अपराजिता की वे आँखें (कहानी) : प्रकाश मनु
Aprajita Ki Ve Aankhen (Hindi Story) : Prakash Manu
1
“अंकल, यह भी कोई जीना है...ऐसे भी कोई जीता है! जिसके जीवन में कोई खुशी न हो, गिनाने के लिए कोई एक छोटी-सी खुशी तक नहीं, उसके जीने के मानी क्या हैं अंकल? मैं क्या करूँ, मुझे तो मौत तक नहीं आती। कई बार कोशिश कर चुकी हूँ, पर मेरे लिए तो न जिंदगी है, न मौत...?”
आगे उसका स्वर आँसू और हिचकियों में डूब गया था।
तेज आँधियों में डगमग-डगमग एक नाव।
हम सब स्तब्ध थे। जैसे आँखें फाड़े होने के बावजूद हम उन आँधियों के पार कुछ न देख पा रहे हों, जहाँ सब कुछ गर्दभरा और रक्तरंजित था। एक क्षण के लिए यह भी लगा था, जैसे अनजाने ही हमारे चारों ओर भयंकर गोलीबारी हुई हो और सब ओर चिथड़ा-चिथड़ा, रक्तरंजित लाशें। असहनीय दृश्य! एक औरत के भीतर कितना कुछ होता है। कितना बड़ा महाभारत! कितना भीषण, असहनीय कोलाहल भरा और खून से सना हुआ। कैसे-कैसे जतन से वह उसे छिपाए रहती है, और जब वह सब कुछ तोड़-फोड़कर बाहर निकलता है तो...
ध्वंस...! महाध्वंस...! इतिहास का मलबा। अजीब कटी-पिटी विद्रूप शक्लें। आँखें फाड़े, सभ्यों को मुँह चिढ़ाती।
हम सचमुच कुछ भी सोच या समझ पाने की हालत में नहीं थे।
हम यानी...? मैं। मेरी पत्नी सुनीता। अपराजिता के पिता मि. आनंद। माँ, भाई! और कमरे की हवा, जो इस बीच पसीज गई थी।
2
अपराजिता धार-धार आँसुओं में रोए जा रही थी। और वे आँसू कैसे तीखे, तल्ख थे, शब्दों से इसका अंदाजा लगाना मुश्किल है। बस, समझिए कि जैसे अभी-अभी तेजाब की बारिश हुई हो!...कि जैसे बरसों से बंदी उसका दुख सारे कूल-किनारे तोड़कर, फूट-फूटकर बह रहा हो।
मुझे कहीं हलका-सा ‘गिल्ट’ फील हुआ कि मैंने उसे छुआ ही क्यों? उस दुख को, जिसे उसने भीतर...इस कदर अँधेरे तहखानों में छिपाकर रखा था कि उसे भीतर ही भीतर दफन करने की कोशिश में उसका चेहरा प्लास्टर जड़ी किसी बिनपुती दीवार जैसा नीरस, जड़ और निर्भाव हो गया था।
और फिर अगले ही पल हलकी-सी खुशी भी हुई। इसलिए कि रो लेने के बाद उसके चेहरे पर काफी कुछ सहजता लौट आई थी। थोड़ी देर पहले का उसका बुरी तरह चीखना-चिल्लाना और ऐंठी हुई जुबान में किसी उन्मत्त की तरह जोर-जोर से भावावेश में बोलना अब थम-सा गया था।
इस समय कोई अपराजिता की बातें सुने, तो शायद ही उसे उसमें कोई असामान्यता नजर आएगी। लगेगा कि ये ऐसी लड़की की बातें हैं जो औरों से कुछ ज्यादा संवेदनशील है और किस कदर समझदार भी। एक ऐसी लड़की, जो केवल खुद के बारे में ही नहीं, खुद के बाहर भी सोचती है।
अभी-अभी उसने किसी प्रसंग में हिंदुस्तानी मध्यवर्गीय समाज के बारे में एक तीखी टिप्पणी की है कि—“ऐसा बहुत कुछ है जो हम सभी एक-दूसरे से छिपाते हैं और जानते सभी हैं कि छिपाते हैं। मगर बदलता कोई नहीं। इसी ‘हिप्पोक्रेसी’ और ‘डुअल करेक्टर’ ने मध्यवर्गीय समाज की बीमारी को बढ़ा दिया है और उसका रोग असाध्य होता जा रहा है, इनक्योरेबल...!”
मुझे शक हुआ, कहीं यह लड़की मध्यवर्गीय समाज के बहाने अपनी बीमारी पर टिप्पणी तो नहीं कर रही। एक गहरी, बहुत ही गहरी, सांकेतिक भाषा में! फिर लगा कि यह मेरा वहम है। पर उसकी बातें सुन-सुनकर यह जरूर लगता था और निश्चित रूप से लगता था कि उनके पीछे दुख का भीतर ही भीतर बन रहा बहुत बड़ा दबाव है।
उफ! कितना कुछ सहा होगा इस लड़की ने। और उस सहने ने ही उसे ऐसा बनाया! ऐसा घोर उन्मादी...अवसादग्रस्त, सिनिक और अर्धविक्षिप्त!
