अरबीकुमार और नाग-नागिन : ओड़िआ/ओड़िशा की लोक-कथा
Arbikumar Aur Naag-Naagin : Lok-Katha (Oriya/Odisha)
कितने युग बीत गए हैं, कौन जानता है? एक राजा थे। राजा थे तो उनका एक राज्य भी था। राज्य था तो प्रजा भी थी। प्रजा भी ऐसी-वैसी नहीं, कई अघटन घटाने वालों में से थी। राहगुज़र उस रास्ते से गुज़रते तो अचरज के साथ सब देखते। यह क्या?
सलख दारू न जाए चीरा
बांकिरि दारू जाए
जोड़ा बलद भूईं न चषे
पटके बलद कोशे
डाँग पकाइले सरप दिशे
शुखिला भालू छाइ करूछि
बूढ़ा भालू 'हो' बोलूछि
नाकटा-नाकटी फूल सुँघा-सुँघि
ठाटा-ठुटीर बाहा हलाहिल
गोदरगोड़ चुना कुटुछि
सिंघाणीनाकी पिठा करूछि
माली बापुड़ा पाणि तेंडुछि
मालूणी बूढ़ी साग घोउछि
बामुण नना करे पइता
पाइक माने रंका
मासकु अठर टंका।
माइले माछिर गला न छिड़े
धाईंले गोटिए किअरिरे बेल बुडे
इसका अर्थ है कि जो लकड़ी सीधी है, वह आरी से न कटे, पर टेढ़ी-मेढ़ी लकड़ी आरी से कट जाए। दो बैल खेत नहीं जोतते, एक बैल ही काफ़ी है। नकटा-नकटी फूल सूँघते हैं तो लूला-लंगड़ा अपनी बाँहें हिलाते। हाथीपाँव वाला चूना कूट रहा है तो बहती नाक वाली मिठाई बना रही है। माली पनहारन का काम कर रहा है तो मालिन साग धो रही है। व्यापारी यहाँ भिखारी है, महीना अठारह रुपया कमाते। मारो तो मक्खी का गला न कटे, दौड़ो तो एक खेत पर ही साँझ डूबे। यानी सब काम उल्टा-पुल्टा। जैसे कबीर की उलटबाँसी।
ऐसे एक देश के जो राजा थे उन्होंने एक दिन अपनी रानी से पूछा, “हम अरबी की खेती करें।” रानी बोली, “अनोखी बात है, पर जब आपकी इच्छा हो रही है, तो वैसा ही करें।” राजा की इच्छा, तुरंत दस बीघा ज़मीन को जोतकर भरपूर खेती कराई गई। अरबी काँदा लगाया गया, खाद डाली गई। घुटने की ऊँचाई तक अरबी का पौधा बड़ा हुआ। कुछ दिन बाद अरबी का पौधा मुरझाया। जब खोदकर देखा गया तो ख़ूब अरबी फली थी। राजा बोले, “इतनी ज़्यादा अरबी का हम क्या करें? बेच दें?” रानी बोली, “छी: लोग क्या कहेंगे? राजा होकर अरबी बेच रहे हैं। हमें कमी किस बात की है?” राजा ने तब आदेश दिया कि शहर में ढिंढोरा पिटवा कर प्रजा को बता दो कि जिसे जितनी चाहिए आकर हमारे बग़ीचे से अरबी खोद ले जाए।
एक-दो दिन के भीतर ही प्रजा आकर अरबी खोदकर ले गई। आख़िर में एक बकरी चराने वाला लड़का राजा के पास जाकर हाथ जोड़कर खड़ा हो गया। राजा बोले, “क्यों रे, तुझे कुछ कहना है?” बकरी चराने वाला लड़का बोला, “एक कहूँ या दो कहूँ। डर के कहूँ कि बिना डरे कहूँ।” राजा बोले, “एक कहो और बिना डरे कहो।”
तब लड़का बोला, “मुझे कुछ अरबी देने का आदेश हो।” राजा बोले, “अरे! प्रजा तो सारी अरबी खोदकर ले जा चुकी है। जा तू भी देख ले। तेरी क़िस्मत में कुछ बचा हो तो ले जा।”
