अपनी अपनी मरीचिका (उपन्यास) : भगवान अटलानी

Apni Apni Marichika (Hindi Novel) : Bhagwan Atlani

(1)

शायद ही कोई ऐसा धंधा करने वाला दुकानदार होगा जिसे लोग कई नामों से पुकारते हों। उसे हेय दृष्टि से देखते हों। नाम सुनकर मुँह बिचका देते हों। लेकिन मेरे धंधे पर ये सब बातें लागू होती हैं। कबाड़ी, कबाड़िया, कबाड़े वाला, लौह-लंगड़वाला, रद्‌दी वाला, न जाने कौन-कौन से नाम देते हैं लोग मुझे। किसी से कहिए कि अमुक का धंधा भीख माँगना है या अमुक चोरी करने का, जेब काटने का धंधा करता है। उसके होंठों पर मुसकराहट पसीने की बूंदों की तरह उभर आएगी। लेकिन छोटा धंधा करने वाले किसी हेय आदमी की तस्वीर शायद मेरे धंधे का नाम सुनकर ही उभरती है।

एक बात और। शायद ही कोई धंधा होगा, शायद क्या इस मामले में तो भरोसे के साथ कह सकता हूँ कि ऐसा कोई धंधा नहीं है इस धंधे के अलावा जिसके निहितार्थ हों। चतुर, हेरा-फेरी करने वाला व्यक्ति जो तेज तर्रार भी हो और जिसकी आस्था उल्टे-सीधे तरीकों से अपना मतलब निकालने में भी हो, रोजमर्रा की जिदगी में कबाड़ी या कबाड़िया कहलाता है। मेरे बेचने का माल कबाड़ कहलाता है और काम बिगड़ जाए तो लोग बेसाख्ता कह उठते हैं, सारा कबाड़ा कर दिया ! कबाड़ करने, कबाड़ बनाने, कबाड़ होने का मतलब है, काम ऐसा बिगड़ा है कि उसे अब ठीक करना या सुधारना बहुत मुश्किल है। जबकि जो कबाड़ मैं बेचता हूँ उसका उपयोग करने वाले जानते हैं कि कई बार बाजार में किसी और दुकान पर वह चीज नहीं मिलती जिसकी उन्हें जरूरत है।

कोई पुरानी कार मिस्त्री के पास पड़ी है। उसके इंजन के काम में आने वाला कोई पुर्जा खराब है। मिस्त्री अपने शहर के बाजारों के अलावा अन्य शहरों, महानगरों के बाजारों में तलाश करता है लेकिन पुर्जा उसे नहीं मिलता। आखिर थक-हारकर मेरे पास आता है। ढ़ूंढ़ने में समय ज़रूर लगाना पड़ता है, मगर पुर्जा उसे मिल जाता है। थोड़ी-बहुत ठोका-पीटी, कुछ कतर-ब्योंत, वेल्डिंग करके किसी गले हुए टुकड़े की मरम्मत कराने की जरूरत भले ही पड़ जाए मगर उस पुर्जे को इस्तेमाल करके वह इंजन चालू करता है। पुरानी कार फिर दौड़ने की स्थिति में आ जाती है। हो सकता है वह कार सत्तर, अस्सी या सौ साल पुरानी हो और दौड़ता पाकर उसका मालिक विटेंज कार रैली में शामिल होने का फैसला कर ले। हो सकता है, इनाम भी जीत लाए।

लेकिन इतना सब कैसे संभव हुआ? मेरे कारण ही न? उसी कबाड़ी, कबाड़िए या कबाड़े वाले के कारण जिसके व्यवसाय को हेय दृष्टि से देखा जाता है, संभव हुआ यह सब। कबाड़, जिसे मुहावरे के रूप में बेकार हो गई चीज की संज्ञा मिलती है, समझ, दिमाग और अनुभव वाले आदमी के लिए सोना बन जाता है। मेरे लोग गली-मौहल्लों से जो कुछ खरीदकर लाते हैं, उसे बेचा ही इसलिए जाता है क्योंकि वह उपयोगी नहीं रहा है। फ्यूज हो चुके बल्ब, तीन टाँग का स्टूल या कुरसी या मेज़, साइकल या स्कूटर या कार के टायर-ट्‌यूब, जंग खाया हुआ स्टोव, पीपे, बोतलें, प्लास्टिक की टूटी हुई बाल्टियाँ, टूटे हुए मग, साइकल, स्कूटर या कार के बेकार करार दिए गए पुर्जे, अखबार, पत्रिकाएं, पुरानी बेकार महसूस होने वाली किताबें, क्या क्या गिनाया जाए? किसी का रेफ्रिजरेटर खराब हो गया। हजार-दो हजार रुपए लेकर मिस्त्री ठीक कर गया। पंद्रह-बीस दिन चला, फिर बंद हो गया। तुरंत मेरी याद आती है।

सिलाई मशीन, मिक्सी, पंखा, पुराने होने पर उपयोगिता विहीन सामान को निकालने के लिए सबको मेरी जरूरत पड़ती है। मोल-भाव करके, कम-ज्यादा जितना भी मैं उन्हें देता हूँ और कोई देने वाला नहीं होता। समझने वाला आदमी अपनी जरूरत के अनुसार छाँटकर चीजें ले जाता है। उनका इस्तेमाल करके चमत्कार करता है। दूसरों के लिए जो कबाड़ है उसे अपनी समझ और अनुभव के पारस पत्थर से रगड़कर सोने में बदल देता है।

कभी-कभी मुझे लगता है कि कबाड़ और कबाड़ वाले को लेकर जो भ्रम लोगों ने पाले हुए हैं उन्हें दूर करने के लिए कुछ किया जाना चाहिए। फिर विचार आता है कि ये भ्रम बने रहने में ही मेरा फायदा है। लोकमानस में वही व्यक्ति कबाड़ी है जो येन-केन-प्रकारेण काम बनाने में विश्वास रखता है। किंतु कबाड़ का धंधा करने वाला व्यक्ति धोखेबाज या उल्टी-सीधी उठापटक करने वाला माना जाता है, ऐसा नहीं है। उसके धंधे को हेय दृष्टि से भले ही देखा जाता हो किंतु उसे बेईमान नहीं माना जाता। मोल-भाव करके वह झाड़-झंखाड़ खरीदता है, अनिश्चित अवधि के लिए पैसा फंसाकर उसे अपने पास रखने का खतरा उठाता है तो मोल-भाव करके उसी झाड़-झंखाड़ को बेचता भी है। हर धंधे की अपनी आवश्यकताएँ, अपनी मर्यादाएँ हैं। मोल-भाव इस धंधे की अहम्‌ जरूरत है। लोग भी समझते हैं। इसी समझ के अनुसार अपनी पुरानी कबाड़ हो गई चीजें बेचते हैं, और इसी समझ के अनुसार ज़रूरत पड़ने पर छाँटकर चीजें खरीदते हैं। मोल-भाव न उन्हें पहले अखरता है और न बाद में बुरा लगता है। लेकिन सच कहा जाए तो मैं पुरानी चीजों का डिपार्टमेंटल स्टोर चलाता हूँ। पुश्तैनी धंधा है। बड़े-बुजुर्गों ने अपने तरीके से चलाया। जो आया, ढेर में शामिल होता गया वाली बात मैं नहीं करता। पढा-लिखा हूँ। किताबें पढने का शौक है। इस धंधे में नहीं आता तो या किताबें लिखता या किताबें बेचता। सलीका पसंद हूँ। जगह काफी बड़ी है। उसे अलग-अलग हिस्सों में बाँट रखा है। लोहा, लकड़ी, कल-पुर्जे, फर्नीचर, रबड़़़-प्लास्टिक, सजावटी चीजें, अखबारों की रद्‌दी, मतलब कि अलग-अलग विभागों में सामान बँटा हुआ है। लेन-देन के लिए एक आदमी रखा हुआ है। है तो वह पीेर-बावर्ची-भिश्ती सब कुछ, मगर मैं उसे मैनेजर मानता हूँ। मैं सिर्फ पैसे का लेन-देन करता हूँ, किसी जरूरी ग्राहक से निपटना हो तो उससे दो-दो हाथ करता हूँ या फिर मसनद लगाकर अधलेटा सा होकर पुरानी अखबारों, किताबों, पत्रिकाओं को देखता-पलटता-पढ़ता रहता हूँ।

गली-मोहल्ले में फेरी लगाकर बोरी, साइकल या ठेली पर कबाड़ खरीदकर लड़के-लड़कियाँ, मर्द-औरतें मेरी दुकान पर लाते हैं। बोतलों, डिब्बों, अँगरेजी- हिंदी-दूसरी भाषाओं की अखबारों, पत्रिकाओं, किताबों, पीपों, बोरियों, कट्‌टों और इसी तरह की कुछ चीजों के बाजार-भाव हम लोगों को मालूम होते हैं। लाने वाले ने चाहे जिस भाव में खरीदा हो, हमें उससे मतलब नहीं होता। बाजार-भाव के अनुसार चीजों की खरीद के दाम हमारे यहां तय होते हैं। फुलकारी, मेरा मैनेजर लेन-देन तय करके हाँका लगाता है और मैं भुगतान कर देता हूँ। नकद भुगतान, बिना हील-हुज्जत या सुबह-शाम का हवाला दिए। जिन चीजों के दाम तय नहीं होते, उनके लिए फुलकारी को थोड़ी मगजपच्ची करनी पड़ती है। मगर ऐसे मामलों को भी वही निपटा देता है। कभी ज्यादा नौबत आई तो भले ही मुझे दखलअंदाजी करनी पड़े वरना आम तौर पर ये बातें मुझ तक नहीं आती हैं। हाँ, ऐसी चीजों के बारे में फुलकारी खरीदने से पहले या खरीदने के बाद मुझसे बात जरूर कर लेता है। यह इसलिए जरूरी है क्योंकि ये चीजें बेचते समय ग्राहक का सामना कई बार मुझे करना पड़ता है। पेशेवर फेरी लगाने वाले आम तौर पर दोपहर के बाद सामान लेकर आते हैं। वैसे यह सिलसिला दिन-भर चलता रहता है। कुछ लोग अपना कबाड़ बेचने सीधे चले आते हैं। खासतौर से पुरानी अखबारें, पत्रिकाएँ और किताबें लेकर कई लोग खुद ही दुकान पर आते हैं। उन्हें संदेह होता है कि फेरी वाले कम तोलते हैं। दुकान पर आकर तोल और मोल दोनों के बारे में उन्हें फायदा ही होता है।

कुछ कंपनियाँ, सरकारी विभाग, सरकारी और गैर-सरकारी कारखाने, मोटर गैराज टेंडर लेकर या बोली लगाकर अपना कबाड़ बेचते हैं। टेंडर भरने और बोली लगाने के लिए मैं ही जाता हूँ। ये काम एक तो सीधे-सादे तरीकों से हो नहीं पाते और दूसरे इनके लिए लागत भी ज्यादा करनी पड़ती है। टेंडर या बोली बड़ी होती है तो कभी-कभी हम दो-तीन कबाड़ वाले मिलकर सौदा करते हैं। मिल-बाँटकर भागीदारी तय करके पैसा लगाते हैं और फिर माल को अपनी-अपनी लागत के अनुसार बाँट लेते हैं। दूसरे धंधों में एक व्यापारी दूसरे का गला काटने का मौका तलाश करता रहता है मगर हमारे धंधे में या तो भाईचारा है या फिर दुआ-सलाम है। किसी की किसी से दुश्मनी नहीं है। जिनमें भाईचारा होता है वे तो अपने पास न होने की हालत में कई बार ग्राहक को यहाँ तक बता देते हैं कि जो चीज आपको चाहिए वह अमुक कबाड़ वाले के पास मिल जाएगी।

कई चीजें जो हमारे पास आती हैं, सप्ताह में एक बार कंपनी या फैक्टरी का आदमी आकर ले जाता है। बोरियाँ, कट्‌टे पचास और सौ के बंड़ल बनाकर बारदाने वालों को दे देते हैं। अखबारों, पत्रिकाओं, किताबों की फुटकर खपत कागज की थैलियाँ बनाने वालों में होती है लेकिन इनकी बड़े पैमाने पर खरीद कागज की मिलें करती हैं। बोतलें, प्लास्टिक और रबड़ का कबाड़ खरीदने के लिए कारखानों, कंपनियों के एजेंट होते हैं। कहीं से पैसा एक हफ्ते और कहीं से एक महीने की मियाद में मिलता है। हमारे पास कबाड़ पहुँचने और हमसे कबाड़ खरीदने का एक तयशुदा, लगा-बँधा तरीका है। जितना रुपया धंधे में लगा हुआ है, वह घूमता रहता है। दाल-रोटी निकलती रहती है। ज्यादा मारा-मारी, रोना-धोना, चिंता-फिक्र, तेजी-मंदी का तनाव नहीं है। फुलकारी के कारण मैं तो सचमुच शहंशाह हूँ। हाय-तौबा फुलकारी करता रहता है, उसका मीठा फ़ल मैं खाता हूँ। कहने को फुलकारी भी यही कहता है कि मैं गुत्थियाँ न सुलझाऊं तो यह धंधा चलाना मुहाल हो जाए। मगर ये गुत्थियां हर वक्त तो सुलझानी नहीं पड़तीं। हर वक्त फुलकारी को मुँह देना पड़ता है। फुलकारी नहीं होता तो मसनद और किताबें सब छूट जाती। दूसरे कबाड़ वालों की जो हालत देखता रहता हूँ वही मेरी भी होती।

अखबारों, पत्रिकाओं, किताबों की जो रद्‌दी दुकान पर आती है, दिन में एक बार उस पर नजर जरूर डालता हूँ। पढने के लिए जो कुछ ठीक लगता है, निकाल लेता हूँ। चार-छः दिन में पढकर उसे फिर रद्‌दी के हवाले कर देता हूँ। हालाँकि कई बार इतनी कीमती और नायाब किताबें, हस्तलिखित पांड़ुलिपियाँ, पच्चीस-तीस साल पुरानी पत्रिकाएँ आ जाती हैं कि उन्हें सहेजकर रखने की इच्छा हो जाती है। मगर मैं जानता हूँ कि पढने के लिए मिलने वाली किताबों का सिलसिला और धंधे में लगने वाला समय किसी पढी हुई किताब को दोबारा पढने का मौका मुझे नहीं देगा। इसलिए किसी किताब, अखबार या पत्रिका को सँभालकर रखने का मोह मैंने कभी नहीं पाला। हां, कभी हस्तलिखित पांड़ुलिपि मिल जाती है तो उसे ज़रूर रखता हूँ, लेकिन वह भी धंधे के लिहाज से। पुस्तकालय, संग्रहालय, पुरातत्व वाले या शोधार्थी कई बार बड़ी कीमत देकर पांड़ुलिपियाँ खरीद लेते हैं।

अपने धंधे की बदौलत बिना पैसा खर्च किए जितनी और जैसी किताबें पढने का मौका मिलता है वैसा मोका किसी दूसरे धंधे में बिलकुल नहीं मिलता। किताबें बेचने के धंधे में भी नहीं। वहाँ किताबेंं होती हैं, लेकिन उन्हें पढने की फुरसत नहीं मिलती। पुस्तकालय में नौकरी करके ज़रूर मनचाही किताबें पढी जा सकती थीं किंतु वह नौकरी होती, धंधा नहीं। शायद ही कोई लेखक होगा जिसका साहित्य की दुनिया में नाम हो और मैंने उसे न पढा हो। टालस्टाय, चेखव से लेकर हेर्मिग्वे और उधर शेक्सपीयर से लेकर होमर, डांटे तक विदेशी लेखकों की सभी मशहूर किताबेंं मैंने पढ ली हैं। अपने देश के भी रवींद्रनाथ टेगौर, शरतचंद्र, प्रेमचंद, यशपाल, अज्ञेय किसे नहीं पढा है मैंने? बस पुस्तकों के पीछे धंधा खराब नहीं करता हूँ। तभी पढता हूँ जब फुरसत में होता हूँ और फुलकारी की बदौलत फुरसत मुझे खूब मिल जाती है। धंधे की माँग हो तो चलते वाक्य को पूरा पढ़ने का लालच भी नहीं करता हूँ। जहाँ का तहाँ छोड़कर, पूरी तसल्ली से, पूरा मन लगाकर वह काम करता हूँ। इस मामले में मैं बिजली का बटन दबाने जितना समय लेता हूँ। आने वाले को लगता है कि मैं किताब केवल इसलिए पढ रहा था क्योंकि फुरसत में था और मुझे वक्त गुजारना था। कोई काम होता तो जरूर मैं उसी को कर रहा होता।

यों तो पढने के लिए मुझे हमेशा कुछ-न-कुछ मिलता है, मगर ईद या दीपावली से पहले घरों में जब सफाई और सफेदी होती है, कई अनूठी किताबें आ जाती हैं। जो लोग किताबें सहेज-सँभालकर रखते हैं, सफाई के दौरान घर-परिवार की तरफ से एक खास तरह के दबाव में होते हैं। उस दबाव के कारण किताबों, कागज-पत्रों की छंटाई होती है। जरूरी और गैर-जरूरी के हिसाब से गैर-जरूरी महसूस होने वाली किताबे छंटकर रद्‌दी में बिक जाती हैं।

क्योंकि ज़रूरी और गैर-ज़रूरी तय करने के लिए कोई पैमाना नहीं होता, इसलिए उस समय जैसी मनःस्थिति हुई, उसके अनुसार छंटाई होती है। इन सब बातों का फायदा मुझे मिलता है। धंधे के हिसाब से तो मिलता ही है, मनचाही किताबों के हिसाब से भी मिलता है। जो किताबें साल के उन महीनों में मिलती हैं, मेरी किताबें पढने की भूख का ज्यादातर हिस्सा उनसे ही पूरा होता है। हमेशा थोड़ा-बहुत जो कुछ मिलता है उसे इसमें जोड़कर मेरी सालभर की जरूरत पूरी हो जाती है।

ठेकों से जो चीजें मिलती हैं उनमें सबसे ज्यादा रुचिपूर्ण मुझे परीक्षाओं की उत्तर-पुस्तिकाएं लगती हैं। उत्तर-पुस्तिकाएं बोर्ड की हों या विश्वविद्यालय की, उनमें से कुछ में ऐसी रोचक बातें लिखी होती हैं कि बस मजा आ जाता है। किसी में परीक्षक से उत्तीर्ण करने के लिए अनुनय होती है तो किसी में करुण चित्र खींचकर नौकरी की दृष्टि से परीक्षा उत्तीर्ण करने की आवश्यकता पर बल होता है। ऐसी बातें सचमुच लड़कियाँ लिखती हैं या लड़के, मैं नहीं जानता, मगर उत्तर-पुस्तिकाओं में इसी रूप में लिखी होती हैं गोया लड़की ही मुसीबत की मारी हुई है। ऐसे किसी किस्से को पढ़ पाने की चाह में कई-कई बार तो मैं सौ-सौ उत्तर-पुस्तिकाएं पलट जाता हूँ, तब जाकर कहीं एकाध इबारत मिलती है। लड़के बेचारे मानकर चलते होंगे कि परीक्षक पुरुष ही होगा, तभी तो लड़की के रूप में अनुरोध करते हैं। यदि पता लग जाए कि उत्तर-पुस्तिका परीक्षिका के पास जाएगी तो संभव है कि लिंग परिवर्तित करने की परेशानी उन्हें झेलनी न पड़े। बहरहाल उन इबारतों का आनंद उठाने के लिए मैं तब तक प्रयत्नशील रहता हूँ जब तक सभी उत्तर-पुस्तिकाओं को नजर से निकाल नहीं लेता।

कभी-कभी सोचता हूँ कि परीक्षा की उत्तर-पुस्तिका जैसी नीरस सामग्री के पहाड़ में से सरसता के इन छोटे-छोटे टुकड़ों की तलाश में इतना समय मैं क्यों खराब करता हूँ? इतना समय पुस्तकें पढने में क्यों नहीं लगाता हूँ? ठीक-ठीक तो नहीं कह सकता किंतु शायद इसके पीछे किसी के व्यक्तिगत जीवन में ताक-झांक करके रस लेने की मानसिकता है। मुझे आत्मकथाएँ पढना अच्छा लगता है। कमलादास की 'माई स्टोरी', अमृता प्रीतम की ‘रसीदी टिकट' ने आत्मकथाओं में भी मुझे ज्यादा आनंद दिया। कारण फिर शायद वही है। इन किताबों ने मुझे कमलादास और अमृता प्रीतम की जिदगी के उन हिस्सों को देखने का मौका दिया जिन्हें आमतौर पर नहीं देखा जा सकता। व्यक्तिगत जीवन के अपारदर्शी परदे जब पारदर्शी बन जाते हैं तो आदमी के अंदर बैठे असंस्कृत जीव को अचछा लगता है। वर्जित फल को खाने की आदम की चाह और व्यक्तिगत जीवन में झांकने की आदमी की ललक में गहरा संबंध है। व्यक्तिगत जीवन के विपरीतगामी हिस्सों की झलक तो और भी ज्यादा रोमांचित करती है। तभी तो तृतीय पुरुष श्रोता को प्रशंसा की तुलना में निंदा अधिक आकर्षित करती है। उत्तर-पुस्तिकाओं में भले ही अच्छे अंक प्राप्त करने की नीयत से झूठ गढ़कर किस्सा लिखा गया हो किंतु व्यक्तिगत जीवन की जिन पर्तों को देखने का अवसर वह किस्सा देता है, उसमें भरपूर रोमांच होता है।

मुझे सबसे ज्यादा तलाश जिस चीज की रहती है, वह है डायरी। जीवन के अंतरंग क्षणों का ऐसा लेखा-जोखा सबके सामने जिसे कोई जुबान पर भी नहीं लाना चाहता। अखबारों, कागजों, किताबों और पत्रिकाओं के ढेर में किसी डायरी का मिलना वरदान की तरह है और वरदान आसानी से कहां मिलता है? सालों-साल इंतजार करने के बाद कभी एक डायरी हाथ लग जाए तो लगता है कि खजाना मिल गया। बिना किसी दुराव-छिपाव के, बिना किसी लाग-लपेट या परहेज के जो जैसा है वैसा ही डायरी में लिखा जाता है। डायरी पढते हुए मुझे तो ऐसा लगता है जैसे विचारों के जंगल में एक अलफ नंगा आदमी इस भरोसे के साथ घूम रहा है कि उसे कोई देख नहीं रहा और मैं पूरे होशो-हवास समेटे उसे बहुत करीब से देख रहा हूँ। डायरी लेखक पुरुष हों या महिलाएँ, जब तक संभव है, डायरी को जान से ज्यादा सँभालकर रखते हैं। उसकी पोशीदगी संदेहास्पद बन जाए तो रद्‌दी में बेचने की बात नहीं सोचते, उसे जला डालते हैं। रद्‌दीी में डायरी तब आती है जब रद्‌दी बेचने का काम उन्होंने किया हो जो निरक्षर हों या फिर गलती और असावधानी से डायरी रद्‌दी के ढेर में मिल गई हो। रद्‌दी बेचने के लिए पुस्तकें, कागज-पत्र छाँटने का काम निरक्षर लोगों को सौंपा नहीं जाता। असावधानी से डायरी रद्‌दी में चली जाए इतना लापरवाह आदमी शायद डायरी नहीं लिखेगा।

उत्तर-पुस्तिकाओं की इबारतें पढकर, लिखने वालों को देखने की इच्छा कभी नहीं हुई है। वैसे इस तरह की इच्छा पूरी करना संभव भी नहीं होता, किंतु मन में ऐसी इच्छा कभी जागी ही नहीं। अब तक मुझे कुल दो डायरियाँ मिली हैं। पहली डायरी के अंतिम पृष्ठ पर आत्महत्या से पहले की मनःस्थिति लिखी हुई थी। स्पष्ट था कि मृत्युपूर्व की गई घोषणा की तरह डायरी का यह पृष्ठ लिखने के बाद लेखक ने आत्महत्या कर ली होगी। दूसरी डायरी मुझे पिछले दिनों मिली थी। कल ही पढकर पूरा किया है उसे। पुस्तकों की तरह डायरी को दुकान पर बैठकर पढना संभव नहीं है। ग्राहकों से बातचीत के कारण डायरी पढने में पड़ने वाला व्यवधान मुझे उत्तेजित करता है। खुद को सँभालता हूँ, तब भी ग्राहक से मन लगाकर बातचीत नहीं कर पाता। इस डायरी को भी मैंने घर पर पढकर पूरा किया है। रोजमर्रा के काम रोककर, पत्नी की नाराजगी मोल लेकर और रात को देर-देर तक जागकर इसे पढा है मैंने।

पिछली बार तो डायरी-लेखक से मिलने, उसे देखने की उत्सुकता अंतिम पृष्ठ पढकर समाप्त हो गई थी, किंतु इस बार डायरी-लेखक से मुलाकात करने की इच्छा बहुत बलवती है। उसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वह व्यक्ति मेरा जाना-पहचाना है। डायरी का रद्‌दी में मिलना यह तो साबित करता ही है कि लेखक इसी शहर में रहता है या इसी शहर में रहता था। मन-मस्तिष्क और विचारों में उथल-पुथल मची हुई है। इस उथल-पुथल को किसी से बाँट नहीं सकता। अशांत मन को तसल्ली तभी मिल सकती है जब मैं डायरी-लेखक को ढूंढकर उससे मिल लूंगा। अनपेक्षित तरीके से ऐसे कुछ सवालों के जवाब इस डायरी में हैं जो मेरे लिए डायरी-लेखक से ज्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। डायरी में आदमी कभी झूठ नहीं लिखता। अगर इसमें लिखा सब कुछ सच है तो जीवन की जिन गलियों को पार करते हुए मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ, उनकी बनावट और बुनावट पर नए सिरे से सोचना पड़ेगा। अगर इसमें लिखा सब कुछ पूरी तरह सच नहीं है तो डायरी-लेखक से मिलकर सच की जानकारी लेनी होगी। मैं अपने आपको संदेह का लाभ देना चाहता हूँ इसलिए डायरी-लेखक से मिलना चाहता हूँ। उसने सच लिखा है तो अपने किए हुए पाप का प्रायश्चित उसी से पूछना पड़ेगा। बीते समय को पकड़कर वापस ले आना किसी के वश में नहीं होता, मेरे वश में भी नहीं है। मगर बीते हुए समय में हुई भूल को धोने के लिए आज क्या किया जा सकता है, यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है। इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का उत्तर नहीं मिला तो मृत्युपर्यंत एक दिन के लिए भी मैं चैन से नहीं सो पाऊँगा। इस डायरी को पढकर ये सवाल मेरे सामने क्यों उठ खड़े हुए, यह बात कोई भी मुझसे पूछना चाहेगा। इसका जवाब मैं बाद में दूंगा। पहले चाहूँगा कि आप उस डायरी को शब्दशः पढ़ लें। डायरी लेखक का सोच, उसका चरित्र-गठन, जीवन-व्यवहार, भविष्य के सपनों के बारे में आप भी अपना मानस बना लें। इसके बाद जो बात हम करेंगे, वह प्रश्नोत्तर के रूप में न होकर विचार-विमर्श के रूप में होगी।

डायरी को आप उसी तिथि-क्रम में पढिए, जिसमें लिखी गई है। इतनी छूट मैं आपसे जरूर चाहूँगा कि डायरी की जिस तारीख को पढकर मुझे अपने विचारों में तूफान उठता महसूस हुआ, उस तारीख के बाद अपने अंदर की झंझावात का जिक्र कर दूं। मैं समझता हूँ ,यह रियायत आप मुझे देंगे।

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(2)

30 दिसंबर, 1948

सिंध से खाली हाथ हम क्या इसीलिए आए थे? बाबा और उनके साथियों ने कष्ट क्या इसीलिए उठाए थे? सत्याग्रह, पर्चेबाजी, पिकेटिंग, आंदोलन और लाठी-गोली के खतरे उठाकर भी देश को आजाद कराने की तड़प क्या इसीलिए थी उनमें? क्या इसीलिए अपने इकलौते, मासूम और नादान बेटे को छपा हुआ साहित्य लेकर इधर से उधर दौड़ाया करते थे बाबा? काम-धंधा छोड़कर, सर पर कफन बाँधकर घूमने का कठोर व्रत क्या इसीलिए लिया था उन्होंने? कभी छोटे और कभी बड़े समूहों में भाषण देकर जागृति पैदा करने का जुझारूपन क्या इसीलिए अख्तियार किया था उन्होंने? उल्हास नदी के किनारे खाली पड़े फौजी बैरकों में अनिश्चय के कुहासे के बीच अव्यवस्था और उठाईगीरी देखकर विचार आता है, अच्छा होता सिंध छोड़ने की बजाय हम वहीं मर-खप जाते। यहां मानवीय संवेदनाओं की गरमाहट ढूंढे भी नहीं मिलती। मिलती हैं भिखारी और शरणार्थी की वक्रोक्तियांँ, जवान लड़कियों को खा जाने वाले ढंग से घूरती आँखें, कमीशन और घूसखोरी की धधकती ज्वालाएं, लूटकर अपना घर भरने की अफरा-तफरी में लपलपाती जीभें, नेताओं की नसीहतें, छुटभइयों की ज्यादतियां और भविष्य पर मंडराती गिद्धों की क्षुधातुर चोंचें, जो नोच-नोचकर खा जाने की ताक में पेड़ों पर प्रतीक्षा कर रही हैं।

मैट्रिक में आते ही बाबा ने कहा था, बेटा, अब डायरी लिखना शुरू करो।

मुझे नहीं मालूम था तब तक कि डायरी वया होती है? उन्होंने विस्तार से समझाया। साथ में कहा, ”डायरी का मूलमंत्र है, गोपनीयता। डायरी में जो कुछ तुम लिखोगे उसे किसी भी सूरत में दूसरों के सामने नहीं आना चाहिए। हम लोग आजादी के लिए लड़ रहे हैं। इसलिए तुम्हारी डायरी अगर छापे के दौरान पकड़ी जाती है तो तुम्हारा ही नहीं, उनका भी नुकसान कर सकती है जो देश के लिए लड़ रहे हैं। सीधे-सादे लगने वाले संकेत वाक्यों में अपनी गूढ बातें लिखने की कला विकसित करो। मन की बातें, जो सिर्फ तुम्हारी अपनी हैं, उन्हें भी इस तरह लिखो जिससे तुम्हारी डायरी को तुम्हारे ही खिलाफ हथियार के रूप में इस्तेमाल न किया जा सके।

शुरू में तीन-चार दिन निरंतर डायरी मैंने बाबा को दिखाई। जब उत्तीर्ण घोषित किया तो भविष्य में डायरी उन्हें भी न दिखाने की बात उन्होंने बहुत सख़्ती के साथ कही थी।

मैं एफ.ए. फाइनल में था जब विभाजन हुआ। भारत को आजादी का अमृत और सिंध को विभाजन का विष एक साथ मिला। कराची से मैं अपने गाँव आ गया था। पाकिस्तान ने चौदह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को अपनी आजादी का चाँद-तारे वाला परचम फहराया तो बाबा ने मुझे नींद में से जगाया। मैं चौककर उठा। उन्होंने मुँह धोकर पानी पीकर आने के लिए कहा। वापस लौटा। वे चिंतित थे, बेटा, ऐसा लगता है, हमें यह जगह छोड़नी पड़ेगी। मैं हालात से भली-भाँति परिचित था, ठीक है बाबा, छोड़ देंगे। इसमें इतना चिंतित होने की क्या बात है?

