अपनी डफली (कहानी) : गुरुदत्त

Apni Dafli (Hindi Story) : Gurudutt

देश के स्वार्थी लोगों की भाँति घर में स्त्रियों की स्थिति होती है । प्रायः स्त्रियाँ ही बहुत सी घरेलू अशांति के लिए उत्तरदायी सिद्ध होती हैं ।किसी बड़े जमींदारी की भाँति अपने पति की संपत्ति पर पूर्णाधिकार स्थापित करने के लिए वे युक्तियाँ प्रयुक्त करती हैं । लड़ाओ और मौज करो, इस सिद्धांत का इस निमित्त साधारणतया प्रयोग किया जाता है ।

निर्मला जब प्रथम बार अपनी ससुराल आई, तो उसने भी ठीक वैसा ही किया । विवाह के बाद पहली मधुर रात्रि व्यतीत करने के उपरांत केशव नहीं चाहता था कि ऐसा कोई प्रसंग छेड़ा जाए, जिसमें परस्पर विरोध हो , परंतु निर्मल अत्यंत सावधान थी ।

उसने अपने पति के बड़े भाई का बहुत बड़ा परिवार देख मन में निश्चय कर लिया कि इस महासमुद्र में बूंद बनकर वह नहीं रहेगी । वह अपने पति की वस्तुओं का निरीक्षण करने लगी । वे संख्या में बहुत कम थीं । दो - चार फटी कमीजें , दो पैंट और एक कोट । जो व्यक्ति कई वर्षों से तीन सौ रुपए मासिक वेतन पा रहा हो , उसके वस्त्रों का यह हाल? और फिर पति के शृंगार की वस्तुओं में एक शेविंग ब्रश, कप- सोप तथा एक जापानी बहुत ही पुराना सेफ्टी- रेजर । अपने पति की ऐसी दयनीय स्थिति को देख निर्मला को यह निर्णय करने में विलंब नहीं लगा कि उसका पति अपनी सारी आय अपने भाई के परिवार पर बरबाद कर रहा है । उसने अपने पति से पूछा, " शादी से पहले , जो नेवी - ब्ल्यू सूट आप पहनते थे, वह कहाँ है ? "

" अरे , उसके बारे में तुम क्यों चिंता करती हो ? मैंने वह उस व्यक्ति को दे दिया है, जिसको उसकी आवश्यकता थी । "
" तो अब आप क्या पहनेंगे ? "
" यह नया सूट , जो तुम्हारे पिताजी ने मुझको दिया है । "
" ओ हो , और उस धन का क्या हुआ , जो आप इतने वर्षों से कमा रहे हैं ? बैंक में कितना जमा किया है ? "

" श्रीमतीजी, मैं आज तक बैंक में घुसा ही नहीं , जमा क्या करवाऊँगा? वास्तव में मुझे हिसाब-किताब रखने की आदत नहीं , किंतु तुम्हें इस सबकी चिंता क्यों हो रही है ? विशेषतया उस समय जबकि हमारे पास अन्य बहुत सी आनंददायक बातें करने के लिए पड़ी हैं । " केशव ने निर्मला को जरा अपने समीप खींचते हुए कहा ।

निर्मला ने केशव के खींचने का विरोध नहीं किया, परंतु साथ ही कह दिया, “ यह तो ठीक है, परंतु मैं चाहती हूँ कि ये आनंद की घड़ियाँ दिनों में और वे दिन वर्षों में परिणत हों । "

" वह तो होगा ही । " इतना कह केशव ने कसकर उसका आलिंगन कर लिया । जब उसकी पकड़ कुछ ढीली पड़ी, तो निर्मला ने अवसर देख पुनः कहा, “ पर धन के बिना जीवन नहीं चल सकता । "
" अरे , छोड़ो इन छोटी - छोटी बातों को । इनसे हमें अपना मन खराब नहीं करना चाहिए । "

केशव धन- संपत्ति की इन गंभीर बातों की अपेक्षा मधुर बातें करने पर तुला था । निर्मला ने भी अब समझा कि आज के लिए इतना पर्याप्त है । अतः उसने प्रसंग आगे नहीं बढ़ाया ।