लड़के ने जाकर देखा तो सच में ही प्रजा सारी अरबी खोदकर ले जा चुकी थी। पर सबकी नज़र से बचकर दूर कोने में अरबी का एक झुरमुट बचा रह गया था। चरवाहा लड़का वहीं जाकर ज़मीन खोदने लगा। खोदते-खोदते उसकी साँसें तेज़ी से चलने लगीं, पसीना बहने लगा, फिर भी वह रुका नहीं। घुटनों तक खोदा, फिर कमर आख़िर में छाती तक खोदने पर उसे अरबी का काँदा नज़र आया। बहुत मुश्किल से खींचकर काँदा बाहर निकाला तो एक टोकरी जितनी बड़ी अरबी निकली। लड़का ख़ुशी से अरबी को ले जाकर माँ को देकर बोला, “माँ इसकी सब्ज़ी बना दो। मैं जाकर कुछ मछली पकड़कर लाता हूँ।” लड़के की माँ अरबी को काटने लगी तो भीतर से आवाज़ आई, “माँ, मुझे मत काटो। हाँड़ी के नीचे इक्कीस दिन तक ढककर रख दो तो तुम्हारी बढ़ोतरी होगी।”
उसकी बात मानकर बूढ़ी ने अरबी के ऊपर हाँड़ी उढ़काकर रख दी। बाइसवें दिन बूढ़ी ने अलस्सुबह उठकर, नहा-धोकर तुलसी के पौधे को पानी देकर, प्रभु का नाम स्मरण करते हुए हाँड़ी को हटाकर देखा तो क्या दिखा, एक सुंदर कोमल नवजात लड़का लेटा हुआ था। बूढ़ी उसे देखकर बोली,अहा! हमारे पास तो दूसरे दिन के लिए खाने को अन्न नहीं होता है, ऐसे में यहाँ क्यों पैदा हुआ? दीये की बाती के लिए तो कपड़ा नहीं है तो फिर तू क्या पहनेगा? गाय तो है नहीं, दूध कहाँ से दूँगी? अंटी में कानी-कौड़ी नहीं, तेल-हल्दी कैसे लगाऊँ? फटी चटाई भी नहीं है तो तू कैसे सोएगा?
बूढ़ी के इतना कहते-कहते आँगन में चार हाथ की ऊँचाई तक सोने के मुहरों की बरसात हुई। देखते ही देखते झोंपड़ी की ऊँचाई बढ़ती गई। राजमहल जैसा महल वहाँ खड़ा हो गया।
बकरी चराने वाले लड़के और उसकी माँ ने अरबी से पैदा होने के कारण उस बच्चे का नाम रखा- अरबी कुमार। बहुत लाड़-प्यार से वह पलने लगा। उम्र के बढ़ने के साथ ही उसके तन में जितनी ताक़त बढ़ी, उतना ही उसका रूप-सौंदर्य भी खिल उठा। हर दिन घोड़े पर चढ़कर वह शहर में घूमता। इंसानों की बात जाने दीजिए, पशु-पक्षी भी एक पल के लिए उसे निहारते रह जाते। एक दिन ऐसे ही घोड़े पर बैठा सरपट भाग रहा था, तभी राजमहल के तालाब के घाट से राजकुमारी की नज़र उस पर पड़ गई। उस दिव्य सौंदर्य को देखकर राजकुमारी मुग्ध हो गई। उसके बाद दिन-रात राजकुमारी उसकी याद में उदास रहने लगी। खाना-पीना बेस्वाद हो गया, आँखों से नींद ग़ायब हो गई। चूहे मिट्टी से सनसनाते कमरे में जाकर राजकुमारी सो गई। माँ जाकर पुकारी, “कुछ गुम हो गया है तो बोल ढूँढ़ दूँ, टूट गया हो तो बोल बनवा दूँ। पिता जाकर पुकारे, “हमें किस बात की कमी है बेटी? एक पल में सोने का चाँद बनवा दूँगा। तू बस अपने मन की बात खोलकर बता दे। पर राजकुमारी उनकी बात अनसुनी करके चुपचाप वैसे ही लेटी रही।
आख़िर में धाई माँ आई। अपनी गोद में पाल-पोसकर इतना बड़ा किया था। राजकुमारी के मन को ज़्यादा समझती थी धाई माँ। उसने राजकुमारी को पुकारा, “मेरी सोना उठ जा। मेरी लाड़ो उठ जा। धाई माँ की आवाज़ पहचानकर राजकुमारी ने दरवाज़ा खोल दिया। अपने मन की बात खोलकर सब बताया। धाई माँ ने सारी बातें राजा-रानी को बता दीं।