चिंतित होने की बात तो है, बेटा। मारकाट, लूट-पाट की वारदातें शुरू हो गई हैं। यहां से खाली हाथ निकलकर भी हम सही-सलामत हिंदुस्तान पहुँच जाएँ, इस बात का कोई भरोसा नहीं है।

हमारे पड़ोसी और हमारे गाँव के सब लोग बहुत अच्छे हैं। हिंदुस्तान जाने में हमें कोई तकलीफ़ नहीं होगी।

बाबा मुसकराए, ऐसा कर, तू इसी वक्त अपनी डायरी ले आ। कराची में छोड़कर तो नहीं आया है न?

नहीं बाबा, साथ लाया हूँ।

तो फिर, ले आ।

मैं डायरी लाया तो उन्होंने उसे अपनी डायरी के साथ रखकर लोहे के तसले में राख डाली। डायरियों को तसले की राख के ऊपर रखकर उन्होंने मिट्‌टी का तेल उँडे़ला और दियासलाई दिखा दी। देखते-देखते डायरियाँ जलकर राख हो गईं और तसले में पड़ी राख का हिस्सा बन गईं, ‘‘हम हिंदुस्तान चलेंगे इसलिए इन डायरियों को जलाने की जरूरत सचमुच थी क्या?

हां। जिदगी में हमेशा याद रखना कि सुई से मोह रखना जायज है मगर डायरी से इतना मोह भी नाजायज है।

मुझे अनुमान नहीं था कि हिंदुस्तान आकर डायरी का जो पहला पन्ना मैं लिखूँगा वह इतनी कड़वी सच्चाइयों से भरा होगा। अस्तित्व के लिए संघर्ष। छोटी-छोटी सुविधाओं और ज़रूरतों के लिए टांग-खिंचाई। विभाजन की विभीषिका का मारा हर परिवार दूसरे परिवार की सहायता करने के स्थान पर अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए दूसरों का हिस्सा छीनने के प्रयास में जुटा है। बाबा समझदार भी हैं और स्वाभिमानी भी। जेब में पच्चीस रुपए लेकर अपने मामा के साथ निकले हैं। दो दिन इस शहर में और चार दिन उस शहर में। कैंप कमांडेट के पते से पत्र लिखते हैं। मैं जाकर ले आता हूँ। शरणार्थी शिविर में अम्मा मेरे साथ है। बाबा ने तो कुल दो दिन भोजन करके शिविर को अलविदा कह दी थी। मैंने पूछा था, बाबा, अपरिचित देश, अपरिचित लोग, केवल पच्चीस रुपए में कौन-सा धंधा करेंगे आप?

चिंता मत कर बेटे, सिंध से हमारे लोग हर शहर में आए हैं। किसी-न-किसी के घर में, नहीं तो सराय, धर्मशाला, प्लेटफॉर्म, कहीं-न-कहीं जगह मिल जाएगी। शरणार्थियों को रेलगाड़ियों में टिकट लेने की जरूरत नहीं है। तुम्हारे मामा और मैं दो, बारह के बराबर हैं। चिट्‌ठी लिखता रहूँगा। कमाई का. सिलसिला बैठते ही खबर दूँगा। अपनी अम्मा को लेकर आ जाना।

उनकी हिम्मत की दाद देता हूँ। चाहे सरकार ही क्यों न दे, किसी और के टुकड़ों पर न पलने का साहस रखने वाले मेरे बाबा एक तरफ हैं और शरणार्थी शिविर की न्यूनतम तुल्य सुविधाओं को अधिकार मानकर आक्रोश व्यक्त करने, व्यवस्था को कोसने वाला मैं दूसरी तरफ हूँ। जिस रात मुझे जगाकर बाबा ने मेरी और अपनी डायरी जलाई थी, उस रात भी वे चिंतित जरूर थे, मगर हताशाभाव उनमें कहीं नहीं था। खामोशी से वे अपनी योजना कार्यान्वित करते चले गए थे। मैं सब कुछ समझ रहा था। किंतु अपनी जुबान से उस रात के बाद उन्होंने मुझे कुछ नहीं कहा। गाँव में रहने वाले सब रिश्तेदारों को उन्होंने साथ चलने के लिए तैयार किया। लड़की की शादी में शरीक होने के लिए कराची जाना है, यह बात बाकायदा फैलाई जाती रही। बाल्टी में दीपक, सुरमेदानी, कंघी और तेल रखकर उसे चलनी से ढककर, लड़की के विवाह में शामिल होने की दृष्टि से रस्म पूर्ति कर उन्होंने दिखावा किया। इस बाल्टी को लेकर रिश्तेदारों के साथ हम लोग जब रेलवे स्टेशन पहुँचे तो हाथों में लट्‌ठ थामे, पग्गड़ बाँधे पड़ोसी मुसलमान और उसके तीन जवान लड़के हमारे साथ थे। गाड़ी खुली तो बाबा ने भरे-पूरे मकान की चाबियों का गुच्छा रहीमबख्श को दिया और मुसकराकर कहा, ”रहीम, ध्यान रखना। रहीमबख्श के साथ उसके तीन लड़के भी मुसकराए। अलबत्ता उनकी मुसकराहट बाबा की मुसकराहट की तुलना में ज्यादा चौड़ी थी। चाबियों का गुच्छा थामते हुए रहीमबख्श ने रस्म निभाई, खत लिखना। इधर की चिंता मत करना।

गाड़ी के साथ चलते हुए रहीमबख्श के तीनों लड़कों ने बाबा के पाँव छुए तो बाबा ने मुँह फेर लिया। मुझे आश्चर्य हुआ कि बड़ी-से-बड़ी विपत्ति में विचलित न होने वाले बाबा की आँखों में पानी था।

गाँव से सुरक्षित, कर्फ्यूग्रस्त गाँवों-कस्बों-शहरों में से होते हुए हम कराची पहुँचे। हर ओर दहशत थी। आतंक था। असुरक्षा थी। सामान के नाम पर सिर्फ जरूरत की चीजें थीं। पहनने के लिए लोहे की संदूकों में कपड़े थे। एक बोरी में रसोई का सामान और बरतन थे। रस्सियों से बँधे बिस्तर थे। वजन कुछ नहीं था, फिर भी बहुत था। रिश्तेदारों के साथ काफिला धर्मशाला पहुँचा तो वहाँ ठहरने को जगह नहीं थी। शाम के साथ शहर में कर्फ्यू लगा दिया गया था। आग की लपटें दूर-दूर तक नजर आती थीं। जगह हो चाहे न हो, उसी धर्मशाला में रुकने के अलावा कोई चारा नहीं था।

ज्यादा पैसा था नहीं, इसलिए हवाई जहाज से यात्रा करना संभव नहीं था। स्टीमर कराची से बंबई जाता था। तीन दिन बाद जाकर उसमें टिकट मिली। थर्ड क्लास में। इतने समय में स्टीमर यात्रा की अनिवार्य जरूरतों की जानकारी मिल गई थी हमारा तो कोई सामान नहीं रुका, मगर स्टीमर में जाने से पहले हुई सामान की जाँच में लोगों के संदूक, गहने, रुपए, जो मन में आया रखवा लिए गए। स्टीमर के तलघर में दरी बिछाने जितनी जगह घेरने के लिए भाग-दौड़ मची थी। एक परिवार के लिए छोटी सी जगह घेरकर सबने यात्रा शुरू की। व्यवस्थित होकर बैठ भी नहीं पाए थे कि कुछ लोगों ने उल्टियाँ करनी शुरू कर दीं। वातावरण दुगर्ंध से भर गया। पानी लाकर सफाई की जाती रही।

दो दिन और दो रात स्टीमर का सफर करके हम लोग बंबई पहुँचे। पूरे काफिले को अधिकारी शरणार्थी शिविर में ले आए। हर एक के पास नीचे टाँगें सीधी करने जितनी और ऊपर सिर छिपाने जितनी जगह। पूरी बेपर्दगी। नए शरणार्थियों को दो दिन लंगर से खाने की सुविधा और फिर राशनकार्ड बनाकर निशुल्क भोजन बनाने की सामग्री। यहाँ तक बाबा ने अपने काफिले को सरपरस्ती दी। इसके बाद उन्होंने सबको अपना-अपना रास्ता चुनने और रोजगार ढ़ूढ़ने की आजादी दे दी। स्वयं शेष बची पूँजी अर्थात्‌ पच्चीस रुपए लेकर वे निकल पड़े थे। अन्य रिश्तेदारों ने भी अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार अर्थोंपार्जन के प्रयत्न शुरू कर दिए। पेट भरने के लिए जरूरी राशन तो निशुल्क शिविर से मिल जाता था। मगर इसके अलावा भी कई काम होते थे जिनके लिए पैसों की जरूरत पड़ती थी। तेल, साबुन, दूध, चाय, दवा-दारू, अंजन-दातुन, चरी-मटका रोजाना काम में आने-वाली अनेक चीजें थीं जिनके लिए रुपया जरूरी था। सब लोग हमारी तरह लाचार और मजबूर थे। किसी से आर्थिक सहायता की आशा की नहीं जा सकती थी। बाबा खुद कैसे काम चलाते थे, नहीं जानते थे। वे कमाएँगे और हमें बुलाएँगे यह तो निश्चित था। किंतु वह शुभ दिन कब आएगा, निश्चय पूर्वक कहना संभव नहीं था। शिविर में रहने वाले परिवारों के 'छोटे-छोटे 'बच्चे भी सिंध में अपनी हैसियत भूलकर रोजगार में लग गए थे। गोलियाँ, पापड़, केले, संतरे, चीकू, रूमाल, बटन, सूई, कंघा या इसी तरह की सस्ती, कम लागत वाली चीजें खरीदकर बच्चे गाड़ियों में बेचने लगे। बड़े दुकान खोलकर, नौकरियां करके, छोटे-मोटे कारखाने खोलकर, गृह-उद्योग लगाकर पैसे की स्थायी आमदनी के प्रयासों में जुट गए।

मैंने भी दो ब्रुश और पालिश की दो डिब्बियाँ खरीदकर कल्याण स्टेशन पर घूम घूमकर जूतों की पालिश करना शुरू कर दिया। हम माँ-बेटे अपनी जरूरतें पूरी कर सकें इतनी आमदनी होने लगी। शुरू में मुझे पालिश करनी नहीं आती थीं। जूतों पर चमक नहीं आ पाती थी। पालिश करने में समय ज्यादा लगता था। मुझसे पहले पालिश के काम में लगे मराठा लड़कों ने प्रारंभ में मुझे उखाड़ने की कोशिश की। लेकिन धीरे-धीरे सब ठीक होता गया। हाथ सधता गया। विरोध पहले तटस्थता में और फिर सहयोग में बदलता गया। शिविर से कुछ लड़के मेरे साथ पालिश का सामान लेकर निकलते थे। गाड़ियों में, अलग-अलग स्टेशनों पर उतरकर ये लोग पालिश करते थे। कुछ लड़कों ने सिनेमाओं, मंझले दर्जे के होटलों के बाहर अड्‌डे बना लिए थे। एक-दो महीने काम करने के बाद पालिश के लिए स्टैंड खरीदकर बाकायदा जगह घेरकर ठिकाने बना लिए थे उन्होंने।

मुझे क्योंकि बाबा के बुलावे की प्रतीक्षा थी और विश्वास था कि जल्दी ही काम बंद करके अम्मा के साथ उनके पास जाऊँगा, इसलिए पालिश के लिए स्टैंड खरीदने या अड्‌डा पकड़ने की बात मैंने कभी नहीं सोची। प्लेटफार्म पर गाड़ियों का इंतजार करने वाले लोगों से पूछते रहना, इशारा पाते ही झटपट पालिश करके जूते चमका देना और आगे बढ जाना, किसी दूसरे पालिश कराने वाले की तलाश में। इस काम में समय के साथ इतना ही परिवर्तन आया कि चेहरा देखते ही पालिश कराने वाले और न कराने वाले आदमी को मैं पहचानने लगा। इससे आमदनी पर अच्छा असर पड़ा। हर दरवाजे पर दस्तक देने की जगह अगर पता लग जाए कि अमुक दरवाजे पर दस्तक देना कारगर होगा तो जरूरतमंद का काम हल्का हो जाता है।

सुबह और शाम कुछ घंटे मैं शिविर कार्यालय में देता था। इससे कुछ प्रत्यक्ष और कुछ परोक्ष लाभ मुझे होते थे। अधिकारियों और कर्मचारियों की हेराफेरी, धांधली, रिश्वतखोरी, बेईमानी, मिलावट, कतर-ब्योंत और सुविधाओं को ऊपर-ही-ऊपर से हड़प करने की आदतों का नुकसान मुझे नहीं होता था। उल्टा मेरे कारण उन्हें खुलकर गड़बड़ियाँ करने में हिचकिचाहट होती थी। मैं उनकी करतूतों का खुलकर या सक्रिय विरोध तो नहीं करता था मगर उनके गलत कारनामों में हिस्सेदारी भी नहीं करता था। कभी-कभी व्यंग्य में या मजाक में उन लोगों की कारगुजारियों की छीछालेदर करता था। इसलिए अगर मैंने किसी के पक्ष में कुछ कहा या किसी के साथ गलत काम करने से रोका तो इसको अन्यथा न लेकर जैसा मैं चाहता था वैसा कर दिया जाता था। सुबह-शाम नियमित निःशुल्क काम करके कर्मचारियों का बोझ घटाने वाला व्यक्ति कभी किसी के हित में थोड़ा-बहुत काम करा ले तो इसमें बुरा मानने का कोई कारण हो भी नहीं सकता।

शिविर कर्मचारी जिस कारण से मुझे बरदाश्त करते थे, वह उनकी दृष्टि में महत्त्वपूर्ण हो सकता है। किंतु मेरी दृष्टि में यह बात अधिक महत्त्वपूर्ण थी कि मैं शिविर में रहने वाले शरणार्थियों की तकलीफों को यथासंभव घटाकर उन्हें राहत देने को स्थिति में आ गया था। राशन का वितरण, नए शरणार्थियों के परिवार के सदस्यों की जांच करके राशनकार्ड जारी करना, शरणार्थियों के लिए आवास की व्यवस्था, शिविर की सफाई, शौचालयों और स्नानघरों की साफ-सफाई, बैरकों के दरवाजों की देखभाल, छोटी-बड़ी टूट-फूट की मरम्मत, शरणार्थियों को अनुपलब्ध किंतु आवश्यक सुविधाओं के लिए सरकारी स्तर पर लिखा-पढी, अनगिनत काम थे जिनमें मैं हाथ बँटाता था। चोरी-चकारी, लड़ाई-झगड़े, मार-पीट, गाली-गलौज, कहा-सुनी की वारदातें शरणार्थियों में होती रहती थीं। अर्थाभाव, भूतकाल की स्मृतियाँ शरणार्थियों को असहिष्णु बनाती थीं। वे छोटी-छोटी बातों से उत्तेजित हो जाते थे। शिविर के कर्मचारियों और अधिकारियों के साथ भी कहा-सुनी, लड़ाई-झगड़ा होता रहता था। शरणार्थी शिविर में एक पुलिस चौकी थी। किंतु मैं जानता था कि गाली-गलौज से लेकर चोरी-चकारी तक कोई भी वारदात बदनीयती के कारण नहीं होती है। इन घटनाओं के पीछे जीवन में घिर आए तनाव होते हैं। सिंध में हिंदुओं की परंपरा मस्ती से खाने-पीने, सैर-सपाटे करने और भाईचारा रखते हुए धनोपार्जन करने की रही है। सिंधवासी स्वभाव से झगड़ालू और अशांति प्रिय नहीं हैं। व्यवस्था के अंग के रूप में स्थापित होने के कारण मैं सिंध वासियों की मूल प्रकृति के अनुरूप स्थितियों का निर्माण करने का प्रयत्न करता था। आर्थिक लाभ न मैं लेता था, न माँगता था और न कभी जताता था कि अपनी सेवाओं के लिए मैं पारिश्रमिक नहीं लेता हूँ। कोई अनैतिक, अवांछित काम मैं करता नहीं था। अपनी जरूरतों की पूर्ति के लिए पालिश करके पैसा कमाता था। पढा-लिखा था। सिद्धान्तवादी जरूर था किंतु शिविर के कर्मचारियों और अधिकारियों की आर्थिक हेराफेरियों में उग्रता पूर्वक हस्तक्षेप नहीं करता था। आर्थिक कारणों से शरणार्थियों के अनेक काम या तो केवल दिखाने-भर के लिए होते थे या फिर होते ही नहीं थे। राशन कम तोला जाता था। उसका बहुत बड़ा हिस्सा काला बाजार में बेच दिया जाता था। मैं देखते, जानते हुए भी टकराव के स्तर पर इन कार्यों का विरोध नहीं करता था। मेरे कारण शरणार्थियों को जो भी, जितना भी लाभ मिल सके वही मेरा अभीष्ट था।

शिविर कमांडेंट से बात करके मैंने प्रत्येक सेक्शन के ब्लाक निवासियों की अलग-अलग बैठकें बुलवाकर पंचायतें बनवाने की शुरुआत की। सिंध में पंचायतों की बहुत मजबूत प्रणाली थी। पंचायतें केवल लड़ाई-झगड़ों का निपटारा करती हों, ऐसा नहीं था। शादी-गमी, मेल-मुलाकात, लेन-देन, रीति-रिवाज, कुप्रथाओं का सामाजिक निवारण और सैर-सपाटे तक के कार्यक्रम सिंध में पंचायतों के माध्यम से हो जाते थे। पंचायत-प्रणाली संस्कार में थी ही। हर एक ब्लाक का मुखी चुनकर जब पंचायतों का गठन किया गया तो उसके आशातीत लाभ मिलने लगे। बुजुर्ग मुखी की आँख का असर रंग दिखाने लगा। साठ वर्ष से अधिक आयु के बुजुर्गों को मुखी बनाने का प्रयत्न किया गया था और इस उम्र के लोग प्रायः वहीं बने रहते थे। उनके सामने गलत काम करने का साहस जैसा-तैसा शरणार्थी कर ले, यह किसी के संस्कार में ही नहीं था। इस छोर से उस छोर तक बाँधी गई रस्सियों पर मर्दानी धोतियाँ डालकर बनाई गई दीवारों के बीच अपनी मान-मर्यादा को बचाए रखने का प्रयत्न कर रहे शरणार्थी अदा-अदी, काका-काकी और अम्मा-बाबा के पारिवारिक संबोधनों से जुड़े, अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे थे। पैसा उनकी सबसे बड़ी जरूरत थी। अर्थोपार्जन की चुनौती को अपने न्यूनतम साधनों के साथ स्वीकार करके ‘काम करने में शर्म कैसी' वाली धारणा को व्यवहार में उतारा था उन्होंने। पाँव पर खड़ा होना उनकी सर्वोच्च प्राथमिकता थी। बाकी बातों के लिए उनके पास न समय था, न सुविधा। इसलिए ब्लाक पंचायतों की शुद्ध रूप से अपनी, पारंपरिक और परिचित प्रणाली के लागू होते ही छोटे-मोटे झगड़े निपटारे के लिए अपने आप मुखी के पास जाने लगे।

सिंध में संपन्न घरानों के स्त्री-पुरुष यहाँ जब पानी के लिए डिब्बों और बालटियों की लाइन लगाते हैं, बिना दरवाजों के शौचालयों और स्नानागारों में लाइन लगाकर प्रतीक्षा करने के बाद अंदर जाने की बारी आते ही जब जल्दी निकलने की आवाजें आने लगती हैं, तीन मील पैदल चलकर स्टेशन पहुँचना होता है जहां जनसमुद्र लीलने को तैयार खड़ा होता है, एक समय भोजन में बासमती चावल खाने वाले जब राशन का लाल गेहूँ खाने को विवश होते हैं, शिविर के कारिंदे जब होते हुए भी राशन देने से मना कर देते हैं, राशन में वितरित करने के लिए आया चावल, गेहूँ, चीनी, मिट्‌टी का तेल और मोटा कपड़ा जब बाजार में बिकने चला जाता है, परिश्रम करके भी भविष्य कोई आश्वासन देता प्रतीत नहीं होता तो कई बार इच्छा होती है कि अपने लोगों की मदद के नाम पर शिविर का काम करके मैं पाप कर रहा हूँ। मुझे तो थोपे गए विभाजन के खिलाफ, शरणार्थियों का दुर्लभ रक्त पीते शिविर कर्मचारियों और अधिकारियों के खिलाफ, भटकने को विवश करने वाले बातें करने में माहिर नेताओं के खिलाफ मुहिम छेड़नी चाहिए। सवाल सामने आकर खड़े हो जाते हैं कि क्या इसीलिए घर-बार, काम-धंधे, रोजी-रोटी और अपनी प्यारी भूमि छोड़कर आए थे हम? अवांछित की तरह यहाँ आकर अस्तित्व के लिए संघर्ष करने वाले लोगों को बार-बार यह अहसास क्यों दिया जाता है कि वे इस देश की शरण में आए हैं? क्यों नहीं कहा जाता है उन्हें कि अपने देश की आजादी के लिए विभाजन की विभीषिका से गुजरने वाले बहादुर लोगों, वक्त तुम्हारी परीक्षा ले रहा है। क्यों नहीं विश्वास दिलाया जाता है उन्हें कि इस विभीषिका में सारा हिंदुस्तान तुम्हारे साथ है। भोगना तो उन्हें ही होगा किंतु उनका आत्मबल बना रहे, यह प्रयत्न भी कोई क्यों नहीं करता?

आक्रोश की स्थिति में ऊल-जलूल न जाने क्या-क्या सोच जाता हूँ। किंतु ठंडे दिमाग से विचार करता हूँ तो इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि हमारे भाग्य की रेखाएं अब सिंध के साथ नहीं, इसी देश के साथ जुड़नी हैं।

हिंदुस्तान में रहने वाले लोगों से हम सहानुभूति की अपेक्षा क्यों रखें? यह देश हमारा भी है, फिर टकराव और संघर्ष में समय बरबाद करने की बजाय इस धरती के पुत्र की तरह कर्मठता के साथ अपने बलबूते पर खड़े होने का उद्यम क्यों न करें? शिविरों में अधिक सुविधाएँ, हो सकता है हमें अकर्मण्य बना देतीं। सोना आग में तपकर ही कुंदन बनता है। आग में तपाए बिना सोना विभिन्न आभूषणों के रूप में नयनाभिराम आकार ग्रहण नहीं कर सकता। पाँव टिकाने और साँस लेने की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। आज नहीं तो कल हम बैसाखियाँ छोड़कर अपने बूते पर चलने में कामयाब होंगे, जरूर कामयाब होंगे।

***

(3)

14 जनवरी, 1949

आज सुबह मैं शरणार्थी शिविर में सिंध में छोड़ी हुई संपत्ति के दावों के संबंध में प्राप्त प्रार्थना-पत्रों की जाँच करके रजिस्टर में उनका इंद्राज कर रहा था कि एक सुखद घटना घटी। अप्रत्याशित होने के कारण वह सुखद लग रही थी या अनपेक्षित को साकार पाकर, मैं कह नहीं सकता। मगर काका भोजामल को अचानक सामने खड़ा देखकर मैं उछल पड़ा। मैंने आगे बढकर उनके चरण-स्पर्श किए तो उन्होंने उठाकर मुझे गले से लगा लिया। आँखों में पानी भरकर, रुंधे गले से वे बाबा के, अम्मा के, हमारे साथ रवाना हुए रिश्तेदारों के, गाँव और पास-पड़ोस के लोगों के हाल-चाल पूछते रहे। मैं उनके हर प्रश्न का उत्तर देता रहा। उनके साथ पूरा परिवार था। काकी, दो विवाहित बेटे, उनकी पत्नियाँ, पाँचों पोते पोतियाँ, एक अविवाहित बेटा मेरा समवयस्क वीरू और बचपन से मेरे साथ खेली उनकी चौदह वर्षीय बेटी मीनू।

जब हमारा परिवार सिंध से चला था तब काका भोजामल का विचार हिंदुस्तान आने का नहीं था। दो मकान, दो दुकानें, सौ बीघा उपजाऊ जमीन छोड़कर पराए देश जाने का विचार उन्हें मूर्खतापूर्ण लगता था। हिंदू-मुसलमान सबके साथ उनके प्यार-मोहब्बत के संबंध थे। उन्हें लगता था कि झगड़े-फसाद चार दिन चलेंगे। पुरानी अदावतें निकलेंगी। इसके बाद अमन-चैन हो जाएगा। पुराने हालात बहाल हो जाएंगे। व्यापार-कारोबार, खेती-बाड़ी, दुनिया-जहान का चक्र पुरानी रफ्तार से चलने लगेगा। धीरज के साथ हालात का सामना करने की जरूरत है। डरकर भाग जाना कायरता पूर्ण है। विभाजन का अर्थ यह तो नहीं होता कि इधर से हिंदू और उधर से मुसलमान भाग-भागकर दूसरी तरफ जाएँ। जो बदहाल हैं, जिनके पास खाने-कमाने का कोई वसीला नहीं है, वे भले ही भागें। लेकिन जमा-जमाया काम-धंधा छोड़कर भागना कहाँ की समझदारी है?