थोड़े ही दिनों में उसने समझ लिया कि उसका पति बहुत ही फिजूल - खर्चहै । अगले महीने की पहली तिथि को उसने अपने तीन सौ रुपए वेतन का हिसाब अपनी पत्नी को बता दिया । उसने कहा, " सौ रुपए घर के खर्च के लिए, पचास रुपए तुम्हारे पॉकेट खर्च के लिए और डेढ़ सौ रुपए मेरे अपने प्रयोग के लिए । "

किंतु यह वितरण निर्मला को नहीं भाया। वह सभी मुद्दों का विस्तृत विवरण चाहती थी । केशव के पास भी छिपाने को कुछ नहीं था । उसने कहा, " भोजन , निवास, आतिथ्य आदि का खर्च सौ रुपए में चलेगा, जिसका प्रबंधन भाभी करेंगी। "

" भाभी क्यों ? मैं क्यों नहीं ? "
" हाँ , तुम्हें उनकी सहायता करनी चाहिए । "
" जैसे बड़े बाबू के अधीन छोटा बाबू रहता है ? "
" तुम इसे ऐसा भी समझ सकती हो । "
" लेकिन सौ रुपए तो इसके लिए बहुत अधिक हैं । हम दो जने इतना तो नहीं खा जाते । "
" मेरी प्यारी निर्मल, हम दो नहीं दस हैं । "
" दस! आपके कहने का अभिप्राय यह है कि आपके भाई , उनकी पत्नी और उनके सब बच्चे? "
" हाँ ! "
" तो क्या उन सबकी परवरिश का दायित्व हम पर है ? "
" नहीं , हम सबका पारस्परिक दायित्व है । "
" परंतु मैं इसमें कोई कारण नहीं पाती कि हम उन पर कुछ व्यय करें ? "

" किसी के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के लिए कारण ढूँढ़ना छोटी बात है । प्रत्येक बात पर तर्क करना बुद्धिमत्ता नहीं । बच्चे को जन्म देने के बाद माँ क्यों उसको दूध पिलाती है ? माँ क्यों उस बच्चे के लिए अपना जीवन-दान करे ? "

" माँ अपने बच्चे को प्यार करती है और इसके लिए जो त्याग करना पड़ता है, वह चाहे कितना भी बड़ा हो , उसका विचार नहीं करती । "
" मैं अपने भाई और उनके बच्चों को प्यार करता हूँ । क्या यह पर्याप्त कारण नहीं कि मैं उनकी खुशी में कुछ योगदान करूँ ? "
निर्मला जब तर्क में हार गई , तो अपने उद्देश्य -सिद्धि के लिए उसने अपना दूसरा ढंग अपनाया ।

शादी हुए अभी चार मास ही हुए थे कि निर्मला का अपनी जेठानी से झगड़ा रहने लगा । एक दिन रात्रि के समय वह अपने पति से कलोल कर रही थी । पति से कोई बात मनवाने का यह उपयुक्त अवसर होता है, इसका विचार कर निर्मला ने कह दिया , " क्या आप यह चाहते हैं कि मैं दूसरों की गुलाम बनकर रहूँ ? आपकी भाभी तथा उनके बच्चों की सेवा करते - करते मैं थक गई हूँ । क्या हम किसी ऐसे स्थान पर नहीं रह सकते, जिसे हम अपना घर कह सकें और जो पूर्णतया हमारा हो, यहाँ तक कि उसमें कोई झाँक भी न सके । "

" तुम्हारा कहने का अभिप्राय यह है कि मैं अपने भैया को छोड़ दूँ। " केशव ने सचेत होकर पूछा ।
" ठीक है कि उनको कुछ आर्थिक सहायता की आवश्यकता रहती है । मैं इसमें कोई आपत्ति नहीं करती , किंतु स्वतंत्रता तो सबका जन्म-सिद्ध अधिकार है और मुझे भी तो यह चाहिए । "
“निर्मला, तुम्हारी इस बात से मैं सहमत हूँ, परंतु अपने साथियों की सेवा करना भी प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है । "