3
चलिए, थोड़ा पीछे लौट चलते हैं। शायद मुझे शुरू से ही कहानी सुनानी चाहिए थी।
सर्दियों का एक दिन। शायद फरवरी के अंत की बात हो। बड़ी सुबह मैं और सुनीता घूमने निकले हैं।
अचानक कुछ अजीब-सी आवाजों ने हमें चौंकाया। लग रहा था, कोई किसी को बेरहमी से पीट रहा है। नहीं, कई लोग किसी को पीट रहे हैं।
तेजी से हम वहाँ पहुँचे, तो पहले एक रिक्शा नजर आया, जिस पर लोहे के कुछ पाइप आड़े रखे हुए थे। फिर एक डरा हुआ, फटेहाल, दुबला-पतला बिहारी रिक्शा वाला दिखाई दिया, जिसे गालियाँ देते हुए, लातों और घूँसों से पीटा जा रहा था—घोर जंगलीपन से।
फिर अचानक ही उस दृश्य में एक फौजी जैसे लगने वाले चुस्त-दुरुस्त, संभ्रात बुजुर्ग व्यक्ति का हस्तक्षेप हुआ, जो आगे बढक़र रिक्शे वाले के साथ खड़ा हो गया। उसे पहले भी कई बार सुबह-शाम घूमते देखा था। पर आज...इस रूप में?
“क्यों मार रहे हो भाई? हद है! स्टुपिड, जंगली...! एक गरीब को मारते शर्म नहीं आती? खबरदार जो हाथ लगाया!” बंदूक की तरह सीधे तने हुए उस संभ्रांत व्यक्ति की आवाज सुनाई दी।
मगर वे लोग भी कम नहीं थे। खासे खाए-पिए, अघाए लगते थे। उन लोगों ने एक भयानक चमक के साथ एक-दूसरे की आँखों में देखा। और अचानक रिक्शे वाले को छोड़कर अब उन्होंने फौजी जैसे दिखते, मजबूत काठी के उस संभ्रात व्यक्ति को पकड़ लिया था।
“तू साले कौन होता है बीच में बोलने वाला? एक झापड़ पड़ेगा...समझे!”
मैं थरथरा गया। ऐसे शरीफ आदमी से भी ये शब्द बोले जा सकते हैं? लेकिन विनम्र दृढ़ता के साथ वह सीधा खड़ा शख्स यही कहता रहा, “क्यों...मैंने क्या गलत कहा? इस गरीब आदमी को मारकर तुम्हें क्या मिलेगा? क्यों मार रहे हो इस बेचारे को? खुदा से डरो, खुदा से!”
“चल, अब तुझे देखते हैं! तू ज्यादा हमदर्द बनता है न!” कहते-कहते उन्होंने पास आकर उसे घेर लिया, जैसे अभी मारेंगे।
उस शरीफ आदमी को जैसे अब अपनी कमजोर स्थिति का भान हो चुका था। लेकिन फिर भी उस पर ज्यादा असर नहीं पड़ा।
“ठीक है, तुम मुझे मार लो, पर इसे छोड़ दो! याद रखो, गरीब के आँसुओं की मार बड़ी बुरी होती है। फिर इसने कोई जान-बूझकर तो तुम्हें मारा नहीं। चलते हुए रिक्शा में से कोई पाइप तुम्हें छू गया होगा, यही न! मगर इसका यह मतलब तो नहीं कि तुम इसकी जान ले लो।” वह अब पहले वाला रोबदाब छोड़कर जैसे उन नादान छोकरों को समझाने की आखिरी नैतिक कोशिश कर रहा था।
यही पल था, जब मैं और सुनीता वहाँ पहुँचे, “क्या बात है भाई?...इन्हें क्यों मार रहे हो? इनका क्या स्वार्थ था? ये तो सिर्फ समझा रहे थे कि एक गरीब को मारकर तुम्हें क्या मिलेगा।”
इस पर उलटे वे बिफर गए। और उनके निशाने की जद में हम भी आ गए।
“गरीब है तो क्या, एहसान है हमारे ऊपर कोई! मारेगा हमें? बड़े दिमाग खराब हो गए हैं इन भैन...के!”
उनमें से एक लाला किस्म का लड़का जो थोड़ा कसरती लग रहा था, अपनी ‘संस्कृति’ का परिचय दे रहा था।
“भाई, जान के तो इसने मारा नहीं। गलती से लग गया, तो जान ले लोगे क्या इसकी? ये साहब तो यही समझा रहे थे।...इसमें गलत क्या है भाई!” सुनीता ने समझाने की कोशिश की।
“जब आपको लगे, तब आपको पता चले! चले आए जाने कहाँ के पागलखाने से?”
अब वे लोग आँखें लाल करके हमारी ओर मुड़े। मैंने मि. आनंद से कहा, “आप जाइए, हम इनसे बात करते हैं।”
फिर तीन-चार लोग जो वहाँ दर्शक के रूप में उपस्थित हो गए थे, मि. आनंद को समझा-बुझाकर अपने साथ ले गए। तब तक रिक्शा वाला भी चुपके से निकल गया था।
उन हुड़दंगियों ने, हम पति-पत्नी पर एक अश्लील, अभद्र निगाह डाली और दो-एक गालियाँ बकने के बाद आगे चले गए।
हम मुड़े और घर जाते हुए देर तक मि. आनंद की चर्चा करते रहे। किसी गरीब के पक्ष में ऐसा नैतिक साहस आजकल दिखाता ही कौन है!
