगेंगे।’
घर लौटते समय महेन्द्र की माँ रास्ते भर सोचती रहीं-‘‘चलो, हमारे घर लौटने पर बहू-रानी हमसे मिलने जरूर आयेगी। किन्तु जब वे अपने कस्बे के स्टेशन पर उतरे, वहाँ उन्हें लेने कोई नहीं आया। यह देखकर उनका चेहरा उतर गया। दूसरे साथी के दोनों लड़के उन्हें स्टेशन से लेने आये थे। उन्होंने इन्हें भी उतारने में मदद की। घर आकर पत्नी बोली-‘ देखा, उनके दोनों लड़के उन्हें लेने स्टेशन आये थे।’’
शंकर सहाय ने सोचा -आज नहीं आये तो क्या हुआ ,शायद कल तक आ जाये। यह सोचकर उसने बात ढकी-‘ महेन्द्र का नया-नया प्रमोशन हुआ है , जमने में समय लगता है। टाइम नहीं मिला होगा।’’
किन्तु इस बात का पत्नी ने कोई उत्तर नहीं दिया।
इसी समय दामाद और लड़की उनसे मिलने आ पहुँचे। इससे उन्हें कुछ राहत सी महसूस हुई।
दो-तीन दिन तक वे लड़के और बहू के आने की बाट जोहते रहे। जब यह लगने लगा कि कोई भी मिलने आने वाला नहीं है तो महेन्द्र की माँ बोली-‘ये सारा प्रसाद दिनारा होता जा रहा है, खराब हो गया तो बच्चे उसे खायेंगे भी नहीं ,फेंकते फिरेंगे। इससे अच्छा है आप ही जाकर प्रसाद दे आओ।’
पत्नी की बात उसे ठीक लगी। वह दूसरे दिन प्रसाद देने उनके पास ग्वालियर चला गया।
बहू को प्रसाद का पैकिट देते हुये वे बोले-‘‘इसमें तुम्हारे लिये शगुन की चूड़ियाँ हैं।’’
बहू ने उस पैकिट को खेालकर देखा, उसमें सम्भालकर सगुन की चूड़ियाँ रखीं थीं। बड़ी देर तक वह उन्हें देखती रही फिर बोली-‘पापाजी मैं ऐसी चूड़ियाँ पहनती ही नहीं हूँ।’
शंकर सहाय ने समझाया-‘ये सगुन कीं हैं। महेन्द्र की माँ इन्हें बडे सौख से तुम्हारे लिये लेकर आईं हैं। इन्हें पहन लेना चाहिये।’
फिर एक पल रुककर वे बोले- जाते वक्त उन्हें उम्मीद थी कि महेन्द्र के साथ तुम भी आओगी।
‘पापाजी मेरा इन बातों में विश्वास नहीं है, पुराने जमाने में यात्राएँ कठिन होतीं थीं। उस समय इतने साधन नहीं थे और खत्रायें कठिन होतीं थीं। लोग सोचते थे,यात्रा पर जाने वाले लौटेंगे या नहीं। अब समय बदल गया है। तीर्थ यात्रा पिकनिक पर जाने जैसा हो गया है। अब तो लोग ए0सी0 ट्रेन से तीर्थ यात्रा करने जाते है। न जाने का पता चलता है न आने का। अब तो यात्रा पर जाने वालों को विदा करने जाना, परम्परा की घसीटन रह गई है।’
बहू का यह दर्शन सुनते हए शंकर सहाय उस कक्ष से बाहर निकल आये।