बाबा के स्पष्ट और पुरजोर आग्रह के बाद भी काका भोजामल टस-से-मस नहीं हुए थे। उल्टा बाबा को वे समझाने की चेष्टा करते रहे थे कि जाने की बात मत सोचो। आने की योजना बाबा ने गुप-चुप तरीके से बनाई थी। काका भोजामल को भी उन्होंने यही कहा था कि लड़की की शादी में कराची जा रहे हैं। हालाँकि वे समझ गए थे और बाबा से यह बात कह भी दी थी, किंतु बाबा ने रवाना होने का कार्यक्रम उन्हें नहीं बताया था। आखिरी बार बाबा की मुलाकात जब काका भोजामल से हुई थी तो उन्होंने उदास होकर बाबा से कहा था, ‘‘अगर कभी वापस लौटने की बात सोचो तो सीधे चले आना। मेरे घर को पराया घर मत समझना।"

बाबा भी अंदर से उदास हो गए थे। मगर बाहर से हँसकर बोले थे, कभी क्यों भोजामल, हफ्ते भर बाद ही लौटते हैं। लौटकर तुम्हारी ओताक में कचहरी करेंगे। उसी काका भोजामल के लिए स्थितियाँ धीरे-धीरे विपरीत होती चली गई थीं। गाँव के सदियों से साथ उठने-बैठने वाले मुसलमानों का मिजाज और रवैया बदलने लगा था। वह तो फिर भी चल जाता मगर हिंदुस्तान से आए मुहाजिरों के कारण वातावरण विस्फोटक हो गया था। गाँव में काका भोजामल के अलावा एक भी हिंदू घर बाकी नहीं बचा था। साथ निभाने की बातें कहने वाले लोगों के आश्वासन उन्हें मक्कारी से भरे महसूस होने लगे थे। वीरू और मीनू की पढाई साल भर से बंद थी। जमीन पर दूसरों के हल चलने लगे थे। दुकानों से सौदा-सुलफ लोग ले जाते और पैसा देने का नाम नहीं लेते। शिकायत की सुनवाई कहीं नहीं थी। पता नहीं कैसे शिकायत सुनने वालों के पास पहुँचाई हुई फरियाद झगड़े का कारण बन जाती। हर ऐरा-गैरा उन्हें उलटा-सीधा धमका जाता। औरतों का घर से बाहर निकलना मुहाल हो गया। दूर-दूर तक ऐसा व्यक्ति, दोस्त, परिचित, रिश्तेदार, हमदर्द नजर नहीं आता था जिससे अपनी तकलीफ कह सकें। दिन-रात दहशत की रहस्यमय परछाइयों से गुजरते। उन्हें लगता, विभाजन ने उनकी अंदर और बाहर दोनों तरफ की, इस और उस दोनों जहानों की आजादी छीन ली है। दूसरों के रहमो-करम पर जीकर भी ये सलामत रहेंगे, कोई उन्हें कुछ नहीं कहेगा, बेफिक्री से अपने घर में रह सकेंगे, इस बात का कोई भरोसा नहीं है। इन तनावों से गुजरते हुए अंततः उन्होंने हिंदुस्तान आने का फैसला किया। मकान और जायदाद बेचनी चाही तो लोगों ने उनसे कहा, ”क्यों बेच रहे हो? इसलिए ही न, ताकि हिंदुस्तान भाग सको। भागकर जाओगे तो ये मकान और दुकान वैसे ही हमारे हो जाएँगे।”

किसी तरह मिट्‌टी के मोल मकान बेचे। दुकानें बेचीं। जमीनें बेचीं। घर और दुकानों का सामान, माल, असबाब बेचा। उस रकम से सोना खरीदा और कुछ जेवरों के रूप में, कुछ छिपाकर हिंदुस्तान ले आए। घर के बिस्तर, भाँडे-बरतन, कपड़े-लत्ते और तनहाई में बिताए हुए सत्रह महीनों की तनावपूर्ण दहशतजदा यादें उनके साथ थीं। और था पछतावा कि जब बाबा ने उन्हें हिंदुस्तान चलने के लिए कहा था, तब उन्होंने इनकार क्यों किया? क्यों सत्रह महीनों का संत्रास आमंत्रित करने का दुराग्रह अंत तक उन्होंने बनाए रखा?

मैं काका भोजामल के परिवार के सब लोगों से उल्लास पूर्वक मिला। उन लोगों को कैसा लग रहा था, मुझे नहीं मालूम, लेकिन मेरे हृदय में अपनत्व छलक रहा था। मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि वीरू को या मीनू को जीवन में कभी देख पाऊँगा। हम लोग चाहे जिन परिस्थितियों में रहते हों किंतु एक ढर्रे में शामिल हो गए थे। काका भोजामल के परिवार से मिलकर एकरसता का एकचक्रीय क्रम टूट गया था।

कागजात भरवा कर शिविर कर्मचारियों को सौंपकर मैं उन्हें अपने बैरक में ले आया। अम्मा गेहूँ साफ कर रही थी। उसे मैंने कोई सूचना नहीं दी, कुछ नहीं बताया। काका भोजामल के परिवार को साथ ले जाकर अम्मा के सामने खड़ा हो गया। अम्मा ने पहले तटस्थता के साथ, फिर भौचक्की होकर और अंत में अविश्वास के साथ उनकी तरफ देखा। तब तक काकी ने नीचे बैठ कर अम्मा को गले लगा लिया था। दोनों के चेहरों पर खुशी की लौ चमकी और फिर दोनों फूट-फूटकर रोने लगीं। बिछुडी हुई अंतरंग सहेलियों के मिलन का वह अद्‌भुत दृश्य था। काकी की दोनों बहुएँ और मीनू भी अपनी-अपनी चुन्नियों से आँखें पोंछने लगी थीं। काका भोजामल की बहुओं और उनके लड़कों ने अम्मा के पांव छुए। मैंने लाकर चटाइयाँ बिछा दीं। यहाँ न हमारे पास पलंग थे, न हिंदोरे और न चारपाइयाँ। वे सब चटाइयों पर बैठे तो अम्मा ने उठकर पापड़ पकाए। टिन का एक डिब्बा खोलकर उसने सिंध से लाई हुई काँसे की एक छोटी थाली में तिल के लड्‌ड़ू निकाले। पापड़ और तिल के लड्‌ड़ू उन लोगों के सामने रखकर मुझे पानी लाने के लिए इशारा करते हुए उन्होंने कहा, "हिंदुस्तान में तो त्यौहारों का पता ही नहीं लगता है। आज मकर संक्रांति है। लो भाऊ, तिल के लड्‌डू खाओ।"

‘‘तुमने न बताया होता तो हमें पता ही नहीं लगता कि आज मकर संक्रांति है।"

"मैं जानती हूँ, कितनी परेशानियाँ झेलनी पड़ती हैं डेरे-डंडे उखाड़कर किसी दूसरी जगह ले जाने में।" कुछ देर तक खामोशी छा गई। लगा, वहाँ बैठा हर एक अतीत के समुद्र में डुबकियां खा रहा है। अम्मा ने ही कहा, "लो न, अदी! सिंध की तरह चाँदी के वर्क लगे तिल के लड्‌डू तो यहाँ मैं खिला नहीं सकती, जो है उसे ही मुँह में डालो।" अम्मा का गला भर आया है।

तिल के लड्‌डू और पापड़ खाकर सबने पानी पीया तो अम्मा ने मुझसे कहा, "बेटा, इनको मर्दाने और जनाने शौचालय ओर स्नानघर दिखा दे। कई दिनों की थकान होगी। नहा-धोकर भोजन करेंगे तो थोड़ी राहत मिलेगी।"

शौचालय और स्नानघर हमारी बैरक से थोड़ी दूर थे। दिखाकर लौटा तो अम्मा भोजन बनाने की तैयारी कर रही थी। अम्मा ने कोने में बुलाकर मुझसे पूछा, "बेटा, तू सब्जी ला सकता है क्या?"

उनके प्रश्न के अंतर्निहित अर्थ को मैं समझ रहा था। सब्जी लाने के लिए पैसे नहीं थे। न उनके पास और न मेरे पास। मैंने पूछा, "दाल तो होगी न?“

"है तो सही। लेकिन शायद पूरी पड़ेगी नहीं। चलो, कोई बात नहीं है। पड़ोसियों के पास देखती हूँ।"

मेहमानों को सब्जी तो क्या दाल भी माँगकर खिलाने की बात कहते समय अम्मा की मनःस्थिति को मैं अच्छी तरह समझ रहा था। काका भोजामल के आने के बाद काम पर जाने की मेरी इच्छा नहीं थी। लेकिन काम से छुट्‌टी करने की विलासिता मेरे लिए संभव नहीं थी। मैंने पालिश का सामान उठाया और अम्मा से कहा, "मैं काम पर चलता हूँ। आठ बजे तक आ जाऊँगा। अपने साथ सब्जी और दाल लेता आऊँगा। पड़ोसियों से कौन-सी दाल लाओगी? वैसे काका भोजामल के रहने और राशन का बंदोबस्त कल सुबह तक हो जाना चाहिए।"

अम्मा कुछ पल सूनी आँखों से मुझे देखती रही। फिर बोली, "तू दो मिनट रुक। मैं पड़ोसियों के पास होकर अभी आती हूँ।" अम्मा को लौटने में देर नहीं लगी, "काम चल जाएगा। उनके पास इतनी ही दाल थी। आज तुम्हारे लौटने तक उनका चूल्हा भी ठंडा रहेगा। चने की दाल लेकर आना। इस कटोरे में पाव-भर दाल आती है। घर के लिए भी थोड़ी-सी दाल आ सके तो देखना, कल बनाने के लिए घर में कुछ नहीं है।"

आठ बजे तक लौटना जरूरी था, इसलिए मैं लौट तो आया मगर अपने साथ पाव भर चने की दाल और एक समय काम चल सके, इतनी ही सब्जी ला सका। जब तक अम्मा भोजन तैयार करे, मैं शिविर कार्यालय में गया। आशा के अनुरूप कार्यालय बंद था। कल काका भोजामल के लिए रहने की जगह और राशन का बंदोबस्त नहीं हो पाया तो क्या होगा? जिस बैरक में हम रहते थे, वहां इतनी गुंजाइश नहीं थी कि हमारे अलावा आठ बड़ों और पाँच बच्चों का एक भरा-पूरा परिवार सो सके। फिर जितना भी था, सामान उसी जगह रखा हुआ था।

घर लौटा तो थकान और चिंता की गहरी परछाइयाँ चेहरे पर थीं। मैं सीधा अम्मा के पास पहुँचा। अम्मा ने भरपूर नजर मेरे चेहरे पर डाली, "कहां गया था?" काका भोजामल की दोनों बहुएँ अम्मा के साथ लगी हुई थीं, परेशान-सी। कम बरतनों में भोजन तैयार करने का अवसर उन्हें पहली बार मिला था।

"शिविर कार्यालय।"

"वहां इस समय तुझे कौन मिलता? बंद पड़ा था न?"

"हाँ। मैंने सोचा, काका भोजामल के बारे में अगर कुछ तय हो गया हो तो पूछ आऊँ।"

माँ ने बहुत स्नेहपूर्वक मुझे देखा, "कोई बात नहीं, सुबह देख लेना। जब तक भोजन तैयार हो जाए, देख आ ! अगर पड़ोस के दोनों घरों में खाना-पीना हो गया हो तो वीरू के साथ जाकर बिस्तर लगा दे। सभी मर्दों के बिस्तर वहीं लगेंगे। अपना बिस्तर भी उनके साथ लगा लेना। एक-एक बिस्तर पर दो-दो लोग सो जाएँगे। हम औरतें यहीं सो जाएँगी।"

सीमित साधनों के बावजूद अम्मा की प्रबंध कुशलता और मेहमान नवाजी देखकर आश्चर्य की लहर मुझे गीला कर गई। सिंध में घर भरा-पूरा था। लंबा-चौड़ा मकान था। वहाँ केवल तंगदिली ही मेहमान नवाजी के रास्ते की रुकावट बन सकती थी। अम्मा क्योंकि तंगदिल नहीं थी, इसलिए वहां जो भी आता, पूरा सम्मान पाकर खुश होकर लौटता था। किंतु यहाँ मेहमान को खिलाने के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं है। दोपहर में दाल पड़ौसियों से उधार ली। कल बनाने के लिए न दाल है, न सब्जी और न ये चीजें खरीदने के लिए पैसे। मेहमानों को सुलाने के लिए बिस्तर नहीं हैं। बिस्तर बिछाने के लिए जगह नहीं है। फिर भी संतुलित रहकर अम्मा सारी व्यवस्थाएँ करती जा रही है। न टूटती है, न परेशान होती है और न आगंतुकों के प्रति किसी प्रकार का अवज्ञाभाव, किसी प्रकार की अश्रद्धा पैदा होती है उसके मन में। उपलब्ध साधनों में मेहमान के लिए सर्वश्रेष्ठ जो कुछ किया जा सकता है करो, यह संस्कार शायद अम्मा का मौलिक संस्कार नहीं है। सिंध का मौलिक संस्कार है। चाहे असंतुलित हो जाऊँ या परेशान महसूस करूँ, मगर मैं भी तो उसी संस्कार के वशीभूत सुबह से जद्‌दोजहद कर रहा हूँ।

***

(4)

22 अप्रेल, 1949

बाबा के साथ रहते आज एक महीना होने को आया है। उनसे लगभग डेढ़ वर्ष तक हमें अलग रहना पड़ा इस अवधि में जितना कुछ सीखने और महसूस करने को मिला, अनमोल है। अभाव, तनाव, विवशताएँ, तंगदस्ती, उपेक्षा, गरीबी और बदहाली। मानवता, भाईचारा, सौजन्य, सदाशयता, स्नेह, विश्वास, आत्मीयता, अपनत्व और सहयोग। स्वार्थ, छीना-झपटी, लड़ाई-झगड़े, मार-काट, सर-फुटौवल, भ्रष्टाचार, अनाचार, हृदयहीनता, कुत्साएँ, पैसे के लिए सब कुछ कर गुजरने की तैयारी और अपने हितपोषण के लिए नीचता की पराकाष्ठा तक चले जाना।

शरणार्थी शिविर। नलों पर पानी के लिए एक-दूसरे की चोटी खींचती महिलाएँ। शौचालय के बाहर भिनभिनाती मक्खियों के हमले। बरसात में बैरकों की खपरैलों से टपकता पानी। परदों की आड़ में माँ-बाप के साथ सटकर सोए पति-पत्नी। तराजू की डंडी मारकर तोला गया राशन का गेहूँ। शिविर की संख्या से ज्यादा शरणार्थी दिखाकर बनाए हुए रजिस्टर। गोदाम से सीधी बाजार में जाती गेहूँ और चीनी की बोरियाँ। शरणार्थियों के लिए आई सहायता राशि में पच्चीस प्रतिशत कमीशन। कर्मचारियों का शरणार्थियों के साथ दुर्व्यवहार। राशन का सामान लेने के लिए आने वाली युवा लड़कियों और महिलाओं से भद्‌दे मजाक। शरणार्थी-शिविर की ब्लाक पंचायतें। अदा-अदी, दादा-दादी, काका-काकी, बाबा-अम्मा के आत्मीयता पूर्ण संबोधन। हारी-बीमारी में सहायता के लिए तत्पर पड़ौसी। मतभेद भूलकर विपत्ति में कंधे से कंधा मिलाकर जुट जाने वाले लोग। पेट काटकर और भूखे रहकर कफ़न खरीदने के लिए आर्थिक सहयोग देने वालों का तांता। खून देने के लिए दस-दस बैरकों के युवाओं की पंक्तियाँ। अपनी नींद कुर्बान करके भी पड़ोसियों के मेहमानों को सुलाने के लिए ज़मीन का अपना टुकड़ा खाली करते लोग। खुद भूखे रहकर बीमार को फल खिलानेवाले लोग। प्यार करने और प्यार लुटाने वाले लोग।

कल्याण स्टेशन का प्लेटफार्म। नए हाथों में पालिश का ब्रुश देखकर मारने को लपकते लड़के। गरमा-गरम दलीलें। मारपीट। पुलिस वाले का हस्तक्षेप। दूसरे दिन फिर वही वातावरण। पालिश करने वाले एक लड़के के कारण बचाव। उसी लड़के के सुझाव पर कल्याण स्टेशन पर पालिश करने वाले लड़कों की बैठक। विरोध। धमकियाँ। समझौता। सहयोग।

यहां सब कुछ अलग है। वातावरण भी, मेरा दायित्व भी और लोग भी। आम बोलचाल की भाषा सिंधी नहीं, हिंदी नहीं, ढूँढाड़ी है। कुछ लोग जरूर हिंदी में बात करते हैं मगर ज्यादातर लोग पहले ढूँढाड़ी में और बाद में महसूस करके कि ढूँढाड़ी समझने में कठिनाई हो रही है, हिंदी में बोलते हैं। छुआछूत बहुत ज्यादा है। सार्वजनिक नल से पानी भरते समय गागर अगर किसी महिला की गागर से छू जाए तो ऐसा हंगामा खड़ा हो जाता है कि तौबा करनी पड़ती है। वह महिला कोसती व गालियाँ देती जाती है और राख या मिट्‌टी से गागर को माँजती जाती है। दो-एक बार तो मैं झगड़ पड़ा। ऐसी नाक-भौं सिकोड़ती हैं, जैसे कि हम गंदगी ढोते-ढोते उनके सामने पड़ गए हों। महिलाओं के साथ तू-तड़ाक हो जाए, एक तरफ से गुस्से में भरी दलीलें हिंदी में दी जाएँ और दूसरी तरफ से चिल्ला-चिल्लाकर गालियाँ ढूँढाड़ी में दी जाएँ तो फैसला कैसे हो? अब अम्मा नल से पानी भरने स्वयं जाती है, मुझे नहीं भेजती। अम्मा के व्यवहार में संजीदगी और अपनत्व-भरी हुज्जत का खूबसूरत सम्मिश्रण है। नल पर पानी भरने वाली महिलाओं के व्यवहार में अपमानजनक तत्त्व होने पर भी वह नाराज नहीं होती है। मौके पर तरीके से कह भी देती है। क्योंकि कहने-सुनने में कहीं प्रतिद्वंद्विता नहीं होती इसीलिए उसका किसी के साथ मनमुटाव भी नहीं होता है। दिन में घंटा-दो घंटा वह किसी-न-किसी के घर चली जाती है। सिंधी मिश्रित हिंदी व ढूँढाड़ी में बतियाती रहती है। मकान में रहने वाली औरतों के साथ मिलकर आसपास के मकानों या मोहल्लों में भी वह हो आती है। इसलिए भली महिला के रूप में अम्मा की मकान में ही नहीं, मौहल्ले में भी अच्छी साख है। उसी साख का नतीजा है कि अम्मा अब उतनी अस्पृश्य नहीं रह गई है।

बाबा ने किराए का डेढ कमरे वाला मकान लेकर चारपाइयाँ वगैरह खरीदने के बाद हम लोगों को बुलाया है। छोटा कमरा रसोईघर भी है और अम्मा का स्नानघर भी। मैं और बाबा कभी नल पर, कभी बरामदे में और कभी रसोईघर में नहाते हैं। दूसरे कमरे में दो चारपाइयाँ हमेशा बिछी रहती हैं। तीसरी चारपाई रात को लग जाती है। मेहमान आ जाएँ तो एक चारपाई रसोईघर में चली जाती है और परिस्थिति के अनुसार मैं, अम्मा या बाबा उस पर सोते हैं। मेहमानों के साथ शेष सबके बिस्तर कमरे में लग जाते हैं।

कुछ अतिरिक्त बिस्तर बाबा ने पहले ही खरीद लिए थे। तीन-चार मेहमान आ जाएँ तो हम लोगों को व्यवस्था करने में परेशानी नहीं होती है।

शरणार्थी शिविर से निकलकर बाबा अपने मामा के साथ रास्ते में पड़ने वाले शहरों में रुकते हुए आगे बढते गए। सिंध के परिचित या रिश्तेदार मिल गए तो पंद्रह दिन भी रुक गए। कोई नहीं मिला तो दो दिन में ही आगे चल दिए। जहाँ मौका मिला, दस-बीस दिन नौकरी कर ली। खर्चा निकाल लिया और शहर में बसने की संभावनाएँ भी मालूम कर लीं। दिल्ली में सिंध का एक परिचित व्यापारी मिला तो उसके साथ फलों की आढ़त का काम शुरू किया। चार महीने काम करने के बाद भी भागीदारी और वेतन में से किसी एक के लिए फैसला अधरझूल में रखकर वह टालमटोल करता रहा। अंततः बाबा को ही दो टूक बात करनी पड़ी। उन्हें ऐसा लगा कि व्यापारी अधिक से अधिक समय के लिए अपने पास रखकर और कम-से-कम पैसा देकर उनसे छुट्‌टी पाने की चेष्टा करेगा। बाद में झगड़ा-झंझट हो इससे अच्छा है कि अभी से मामला समाप्त कर लिया जाए, बाबा ने तय किया। उसके अनुसार उन्होंने व्यापारी से कहा कि जो कुछ आप देना चाहें दीजिए, मैं अब यहाँ रुककर काम करना नहीं चाहता। बाबा उसी के घर रहे थे। वहीं खाना-पीना हुआ था। लेना-देना बराबर करके वे दिल्ली से चले तो जयपुर आ गए। उनके मामा बीच में ही किसी शहर में जम गए थे।

बाबा को अनिश्चय और हताशा की धुंध के बीच चौदह माह तक भटकना पड़ा। हम लोग जब तनाव और त्रास की विषम स्थितियों से दो-चार होते हुए शरणार्थी शिविर में बाबा की बुलाहट की प्रतीक्षा कर रहे से, तब बाबा अपने साथ हमारी चिंताओं को भी सिर पर उठाए पाँव जमाने की प्रक्रिया में शहर-दर-शहर ठोकरें खा रहे थे। हम बाबा के साथ रह सकें, एक सुरक्षित भविष्य की वीथियों में कदम रख सकें, शरणार्थी शिविर की परनिर्भर, दूषित वायु से बाहर निकलकर खुली हवा में साँस ले सकें, इसके लिए जो तकलीफें बाबा को पिछले चौदह महीनों में उठानी पड़ी, बाबा उनका जिक्र तक नहीं करते हैं। आज हम उनके साथ हैं, इससे वे संतुष्ट हैं। बीते हुए कल की बुनियाद पर आज ओर आज की बुनियाद पर भविष्य की अट्‌टालिकाएं खड़ी की जाती हैं, बाबा अच्छी तरह जानते हैं। इसलिए बीते हुए कल को वे याद नहीं करते। आज का भविष्य के संदर्भ में मूल्यांकन करते चलते हैं। मैं प्रतिक्रियावादी और हिंसक इसीलिए हो जाता हूँ। वे शांत और निरुद्विग्न इसीलिए रह पाते हैं।

दिल्ली से जयपुर आए तो संयोगवश उनके पास उतनी ही रकम बची थी जितनी वे शरणार्थी शिविर से लेकर चले थे। पच्चीस रुपए की पूंजी से कोई कारोबार शुरू करने की बात सोचना भी दुस्साहस पूर्ण प्रतीत होता है। किंतु घोर आशावादी बाबा को ऐसा नहीं लगता था। उन्होंने फलों की दिल्ली की आढ़त के संपर्कों से यहाँ के एक आढ़तिए से मुलाकात की। उसे स्पप्ट रूप से बताया कि वे जयपुर में फलों का व्यापार करना चाहते हैं। मंडी से फल खरीदेंगे और बाजार में फुटकर बेचेंगे। कुछ दिन अपनी जमानत पर वे माल दिलाएंगे तो सुविधा रहेगी। आढ़तिया मान गया। मोल-भाव करके उन्होंने चार मन नारंगियाँ खरीदीं। आढ़तिये का संदर्भ देकर रकम लिखाई। ठेले पर रखवा कर नारंगियाँ बाजार में लाकर, उन्होंने बोरी बिछाकर फुट-पाथ पर नारंगियों का ढेर लगाया। उस दिन जीवन में पहली बार उन्होंने वह काम किया जिसे करने के बारे में उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा। उनका कोई मित्र, परिचित, रिश्तेदार आज भी अगर सुन ले तो विश्वास नहीं करेगा कि बाबा ने कभी ऐसा भी किया होगा।

"चार आने सेर, चार आने सेर! खट्‌टी-मीठी नारंगी, चार आने सेर! फिर नहीं मिलेंगी, चार आने सेर! खट्‌टी-मीठी नारंगी, चार आने सेर!" का तुमुलनाद करते हुए उन्होंने नारंगियाँ बेचनी शुरू कीं। तराजू और बाट किसी पड़ाव पर उन्होंने खरीद लिए थे। उन दिनों यह क्षेत्र दुकानदारों के वर्चस्व वाला क्षेत्र था। ग्राहक को दुकानदार की मरजी के अनुसार, उसके नाज-नखरे उठाकर माल खरीदना पड़ता था। जो नारंगियाँ उन्हें ठेला-भाड़ा मिलाकर पाँच रुपए मन पड़ी थीं, उन्हें चार आने सेर बेचकर वे शत-प्रतिशत मुनाफा कमा रहे थे। जबकि यही नारंगियाँ बाजार में दुकानों पर आठ आने सेर के भाव से बिक रही थीं। भावों में इतना बड़ा अंतर तो था ही, फुटपाथ पर ढेर लगाकर नारंगियाँ बिकती देखने का अनुभव भी लोगों को पहली बार हुआ था। दुकानदार को दुकान, पानी-बिजली, नौकर-चाकर, किराया-भाड़ा, साज-सज्जा आदि पर खर्च करना पड़ता है जबकि बाबा को नारंगियों की कीमत के अलावा केवल ठेला-भाड़ा देना पड़ा था। लेकिन खरीदार को सस्ती कीमत में अच्छी चीज मिले तो उसे इन बातों पर विचार करने की क्या जरूरत है? देखते-ही-देखते भीड़ जमा हो गई। बाबा के पास किसी से बात करने की फुरसत नहीं थी। तोलना और पैसे लेना, इन दो कामों से समय मिले तो वे आवाजें भी लगाएँ। कोई ग्राहक पूछता तो उसे जरूर बता देते, वरना ग्राहक ही ग्राहक को भाव बता देते। तीन घंटे बीतते-न-बीतते नारंगियाँ बिक गईं। बाबा ने हिसाब लगाया, बीस रुपए बचे थे। चौदह महीनों में उन्हें पहली बार संतोष की अनुभूति हुई। पहले दिन के अनुभव ने ही स्थायित्व की दिशा में आशाएँ जगाईं। वे अपनी सगी मौसी के पास ठहरे थे। इसलिए आजमाने की दृष्टि से भी स्थितियाँ अनुकूल थीं। उन्होंने निश्चय किया कि कुछ दिन इसी क्रम को दोहराएँगे और देखेंगे कि यह शहर क्या देता है?

अगले दिन सुबह जाकर उन्होंने नारंगियों का हिसाब चुकता किया। एक मन बढाकर दूसरे आढ़तिये से पाँच मन नारंगियाँ खरीदीं। कल की तरह संदर्भ देकर रकम अपने नाम लिखाई और उसी जगह आकर नारंगियों का ढेर लगाया, जहाँ कल नारंगियां बेची थीं। आवाजें लगा-लगाकर उन्होंने लोगों का ध्यान आकर्षित किया। कल के भावों में आज भी नारंगियाँ खरीदीं थीं, इसलिए कल के भावों में आज भी नारंगियों की बिक्री की। आज एक मन ज्यादा नारंगियां थीं, इसलिए बचत पच्चीस रुपए हुई। बाबा को उत्साह भी मिला और प्रेरणा भी।

एक सप्ताह तक मंडी में उपलब्ध, मुनाफे वाले फल खरीदकर वे बेचते रहे। जगह तय होने के कारण कुछ ग्राहक स्थायी रूप से उनके पास आने लगे। आमदनी में दिन-प्रतिदिन वृद्धि हो रही थी। मंडी में अगले दिन वे भुगतान कर देते थे, इसलिए साख बढने लगी। किसी आढ़तिये को उन्हें माल उधार देने में हिचकिचाहट नहीं होती थी। कुछ रुपए उन्होंने मौसी के परिवार पर खर्च कर दिए थे। फिर भी उनके पास एक सप्ताह के बाद डेढ सौ रुपए बचे थे। यह बचत उन्हें आकर्षक महसूस हुई। यही धंधा करके परिवार को बुला लेने की बात उनके मन में स्थिर होने लगी। इसके बाद उन्होंने किराए पर एक ठेला लिया। उसे दुकान की तरह सजाकर, तीन-चार प्रकार के फलों से भरकर, अपने पुराने ठिकाने पर ही खड़ा होना शुरू कर दिया। मौसी से बात करके अपने खाने के बदले एक निश्चित राशि का भुगतान करने की बात उन्होंने तय कर ली।

फुटपाथ पर ढेर लगाकर नारंगियाँ बाबा कुछ ही घंटों में बेच देते थे। अब उस जगह दिन-भर ठेला खड़ा देखकर दुकानदारों और पुलिसवालों का माथा ठनका। दुकानदारों ने शिकायत की तो पुलिसवालों को कार्रवाई करने का पुख्ता बहाना मिल गया। मगर बाबा को इस कठिनाई का पूर्वानुमान था। घर जाकर उन्होंने थानेदार को डाली पेश की और इस क्षेत्र में चौकसी करने वाले सिपाही का महीना बाँध दिया।

घूस देकर बाबा ने ठीक किया या नहीं, यह प्रश्न अपने विपरीत आयामों के साथ मैं हल नहीं कर पाया हूँ। आजादी की लड़ाई में जिस आदमी ने अपनी जवानी, अपने परिवार, अपने भविष्य और अपने जीवन को दाव पर लगाया हो, वह पुलिसवालों को सधे हुए मुजरिम की तरह रिश्वत देकर गैरकानूनी काम करते रहने की साजिश रचेगा, यह न समझ में आनेवाली गुत्थी है। आदर्शवादी सपने जिसकी प्रेरणा रहे हों, जीवन की अंतिम साँस तक देश की आजादी के लिए संघर्ष करते रहने का जिस आदमी का संकल्प हो वह सचमुच आजादी मिलने के बाद एक-डेढ़ वर्ष में ही उन संकल्पों और संघर्षों की चिता जलाकर नृत्यरत हो जाएगा, यह न सुलझने वाली समस्या है।

आजादी प्राप्त करना किसी भी सेनानी का पहला और अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता। व्यवस्था और सत्ता की बागडोर विदेशी शासकों के हाथों से निकलकर अपने लोगों के हाथ में आए, यह तो ठीक है किंतु क्या इतना ही पर्याप्त है? अपने लोग सत्ता पाकर देशवासियों के हित में क्या करते हैं, कितना सोचते हैं, अपने और पराए शासन में अंतर की कसौटी यही हो सकती है। बाबा ने सत्याग्रह आंदोलन करते समय या पोस्टर और पर्दे दीवारों पर चिपकाते समय या लुक-छिपकर आजादी की लड़ाई की सूचनाएँ देनेवाला साहित्य एक से दूसरे स्थान पर पहुँचाते समय या लोगों को शिक्षित करने के लिए गुप्त बैठकों में भाषण देते समय या सरकारी आदेशों की अवज्ञा करते समय क्या केवल इतना ही सोचा होगा कि एक बार देश अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त हो जाए, फिर सब ठीक हो जाएगा? क्या बाबा नहीं समझते हाेंगे कि मिल्कीयत बदलने से मकान में लगे मकड़ी के जाले अपने आप नहीं छूट जाते? जाले हटाने होते हैं। मकान की सफाई करनी होती है। फर्श को धोना पड़ता है। दीवारों पर सफेदी करनी पड़ती है। टूट-फूट ठीक करानी पड़ती है। दरारें पाटनी पड़ती हैं, झड़ता हुआ पलस्तर दोबारा कराना पड़ता है। बाबा और उनके साथी ये सब बातें केवल समझते होंगे, शायद यह भी ठीक नहीं है। उन्होंने उन उपायों पर भी विचार-विमर्श, बहस-मुबाहिसे किए होंगे जिन्हें अपनाकर आजादी के मीठे फलों का स्वाद गरीब से गरीब आदमी की झाेंपड़ी तक पहुँचाया जा सकता है। हो सकता है, उनके सुझाए हुए उपायों में क्षेत्रीयता रही हो। उन उपायों में सारे देश की पीड़ाओं की बात न रही हो। किंतु आजादी प्राप्त करना समस्याओं के समाधान का एकमात्र उपाय नहीं है, यह बात बाबा ही नहीं बाबा से नीचे और बाबा के ऊपर के सेनानियों, कार्यकर्ताओं, नेताओं के सोच में जरूर रही होगी।

आजादी विभाजन की विभीषिका लेकर आई। आजादी ने बाबा जैसे आजादी के युद्ध में लड़ने वाले योद्धाओं को पहले दिन से ही अपनी जड़ और मूल से उखड़ने के त्रास से भर दिया। आजादी ने उन सपनों को एक झटके में धराशायी कर दिया जो बाबा ने देखे थे। आजादी ने उन्हें शहर-दर-शहर, दरवाजा-दर-दरवाजा और ड्‌योढी-दर-ड्‌योढी टकराकर लहूलुहान होने के लिए विवश किया। आजादी ने अनिश्चय के तनाव को झेलते हुए परिवार को भाग्य के भरोसे छोड़कर पाँव रखने मात्र की जगह तलाश करने की जद्‌दोजहद में उनके कस-बल निकाल दिए। लेकिन ये स्थितियाँ क्या आजादी से पहले बाबा ने स्वयं अपने लिए नहीं चुनी थीं? कई-कई दिन भटकना, भूखे-प्यासे, एक शहर से दूसरे शहर में जाकर संदेश पहुँचाना, पुलिस की गिरफ्त से बचने के लिए गुमनाम स्थानों पर छिपना, आंदोलनों के दौरान लाठियाँ खाना। ये यातनाएँ झेलने के लिए बाबा को किसी ने मजबूर नहीं किया था। परिवार के भविष्य से बेफिक्र बाबा जब परिवार के हाल-चाल भी दूसरों से जान पाते थे, तब क्या वे बहुत सुखी थे? आज विभाजन की मार जो दुःख उन्हें दे रही है, वही दुःख आजादी की तलाश में उन्होंने स्वयं अपने लिए चुने थे। फिर क्यों आया है बाबा में यह परिवर्तन? उनकी आक्रामकता के पीछे असुरक्षा का भाव इतने वीभत्स रूप में क्यों खड़ा है?

