असहमत (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई

Asahmat (Hindi Satire) : Harishankar Parsai

यह सिर्फ़ दो आदमियों की बातचीत है -
“भारतीय सेना लाहौर की तरफ़ बढ़ गई- अंतर्राष्ट्रीय सीमा पार करके।”
“हाँ, सुना तो। छम्ब में पाकिस्तानी सेना को रोकने के लिए यह ज़रुरी है।” “खाक ज़रूरी है! जहाँ वे लड़ें, वहां लड़ना चाहिए या हर कहीं घुसना चाहिए?”
“हाँ उधर नहीं बढ़ना था।” “मगर मैं कहता हूँ क्यों नहीं बढ़ना था? उधर से दबाव पड़ेगा तो इधर तुम्हारे बाप रोक सकते हैं उन्हें?”“फिर तो उधर बढ़ना ही ठीक हुआ।”
“ठीक हुआ! ठीक हुआ! कुछ समझते भी हो इसका क्या मतलब होता है? इसका मतलब होता है – टोटल वार! पूर्ण युद्ध! हमला!”
“हाँ जी, यह तो हमला जैसा ही हो गया।”
“मगर मैं कहता हूँ, जो इसे हमला कहता है, वह बेवक़ूफ़ है। हम तो हमले का मुक़ाबला करने के लिए बढे हैं।” “इस दृष्टि से तो हमारा बढ़ना सुरक्षात्मक कार्रवाई हुआ।”
“मगर सुरक्षात्मक कार्रवाई कहकर तुम दुनिया की नज़रों में धूल नहीं झोंक सकते जो हुआ है, वह सबको दिख रहा है।”
“हाँ, विल्सन ने तो ऐसा कुछ कहा भी है।”
“तुम विल्सन के कहने की परवाह क्यों करते हो? जो तुम्हें सही दिखे, करो।” “बिलकुल ठीक है। जो देश के हित में हो, वही हमें करना चाहिए।”
“देशहित की बात करते हो! देशहित कोई समझता भी है? सिर्फ़ देशहित देखोगे या अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया का भी ख्याल रखोगे?” “ठीक कहते हो। आज की दुनिया में अंतर्राष्ट्रीय प्रतिक्रिया देखना भी ज़रूरी है।”
“मगर मैं कहता हूँ, अंतर्राष्ट्रीय रुख ही देखते रहोगे या देश के भले की भी कुछ सोचोगे? अंतर्राष्ट्रीयता की धुन में ही तो तुम लोगों ने देश को गर्त में डाल रखा है।”

इस बातचीत में जो लगातार सहमत होने की कोशिश करता रहा, वह मैं हूँ। मैं उससे बहस नहीं करता, मतभेद ज़ाहिर नहीं करता, सिर्फ़ सहमत होना चाहता हूँ। पर वह सहमत होने नहीं देता। वह कभी किसी को सहमत नहीं होने देता। अगर कोई सहमत होने लगता है तो वह झट से असहमति पर पहुँच जाता है। सहमति से भी वह नाराज़ होता है और असहमति से भी। पर असहमति का विस्फोट बड़ा भयंकर होता है। इसलिए मैं सहमत होते-होते निकल जाता हूँ, जैसे आंधी आने पर आदमी ज़मीन पर लेट जाये। उसने मेरी तरफ़ देखा। मैं कुछ नहीं बोला। दूसरी तरफ़ देखने लगा। वह खिसियाया- कैसे बेवक़ूफ़ से पाला पड़ा है! खीजा-कैसे बेईमान लोग हैं। क्रोधित हुआ- सबको देखूँगा! तना- मैं किसी की परवाह नहीं करता! ढीला हुआ- कैसा दुर्भाग्य है! दुखी हुआ-ऐसों की चलती है, मेरी नहीं चलती, मन में फिर तनाव आया। वह अँगुलियों के कटाव गिनता हुआ जल्दी-जल्दी चला गया।

सारी दुनिया ग़लत है। सिर्फ़ मैं सही हूँ, यह अहसास बहुत दुःख देता है। इस अहसास में आगे की अपेक्षा होती है कि मुझे सही होने का श्रेय मिले, मान्यता मिले, क़ीमत भी मिले। दुनिया को इतनी फ़ुर्सत होती नहीं है कि वह किसी कोने में बैठे उस आदमी को मान्यता देती जाए जो सिर्फ़ अपने को हमेशा सही मानता है। उसकी अवहेलना होती है।