" ठीक है और यदि आप पृथक् मकान ले देते हैं , तब भी तो हम उनकी कुछ सेवा कर सकते हैं । मैं वचन देती हूँ कि आपके सभी संबंधियों के साथ मेरा व्यवहार मैत्रीपूर्ण रहेगा । देखिए, कितना आनंददायक होगा पृथक् रहना । आप मेरे लिए होंगे और मैं आपके लिए । अन्य कोई व्यक्ति बीच में दखल देनेवाला नहीं होगा । "

यह कोई तर्क नहीं था , अपितु निवेदन था । एक स्त्री की उत्कट अभिलाषा थी , जिसका विरोध केशव नहीं कर सका । अगले दिन ही उसने अपने भैया से पृथक् में कह दिया, “ मैं पृथक् मकान में रहना चाहता हूँ । "
" क्यों ? " भैया का प्रश्न था ।
"निर्मला ऐसा चाहती है और मैं उसकी इस छोटी सी माँग को ठुकराना नहीं चाहता । भैया , आपको चिंता करने की आवश्यकता नहीं है । घर के खर्चेमें मेरा सहयोग पूर्ववत् रहेगा । "
" नहीं , यदि तुम परिवार से पृथक् हो जाओगे , तो फिर ऐसा नहीं होगा । "
" पर भैया , यह तो मैं अपने स्नेहवश देता हूँ । आप क्यों इनकार करते हैं ? आपके मुझ पर बहुत से एहसान हैं । "

बड़ा भाई दृढ़-निश्चयी था । उसने कहा, " जब तक हम संयुक्त परिवार की भाँति रहते हैं , तब तक मेरे और तुम्हारे धन में कोई अंतर नहीं था , क्योंकि हमारा हित संयुक्त था । अब पृथक् - पृथक् रहने पर सबकुछ बदल जाएगा । तुम्हारा मुझे कुछ देना न तो तुम्हारी पत्नी को भला प्रतीत होगा और न ही कुछ लेना मेरी पत्नी को । "
"किंतु भैया , इन स्त्रियों को बीच में लाने की क्या आवश्यकता है ? हम इसे केवल अपने तक ही सीमित रखें । "
" नहीं, मैं तुम्हारी भाभी से छिपाकर कुछ नहीं रखता और न ही तुम्हें सुझाव दूंगा कि तुम अपनी पत्नी से कुछ छिपाकर रखो। "

परिवार विभक्त हो गया । इससे निर्मला अत्यंत प्रसन्न थी , परंतु उसकी प्रसन्नता की सीमा नहीं रही , जब केशव ने उसको यह बताया कि भैया ने उसकी सहायता लेने से इनकार कर दिया है ।

केशव का भाई माधव अत्यंत निर्धन था । एक फर्म में साधारण सा क्लर्क था और वेतन -स्वरूप उसे केवल डेढ़ सौ रुपए मासिक मिलते थे। घर में छह बच्चे थे तथा उनके पालन -पोषण एवं उनकी शिक्षा के लिए यह राशि अत्यंत अल्प थी । इस पर भी येन - केन प्रकारेण वह जीवन की गाड़ी चलाने लगा । उसने दृढ़ निश्चय किया और अपनी जीवन की गाड़ी को नया मोड़ दिया । अपने सबसे बड़े लड़के को , जो कॉलेज में शिक्षा प्राप्त कर रहा था , उसने कह दिया कि आगे पढ़ना है तो साथ- साथ अर्जन करे । दूसरे लड़के ने पिछले वर्ष मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी तथा आगे कॉलेज में प्रवेश लेने की सोच रहा था । उसने उसकी शिक्षा- समाप्ति की घोषणा कर दी और उसको एक कारखाने में काम सीखने पर लगा दिया । छोटे तीनों बच्चों की शिक्षा उसने चालू रखी । सबसे छोटा लड़का तीन वर्ष का ही था ।

समय व्यतीत होता गया । सबसे बड़ा लड़का अब दुकानदार बन गया था । उसने दलाली का काम शुरू किया था और अपनी थोड़ी सी पूँजी बचाकर एक किराने की दुकान खोल ली थी । दो वर्ष में ही उसकी दुकान चल निकली थी और वह इस समय लगभग दो सौ रुपए मासिक अपने पिता की आय में वृद्धि करने लगा था । छोटे भाई ने कारखाने में काम सीखकर अपने बड़े भाई की सहायता से अपनी एक छोटी सी दुकान खोल ली थी । इस प्रकार बड़े भाई की स्थिति अब सामान्य हो गई थी ।