मैंने बाबा से पूछा था, ‘‘ठेला खड़ा करने के लिए आपको रिश्वत क्यों देनी पड़ी है।"

‘‘रिश्वत नहीं देते तो क्या करते? फुटपाथ पैदल चलने वालों के लिए बनाए जाते हैं।"

‘‘फुटपाथ पर ठेला खड़ा करना गलत है, फिर भी आप ठेला वहीं खड़ा करते हैं। यह काम आप करते रह सकें, इसलिए आप पुलिसवालों को घूस देते हैं। एक गलत काम करते रहने के लिए आपने दूसरे गलत काम का सहारा लिया है। क्योंकि आप ऐसा कर रहे हैं, इसलिए पूछ रहा हूँ। आपने तो मूल्यों के लिए संघर्ष किया है।"

‘‘हकीकतों की तल्खी इतनी धारदार होती है बेटा, कि ऊँचे-ऊँचे सिद्धांत कटकर टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं।"

‘‘शायद आप ठीक कहते हों बाबा, लेकिन सारा जीवन कष्ट झेलते हुए गुजारने के बाद सिद्धांत उन कष्टों की वेदी पर मर-कट जाएँ, यह बात मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।"

‘‘सिद्धांत भी तो इनसान के लिए होते हैं, बेटा। इनसान के कष्टों को जो सिद्धांत बढाते हैं, उन्हें ढोते चले जाने से क्या फायदा?‘‘

मुझे लगता है, विभाजन के निर्णय ने बाबा का इतना अधिक मोहभंग किया है कि उन्होंने अपनी दिशा बदल दी है। वे इस निर्णय पर पहुँचे है कि आजादी की लड़ाई में कंधे-से-कंधा मिलाकर शिरकत करने वाले एक भाग को बलि का बकरा बनाकर बाकी बचे देश को सुख और समृद्धि से सराबोर करने वाली दृष्टि में खोट है। दुखों में साथ निभाने वालों को सुखों में हिस्सेदार बनाने की बजाय दुखों की भीषण ज्वालाओं में झोंकने की स्वीकृति कैसे दी जा सकती है? बाबा के सोचने के तरीके से मैं सहमत हूँ, लेकिन कुछ सच्चाइयाँ फिर भी विचारणीय हैं। क्या विभाजन को अस्वीकार करने का अर्थ आजादी लेने से इनकार करना नहीं होता? धर्म के आधार पर विभाजन का सिद्धांत यदि स्वीकार न किया जाता और आजादी मिल जाती, तब भी क्या अशांति, कलह और धार्मिक उन्माद की प्रबल धाराएं देश को रक्त-रंजित नहीं करतीं? जो स्थितियां देश में थीं, उनको देखते हुए धार्मिक आधार पर विभाजन के पक्ष में काम करने वाली शक्तियों से निपटने का कोई प्रभावशाली तरीका उपलब्ध था क्या? तुष्टीकरण या तनाव दोनों में से कुछ भी गृहयुद्ध टालने में सहायक नहीं होता और गृहयुद्ध का फैसला तत्कालीन महत्वाकांक्षी नेताओं के चलते संभव था क्या? यद्यपि सारे प्रश्न और उनके उत्तर कल्पना पर आधारित हैं, फिर भी यह बात विचार करने योग्य बनी रहती है कि विभाजन को रोकना क्या मुमकिन था?

यदि विभाजन अपरिहार्य था तो बाबा का सोच उचित है क्या? बाबा समझौता करने के पक्षधर नहीं हैं। वे मानते हैं कि विभाजन से प्रभावित देशवासियों के साथ विश्वासघात किया गया है। देश की आजादी का अर्थ करोड़ों लोगों की बरबादी नहीं हो सकता। किंतु विभाजन से त्रस्त अपने लोगों के साथ जो व्यवहार हुआ, वह कहां तक न्यायसंगत था? ऐसी व्यवस्था क्यों नहीं हुई कि विभाजनग्रस्त सिंध, पंजाब और बंगाल के लोगों को शरणार्थी बनना नहीं पड़ता? यदि पाकिस्तान में ही ऐसा करना संभव नहीं था तो हिंदुस्तानी सीमाओं में प्रवेश के बाद उनकी रोटी, रोजी और मकान की व्यवस्था क्यों नहीं की गई? शरणार्थी शिविरों में छोड़कर आजादी की सबसे बड़ी कीमत देनेवाली आबादी को भिखारी बना देने की मानसिकता को कैसे स्वीकार किया जा सकता है? बाबा में साहस होगा, ताकत होगी, दम-खम होगा, बुद्धिचातुर्य होगा, आक्रामकता होगी तो बाबा फिर कारोबार जमा लेंगे, बाबा फिर मकान बना लेंगे, बाबा फिर उसी ओज पर पहुँचेंगे जिस पर वे सिंध छोड़ने से पहले थे। लेकिन सब कुछ बाबा को ही करना होगा? जिन्होंने अपनी कलम के जोर और सिर की जुंबिश से विभाजन को स्वीकार करके बाबा को त्रासद स्थितियों में पहुँचाया वे कुछ नहीं करेंगे? अगर वे कुछ नहीं करेंगे, अगर सब कुछ बाबा को ही करना होगा, अगर बाबा का बाहुबल ही सब कुछ करेगा तो बाबा उनकी परवाह क्यों करें? क्यों नहीं करें बाबा फुटपाथ पर कब्जा? क्यों नहीं दें बाबा घूस? उन्होंने व्यापार, कारोबार, धंधा करने के लिए जमीन का कोई छोटा सा टुकड़ा दिया होता बाबा को तो उनकी यह अपेक्षा वाजिब थी कि बाबा मूल्यों को महत्त्व दें। अब तो उन्हें नैतिक रूप से अधिकार ही नहीं है बाबा से कुछ कहने का, बाबा को उपदेश देने का या अपेक्षा करने का कि बाबा को देश के नाम पर जहर के घूंट पीते चले जाना चाहिए।

दूसरे लोग बुराई करें तो क्या प्रभावित व्यक्ति को अपनी अच्छाई छोड़ देनी चाहिए? सिंध के लोगों के साथ अन्याय हुआ। उन्हें उचित व्यवहार नहीं मिला। उन्हें मनमाने ढंग से अनाथ बना दिया गया। उनको रोजगार की सुविधाएँ नहीं दी गईं। उनके साथ अजनबियों जैसा सुलूक किया गया। सब ठीक है, फिर भी बाबा को मूल्यों को तिलांजली देनी चाहिए क्या? मेरे पास उलझनें हैं। तर्कों का जाल है। किंतु इस प्रश्न का सुस्थिर समाधान नहीं है।

उत्तीर्ण की हुई परीक्षाओं की अंकतालिकाएँ मेरे पास हैं। बाबा की दूरदृष्टि का परिणाम है कि उन्होंने पैसा, सोना, नग-नगीने चाहे अपने पास न रखे हों किंतु ज़रूरी कागजात वे सिंध से लेकर आए हैं। वे तो मकानों के कागजात भी अपने पास रखना चाहते थे किंतु रहीम बख्श ने सुरक्षित निकल जाने की कीमत भरपूर वसूल की थी बाबा से। बख्शीशनामा लिखवाकर दुकानों व मकानों के कागजात रहीम बख्श ने ले लिए थे बाबा से। हम यह कहने की स्थिति में भी नहीं हैं कि सिंध में हम दो दुकानों ओर दो मकानों के मालिक थे। यही कारण है कि हमने सिंध में छोड़ी हुई संपत्ति के मुआवजे की माँग नहीं की है। बाबा बाकी सारे जरूरी कागजात साथ लाए हैं। उनमें ही मेरी एफ ० ए ० प्रीवियस की अंकतालिका भी है। एफ ० ए ० फाइनल में प्रवेश जून के अंतिम सप्ताह में प्रारंभ होंगे। बाबा ने कहा है कि पढाई जारी रखनी है। मैं भी चाहता हूँ कि आगे पढूं। पढ़-लिखकर ही परिवार की स्थिति को सम्मानजनक जगह पर पहुँचाया जा सकता है। पढाई के लिए फीस, किताबों, कपडे-लत्ते के लिए पैसा खर्च होगा। बाबा कहते हैं कि पैसा मेरी पढाई में बाधक नहीं बनेगा। बाबा से तो नहीं कहा, लेकिन मैंने तय किया है कि यदि मिले तो दो टूयूशन पकड़ लूंगा। बाबा की मदद चाहे न कर सकूं, अपना खर्च तो निकाल ही लूंगा।

आज पता नहीं क्यों काका भोजामल बार-बार याद आ रहे हैं। शरणार्थी शिविर में आए उनको दो महीने हो गए थे जब मुझे और अम्मा को यहां बुलाया था बाबा ने। उल्हासनगर में ही उन्होंने एक दुकान देखी थी। साथ लाया सोना और जेवर बेचकर किराने का काम शुरू करने का उनका इरादा था। काका भोजामल स्वयं और उनके तीन लड़के मिलाकर चार लोग दुकान पर काम कर सकते हैं। वीरू को पढने दें, तब भी तीन लोग बचते हैं। लेकिन परिवार बड़ा है। आमदनी अच्छी होगी, तभी काम चल पाएगा। मीनू की भी अभी पढने की उम्र है। वीरू और मीनू पढेंगे, विवाहित दोनों भाइयों के दो बच्चे स्कूल जाएँगे। दुकान से आमदनी अच्छी होगी तभी उनकी जरूरतें पूरी हो पाएंगी। काका भोजामल को तो हालात का अहसास हो गया था मगर उनके लड़कों में अभी अपने दिमाग से काम लेकर फैसला करने की क्षमता नहीं है। सिंध में जिस तरह पिता के इशारे से परिवार का हर सदस्य हरकत करता था, उनमें अब भी उसी तरह की जड़ता है। बदली हुई स्थितियों के अनुरूप अगर उन्होंने अपने तौर-तरीके में परिवर्तन नहीं किया तो उनकी परेशानियाँ बढती जाएँगी। मीनू चौदह वर्ष से ज्यादा उम्र की लगने लगी है। उसके व्यवहार में गंभीरता आ गई है। उसमें मसखरापन अब कहीं नजर नहीं आता। चुन्नी गले में डाले ज़मीन में नजर गड़ाकर या सिर नीचा किए काम में लगी रहती है। देखकर मुसकराती जरूर है, लेकिन कभी खुलकर बात नहीं करती। सिंध में कितनी चपर-चपर करती थी। काकी टोकती रहती थी, ‘‘मुई, कुछ शर्म-लिहाज सीख। अब तू बडी हो गई है।" मगर उसके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती थी। उसकी खिल-खिलाहट तो आज भी मेरे कानों में गूँजती है। उल्हासनगर में कभी अकेले बैठकर बात कर सकें, इतनी सुविधा नहीं मिलती थी। वरना मैं उससे पूछता कि ये परिवर्तन किसी कारण विशेष से आए हैं या उसने सायास ओढे हैं? काका भोजामल ने किराने का काम शुरू किया या नहीं? किया है तो काम कैसा चल रहा है? कितनी आमदनी हो जाती है? घर का खर्च निकलता है या नहीं? वीरू और मीनू की पढाई के बारे में उन्होंने क्या फैसला किया है? अगर काम शुरू नहीं किया है तो क्यों नहीं किया? जो दुकान उन्होंने देखी थी, वह नहीं मिली क्या? नहीं मिली तो कोई दूसरी दुकान क्यों नहीं देखी? अब क्या करने का इरादा है? अनेक जिज्ञासाएँ हैं। चिट्‌ठी-पत्री आती नहीं है। जिज्ञासाएँ शांत करने का कोई तरीका नहीं है। लगाव है और जिज्ञासाएँ हैं, शायद यही कारण है कि आज काका भोजामल की बहुत याद आ रही है मुझे।

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डायरी के जितने पृष्ठ पढे हैं उनके आधार पर आप किसी परिणाम पर नहीं पहुँचे होंगे, यह मैं समझ सकता हूँ। मगर इन पृष्ठों को पढते-पढते डायरी में मेरी रुचि बन चुकी थी। डायरी में विविधता चाहे कम हो मगर यह बात मैं कह सकता हूँ कि बाबा ने अपने बेटे को डायरी लिखने की कला सिखाई बहुत अच्छी तरह है। कशमकश, भावनाएं, स्थितियों का विवरण, घटनाओं का विश्लेषण सब कुछ इतनी खूबसूरती से हुआ है कि कम-से-कम मैं तो डायरी के साथ बहता चला गया। डायरी-लेखक के तर्क इतने सधे हुए हैं कि विश्वास नहीं होता, किसी सोलह-सत्रह साल के लड़के ने ये तर्क दिए हैं। भावुकता भी है, भावनाएँ भी। आदर्श भी हैं, व्यावहारिकता भी। सपने भी हैं, सच्चाइयाँ भी। उदासियाँ भी हैं, खुशियाँ भी। सिंध से पलायन, शरणार्थी शिविर का दैनिक जीवन, पॉलिश जैसे नाचीज काम के लिए भी संघर्षों का जखीरा। मानना पड़ेगा कि बाबा ने तालीम अच्छी दी है बेटे को।

दरअसल मेरे पुरखे भी सिंध से यहाँ आए थे। घर में हम लोग सिंधी में ही बात करते हैं। इसलिए विभाजन का, सिंधवासियों का, शरणार्थी शिविर का और विभाजन की पीड़ा झेलने वाले एक स्वतंत्रता सेनानी का विवरण देखा तो डायरी ने मुझे बाँध लिया। मेरे पुरखे कोई सौ वर्ष पहले यहाँ आ गए थे। तभी उन्होंने कबाड़े का काम शुरू किया था। परदादा से दादा, दादा से पिता और पिता से मैं। तीन पीढियों से हमारे खानदान का यही कारोबार है। रीति-रिवाजों पर तो स्थानीय रीति-रिवाजों का बहुत प्रभाव पड़ा ही है, पहनावा भी स्थानीय लोगों जैसा हो गया है। मगर भाषा नहीं छोड़ी है हम लोगों ने। सच कहा जाए तो हमारी पहचान अब केवल भाषा के कारण ही है। अन्यथा किसी भी कोण से हम सिंधी नहीं रह गए हैं। ढूंढाड़ी इतनी बारीकी ओर दक्षता से बोलते हैं कि बोली से कोई स्थानीय आदमी हमें यहीं का मानेगा। धोती कुरता, पगड़ी और मूंछें मेरे पिता तक सब बुजुर्ग बाकायदा पहनते-रखते थे। पांवों में चमरोंधी भी खालिस यहाँ की पहचान थी। पहनता तो मैं भी धोती-कुरता हूँ, किंतु पगड़ी और चमरोंधी का तो अब जमाना ही नहीं रहा है। कभी-कभी कमीज और पैंट भी पहनने लगा हूँ, खासतौर से शादी-विवाह के मौके पर। खाना-पीना भी देश के अनुरूप है। दाल, बाटी, चूरमा हमारी पहली पसंद है। बस भाषा न हो तो हमें कोई सिंधी नहीं मानेगा। कोई दूसरा क्या, हम भी खुद को सिंधी मानने से इनकार कर दें शायद। विभाजन के बाद सिंधवासी जब भारत में आए तब ऐसा लगा था जैसे मुझे ही देश-निकाला दे दिया गया हो। अधिकांश लोग तो देश में अलग-अलग स्थानों पर खोले गए शरणार्थी शिविरों में चले गए थे मगर कुछ परिवार प्रारंभ से ही हमारे शहर में आने लगे थे। किसी का कोई संबंधी था, किसी का कोई मित्र, परिचित या मिलने वाला था। कोई यहाँ से रेलगाड़ी में निकलते हुए इस शहर को पसंद कर बैठा था। किसी के पास रुपया था, इसलिए किसी वस्तु-विशेष के व्यापार की दृष्टि से उसने यहाँ आने का निर्णय लिया। जयपुर बंधेज की साड़ियों और जवाहरात के लिए प्रसिद्ध है। सिंध में साड़ियों या जवाहरात का काम करने वालों ने इस शहर की ख्याति सुनी ही होगी। संभव है, कुछ स्थानीय व्यापारियों के साथ उनका लेन-देन पहले ही चलता हो। पहले देखने-परखने की दृष्टि से आए हों और फिर यहाँ काम शुरू करने की बात जंच गई हो। पैसे वाला हो या निर्धन, नए रूप में जमने के लिए हर एक को बहुत कुछ करना पड़ता है। रहने के लिए मकान, व्यापार के लिए दुकान, बच्चों के लिए शिक्षा केंद्र के रूप में विद्यालय या कॉलेज की तलाश तो उसे भी रहेगी जिसके पास रुपया है। शहर के लेन-देन, व्यवहार, व्यापार की ऊँच-नीच को समझने की जरूरत उसे भी महसूस होगी जिसके पास रुपया है। व्यापार की जिन्स समान होते हुए भी उसकी खरीद और बिक्री का हर शहर का अपना तौर-तरीका होता है। हर शहर का अपना एक ढर्रा चलता है जिसके अनुसार वहां हफ्ते, पंद्रह दिन या एक महीने में भुगतान करना होता है। भुगतान न करने पर ब्याज देना पड़ता है। ब्याज का भी हर जगह का अलग-अलग तरीका होता है। कहीं ब्याज दिनों के हिसाब से देना पड़ता है और कहीं हफ्तों या महीनों के हिसाब से। कहीं ब्याज बारह आना सैकड़ा के हिसाब से देना पड़ता है और कहीं दो रुपया सैकड़ा के हिसाब से। पैसा कम है तो उसे कम किराए पर मकान की तलाश रहेगी। दुकान भी कम लागत से शुरू करना चाहेगा। निर्धन किसी दुकान पर नौकरी करने की कोशिश करेगा, फेरी लगाएगा, फुटपाथ पर रखकर माल बेचेगा या ठेला घुमाएगा। पहले धर्मशाला में और फिर एकाध कोठरी किराए पर लेकर गुजर-बसर करेगा। बच्चों को भी किसी-न-किसी काम पर लगा देगा। चाय-पकौड़ी की दुकान से लेकर किसी धनवान के घर में काम करने वाले नौकर के रूप में उन्हें लगाने का प्रयत्न करेगा।

विभाजन से पीड़ित सिंध से आने वाले लोगों में पुर्नस्थापित होने की जो आग नजर आती थी वह अभिभूत और रोमांचित तो करती ही थी, उसे देखकर गौरव भी होता था। अन्यथा कभी सिंधवासी होने के नाते मुझे गौरव की अनुभूति हुई हो चाहे न हुई हो किंतु आज के अनिश्चयपूर्ण अंधकार से निकलकर भविष्य की उज्ज्वल गोद में बैठने के लिए, सिंध में प्राप्त सामाजिक स्थिति की चिंता न करते हुए अर्थोपार्जन के लिए किसी भी काम को करने से परहेज न करते सिंधवासियों को देखकर उनकी जिजीविषा और जुझारूपन पर बारबार टिप्पणी करने की इच्छा होती थी कि मैं सिंधी हूँ, कि मेरी धमनियों में भी उन पुरखों का खून बहता है जो सिंध से चलकर यहाँ आए थे। मैं सिंध नहीं गया। मुझे नहीं लगता कि मैं कभी सिंध जाऊँगा। सिंध के बारे में अपने बुजुगोर्ं से ज्यादा कुछ सुनने को भी नहीं मिला है मुझे। परदादा के बाद सिंध को जब किसी ने नहीं देखा तो मुझे सिंध के बारे में कौन सुनाता? मेरे पिता ने विवाह यहीं किया था इसलिए सिंध के साथ संबंध टूटने का सिलसिला पुख्ता ही होता रहा है। यह बात अलग है कि हमारी तरह घर में माँ भी सिंधी में बात करती है मगर भाषा के सूत्र को छोड़कर सिंध हमारे बीच कहीं नहीं है। सिंधवासियों ने आकर परिश्रम और लगन से अपना उजड़ा नीड़ बसाने की पुरजोर चेष्टाएँ करके मुझे याद दिला दिया था कि मैं भी सिंधी हूँ, कि मेरी जड़ें कमजोर नहीं हैं, कि मुझे मिटाना समय-चक्र के लिए भी आसान नहीं है।

इतने सालों के बाद जब सिंधवासियों की सामाजिक और आर्थिक स्थिति फिर अच्छी हो गई है, विभाजन के तुरंत बाद की स्थितियाँ सपने की तरह लगती हैं। किसी दूसरे समुदाय को यदि वैसी स्थितियों से गुजरना पड़ता तो उनकी क्या दशा होती, इस संबंध में दावे के साथ कुछ कहना तो शायद किसी के लिए भी संभव नहीं है किंतु यह बात दावे से कही जा सकती है कि जितनी अवधि में पूरी तरह नेस्तनाबूद सिंधवासियों ने स्वयं को फिर खड़ा किया है, स्वयं को फिर जमाया और स्थापित किया है, उतनी अवधि में इतना कर पाना किसी दूसरे समुदाय के लिए संभव नहीं होता। भीख के लिए हाथ नहीं फैला, दया के लिए गिड़गिड़ाया नहीं, सहानुभूति अर्जित करने के लिए किसी के सामने आँख से एक बूंद आँसू नहीं टपका। चिंता-ग्रस्त था, तनावयुक्त था, भविष्य को लेकर आशंकित था। किंतु इन दुविधाओं से लड़ने का एक ही रास्ता चुना उसने, मेहनत। जहाँ गया वहां की भाषा अपनाई, वहाँ के रीति-रिवाज अपनाए, वहाँ का पहनावा अपनाया, वहाँ का खान-पान अपनाया और प्रयत्न किया कि वहाँ के निवासियों के साथ एकाकार हो जाए। एकाग्र भाव से जुटा रहा। इसीलिए देश के जिस हिस्से में भी पहुँचा, सफलता ने उसका वरण किया। इंजीनियरिग कॉलेज, शिक्षा संस्थान, हर प्रकार के शैक्षणिक व तकनीकी कॉलेज, बड़े-बड़े अस्पताल, धर्मशालाएँ, सामाजिक ट्रस्ट, सामाजिक संस्थाएँ इस बात के प्रमाण हैं कि भारतीय समाज की बहबूदी में सिंधी समुदाय का योगदान किसी भी एक समुदाय के मुकाबले ज्यादा है। अपनी स्थिति सुधारने के बाद उसने समाज की भी सुधि ली है। केवल अपना लाभ, अपना हित नहीं देखा उसने। पहले अपना हित देखा, यह ठीक है। किंतु सामर्थ्यवान बनते ही उसने समाज की भी चिंता की है।

मेरे पूर्वजों ने कबाड़ बेचने और कबाड़ खरीदने का काम शुरू किया था। मैं भी वही काम कर रहा हूँ। दाल-रोटी वे भी निकालते थे, दाल-रोटी मैं भी निकालता हूँ। पूर्वजों ने जो बनाया, बुजुर्गों ने जो अर्जित किया, मैंने उसमें क्या जोड़ा है? सोचता हूँ तो पाता हूँ कि मैंने उसमें कुछ खास नहीं जोड़ा। उसमें से कुछ घटाया नहीं तो उसे बढाया भी नहीं। क्या सिंधू नदी के पानी का, सिंध के अन्न का, वहाँ की हवा का, वहां के वातावरण का क्रमशः कमजोर होता हुआ असर नहीं है कि मैं यथास्थान खड़ा हूँ? प्रयत्न करूं तो आमदनी बढ सकती है लेकिन मैं जो है, जितना है उसमें संतुष्ट हूँ। बीच-बीच में विचार आते हैं, योजना बनाता हूँ। फिर सुस्त हो जाता हूँ। लड़के बड़े हो गए हैं। एक तो उन्हें यह काम पसंद नहीं है, दूसरे इस काम में तीन लडकों को लगाने की गुंजाइश नहीं है। प्लास्टिक का ढेर सारा सामान कबाड़ में आता है। फैक्टरियों के एजेंट खरीदकर ले जाते हैं। मैं स्वयं प्लास्टिक का कोई सामान बनाने का कारखाना डाल दूं तो अच्छा चल सकता है। आमदनी भी बढेगी और लड़के भी काम में लग जाएँगे। लड़कों को रोजगार से लगाने की आवश्यकता तुरंत चाहे न हो, किंतु कल यह मेरी महत्त्वपूर्ण समस्या होगी। अगर मैं अपनी जडे़ सिंध में मानता हूँ तो वे गुण भी मुझमें होने चाहिएं। सालों-साल सोचते हुए गुजार देने वाले आदमी को यह दावा करने का अधिकार नहीं है कि उसका सिंध से पुश्तैनी संबंध है।

वैसे सिंध के साथ संबंधों की बात भी शायद तब तक रहेगी जब तक मैं जिंदा हूँ। तीनों लड़के और दोनों लड़कियाँ सिंधी जानते हैं। मुझसे, अपनी माँ से, दादा-दादी से सिंधी में बात करना उनकी मजबूरी है। आपस में वे लोग कभी सिंधी में बात नहीं करते। हम लोग भी बाहर ढूंढाड़ी या हिंदी में ही बोलते हैं इसलिए घर से बाहर उन्होंने हिंदी में बात की तो कोई खास बात नहीं है। मगर घर में आपस में बहिन-भाइयों का हिंदी में बात करना मुझे अच्छा नहीं लगता। दो-चार बार कहा भी, लेकिन कोई असर नहीं हुआ तो अब इस मामले में टोकना बंद कर दिया है। मैं तो दुकान पर आने वाले सिंधीभाषी ग्राहकों से भी सिंधी में ही बात करता हूँ। भले ही वे समझते हों कि सिंधी भाषा मैंने सीखी है। कभी-कभी कहते भी हैं कि कबाडे़ वाले, तुम सिंधी इतनी अच्छी बोल लेते हो कि महसूस ही नहीं होता, किसी गैर-सिंधी से बात कर रहे हैं। कुछ निकट के लोग ही जानते हैं कि सिंधी मैंने सीखी नहीं है, बल्कि सिंधी मेरी मातृभाषा है।