अब सही आदमी क्या करे। वह सबसे नफ़रत करता है। खीजा रहता है। दुःख भरे तनाव में दिन गुज़ारता है। इसकी दुनिया से इसी तरह की लड़ाई है। पर वह मुझसे ही क्यों उलझता है? हर बार मुझे ही ग़लत क्यों सिद्ध करता है? बात यह है कि पूरी दुनिया से एक साथ लड़ा नहीं जा सकता। दुनिया के हज़ारों मोर्चे हैं और करोड़ों लड़ने वाले हैं। मगर दो देशों की लड़ाई में पूरे देश आपस में नहीं लड़ते। सिपाही से सिपाही लड़ता है। लड़ने के मुआमले में सिपाही देश का प्रतिनिधि होता है। उन कुछ लोगों को, जिनसे उसकी अक्सर भेंट होती है, उसने दुनिया का प्रतिनिधि मान लिया है। इनमें भी सबसे ज़्यादा मुलाक़ात मुझसे होती है, इसलिए इन कुछ का प्रतिनिधि मैं हुआ। इस तरह दुनिया का प्रतिनिधि मैं बन गया। मुझे ग़लत बताता है तो दुनिया ग़लत होती है। मुझे गाली देता है तो दुनिया को गाली लगती है। मुझ पर नाराज़ होता है तो दुनिया पर नाराज़गी ज़ाहिर होती है। मैं दबता हूँ तो दुनिया को दबा देने का सुख उसे मिलता है। सारी दुनिया की तरफ़ से इस मोर्चे पर मैं खड़ा हूँ और पिट रहा हूँ। वह मुझसे नफ़रत करता है। मगर मुझे ढूँढता है। कुछ दिन नहीं मिलूँ, तो वह परेशान होता है। जिससे नफ़रत है, उससे मिलने की इतनी ललक प्रेम-सम्बन्ध में भी नहीं होती। मुझसे मिलकर मुझे ग़लत बता कर, मुझ पर खीजकर और मुझे दबाकर जो सुख उसे मिलता है, उसके लिए वह मुझे तलाशता है। विश्व-विजय के गौरव और संतोष के लिए योद्धा दुनिया भर की खाक छानते थे। वह कुल चार-पांच मील सड़कों पर मुझे खोजता है तो दुनिया को जीतने के लिए कोई ज़्यादा नहीं चलता।

अगर सारी दुनिया ग़लत और वह सही है तो मैं ग़लत हूँ और वह सही है। मैं पहले उससे असहमत भी हो जाता था। तब वह भयंकर रूप से फूट पड़ता था। उसे ग़लत माने जाने पर गुस्सा आता था। वह लड़ बैठता था। गाली-गलौज पर आ जाता था। मैंने सहमत होने की नीति अपनाई। मैं सहमत होता हूँ तो वह सोचता है, यह कैसे हो सकता है कि मैं और दुनिया, दोनों ही सही हों। दुनिया सही हो ही नहीं सकती। वह झट से ठीक उलटी बात कहकर असहमत हो जाता है। तब वह एकमात्र सही आदमी और दुनिया ग़लत हो जाती है। मैं फिर सहमत हो जाता हूँ तो वह फिर उस बात पर आ जाता है जिसे वह खुद काट चुका है।

“बहुत भ्रष्टाचार फैला है।” “हाँ, बहुत फैला है।”
“लोग हल्ला ज़्यादा मचाते हैं। इतना भ्रष्टाचार नहीं है। यहाँ तो सब सियार हैं। एक ने कहा, भ्रष्टाचार! तो सब कोरस में चिल्लाने लगे भ्रष्टाचार!”
“मुझे भी लगता है, लोग भ्रष्टाचार का हल्ला ज़्यादा उड़ाते हैं।” ” मगर बिना कारण लोग हल्ला नहीं मचाएँगे जी? होगा तभी तो हल्ला करते हैं। लोग पागल थोड़े ही हैं।”
“हाँ, सरकारी कर्मचारी भ्रष्ट तो हैं।” “सरकारी कर्मचारी को क्यों दोष देते हो? उन्हें तो हम-तुम ही भ्रष्ट करते हैं।”
“हाँ, जनता खुद घूस देती है तो वे लेते हैं।” “जनता क्या ज़बरदस्ती उनके गले में नोट ठूंसती है? वे भ्रष्ट न हों तो जनता क्यों दे?”