दूसरी ओर इन दो वर्षों में केशव की पत्नी के दो बच्चे हो चुके थे । और उसके लिए यह संभव नहीं था कि उनकी भली- भाँति देखभाल करे तथा घर का सारा काम भी करे । केशव ने घर के काम के लिए एक के बाद एक कई नौकर रखे, किंतु नौकर अपनी मरजी के अनुसार काम करते थे, चाहे काम मालिकों को पसंद आए, चाहे न आए । कभी उनको डाँटा नहीं, अगले दिन उसने खाना खराब बना दिया, क्रॉकरी के दो - चार पीस तोड़ दिए । बच्चों को खिलाने के लिए कहा जाता, तो वह उनके पैर में इतने जोर से चुटकी काटता कि वे चिल्ला उठते और विवश होकर उन्हें माँ को ही सँभालना पड़ता । घर में घी - चीनी तथा अनाज आदि का तो हिसाब ही नहीं रहा था ।

निर्मला का स्वास्थ्य भी निरंतर गिर रहा था । उसके गर्भ में इस समय तृतीय संतान थी । इस बार उसने गर्भपात कराने का निश्चय कर लिया । इसके लिए वह कई डॉक्टरों के पास गई , किंतु कोई सम्मानित डॉक्टर इस विषय में

उसकी सहायता के लिए तैयार नहीं हुआ । विवश होकर इसके लिए उसे एक अशिक्षित चिकित्सक की सहायता लेनी पड़ी । गर्भपात तो हो गया , किंतु निर्मला ने बिस्तरा पकड़ लिया । उसको निरंतर ज्वर रहने लगा । डॉक्टरों को संदेह हो गया कि टी. बी . न हो गई हो ।

इस सबसे केशव बहुत चिंतित रहने लगा और इसका परिणाम यह हुआ कि दफ्तर के काम में वह ध्यान न दे सका । उसके अधिकारी -गण उससे अप्रसन्न रहने लगे । पिछले दिनों उसे आशा थी कि उसकी पदोन्नति हो जाएगी, परंतु अब वह आशा भी विलीन हो गई ।
नौकर भाग गया । अब केशव को घर का बहुत सा काम स्वयं करना पड़ता ।
निर्मला के लिए दवाई आदि लाना, उसकी टहल - सेवा तथा फिर दफ्तर का काम ।

निर्मला के लिए तो उसने एक नर्स का प्रबंध कर दिया , परंतु उस नर्स को 6 रुपए प्रतिदिन वेतन देना तय हुआ । इस प्रकार आधा से अधिक वेतन तो नर्स के ऊपर ही व्यय होने लगा था , शेष में दवा आदि तथा खाना -पीना एक समस्या बन गई ।

यह व्यवस्था अधिक काल के लिए चल सकनी असंभव थी । यद्यपि केशव घर का बहुत सा काम स्वयं करता था , इस पर भी निर्मला को आराम नहीं मिल पा रहा था । बच्चों के ऊपर तो वही नजर रख सकती थी । इस प्रकार जीवन से निराश हो , बहुत ही दुःखी अवस्था में वह अपने भाई से मिलने जा पहुँचा। भाई के हाल - चाल पूछने पर केशव ने घर का सारा वृत्तांत कह सुनाया और फिर कहा , " यदि इसी प्रकार चलता रहा , तो ऑफिस से डिस्चार्ज नोटिस मिल जाएगा और फिर सारा परिवार भूखा ही मरेगा । "
" यह सुनकर मुझे बहुत ही दुःख हुआ है, केशव । " भाई ने केवल इतना कहा ।

केशव को अपने भाई की वह निराशा स्मरण हो आई, जब उसने उनसे कहा था कि परिवार से पृथक् होना चाहता है । उस समय भाई को उसकी सहायता की आवश्यकता थी, परंतु उसके पृथक् हो जाने से भाई ने सहायता लेने से इनकार कर दिया । अब केशव को सहायता की आवश्यकता थी, परंतु तब की अवस्था का स्मरण कर वह माँग नहीं सका और कुछ देर बैठकर घर वापस चला आया ।

