आशा की यातना : विलिए दि ल’आइल-एदम
फ्रेंच लेखक एदम (1838-89) बहुमुखी प्रतिभा का धनी था। उसके पिता कट्टर जातिवादी थे, लेकिन एदम स्वयं को इन व्यर्थ के बन्धनों में न बाँध सका, इसलिए जीवन भर अभाव में रहा। उसने अपनी अनुभूतियों को तीखे व्यंग्य में अभिव्यक्ति दी। उसने कहानियाँ, उपन्यास और नाटक लिखे।)
सूरज डूब चुका था। सारागोसा का वयोवृद्ध धर्माधिकारी पेड्रो अर्बुएज डि’ एस्पिला अँधेरी सीढ़ियों से उतर रहा था। उसके पीछे-पीछे एक जल्लाद और आगे-आगे लालटेनें लिये हुए दो सेवक चल रहे थे। वह एक गुप्त तहखाने की ओर जा रहा था।
एक भारी-भरकम दरवाजे का ताला खुला और वे तहखाने की उस तंग कोठरी में पहुँच गये, जहाँ धुँधली-धुँधली रोशनी में एक मानवशरीर दिखाई दे रहा था, जिस पर कोड़ों की मार से जगह-जगह खून निकलकर जम गया था। पास ही एक तसला और पत्थर की सुराही रखी हुई थी। पयाल के ढेर पर एक आदमी बैठा हुआ था, जिसकी उम्र का ठीक-ठीक अनुमान लगाना भी कठिन था। उसकी गरदन में लोहे का एक कड़ा पड़ा हुआ था, जिसे लोहे की जंजीरों से दीवार से लगे हुए कुन्दों से जोड़ दिया गया था।
यह कैदी अरागान का रहने वाला यहूदियों का पादरी रब्बी आसर अबरबानेल था। उस पर सूदखोरी और गरीबों के साथ बेरहमी का इल्जाम लगाया गया था और पिछले एक साल से रोज उसे यन्त्रणाएँ दी जा रही थीं। फिर भी वह अपनी हठधर्मी के कारण अपनी धार्मिक आस्था पर अडिग था।
वयोवृद्ध पादरी अर्बुएज डि’ एस्पिला इस बात पर निराश हो गया था कि ऐसी अडिग आत्मा मोक्ष से वंचित रह जाएगी। आँखों में आँसू भरकर उसने भय से काँपते हुए रब्बी की ओर बढ़ते हुए कहा था -
“बेटा, खुश रहो, कि तुम्हारी मौजूदा मुसीबतों का दौर खत्म होने को आया। तुम्हारी हठधर्मी के कारण मुझे जोर-जबरदस्ती का सहारा लेना पड़ा, लेकिन मैं तुम्हें अपना भाई समझकर सुधारना चाहता था, मैं अपना फर्ज पूरा कर चुका। तुम अंजीर के उस बाँझ पेड़ की तरह हो जिसकी जड़ें फल न आने के कारण सूखने लगती हैं... लेकिन तुम्हारी आत्मा का अन्तिम निर्णय तो भगवान ही करेगा। हो सकता है कि निर्णय की उस घड़ी में वह कृपासिन्धु अपनी ज्योति से तुम्हारा पथ आलोकित कर दे। हम तो यही आशा करते रहेंगे।
“तथास्तु! आज की रात तुम शान्ति से सोओ। कल तुम्हें सूली पर चढ़ाकर आग में जलाया जाएगा, जो नरक की उस आग की प्रतीक है, जिसमें तुम्हें जलना है। बेटा, शायद तुम्हें मालूम हो कि इस आग की आँच काफी दूर रहती है और मरने में कभी-कभी दो-तीन घण्टे लग जाते हैं, क्योंकि हम जिसकी बलि देते हैं, उसके माथे और सीने पर गीला कपड़ा भी बाँध देते हैं। कुल तेंतालीस लोगों की बलि दी जाएगी। तुम्हारी बारी बिलकुल बाद में आएगी। तुम्हें परमात्मा से प्रार्थना करने का काफी समय मिलेगा। इसलिए उस दिव्य ज्योति में विश्वास रखकर सो जाओ।”
इस प्रवचन के बाद डाम अर्बुएज ने बड़े स्नेह से उस यहूदी को गले लगाया। उसकी जंजीरें खोल देने की आज्ञा वह पहले ही दे चुका था। इसके बाद जल्लाद की बारी आयी। उसने भी यहूदी से उन सब यातनाओं के लिए क्षमा माँगी, जो उसकी मुक्ति के लिए उसे देनी पड़ी थीं। उसके बाद उन दोनों सेवकों ने भी यहूदी का माथा चूमा। यह रस्म पूरी होने के बाद कैदी को अँधेरे में अकेला छोड़ दिया गया - अपनी मौत का इन्तजार करने के लिए।
