अरुंधती उदास है (कहानी) : प्रकाश मनु
Arundhati Udaas Hai (Hindi Story) : Prakash Manu
1
स्टेशन पर रोज-रोज उसी गुम अँधेरे कोने में, उसी झाड़ के पास खड़ी दिखाई देगी कोई लड़की, गरदन एक खास भंगिमा में मोड़े हुए, तो उत्सुकता तो वह जगाएगी ही। और जाहिर है, कुछ न कुछ खास होगा ही उसमें।
जरूर होगा तभी तो बहुतों का ध्यान उधर रहता था। शाम की इस ई.एम.यू. में खासकर डेली पेसेंजर्स की ही भरमार रहती थी। सो लोग रोज-रोज देखते थे उसे गाड़ी का इंतजार करते। साथ-साथ या आगे-पीछे खड़े होकर खुद भी इंतजार-सा करने लगते थे। गाड़ी का। या शायद उसका—उस गरदन का जो एक खास कोण से मुड़ी होती थी और जहाँ देखती थी (देखकर भी नहीं देखती थी), वहाँ से इधर या उधर नहीं होती थी। मगर उस पर कोई खास नहीं पड़ता था। चेहरे पर खिंचाव तक नहीं। जैसे चेहरा न हो, चुप की एक झिल्ली-सी हो। भीतर और बाहर के बीच एक सख्त दीवार।
और तनाव तो उसके चेहरे पर तब भी नहीं आता था, तब बेवजह धक्का-मुक्की, धींगामुश्ती करते लोग उसी के साथ उसी कंपार्टमेंट में घुसने की कोशिश करते। और ऐन सामने बैठकर उसे घूर-घूरकर देखते।
“यह तनावहीनता किसी बड़े तनाव से आई है या फिर बड़े अभ्यास से।” मुझे लगा था। पहले-पहल इसी पर मेरा ध्यान अटका।
हालाँकि यह नहीं कि वह मुझे सुंदर नहीं लगी। उसकी सुंदरता से अप्रभावित रहना लगभग असंभव था। एक तरह की लयबद्ध लंबी, इकहरी काया—और उस अनुपात से थोड़ा और लंबी गरदन जो एक खास ढंग से मुड़ी रहती थी। (हंस-ग्रीवा शब्द से जबरन बच रहा हूँ!) लेकिन इससे भी अधिक सुंदर तो उसका खड़ा रहने का ढंग था। या फिर हलकी-हलकी उदासी जिसमें वह सिर से पैर तक लिपटी थी।
एकाध बार तो लगा, यह उदासी इसने सायास चिपका ली है—खुद को और बारीक और सुंदर दिखाने के लिए। ये सब भी चोंचले हैं अमीरों के। यों इसे क्या दुख हो सकता है भला? संपन्न घर की है। फिर खुद नौकरी करती है—आत्मनिर्भर! जीवन में कोई और भी दुख होता है क्या?
जो भी हो, मेरा ध्यान उसकी ओर गया, तो फिर कभी ढंग से लौटा नहीं। मैं एक दिलचस्प पहेली में कैद हो गया। कभी खोलता, कभी मन की किसी भीतरी परत में तह करके रख लेता। यानी जब भी थोड़ी फुर्सत में होता, मैं उसके बारे में सोच लेता। और यह सोचना मुझे अच्छा लगता।
स्टेशन पर उसके साथ खड़े होने वालों में मैं नहीं था। पर हाँ, झूठ क्यों बोलूँ! प्लेटफार्म पर आते ही मेरी आँखें पहलेपहल उसी कोने की ओर घूमती थीं। एक बार वह दिखाई दे जाए, बस। फिर मैं निश्चिंत होकर प्लेटफार्म पर चहलकदमी करने लगता। और जिस दिन भी वह न आए, दिन का समापन मुझे बड़ा फीका-फीका, रूखा-रूखा लगता। इसे चाहे तो कहें रिश्ता, जो उसमें और मुझमें अनजाने पनप गया था। या (ज्यादा सही तो यह था) मैंने ही जबरन पनपा डाला था।
2
कुछ दिनों बाद मेरे भीतर इच्छा होने लगी, इससे दो बात तो करूँ। और कुछ नहीं, तो नाम ही पूछ लूँ। और एक दिन तो वाकई मन हुआ, सीधे जाकर कुछ पूछ लूँ, “ऐसी क्या पहेली सुलझा रही हैं आप, जिसे सुलझाते-सुलझाते खुद पहेली बन गईं?”