वातावरण देखता हूँ तो सोचता हूँ कि अपने बच्चों को ही क्यों दोष दूँ? यही हाल तो सिंध से विभाजन के बाद आए लोगों के घरों का भी है। उनसे तुलना करता हूँ तो पाता हूँ कि मेरे घर और बच्चों की स्थिति ज्यादा अच्छी है। मेरे बच्चे सिंधी जानते हैं। आपस में हिंदी में बात करते हैं, मगर घर में तो बाकी सब लोगों से सिंधी में बात करते हैं। घर के लोगों से सिंधी केे खिलाफ कभी तर्क-वितर्क नहीं करतेे हैं। जरूरत पड़ जाए तो घर से बाहर भी सिंधी में बातचीत कर लेतेे हैं। विभाजन के बाद सिंधी-परिवारों में जन्में बच्चों का हाल तो इससे भी खराब है। सिंधी लिखना तो दूर की बात है, वे सिंधी बोलना तक नहीं जानते। स्कूल में, बाजार में हिंदी या अंग्रेजी में बात करनी पड़ती है, यहाँ तक तो ठीक है किंतु घर में माँ-बाप, दादा-दादी से भी हिंदी या अंग्रेजी में बात करते हैं। टोकने, कहने, समझने की गुंजाइश इसलिए नहीं होती क्योंकि वे सिंधी जानते ही नहीं हैं। हँसी और तरस दोनों एक साथ आते हैं। जब बुजुर्ग दादा-दादी भी अपने पोते-पोतियों और नातियों-नातिनों के साथ गलत-सलत हिंदी में बात करते हैं। बच्चों को सिंधी बोलना नहीं आता, इसलिए नहीं। इसलिए क्योंकि ये भी चाहते हैं कि बच्चे हिंदी या अंग्रेजी में ही बोलें, सिंधी में नहीं। सौ-पचास साल बाद भाषा को इतिहास में जाना ही है तो मेरे बच्चे सिंधी बोलें न बोलें, क्या अंतर पड़ जाएगा? वे लोग नाम से तो आज भी सिंधी हैं, कल भी सिंधी रहेंगे। सिंधी कहलाने योग्य संस्कृतिपरक, सभ्यतापरक, व्यवहारपरक, सरकारपरक, भाषापरक सब गुण चाहे छोड दें मगर कहलाएँगे वे भी सिंधी और उनकी संतानें भी सिंधी। पहचान खत्म करने की कोशिश में वे अधकचरे भले ही बन जाएँ किंतु पहचान सचमुच खत्म कर पाएंगे, ऐसा लगता नहीं है। मुझे नहीं मालूम कि पहचान क्यों समाप्त करना चाहते हैं वे लोग अपनी? श्रेष्ठ उपलब्धियों के बावजूद वे हीनभाव से ग्रस्त क्यों हैं? इतना जरूर मालूम है कि इस प्रक्रिया में वे अपनी प्रतिष्ठा घटा रहे हैं। जन-जीवन में अपने आपको जज्ब करना एक बात है और अपनी पहचान समाप्त करने का सचेष्ट प्रयत्न दूसरी बात है। अपनी पहचान बनाए रखकर जन-जीवन में आत्मसात हो जाना एक दुर्लभ गुण है। मेरे बच्चों के सामने पहचान का संकट उतना नहीं है। भाषा को छोड़कर हम सिंधी हैं ही कहाँ? भाषा भी छूट जाए तो कितना अंतर पड़ेगा? यही कारण है कि बच्चों का आपस में हिदी में वार्तालाप मुझे अच्छा नहीं लगता फिर भी मैं इस बारे में बहुत दुराग्रहशील नहीं हूं कि वे सिंधी में बात करें।

डायरी में मीनू नाम की एक लड़की का जिक्र आया है। काका भोजामल की चौदह वर्षीया लड़की मीनू। डायरी-लेखक ने मीनू का उल्लेख करते समय उसके प्रति कैसी भावनाएँ व्यक्त की हैं? लगाव और अपनत्व का परिमाण कितना है? डायरी-लेखक और मीनू की उम्र में अंतर केवल दो-तीन वर्षों का है। सिंध में दोनों साथ खेले हैं। वीरू डायरी लेखक का समवयस्क जरूर है लेकिन साथ खेलने की बात मीनू के लिए ही कही गई है। मैं समझता हूँ कि डायरी-लेखक ने मीनू के साथ खेलने वाली बात लिखते समय वीरू के बारे में ऐसा अगर नहीं लिखा है तो इसका कारण उसकी लापरवाही नहीं है। वह जानता है कि उसे क्या लिखना है और वह क्या लिख रहा है। हो सकता है कि वीरू के साथ उसका मन न मिलता हो, इसलिए उसके साथ खेलने वाली बात भी न रही हो। मैं चाहता हूँ कि डायरी में मीनू के उल्लेख को आप गंभीरता से लें। इतना ही नहीं, उसका विश्लेषण भी करें।

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10 जून, 1950

आज एफ़ ० ए ० का परिणाम आया है। प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ हूँ। अंकों का प्रतिशत तो अंकतालिका आने के बाद ही पता लगेगा किंतु मेरे अनुमान के अनुसार 67 प्रतिशत अंक आने चाहिएं। भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र और जीव विज्ञान में 70 प्रतिशत अंक होने चाहिएं। मेडीकल कॉलेज में 42 प्रतिशत पर दाखिला मिला था पिछले साल। इस हिसाब से मेडीकल कॉलेज में प्रवेश मिलने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। बाबा चाहते हैं, मैं खूब पढूं। डॉक्टर बनूँ। पढाई में जितना पैसा खर्च होता है, वे कहते हैं कि करेंगे। खर्चे के कारण पढने या न पढ़ने वाली बात मुझे नहीं सोचनी है। 100-150 रुपए महीना जितना भी लगेगा, वे लगाएँगे। यह बाबा का बड़प्पन है। मैं जानता हूँ कि बाबा की बचत 100-150 रुपया महीना नहीं है। मेडीकल कॉलेज में पढाई का खर्च यों भी इतना नहीं आना चाहिए। फीस और कपड़ों पर पैसे खर्च होंगे। आगे चलकर कुछ उपकरण भी खरीदने पड़ेंगे। पुस्तकें कुछ खरीद लूंगा और कुछ पुस्तकालय से लेकर या पुस्तकालय में जाकर पढूंगा। एफ़ ० ए ० करते हुए भी मैंने मैट्रिक के दो ट्‌यूशन पकड़ लिए थे। पचास रुपया महीना आ जाता था। उसमें एक ही दिक्कत हुई मुझे। परीक्षाओं की तारीखें एक-दूसरे से टकरा रही थीं। सारा साल ट्‌यूशन करने के बाद यह तो कहा नहीं जा सकता कि इन दिनों मेरी भी परीक्षाएं हैं इसलिए पढाने नहीं आऊँगा। यदि यह संकट नहीं होता तो मैं आश्वस्त हूं कि अब एफ ० ए ० में जितने भी अंक मिले होंगे उससे ज्यादा ही अंक मिलते। इस बार मालूम है कि बोर्ड या विश्वविद्यालय की परीक्षाओं से मेरी परीक्षाओं की टकराहट होगी। अब कोशिश करूँगा कि एफ ० ए ० प्रीवियस के छात्रों की ट्‌यूशन मिल जाए। उनकी परीक्षाएँ विश्वविद्यालय की परीक्षाओं के बाद होती हैं, इसलिए परेशानी नहीं होगी।

वैसे मेरा अनुमान है कि मुझे छात्रवृत्ति भी मिल जानी चाहिए। बाबा की आमदनी कम है। अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण की है। योग्यता नहीं तो योग्यता एवं आवश्यकता के आधार पर तो छात्रवृत्ति मिल ही जानी चाहिए। मेडीकल कॉलेज में शायद चालीस रुपए प्रतिमाह के हिसाब से छात्रवृत्ति मिलती है। छात्रवृत्ति की रकम सामान्यतः दिसंबर-जनवरी से पहले नहीं मिल पाती। इसलिए ट्‌यूशनें तो करनी पडे़ंगी। अगले साल फीस भरने में सुविधा हो जाएगी। कुछ किताबें, उपकरण भी खरीदे जा सकते हैं। संभव लगा और छात्रवृत्ति व ट्‌यूशन के पैसों से छात्रावास का खर्चा निकला तो मैं चाहूँगा कि वहाँ कमरा ले लूं। भोजन घर पर कर लूंगा। वहाँ रहने से पढाई ठीक प्रकार से हो सकेगी। घर में एकांत में बैठकर पढाई की जा सके, इतनी जगह नहीं है। एफ ० ए ० के दौरान भी दिक्कत होती थी। बाबा को सुबह जल्दी उठकर खरीदारी के लिए मंडी जाना पड़ता है। अम्मा भी जल्दी उठकर भजन गुनगुनाते हुए घर के काम में लग जाती है। इसलिए मैं भी सुबह चार बजे उठकर घूमने चला जाता था। लौटकर नौ बजे तक पढता था। दस बजे कॉलेज पहुँचना होता था। एक घंटे में तैयार होकर कुछ खा-पीकर कॉलेज चला जाता था। दूधवाला साढे पाँच-छः बजे दूध लेकर आ जाता है। मेरे विरोध के बावजूद सुबह-शाम आधा किलो दूध की बंधी सिर्फ मेरे लिए की हुई है। रात को भी मुझे आधा किलो दूध पीना पड़ता है। अम्मा और बाबा दूध न सुबह पीते हैं और न रात को। अम्मा और बाबा का मानना है कि मैं इतना समय पढता हूँ, दिमाग लगाता हूँ, ट्‌यूशन पढाकर माथा-पच्ची करता हूँ, दूध मेरे लिए जरूरी है। दूध नहीं पीऊँगा तो दिमाग कैसे काम करेगा?

मेरी इस दलील को न कभी अम्मा ने माना और न कभी बाबा ने माना कि शरीर से काम करते हुए भी हम दिमाग से काम कर रहे होते हैं। ग्राहक फल खरीदने आया है। उसके कपड़ों, बातचीत, व्यवहार, सज-धज और जिस वाहन से आया है उसके आधार पर बाबा अनुमान लगाते हैं कि उसकी आर्थिक हैसियत कैसी है? वह मोल-भाव करेगा या नहीं? करेगा तो उसकी सीमा कितनी होगी? जो भाव उसे बताना है वह बाजार भाव होगा या उससे अधिक? अगर हमेशा वह ग्राहक फल किसी और दुकानदार से खरीदता है और आज किसी फल विशेष को खरीदने के लिए या हमेशा वाले दुकान पर अच्छे फल न मिलने के कारण बाबा के पास आया है तो उसे तोड़ने के लिए बाबा जान-बूझकर कम भाव बोलेंगे। ग्राहक को स्थायी दुकानदार ने उसको पसंद न आने वाले फलों के जो भाव बताए थे, अच्छे फलों के भाव उससे भी कम सुनकर उसकी आस्था डगमगाएगी। इसमें क्या बाबा ने दिमाग काम में नहीं लिया? गोठ का कार्यक्रम है। वहां दो मन सेब जाने हैं। अच्छे सेब चाहिए, दाम कुछ भी हों लेकिन सेब किसी भी तरह खराब नहीं चाहिएं। बाबा के पास एक मन सेब हैं, खट्‌टे-मीठे कुल्लू के सेब। बाबा ग्राहक को बैठाते हैं। चाय मंगवाते हैं। अंदर से सेब लाने की बात कहकर दूसरे दुकानदार से पाँच-सात मीठे डिलीशियन सेब ले आते हैं। एक सेब सफाई के साथ काटते हैं और कागज पर रखकर खूबसूरती के साथ ग्राहक के सामने पेश करते हैं। ग्राहक सेब खाता है। सेब मीठा है। उसे अच्छा लगता है। भाव पूछता है। बाबा भाव नहीं बताते, कहते हैं, ‘‘आपका चेहरा, आपकी पसंद खुद ही बताते हैं साहब, कि आप पारखी हैं। आप तो पता बताइए। सेब पहुँच जाएँगे।"

‘ग्राहक गद्‌गद्‌ हो जाता है, ‘‘फिर भी!"

‘‘आपसे ज्यादा भाव थोड़े ही लेंगे, साहब!"

‘‘चलिए, यह बताइए कि कितने रुपए देने हैं, समाज का काम है। आप जो रियायत कर सकें, देख लीजिएगा।"

‘‘आप पर्चा देख लीजिए। मेरा जो हक समझें, दे दीजिएगा।" बाबा काँटे में लगे कागजों की ओर बढे हैं। ‘‘अरे छोड़िए, हमें कोई पर्चा-वर्चा नहीं देखना है। ये पचास रुपए लीजिए। घंटे-भर में मेरा आदमी आकर सेब ले जाएगा। उसे बता दीजिएगा, बाकी पैसे दे देगा।'

बाबा जानते हैं कि जीवन में पहली बार साहब संबोधन सुनने वाला आदमी साहब जैसा व्यवहार करने की चेष्टा करता है। मनमाना भाव लगाकर वे अपने पास रखे एक मन खट्‌टे-मीठे कुल्लू के सेब भी एक मन मीठे डिलीशियन सेबों में मिलाकर भिजवा देते हैं। बाबा ने यह सब क्या बिना दिमाग इस्तेमाल किए कर लिया? सुबह उठने के बाद प्राथमिकता-क्रम में घर के कौन-कौन-से काम करने चाहिएं? किस तरीके से बाबा की सीमित आमदनी में घर-खर्च चल सकता है? कोयलों की जगह कोयले की चूरी, चिकनी मिट्‌टी और गोबर के लड्‌डू जलाने से ईंधन का खर्च कम किया जा सकता है, ये बातें क्या अम्मा बिना दिमाग लगाए सोच लेती है? मैं तो उलटा उनकी तरह शरीर से कोई काम नहीं लेता हूँ। पढना दिमाग के लिए अतिरिक्त काम भला कैसे हो सकता है? अम्मा और बाबा मेरे तर्क सुनकर खुश ज़रूर होते हैं मगर मेरी बात का कोई असर उनके ऊपर नहीं होता है।

मेडीकल कॉलेज में कक्षाएँ सुबह आठ बजे से शुरू हो जाती हैंं। इसलिए केवल सुबह के समय पढाई करने से काम नहीं चलेगा। दिन-भर कॉलेज में रहना होगा। शाम को हॉस्पिटल भी जाना पड़ेगा। पहले साल नहीं तो दूसरे साल जाना पड़ेगा। पढाई रात को ही करनी पडे़गी। रात को बल्ब जलाकर पढूंगा तो अम्मा-बाबा की नींद में खलल पडे़गा। बिजली का खर्च बढेगा तो मकान मालिक चिल्ल-पौं मचाएगा। इन सब समस्याओं से मुक्ति छात्रावास ही दिला सकता है। देखें, छात्रवृत्ति मिलती है या नहीं? पढाई पर कितना खर्च होता है? छात्रावास में रहने, न रहने का निर्णय तो उसी के आधार पर लेना पडे़गा।

काका भोजामल उल्हासनगर में जम नहीं पाए। कारण कई थे। लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि किराने की जो दुकान उन्होंने खोली थी उससे होने वाली आमदनी काका भोजामल के परिवार के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त नहीं थी। सुबह से लेकर देर रात तक दुकान खुली रहती थी। वीरू और मीनू की पढाई उन्होंने बंद करा दी थी। वीरू और काका भोजामल सुबह जाकर दुकान खोलते थे। उनके दोनों विवाहित लड़के नौ-साढे नौ बजे तक आते थे नाश्ता करके। काका भोजामल और वीरू का नाश्ता वे साथ ले आते थे। एक-डेढ़ बजे तक चारों दुकान पर रहते थे। ,इसके बाद वीरू और काका भोजामल घर जाते थे। भोजन करते थे। काका भोजामल थोडी देर आराम करते थे और वीरू दोनों भाइयों का भोजन लेकर तीन बजे तक दुकान वापस आ जाता था। काका भोजामल पाँच-साढे पाँच बजे तक लौटते थे। सात-साढे सात बजे वीरू दुकान छोड़ देता था। घर के लिए सब्जी, सौदा-सुलफ लाने का काम वही करता था। दुकान के लिए खरीदारी काका भोजामल करते थे। नौ बजे के आसपास काका भोजामल दुकान से उठते थे। कभी ग्यारह, कभी साढे ग्यारह और कभी-कभी बारह बजे दोनों भाई दुकान बंद करके घर आते थे। इसके बाद रात का भोजन करते थे। सोते-सोते दो बज जाते थे। परिवार के सभी पुरुष मन लगाकर हाड़-तोड़ मेहनत कर रहे थे। मगर मुनाफा फिर भी इतना नहीं हो रहा था कि पूरे परिवार का काम बखूबी चल सके। इस दुकान का काम बढा सकें, इसकी गुंजाइश नहीं थी। दूसरी दुकान चलाने के लिए उनके पास हाथ तो थे लेकिन पूँजी नहीं थी। वर्तमान दुकान के साथ दूसरी दुकान उपलब्ध नहीं थी। अन्यथा एक दुकान को दो में बदलना उनके लिए आसान हो जाता। लड़कों के साथ उन्होंने विचार-विमर्श करके बाबा को पत्र लिखा। जवाब में उन्हें बाबा ने जयपुर आने का सुझाव दिया। दुकान की कमाई से काका भोजामल के परिवार की आवश्यकताएँ चाहे पूरी न होती हों किंतु चलती दुकान को बंद करके आना उन्हें ठीक नहीं लगा। काका भोजामल ने फिर बाबा को पत्र लिखा और बाबा से सलाह माँगी। बाबा और काका भोजामल के बीच कुछ और पत्रों का भी आदान-प्रदान हुआ। अंत में काका भोजामल अकेले जयपुर आ गए। उनका परिवार उल्हासनगर में ही बना रहा।

बाबा के फुटपाथ पर ठेला लगाने के बाद उनके आसपास कुछ और ठेले खड़े होने लगे थे। पुलिसवालों को बँधा-बँधाया रुपया हर महीने मिल जाता था, इसलिए ठेलों की संख्या बढने में ज्यादा समय नहीं लगा। कुछ ठेलों पर आलू-प्याज, कुछ ठेलों पर सब्जी और कुछ ठेलों पर फल बिकते थे। फुटपाथ का वह भाग छोटी-मोटी फल और सब्जी मंडी में बदल गया। नगरपालिका ने ठेले उस जगह से हटाने चाहे तो सबने मिलकर दुकानों के लिए जमीन देने की माँग की। वार्ताएँ चलीं। सिंधी समुदाय के वोटों पर कब्जा करने के इच्छुक राजनीति करने वालों ने नेतृत्व प्रदान किया। ठेला संगठन बना। शिष्टमंडल मुख्यमंत्री से मिल आया। अंततः फैसला हुआ कि नगरपालिका किराया लेकर फुटपाथ पर ही ज़मीन देगी। ठेलेवाले उस ज़मीन पर कच्ची थड़ियाँ बनाएँगे। फल और सब्जियाँ ठेलों की जगह उन थड़ियों में बिकेंगी। काम बढाने की दृष्टि से यह प्रस्ताव बहुत आकर्षक था। सबसे पहले ठेला बाबा ने लगाया था, इसीलिए सबसे पहला जमीन का टुकड़ा भी बाबा को मिलना तय था। थड़ियों में पहली और कोने वाली थड़ी कामकाज की दृष्टि से स्पष्ट रूप से लाभदायक थी। लेकिन बाबा के सामने एक बड़ी कठिनाई थी। ठेला था तो बाबा अकेले खरीदारी कर लेते थे। ठेले का दायरा छोटा था। एक किनारे पर खड़े-खड़े सारे फलों तक पहुँचा जा सकता था। खाली होने पर वे वहीं रखे स्टूल पर बैठ भी जाते थे। किंतु लगभग एक सौ वर्ग फीट जमीन पर बनी थड़ी में रखने के लिए माल खरीदना और उसे बेचना अकेले आदमी के लिए संभव नहीं था। नौकर रखा जा सकता था। किंतु कुछ समय के लिए अनिवार्यतः थड़ी नौकर के हवाले छोड़नी पड़ती। यह बात बाबा को ठीक नहीं लगती थी। मैं पढ रहा था। पढाई में ठीक भी था। इसलिए बाबा मेरी पढाई में व्यवधान डालना नहीं चाहते थे। वरना कॉलेज के बाद मैं दुकान पर चला जाता तो उनका काम चल जाता। सुबह मंडी से माल खरीदकर आने के बाद थड़ी पर माल को जमाने के लिए एक आदमी जरूरी था। मंडी से आनेवाले माल को थड़ी पर उतरवाने के लिए भी कोई अपना आदमी अपेक्षित था। कॉलेज से पहले एक-डेढ़ घंटा देकर मैं इन कामों को भी बखूबी कर सकता था। बाबा ने मुझसे तो इस संबंध में कुछ नहीं कहा लेकिन अम्मा से उन्होंने चर्चा की। अम्मा से मुझे पता लगा तो मैंने बाबा के सामने पढाई के साथ-साथ कुछ समय थड़ी पर काम करने का प्रस्ताव रखा। उनके इनकार में इतनी दृढता थी कि मैं बहस करने का साहस नहीं जुटा पाया।

तभी काका भोजाअल का पत्र आया। बाबा ने उन्हें जयपुर इसी इरादे से बुलाया था कि उनके सामने थड़ी में भागीदारी का प्रस्ताव रखेंगे। यद्यपि काका भोजामल को इस योजना के बारे में उन्होंने कुछ नहीं लिखा, लेकिन वे मानकर चल रहे थे कि जो कुछ वे सोच रहे हैं, कार्यरूप में परिणित हो जाएगा। जब काका भोजामल जयपुर पहुँचे तो जमीन आवंटित हो चुकी थी। बाबा थड़ी बनवा चुके थे। भागीदारी के लिए उनके पास एक और प्रस्ताव आया था जिसे उन्होंने विचार करने के आश्वासन के साथ अपने पास सुरक्षित रखा था। जिस व्यक्ति ने भागीदारी के लिए बाबा से बात की वह भी अकेला ही था। उसके सामने भी ठीक वही परेशानियां थीं जो बाबा के सामने थीं। ठेले पर वह अपना काम अकेला चला लेता था लेकिन थड़ी के लिए जगह मिलने के बाद उसे भी किसी के साथ की ज़रूरत थी। उसने बाबा के सामने प्रस्ताव रखा था कि जो टुकड़ा उसको थड़ी के लिए मिला है उसे किसी को बेचकर मिलने वाला रुपया आपस में आधा-आधा बाँट लेंगे। बाबा की थड़ी में दोनों का बराबर का रुपया लगेगा। इसके बदले में उसकी शर्त यह थी कि बाबा की थड़ी और जमीन पर दोनों भागीदारों का बराबर अधिकार होगा। बाबा को ये सारी बातें स्वीकार्य थीं। किंतु वे चाहते थे कि पहले भोजामल से बात हो जाए और उसी के अनुसार निर्णय लेकर भागीदारी करें। ताजा प्रस्ताव से अपनी जरूरत से ज्यादा, काका भोजामल की मदद करने की भावना बाबा के मन में प्रबल हुई थी।

ज़मीन के आवंटन, थड़ी के निर्माण, सहयोगी की आवश्यकता और अन्य ठेलेवाले के प्रस्ताव की पृष्ठभूमि स्पष्ट करते हुए बाबा ने काका भोजामल से कहा कि वे चाहें तो बाबा के साथ भागीदारी कर सकते हैं। जमीन और थड़ी पर मालिकाना हक बाबा का रहेगा। कभी नगरपालिका इस थड़ी के बदले पक्की दुकान आवंटित करती है तो मिलने वाली दुकान पर बाबा के हक होंगे। दुकान का आवंटन बाबा के नाम से होगा। काका भोजामल अचल संपत्ति में पगड़ी या बाजार दर को ध्यान में रखते हुए हिस्सेदार नहीं होंगे। धंधे में होने वाले नफे-नुकसान में दोनों की बराबर की भागीदारी होगी। दुकान में पेटियों, खोखों, टोकरों और माल के ऊपर जो लागत है, काका भोजामल उसका आधा पैसा देंगे। काका भोजामल अगर अपने हिस्से की लागत का रुपया तुरंत देने की स्थिति में न हों तो बारह आने सैकड़ा के हिसाब से वे तब तक बाबा को ब्याज देंगे जब तक उसकी पूर्ति नहीं कर देंगे। माल की खरीदारी की जिम्मेदारी बाबा की होगी। काका भोजामल गद्‌दी पर बैठेंगे। यह कार्य-विभाजन मोटे तौर पर रहेगा। अन्यथा सभी काम दोनों भागीदार करेंगे। दोनों में से किसी को कोई शिकायत हो तो उसे मन में नहीं रखेंगे। बात करेंगे, मगर तभी जब दोनों अकेले हों। दूसरे का पक्ष समझकर, अपना पक्ष समझाकर मिल-जुलकर जिस निर्णय पर पहुँचेंगे उसका दोनों ईमानदारी से पालन करेंगे। हर महीने तीस तारीख को नफे-नुकसान का हिसाब लगाएँगे। इसके लिए रोकड़ बही लिखने की जरूरत होगी। रोकड़ बही बाबा लिखेंगे। बीच में कितनी भी बार, किसी भी समय धंधे की स्थिति को ध्यान में रखते हुए अधिकतम साढे सात सौ रुपए प्रतिमाह तक दोनों भागीदार ले सकेंगे। इसके बाद जो अतिरिक्त बचत होगी, माह के अंत में दोनों में बँट जाएगी। बाबा ने सारी स्थिति और शर्तें काका भोजामल के सामने रख दीं। उन्होंने एक दिन का समय काका भोजामल को दिया ताकि वे भागीदारी की शर्तों पर विचार कर सकें और यदि उनमें कोई परिवर्तन, परिवर्द्धन या संशोधन करना चाहें तो बता सकें। काका भोजामल को बाकी सब शतेर्ं तो ज्यों-की-त्यों मंजूर थीं लेकिन जमीन और थड़ी पर मालिकाना हक में वे हिस्सेदारी चाहते थे। बाबा ने स्पष्ट किया, ‘‘भोजामल, यह ठेला इस जगह जोड़-तोड़ करके खड़ा करने में मैं कामयाब रहा केवल इसी कारण से थड़ी लगाने के लिए ज़मीन का टुकड़ा मिला है। उस समय क्योंकि हम दोनों भागीदार नहीं थे इसलिए इस आवंटन में तुम्हारी भागीदारी न्यायसंगत नहीं लगती।"

‘‘अब तक वाली बात तो ठीक है किंतु जगह की कीमत इसलिए बढती है क्योंकि वहाँ काम होता है। भविष्य में थड़ी की पगड़ी या कीमत में वृद्धि के पीछे हम दोनों होंगे। इसलिए उसका लाभ भी हम दोनों में बँटना चाहिए। इसी तरह नई पक्की दुकान अगर मिलती है तो उसका कारण भी यही होगा कि हम मिलकर काम कर रहे हैं।"

‘‘तुम्हारी बात ठीक मालूम होती है भोजामल, लेकिन यह थड़ी ठेले के कारण मिली है और ठेला मैं चला रहा था। अब तक इसका मालिक अकेला मैं हूं। अगर तुम्हारी हिस्सेदारी तय होती है तो अब तक जो मेरा था, उसका क्या होगा?"

‘‘इसका एक तरीका हो सकता है। अगर इस थड़ी को आज की तारीख में बेचते हैं तो क्या मिलेगा?"

‘‘कुल मिलाकर लगभग छः हजार रुपए।"

‘‘अगर आज की कीमत का आधा हिस्सा तुम मुझसे ले लोे, फिर तो भविष्य के लिए थड़ी पर हम दोनों का बराबर का मालिकाना हक हो सकता है।"

‘‘ठीक कहते हो भोजामल, तुम्हारी बात मुझे मंजूर है।"

काका भोजामल हँसे, ‘‘मेरी बात तुम्हें मंजूर है लेकिन मुझसे यह भी तो पूछो कि मैं इतने रुपए एक साथ तुम्हें दे भी सकता हूँ या नहीं?"

‘‘तुम्हारी बात मुझे मंजूर है, बाकी बातें तुम जानो।" बाबा ने भी हँसते हुए जवाब दिया। .