पर राजा या रानी किसी को भी यह बात नहीं सुहाई। राजा बोले, “धन-संपत्ति है तो भी क्या? जितना भी हो आख़िर में चरवाहा के यहाँ पैदा हुआ है न? एक ही बेटी है। उसे जान-बूझकर कैसे पानी में धकेल दूँ? रानी बोली, राजकुमारी कह रही है कि अरबी कुमार से विवाह नहीं होगा तो अपने प्राण त्याग देगी। जाति-कुल के लिए क्या लड़की की जान जाने दें? उसकी बात मान लें। चरवाहे के घर पैदा हुआ तो क्या, लड़का हुनरमंद है। जैसे कीचड़ में कमल हो। राजा रानी के बीच इस तरह के विचार-विमर्श होने लगे। आख़िर में तय किया गया कि अरबी कुमार को घरजँवाई बनाकर पास रखेंगे और चरवाहे के घर वापस नहीं भेजेंगे। विवाह की तैयारियाँ करने के लिए मंत्री को आदेश दिया।
दूर गाँव को निमंत्रण पत्र भेजा
पास गाँव में बुलावा भेजा
मलाई का वेदी बनाया
पान के पत्ते की छाया
दान-दहेज़ आया
मित्र अतिथि आए
लेना-देना, खाना-पीना हुआ
शंख, ढोलक, शहनाई की गूँज में
पंडित ने पाणिग्रहण करवाया।
विवाह के बाद एक दिन अरबी कुमार शिकार खेलने निकला। काफ़ी घना जंगल। शाल-वृक्ष सिर उठाकर खड़े थे। हवा का भी अंदर घुसना मुश्किल था। झाड़-झंखाड़ों के बीच वह हिरन साँभर के पीछे दौड़ता रहा। सिर पर सूरज की तेज़ किरण। आख़िर में अरबी कुमार का गला सूखने लगा। उसने सैन्य-सामंतों से पानी लाने के लिए कहा। चारों तरफ़ सूखा जंगल। पानी कहाँ है? एक सैनिक ने ख़ूब ऊँचे एक शाल के पेड़ पर चढ़कर देखा, ख़ूब दूर कुछ झिलमिला रहा है। पानी होगा, ऐसा अनुमान लगाकर वह घोड़े पर बैठकर सरपट उस दिशा में भागा। सच में ही वहाँ पानी था, साफ़-शफ़ाक़ काँच की तरह पारदर्शी। पर इंसान की नज़र उस पर पड़ते ही जाने कहाँ ग़ायब हो गया। वहाँ थी एक गुफा। सैनिक ने लौटकर सारी बातें बताईं।
अरबी कुमार बोला, “यह ज़रूर देव का स्थान होगा। देवता के मन में अगर दया भाव होगा तो पीने को पानी मिल जाएगा। तब सैन्य-सामंत वहाँ जाकर गुफा सामने हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगे:
पानी छोड़ो, पानी छोड़ो पानी की नागिन
हाथी देंगे, घोड़ा देंगे, लेंगे पानी कुछ
गुफा के अंदर से आवाज़ आई:
तुम्हारे हाथी, घोड़े तुम्हारे पास रहे
अरबी कुमार आए तो पानी छोड़ दें
लोगों ने वापस लौटकर कुमार से सारी बातें बताईं। कुमार घोड़ा भगाते हुए उस गुफा के पास पहुँचा और अपने लोगों से बोला, अब पानी माँगो देखते हैं क्या होता है।
पानी छोड़ो, पानी छोड़ो पानी की नागिन
अरबी कुमार को दिया अब दो हमें पानी।
इतना कहते न कहते गुफा के अंदर से पानी का सैलाब उमड़ पड़ा। अरबी कुमार पानी में ऊब-डूब होकर जाने कहाँ उस पानी के अंदर ग़ायब हो गया। इस घटना को देखकर सैनिकों की आँखें फटी की फटी रह गईं। किसी को कुछ समझ में नहीं आया, सब वहीं सिर पर हाथ धरकर बैठ गए।
अब सबके मन में विचार आया कि राजा को जाकर क्या जवाब देंगे? क्या उनकी गरदन सही-सलामत रहेंगी? जो होगा देखा जाएगा, ऐसा सोचकर एक सैनिक ने राजा के पास पहुँचकर सारी बातें बता दीं।
राजा सिर पकड़कर बैठ गए। रानी बेहोश हो गई। अंतःपुर में रोना-चिल्लाना शुरू हो गया। राजकुमारी ज़मीन पर लोटकर रुदन करती हुई बोली, “अब इस तुच्छ प्राण का क्या काम?