तुरंत भीतर जो सही आदमी था, उसने चाँटा जड़ा, “यह तो सरासर बत्तमीजी है यार! कोई कैसे जिए न जिए, तुम्हें क्या? अजीब अहमक हो।” और उठते कदम रुक गए।
यों हैरानी इस बात की है कि उससे बोलने-बतियाने की बात दिमाग में आती, तो हिचक बिलकुल नहीं होती थी। जैसे जाऊँगा और सीधे बात कर लूँगा। ठीक से देखे, जाने बगैर भी, न जाने कैसा यह अंतरंग विश्वास था।
और अगर भय, संकोच था तो उस भीड़ का जो उसे आँखों में कैद किए रहती। मान लो मैंने कोई बात कही और उसने जवाब नहीं दिया, या फिर कुछ ज्यादा ही हँस पड़ी या एकदम खामोश हो गई—बर्फ की मानिंद! मान लो...मान लो—मैं एक भँवर की-सी गिरफ्त में आ गया।
लेकिन बाद में पता चला, जैसे मैं उसे जानता था, वह भी मुझे जानती जरूर थी, यह अलग बात है कि वह मेरे बारे में वैसे सोचती न हो। और दो-एक समानताएँ भी थीं। जैसा थैला वह लटकाए रहती थी, मेरे कंधों पर भी करीब-करीब वैसा ही थैला टँगा होता। यह दीगर बात है कि उसका थैला कुछ-कुछ रेशमी डिजाइनदार, हलका-फुल्का और खासा साफ-सुथरा होता। और मेरे खद्दर के बदरंग, मैले-कुचैले थैले में ठसाठस भरी किताबें किसी भीड़भरी डी.टी.सी. बस की याद दिलातीं! वह प्लेटफार्म पर एक तरफ, एक कोने में खड़ी रहती और मैं गाड़ी आने तक प्लेटफार्म के तीन-चार चक्कर लगा चुकता।
और मुझे लगता था, उसकी न घूमने वाली निगाह, कभी-कभी बहुत बेमालूम ढंग से, आहिस्ते से मेरे थैले को टटोल लेती है।
एक दिन इसका सबूत भी मिला। और उसी दिन परिचय की एक धीमी शुरुआत भी हुई।
उस दिन गाड़ी कुछ ज्यादा ही लेट थी। और मुझे घर पहुँचने की जल्दी। एक मित्र को समय दिया हुआ था। हड़बड़ी में जल्दी-जल्दी प्लेटफार्म के चक्कर काट रहा था। करीब पौन घंटा देर से गाड़ी आई, तो भीड़ उसमें दाखिल होने के लिए बेकाबू हो चुकी थी। मैं भी भीड़ के बीच से रास्ता बना रहा था कि अचानक मेरा थैला उससे टकराया। भीड़ में वह भी थी। मैंने देखा ही नहीं।
“माफ कीजिए, आपको...!” मेरे मुँह से डरे-डरे, बदहवास-से दो-एक शब्द निकले। किताबें जिस तरह ठुँसी थीं, उससे लगा, चोट जरूर आई होगी। मुझे शर्म आ रही थी।
उसने मुझे देखा, तो हँस दी, “नहीं...नहीं, भई, किताबों का भी क्या लगना।”
एक क्षण के लिए मैं चौंका। मुसकराया। फिर भीतर जाने वाली भीड़ में शामिल हो गया। आज कोने वाली सीट नहीं मिलेगी, यह तय था। फिर भी मैं कोशिश कर देखना चाहता था। आखिर कोने वाली सीट नहीं मिली तो मैंने ऐसी सीट खोज निकाली, जहाँ से सीधा नहीं, तो थोड़ा-बहुत ही बाहर का कुछ दिखता रहता।
यह दिखना मेरी जरूरत थी। नहीं तो दम घुटता था—इसीलिए हर बार कोने वाली सीट की मुझे तलाश रहती थी।
मैं खीजा हुआ सा बैठा था। एक दोस्त की कविताओं की किताब निकालकर पढ़ने लगा। थोड़ी देर में देखा, तो वह चली आ रही है। होंठों पर हलकी चंचलता, जो अक्सर होती नहीं थी।
“आज तो आपकी सीट चली गई। मेरी वजह से...!” बगल की सीट पर टिकते हुए बोली।
“नहीं, किताबों की वजह से।” जाने क्यों मुझे उतनी हैरानी हुई नहीं, जितनी होनी चाहिए थी। एकदम सहज लगा उसका आना, कि जैसे उसे आना ही था।
“आप इतनी सारी किताबें...?” उसने निगाहों से मेरे थैले को टटोलते हुए पूछा।
“अ...हाँ, जाने किसकी जरूर पड़ जाए? बचपन में भी जितनी कापी-किताबें, रबर, पेन, पैंसिल होती थीं, सब बस्ते में ठूँसकर ले जाता था कि पता नहीं, कब किसकी जरूरत पड़ जाए।”
वह हँसी, “यानी टाइम टेबिल पर आपका यकीन नहीं?”