4
यही मि. आनंद थे—आर.डी. आनंद यानी रामजीदास आनंद। अपराजिता के पिता। (हालाँकि तब तक हम उनका नाम कहाँ जानते थे!) लेकिन ठहरिए, अपराजिता की कथा तो थोड़ा ठहरकर चलेगी। अभी मि. आनंद से अगली मुलाकातों और घनिष्ठता की कथा पहले कह लेने दीजिए।
मि. आनंद कौन हैं? इसका पता दो-तीन महीने बाद हमें लगा, जब एक दिन सड़क पर घूमते समय हमने उन्हें देखा और पुकार लिया। उन्होंने जरा हैरानी से हमें देखा, तो हमने कहा, “आपने उस दिन बहुत अच्छा काम किया कि एक गरीब रिक्शे वाले को बचा लिया, वरना वे लोग तो उसे बुरी तरह मारने पर उतारू थे! आप की ही हिम्मत थी कि आप भिड़ गए, नहीं तो गरीब की बात आज के जमाने में कौन करता है? गरीबी तो एक तरह से गाली ही है और आज की ‘ग्लोबल’ दुनिया में और बुरी गाली बन गई है। आज आदमी बेईमान से बेईमान बंदे को तो बर्दाश्त कर सकता है, पर गरीब को नहीं!...गरीब से सबको बदबू आती है।”
कुछ देर के लिए अचकचाकर उन्होंने हमें देखा, जैसे हलकी विस्मृति के धुँधलके से धीरे-धीरे उबर रहे हों! फिर एकाएक आँखों में चमक भरकर बोले, “अच्छा, अच्छा! हाँ, आप लोग भी तो थे उस समय। अब मुझे याद आ गया...सब कुछ!”
फिर जैसे उन्हें शब्द न मिल पा रहे हों, भीतरी उत्तेजना में बहते हुए बोले, “आपने तो...आपने तो एक ऐसा प्रसंग याद दिला दिया कि क्या कहूँ। वो दिन...वो दिन मेरे लिए भी कुछ अजीब ही था।”
लगा कि वह घटना एक बार फिर से उनकी आँखों के आगे घट रही है और वे उसके तमाम डिटेल्स पर एक बार फिर से गौर कर रहे हैं।
“असल में...पता नहीं, आपने गौर किया कि नहीं, वे लोग पिए हुए थे! थोड़ी-सी अंदर पेट में पड़ी हुई थी, वही बुलवा रही थी उनसे! लेकिन चलिए, उनका अपना जीवन है, हमारा अपना। सवाल यह है कि वो अगर नहीं बदल सकते, तो हम क्यों बदलें? आखिर हमारे भी कुछ उसूल हैं! हैं कि नहीं?”
मि. आनंद की आँखों में वही चमक आ गई जो शायद उन्हें मि. आनंद बनाती थी।
उसी दिन बातों-बातों में उनसे बड़े अनौपचारिक अंदाज में और बड़ी गरमजोशी से परिचय हुआ। मालूम पड़ा कि वे कभी भारत सरकार के स्टेटिस्टिक्स डिपार्टमेंट में बड़े अधिकारी थे और अब सेवामुक्त हैं। यह जानकर कि मैं दिल्ली के एक बड़े राष्ट्रीय अखबार में काम करता हूँ, उन्होंने ‘बल्ले-बल्ले’ वाले स्टाइल में कई पत्रकारों के नाम गिनाए जो उनके परिचित थे। इन्हीं में एक सूरजमल भी थे, जो उनके अच्छे परिचित और पारिवारिक मित्र थे। मि. आनंद का जब जयपुर तबादला हुआ था, तब उनका मकान सूरजमल के मकान की बगल में ही था। तब से उनसे हुई घनिष्ठता अब तक चली आई थी। इस कदर कि उनका नाम लेते-लेते मि. आनंद आनंदित हो उठते थे।
चलते-चलते उन्होंने हमारे घर का नंबर पूछा और बड़े ही इत्मीनान से कहा, “मैं आऊँगा कभी!”
5
फिर एक दिन मि. आनंद आए—अचानक ही! काफी विस्तार से और काफी जोशखरोश से उनसे बातें हुईं और उस दिन उनके व्यक्तित्व के तमाम पन्ने खुले। कुछ वे भी जिनका हमें हलका-सा अंदाजा तो था, पर...
बातों-बातों में उस रिक्शे वाले की चर्चा फिर से छिड़ गई, जिसे बचाने के चक्कर में उन्होंने ‘लाला’ किस्म के उन तमाम खाए-पिए, अघाए, बदजबान युवकों से पंगा लिया था। और जब हमने यह चर्चा की कि “साहब, आज के वक्त में गरीब या कमजोर की बात कहने वाला कौन है? सबको अपनी-अपनी पड़ी है!” तो मि. आनंद एक क्षण के लिए कहीं खो गए। फिर धीरे से उन्होंने बताया कि यह सब उनके लिए इसलिए अप्रत्याशित नहीं है क्योंकि वे शुरू से महर्षि अरविंद के दर्शन से प्रभावित हैं। वे मानते हैं कि इंसानियत की सेवा के द्वारा ही ईश्वर की सर्वोत्तम भक्ति हो सकती है।
“यह तो...यह तो ठीक वही बात है जो हम भी सोचते हैं।” मैंने उत्साह से बताया। और सचमुच उसी क्षण लगा, मि. आनंद को जानने की शुरुआत तो अब हुई है। हम अभी-अभी उन्हें समझ पाए हैं।
और तब एक भारी-भरकम दुख की किताब के ऐसे पन्ने खुले, जिन्हें आदमी कभी-कभार ही, किन्हीं अपनों के आगे खोलता है। इसलिए कि जितने-जितने वे खुलते हैं, उतनी-उतनी ही उसकी आँखें खाली होती जाती हैं।
तब मालूम पड़ा कि मि. आनंद ने अपनी ईमानदारी के चलते, जीवन में काफी कुछ खोया, काफी कुछ बर्दाश्त किया है। और न सिर्फ उन्होंने, बल्कि उनके पूरे परिवार ने ही!