रात का सन्नाटा फैल रहा था। राजकुमारी जहाँ लेटी थी, वहीं वैसे ही पड़ी रही। फिर उसने सोचा, इस तरह बारह साल तक भी अगर वह आँसू बहाती रहेगी तो भी उसके पति वापस नहीं लौटेंगे। आपदा के समय धैर्य रखना चाहिए। अगर सच ही में मैं सती होऊँगी तो मेरी काँच की चूड़ी टूटेगी नहीं, माँग का सिंदूर नहीं मिटेगा। सच ही मैंने अगर तुलसी माई की मन-प्राण से सेवा की होगी तो मेरे स्वामी को वह अपने आश्रय में रखी होंगी। ऐसा सोचकर पुरुष वेश धरकर, घोड़े पर चढ़कर रात के अँधेरे में वह राजमहल से निकल पड़ी। कितने पहाड़, जंगल पारकर मैदानी इलाक़े में पहुँची। उस समय सूरज उग रहा था। पूर्व दिशा में लाल रंग फैलने लगा था। राजकुमारी ने देखा एक किसान खेत जोत रहा है। उसे पास बुलाकर राजकुमारी ने पूछा,
“अरे ओ किसान भाई,
मेरे अरबी कुमार को देखा क्या कहीं?
अभी तक काजल की रेखा मिटी नहीं है
मिटा नहीं है माँग का सिंदूर
मिटी नहीं हैं आलता की रेखा
खुला है अभी गठबंधन
फीका नहीं हुआ है तन से हल्दी का रंग
पहने है पीतांबरी धोती
बाँधा है झिलमिलाती पगड़ी
हाथ में है बेंत की छड़ी
खाया है पान का वह बीड़ा
साथ में है उसके लाव-लश्कर
सोने का तन उसका दमकता दम-दम
पहना है रत्न का खड़ाऊँ।”
सब सुनकर किसान बोला,
“नहीं गो राजकुमारी
मैं तो हल जोतने में था मगन।”
राजकुमारी दुःखी मन से वहाँ से आगे बढ़ी। रास्ते में एक बैलगाड़ी चालक को देखकर उससे पूछा,
“अरे ओ गाड़ीवान भाई
मेरे अरबी कुमार को देखा है कहीं?
आँखों का काजल अभी मिटा नहीं है
मिटा नहीं है माँग का सिंदूर...
गाड़ीवान बोला,
“नहीं गो राजकुमारी
मैं तो गाड़ी हाँकने में था मगन।”
थोड़ी दूर और चलने के बाद राजकुमारी ने एक ढोलकिया को देखकर पूछा,
“अरे ओ ढोलकिया भाई
मेरे अरबी कुमार को देखा है कहीं?
मिटा नहीं है अभी आँखों का काजल...
ढोलकिया बोला,
“नहीं गो राजकुमारी
मैं तो ढोल बजाने में था मगन।”
राजकुमारी बिना निराश हुए आगे बढ़ती रही। आगे जाने पर उसे एक गुफा नज़र आई, गुफा के सामने एक घोड़ा बँधा हुआ था। राजकुमारी ने घोड़े को पहचान लिया, “अरे यह तो हमारा घोड़ा है। ज़रूर मेरे स्वामी इसी गुफा में हैं।” पर पानी था वहाँ। उसमें जाए तो जाए कहाँ। बस वहीं खड़े होकर रुदन करने लगी। उसका रोना सुनकर पेड़ से पत्ते नीचे झरने लगे। शून्य से बादल नीचे उतर आए। गुफा के अंदर से मेढकों के एक झुंड ने बाहर निकलकर पूछा, “बेटी राजकुमारी, तू क्यों रो रही है? जो चला जाता है, क्या रोने पर वापस आ जाता है?” राजकुमारी बोली, “गुम गई चीज़ रोने से नहीं लौटती है यह सच है, पर बिना रोए रहा भी तो नहीं जाता? रोने के सिवा मेरे पास अब चारा भी क्या है?” मेढकों ने कहा, “हमें अगर एक टोकरी लाई तुम दोगी तो हम तुम्हारा उपकार करेंगे।” राजकुमारी ने उन्हें लाई दी। मेढकों ने एक-दूसरे से अपने को सटाकर एक नाव सी बनाई और राजकुमारी से कहा, “हमारे ऊपर