“नहीं, कतई नहीं। मुझे लगता है, कभी भी कुछ भी हो सकता है और हमें हर वक्त लैस रहना चाहिए।” मैं हँसा, तो साथ-साथ वह भी हँस दी, “और आपको नहीं लगता, इसके बावजूद जो होना है, वह तो होकर ही रहता है...?”
3
अब के मैं चौंका। कहाँ से बोल रही है यह? कहाँ से आती है इतनी छीलती हुई निर्ममता? मुझे तब लगा, उतनी तटस्थ कहाँ थी वह? उसका न देखना भी क्या एक तरह का देखना ही था।
थोड़ी देर बाद उसके चेहरे पर खिलंदड़ा-सा भाव आ गया, “आपको जब भी देखा, खिड़की से बाहर देखते देखा। क्या देखते हैं बाहर?”
“जो भीतर नहीं है।”
“मिला?”
“अभी तो नहीं।”
“कोशिश करते रहिए। कभी न कभी...!”
वह हँसी है। खूब खुलकर। मैं भी।
थोड़ी देर बाद सीरियस हुई, “आप लेखक हैं?”
“हूँ तो नहीं, बनना चाहता था। फिलहाल आप कह सकती हैं, लेखक की पैरोडी...!”
“और आप?”
“वैसे तो पत्रकार हूँ। लेकिन असल में पत्रकार की पैरोडी!”
“क्यों-क्यों...?” मैंने उत्सुकता जताई।
“औरतों की एक पत्रिका है। उसमें अचार, मुरब्बे, स्वेटर के डिजायन बनाने की विधियाँ समझाती हूँ। अगर यह पत्रकारिता है तो मैं पत्रकार हूँ।” हँसते-हँसते वह अचानक उदास हो गई।
फिर वह अपने काम और साथी लड़कियों, औरतों के बारे में बताती रही। हँसती रही। इस हँसी के भीतर का खालीपन कभी पकड़ में आता रहा। कभी हँसी के साथ बह जाता रहा।
स्टेशन आया, तो गाड़ी से उतरकर कुछ देर खड़ी रही। फिर चलते-चलते बोली, “अरुंधती है मेरा नाम। आप मेरे नाम से बुलाएँ, तो अच्छा लगेगा। जरा मुश्किल तो है!”
“उतना मुश्किल तो नहीं, जितनी आप हैं।” मैं हँसा। सही मौके पर एक बढ़िया डायलॉग मार पाने की खुशी।
वह भी हँसी। फिर उस हँसी पर ठंडी बर्फ-सी जम गई। फिर वह चली गई। उस दिन घर जाते हुए सोचता रहा—यह उतनी खुश तो नहीं, जितनी बातों से लग रही थी। उतनी उदास भी नहीं, लेकिन...
