असभ्य मोची (स्पेनिश कहानी) : यूसेबियो ब्लास्को

Asabhya Mochi (Spanish Story in Hindi) : Eusebio Blasco

मैं जो तुम्हें बताने जा रहा हूँ वह मुझे डॉन जोसे एचगारे ने चार शब्दों में बताया था।

यह उदासीन दर्शन की कहानी है और जीवन की कई दशाओं में लगाई जा सकती है क्योंकि हम सबने इस निचली दुनिया में कुछ चीजों के बारे में मायाजाल रच लिया है और हमें सत्यता ने इस बुरी तरह से छोड़ दिया है, जैसे डॉन क्यूजोटे ।

यह कहानी या घटना जॉन जोसे ने एंटेनियो में सद्भावपूर्ण बातचीत के दौरान सुनाई। उसने अपनी प्रधानता के एक वर्ष तक तूफानी सभागार में लगाया जिसका वर्णन सुनकर मैंने स्वयं को भाग्यहीन प्रतिनिधि के चुनाव में लगाया और मुझे अन्य किसी बात की इच्छा नहीं हुई ।

रुचिवान पाठक भी इसको अपने जीवन की दशाओं में लगा सकता है।

कहानी इस प्रकार है-

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एक मोची था जो अपनी जूते की दुकान में अपने आपको बंद करके रहता था अर्थात् एंडलूशियन नगर के मकान की सबसे ऊँची मंजिल पर - यह ध्यान रखते हुए कि जब वह काम करे तो केवल खिड़की से सूर्य की रोशनी उस अप्रसन्न प्रवीण मोची पर गिरे ।

जैसा मैंने कहा, यह दक्षिण के एक नगर की घटना है और जहाँ यह घटना हुई, सूर्य उस उपजाऊ क्षेत्र को अपनी किरणों से नहलाता था, वह यानी सूर्य विनीत मोची के पास कुछ घंटों के लिए एक किरण के रूप में पहुँचता था ।

छोटी खिड़की की सलाखों में से वह नीले, शुद्ध और साफ आकाश को देखता था और जब वह अपने चमड़े को फैलाता था, उसमें कील ठोंकता था तो अभी तक किसी अनजाने देश के लिए, घर से दूर रहने की किसी अबूझ खिन्नता से, सिसकियाँ भरता था ।

'सैर-सपाटे के लिए क्या प्यारा दिन है!' वह प्रायः अपने आपसे कहता और जब कोई ग्राहक उसके पास, गाड़ीवान् की या कोनेवाले हरकारे की, गंदे जूतों की जोड़ी लाता तो यह मोची उससे पूछता—

"क्या बाहर सब संतोषप्रद है?"

" एक शानदार दिन, अप्रैल में इससे अधिक संतोषप्रद दिन कभी नहीं हुआ। न सर्द, न गरम और भड़कीला सूर्य । " जवाब मिला ।

एक दिन ऐसा ही जवाब सुन मोची ने पहले से अधिक दुःख के साथ गहरी साँस ली; जूते पकड़े और निर्दयता से कोने में यह कहते हुए फेंक दिया, "तुम लोग कितने भाग्यवान् हो! जूतों के लिए शनिवार को आना। छह रीयल लगेंगे। "

उसने एक गीत गाकर संतोष करना चाहा जिसको वह रात होने तक दोहराता रहा।

वह जो नहीं ले सकता
अपनी स्वतंत्रता का मजा
उसे मरने का भय कैसा?
वह तो पहले ही मर चुका ।

फिर आकाश की ओर इच्छापूर्ण नजरें और सूर्यास्त तक अधिक सिसकियाँ । अप्रसन्न आदमी अँधेरा होता देखकर लगभग खुश हुआ। उसकी शोकाकुल दशा और कठोर स्थिति ने सायंकाल तक हवा खाने से उसे रोके रखा।

एक दिन एक ग्राहक, जो उसी घर में रहता था, मरम्मत के लिए देसी जूते की जोड़ी लेकर उसके कमरे में आया और जैसे ही मोची ने अपने असभ्य विचारों से विलाप किया कि वह देश को देख नहीं सका जिसकी उसे चाहना थी, दूसरे ने उससे कहा, "तुम ठीक कहते हो, गास्पर चाचा और इसलिए मैं कहता हूँ कि दुनिया में सबसे अधिक प्रसन्न गधे हाँकनेवाले हैं।"

"क्या वास्तव में गधे हाँकनेवाले हैं?"