विचार-विमर्श के बाद निश्चित हुआ कि काका भोजामल जब भी आधा पैसा देने की स्थिति में होंगे, उस समय की बाजार दर के अनुसार बाबा को रकम दे देंगे; तब तक थड़ी बाबा के नाम से चलेगी और उनका ही मालिकाना हक कायम रहेगा। अगर भागीदारी निभती है तो काका भोजामल अपनी सुविधा से जब चाहें बाबा को रुपया देकर मालिकाना हक में हिस्सेदार बन जाएँगे।

काका भोजामल अकेले आए थे। फिलहाल उनका अकेले ही रहने का विचार था। वे चाहते थे कि जब तक काम-धंधा ठीक तरह से समझ में नहीं आता, आमदनी का पता नहीं लग जाता, तब तक परिवार के शेष लोगों को न बुलाया जाए। उल्हासनगर में जैसे भी हैं, लेकिन एक दुकान है। उस दुकान से कम या ज्यादा, लेकिन आमदनी होती है। उस आमदनी से कोर कसोरकर सही, लेकिन परिवार का गुजारा हो जाता है। पूरा परिवार जयपुर बुलाने का अर्थ है, उस दुकान को समेटना। माल, फर्नीचर घाटे में बेचना पडे़गा। कुछ खोकर सब लोग यहाँ आएँगे। यहाँ भी लड़कों को अलग काम शुरू करना पड़ेगा। किसी गली, कूचे में दुकान लेकर किराने का काम किया जा सकता है। किंतु फ़ल की थड़ी पर बाबा के साथ भागीदारी से कमाई हो तो यह सारी उठा-पटक की जाए। जब तक काका भोजामल का परिवार आए, बाबा ने उनसे आग्रह किया कि वे हमारे साथ ही रहें। काका भोजामल ने भी बाबा के इस आग्रह को सरलता से मान लिया।

थड़ी बन चुकी थी। अगला दिन थड़ी के लिए एक तख्त, रात को फल रखने के लिए तीन बड़ी पेटियाँ, खोखे, टोकरियां, चमकीले कागज़ और इसी तरह की दूसरी चीजें खरीदने में लगा। बाबा और काका भोजामल ने रात भर जुटकर थड़ी में सामान व्यवस्थित किया। थड़ी को चमकीले कागज के झाड़-फानूस और झंडियों से सजाया। बैठने की जगह को खोखा लगाकर ऊँचा करके उसके ऊपर चकरी रखी। तख्त के चारों ओर खोखे लगाकर उनके ऊपर टोकरे रखे। टोकरों में चमकीले कागज बिछाकर उनमें फल रखने की तैयारी कर ली। ठेले में जो फल बचे हुए थे, उन्हें सजाया। बैठने की जगह के सामने स्टेंड वाली एक तराजू स्थापित की। ठेले पर काम में आने वाली तराजू को अतिरिक्त रूप से इस्तेमाल के लिए बाटों सहित थड़ी के अगले भाग में खोखे के ऊपर एक चादर बिछाकर रखा। सुबह नहा-धोकर बाबा मंडी गए ओर थड़ी के लिए फल खरीदकर भिजवाते गए। नौ-साढे नौ बजे तक बाबा भी थड़ी पर आ गए। पंडित जी से तय समय के अनुसार मुहूर्त हुआ। गुरुद्वारे में भोग लगाकर लाया हुआ कड़ाह प्रसाद बाँटा गया और थड़ी पर विधिवत्‌ रूप से काम शुरू हो गया। काका भोजामल अच्छी तरह जानते थे कि बाबा घर में रहने, खाने-पीने, कपडे़-लत्ते की धुलाई की एवज में उनसे कुछ नहीं लेंगे, इसलिए उन्होंने बाबा से इस विषय में कुछ नहीं कहा। नियम से घर के लिए सब्जी लाने का काम काका भोजामल ने अपने ऊपर ले लिया। प्रारंभ में बाबा दोपहर का भोजन करने के लिए घर जाते समय सब्जी खरीदने की चेष्टा करते थे। किंतु काका भोजामल सुबह ही सब्जी खरीदकर थैली अपने पास रख लेते थे। इस समय बाबा मंडी में होते थे। थड़ी सजाने, झाड़ने-फूूंँकने का काम काका भोजामल करते थे। ग्राहक सुबह अपेक्षाकृत कम होते थे। इसलिए सब्जी खरीदने में काका भोजामल को परेशानी नहीं होती थी। थड़ियों की कतार के तुरंत बाद फुटपाथ पर बोरी बिछाकर सब्जी बेचने वाली औरतें बैठ जाती थीं। औरतें स्वाभाविक रूप से थड़ी वालों का लिहाज करती थीं। आर्थिक दृष्टि से, धंधे के परिमाण की दृष्टि से थड़ी वालों की हैसियत बोरी बिछाकर सब्जी बेचने वाली औरतों के मुकाबले कई गुना ज्यादा अच्छी थी। इस बात का मनोवैज्ञानिक लाभ सभी थड़ीवालों को मिलता था। मंडी से टोकरे लाते समय कुछ मजदुरिनें फल और सब्जी चुराकर रख लेती थीं। फल तो लेने नहीं पड़ते थे किंतु इन मजदूरिनों से सब्जी सस्ती मिल जाती थी। कहीं बोरी बिछाकर बैठे, इतनी न सब्जी होती थी इनके पास और न सुविधा। टोकरे ढोना उनका मुख्य काम था; इसलिए बीच के खाली समय में घूम-घूमकर वे फल और सब्जियां बेचती थीं। अवसर मिलने पर काका भोजामल इन मजदूरिनों से भी सब्जियाँ खरीद लेते थे। क्योंकि वे लगातार थड़ी पर बने रहते थे, इसलिए इस तरह की खरीदारी करने में उन्हें कठिनाई नहीं होती थी। उनकी कोशिश रहती थी कि जितना पैसा बाबा को उनके कारण अतिरिक्त रूप से खर्च करना पड़ता है, किसी-न-किसी प्रकार से उसकी पूर्ति कर दें।

बाबा फायदे में तब रहते जब आमदनी ठेले के मुकाबले कम-से-कम दुगुनी होती। भविष्य में अधिक लाभ की अपेक्षा के साथ कम-से-कम इतनी आमदनी तो बाबा को होनी ही चाहिए जो ठेले से होती थी। काका भोजामल के लिए इस बात का कोई महत्त्व नहीं था। आमदनी जितनी भी होगी, काका भोजामल को बहुत अंतर नहीं पड़ेगा। परिवार के भरण-पोषण के लिए आवश्यक मुनाफा मिल जाए, अतिरिक्त बचत चाहे कुछ भी न हो, काका भोजामल संतुष्ट रह सकते थे। इस नाते बाबा और काका भोजामल की अपेक्षाओं में अंतर था। फिर बाबा को अपने परिवार के लिए खर्च मिलना जरूरी था। मकान का किराया उन्हें देना ही था। परिवार के सदस्यों को भोजन करना ही था। मेरे लिए दूध आना ही था। काका भोजामल के ऊपर ऐसा कोई दायित्व नहीं था। वे प्रयोग कर रहे थे। सफलता और असफलता दोनों में ही उनके पास खोने को कुछ नहीं था। सफलता चाहे जितनी भी मिले, उन्हें कुछ-न-कुछ दे जाएगी। असफलता मिलने पर वे लौटकर उल्हासनगर जा सकते हैं। उनकी कोई लागत नहीं है। लागत की आधी पूँजी पर ब्याज जरूर देते हैं, किंतु एक तो ब्याज बहुत कम है और जितना है वह भी कमाई में से देना है।

ठेले से बाबा की औसत आमदनी सात-आठ सौ रुपए प्रतिमाह थी। घर खर्च के लिए भी बाबा को इतने ही रुपयों की जरूरत पड़ती थी। यही कारण था कि ज़रूरत पड़ने पर अधिकतम साढे सात सौ रुपए प्रतिमाह उठाने की बात उन्होंने काका भोजामल के साथ तय की थी। डेढ हजार रुपए महीने की निश्चित आमदनी होगी, यह निहितार्थ स्पष्ट था। काका भोजामल को भी इससे आमदनी की निम्नतम रेखा का संकेत मिल गया था। दोनों पूरी मेहनत और लगन के साथ काम कर रहे थे। काका भोजामल के लिए यह काम नया था। कुछ दिनों में बाबा से पूछ-पूछकर, बाबा को देख-देखकर उन्होंने सारी बातें समझ ली थीं। महीना बीतते-न-बीतते काका भोजामल भी काम की बारीकियों में पूरी तरह रम गए थे। कौन सा फल कितने समय में पक जाएगा? किस फल को जल्दी पकाने के लिए क्या करना होता है? जिस फल के खराब होने या सड़ने का खतरा हो, उसे बेचने के लिए कौनसे गुर काम में लिये जा सकते हैं? टोकरों में सजाते समय कौनसे फल सबसे नीचे और कौनसे फल सबसे ऊपर रखने चाहिएं? कौन-सा कच्चा फ़ल पके हुए फल के साथ रखने मात्र से जल्दी पक जाता है? रात को रखने के लिए बनवाई गई बड़ी-बड़ी पेटियों में फल किस क्रम में रखने चाहिएं? रात को बंद करते समय कौनसा सामान कहाँ छोड़ना चाहिए? दिन-भर में बिक्री से आया पैसा किस तरीके से घर साथ ले जाना चाहिए ताकि चोर-उचक्के की नज़र आसानी से उसके ऊपर न पड़े। कौनसे ग्राहक के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? किस ग्राहक को माल उधार बेचना है और किस ग्राहक को माल उधार नहीं बेचना है, मगर किस तरह उससे पुरानी उधार वसूलने के लिए नाटक करना है? कौनसा खरीदार कौनसे सेठ का नौकर है और निश्चित प्रतिशत में उसे कमीशन देनी होती है? कौनसा व्यक्ति किसी होटल या छात्रावास के भोजनालय के लिए फल खरीदने आता है और उसकी क्या अपेक्षाएँ होती हैं? मोटे ग्राहकों से संपर्क बनाए रखने के लिए क्या करना होता है? दूसरे थड़ीवाले के ग्राहक को कैसे बिगाड़ते हैं? अपना ग्राहक दूसरा थड़ी वाला तोड़ ले तो उसे कैसे लौटाया जा सकता है? यद्यपि ये सारी बातें अनुभव और अभ्यास से संबंध रखती थीं फिर भी काका भोजामल ने इन मंत्रों को सीखने, समझने और करने की दृष्टि से कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी। पहले महीने में आमदनी दुगुनी तो नहीं हुई लेकिन दुगुनी से कुछ ही कम चौदह सौ रुपए हुई। बाबा को लगा कि भागीदारी के बावजूद उनकी आमदनी या तो पूर्ववत्‌ रहेगी या बढेगी। काम बढाने की दृष्टि से कुछ दरवाजे थे जो अकेले होने के कारण पहले बाबा खटखटाने की कोशिश नहीं करते थे। शहर में कुछ होटल, कुछ छात्रावास और कुछ संस्थाएँ ऐसी हैं, जिनमें टेंडर भरकर साल-भर फलों की सप्लाई का ठेका लेना होता है। टेंडर पास कराते समय तरकीब से काम करना पडता है, कहीं लेना-देना पड़ता है किंतु इसके बाद साल-भर यदि संबंधित खरीद के लिए जिम्मेदार व्यक्ति से तालमेल बैठाए रखा जाय तो कई प्रकार से लाभ होता है। फल तोल के हिसाब से बिकते हैं। जहाँ उनका इस्तेमाल संख्या के हिसाब से होता है वहाँ कम तोल में संख्या की पूर्ति कर दी जाती है। छोटे-छोटे नग बड़े नगों की तुलना में उसी वजन में अधिक संख्या में तुलेंगे। प्रभारी के पास हिस्सा पहुँचता रहे तो यह काम धड़ल्ले से होता रहता है। होटलों में, जहां बहुधा फलों का इस्तेमाल काटकर किया जाता है, अच्छे फलों के साथ थोड़े-बहुत दागी या ज्यादा पके या थोड़े-बहुत सड़े और खराब फल भी चल जाते हैं। कटकर, किसी खाद्य पदार्थ में मिलकर, जब फ़ल ग्राहक के सामने पहुँचते हैं तो उसे पता ही नहीं लगता कि वह कोई ऐसी-वैसी चीज खा रहा है। फ्रूट-सलाद, फ्रूट रायता, फ्रूट आइसक्रीम, फ्रूट जैली, फ्रूट कस्टर्ड जैसी चीजों में फल इस तरह घुल-मिल जाते हैं कि खाते समय फलों की गुणवत्ता का पता लग ही नहीं पाता है। फौजी छावनियों में तो गड़बड़ करने में बिल्कुल कठिनाई नहीं होती है। दोपहर के भोजन के बाद सेब की जगह नारंगी और नारंगी की जगह केला बाँटना बहुत सामान्य बात है। ठेका किसी और चीज का है, बिल ठेके के अनुसार बन रहे हैं, ऊपर के अधिकारियों के पास निर्धारित फ़ल पहुँच रहे हैं किंतु लंगर में फल बदल जाता है। ठेका सरकारी अस्पताल का हो तो महीने में पंद्रह दिन दस-बीस प्रतिशत फल और पूरा बिल भेजने से भी काम चल जाता है। बाबा जानते थे कि इस तरह की हेराफेरी करके वे अनैतिकता और भ्रष्टाचार फैलाने की दृष्टि से सक्रिय सहयोग करते हैं, सहयोग ही नहीं सहभागिता भी होती है उनकी। किंतु वे यह भी जानते थे कि इस काम को उन्होंने नहीं किया तो कोई और करेगा। होना इसी काम को है। फ़ल कम जाते रहेंगे। फ़ल खराब, सड़े-गले और घटिया जाते रहेंगे। एक फ़ल के नाम पर दूसरा फल भेजा जाता रहेगा। अंतर इतना ही होगा कि उनकी जगह इस काम को दूसरा कर रहा होगा। जब गलत काम होना ही है तो यह वहम पालने से क्या फायदा कि कम-से-कम मैं तो गलत काम नहीं करता हूँ।

मैं जानता हूँ कि भ्रष्ट और अनैतिक रास्तों का अंत कहीं नहीं होता। इन रास्तों पर जितना आगे जाएँगे, मंजिल या अंतिम छोर उतना ही आगे खिसकता जाएगा। यही कारण है कि चोरी-छिपे परदे के पीछे रहकर अत्यंत सावधानी के साथ भ्रष्टाचार करने या रिश्वत लेनेवाले लोगों के इस रास्ते पर सफर की शुरुआत भले ही इस तरह होती हो, धीरे-धीरे वे खुले में आने लगते हैं। किसी मातहत के माध्यम से रिश्वत लेने वाला अफसर सीधी सौदेबाजी करने लगता है। मेज के नीचे से रिश्वत लेनेवाला लिपिक मेज के ऊपर से रिश्वत लेने लगता है। और-तो-और, लोग चैक से रिश्वत लेने में भी परहेज नहीं करते। छठे-छमाही कोई एक व्यक्ति दस-बीस रुपए की रिश्वत लेते पकड़ा जाता है, मामला संचार माध्यमों और समाचार-पत्रों में उछलता है तो रिश्वत लेनेवाले कुछ दिनों के लिए सतर्क हो जाते हैं। अन्यथा लेन-देन का व्यवहार बदस्तूर चलता रहता है। बाबा ने भी जिस दिन थानेदार को डाली देकर और पुलिसवाले का महीना बाँधकर इस क्षेत्र में पहला कदम रखा था, मैं उसी दिन समझ गया था कि शुरुआत भले ही विभाजन से जुड़े संत्रास से हुई हो, मगर वे इस रास्ते पर क्रमशः बढते जाएँगे, रुकेंगे नहीं। फुटपाथ पर थड़ियों के लिए ज़मीन का आवंटन उन्होंने इसी तरीके से कराया था। इस काम में मदद के लिए वोट का लालच तो था ही किंतु इसी अमोघ अस्त्र का प्रयोग करके राजनीतिबाजों को तैयार किया था उन्होंने। वे टेंडर भरेंगे। उनका ही टेंडर स्वीकार किया जाएगा। ठेका उनको ही मिलेगा, वे हेरा-फेरी करके रुपया बनाएँगे। अगली बार हो सकता है, उनकी टक्कर में खड़ा होकर टेंडर भरने और उसे पास कराने का साहस कोई कर ही न सके। सभी स्थानों पर चाहे उनका जादू न चले किंतु वे ही कहाँ चाहेंगे कि उनके टेंडर हर जगह स्वीकार कर लिये जाएँ? सब स्थानों पर तो वे फल पहुँचा भी नहीं सकेंगे।

बाबा ने टेंडर के माध्यम से ठेका देनेवाली संस्थाओं से संपर्क करना शुरू कर दिया। संबंधित व्यक्ति के बारे में जानकारी लेकर वे संस्थाओं में जाते। मंडी से लौटने के बाद दो-तीन घंटे इधर-उधर जाने से ग्राहकी पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता था। टेंडर भरवाने का हर संस्थान का अलग समय होता है। उस समय की जानकारी लेते, प्रभारी से संकेतात्मक या स्पष्ट भाषा में उसके हित-पोषण की बात करते और धीरे-धीरे उससे संबंध विकसित करते। एक पब्लिक स्कूल के लड़कियों के छात्रावास में फलों का ठेका उन्हें मिल भी गया है। जिस योजनाबद्ध तरीके से वे ठेके प्राप्त करने के प्रयास में लगे हैं, उसे देखते हुए दावे के साथ कहा जा सकता है कि कुछ और ठेके भी उन्हें मिल जाएँगे। ठेके मिलने का अर्थ है उनकी आमदनी में वृद्धि, और यही बाबा चाहते हैं।

अपनी हर एक गतिविधि और योजना के बारे में बाबा काका भोजामल से विचार-विमर्श जरूर करते हैं। इस तरह बाबा की योजना या कार्य-पद्धति में कोई कमी होती है तो उसमें परिष्कार हो जाता है। काका भोजामल तो कभी सिद्धांतों के लिए लड़े़ और अड़े़ ही नहीं हैं। हालाँकि बाबा ने कभी इस तरह के काम नहीं किए, किंतु कुशाग्रबुद्धि होने के कारण नस को जल्दी पकड़ लेते हैं। फिर सिंध में आदर्शवादी होने के कारण काका भोजामल बाबा की जाल बुनने की निपुणता को लेकर संदेहग्रस्त रहते हैं। विचार-विमर्श के बाद काका भोजामल आश्वस्त हो जाते हैं। बाबा की अनुपस्थिति में कोई ठेके से संबंधित ग्राहक या उसका प्रतिनिधि थड़ी पर आता है तो विस्तृत बिंदुवार जानकारी के अभाव में काका भोजामल ऊक-चूक न हो जाएँ, विचार-विमर्श के बाद इसकी संभावनाएँ भी निरस्त हो जाती हैं। एक बात और भी है। इस पर शायद काका भोजामल का ध्यान कभी न गया हो, मगर बाबा के दिमाग में यह बात जरूर रही होगी विचार-विमर्श करते समय। आए दिन बाबा तीन-चार घंटे थड़ी पर नहीं होते। संपर्क विकसित करने की प्रक्रिया में चाय आदि पर जो खर्च वे करते हैं, उसे थड़ी देती है। कभी काका भोजामल के मन में यह गलतफहमी भी तो पैदा हो सकती है कि बाबा पता नहीं कहां चले जाते हैं? या कि बाबा जो पैसा खर्च के नाम पर थड़ी से लेते हैं क्या सचमुच उतना खर्च होता है? विचार-विमर्श के बाद इस प्रकार की संभावनाएँ निरस्त चाहे न हो जाती हों किंतु नगण्य तो हो ही जाती हैं। संबंधित व्यक्ति स्वयं यदि थड़ी पर आ जाता है तो बाबा उसे काका भोजामल से इस तरह मिलाते हैं जैसे उन दोनों में कोई अंतर न हो।

बाबा की संपर्क विकसित करने के लिए की जाने वाली गतिविधियों में इसलिए काका भोजामल पूरी तरह शामिल होते हैं। हर समय सामने न होकर भी हर समय, हर जगह परछाई की तरह बाबा के साथ महसूस करते हैं।

दूसरे महीने आमदनी और बढी। ठेके मिलने के बाद थड़ी से होनेवाली कमाई में कई गुना वृद्धि होने की आशा थी। बाबा संतुष्ट थे। उन्हें लगता था कि भागीदारी करके उन्होंने सही कदम उठाया है। यद्यपि काका भोजामल से किसी भी स्तर पर बाबा के कभी आर्थिक संबंध नहीं रहे, किंतु उनसे भागीदारी करने के बाद वे महसूस करते थे कि काका भोजामल से बेहतर भागीदार का मिलना शायद संभव नहीं है। काका भोजामल ने थड़ी से प्रतिमाह सौ रुपए लिये थे। बाकी मुनाफे को उन्होंने थड़ी आदि पर बाबा द्वारा की हुई लागत के आधे हिस्से के रूप में समायोजित किया था। इससे एक तरफ उनके ऊपर ब्याज का बोझ, थोड़ा ही सही लेकिन कम हुआ था और दूसरी तरफ बाबा की दृष्टि में ईमानदार व खरे आदमी के रूप में उन्होंने अपनी साख जमा ली थी। लागत का हिस्सा देने से यह भी स्पष्ट था कि काका भोजामल को सब कुछ ठीक लग रहा है। पैसा भले ही इसी काम से कमाया हो लेकिन उसे फंसाकर वे इस धंधे में बने रहने के अपने इरादों की अनकही घोषणा कर रहे थे।

तीसरे महीने बाबा की सहमति से काका भोजामल उल्हासनगर गए। वे तय करके गए थे कि सारे परिवार को जयपुर ले आएँगे। किराए का मकान लेकर सारा परिवार रहेगा। उल्हासनगर वाली दुकान धीरे-धीरे समेटना शुरू करेंगे। माल बेचेंगे ज्यादा, खरीदेंगे कम। दुकान और उसका फर्नीचर देने की दृष्टि से किसी खरीदार की तलाश चलती रहेगी। जब तक दुकान सिमटे, दोनों विवाहित लड़के, उनकी पत्नियाँ, बच्चे और वीरू उल्हासनगर में ही रहेंगे। दो महीनों तक उन लोगों ने अपने बूते पर दुकान चलाई है तो अब उसे समेट भी अपने बूते पर लेंगे। काका भोजामल काकी और मीनू को जयपुर साथ ले आएँगे। दोनों स्थानों पर परिवार जैसी स्थितियाँ होंगी। लडकों को किसी तरह की तकलीफ नहीं होगी। खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने की चिंता उन्हें नहीं करनी पड़ेगी। काका भोजामल भी परिवार में रह लेंगे। वैसे अम्मा ने उन्हें कभी कोई परेशानी नहीं होने दी है, फिर भी परिवार के साथ उठते-बैठते आदमी जितना उन्मुक्त अनुभव करता है, उस पर तो पाबंदी लगी हुई थी ही। खाना-पीना, आना-जाना, तीज-त्योहार अपने परिवार के साथ ही आनंद देते हैं। जाने से पहले किराए का मकान उन्होंने इसलिए तय नहीं किया क्योंकि वे चाहते थे कि इतना महत्त्वपूर्ण निर्णय सबकी सहमति से किया जाए।

आठ दिन बाद काका भोजामल, काकी और मीनू जयपुर आ गए। अपने साथ गृहस्थी चलाने के लिए कम-से-कम जो सामान लाया जा सकता है, वे लेकर आए हैं। दो बिस्तर, पहनने के कपड़े, बहुत कम बरतन। अम्मा ने घूम-घूमकर उनके लिए मकान तलाश करना शुरू किया। काका भोजामल चाहते थे कि जब तक उल्हासनगर से सब लोग आएँ, बड़ा मकान न लिया जाए। बड़े मकान का अधिक किराया न जाने कितने समय तक देना पडे़गा। अम्मा उनके लिए इतना ही बड़ा मकान तलाश कर रही थी जितना हमारे पास था। डेढ कमरा, जिसमें रसोईघर और स्नानघर शामिल थे। काका भोजामल, काकी और अम्मा तीनों की यह भी इच्छा थी कि उनका मकान हमारे मकान के आसपास हो।

सिंधी परिवार सामान्यतः बड़े-बड़े थे। संयुक्त परिवार होने के कारण स्वाभाविक रूप से सदस्यों की संख्या अधिक होती थी। बड़े मकान ले सकें, आर्थिक दृष्टि से ऐसी स्थिति नहीं थी। दो-एक कमरों में आठ-दस सदस्यों के परिवार का निवास सामान्य बात थी। शोर-शराबा ज्यादा होता था। गंदगी ज्यादा फैलती थी। लोगों को लगता था कि सिंधी समुदाय जोर-जोर से बोलता है। न स्वयं साफ-सुथरा रहता है और न अपने मकान की सफाई की चिंता करता है। एक तरफ़ मेहनती व्यक्ति की छवि, दूसरी तरफ असभ्य किस्म के इनसान की छवि। यद्यपि रहने के लिए पर्याप्त स्थान और सुविधाएँ दी जातीं तो सिंधी परिवार से भी इस तरह की शिकायत किसी को नहीं होती, किंतु परिस्थितियों के वशीभूत विपरीत छवि को पुख्ता करने के लिए सिंधी समुदाय विवश था। इस छवि के कारण काका भोजामल को भी मकान मिलने में कठिनाई हो रही थी। आखिर अम्मा ने किसी तरह उनके लिए एक कमरे की व्यवस्था कर ली। कमरा हमारे घर के बिल्कुल निकट तो नहीं था, लेकिन ज्यादा दूर भी नहीं था। पांच दिन लगातार प्रयत्न करने के बाद यह कमरा मिला था।

जीवन में यह पहला अवसर था जब मुझे मीनू के साथ एक छत के नीचे रहने का मौका मिला। मकान में जगह जितनी थी, उसी में गुजारा करना था। रात को मेरी चारपाई रसोईघर में लगती थी। बाबा और काका भोजामल एक-एक चारपाई पर सोते थे। काकी, अम्मा और मीनू दोनों चारपाइयों के बीच में बिस्तर लगा लेती थीं। जब काका भोजामल अकेले हमारे साथ रहते थे तो अम्मा चारपाई पर रसोईघर में सोती थीं और मैं दोनों चारपाइयों के बीच जमीन पर बिस्तर लगाकर सोता था। पढना क्योंकि सुबह जल्दी उठकर होता था और बाबा व काका भोजामल अँधेरे मुँह क्रमशः मंडी और थड़ी के लिए निकल जाते थे, इसलिए मेरे कार्यक्रम में काका भोजामल के कारण कोई व्यवधान नहीं पड़ा। काकी और मीनू के आने के बाद जरूर मुझे सुबह कठिनाई हुई थी। मैं रसोईघर में सोता था। रसोईघर इतना ही बड़ा था कि किसी तरह उसमें चारपाई आ जाए। अम्मा के उठने के बाद चारपाई खड़ी करनी आवश्यक थी। मैं घूमकर लौटता तो काकी उठी हुई मिलती थीं। बाबा और काका भोजामल काम पर जा चुके होते थे। लेकिन मीनू जमीन पर सोई रहती थी। मीनू हालांकि चादर ओढकर सोती थी किंतु उसकी उपस्थिति का अहसास मुझे एकाग्रचित्त होकर पढने नहीं देता था। किताब सामने होती थी किंतु मन भटकता रहता था। यों यह मीनू सिंध वाली मीनू अगर नहीं थी तो उल्हासनगर वाली मीनू भी नहीं थी। अब वह केवल मुसकरा-भर नहीं देती थी, ठहाका मारकर हँसती थी। हमेशा गंभीर नहीं बनी रहती थी, हँस-बोल लेती थी। सिंध, उल्हासनगर और जयपुर में जो परिवर्तन मैंने मीनू में देखे, मैंने उससे उनका कारण जानना चाहा था। उल्हासनगर में एकांत न मिलने के कारण जो मैं उससे पूछना चाहता था, वह प्रश्न मैंने अब पूछा। मगर वह मुसकराकर टाल गई।,

***

(6)

3 अक्टूबर, 1950

तीन दिन पहले चीफ़ प्रॉक्टर ने मुझे अपने कमरे में बुलाया। प्रवेश करते ही आक्रामक तरीके से उन्होंने मुझ पर सवाल दाग दिया, ‘‘आखिर तुम चाहते क्या हो?"

‘‘कुछ नहीं, सर।"

‘‘फिर यह हंगामा क्यों मचाया हुआ है तीन महीनों से?"

‘‘मैंने तो ऐसा कुछ नहीं किया है, सर।"

‘‘तो किसने किया है?"

‘‘उन लोगों ने जो केवल इसलिए नाजायज हरकतें करने का अधिकार चाहते हैं क्योंकि मेडीकल कॉलेज में उनका दाखिला हमसे एक साल पहले हुआ है।"

‘‘व्हाट डू मू मीन बाइ नाजायज़ हरकतें?"

‘‘रैगिंग नाजायज हरकत नहीं है तो और क्या है?"

‘‘रैगिंग नाजायज हरकत नहीं है। नए लड़के-लड़कियों को मेडीकल कॉलेज के तौर-तरीकों से वाकिफ कराने का नाम रैगिंग है।"

‘‘आइ एम सॉरी, सर। मैं आपसे सहमत नहीं हूँ।" मैं निडर भाव से हलका-हलका मुसकराया।

‘‘देखो, रैगिंग के जरिए हँसी-मजाक करते हुए वरिष्ठ छात्र अपने कनिष्ठ छात्रों से परिचय करते हैं। इसलिए इसका बुरा नहीं मानना चाहिए। फिर अगले साल तुम भी तो कनिष्ठ छात्रों की रैगिंग करोगे।" मेरी निडरता ने चीफ प्रॉक्टर के आक्रामक लहजे को समझाने वाले लहजे में बदल दिया।

आधे घंटे तक वे मुझे दलीलें देते रहे और मैं विनम्रतापूर्वक उनकी दलीलें काटता रहा। अंत में वे उकता गए, ‘‘सब बातें छोडा़े। तुम मुझे सीधा बताओ कि क्या चाहते हो?"

