अरबी की फसल : असमिया लोक-कथा

Arbi Ki Fasal : Lok-Katha (Assam)

पुराने जमाने की बात है। एक घने जंगल के पास एक छोटा-सा गाँव हुआ करता था। उस गाँव में एक दंपति रहा करता था। बहुत साल बीतने के बाद भी उन्हें कोई संतान की प्राप्ति नहीं हुई। अब वे दोनों बूढ़े हो गए थे। वे दोनों अपने गुजर बसर के लिए मौसम के अनुसार अपनी बगिया में हरी सब्जियाँ उगाया करते थे और उसे बेचकर अपनी जरूरतों को पूरी करते थे।

एक दिन की बात है। वे दोनों दोपहर को अपनी बगिया में अरबी लगा रहे थे, उसी वक्त जंगल में से लोमड़ी का एक झुंड गाँव की ओर आ गया। बूढ़े दंपति को अरबी लगाते देख लोमड़ियों के मुँह में पानी आ गया और खाने की चाह में उन्हें एक युक्ति सुझी। युक्ति के मुताबिक लोमड़ियों के झुंड में से एक लोमड़ी दोनों के पास गई और कहा-

“अरे दादा-दादी… आप दोनों क्या लगा रहे हैं?

बूढ़ा व्यक्ति झुक कर अरबी लगाते हुए कहने लगा- “हम अरबी लगा रहे हैं बच्चों।”

तभी दूसरी लोमड़ी उनके पास जाती हुई बोली- “अरे दादा-दादी अरबी को ऐसे थोड़ी न लगाते हैं…”

बूढ़े व्यक्ति ने लोमड़ियों की तरफ नजर घुमाते हुए कहा- “तो कैसे लगाते है बच्चों? हम तो बरसों से इसी तरह लगाते आ रहे हैं।

तीसरी लोमड़ी आगे आते हुई बोली- “हम सीखा देंगे दादा-दादी जी, अरबी लगाने का नया तरीका। जिस तरीके से लगाने पर अगले दिन ही अरबी के पत्ते निकल आते हैं और कुछ ही दिनों में अरबी का पौधा बड़ा हो जाता है।

“कैसा तरीका है यह! हमने तो ऐसे तरीके के बारे में अभी तक कभी कुछ सुना नहीं, बताओ तो बच्चो, यह कैसा तरीका है! हम भी तो आजमाकर देखें।”- दोनों ने एक साथ कहा।

लोमड़ी के सरदार ने कहा- “तो हमारी बात को ध्यान से सुनो दादा-दादी! सबसे पहले अरबी कोएक पतीले में रखकर उसे अच्छी तरह से उबाल लेना। उसके बाद एक-एक करके अरबी को केले के कोमल पत्तों से लपेटकर जमीन पर गाड़ देना। फिर देखना अगले दिन कैसे अरबी में से पत्तियाँ निकल आएँगी।”

लोमड़ी की बातों को सुनकर दादी आचार्य से भरी नजरों से उनकी ओर देखकर कहने लगी- “क्या, सचमुच?”

अरबी का स्वाद चखने के लिए लोमड़ियाँ बेताब हुए जा रही थीं, वे एक साथ सिर हिलाकर कहने लगीं- “बिलकुल सच है दादीजी।”

बूढ़े दंपति ने लोमड़ियों की बात को सच मान ली। वे दोनों अरबी को उबालने के लिए तैयार हो गए। उन्होंने बची हुई अरबी को समेटने के साथ-साथ जमीन पर लगाई गई अरबी को भी खोदकर निकाल लिया और उन्हें लेकर दोनों घर वापस आ गए।

बूढ़ी ने लकड़ी डालकर चूल्हा जलाया। बूढ़े ने सारी अरबी को एक बड़े पतीले में डाला और चूल्हे पर चढ़ा दिया। अरबी उबल चुकी थी। दोनों ने लोमड़ियों के कहे अनुसार एक-एक अरबी को केले के कोमल पत्ते से लपेटा और ले जाकर खेत की मिट्टी में लगा दिया। उधर झाडियों में छुपकर लोमड़ियाँ इस नजारे का लुत्फ उठा रही थीं और रात होने का इंतजार कर रही थीं।