“वस्तुतः! वे आते-जाते हैं, हमेशा ताजा हवा खाते हैं, फूलों को सूँघते हैं! दुनिया के राजा, हाँ, यह सबसे उत्तम काम है । "

जब ग्राहक चला गया तो चाचा गास्पर गहरी सोच में डूब गया ।

उस रात वह सोया नहीं, परंतु सुबह होने तक उसने निश्चय कर लिया- 'कल से दुकान को देखने के लिए मैं अपने भतीजे को कहूँगा और पचास डॉलर जो मैंने बचाए हैं, उनसे एक गधा खरीदूँगा और गधा हाँकनेवाला बन जाऊँगा । "

उसने वैसा ही किया और आठ दिनों में वह कोसारियो बन गया जैसाकि दक्षिण में हरकारों को कहते हैं।

'क्या सुहावना दिन है! क्या स्वास्थ्यवर्धक हवा है। अब मैं जी रहा हूँ और छत के छिद्र के नीचे अपनी जवानी को नष्ट नहीं कर रहा।

"हा, हा, मेरे सुंदर जीवन!" चाचा गास्पर गाता और सड़क के किनारे लगे लंबे फूलों को चुनता अपनी पहली यात्रा पर चला।

एक मील तक उसे कोई व्यक्ति नजर नहीं आया । चाचा गास्पर को ऐसा प्रतीत हुआ कि देहात केवल उसी की मुट्ठी में है।

एकाएक काँटेदार नाशपातियों के पास घूमते हुए दाई ओर के रास्ते से तीन आदमी चिल्लाते हुए उसपर झपटे, " रुक जाओ।"

एक ने गधे को थामा, उसपर सवार हुआ और तेजी से सड़क पर चल दिया, दूसरे ने चाचा गास्पर को पकड़ा और तीसरे ने उससे पैसे, कपड़े, जो कुछ भी उसके पास था, छीन लिया। उन्होंने उसे वहीं नंगा छोड़ दिया ताकि वह उनका पीछा न कर सके। उन्होंने छड़ी से कोई पचास बार उसको मारा, जब तक वह नीला नहीं पड़ गया। उसका शोर राजधानी में अवश्य सुना गया होगा, परंतु किसी व्यक्ति ने नहीं सुना ।

दिन-दहाड़े !

अप्रैल में दिन के तीन बजे, ऐसा उग्र और आकस्मिक आक्रमण !

चाचा गास्पर ने बहुत चीखो-पुकार की।

“सहा.......यता! स—हा— यता, मैं मर - रहा हूँ ।"

पाँच बजे के लगभग एक किसान अपनी गाड़ी में उधर से गुजरा। उसने उसे उठाया और बोरे से लपेटा तथा नगर की ओर मुड़ा; उसको उसके दरवाजे पर छोड़ दिया ।

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भतीजे और पड़ोसियों को हैरानी की हद नहीं रही। मारपीट से टूटे हुए मोची पर प्रश्नों की बौछार होने लगी, परंतु उसने उन्हें कोई उत्तर नहीं दिया। वह कई दिन चुप रहा और एक शब्द भी नहीं बोला। ऐसा प्रतीत होता था कि वह गूँगा हो गया हो !

परंतु एक दिन लगभग तीन बजे सीढ़ियों पर आवाजें सुनाई दीं जो देहात में सैर-सपाटे के लिए जाने के बारे में थीं।

“चलो, दोपहर को बाहर चलें।"

"क्या प्यारा मौसम है !"

" भाइयों से कहो कि मौसम का आनंद लेने के लिए हमारे साथ चलें । "

चाचा गास्पर ने घृणापूर्वक सिर उठाकर, आकाश की ओर देखते हुए कमरे के एकांत में अपने आपसे कहा, “प्यारा मौसम!... उन गधे हाँकनेवालों को कितनी मारपीट का सामना करना पड़ता होगा!'

(अनुवाद: भद्रसेन पुरी)

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