उदासी भी क्या कोई छूत रोग है? वह दिन है और आज का दिन, एक उदासी-सी मुझ पर लिपटती चली गई।
4
उस दिन के बाद अक्सर मिल जाती। जब कभी उसके पास से गुजरता, मुसकराकर नमस्ते कर लेती। दो-एक मिनट के लिए मैं रुक जाता। भीड़भरी निगाहों के बीच दो-एक मिनट कुछ गैर-जरूरी बातचीत होती। फिर मैं उसी तरह चहलकदमी करने लगता।
कभी-कभी वह मेरे पास या सामने वाली सीट पर आकर बैठ जाती। कुछ देर बात चलती, लेकिन फिर उखड़ने लगती। फिर वह कोई पत्रिका निकालकर पढ़ने बैठ जाती। मैं भी हाथ में कोई किताब लिए खिड़की के बाहर देखने लगता। वह कुछ याद करने की कोशिश करती, मैं भी। बाजी उसी के हाथ लगती। उसे किसी सहकर्मी की कोई मजेदार मूर्खता याद हो आती। बीच-बीच में सुना डालती। मैं खुश होने का नाटक कर लेता। और करता भी क्या? उसके पास तो फिर भी बातचीत का एक स्थायी विषय था, मेरे पास वह भी नहीं। सो पहले दिन वाली उमंग, उत्साह फिर कभी आया नहीं।
जाते-जाते, उठने से पहले वह एक खाली-खाली नजर डालती किसी आदत की तरह। उसके मुँह से निकलता, “अच्छा, नागेश जी...!”
“अच्छा!” मैं कहता, इससे पहले वह जा चुकी होती।
कभी-कभी उसका शायद अकेले रहने, कुछ भी बात न करने का मन होता। यों भी बात हो नहीं पाती, यह कठिनाई उसने भी भाँप ली थी। तब वह दूर किसी सीट पर बैठती। तो भी कभी-कभी दूर से ही दिखाई पड़ जाती। उसकी पीठ पर छितराए बाल, झुकी हुई गरदन, हथेली पर सधा चेहरा। कभी-कभी वह दोनों हाथों से आँखें पोंछने लगती। तब भ्रम होता, वह रो रही है या रुलाई रोकना चाह रही है! मैं हड़बड़ा जाता। फिर लगता—नहीं, यह उसका ढंग है, उदासी पोंछकर खुद को चैतन्य रखने का!
लेकिन यह जो बिना बात का ठहराव—बिना बात जमती जा रही बर्फ थी, उसका कारण? क्या किसी आगत क्षण की संभावना से भयभीत थे हम दोनों? मैं ठीक-ठीक समझ नहीं पा रहा था। और वह? किसी उलझाव में तो थी ही वह।
एक दिन वह ऐसे ही दूर किसी सीट पर बैठी थी और उसकी पीठ दिख रही थी। पीठ पर छितराए बाल और... और एक खास खम देकर मोड़ी हुई गरदन। मुझे उसकी पीठ बोलती हुई-सी लगी। (सच कहूँ कोई बोलती हुई पीठ जिंदगी में पहली बार दिखी!) और लंबी गरदन का खम, बेपरवाही से बिखरे बाल—सब कुछ! जैसे, जितना वह नहीं बोल पाती, उससे ज्यादा उसका मौन कह रहा हो, तब भी...!
‘लेकिन वह...वह असल में बोलती ही कब है? वह तो सिर्फ शब्दों की दीवार खड़ी करती है, जिससे मैं उस तक जा न पाऊँ। क्यों, क्यों करती है वह ऐसा?’ मैं बेचैन होकर सोचता रहा।
‘अच्छा, किसी दिन इससे बात करूँगा।’ घर जाते-जाते मैं सोच रहा था।
और उसके बाद कई रातें बड़ी मुश्किल से कटीं। सपनों में उसकी पीठ, (नहीं, उसकी बोलती हुई पीठ!) उसके बाल, उसकी गरदन बल्कि कहना चाहिए, उसकी मुड़ी हुई खूबसूरत गरदन और हथेली पर रखा चेहरा...एक-एक कर मेरे सामने आते, फिर गड्डमड्ड हो जाते। फिर सिर्फ गरदन रह जाती, मुड़ी हुई तिरछी, लंबी गरदन जो कुछ आगे झुकी होती और मेरे होंठ...! मैं खुद को बहुत लाचार पाता।
5
फिर एक दिन की बात है। सर्दियों की शाम। गाड़ी का इंतजार करने वालों की भीड़ कम थी। शायद कोई छुट्टी थी उस दिन। मैंने बेसब्री से उसी परिचित कोने पर निगाह घुमाई। वह नहीं थी। मैं निराश सा प्लेटफार्म पर चलकदमी कर रहा था कि अचानक वह दिखाई दी। एक बेंच पर बैठी थी। चेहरा फिल्मफेयर में छिपा था। मैं हौले से पास जाकर खड़ा हो गया।
सामने मुझे देखकर चौंकी, “आप...?”