“और सच पूछिए तो, ‘खोना’ तो आसान लफ्ज है। वह खोना नहीं था। वह तो एक काली आँधी थी। बहुत विकराल काली आँधी, जो हमारा सब कुछ लील गई। हमारा सारा सुख...खुशियाँ, आई कांट टैल यू!” मि. आनंद सिर पकड़कर बैठ गए, जैसे भीतर हो रहे विस्फोटों से उन्हें सिर फट जाने का खतरा हो!
“लेकिन क्यों...क्यों, कैसे?” उत्तेजना में न चाहते हुए भी मेरे मुँह से निकला। मुझे शुरू से लगता था, मि. आनंद बहुत-कुछ भीतर छिपाए बैठे हैं। कुछ न कुछ ऐसा घटा है इनके साथ कि...
और तब खुला ‘महाभारत’ का एक नया चैप्टर—इमरजेंसी! पता चला कि इमरजेंसी मि. आनंद की यातनाओं का असली केंद्र है। इससे पहले उनका जीवन इतने अच्छे और संतुलित ढंग से चल रहा था कि उसकी स्मृति भी उन्हें डराती है।
“क्यों, इमरजेंसी क्यों?” मैंने जैसे किसी यांत्रिक चिड़िया की तरह टिटकारते हुए पूछ लिया। पता नहीं, होश कहाँ और क्यों गुम हो गया था।
“असल में मनु जी, अब अपने बारे में ज्यादा कुछ कहना तो अच्छा नहीं लगता।” मि. आनंद ने मेरी आँखों में झाँकते हुए कहा, “बस, इतना समझ लीजिए कि मैं एक सख्त अफसर माना जाता था। इमरजेंसी में मुझसे कहा गया कि मैं अपने अंडर काम करने वाले कुछ कर्मचारियों की सी.आर. खराब कर दूँ! ‘पर क्यों...किसलिए? वे तो अपना काम बहुत अच्छी तरह कर रहे हैं।’ मैंने जानना चाहा। तब मालूम पड़ा कि सी.आर. इसलिए खराब की जानी है, क्योंकि उनका कुछ खास तरह का ‘पोलिटिकल लिंक’ है...
“मैंने बिगड़कर कहा कि उनका क्या पोलिटिकल लिंक है, क्या उनकी विचारधारा है, यह आप जानें! पर जहाँ तक काम का सवाल है, मुझे उनके काम से कोई परेशानी नहीं है। बल्कि वे मेहनती और ईमानदार लोग हैं, लिहाजा उनकी सी.आर. खराब करना मेरे बस की बात नहीं है। मैं यह सब नहीं करूँगा, हरगिज नहीं।”
कहते-कहते मि. आनंद आवेश के मारे काँपने लगे थे।
मैंने उनके कंधे पर हाथ रखा, मानो कहना चाहता होऊँ, ‘मि. आनंद आराम से, आहिस्ते से...!’ पर कहा मुझसे एक शब्द भी गया।
मि. आनंद ने थोड़ा सँभलने की कोशिश की, पर आवेश दबाने की कोशिश में उनकी आवाज थोड़ी लड़खड़ा गई। आहिस्ता-आहिस्ता उन्होंने खुद को साधा—
“मैं...मैंने आपको बताया, बड़ा सख्त अफसर माना जाता था और वे लोग अच्छी तरह जानते थे कि मुझे झुकाया नहीं जा सकता!...आप सुन रहे हैं न! तब उन लोगों ने एक अलग रास्ता निकाला—दे दनादन तबादले, दे दनादन तबादले! साल में दो-दो, तीन-तीन तबादले। आप अंदाजा लगाइए। इसमें हमें जो परेशानी उठानी पड़ी, वह तो थी ही, पर बच्चों ने सफर किया और उनका कॅरियर तो एकदम चौपट हो गया। इसलिए कि एक जगह से दूसरी जगह आप जाते हैं, तो वहाँ पढ़ाई का अलग ही सिस्टम होता है। उसे सीखने-जानने में ही इतना वक्त लग जाता है कि ढंग से पढ़ाई हो ही नहीं पाती। और जब तक ठीक-ठाक सीख पाएँ, तब तक फिर तबादला। वे लोग जानते थे मि. आनंद को ऐसे ही मारा जा सकता है!
“मेरी बेटी तो—अब आपको क्या बताऊँ, इसीलिए डिप्रेशन की शिकार हो गई। अब तो कहती है, जीने की इच्छा ही बाकी नहीं रही! बुरी तरह परेशान रहती है।”
कहते-कहते मि. आनंद थोड़े असहज हो गए।
“कितने बड़े हैं आपके बच्चे...?” पूछने पर पता चला कि लड़की अड़तीस की है, लड़का चौंतीस का। दोनों में से किसी का विवाह नहीं हुआ। “लड़की का हो नहीं सकता। और अब लड़का कहता है, बहन का जब तक न हो, मैं कैसे करूँ?” मि. आनंद पता नहीं बता रहे थे या बताते-बताते मुँह छिपा रहे थे।
“करते क्या हैं, कोई जॉब...?” ऐसा सवाल कि पूछते हुए मैं खुद डरा।
एक अप्रिय-सी चुप्पी। फिर उसे खुद ही तोड़ते हुए मि. आनंद ने बताया, “लड़के का प्रिंटिंग का काम है। और लड़की...?” मि. आनंद के मुँह से एक आह-सी निकल गई, “वैसे तो जीनियस है! पत्रकारिता में काफी काम किया है उसने, टीचिंग भी की है। कभी-कभी पेंटिंग्स वगैरह भी करती है, पर कोई गाइड करने वाला नहीं है! तो कुछ दिन तो जमकर काम करती है, फिर अपने आप धीरे-धीरे छोड़ देती है। कहती है, आजकल इच्छा ही नहीं होती, हर चीज की इच्छा ही मर गई है!”