रात हो गई। दिन भर अरबी लगाते-लगाते दादा-दादी काफी थक गए थे। इसलिए जल्द ही खा-पीकर सो गए। इधर लोमड़ियाँ दबे पाँव आईं। उनके द्वारा लगाई सारी अरबी को जमीन से निकाला और पल भर में चट कर गईं। केले के पत्तों पर टट्टी करके जमीन पर दबा दिया और वहाँ से नौ दो ग्यारह हो गईं।

सबेरा हो चुका था। दादा-दादी को अरबी की फसल देखने की उत्सुकता हो रही थी। इसीलिए बगैर मुँह धोए ही दोनों बगिया की ओर चल दिए। लेकिन यह क्या! उन्हें अरबी का एक भी पत्ता निकला हुआ नहीं दिखा। वे दोनों कुछ सोचने लगे। फिर बूढ़े ने जमीन पर लगाई अरबी को निकालकर देखना चाहा। जैसे ही उसने जमीन में से निकालकर केले के पत्तों को खोला उनकी उंगलियाँ लोमड़ी की शौच से सन गईं। पत्तों से लोमड़ी की शौच की तेज बदबू आने लगी। उधर दादी का भी हाल कुछ ऐसा ही था।

इस घटना से दोनों को बहुत ही गुस्सा आया और दोनों ने लोमड़ियों से बदला लेने की ठान ली। बूढ़े ने एक योजना बनाई और बूढ़ी ने उनका साथ दिया। कुछ दिनों के बाद योजना के मुताबिक घर के बरामदे में बैठकर बूढ़ी अपने सर पर हाथ रखकर जोर-जोर से रोने लगी ताकि उसकी आवाज जंगल में लोमड़ियों तक पहुँच जाए। बूढ़ा रसोई घर के अंदर एक लंबी और मोटी बाँस की लाठी लेकर छुप गया।

बूढ़ी जोर-जोर से रोती हुई बिलख रही थी- “बूढ़ा मर गया सो मर गया, घर का चावल बढ़ गया.. बूढा मर गया सो मर गया, घर का राशन बढ़ गया।”

उधर लोमड़ियों को बूढ़े के मरने की खबर मिल गई। लोमड़ियों को लगा बूढ़े-बूढी की तो कोई संतान नहीं हैं, तो उनको दफनाएगा कौन! बहुत दिनों के बाद आदमी का मांस खाने को मिलेगा। यह सोचते हए वे लोग बूढ़ा-बूढ़ी के घर की ओर दौड़े पड़े। बूढ़ी को रोता देख सहानुभूति जताते हुए एक लोमड़ी कहने लगी- “मत रो दादी.. चुप हो जाओ..हम हैं न दादी.. हम दफनाएँगे दादाजी के शव को..वैसे दादाजी का शव कहाँ है, तुम सिर्फ इतना बता दो।”

दादी ने अपनी तर्जनी उंगली से रसोईघर की तरफ इशारा किया। जब एक-एक करके लोमड़ियाँ रसोईघर के अंदर जाने लगी तो वह और ऊँची आवाज में रो-रो के गाना गाने लगीं-

“एक अंदर गया बूढ़ा.. अब दूसरा भी अंदर गया बूढ़ा …अब तीसरा भी अंदर गया बूढ़ा….अब सारे अंदर हैं बूढ़े।”

सारी लोमड़ियों के अंदर आ जाने के बाद दरवाजे के पीछे लाठी लेकर छिपे बूढ़े ने झट से दरवाजा बंद कर दिया और लाठी उठाकर लोमड़ियों पर ताबड़तोड़ प्रहार करने लगा। हमला इतना अचानक हुआ कि लोमड़ियाँ संभल नहीं पाईं और मार खाते-खाते वहीं ढेर हो गई। बूढा सभी लोमड़ियों को मरा हुआ देख रसोईघर से बाहर निकला और चैन की साँस लेते हुए बरामदे में बूढ़ी के पास आकर बैठ गया। तभी एक लोमड़ी जो कि डर के मारे चूल्हे में रखे बड़ी कड़ाही के अंदर छुपी हुई थी, मौका देखकर वह अपना काला मुँह लेकर रसोईघर से निकली और जंगल की ओर दुम दबाकर भाग गई। तभी से लोमड़ियों के मुँह में काला दाग है।

(साभार : डॉ. गोमा देवी शर्मा)

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