कोई घटना होती है तो वह उसके बारे में एक दृष्टिकोण बना लेता है और उससे उसका उल्टा दृष्टिकोण पहले ही मन में हमारे ऊपर मढ़ देता है। फिर वह हमसे उस आरोपित दृष्टिकोण के लिए नफ़रत करता है। नफ़रत इतनी इकट्ठी हो जाती है कि वह उस घटना के लिए ज़िम्मेदार भी हमें मान लेता है। चीन ने भारत को तीन दिन का अल्टीमेटम दिया तो उसे लगा, जैसे अल्टीमेटम हमने दिया हो। बस्तर में आदिवासियों पर गोली हमने ही चलायी। रोडेशिया में गोरी तानाशाही क़ायम हो गई तो, उसे लगा, जैसे हमने ही इयान स्मिथ की सरकार बनवा दी हो। वियतनाम पर अमेरिकी बमबारी फिर शुरू हो गई तो उसने मान लिया कि हमने ही बम-वर्षा का हुक्म दिया है। कुछ दिन वह ख़ूब भन्नाता रहा। मिला नहीं। एक दिन वह मिल गया। ऐसे मिला, जैसे युद्ध-अपराधियों से मिल रहा हो। मिलते ही फूट पड़ा- “तुम्हारे अमेरिका ने फिर बम बरसाना शुरू कर दिया है।” उसने हमें ऐसे देखा, जैसे पुलिस हत्यारे को देखती है।

हमने कहा, “यह बहुत बुरा किया। इससे क्रांति की आशा फिर नष्ट हो गई।” वह एक क्षण को सहम गया। वह कई दिनों से हमें बमबारी का समर्थक मानकर हमसे नफ़रत कर रहा था। मगर हम तो बमबारी की निंदा कर रहे थे। अब वह क्या रुख अपनाये! उसे सँभालने में ज़्यादा देर नहीं लगी। खीजकर बोला, “शांति? व्हाट डू यू मीन बाई शांति? यह शब्द झूठा है। सब साले शांति की बात करते हैं और लड़ाई की तैयारी करते हैं!”

हम चुप। उसे संतोष नहीं हुआ। उसने साफ़ रुख अपना लिया, “कह दिया, बुरा किया क्या बुरा किया? उत्तर से दक्षिण में फ़ौज आती हैं, चीनी हथियार आते हैं। उसके ठिकानों पर बम गिराए बिना कैसे काम चलिएगा?” “इस दृष्टि से तो बमबारी ठीक मालूम होती है।”
“क्यों ठीक है? नागरिक क्षेत्रों पर बम बरसाना ठीक है, यह कहते शर्म आनी चाहिए!”
“हाँ, नागरिक क्षेत्र पर अलबत्ता बम नहीं गिरना चाहिए।”
“मैं कहता हूँ, कहीं भी क्यों गिराना चाहिए? अमेरिका को क्या हक़ है इधर आने का? यह उसके राज्य का हिस्सा नहीं है।” “ठीक कहते हो। एशिया में अमेरिका को हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।”

“मगर बहुत से बेवक़ूफ़ इस नारे को बिना समझे लगाते हैं। वे भूल जाते हैं कि इधर चीन बैठा है जो सबको निगल जाएगा।” हम चुप हो गए। वह कुछ भुनभुनाता रहा। फिर झटके से उठा और अँगुलियों के कटाव गिनता हुआ फुर्ती से चला गया।