आखिरी वाक्य कहते-कहते मि. आनंद की आवाज ही नहीं, उनकी आँखों की चमक भी जैसे बुझ-सी गई थी। मेरे हाथों को झपटकर अपने सख्त हाथों में दबोचकर बोले, “आप अगर उससे कुछ बात करके उसे गाइड कर सकें, उसमें लगकर कुछ काम करने की इच्छा जगा सकें तो बड़ी मेहरबानी होगी आपकी।”
बड़ी मुश्किल से वे उस अनुरोध को गिड़गिड़ाहट में बदलने से बचाए हुए थे।
“और देखिए, मुझे तो इंट्यूशन हुआ है कि आपका मुझसे मिलना जरूर किसी अच्छे के लिए हुआ है। इसमें जरूर ईश्वर की ही कोई छिपी हुई इच्छा है! ईश्वर ने हमारे जीवन में आशा की कोई किरण भरने के लिए आपको हमारे पास भेजा है!”
मि. आनंद की आवाज फिर कँपकँपा गई।
कृतज्ञता! यह शायद कृतज्ञता जैसी ही कोई चीज थी, जिसकी वजह से उनकी आँखें नीचे झुक गई थीं।
“नहीं-नहीं, आप ऐसा क्यों कह रहे हैं? मैं तो एक मामूली आदमी हूँ, बेहद मामूली! आप शायद मुझसे जरूरत से कुछ ज्यादा उम्मीद कर रहे हैं।”
उन्होंने आद्र्र आँखों से मुझे देखा। मेरे हाथों को फिर कसकर अपने हाथों में दबाया और बोले, “आप क्या हैं, यह आपको बताने की अब कोई जरूरत तो नहीं रह गई! आपसे दो-तीन मुलाकातों में ही मैं अच्छी तरह पहचान गया हूँ आपको! आपको हमारी मदद करनी ही होगी। आप समय निकालकर कभी हमारे घर आएँ...!”
6
उसके कुछ रोज बाद सुबह-सुबह मि. आनंद का फोन आया। उन्होंने पूछा कि दिल्ली में पत्रकारिता का कोर्स कहाँ से हो सकता है और क्या मेरी कहीं कोई जान-पहचान है?
मेरे जैसे एकांतप्रिय आदमी की जान-पहचान होने का सवाल ही नहीं था। मैंने उन्हें बताया और वजह पूछी कि वे क्यों जानना चाहते हैं?
मालूम पड़ा कि उनकी बेटी अपराजिता पत्रकारिता में कोई कोर्स करना चाहती है। यह भी पता चला कि उसने कोटा से पत्रकारिता का डिप्लोमा करना चाहा था, पर बीमारी के कारण वह उसे पूरा नहीं कर पाई थी। उसकी रुचि पत्रकारिता में है, तो यह डिप्लोमा करने से उसे काफी मदद मिल जाएगी।
“अगर आपकी मदद से वह यह कोर्स कर ले तो उसमें काफी आत्मविश्वास आ जाएगा। हो सकता है, उसके मन पर निराशा का जो बोझ है, वह उतर जाए। आप कृपया हमारे घर आएँ कभी! मुझे लगता है, मुझे आपकी जरूरत है! प्लीज...सर!” अपने अनुरोध का स्वर गाढ़ा करते हुए उन्होंने फोन रखा।
उसी शाम को मैं और सुनीता मि. आनंद का घर पूछते-पूछते उनके घर पहुँचे।
उस समय मि. आनंद घर पर नहीं थे। उनकी पत्नी और बेटे से मुलाकात हुई। मैंने परिचय दिया तो उन्होंने कहा, “बैठिए...बैठिए, वे अभी दस-पंद्रह मिनट में आते ही होंगे।”
मि. आनंद की पत्नी और बेटे से बात हो रही थी। थोड़ी देर में एक दुबली, साँवली लड़की भी आ गई और हलके-से परिचय के बाद बातचीत में शामिल हो गई। हमें यह समझते देर न लगी कि यही अपराजिता है।
उसके चेहरे पर स्थायी रूप से रहने वाला एक आहत निराशा का भाव हमें सबसे पहले दिखा। और अंत तक यही हम पर हावी रहा।
यों उसमें और कुछ था भी क्या! थोड़ा आगे को झुका हुआ दुबला, साँवला शरीर, चेहरे पर हलकी विद्रूपता। एक चिड़चिड़ापन भी, जो उसके स्वभाव का अनिवार्य हिस्सा बन चुका था।
“मैं प्रभात टाइम्स में हूँ।” मैंने झिझकते हुए परिचय दिया। फिर पूछ लिया, “क्या आप ही पत्रकरिता में कोर्स करना चाहती हैं?”
“देखिए, सोचती तो हूँ। फिर आप सजेस्ट कीजिए कुछ! आपका गाइडेंस मेरे लिए उपयोगी होगा। यों मैंने अ...अ...यहाँ के लोकल पेपर ‘शेरे हरियाणा’ का संपादन किया है कुछ समय तक...” कुछ टूटी-फूटी, आत्मविश्वास विहीन बातें।
“वैसे क्या लिखती हैं आप खासकर...?”
“सभी कुछ लिख लेती हूँ—रिपोर्टिंग, लेख, फीचर, कविताएँ, कहानियाँ। जब भी जिस चीज की जरूरत हो।”
“अरे!” मेरे मुँह से निकला, “ऐसा...?”