रब्बी अबरबानेल के होठ सूख रहे थे। यातनाएँ सहते-सहते उसकी सूरत बिगड़ गयी थी। वह बड़ी देर तक यों ही दरवाजे की ओर देखता रहा। “बन्द दरवाजा?...” इन शब्दों ने उसके अन्तरतम में विचारों का एक क्रम आरम्भ कर दिया, क्योंकि एक क्षण के लिए उसे ऐसा लगा कि दरवाजे और चौखट के बीच की सन्द में से उसे लालटेन की चमक दिखाई दी है।
सहसा उसके क्षीण मस्तिष्क में एक उन्मत्त आशा की किरण जगमगा उठी, वह घिसटता हुआ उस रोशनी की ओर बढ़ा, जो अभी देखी थी। बहुत धीरे से, बड़ी सावधानी से उसने चौखट की सन्द में उँगली डालकर दरवाजा अपनी ओर खींचा। कमाल हो गया! सेवक ने दरवाजा पूरी तरह बन्द होने से पहले ही चाभी घुमा दी थी। जरा-सा खींचने पर ही दरवाजा खुल गया।
रब्बी ने जान पर खेलकर बाहर झाँका। उसके ठीक सामने छह-सात पत्थर की सीढ़ियाँ चढ़कर एक अँधेरा गलियारा था, जो आगे जाकर एक बहुत चौड़े बरामदे में निकलता था।
दीवार से चिपके-चिपके, वह आगे बढ़ता हुआ बरामदे की चौखट तक पहुँच गया। उसमें बहुत हलकी रोशनी थी - जैसे सपने की रोशनी, गलियारे का दूसरा छोर अँधेरे में खो गया था। उसकी पूरी लम्बाई में एक भी दरवाजा नहीं था। सिर्फ बायीं ओर मोटी-मोटी दीवारों में रोशनदान थे, जिनमें मोटे-मोटे जँगले लगे हुए थे। कैसी भयानक खामोशी थी!... शायद इन्हीं अँधेरी परछाइयों के बीच आजादी का कोई रास्ता छुपा हो!
आगा-पीछा सोचे बिना वह बाहर निकलकर पत्थर की सीढ़ियों तक आ गया और दीवार से सटकर आगे बढ़ने लगा। घिसट-घिसटकर वह आगे खिसकता रहा। जहाँ थोड़ी-थोड़ी रोशनी थी, वहाँ से वह जल्दी से आगे निकल जाने की कोशिश करता। जख्मों में टीस उठती, तो कराह को जोर लगाकर दबा देता।
अचानक गलियारे के पथरीले फर्श पर जूतों की चाप सुनाई दी। वह काँप उठा। क्या उसकी सारी आशाओं पर पानी फिर जाएगा? वह एक खम्भे की आड़ में दुबक गया।
तेज कदमों की आहट जानी-पहचानी थी। चलनेवाले के हाथ में लोहे का एक पंजा था, जिससे वह शरीर से मांस नोच लेता था। वह तेजी से चलता हुआ उसके पास से गुजर गया। डर के मारे यहूदी को काठ मार गया था।
लगभग एक घण्टे तक वह वहीं दुबका पड़ा रहा। इस डर से कि अगर वह पकड़ा गया, तो उसे क्या-क्या यातनाएँ सहनी पड़ेंगी। उसने एक क्षण को सोचा कि क्यों न वापस चला जाए? लेकिन उसके मन में छुपी हुई आशा ने उसके कान में कहा - शायद निकल ही जाओ। दैवी संयोग की वह आशा, जो कठिन-से-कठिन मुसीबत में भी ढाढस बँधाती है। ऐसा ही कुछ चमत्कार हो गया था, इसमें तो कोई सन्देह नहीं रह गया था।
वह फिर घिसट-घिसटकर अपनी सम्भावित मुक्ति के द्वार की ओर बढ़ने लगा। वह पीड़ा और भूख से शिथिल हो चुका था। फिर भी वह आगे बढ़ता रहा। वह अँधेरा गलियारा लम्बा ही होता जा रहा था। निरन्तर आगे सरकते हुए वह सामने उस अन्धकार में घूरता रहा। भाग निकलने का कोई रास्ता जरूर होगा!