मैं हँसा, “आज तुम्हें ढूँढ़ने के लिए बड़ी मेहनत करनी पड़ी अरुंधती।”
वह भौंहों में हँसी, “क्यों भई?”
“इसलिए कि आज तुम अपनी परिचित जगह पर, परिचित अंदाज में नहीं!”
वह हँस पड़ी, “तो क्या में कोई अभिशप्त यक्षिणी हूँ, कवि जी!”
“वह तो यकीनन तुम हो अरुंधती। चाहे तुमने उस बारे में कुछ बताया नहीं, पर है यह सौ प्रतिशत सच...?”
“आप एक बात बताएँगे नागेश जी? पुरुष हर मामले में अपने आपको अफलातून क्यों समझता है?” उसने चिढक़र कहा।
“तुम्हारा मतलब है...मैं ठीक नहीं कह रहा?”
शायद इतने सीधे सवाल की उसे उम्मीद नहीं थी। “ठीक है, नहीं भी,” वह नीचे देखने लगी।
कुछ देर चुप्पी। अचानक कह बैठता हूँ, “अच्छा...बुरा न मानो अरुंधती, तो एक बात कहूँ। तुम्हें देखकर कुछ अजीब-अजीब लगता है।”
“क्या?”
“ठीक-ठीक बता तो नहीं सकता। लेकिन लगता है, अकेलेपन का एक वीरान जंगल है, जो हर वक्त तुम्हारे साथ-साथ चलता है। जहाँ-जहाँ तुम जाती हो, पीछा करता है। और उस जंगल में हर वक्त कुछ न कुछ चलता रहता है। हर वक्त...”
“तो इसमें अजीब क्या है?” उसने उसी ठंडेपन से कहा, “वह तो हम सबके साथ है। क्या आपके भीतर नहीं? यह खिड़की के बाहर हर वक्त किसी की तलाश! और जो आपके पास बैठा है, वह कोई नहीं, कुछ नहीं...!”
“लेकिन अरुंधती, लेकिन...!” और तमाम लेकिन-वेकिन के बावजूद जवाब कुछ बना नहीं था मुझसे। शायद जरूरत थी भी नहीं।
लेकिन यह तय हो गया था, वह उतनी सरल, इकहरी है नहीं, जैसी ऊपर से दिखाई देती है।
फिर उस दिन कोई और बात नहीं हुई। चलते समय मैंने कहा, “माफ करना, तुम्हें बुरा लगा।”
“नहीं बुरा नहीं—बुरा क्यों लगेगा? आपको जो लगा, वही तो कहेंगे। इसमें गलत क्या?”
खाली, एकदम खाली नजरों से उसने मुझ देखा। फिर चली गई।
उस दिन मैं बुरी तरह खुद को धिक्कारता फिरा, “अजीब कूढ़मगज हो यार! तुम्हें क्या जरूरत थी किसी के भीतर खलल पैदा करने की? उसका अतीत, वर्तमान तकलीफें! जाने कोई कैसे-कैसे दुख ढोता फिर रहा है और तुम...?”
6
लग रहा था, अब उससे मिलना नहीं होगा। लेकिन हुआ उलटा ही।
इसके तीन-चार दिन बार मिली, तो खूब खुश दिखाई दे रही थी। खूब चहक भी रही थी, “नागेश जी, किसी दिन आपकी ढेर सारी कविताएँ सुनने का मन है, कभी सुनाइएगा? कभी क्यों, आज ही। मैं कवि न सही, पाठक बहुत अच्छी हूँ। अज्ञेय, धर्मवीर भारती, सर्वेश्वर और नए से नए कवियों को पढ़ा है। आपको अचरज हुआ?”
“...मैंने बताया जो नहीं! अच्छा, एक बात बताइए, कैसे लिख लेते हैं आप लोग? मेरा मतलब है, कवि...”