अगले दिन जब वह ऑफिस से वापस आया, तो उसने देखा कि उसकी भतीजी कांता आई हुई है । केशव ने पूछ लिया , " कहो कांता, क्या हाल है ? "
" सब ठीक है चाचाजी । " नम्रता से कांता ने उत्तर दिया ।

केशव ने देखा, आज घर की सफाई भली - भाँति हुई पड़ी है, बरतन तथा रसोई साफ पड़ी है और उसके लिए चाय भी तैयार है । आज चार मास बाद उसे शाम की चाय का स्वाद आया था । उसने अपनी पत्नी से पूछा ,
"निर्मला, तुम्हारा क्या हाल है ? "

" जैसा हमेशा रहता है । नर्स छुट्टी माँगने लगी, तो मैं बहुत परेशान हुई । उसके बिना मेरा काम किस प्रकार चलेगा, मैं यही सोच रही थी कि इतने में कांता आ गई और कहने लगी कि वह आज दिन भर यहीं रहेगी । मैंने नर्स को छुट्टी दे दी । कांता तो अब होशियार हो गई है । इसने नर्स से कहीं अच्छी तरह मेरी सेवा की है । "

केशव के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा , जब कांता का छोटा भाई मोहन भी आ गया और बच्चों से खेलने लगा । वह उनको लेकर समीप के एक पार्क में चला गया । रात कांता भोजन बनाने के बाद घर चली गई , परंतु मोहन वहीं रह गया । प्रातः उसने चाचा से सब्जी आदि तथा चाची से दवाई आदि लाने के विषय में पूछ लिया ।

खाना बनाने तथा घर का प्रबंध करने के लिए कांता भी प्रात : आ गई । इस प्रकार सप्ताह भर चलता रहा । जब केशव को विश्वास हो गया कि कांता प्रतिदिन आती रहेगी, तो उसने नर्स की छुट्टी कर दी । इस पर भी एक बात केशव समझ नहीं सका कि कांता ने भी उनके घर पर भोजन नहीं किया , न ही मोहन ने किसी वस्तु को छुआ । केशव ने कई बार कहा कि वह भोजन यहीं कर ले, परंतु कांता सदैव टालती रहती ।

निर्मला के स्वास्थ्य में सुधार होने लगा था और एक मास में उसका ज्वर जाता रहा । अब वह बैठकर थोड़ा - बहुत काम करने लगी थी । एक दिन निर्मला ने कांता से बहुत आग्रह किया कि आज वह भोजन उनके साथ ही खाए । इस पर कांता ने कह दिया, " चाची, मुझको बिलकुल भूख नहीं है । "

" कांता, मेरी खुशी के लिए ही थोड़ा सा खा लो । "
"किंतु मैं खा नहीं सकती । मुझे बिलकुल भूख नहीं है । "
" क्यों ? "
" यह तो मुझको भी पता नहीं । "
" तो तुम यहाँ क्यों आती हो ? "
"जिससे आपकी कुछ सहायता कर सकूँ । "

केशव भी इनकी बातें सुन रहा था और वह स्वयं को इनसे अलिप्त न रख सका । उसने पूछा, " कांता , क्या तुम्हारी माताजी ने तुम्हें यहाँ काम करने के लिए भेजा है ? "

" नहीं तो , मैं स्वयं ही आती हूँ । एक दिन आप पिताजी को अपनी कठिनाई बता रहे थे, तो मेरे दिल में चाची की सहायता करने की बात आई । अगले दिन मैंने पिताजी से पूछ लिया । उन्होंने माताजी की ओर संकेत किया । माताजी ने मुझे यहाँ आने की स्वीकृति दे दी और मैं यहाँ आने लगी । मुझे प्रसन्नता है कि चाची अब स्वस्थ हो रही हैं । "

"किंतु तुम्हें यह किसने कहा है कि तुम यहाँ खाना मत खाया करो । मैं समझता हूँ, यह तुम्हारा एक प्रकार से दृढ़ निश्चय है कि तुम हमारी कोई वस्तु नहीं लोगी। "