ओह! फिर कदमों की चाप सुनाई दी। लेकिन इस बार ये कदम इतने तेज नहीं थे, और चाल भी गम्भीर थी। दूर सिरे पर धुँधली-धुँधली रोशनी में काले और सफेद लबादों में दो धर्माधिकारियों की आकृतियों की झलक दिखाई दी। वे धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। शायद किसी महत्त्वपूर्ण विषय पर विचार कर रहे थे, क्योंकि उनके हाथ कुछ इसी तरह चल रहे थे।
उन्हें देखते ही यहूदी ने अपनी आँखें मूँद लीं। उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। वह ठण्डे पसीने में नहा गया। वह दीवार और खम्भे से बनने वाले एक कोने में निश्चल पड़ा था। उसकी साँस जोर से चल रही थी। ठीक उसके ऊपर छत से लटका हुआ लैम्प अपनी रोशनी बिखेर रहा था। वह ईश्वर से प्रार्थना कर रहा था। अनजाने ही दोनों धर्माधिकारी ठीक उसके पास आकर लैम्प के नीचे खड़े हो गये। उनमें से एक अपने साथी की बात सुनते हुए सीधे यहूदी की ओर देखने लगा। उसकी पैनी दृष्टि के नीचे यहूदी को ऐसा लगा, जैसे कोई उसके बचे-खुचे मांस में सलाइयाँ चुभो रहा है। एक बार फिर उसका सारा शरीर घावों से भर उठेगा। वह एक साकार घाव हो जाएगा। उसे मूर्च्छा-सी आने लगी। उसकी साँस रुकने लगी। पलकें जल्दी-जल्दी झपकने लगीं। एक धर्माधिकारी का लबादा उसके शरीर को छू गया। वह सिहर उठा।
बात कुछ विचित्र थी। लेकिन बिलकुल स्वाभाविक भी थी। धर्माधिकारी की आँखें यहूदी की ओर जरूर देख रही थीं, पर उसे नहीं देख रही थीं। वह अपने साथी की बात सुनने में खोया हुआ था और शायद सोच रहा था कि उसे क्या कहना है।
कुछ ही देर बाद वे दोनों बातें करते हुए उसी ओर चले गये, जिधर से कैदी आया था ‘उन्होंने मुझे देखा नहीं!’ चेतनाओं की इस भयानक उथल-पुथल में एक क्षण के लिए उसके मन में बिजली की तरह यह विचार कौंध गया : “शायद मैं मर चुका हूँ, इसलिए कोई मुझे देख नहीं पाता।”
उसे लगा कि ठीक उसके सामनेवाली दीवार पर से दो आँखें उसकी आँखों में घूर रही हैं। उसने आतंकित होकर अपनी गरदन को झटका दिया... ‘यह नहीं हो सकता।’ वह अपने हाथों से पत्थरों को टटोलने लगा। ये भयानक आँखें धर्माधिकारी की आँखों का प्रतिरूप था, जो यहूदी की आँखों पर अंकित हो गया था। जिस समय धर्माधिकारी की आँखें उसकी पुतलियों पर सीधी गड़ी हुई थीं, उस समय उसने अपनी दृष्टि दीवार के उसी स्थान पर जमा रखी थी, जहाँ इस समय उसे वे दो आँखें दिखाई दे रही थीं।
‘आगे बढ़ो!’ उसके अन्दर से किसी ने उसे झिंझोड़ा। उसे आगे बढ़ते रहना होगा - उस ओर, जहाँ उसके विचार में उसकी मुक्ति की मंजिल थी। उन परछाइयों की ओर, जिनसे वह बहुत दूर था, हालाँकि वे उससे तीस कदम से अधिक दूरी पर नहीं थीं। उसने घुटने के बल रेंग-रेंगकर अपनी यात्रा फिर शुरू की और उस गलियारे के सबसे अँधेरे भाग में पहुँच गया।