“अब जैसे आप ‘प्रभात टाइम्स’ की बाल पत्रिका ‘नवप्रभात’ में काम करते हैं तो आप अगर यह कहें कि हमारा पन्ना खाली है, आप जल्दी से हमारे लिए कविता या लेख या कहानी लिखकर दे दें, तो मैं लिख सकती हूँ। इस मामले में काफी अनुभव है मुझे।”
“किस तरह का अनुभव...?” अनचाहे ही मेरे मुँह से निकल गया।
“काम का अनुभव और क्या! आप तो पत्रकारिता में हैं, जानते ही होंगे मेरी बात का मतलब!” उसने थोड़ा बिगड़कर कहा।
फिर पता चला कि लोकल पेपर ‘शेरे हरियाणा’ के अलावा उसने दिल्ली के एक अखबार ‘जनमार्ग’ में स्ट्रिंगर का काम भी किया है, लंबे अरसे तक।
“और वहाँ का अनुभव?” मैंने जानना चाहा।
“पचास-सौ रुपए रोज के मिल जाते थे और बदले में मुझे जाने कहाँ-कहाँ तक दौड़ना पड़ता था।” वह थोड़ी आविष्ट हो चली थी, “आज फलाँ से इंटरव्यू, कल ढिकाँ से! फिर रिपोर्टिंग। कहीं क्राइम हुआ है या कोई और घटना, तो रिपोर्टर तो आराम से दफ्तर में बैठे हैं, हमें भेज दिया जाता था कि जाकर मौके पर लोगों से बात करके आओ! हम जाने कहाँ-कहाँ भागते फिरते थे।...शाम को रिपोर्ट लेकर आते तो थोड़ा आगा-पीछा बदलकर और बीच-बीच में कुछ शब्द अपने डालकर वे लोग लेते थे अपने नाम से। हमें पचास-साठ रुपए दे दिए जाते थे। कभी-कभी सौ रुपए भी। कुछ तय नहीं था, उन्हीं की मर्जी से चलता था सब कुछ। पर नाम हमारा कभी नहीं जाता था। किसी को नहीं मालूम पड़ता था कि इसके पीछे असली मेहनत किसकी है? किसने इतना पसीना बहाया, सुबह से शाम तक जूतियाँ चटकाईं, बसों में धक्के खाए? इसका कोई हिसाब नहीं।”
“तो क्या आई कार्ड भी मिलता था आप लोगों को?”
“हाँ, आई कार्ड भी मिलता था। पर शाम को जब हम जाते थे, तो रिपोर्ट के साथ-साथ आई कार्ड भी रखवा लेते थे।”
यह पत्रकारिता जगत के ‘भीतरी अँधेरे’ की एक बिलकुल नई खबर थी मेरे लिए। खासकर एक ऐसे अखबार के लिए, जिसका आप्त वाक्य था—‘सबकी खबर दे, सबकी खबर ले!’
अपराजिता टूटे-टूटे स्वर में बता रही थी, “उन दिनों जाने किन-किन लोगों से मैं जाकर मिली, जाने किस-किस से मुलाकात हुई। बसों में बैठकर सारे दिन हम धक्के खाते थे। आज यहाँ, कल वहाँ, परसों कहीं और! बस, मकसद यही होता था कि जिस काम से निकले हैं, किसी भी तरह वह पूरा होना है, काम किए बगैर लौटना नहीं है।”
“ऐसे ही एक दिन यकीन करेंगे आप—कि मैं तिहाड़ पहुँच गई किरण बेदी से मिलने! कोई पहले से अपॉइंटमेंट तो लिया नहीं था, बस सीधे ही पहुँच गई। साथ में दो-एक और भी स्ट्रिंगर थे। हमसे कहा गया था कि किरण बेदी से तिहाड़ जेल के बारे में बात करके आनी है। अब मैं गई तो बाहर जो दरबान था, उसने घूरकर देखा कि क्या बात है? थोड़ा मैं सहम गई। फिर हिम्मत करके मैंने कहा कि किरण बेदी से मिलना है। तो उसने घुड़कर कहा, ‘क्यों, तुम लोग क्या चोर हो? क्यों भीतर आना चाहते हो...?’ इस पर और लोग तो डर गए, पर मैंने कहा, ‘मुझे तो मिलना है किरण बेदी से, हर हाल में! अखबार में लिखना है उनसे बात करके! तुम्हें जो करना है, कर लो।’
“दरबान पुकारता रह गया और मैं यह जा, वह जा। सीधे किरण बेदी के सामने। अब पता नहीं, आप उससे मिले हैं या नहीं, लेडी वो ग्रेट है! कम से कम सड़ियल नहीं है, दूसरे अफसरों की तरह। तो अंकल, उसने मुझे देखा तो पूछा कि अरे, तुम तो छोटी-सी हो बेटी!...तुम कैसे आ गईं यहाँ? किसी ने रोका नहीं? फिर बोलीं—ठीक है, मैं पंद्रह मिनट तुमसे बात कर सकती हूँ। फिर मुझे जाना है कहीं, अपॉइंटमेंट है! मैंने कहा—ठीक है, पंद्रह मिनट ही काफी हैं मेरे लिए...!
“और फिर जब मैं बात करके आई, तो जितने और स्ट्रिंगर थे मेरे साथ के, वे सब तो हैरान-परेशान कि साहब, बड़ा क्रेज है इस लड़की में तो! और यह तो अंकल, कोई पंद्रह साल पहले की बात है, तब मैं थी ही क्या! एक इक्कीस साल की जरा-सी छोकरी! पर हिम्मत खूब थी मुझमें। हाल यह था कि कोई बड़े से बड़ा काम दे दो, मुश्किल से मुश्किल काम, पर मेरे मुँह से ‘न’ नहीं निकलेगी। काम हर हाल में पूरा करके लाऊँगी! चाहे जान पर खेलना पड़े!”