कांता ने इसका कुछ उत्तर नहीं दिया । चुप्पी का अर्थ स्पष्ट था । केशव सब समझ गया । निर्मला को भी डंक सा लगा । वह कांता से कहनेवाली थी कि अब उसके आने की आवश्यकता नहीं , परंतु घर की स्थिति तथा अपनी असमर्थता देख वह मौन रही ।

उस रात केशव ने निर्मला से पूछा, " क्या तुम्हें उस बात पर लज्जा की अनुभूति नहीं होती, जो तुमने मेरे भाई के साथ करवाई ? "
" क्यों , मैंने क्या करवाया था ? "

" तुमने मुझसे उनकी सहायता बंद करवाई, जबकि उस समय उनको इसकी अत्यंत आवश्यकता थी । परिणाम यह हुआ कि सुंदर को तुरंत कॉलेज छोड़कर दुकान करनी पड़ी । "
" मैंने आपको उनकी आर्थिक सहायता करने से मना नहीं किया था । यह तो उन्होंने स्वयं अस्वीकार की थी । "

" नहीं, हमने इसके लिए उन्हें विवश कर दिया था । सुनो , अब मैंने निश्चय किया है कि मैं वहाँ जाकर भैया तथा भाभी के चरणों में सिर रखकर क्षमा माँगूंगा और उनसे याचना करूँगा कि दोनों परिवार पुनः एक हो जाएँ । यह ठीक है कि उन दिनों तुम्हें भाभी से अधिक काम करना पड़ता था, परंतु युवा होने के कारण तुम यह कर सकती थीं, उसी प्रकार जैसे कांता अब यहाँ करती रही है । इस प्रकार काम करना किसी के प्रति एहसान करना नहीं होता । किसी संस्था की भाँति एक संयुक्त परिवार में किसी से सहायता प्राप्त करने के लिए स्वयं भी उनकी सहायता करने लिए तत्पर रहना चाहिए । "

निर्मला को अपने प्रियजनों के समीप रहने से प्राप्त सुविधा का भास तो हो गया था , परंतु वह यह नहीं समझ पाई थी कि केवल एक घटना किस प्रकार संयुक्त परिवार के औचित्य को सिद्ध कर सकती है । उसने कहा , " हम दुर्भाग्यशाली थे, जिन्हें किसी की सहायता की आवश्यकता पड़ी, किंतु ऐसा कोई नियम तो नहीं कि सबके साथ ऐसा ही होगा । हमारा दुर्भाग्य यह सिद्ध नहीं करता कि बड़े परिवारों की आवश्यकता रहती है । "

"किंतु निर्मला, हमारा दुर्भाग्य इस बात का सीधा परिणाम नहीं है, क्योंकि हमारा कोई ऐसा सहायक नहीं था , जो कि समय पर काम आए । चोर नित्य ही किसी के घर सेंध नहीं लगाते । इस पर भी पुलिस को सदा और सब स्थानों पर सचेत रखा जाता है । आग लगने की घटनाएँ नित्य और सदा नहीं होती , परंतु आग बुझानेवाले दमकल सदा तैयार रखे जाते हैं । भावी दुष्परिणामों को रोकने के लिए सदा सुरक्षात्मक उपाय व्यवहार में लाए जाते हैं । बहुत से लोगों का एक साथ एक परिवार के रूप में रहना ऐसी संभावित विपत्ति से, जैसी हम पर आन पड़ी थी, चौकस रहने का प्रयत्न है ।

“निर्मला, तुम्हीं बताओ, जो सेवा कांता और मोहन केवल स्नेहवश करते रहते हैं , वह क्या किसी भी मूल्य पर मिल सकती थी ? "

"किंतु हमारी वैयक्तिक स्वतंत्रता का क्या होगा ? निर्मला ने निरुत्तर होते हुए अब यह प्रश्न कर डाला ।
" वह सदैव तुम्हारे पास रहेगी, यदि तुममें उसको बनाए रखने की योग्यता होगी । अयोग्यों की वैयक्तिक स्वतंत्रता उनके अहित में ही होती है । "