‘‘मेरे जवाब पर तटस्थ भाव से विचार करें तो बताऊँ सर, कि.......।" कहते-कहते मैं रुक गया। कमरे में मुझसे वरिष्ठ, रैगिंग के कट्‌टर हिमायती, मुझे जानी दुश्मन समझने वाले एक छात्र ने प्रवेश किया था।

चीफ प्रॉक्टर ने वरिष्ठ छात्र को देखा भर और मुझसे पूछा, ‘‘रुक क्यों गए?"

‘‘जो कुछ मैं कहूँगा, उससे बॉस नाराज हो जाएँगे।" मैं मुसकराया और वरिष्ठ छात्र की आँखों में देखने लगा। उसकी आँखें मेरी बात सुनकर बहकने लगी थीं। किंतु मैं चीफ प्रॉक्टर के कमरे में था, इसलिए वह खामोश रहा।

‘‘सर, अभी बॉस कहेंगे कि उन्हें देखकर मैं खड़ा क्यों नहीं हुआ? इन्होंने और इनके साथियों ने मुझे सिखाया है कि वरिष्ठ छात्र की उपस्थिति में कनिष्ठ छात्र को बैठना नहीं चाहिए। लेकिन मेरा सीखा हुआ शिष्टाचार कहता है कि मैं आपके आदेश से, आपके सामने बैठा हूँ। इसलिए खड़ा होकर मैं आपकी अवज्ञा करूँगा।" मेरे स्वर में व्यंग्य था, जिसे सुनकर वरिष्ठ. छात्र के चेहरे पर तिलमिलाहट और चीफ़ प्रॉक्टर के होंठों पर मुसकराहट उभरी।

‘‘यंग मैन, तुम बहुत हिम्मत वाले हो। अपने वरिष्ठ छात्र पर कस-कसकर व्यंग्य के तीर चला रहे हो और तुम्हें डर नहीं लगता। मगर मैं तुम्हें बता दूँ कि जिस तरह तुम बोल रहे हो, वह भी शिष्टाचार नहीं है।"

‘‘आइ रिग्रेट, सर।"

चीफ प्रॉक्टर ने वरिष्ठ छात्र की ओर देखा, उसे बैठने के लिए इशारा किया और मुझे कहा, ‘‘तुम क्या कह रहे थे? कौन-सी बात पर मैं तटस्थ भाव से विचार करूंं?"

मैंने खामोश रहकर फिर वरिष्ठ छात्र की ओर देखा। ‘‘इसे मैंने ही बुलाया है। जब तक तुम अपनी बात पूरी नहीं करोगे, यह जाएगा नहीं।"

‘‘मैं चाहता हूँ कि वरिष्ठ और कनिष्ठ छात्र आमने-सामने बैठें। कनिष्ठ छात्र रैगिंग के बारे में अपनी बात कहें और वरिष्ठ छात्र अपनी। यह सारी बात आपकी उपस्थिति में होगी। आप जो तय करेंगे, वही हम मान लेंगे।"

‘‘इससे क्या हो जाएगा?"

‘‘यह फैसला हो जाएगा कि रैगिंग का स्वरूप कैसा होना चाहिए?"

‘‘रैगिंग परिचय करने के लिए, सलीका सिखाने के लिए होती है। तुम क्या स्वरूप तय करना चाहते हो?"

‘‘सर, ठीक यही स्वरूप जो आप कहते हैं। मगर इनसे पूछिए कि रैगिंग क्या यहीं तक सीमित है?"

‘‘हां, यहीं तक सीमित है।" वरिष्ठ छात्र ने कहा।

‘‘माफ करिए, आप सरासर झूठ बोल रहे हैं।"

‘‘नए लड़कों का अक्खड़पन निकालना भी सलीका सिखाने का एक हिस्सा होता है।" वरिष्ठ छात्र किसी तरह अपने गुस्से को रोके हुए था।

‘‘फिलहाल तो आप मुझे सलीका नहीं, झूठ बोलना सिखा रहे हैं।"

‘‘इनफ़ इज इनफ, सर। मैं जाना चाहता हूँ।" वरिष्ठ छात्र अपने गुस्से को काबू में नहीं रख पाया और खड़ा हो गया। चीफ प्रॉक्टर ने बहुत जोर दिया लेकिन वह नहीं रुका। जाते-जाते जिस नजर से उसने मेरी ओर देखा, ्‌उसमें चुनौती थी।

उसके जाने के बाद चीफ प्रॉक्टर ने मुझे फिर समझाने की कोशिश की। वे वही बातें दोहरा रहे थे, जिनको मैं काटता रहा था। इसलिए इस बार खामोशी से उनके उपदेश को मैं सुनता रहा। मेरी खामोशी से उनको अहसास हुआ कि उनकी बातों का मेरे ऊपर असर बिलकुल नहीं हो रहा है। उन्होंने हथियार डाल दिए, ‘‘ठीक है, जो आपको सही लगे, करिए।"

वे खडे़ हो गए तो मैं भी उठकर उनके कमरे से बाहर आ गया। हमेशा की तरह मेरे आठ-दस सहपाठी बाहर खड़े थे। हम लोग एक-दूसरे के कारण सुरक्षित महसूस करते थे। हाल-चाल उनको विस्तार से बताए। अंतिम बात सुनकर एक सहपाठी ने कहा, ‘‘किसी बडे़ धमाके के लिए तैयार रहो। वे लोग चुप नहीं बैठेंगे।"

पहली बार जब वरिष्ठ छात्र कक्षा में से निकलते ही हम सबको रैगिंग के लिए ले गए थे तो मैं मानसिक रूप से तैयार था। गाना गाने और अलग-अलग आवाजों में संवाद बोलने तक तो ठीक था, लेकिन मेरा माथा तब ठनका, जब मुझे एक साँस में बीस गालियाँ देने के लिए कहा गया। मैं पहले थोडा हिचकिचाया, इसके बाद साफ मना कर दिया कि गालियाँ मैं नहीं दूँगा। झन्नाटेदार चाँटा। दस-बीस गालियाँ। ‘‘जा, गाड़ी से जो औरत अभी उतरी है, उसे गाली देकर आ।"

मैं सन्न रह गया। रैगिंग के नाम पर इतने पतन की मैंने कल्पना भी नहीं की थी। मैंने फिर मना कर दिया। इसके बाद बाकी सब लड़कों को तो छोड़ दिया गया किंतु मुझे वे लोग छात्रावास में ले गए। नंगा करके बिजली के झटके लगाए। हर तरह की शारीरिक यातनाएँ दीं। एक प्रश्न वे लगातार पूछते रहे, ‘‘बोल, सीनियर्स की बात मानेगा या नहीं?"

मेरे सामने स्वतंत्रता सेनानियों को जेलों में अंग्रेजों द्वारा दी गई यातनाओं के चित्र घूमते रहे। अंग्रेजों ने तो अपनी सत्ता बनाए रखने के लिए स्वतंत्रता सेनानियों को यातनाएँ दी थीं, ये लोग क्यों कर रहे हैं ऐसा? झूठा अहम्‌, झूठा दंभ, तर्कहीन जिद कि हमारी हर बात नए छात्रों को माननी पड़ेगी। सार्थकता पर बहस की जाए तो ऐसे कृत्यों के पक्ष में इनके पास एक भी दलील नहीं होगी। फिर भी क्योंकि नए छात्र संगठित नहीं होते, नए छात्र नए वातावरण से दहशतजदा होते हैं, नए छात्रों ने रैगिंग की वीभत्सताओं के किस्से सुन-सुनकर स्वयं को हर स्थिति के लिए तैयार किया हुआ होता है, इसलिए वरिष्ठ छात्र ऐसे तर्कहीन कुकृत्य करने पर आमादा हो जाते हैं। उनके प्रश्न के उत्तर में हर बार मैं दोहराता रहा, ‘‘गलत बात नहीं मानूंगा।"

मुझे हॉकियों से पीटा गया। मेरे नंगे बदन के हर हिस्से पर बैठकर कूद-फाँद की गई। जब मैं बेहोश हो गया तो कपड़े पहनाकर मुझे छात्रावास के बाहर फेंक दिया गया। पता नहीं कितने घंटों बाद मुझे होश आया। पोर-पोर में दर्द था। नील उभर आए थे। बदन सूज गया था। किसी तरह मुख्य मार्ग तक आया। राहगीरों की मदद से मेडीकल इमरजैंसी में पहुँचा। ड्‌यूटी पर उपस्थित डॉक्टर ने समझा, लड़ाई-झगड़े में चोट आई है। उसने एम ० एल ० सी ० बनाने की बात कही। मैंने बताया कि मैं मेडीकल कॉलेज में इस वर्ष प्रवेश पाने वाला नया छात्र हूँ। मेरी यह स्थिति रैगिंग के चवकर में बनी है। आप एम ० एल ० सी ० बना लें तो मुझे खुशी होगी। टिटनेस का इंजेक्शन लगाकर, टिंचर के फाहों से कटी-फटी, नील पड़ी जगह पर पट्‌टी कर दी गई। अस्पताल से कुछ दवाएँ देकर, उन्हें लेने का तरीका बताकर बिना रजिस्टर में प्रविष्टि किए मुझे रिक्शा में बैठाकर घर भेज दिया गया। अम्मा, बाबा ने देखा तो उनके मुँह से बोल नहीं निकले। अम्मा तो रोने ही लगी।

रैगिंग के दौरान हुई दुर्गति की खबर कॉलेज में और कॉलेज के बाहर आग की तरह फैल गई। मैं कोई बारह दिन बिस्तर पर पड़ा रहा। कंपाउंडर घर आकर मरहम-पट्‌टी कर जाता था। मेडीकल कॉलेज के अनेक वरिष्ठ छात्र मुझे देखने आए। नए छात्र-छात्राओं में से तो शायद ही कोई बचा होगा जो हाल-चाल पूछने मेरे घर नहीं आया हो। मेरी आर्थिक स्थिति और मेरा हौसला देखकर सब लोग दंग थे। पैसे और रसूखात वाले बड़े घरों के बेटे तो अपने प्रभावशाली पिताओं के बूते पर हौसला दिखा देते हैं, मगर निर्धन परिवार का लड़का इस तरह सिद्धांत की लड़ाई में अपने आपको संपूर्ण झोंक दे, यह बात सबको आश्चर्यचकित करती थी। फिर जो लोग आते थे, हाल-चाल पूछते थे उन्हें स्पष्ट आभास होता था कि मैं पिटा जरूर हूँ, जख्मी ज़रूर हूँ, किंतु टूटा नहीं हूँ। वरिष्ठ छात्रों की तर्कहीन कुत्साओं के खिलाफ़ लड़ने के लिए मैं कृत संकल्प हूँ। घर पर ही लगभग बीस नए छात्र मेरे साथ मरने-मारने का संकल्प व्यक्त करने लगे। हम लोगों ने निश्चय किया कि कोई भी नया छात्र रैगिंग नहीं देगा। वरिष्ठ छात्रों ने रैगिंग करने की चेष्टा की तो हम लोग उन्हें मारेंगे। हर एक वरिष्ठ छात्र की रैगिंग में रुचि नहीं होती है। जिनकी रुचि होती है उनमें से भी अधिकतर केवल मजा लेने के लिए रैगिंग करते हैं। रैगिंग के कट्‌टर समर्थकों और कठोरता के साथ रैगिंग लेने वालों की संख्या नगण्य होती है।

घर पर ही योजना बनाकर नए छात्रों को हमने दस-दस के समूहों में बाँटा। इनमें कम-से-कम एक लड़का ऐसा था जो संपूर्ण संकल्प के साथ रैगिंग की खिलाफत करने के लिए प्रतिबद्ध था। आवासों की स्थिति के अनुसार कॉलेज से काफी दूर किसी बिंदु विशेष पर ये छात्र आपस में मिलते और फिर समूह में एक साथ कॉलेज आते। मेरे साथ रहने के लिए सबसे अधिक जुझारू लड़कों का समूह बना। यह समूह जब भी जरूरत महसूस हो, दूसरों की मदद के लिए तैयार रहेगा। कक्षा में आना-जाना, घूमना-फिरना, उठना-बैठना सब कुछ समूह में करने की बात तय की गई।

हमारे विश्लेषण के अनुसार योजना की खबर फैलते ही गिने-चुने वरिष्ठ छात्रों को छोड़कर सभी छात्रों ने रैगिंग से किनारा कर लिया। किंतु कुछ अधिक वरिष्ठ छात्रों ने रैगिंग के कट्‌टर समर्थक छात्रों का साथ दिया। कार्यक्रम निश्चित करके लगभग पचास वरिष्ठ और अधिक वरिष्ठ छात्रों ने कक्षा से बाहर निकलते ही लड़कियों को छोड़कर हम लोगों को धेरे में ले लिया। एक प्रकार से हांकते हुए जब वे हमें पोर्च में लाए तो मैंने आवाज लगाकर सबको वहीं खड़ा रहने के लिए कहा। हम बीस छात्रों का दल घेरे में से निकलकर एक तरफ खड़ा हो गया। किंकर्तव्य विमूढ़ से वरिष्ठ छात्र एकाएक समझ नहीं पाए कि यह क्या हो रहा है? मैं वहीं से चिल्लाया, ‘‘हम लोग आपकी इज्जत करते हैं। अगर आप सीमाओं का उल्लंघन करेंगे तो हमें भी सीमाएँ तोड़नी पड़ेंगी।"

अचानक एक वरिष्ठ छात्र आगे बढा। मेरे जबड़े पर घूंसा जड़ते हुए उसने गाली देकर कहा, ‘‘लगता है, पिटने का अरमान अभी पूरा नहीं हुआ है।"

तभी मेरे इर्द-गिर्द खड़े बीस छात्रों के समूह ने उस वरिष्ठ छात्र की लात - घूंसों से पिटाई करनी शुरू कर दी। उसे बचाने के लिए आगे बढे वरिष्ठ छात्रों की भी धुनाई होने लगी। नए छात्रों में से अधिकांश भाग गए। फिर भी जो सक्रिय रूप से मार-पीट कर रहे थे, ऐसे छात्रों की संख्या पर्याप्त थी। थोड़ी देर में मैदान हमारे हाथ में था। इसके बाद तो रैगिंग करने वालों की योजनाबद्ध रूप में और यदि उस समय नहीं तो बाद में घात लगाकर पिटाई करने की घटनाएँ आए दिन होने लगीं। नतीजा यह हुआ कि अगस्त के बाद रैगिंग आदि का झंझट छोड़कर पढाई की तरफ ध्यान देने की परंपरा इस बार टूट गई। जब सितंबर भी निकल गया और वारदातों में कोई कमी नहीं आई तो चीफ प्रॉक्टर को समझौता कराने की कोशिश करनी पड़ी।

नए छात्रों में से एक छात्र शहर के एस ० पी ० का बेटा था। उस लड़के को साथ लेकर हम लोग एस ० पी ० से मिले। अपना पक्ष उनके सामने रखा। उन्होंने अपने स्तर पर प्रिंसिपल से बात की। यह भी एक कारण रहा होगा जिससे चीफ प्रॉक्टर को दोनों पक्षों को बुलाकर बातचीत करनी पड़ी। कुछ वरिष्ठ छात्र नए छात्रों के सामने झुकने को तैयार नहीं थे। हम लोग उस सोच के खिलाफ हर तरीके से लड़ने को संनद्ध थे, जिसने यातना को रैगिंग का पर्याय बना दिया है। रैगिंग होगी तो रैगिंग के वास्तविक उद्‌देश्यों को पूरा करेगी। अन्यथा रैगिंग नहीं होगी। मेडीकल कॉलेज में पढ़ने वाले छात्र रैगिंग के नाम पर अपनी दूषित मनोग्रंथियों की गंदगी नए छात्रों के ऊपर फेंकें, यह हमें बरदाश्त नहीं था। वर्षों से रैगिंग लेने और देने का सिलसिला मेडीकल कॉलेज में चल रहा था, इसलिए वरिष्ठ छात्र झुकने को तैयार नहीं थे।

चीफ प्रॉक्टर के कमरे से वरिष्ठ छात्र जिस तरह बाहर निकला था, उसकी आँखों में जो चुनौती थी, उसके कारण किसी बड़ी घटना की आशंका निर्मूल नहीं थी। हम लोगों ने एक-दूसरे के बचाव की व्यूह-रचना बहुत कुशलता के साथ बनाई थी। उस व्यूह-रचना के कारण वरिष्ठ छात्र हमारा कोई नुकसान कर सकें, मार-पीट कर सकें, परेशान कर सकें, अवांछित कुछ कर सकें इसकी संभावनाएँ बहुत कम थीं। फिर भी सतर्क रहना जरूरी था। चीफ़ प्रॉक्टर के कमरे के बाहर खड़े हम लोग विचार-विमर्श कर ही रहे थे कि उनका चपरासी मुझे बुलाने आ गया। चीफ प्रॉक्टर ने ढूंढ़कर बुला लाने के लिए कहा होगा। वहीं खड़ा देखकर मुझे ढूँढ़ने की परेशानी से बच गया बेचारा।

मैं गया तो चीफ प्रॉक्टर ने कहा, ‘‘कल चार बजे मेडीकल कॉलेज के कुछ खास-खास लड़कों की मीटिंग मेरे कमरे में होगी। नए छात्रों की तरफ से तुम्हें उस मीटिग में आना है।"

‘‘मैं जान सकता हूँ सर, कि बातचीत किस विषय पर होगी?"

‘‘आजकल बातचीत जिस विषय पर हो रही है उसी पर बात करेंगे।" चीफ प्रॉक्टर मुसकराए।

‘‘थैंक्यू सर।" कहकर मैं कमरे से बाहर निकला। अपने साथियों को मैंने यह सूचना दी तो उन्हें आश्चर्य हुआ।

‘‘अभी तो चीफ प्रॉक्टर के कमरे में झड़प हुई है। मुश्किल से दस मिनट हुए होंगे। इतनी-सी देर में कल मीटिग बुलाने का फैसला भी हो गया।"

‘‘इसमें अजीब बात कौनसी हुई? चीफ प्रॉक्टर ने टेलीफोन पर प्रिसिंपल को रिपोर्ट दी होगी। प्रिसिंपल ने मीटिंग बुलाने के लिए कहा होगा।"

हम लोग इस विचार से सहमत थे। घटनाचक्र को चीफ़ प्रॉक्टर जिस गंभीरता से ले रहे थे, उससे लगता था कि किसी बड़े अनिष्ट की आशंका उन्हें भी है। हो सकता है, वरिष्ठ छात्र कोई ऐसा कदम उठाएं जिससे नए छात्रों का बड़ा नुकसान हो जाए। उनके सामने वरिष्ठ छात्र ने जिस तरह चुनौतीपूर्ण नज़रों से देखा था, उसकी आँखों से जिस तरह गुस्सा टपकने लगा था, उसे देखकर स्थिति की गंभीरता का अनुमान चीफ प्रॉक्टर को भी हो गया होगा। वे आज ही मीटिंग की जानकारी वरिष्ठ छात्रों को भी देंगे ताकि यदि किसी अप्रिय घटना की योजना बन रही हो तो उसे टाला जा सके। कल मीटिंग है। उससे पहले यदि कोई हंगामा होता है तो मीटिंग में उस हंगामे पर बात होगी, आरोप लगेंगे। अपना बचाव करना मुश्किल हो जाएगा। इस तरह का मनोवैज्ञानिक दबाव बनाकर चीफ प्रॉक्टर किसी प्रकार की अवांछित घटना को रोकने की दिशा में सचेष्ट हैं। कल की मीटिंग में वरिष्ठ छात्रों का रवैया कैसा होगा, इस सम्बंध में दावे से कुछ कहना तो संभव नहीं लगा हम लोगों को किंतु सभी एकमत थे कि वरिष्ठ छात्र रैगिंग का अधिकार छोड़ना नहीं चाहेंगे। रैगिंग का अधिकार छीनने के पक्षधर हम लोग भी कहाँ थे? नाम कुछ भी हो रैगिंग, परिचय, मेलमिलाप या शिष्टाचार-शिक्षा, स्वस्थ ढंग से पुराने छात्र नए छात्रों से मिलें, हम तो इतना ही चाहते थे। यातना और रैगिंग, अनैतिकता और रैगिंग का अधिकार और रैगिंग एक-दूसरे के पूरक नहीं होने चाहिए। नए छात्रों को पुराने छात्रों को देखकर भय नहीं, अपितु सुख की प्रतीति होनी चाहिए। रैगिंग लेने का अधिकार वरिष्ठ छात्रों के पास न रहे, यह हमने कभी नहीं चाहा है। रैगिंग के लबादे में यदि वरिष्ठ छात्र सोचते हैं कि वे जैसा चाहेंगे, नए छात्रों को करना पड़ेगा तो उनकी भूल है यह। अपने सोच को लेकर हम लोग स्पष्ट थे। इस सोच की पूर्ति के रास्ते में आने वाली हर एक रुकावट से लोहा लेने के लिए हम कृत संकल्प थे।

मीटिंग की सूचना के बाद, जैसी संभावना थी, सब कुछ सामान्य बना रहा। हम लोगों ने चीफ़ प्रॉक्टर से हुई बातचीत, वरिष्ठ छात्र का रवैया, उसका बातचीत छोड़कर बीच में चले जाना, कल की मीटिंग के बारे में विस्तृत जानकारी उसी दिन कक्षाएँ समाप्त होने के बाद कमरे में रोककर अपने सहपाठियों को दे दी। किसी को कल की मीटिंग के बारे में सुझाव देने हों तो बता दे, ताकि कल उन सुझावों को ध्यान में रखकर बातचीत की जा सके, यह घोषणा भी हमने की। संगठित शक्ति के कारण वरिष्ठ छात्रों की अत्याचारी प्रवृत्ति का सामना करने में जो सफलता हमें मिली थी, सभी छात्र-छात्राएं उससे उत्साहित थे। जिन लोगों ने विचार व्यक्त किए, उन्होंने एक ही बात पर ज़ोर दिया कि किसी भी स्थिति में हमें अवांछित समझौता नहीं करना है।

संभवतः मेडीकल कॉलेज के इतिहास में यह पहला अवसर था जब नए छात्रों ने पुराने छात्रों की मनमानियों का केवल विरोध ही नहीं किया अपितु मार-पीट भी की थी। संगठन के अभाव में, डर के कारण, मुसीबत से आँखें न मिलाने की मानव की आदि दुर्बलता के कारण नए छात्र रैगिंग के नाम पर सब कुछ बरदाश्त कर लेते थे। इस बार पुराने छात्रों के वर्चस्व को चुनौती दी गई थी, रैगिंग के नाम पर। नए छात्रों में हालाँकि सचमुच सक्रिय छात्रों की संख्या तीस-पैंतीस ही थी किंतु रैगिंग की मनमानी परिभाषा देकर इस अधिकार को बनाए रखने के कट्‌टर हिमायती पुराने छात्रों की संख्या इससे भी कम थी। यही कारण था कि दृढ निश्चय के साथ जब कुछ छात्रों ने विरोध करने का निर्णय लिया तो हालात ने ऐसी करवट ली जिसकी आशा वरिष्ठ छात्रों ने नहीं की होगी। पहली बार हुई सामूहिक मार-पीट की घटना अपने आप में अभूतपूर्व थी। नए और पुराने छात्रों के बीच कॉलेज के पोर्च में हुआ घमासान युद्ध यदि पुराने छात्रों के लिए अपेक्षित होता तो वे लोग सबको घेरकर ले जाने की बजाय कुछ छात्रों को चुनकर अपने साथ ले जाते। चुने हुए छात्रों को ले जाने वाली बात का हम लोग विरोध करते और विरोध के कारण मार-पीट हो जाती। मगर निश्चय ही पुराने छात्रों की रणनीति पहले ही तैयार होती। यदि उन्हें डर होता कि मार-पीट हो सकती है, तो हॉकी स्टिक और सरिए पोर्च के आसपास कहीं छिपाने के बाद ही पुराने छात्र हम लोगों को घेरकर ले जाने की बात सोचते। इसके बाद हुई मारपीट की घटनाओं में भी यह महत्त्वपूर्ण बात थी कि नए छात्र समूह बनाकर चलते थे, इसलिए बल और शक्ति में पुराने छात्र कमजोर साबित होते थे। घात लगाकर रैगिंग करने वाले छात्रों की पिटाई भी इसलिए संभव हो सकी थी क्योंकि पुराने छात्र अकेले-दुकेले घूमते रहते थे। हम लोगों के लिए उनमें से किसी एक को अकेले पकड़ लेना अधिक मुश्किल काम नहीं था। इस बार रैगिंग का मुद्‌दा पुराने छात्रों के गले में अटकी हड्‌डी की तरह कष्टप्रद हो गया था।

हम लोगों को विश्वास था कि कल की मीटिंग में इस मसले का समाधान हो जाएगा। पुराने छात्र इस विषय को अपने सम्मान की रक्षा करते हुए निपटाना चाहते हैं। नए छात्रों ने पुराने छात्रों के ऊपर हाथ उठाया, यह बात अब तक न देखी गई थी और न सुनी गई थी। पुराने छात्र किसी भी रूप में प्रतिकार नहीं कर पा रहे थे, यह बात उनके लिए मारपीट से भी अधिक तकलीफदेह थी। विवशता का वातावरण नए छात्रों के लिए बनता है हमेशा। पुराने छात्र बनाम नए छात्र की लड़ाई में पुराने छात्र विवश अनुभव करें, यह उनके अहम्‌ पर लगने वाली सबसे बड़ी चोट थी। इस चोट का सम्मानजनक तरीके से इलाज हो जाए, हम लोगों के विचार से पुराने छात्रों की यह पहली वरीयता होनी चाहिए। जहाँ तक हमारा सम्बंध है, रैगिंग के नाम पर परिचय की औपचारिकता जैसा कोई हल निकालकर यदि पुराने छात्रों के अहम्‌ की तुष्टि हो जाती है तो हम उसका स्वागत करेंगे। इस बार रैगिंग का पुराना तरीका फिर चलेगा, फिर चल सकेगा, यह संभावना तो यों भी अब लगभग निरस्त हो गई है। जितनी कटुता रैगिंग प्रकरण को लेकर फैली है उसे देखते हुए पुराने छात्र सामान्य होकर शारीरिक व मानसिक यातनाएँ देते हुए रैगिंग कर सकेंगे, यह असंभव है। नए छात्र भीरुता के साथ पुराने छात्रों के हर मान्य-अमान्य, नैतिक-अनैतिक, वांछित-अवांछित आदेश का रैगिंग के नाम पर पालन कर सकेंगे, यह भी असंभव है। दोनों वर्गों के छात्रों की मानसिकता इतने आरोहों-अवरोहों से गुजरी है कि आग्रह मुक्त रहकर परस्पर व्यवहार की आशा दोनों में से किसी भी पक्ष से की नहीं जा सकती।

दूसरे दिन मैं चीफ प्रॉक्टर से मिला। मैंने उनसे पूछा, ‘‘सर, मींटिग में कितने वरिष्ठ छात्रों को बुलाया गया है?" उन्होंने बताया, ‘‘चार वरिष्ठ छात्र और तुम, कुल मिलाकर पाँच छात्र होंगे।"

‘‘सर, फिर एक निवेदन करना चाहूँगा।"

‘‘हाँ बताओ।"

चार वरिष्ठ छात्र जो बात कहेंगे उसका जवाब मैं अकेला दे नहीं सकूंगा। इसलिए इतने ही नए छात्र भी मीटिंग में हों तो अच्छा रहेगा।

‘‘अरे भाई, तुम्हें उन चार लोगों से न शास्त्रार्थ करना है और न लड़ाई करनी है। चिंता मत करो, मैं भी तुम्हारे साथ हूँ।" चीफ प्रॉक्टर हंसे।

‘‘फिर भी ........।"

‘‘कुछ नहीं, तुम चार बजे मीटिंग में आ जाना। बहस और दलीलें समस्याओं को ज्यादा उलझाती हैं।"

मैंने वापस आकर बाहर खड़े अपने साथियों को सारी बात बताई, ‘‘कोई बात नहीं है। मीटिंग के समय सभी नए छात्र यहाँ खड़े रहेंगे। करने दो उन्हें जो कुछ वे करना चाहते हैं।" हम सबने एक सम्मिलित ठहाका लगाया।

पौने चार बजे हमारी कक्षा के सभी छात्र और छात्राएँ चीफ प्रॉक्टर के कमरे के दरवाजे के दोनों तरफ पंक्तियाँ बनाकर खड़े हो गए। एक सौ दस छात्र-छात्राओं की पचास-पचपन की एक-एक पंक्ति किसी भी दर्शक के मस्तिष्क पर प्रभाव डालने के लिए पर्याप्त थी। मैं भी पंक्ति में अपने सहपाठियों के साथ खड़ा था। चार बजे से कुछ पहले एक-एक करके वरिष्ठ छात्रों का आना शुरू हुआ। दोनों ओर बनी पंक्तियों में खड़े छात्र-छात्राएँ उन्हें देखकर सिर झुका लेते थे। इस तरह हम लोग स्पष्ट करना चाहते थे कि हमारा उद्‌देश्य टकराव या झगड़ा नहीं है। वरिष्ठ छात्रों का हम अब भी सम्मान करते हैं। ठीक चार बजे मैंने चीफ प्रॉक्टर के कमरे का दरवाजा खोला, ‘‘मे आइ कम इन, सर?"