अपराजिता के भीतर एक और अपराजिता!...कितनी अपराजिताएँ? मैं यही सोच रहा था।
“हालाँकि इतने बरस हो गए अब तो, सब कुछ बदल गया तब से! न वे लोग रहे, न समय! जो सज्जन मुझे जानते थे और काम देते थे—कोई मिश्रा जी करके थे, भले आदमी थे, पिता की तरह। वे नौकरी छोड़कर चले गए। उनकी जगह जो नाटा-सा, काला-सा लड़का आया, शराबी आँखों वाला, उसे सेक्स चाहिए था। गरम मांस, वह मेरे पास था नहीं। उसने एक सेक्सी-सी लड़की को टुकड़े डालने शुरू किए। शादी का लालच दिया, काम दिया। बाद में सुना, वह तबाह हुई। खैर छोड़िए, अब इसकी चर्चा से क्या फायदा? अब तो कोई जानता भी नहीं होगा कि कौन थी वह लड़की अपराजिता आनंद नाम की, क्या काम किया उसने? क्या बेताबी थी उसमें?...क्यों थी?
“यकीन करेंगे अंकल, ढेरों अवार्ड मिले थे मुझे। ढेरों फोटोग्राफ थे, पता नहीं किस-किस लीडर के साथ? अब तो सब इधर-उधर हो गए। बहुत से फाड़-फूड़ दिए मैंने...कि क्या होगा सँभालकर, जब कुछ बचा ही नहीं अब! किसको बताना कि हमने क्या किया, क्या नहीं...कि हम बड़े फन्ने खाँ थे और सच में कुछ करना चाहते थे! किसे फर्क पड़ता है इससे? सच तो यह है अंकल कि जिनका अतीत बर्बाद हो जाता है, उनका वर्तमान भी अक्सर धोखा देता है। ऐसा न होता, तो क्या यह हो सकता था कि तीन-चार सौ रुपल्ली की स्कूली नौकरी के लिए भी मुझे धक्के खाने पड़ते! एक जगह अपॉइंटमेंट मिला, पर महीने-डेढ़ महीने में बाहर! हेडमिस्ट्रेस जितना झुकाना चाहती थी, उतना झुकने को मैं तैयार नहीं थी। ट्यूशन खोजे, मगर वहाँ भी यही चक्कर। जो टीचर कहीं पढ़ा रही हो, सब उसी के पास जाते हैं। मेरे पास कोई क्यों आता? यों मैं एक बार टूटी तो फिर टूटती ही चली गई—आउट आफ टै्रक! ऐसे बंदे को पूछना कौन है?”
लगा, जैसे वह खुद से ही प्रलाप कर रही हो।
7
“जरा रुकिएगा...अंकल!” अचानक जाने क्या हुआ कि वह झटके उठ खड़ी हुई अैर लगभग दौड़ती हुई साथ वाले कमरे में चली गई।
लौटी तो उसके हाथ में फ्रेम में मढ़ा हुआ एक बड़ा-सा फोटोग्राफ था। उसने वह फोटोग्राफ मेरे हाथ में पकड़ाया।
काफी धुँधले हो चुके उस फोटोग्राफ में ज्ञानी जैलसिंह कुछ पत्रकारों से बात कर रहे थे और उसमें उनके सबसे निकट थी अपराजिता आनंद। आज से काफी अलग-सी शक्ल...लेकिन पहचान में आ जाती थी। यह एक ऐसी अपराजिता आनंद थी, जिसके चहरे पर उखड़ा-उखड़ापन या कसैली चिड़चिड़ाहट नहीं, गहरा आत्मविश्वास था।
ज्ञानी जैलसिंह का दायाँ हाथ अपराजिता के सिर पर था, जैसे उस हिम्मती लड़की को प्यार से शाबाशी दे रहे हों!...
हमें गौर से उस चित्र को देखते देखकर अपराजिता के कलेजे में जैसे दर्द की लकीर-सी खिंच गई। तड़पकर बोलीं, “अब इस सबको याद करने से फायदा? पता नहीं क्यों मैं आपको बता रही हूँ? इतने सर्टीफिकेट थे मेरे पास डिबेट के...मैं इतनी अच्छी डिबेटर थी कि आपसे क्या कहूँ! कोई पंद्रह-बीस शील्डें तो जीती होंगी! और जाने कितनी कविताएँ मैंने लिखीं, कहानियाँ लिखीं, लेख लिखे। उनमें से कुछ भी बचाकर नहीं रखा। एक दिन जरा गुस्से में थी तो बस कुछ फाड़-फाड़कर जला दिया...कि न ये चीजें आँख के आगे रहेंगी और न मुझे दुख होगा।”
जैसे कोई फिट पड़ा हो उसे। उसकी आँखों की रंगत मुझे कुछ बदलती हुई-सी लगी। फिर कोशिश करके उसने खुद को साधा।
मि. आनंद और मिसेज आनंद—मैंने गौर किया, बेहद असहज थे। जैसे उनका सारा लहू निचुड़ गया हो।
“आप ही बताइए अंकल!...क्या मैंने गलत किया? कब तक ढोती रहूँ इन सबको? सर्टीफिकेट, फोटो, यादें जमाने भर की कि हम भी कभी कुछ थे और बीमारी ने तोड़ न दिया होता तो जरूर कुछ न कुछ बड़ा काम कर सकते थे। इस सबसे क्या फर्क पड़ता है! जो नहीं हुए, सो नहीं हुए! और अब तो दुनिया जानती है कि यह लड़की पागल है। अड़ोस-पड़ोस में सबको मालूम ही है। और जो है, सो है, वो अब बदल नहीं सकता। भले ही...भले ही मेरे पापा सबके आगे मेरी झूठी तारीफ करते रहें कि मेरी बेटी ये है, मेरी बेटी वो है कि मेरी बेटी जीनियस है, जर्नलिस्ट है, डिबेटर है—सारी दुनिया से अलग है! तो देख लो आप अपनी आँख से, कैसी है इनकी बेटी! अब क्या बचा है मुझमें? एक पागल, सिर्री सी लड़की हूँ—न जीती, न मरती! न जिंदा में मेरी शुमार है, न मुर्दों में! यों भी अब अड़तीस की तो हो गई! अब क्या बाकी रहा?...शादी तो अब हो नहीं सकती। अब कौन करेगा मुझसे शादी? कौन ऐसा अभागा होगा पृथ्वी पर जो मुझे अपना साथी बनाना पसंद करे! अब तो बस, इसलिए जिए जाती हूँ कि मर नहीं सकती। तो जितने दिन साँस है, जीना ही है!