मैं सुन रहा था। नहीं भी सुन रहा था। मैं असल में कुछ और सोच रहा था। वह इतनी खुश तो नहीं ही है। तो क्या यह कोई और परदा है? लेकिन किसलिए—किससे बचाव...कैसा छिपाव?
गाड़ी रुकी, तो उसने हाथ पकड़कर मुझे भी उठा लिया, “आज आप मेरे साथ चल रहे हैं, मेरे घर...!”
गाड़ी से उतरकर मैंने पूछा, “भई, किस खुशी में?”
“जन्मदिन है किसी का आज।”
“किसका?”
“जो कह रहा है।”
फिर अचानक सीरियस हो गई, “आपको दिक्कत तो नहीं होगी नागेश जी। शायद देर हो जाए!”
“नहीं...नहीं, कितने लोगों को बुलाया है? फिर मैं कोई प्रेजेंट...!”
“आप भी ऐसी लफड़ेबाजी करते हैं क्या?” उसने भरपूर खुली आँखों से मुझे देखा और हँस पड़ी। फिर बोली, “किसी को नहीं बुलाया। कोई और है भी नहीं इस शहर में...”
मैं तय कर लेता हूँ—चलूँगा। कोई पाँच मिनट पैदल चलने के बाद उसका कमरा।
जाते ही उसने दरवाजा खोला। मुझे बैठाया। पानी का गिलास दिया। कुछ ही देर बार कपड़े चेंज करके आई। शायद हलका आसमानी-सा गाउन...और चाय बनाने में व्यस्त हो गई। मैं अलमारी में रखी किताबें टटोलने लगा। वह चाय लेकर आई। एक प्लेट में मिल्क केक।
मैंने एक टुकड़ा उठाया, उसके मुँह में ठूँस दिया। उसने मुसकराने की कोशिश की तो चेहरा जरा व्रिदूप हो गया। साफ जाहिर है, वह सहज नहीं हो पा रही। निकटता और दूरी के बीच एक समीकरण जो कभी सही हो जाता है और अगले पल फिर गलत।
चुपचाप चाय खत्म की। ‘जन्मदिन मुबारक’ कहना मुझे दुनिया के सबसे कठिन कामों में से एक लगता है। तो यह नाटक भी नहीं ही हुआ।
फिर बात किताबों की ओर मुड़ी। वह उत्साह से उपन्यास, कविता, कहानी-संकलन दिखाती रही। बीच-बीच में इधर-उधर की बातें।
“अच्छा शौक है तुम्हारा। कुछ किताबें मेरे काम भी आएँगी, चुरा ले जाऊँगा।”
वह हँस पड़ी है। यह हँसी भी मुझे असली नहीं लगी है।
चलने से पहले फिर एक नजर कमरे पर डाली है। फिर अचानक मेरे मुँह से निकला, “भई, अपना एलबम तो तुमने दिखाया ही नहीं।”
“कैसा एलबम?” वह चौंकी।
“जैसा अमूमन हर लड़की के जीवन में एक होता है।”
“आपको कैसे पता?” उसने भयभीत नजरों से कमरे में इधर-उधर देखते हुए कहा।
“पता नहीं। तुम्हें पहली बार देखा था, तभी से...कुछ घटा है तुम्हारे साथ!”
गरदन झुक गई उसकी, “वह तो कहानी खत्म हो गई अब। कैसा एलबम?”
“अगर मुझे बताना ठीक नहीं लग रहा तो...छोड़ो, रहने ही दो।” मुझे कोफ्त हो रही थी अपने आप पर। गधा आखिर गधा रहेगा। क्यों यह मूर्खता का विषय छेड़ दिया?
“नहीं...नहीं, ऐसी कोई बात नहीं।” उसकी आवाज एकदम सर्द, बर्फ से लिपटी हुई, “वह कोई एक था...मैंने तो सिर्फ उसे एक ही बार देखा, विवाह-मंडप में। शादी से पहले इतना ही पता था कि स्टेट्स में नौकरी करता है। अजय...अजय साहनी! मैं अभी पढ़ना चाहती थी। माँ के जोर देने पर मना नहीं कर पाई। वह तीन दिन रुका था शादी के बाद, कुल तीन दिन। फिर कहकर चला गया, ‘जल्दी ही तुम्हें भी स्टेट्स बुलवा लूँगा।’ और फिर कुछ पता ही नहीं। कुछ महीने ससुराल रही, फिर उस घुटन से छूटकर आ गई।”
“लेकिन...लड़के के माँ-बाप?” मैंने अटकते हए पूछा, “उन्होंने कुछ नहीं किया?”