गोरे और सुडौल इस जवान के कपाल पर तीन रेखाएँ खिंची रहती हैं। हमेशा तनाव में रहता है। नौकरी उसकी साधारण है। एक कॉलेज में पढ़ाता है। कॉलेज से नफ़रत करता है। लौटता है तो जैसे पाप करके लौट रहा हो। प्रिंसिपल से, साथियों से, विद्यार्थियों से नफ़रत करता है। बगीचे में खिले फूलों से भी उसे नफ़रत है। मकानमालिक से इसलिए नाराज़ है कि मकान उसका है। नगरपालिका से सड़क के लिए नाराज़ है। नाले से मच्छरों के लिए नाराज़ है। दुनिया से क्यों नाराज़ है, यह ठीक वही जानता होगा। मैं अंदाज़ ही लगा सकता हूँ। शुरू में ही उसने दुनिया से कुछ ज़्यादा ही उम्मीद कर ली होगी। बहुत से नौजवान मौजूदा हालात के सन्दर्भ में महत्वाकांक्षा नहीं बनाते। वह अनुपात से ज़्यादा हो जाती है। बहुत से तो अपने पिता के ज़माने के सन्दर्भ में महत्वाकांक्षा बना लेते हैं – पिता के ज़माने में हर एम. ए. पास प्रोफ़ेसर हो जाता था, अब नहीं होता। मगर उस सन्दर्भ में जो एम.ए. होकर प्रोफ़ेसर बनने का तय कर लेता है, वह अक्सर निराश होता है। इस आदमी ने भी जवानी के शुरू में तय कर लिया होगा कि मुझे दुनिया से इतना मिलना चाहिए, यह मेरा हक़ है। इस हिसाब से कहीं वह गड़बड़ कर गया। उसने योग्यता के हिसाब से महत्वाकांक्षा नहीं बनाई। अपने मूल्य-निर्धारण में वह ज़्यादा ही उदार हो गया। उसने शुरू में ही विशिष्टता से अपने को मण्डित कर लिया। साधारण से विशिष्ट बनने की ज़रूरत उसने नहीं समझी। उसने मौजूदा ज़माने की स्पर्धा, पक्षपात और चतुरता को भी नज़रंदाज़ कर दिया। कॉलेज में पढ़ाना चाहता था तब इस घटिया कॉलेज में नौकरी मिली। उसने मान लिया कि दुनिया ने उसकी क़ीमत नहीं दी। उसके साथ अन्याय किया और सिर्फ़ उसी के साथ। वह आसपास आगे बढ़ते हुए तुच्छ लोगों की भीड़ देखता और सबसे नफ़रत करता है। उसका व्यक्तित्व टूटता है, वह उसे जैसे-तैसे समेटकर दुनिया के सामने चुनौती देकर खड़ा होता है। स्थायी असहमति उसका अपने आपको जोड़ने का प्रयत्न है। इससे वह विशिष्ट बने रहने की कोशिश करता है क्योंकि विशिष्ट हुए बिना वह जी नहीं सकता। एक बार ही मैंने उसे सहमत होते पाया है। उसने केन्द्रीय सरकार में किसी बड़ी नौकरी के लिए आवेदन किया था। वह उसे नहीं मिली। मुझे मिला तो मैंने पूछा।
उसने कहा, “नहीं मिली”

मैं डर रहा था कि कहीं इसने इसके लिए भी मुझे ही ज़िम्मेदार न मान लिया हो। पर उसकी आँखों में ऐसा आरोप-भाव नहीं था। मेरी हिम्मत बढ़ी। मैंने कहा, “आजकल पक्षपात बहुत चलता है।” वह सहमत हो गया। बोला, “ठीक कहते हो। ऊपर के लोग अपनों को अच्छी जगह फ़िट करते हैं।”
“और योग्य आदमियों की अवहेलना होती है।” “हाँ, और नालायक ऊँचे पदों पर बिठाये जाते है।”
“तभी तो सब जगह स्तर गिर रहा है।” “अरे भाई! स्तर तो कुछ रहा ही नहीं।” “पता नहीं, कब तक यह अंधेर चलेगा!”
“मैं भी यही सोचता हूँ कि आखिर ऐसा कब तक!”
सहमति के इस दुर्लभ क्षण को मैं बिगड़ने नहीं देना चाहता था। इसलिए इससे पहले कि वह किसी बात पर असहमत हो उठे, मैं चल दिया। वही भी मुड़ा। मगर वह अँगुलियों के कटाव नहीं गिन रहा था।

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