बैठो। हम अरबी कुमार से तुम्हारी भेंट करवा देंगे। वह अभी बंदी है। चारों तरफ़ नाग-नागिन उसे घेरकर रखे हुए हैं। थोड़ी-सी भी असावधानी हुई तो वे डस लेंगे। तुम जाओगी तो तुम्हें नहाने के लिए आग की तरह गरम पानी देंगे। हल्दी लगा लो कहकर मिर्च को पीसकर देंगे। नागराज को तकिया बनाकर देंगे। टूटी हुई सूत की खाट सोने के लिए देंगे। हम जैसा कहेंगे वैसा ही करोगी तो इस आपदा से बच पाओगी।”
राजकुमारी बोली, “क्या उपाय करने पर मैं इस आफ़त से पार पाऊँगी?” मेढकों ने कहा, “जब गरम पानी तुम्हें देंगे तो उस पानी में हमें छोड़ देना। हम पानी में मूत देंगे तो पानी ठंडा हो जाएगा। पिसी हुई मिर्च देने पर उसे फेंककर तुम्हारे पास जो कुंमकुंम है उसे लगा लेना। खाट में ना सोकर नीचे सोना। हममें से एक मेंढक को नागराज के मुँह के अंदर फेंक देना जिससे उसके गले में मेंढक फँसा रहेगा और वह तुम्हें निगल नहीं पाएगा।”
मेंढकों ने नाव में राजकुमारी को बैठाकर अरबी कुमार के पास पहुँचा दिया। अरबी कुमार ने राजकुमारी को देखकर इशारे से पूछा, “तू इस ख़तरनाक जगह पर कैसे आ गई? नाग-नागिन मुझे खाने को तैयार हैं, ऐसे में कम-से-कम तू तो ज़िंदा रहती।”
नाग-नागिन ने अरबी कुमार से पूछा, “क्या यह तुम्हारी पत्नी है?” कुमार बोला, “मैंने अभी तक विवाह नहीं किया है। नाग-नागिन ने उसके जवाब से ख़ुश होकर राजकुमारी को पानी, खाट सब दिया। पर मेंढकों के चलते राजकुमारी बच गई।
कुछ दिन बाद दोनों का विवाह कर देने की बात पर नाग-नागिन विचार करने लगे। झूठ-मूठ का विवाह हुआ। दूल्हा-दुल्हन को विदा करने के लिए सभी पानी के ऊपर आए, तभी नागिन की सबसे छोटी बहन बोली, “ओहो, ननद का बक्सा तो नीचे छोड़ आए, अब क्या करें?” नागिन बहनों ने कहा, “जा, तू जाकर ले आ।” छोटी बोली, “नहीं, मैं अकेले नहीं जाऊँगी।”
तब सभी पानी के अंदर गए और अरबी कुमार ने राजकुमारी को घोड़े पर बिठाकर घोड़े को चाबुक मारा। जाते समय एक धोबी को सोने का हार देकर बोल गया कि, “हमारा पीछा करते कोई आए और तुमसे पूछे कि दूल्हा-दुल्हन घोड़े पर चढ़कर गए क्या? तब तू कह देना कि इस चूल्हे में घुस गए।”
नागिन सारे बक्से लेकर वापस लौटी तो देखा कि दूल्हा-दल्हन नहीं हैं। घोड़े को ढूँढा, तो वह भी नहीं मिला। ग़ुस्से से फन को ज़मीन पर मारकर बोले, “जहाँ भी होंगे, ढूँढ़कर निगल जाएँगे।”
धोबी कपड़े धो रहा था। उससे पूछा, “इस रास्ते दूल्हा-दुल्हन घोड़े पर चढ़कर गए क्या?
धोबी ने दूल्हा-दुल्हन के चूल्हे के अंदर घुस जाने की बात कह सुनाई। ग़ुस्से से उफनकर नाग-नागिनों ने चूल्हे को तोड़ दिया और जलते चूल्हे में सब कूद गईं। वहीं जलकर सब राख हो गईं।
बूढ़ा राजा अरबी कुमार को वापस पाकर ख़ूब ख़ुश हुआ और उसके हाथों राज्य की ज़िम्मेदारी सौंपकर वानप्रस्थ चला गया।
मेरी कहानी हुई ख़त्म।
(साभार : ओड़िशा की लोककथाएँ, संपादक : महेंद्र कुमार मिश्र)