अचानक उस बदनसीब को ऐसा लगा कि कोई ठण्डी चीज उसके हाथों को छू गयी। यह गलियारे के सिरे वाले दरवाजे के नीचे की सन्द में से आता हुआ ठण्डी हवा का झोंका था। ‘हे भगवान! काश यही दरवाजा बाहर निकलने का दरवाजा हो!’ बन्दी का सारा अस्तित्व एक तेज भँवर में चक्कर खाने लगा। उसने ऊपर से नीचे तक दरवाजे को ध्यान से देखने की कोशिश की, लेकिन अँधेरे में उसे कुछ भी दिखाई न दिया। उसने टटोलकर देखा। न ताला, न जंजीर। बस एक अटक थी। वह उठकर खड़ा हो गया। अटक उँगली के इशारे से हट गयी। दरवाजा खुल गया।
“हलेलूजा!” रब्बी ने ठण्डी आह भरकर मन्द स्वर में कहा। भगवान सचमुच बड़ा कृपालु था। वह सामने घूरने लगा।
सामने एक बाग था। आकाश पर तारे छिटके हुए थे। उसके सामने स्वतन्त्रता का, जीवन के उल्लास का, अनन्त विस्तार था। कैसे निकले, उसके विचार सक्रिय हो उठे। वह रात भर नीबू के पेड़ों के नीचे घूमेगा, जिनकी सुगन्ध उसे मुग्ध कर रही थी। पहाड़ों तक पहुँच जाने पर वह खतरे से बाहर हो जाएगा। उसने ताजा हवा में गहरी साँस ली। ठण्डी हवा से उसके शरीर में फिर जान पड़ गयी। उसके फेफड़े फिर काम करने लगे। भगवान के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए उसने हाथ आकाश की ओर उठाये।
और तब सहसा उसे ऐसा लगा कि उसके हाथों की परछाईं उसकी ओर बढ़ रही है। उसे ऐसा लगा कि परछाईं की बाँहों ने उसे जकड़ लिया। उसे ऐसा लगा कि किसी ने उसे अपने सीने से लगा लिया है। सचमुच उसके सामने एक लम्बा आदमी खड़ा था। उसने बड़े भरोसे के साथ उस आकृति को घूरकर देखा और उसे देखकर हक्का-बक्का रह गया। उसका मुँह खुला का खुला रह गया और डर के मारे उसके शिथिल होठों से राल टपक गयी।
वह महाधर्माधिकारी की बाँहों में जकड़ा खड़ा था। वयोवृद्ध पेड्रो अर्बुएज डि’ एस्पिला की बाँहों में। धर्माधिकारी उसे नजरें जमाकर देख रहा था। उसकी आँखों में बड़े-बड़े आँसू थे उसकी हालत उस गड़रिये जैसी थी, जिसे अपनी खोयी हुई भेड़ मिल गयी हो। उसने बन्दी को इतनी उदारता से अपनी बाँहों में जकड़ लिया कि उसकी कम्बल की कमीज के रोएँ उसके सीने में गड़ने लगे। रब्बी आसर अबरबानेल का शरीर वेदना और क्षोभ से काँप रहा था। उसकी आँखें बन्द थीं। वह समझ गया था कि सूर्यास्त के बाद की सारी घटनाएँ एक योजना के अनुसार हुई थीं - उसे आशा की यातना देने की योजना। धर्माधिकारी ने बड़े निराश और दुखभरे स्वर में धीरे-से उसके कान में कहा :
“बेटा, यह क्या! मुक्ति का क्षण इतना निकट आ जाने पर... क्या तुम हमें छोड़कर जा रहे थे?”