“उन्हें क्या फर्क पड़ता है?” उसका चेहरा ठंडा था, बर्फ से ज्यादा ठंडा। “सामाजिक रीति निभानी थी, उन्होंने निभा दी। वह किसी और लड़की के साथ रहता है। बहुत जोर देने पर शादी के लिए मान गया। अब किसी की जिंदगी बर्बाद हो गई, तो उसे क्या?”
“लेकिन अरुंधती, तुम्हारे पेरेंट्स, भाई वगैरह...”
“परेशान तो सब थे। लेकिन अंदर-अंदर सब मुक्त हो चुके थे। अब उन्हें यह फालतू भार लग रहा था। माँ-बाप दोबारा भार ओढ़ना नहीं चाहते थे, ससुराल में रहने पर जोर दे रहे थे। भाइयों के लिए अपनी-अपनी गृहस्थी उनकी पूजा थी। मैंने एक होटल में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी कर ली। शुरू-शुरू में घर वालों को बुरा लगा, फिर सब मान गए।”
कुछ रुककर बोली, “मान ही जाते हैं घर वाले—न भी मानते, तो भी बर्बाद हो चुकी लड़की का आखिर कुछ तो अधिकार होता ही है। मुझे जिंदा रहना था हर हाल, हर सूरत, हर बदसूरती में। मैं तय कर चुकी थी। और उस अधिकार का प्रयोग करने में मैं किसी भी हद तक जा सकती थी।” कहते-कहते उसका चेहरा किसी गहरी चोट खाए पत्थर की तरह फट गया।
एकाएक हिंसक लगने लगी वह, जैसे कोई और ही अरुंधती उसमें आकर बैठ गई हो। फिर कुछ देर बाद लौटी। कुछ सामान्य हुई, लेकिन इस विप्लव के निशान अब भी चेहरे से गए नहीं थे। पूरी तिलमिलाहट के साथ मौजूद थे, “और मेरा वर्तमान यह है कि तीन सालों से पत्रकारिता में हूँ। औरतों को अचार-मुरब्बे बनाने की विधियाँ और सुखी दांपत्य जीवन का रहस्य समझाती हूँ।”
उसने हँसते-हँसते कह तो दिया, लेकिन हँसी थमी तो मैंने नोट किया, एक कसैली मुसकान अब भी उसके होंठों से चिपकी रह गई थी। उसे देखकर कोई भी डर जाता।
मैं एकबारगी जैसे हिल गया। लगा, उसकी सीधी नजरों का सामना नहीं कर पाऊँगा। कुछ और पूछना भी बेमानी थी। मगर ऐसे ही बेसाख्ता निकल गया, “फिर कुछ और नहीं सोचा?”
“सोचा, लेकिन मेरे सोचने से क्या होता है? दो-एक लोग आए जीवन में। एक बार शादी की बात भी हो गई थी, लेकिन वह कायर निकला, भाग खड़ा हुआ। दूसरा भी...!” उसका चेहरा फिर किसी गुफा की तरह वीरान, हिंसक हो गया।
“और धीरे-धीरे अब आदत पड़ गई है। अकेलापन अब काटता नहीं, बल्कि इस आदत मे विघ्न पड़े तो तकलीफ होती है। यों दफ्तर में कुछ दोस्त-सहेलियाँ हैं, आसपास लोगों का होना, लोगों का घूरना है। आप जैसे लोगों की संवेदना है! कुल मिलाकर यह सब एक मशीन का हिस्सा है, जो हर वक्त मुझे काटती रहती है। एक-एक अंग कटकर गिरता है और मैं खुश होती हूँ। मैंने...मैंने नागेश जी, ऐसा ही जीवन स्वीकार कर लिया है।
“और अब तो कुछ और सोच ही नहीं पाती। सबके अपने-अपने दुख, अपनी तकलीफें हैं। उन्हें लिए-लिए चलो, चलते रहो, किसी को भेदने न दो, अब तो यही जीवन की शैली बन चुकी है। किसी और तरह से जीने के बारे में सोच तक नहीं पाती। और यह भी मंजूर नहीं है कि कोई मेरा जीवन मुझसे छीनने की कोशिश करे!”