“यों तो भाई, पिता हैं, माँ है...सब अच्छे हैं। बुरा तो कोई नहीं। पर सबकी अपनी लाइफ है, अपने-अपने सुख-दुख हैं। पर मेरा तो कोई नहीं है। मैं तो ऐसी अभागी हूँ जो पता नहीं जिंदा ही किसलिए हूँ? मुझे तो पत्थर गले में बाँधकर डूब जाना चाहिए।”
और फिर फटी-फटी-सी आँखों से मुझे देखते हुए, अजीब-सी आवाज में उसने कहा, “आप यकीन नहीं करेंगे, मरने की कई कोशिशें कर चुकी हूँ। पर...मेरा भाग्य ही बुरा है जो अभी तक जिंदा हूँ। किसी को क्या दोष दूँ?’
कहते-कहते धरती और आकाश को भेद देने वाले एक घनघोर चीत्कार के साथ वह गिर पड़ी और फूट-फूटकर रोने लगी!...
किस तरह मुश्किल से उसे सँभाला गया, कैसे फिर से हम उसे ‘सम’ पर लाए, यह चर्चा फिलहाल रहने ही दूँ।
पर हाँ, थोड़ी ही देर में वह प्रकृतिस्थ हुई। और जैसे भीतर का काफी ताप और गुबार निकल गया हो, सहज होकर धीरे-धीरे कुछ सोचती हुई-सी बात करने लगी।
अचानक मेरे मन में एक विचार कौंधा। मैंने उसे सुझाव दिया, “तुम अपने जीवन की पूरी कहानी लिखो। चाहो तो आत्मकथा के रूप में या फिर उपन्यास के रूप में! उससे मुझे लगता है, तुम्हें भीतर से बल मिलेगा। तुम्हारी उलझनें भी दूर होंगी। चीजें कुछ साफ-साफ नजर आएँगी। और जब भी तुम लिख लो, मुझे बताना। मैं कोशिश कर सकता हूँ कि वह कहीं छप जाए!...उसकी भूमिका के रूप में, आज तुमसे जो बातें हुई हैं, उन्हें मैं लिखूँगा। ताकि लोग जानें कि अपराजिता कहाँ से उबरकर कहाँ आ गई! योंभी दुनिया में कोई भी अपराजिता कभी हारती नहीं है। उसे जीना ही होगा, क्योंकि वह अपराजिता है, अपराजिता!”
हम उठने लगे तो अपराजिता ने अपनी डायरी उठाई और दो पंक्तियाँ लिखकर मेरे आगे रख दीं, “मेरे घर आज आए हैं पाहुन! हे ईश्वर, इन पर अपना आशीर्वाद का हाथ रखना, दया रखना!”
और मैंने मुसकराकर पनीली आँखों से देखा, तो वह झट कटे हुए पेड़ की तरह मेरे पैरों पर गिर पड़ी! मैंने हौले से उसे उठाकर उसके सिर पर हाथ रखा, तो वह सुनीता के कंधे से लगकर हिलग-हिलगकर रोने लगी।
जब हम लोग चलने के लिए उठ खड़े हुए, तो शायद सभी की आँखें छलछला रही थीं। चलते-चलते मैंने पीछे मुड़कर देखा, अपराजिता की आँखें हम पर टिकी हुई थीं। एकदम निर्मल दृष्टि, जिसमें कहीं कोई उन्माद का रंग नहीं था।
उस रात हम नहीं सो सके। पूरी रात मैं और सुनीता उसी की बातें करते रहे—अपराजिता...अपराजिता...अपराजिता...!
सुबह हलकी-सी नींद आई थी कि फिर किसी ने झिंझोड़कर उठा दिया। उफ, अपराजिता की वे करुण आँखें!
8
उसके बाद दो-एक बार फिर मि. आनंद मिले।
“अपराजिता ने लिखना शुरू किया या नहीं?” उत्सुकता से मैंने पूछा।
उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। तो क्या वह रोशनी जो उस दिन नजर आई थी अपराजिता की आँखों में, वह सिर्फ एक अंधी रोशनी साबित हुई?
मैं ठीक-ठीक भी कह नहीं सकता। और जाकर अपराजिता से पूँछूँ, यह साहस भी आज तक मैं नहीं कर पाया। क्या इसलिए कि अपराजिता की आँखों से अब मुझे डर लगने लगा है—या...?