“अरुंधती...?” मेरे मुँह से एक हलकी चीखृ-सी निकली है।
मैं उससे कहना चाहता हूँ—मैं भी बहुत अकेला हूँ अरुंधती। उतना ही अकेला और उदास जितनी तुम हो। वैसा ही अकेलापन मुझे भी काटता है...और अगर तुम चाहती हो तो...
लेकिन अरुंधती के चेहरे पर एक साथ इतने रंग आ-जा रहे हैं कि कुछ कहना तो क्या, सहन करना तक...! हर रंग गहरी नफरत में उबल रहा है वहाँ।
अब और रुका नहीं जाता। घड़ी में देखा, साढे़ नौ। उसका हाथ मेरे हाथ में है—पसीने-पसीने।
बहुत धीमे से कहता हूँ, “चलूँगा अरुंधती।”
एकाएक वह कहीं ऊँचे, बहुत ऊँचे से उतरती है। बड़े ही तटस्थ, सहज स्वर में कहती है, “हाँ नागेश, अब तुम जाओ। बहुत समय हो गया...!”
7
अगले दो-तीन वह दिखाई नहीं दी। मेरे भीतर हर वक्त एक हाहाकार...! मैंने उसे क्यों दुखाया? क्यों? क्यों हलचल पैदा कर दी उसके अतीत में जिसे वह एक जड़ पत्थर की मानिंद ठुकरा चुकी थी!
कई तरह की बातें...कई तरह के विचार आते। मैं एक अजीब से ऊहापोह की गिरफ्त में। और एक नुकीले पत्थर-सा गिल्ट, “ससुरे, तुम भी उसके हालात का मजा लेने चले थे।” कोई अगर देख पाता तो देखता, मैं रात-दिन अपने गाल पर तमाचे मार रहा था। खून जम गया था।
फिर एक दिन वह दिखाई दी। मैं गाड़ी से उतरकर घर जाने के लिए मुड़ा था, तभी।
“नागेश जी!” वह पास आई थी। चेहरा थका-थका सा, जैसे कई रातों से सोई न हो। कोई आध-एक मिनट खड़ी रही। चुपचाप। फिर एक लिफाफा पकड़ाया। फीकी-सी मुसकराहट के साथ “नमस्ते” कहकर चली गई।
“नमस्ते...!” मेरे हाथ हवा में झूलते रह गए।
रिक्शा में बैठा हूँ। रास्ते भर एक भूचाल-सा मेरे भीतर फटता, शोर मचाता रहा। एक समंदर है और लहरें तड़प रही हैं—हा हा हा हा हा! एक जहाज है जो हाहाकार करती आँधियों के बीच थरथरा रहा है।
8
घर जाते ही हड़बड़ाकर लिफाफा खोला है। अंदर किसी कॉपी से, नहीं शायद डायरी से फाड़ा गया एक पीला-सा कागज है। नहीं, कागज नहीं, पत्र...
“नागेश जी,
आपमें एक दोस्त मिला था, लेकिन...मेरा दुर्भाग्य आड़े आ गया। रात देर तक सोचती रही। आपके आगे झूठ बोलना नामुमकिन है, मन का सब खुल पड़ता है। मैं मुश्किल में पड़ जाती हूँ। रात मैंने बरसों बाद अपने भीतर झाँका, तो लगा, वहाँ सब कुछ गड्डमड्ड है। सिर्फ लपटें हैं, लाल-पीली लपटें...शवदाह! उस सड़ाँध में एक साफ कोना तक नहीं बचा किसी के लिए। आपको कहाँ बिठाऊँ? आइंदा से मुझसे न मिलें। कर सकेंगे? मेरी खातिर। मैं जैसी भी हूँ सुखी-दुखी, अपने लिए हूँ। किसी को इजाजत नहीं देना चाहती कि मेरी उदासी में झाँके...कि लोग कहें, अरुंधती उदास है...!”
कागज मेरे हाथों में काँप रहा है और काँपते शब्दों में अरुंधती का पीला, उदास चेहरा, जो धीरे-धीरे एक तंग अँधेरी गुफा में बदलता जा रहा है।