‘‘आओ, भाई आओ! तुम्हारा ही इंतजार था।"

मैं आगे बढकर खाली पड़ी कुरसी पर बैठ गया। पूर्व निर्धारित नीति के अनुसार मीटिंग की बागडोर अपने हाथ में लेने की दृष्टि से मैंने पहल की, ‘‘सर, इजाजत दें तो मैं कुछ कहना चाहता हूँ।"

चीफ़ प्रॉक्टर थोड़ा झिझके, ‘‘क्या विचार है, पहले आप लोग अपनी बात कहना चाहेंगे या इसकी बातें सुनना चाहेंगे?" उन्होंने वरिष्ठ छात्रों पर दृष्टि घुमाई।

‘‘ठीक है, पहले इसी को बोलने दीजिए।"

मैं खड़ा होने लगा तो चीफ प्रॉक्टर ने मुझे खड़े होने से रोका। मैं बैठ गया। सरसरी निगाह डालकर मैंने सबके चेहरों को देखा। फिर धीरे-धीरे आत्मविश्वास पूर्वक मैंने कहना शुरू किया, ‘‘आप सब वरिष्ठ छात्र हम लोगों के लिए आदरणीय हैं। इसका प्रमाण अभी बाहर से आते समय आपको मिल गया है। रैगिंग के मामले में भी हम लोगों की मंशा अपने वरिष्ठ छात्रों के रैगिंग करने के अधिकार को चुनौती देने की नहीं रही है। रैगिंग की मूल अपेक्षा के अनुरूप हमारी यह धारणा रही है कि रैगिंग के माध्यम से परिचय, शिष्टाचार-शिक्षा, तौर-तरीकों की जानकारी और भावी डॉक्टर से समाज की अपेक्षाओं की चर्चा जैसे विषयों पर नए छात्रों से बातचीत होनी चाहिए। यदि आप लोग नए छात्रों की इस धारणा से सहमत हों तो में एक प्रस्ताव रखना चाहूँगा।" खामोश रहकर मैंने सबके चेहरों की ओर देखा। कोई कुछ नहीं बोला तो मैंने कहा, ‘‘नए छात्र वरिष्ठ छात्रों को एक पार्टी देंगे। उस पार्टी में वरिष्ठ छात्र जो कुछ हमें बताना चाहते हैं, जो कुछ हमें सिखाना चाहते हैं, बताएँ और सिखाएं। वैसे तो पिछले तीन महीनों से जो अप्रिय घटनाएँ घटी हैं उनके कारण वरिष्ठ छात्र नए छात्रों को पहचानने लगे हैं, फिर भी आप लोग चाहें तो परिचय की औपचारिकता उस पार्टी के दौरान पूरी की जा सकती है।"

‘‘तुम चाहते हो, वरिष्ठ छात्र इस बात को भूल जाएँ कि नए छात्रों ने उनके साथ मार-पीट की है।"

‘‘जी हां, मैं यह चाहता हूँ और इसलिए चाहता हूँ क्योंकि वरिष्ठ छात्रों ने नए छात्रों को ऐसा करने के लिए मजबूर किया था।"

‘‘मेडीकल कॉलेज में रैगिंग की एक स्थापित परंपरा है। आप लोगों के साथ नया तो कुछ नहीं हुआ।" एक और वरिष्ठ छात्र ने कहा।

‘‘रैगिंग की स्थापित परंपरा चलती रहे, यह हम भी चाहते हैं, किंतु स्वस्थ तरीके से। रैगिंग का अधिकार मनमानी करने का अधिकार तो नहीं हो सकता।"

‘‘रैगिंग होगी तो उसके साथ थोड़ी-बहुत हँसी-मजाक तो चलेगी ही।"

‘‘उसके खिलाफ हम लोग भी कहां हैं?" मैं मुसकराया।

चीफ प्रॉक्टर ने हस्तक्षेप किया, ‘‘देखिए, हम लोग समस्या को सुलझाने के लिए बैठे हैं। जो हो गया, उसे याद रखने से अब कोई फायदा नहीं है। नए छात्र रैगिंग के खिलाफ नहीं हैं। वे चाहते हैं कि रैगिंग की अपनी एक मर्यादा होनी चाहिए। वैसे भी इतना कुछ हो जाने के बाद आप लोग रैगिंग करने का मजा तो ले नहीं सकते। इसलिए बेहतर होगा कि नए छात्रों का प्रस्ताव आप लोग मान लें।"

‘‘जो वारदातें इन लोगों ने की हैं, उनके लिए इन्हें क्षमा तो नहीं किया जा सकता, फिर भी इस मामले को खत्म करने के लिए ज़रूरी है कि नए छात्र बिना शर्त माफी माँगें।"

चीफ प्रॉक्टर ने मेरी ओर देखा, ‘‘मैं बाहर जाकर अपने साथियों से बात करना चाहता हूँ।"

बाहर निकला तो सब लड़के-लड़कियों ने मुझे घेर लिया। मैं उन्हें कमरे से थोड़ा दूर ले आया, ताकि आवाजें अंदर न जा सकें। पहले मैंने अंदर हुआ वार्तालाप सबके सामने रखा, फिर बिना शर्त माफी वाला प्रश्न प्रतिक्रियाओं के लिए प्रस्तुत किया। सब लड़के-लड़कियों ने एक साथ अपनी प्रतिक्रियाएँ देनी शुरू कर दीं। किसी की बात सुनना-समझना इस तरह संभव नहीं था। मैंने जोर से कहा, ‘‘बिना शर्त माफी माँगने और न माँगने के पक्ष-विपक्ष में बहुत-सी दलीलें दी जा सकती हैं। माफी माँगकर हम लोग इस झगड़े को समाप्त करेंगे। वरिष्ठ छात्र केवल माफी माँगने-भर से मार को भूल सकते हैं, तो हमें तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए। माफी न माँगकर हम लोग भी साबित करेंगे कि हम मुद्‌दों की नहीं, नाक की लड़ाई लड़ रहे हैं। मैं अपने विचार थोपना नहीं चाहता हूँ। इसलिए जो माफी माँगने के पक्ष में हैं, वे हाथ ऊँचे करें।"

गिनती हुई तो पता लगा कि बानवे छात्रों ने माफी माँगने के प्रस्ताव के समर्थन में मत व्यक्त किया था।

मैं चीफ प्रॉक्टर के कमरे में लौट आया। सब लोग उत्सुकता पूर्वक मेरी ओर देख रहे थे। ‘‘मेरे साथियों का कहना है कि जो अप्रिय घटनाएँ हुई हैं, वे हमारे कारण नहीं हुई हैं। फिर भी हम लोग वरिष्ठ छात्रों का सम्मान करते हैं, यह साबित करने के लिए माफी माँगने की बात मंजूर करते हैं।"

मेरी बात सुनकर चीफ़ प्रॉक्टर और वरिष्ठ छात्रों के चेहरों पर व्याप्त तनाव झटके से पिघल गया। चीफ प्रॉक्टर ने कहा, ‘‘हर साल अगस्त के अंत में वरिष्ठ छात्र नए आने वाले छात्रों को एक पार्टी देते हैं। सचमुच उस पार्टी के बाद ही रैगिंग का सिलसिला समाप्त माना जाता है। जब नए छात्र बिना शर्त माफी माँगने को तैयार हैं तो पुराने छात्रों को भी सदाशयता का सबूत देते हुए अपनी तरफ से पार्टी आयोजित करनी चाहिए। वैसे भी यह अच्छी लगने वाली बात नहीं है कि नए छात्र पुराने छात्रों को पार्टी दें।"

‘‘पार्टी देने में हमें कोई एतराज नहीं है, मगर यह इन लोगों के ऊपर एक तरह का जुर्माना है जो गलतियों के कारण इन्हें देना होगा।"

‘‘आई डिफर सर, हम लोग माफी माँगने को तैयार हैं इसका अर्थ यह नहीं लगाया जाना चाहिए कि जो कुछ हुआ वह हमारी गलतियों के कारण हुआ। यह सब करने के लिए हमें मजबूर किया गया, इसलिए हमने किया। लगता है, अब भी वरिष्ठ छात्र हमारी भावनाओं को समझ नहीं पा रहे हैं।"

‘‘इन बातों को छोड़ो यार, पार्टी हम देंगे। अब तो ठीक है?"

‘‘पार्टी देने के लिए तो हम लोग भी तैयार हैं, बॉस।" मैं हंसा।

‘‘नहीं, नहीं, पार्टी तो हमारी तरफ से ही होगी।" दूसरे वरिष्ठ छात्र ने कहा।

मेडीकल कॉलेज हो, बाबा का ठेला हो या शरणार्थी शिविर हो, समस्याएँ हर काम में, हर जगह होती हैं। बस, उन समस्याओं को देखने के दृष्टिकोण की बात है। बाबा रिश्वत देकर ठेला फुटपाथ पर खड़ा करने का सिलसिला बनाए रखते हैं। उनकी जगह कोई और होता तो इस समस्या को दूसरी तरह देखता। हो सकता है, वह जगह बदल देता। हो सकता है, वह जोर-जबरदस्ती करता। कुछ-न-कुछ तो वह भी करता ही। रैगिंग मेडीकल कॉलेज में शुरू से होती आई है। हर साल वरिष्ठ छात्र रैगिंग करते हैं और कनिष्ठ छात्र रैगिंग कराते हैं। रैगिंग में यातनाओं का सम्मिश्रण, अनैतिकता की मिलावट, मनमानेपन की स्वच्छंदता, चरित्र की गिरावट इस साल पहली बार हुई हो, ऐसा नहीं है। साल-दर-साल रैगिंग के नाम पर विभिन्न प्रकार के उत्पीड़न होते हैं। नए छात्र सोचते हैं, कुछ दिनों की बात है। जिनकी रैगिंग थोड़ी ज़्यादा, थोड़ी सख्त और अमानवीय हो जाती है वे सोचते हैं कि कोई बात नहीं, अगले साल कसर निकाल लेंगे। यह कोई नहीं सोचता कि गलत को सही में बदलना चाहिए। हम लोगों ने इस बार विरोध किया, रैगिंग की वास्तविक अपेक्षाओं को रेखांकित किया तो तूफान खड़ा हो गया। जिन वरिष्ठ छात्रों के खिलाफ यह मुहिम चली, अगले साल वे तो रैगिंग करेंगे नहीं। हम लोगों ने रैगिंग के दूषित स्वरुप का निरोध किया किंतु अगले साल जब मेरे सहपाठी वरिष्ठ छात्र बन जाएँगे, तब क्या नए छात्रों की रैगिंग करते समय उन प्रतिमानों को याद रखेंगे जिनके लिए वे स्वयं लड़े हैं?

यदि नव स्फूर्त विचार को चिरस्थायी बनाने के लिए एक समिति बनाई जाए तो यह कितनी प्रभावशाली हो सकती है? आज जो पीड़ा और संताप हमें भोगना पड़ा है, वही पीड़ा और संताप आगामी वर्ष में आने वाले छात्र भी भोगेंगे। जैसा हमेशा होता रहा था, शायद वैसा ही फिर से हो जाएगा। नए छात्रों को मानसिक और शारीरिक कष्ट होगा, किंतु साहस के अभाव में, नैतिक बल और जुझारू शक्ति की कमी के कारण वे लोग हर एक अत्याचार को शिरोधार्य कर लेंगे। हमसे वरिष्ठ छात्र, जिनको इस वर्ष विरोध का सामना करना पड़ा है, मजाक उड़ाएँगे। रैगिंग की वीभत्सताएँ क्षणिक एक वर्ष के अंतराल के बाद फिर हावी हो जाएंगी। समिति, रैगिंग के जिस स्वरूप के लिए हम लड़े हैं, उसे आने वाले वर्षों में भी दृढता के साथ बनाए रख सकेगी? आगामी वर्ष में हो सकता है समिति रैगिंग का वांछित और अपेक्षित स्वरूप बनाए रखने में सफल हो जाए, किंतु उससे अगले वर्ष, उससे भी अगले वर्ष और जब हम मेडीकल कॉलेज से निकल जाएंगे, तब? तब क्या केवल किस्से के रूप में सुनाने के लिए रह जाएँगी इस वर्ष की घटनाएँ?

यदि हमारी लड़ाई की अंतिम परिणति यही है तो हमने भी अपनी शक्ति क्या व्यर्थ ही नष्ट नहीं की? मीटिंगें कीं। योजनाएँ बनाई। अतिरिक्त समय लगाकर योजनाओं को कार्यान्वित किया। लड़ाई-झगड़े, मार-पीट की। अपनी स्थिति स्पष्ट करने के लिए यहां-वहां धक्के खाते रहे। तनाव झेला। किसलिए? केवल एक वर्ष के लिए? दूध में आए उफान की तरह केवलं तब तक के लिए, जब तक दूध आँच पर रखा था? जब हमारे नएपन को आँच से उतारा जाएगा तो हम पूर्ववत्‌ हो जाएँगे? दूध गरम रहेगा तो कुछ देर के लिए, फिर ठंडा हो जाएगा। इस साल लड़े गए युद्ध की थोड़ी गरमाहट बची भी तो एक साल के बाद पूरी तरह ठंडेपन में बदल जाएगी। अस्थायी उपलब्धियाँ ही यदि इस युद्ध की नियति हैंं तो इतना झंझट करने से क्या लाभ हुआ?

कहीं हम भी अहम्‌ की लड़ाई तो नहीं लड़ रहे थे, वरिष्ठ छात्रों की तरह? अपनी वरिष्ठता, परंपरा से चले आ रहे अधिकार, संगठित शक्ति, नए छात्रों की मानसिकता और समर्पण की तैयारी उन्हें रैगिंग करने के लिए प्रोत्साहित करती है। रैगिंग करके उन्हें एक क्रूर संतोष मिलता है, उनके अंदर बैठा पीड़क गौरवान्वित अनुभव करता है। रैगिंग को अधिकार मानने की उनकी अवधारणा को चुनौती देनेवाला व्यक्ति उन्हें अपना दुश्मन महसूस होता है। यदि वह चुनौती देने वाला व्यक्ति नया छात्र है तो उनका आहत अहम्‌ उग्र और हिंसक हो उठता है। वरिष्ठ छात्र रैगिंग को अपना अधिकार मनवाने की जिद अपने आहत अहम्‌ पर मरहम लगाने के लिए कर रहे थे। नए छात्रों को जैसे ही लगा कि वे वरिष्ठ छात्रों की किसी प्रवृत्ति-विशेष का विरोध करने की स्थिति में हैं तो उन्होंने मोर्चा सँभाल लिया। रैगिंग तो एक बहाना था, वरना कोई भी ऐसा काम जिसे अनिच्छापूर्वक करना पड़ रहा हो, व्यक्ति तब तक ही करता है जब तक किसी-न-किसी प्रकार की विवशता उसके सामने होती है। प्रतिकार का प्रभावी उपाय नजर आते ही वह उस काम से मुक्ति पाने के प्रयत्न में जुट जाता है। एक बार विरोध और प्रतिकार प्रारंभ हुआ तो फिर व्यक्ति का अहम्‌ उसके साथ जुड़ जाता है। घनीभूत प्रयत्न अहम्‌ को भी घनीभूत करते हैं। नाम भले ही कोई दूसरा दे दें लेकिन सम्मान, इज्जत, नाक और आदर्श के आवरण में लड़ाई अहम्‌ की लड़ी जा रही होती है।

जब तक विकल्प नहीं था, रैगिंग का प्रबल प्रतिकार नहीं हुआ। मेरी रैगिंग के साथ जुड़ी घटना, घटना के बाद रैगिंग का सामना करने के उपाय, कार्य विधि और योजना स्पष्ट होते ही नए छात्रों का स्वयं को विशिष्ट स्थापित करने वाला भाव जाग गया। स्वयं को विशिष्ट समझने वाला व्यक्ति मूलतः अहम्‌ वादी होता है। मामला जैस-जैसे बढता गया, लड़ाई में शक्ति के अनुपात में प्रत्येक नए छात्र का अहम्‌ जुड़ता गया। हम चाहे कहते रहे हाें कि सिद्धान्त की लड़ाई लड़ रहे हैं, चाहे दावा करते रहते हों कि रैगिंग से सम्बद्‌ध वास्तविक अपेक्षाओं को पुर्नस्थापित करने की लड़ाई लड़ रहे हैं, मगर हम अहम्‌ की रक्षा के लिए लड़ रहे थे। बाकी सब खूबसूरत संवाद थे, जिनकी हकीकत से हम स्वयं अपरिचित थे।

अगले साल जब मेरे साथी रैगिंग करेंगे तो इस साल के किस्से उनके आतंक की धाक को बहुगुणित करेंगे। रैगिंग करते समय उनमें से कुछ ऐसी गर्वोक्ति भी कर सकते हैं कि पिछले साल जिन लोगों ने अपनी रैगिंग नहीं करने दी, उनसे पाला पड़ा है तुम्हारा। उत्पीड़न, प्रताड़ना, अनैतिकता, छीछालेदर, शारीरिक और मानसिक त्रास में अच्छी-खासी वृद्धि करने का अधिकार नैसर्गिक रूप से मिल जाएगा उन्हें। कुछ और किया जाए चाहे न किया जाए, भविष्य में रैगिंग चाहे पुराने ढर्रे और पुरानी लीक पर आ जाए, किंतु अगले साल मेरे सहपाठी इस वर्ष के घटनाक्रम का दुरुपयोग न कर सकें, यह सुनिश्चित करना ही होगा।

जिन दिनों रैगिंग के दौरान चोटग्रस्त होने के कारण मैं बिस्तर पर पड़ा था, काका भोजामल और काकी बारह दिन की अवधि में चार बार हाल-चाल पूछने आए थे। काका भोजामल हों या काकी, बाबा हो या अम्मा, चिंतातुर होकर यही कहते थे कि तुम्हें इन झंझटों में पड़ने की वया ज़रूरत थी? जब मालूम है कि मेडीकल कॉलेज में रैगिंग ज़रूर की जाती है तो लड़ाई-झगड़ा क्यों किया तुमने? छोटी सी बात अगर मान लेने से काम चल जाता है तो लड़कों को नाराज करने से क्या फायदा? उन लोगों के कहने से गालियाँ दे देते तो जुबान न घिसती और न गंदी होती। फिर तकरार करके अपनी यह हालत बनाने की नासमझी तुमने क्यों की?

मैंने उनमें से किसी को कुछ नहीं कहा कभी। मन-ही-मन मैं कहता रहा कि बाबा, आपने चाहे अपना केसरिया चोला बदलकर काला छींटदार चोला पहन लिया हो, मगर मैं ऐसा नहीं कर पाऊँगा। बाबा, आपने आदर्श पढकर फिर उनका अभ्यास किया था, मुझे आदर्श संस्कारों के रूप में मिले हैं। मैं चाहूँ तो भी उनसे पूरी तरह मुक्त होना मेरे लिए संभव नहीं है। सीखने और संस्कारित होने में जो अंतर है, आप और मैं उसके जीते-जागते प्रमाण हैं, बाबा। मैंने बस इतना किया कि बाद में चले घटनाचक्र की अम्मा और बाबा से कोई चर्चा नहीं की। वे पूछते तो या तो टालमटोल कर जाता था या कह देता था कि सब सामान्य ढंग से चल रहा है।

मीनू बिना नागा हर रोज सुबह मेरे पास आती थी। मुझे नहीं मालूम कि काकी से उसने क्या कहा या काकी को वह क्या कहती थी, किंतु नियमपूर्वक आने का उसका क्रम कभी नहीं टूटा। मेरे रिश्तेदारों या रिश्तेदारों जैसे या पारिवारिक कारणों से जुड़े लोगों में से मीनू अकेली थी जिसने स्पष्ट शब्दों में उसका समर्थन किया, जो मैंने किया था। पहले दिन तो मैंने उसके आगमन को अधिक महत्त्व दिया ही नहीं था। हादसे के बारे में ज्यादा कुछ उसे बताया भी नहीं। दूसरे दिन सुबह बिना उलाहना दिए जब मीनू ने रैगिंग के दौरान मेरे विरोध का समर्थन किया तो जाहिर था कि अम्मा या काकी से उसने सारी विस्तृत जानकारी ले ली है। उन बारह दिनों में सांसारिक, सामाजिक व दैहिक संबंधों से ऊपर उठकर मीनू के साथ मेरे समझ और मन के स्तर पर संबंध विकसित हुए। बहुत अपेक्षाएँ नहीं, बहुत बातें नहीं, बहुत प्रदर्शन नहीं, बहुत उपदेश नहीं, खामोशी से तकलीफ बाँटने और खामोशी से ताकत देने का काम मीनू करती थी।

मैं उसके आने का इंतजार करता था। दिनभर मेडीकल कॉलेज के लड़के-लड़कियाँ मुझसे मिलने आते थे। उनसे भावी योजनाओं के बारे में बात होती थी। मीनू को विस्तार से सारी बातें बताता था। वह चुपचाप सुनती रहती थी। राय बहुत कम देती थी, किंतु उसके हाव-भाव से यह बात स्पष्ट रूप से झलकती थी कि वह हमारी प्रतिकार के लिए बनाई गई योजनाओं से जुड़ी भावनाओं का पूरी तरह समर्थन करती है। बाद में जो सक्रिय मुहिम हम लोगों ने चलाई, सुविधाजनक स्थितियों में मुलाकात होने पर मैं मीनू को उसके बारे में बताता रहा। मेरी सुरक्षा की चिंता के बावजूद उसने कभी नहीं कहा कि ऐसा मत करो, इसमें बहुत खतरा है।

मुझे तो बाबा से संस्कार के रूप में गलत का विरोध करने के गुण-सूत्र मिले थे। सोचता हूँ कि मीनू को यह समझ कहां से मिली? काका भोजामल और उनके दूर-दूर के रिश्तेदारों ने भी कभी मूल्यों पर गंभीरता से ध्यान नहीं दिया होगा। अर्थोपार्जन, सामाजिक प्रतिष्ठा और पारिवारिक सुरक्षा जिनकी वरीयताएँ रही हैं, उनके सान्निध्य में रहनेवाली मीनू को इस तरह से सोचना किसने सिखाया? मुझे बहुत सोचने के बाद भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता है।

***

(7)

10 मई, 1951

आज प्रथम वर्ष एम.बी.बी.एस. की अंकतालिका लेकर आया। 72 प्रतिशत अंक आए हैं और कक्षा में सातवां स्थान है। कक्षा के अन्य छात्र- छात्राओं की तुलना में अपना मूल्यांकन करता हूँ तो स्वयं को सर्वश्रेष्ठ तीन-चार लड़कों-लड़कियों में से एक पाता हूँ, इसके बावजूद सातवें स्यान पर धकेल दिया गया हूँ। धकेलना शब्द का प्रयोग मैं जान-बूझकर कर रहा हूँ। सँभलता नहीं और बाकायदा रणनीति बनाकर नहीं चलता तो सातवां स्थान भी नहीं मिलता।

मेडीकल कॉलेज में आने के बाद कुछ आश्चर्यजनक नतीजों पर पहुंचा हूँ। डॉक्टर पिता के बेटे-बेटियाँ यहां ज्यादा मेधावी माने जाते हैं। परीक्षा में अच्छे अंक पाने के लिए छात्र का पढाई में अच्छा होना आवश्यक नहीं है। पैसा और पिता का पद छात्र-छात्रा की प्रतिष्ठा निर्धारित करता है। लड़कियों के मामले में खूबसूरती, वाचालता, इस्तेमाल करने की संभावनाएँ और बातचीत व व्यवहार में चतुराई का सीधा संबंध उनकी अंकतालिका से होता है।

रैगिंग वाले प्रकरण में वरिष्ठ छात्रों के साथ समझौते के बाद पार्टी होने तक पढाई की तरफ ध्यान देने का अवसर नहीं मिला। इसके बाद दशहरे और दीपावली के कारण छुट्टियां आ गईं। पहला टैस्ट सितंबर में हो चुका था। मैं रैगिंग वाले मामले में बुरी तरह उलझा हुआ था। बिस्तर जरूर छोड़ दिया था, लेकिन घाव अब भी पूरी तरह ठीक नहीं हुए थे। ऊपर से आए दिन वरिष्ठ छात्रों के साथ कभी कहा-सुनी और कभी मार-पीट होती रहती थी। किताबें अधूरी थीं। कक्षाओं में जाना नहीं होता था। अगर जाना होता भी था तो दिमाग कहीं और होता था। पढाई या तो होती नहीं थी या पढने में मन नहीं लगता था। ड़िसैक्शन हॉल में जाता जरूर था किंतु घर या पुस्तकालय में मनुष्य की शरीर-रचना का ठीक प्रकार से अध्ययन न करने के कारण लाश की चीर-फाड़ करने के बाद आंतरिक भागों की समझ बन नहीं पाती थी। अपेक्षा के अनुकूल, पहले टैस्ट में अंक अच्छे नहीं आए। सबसे ज्यादा अंक शहर एस.पी. के लड़के मुकुल को और दूसरे स्थान पर अंक एक खूबसूरत, तेजतर्रार कान्वेंट शिक्षित आधुनिका अनुराधा को मिले। मैं हमेशा पढाई में होशियार विद्यार्थी रहा हूँ। पहले टैस्ट में अंक अच्छे नहीं आए तो मन को बहुत खराब लगा। सिर्फ इस बात को लेकर तसल्ली थी कि पढाई ठीक से हो नहीं पाई, इसलिए अच्छे अंक न आना स्वाभाविक है। व्यर्थ के कामों में समय बरबाद हो रहा है, पता नहीं कितने दिन इसी तरह समय की बरबादी होती रहेगी, यह सोच-सोच का झूझलाहट होती थी। स्थितियों और उपलब्धियों की पृष्ठभूमि में अपने कार्य-निष्पादन को लेकर मी असंतोष का भाव मन में बना रहता था। झुंझलाहट और असंतोष मिलकर मुझे बेचैन करते थे। बेचैनी से मुक्ति पा सकूं, तुरंत इसका कोई रास्ता दिखाई नहीं देता था। रैगिंग प्रकरण में गतिविधियों का केंद्रबिंदु बन गया था। इसलिए जब तक समझौता नहीं होता, समाधान नहीं निकलता, तनाव से मुक्ति संभव नहीं लगती थी। तनावग्रस्त रहकर एकाग्रता के साथ पढाई करने की कल्पना की नहीं जा सकती थी।

नेता के रूप में मान्यता मिल गई थी, इसलिए हर तरह का विवाद, लड़ाई-झगड़ा, मतभेद और तकरार सुलझाने के लिए मेरी ओर देखा जाता था। रैगिंग प्रकरण से मेरी छवि अपने सहपाठियों के बीच जुझारू, साहसी और निर्विवाद नेता के रूप में स्थापित हुई थी, जबकि मेडीकल कॉलेज के स्तर पर माना जाने लगा था कि एक चतुर, होशियार, लगनशील और विद्यार्थियों के हितों के लिए जिजीविषा तथा संकल्प के साथ संघर्ष करने वाला संभावनायुक्त नेता संस्थान को मिल गया है। भविष्य में मेडीकल कॉलेज के सभी छात्रों की समस्याओं को दूर करने की दृष्टि से आवाज बुलंद करके जरूरत पड़ने पर टेढी अँगुली करके भी धारा का रुख अपनी चाही हुई दिशा में मोड़ने के लिए दम-खम के साथ अड़ जानेवाले व्यक्ति के रूप में विभिन्न स्तरों पर मुझे देखा जाने लगा था। यह छवि रैगिंग प्रकरण के कारण बनी थी। जब रैगिंग प्रकरण का सम्मानजनक हल निकला और माफी माँगने के बाद भी हम लोगों की जीत की दुंदुभि सर्वत्र बजने लगी तो नेता के रूप में मेरी छवि छात्रों के मन-मस्तिष्क में मजबूती के साथ स्थापित हो गई। कक्षा के स्तर पर निर्विवाद और कॉलेज के स्तर पर आलोचना व समर्थन के मिश्रित स्वरों में मेरी चर्चा होने लगी। जो लड़का पहले वर्ष ही बेझिझक होकर वरिष्ठ छात्रों से टकराने का दुस्साहस कर सकता है, वह आगे चलकर क्या करेगा? वरिष्ठ छात्रों के बीच में भी यह बातचीत का विषय वन गया।

छात्रनेता से यह अपेक्षा तो की जाती है कि वह स्वेच्छा से आगे आकर हर मुश्किल व उलझी हुई स्थिति की बागड़ोर अपने हाथ में लेगा, किंतु यह अपेक्षा उससे नहीं की जाती कि वह पढाई में भी आगे रहेगा। मानकर चला जाता है कि इधर-उधर के झंझटों में हाथ डालने में उसकी रुचि अधिक होती है। पढ़ने के लिए उसके पास पयप्ति समय नहीं होता है। पढाई में रुचि भी बहुत नहीं होती है। इसलिए काम-चलाऊ अंकों से वह परीक्षाएँ उत्तीर्ण करता है। आमतौर पर छात्रनेता का व्यवहार होता भी इस मान्यता के अनुरूप है। अपनी नेतृत्व-क्षमता का उपयोग करके परीक्षा में उत्तीर्णांक प्राप्त करने का प्रयत्न वह अधिक करता है। अध्ययन और मेधा के परिणामस्वरूप परीक्षाएँ उत्तीर्ण करे, इसमें उसकी रुचि कम होती है। अच्छे अंक आएँ या योग्यता-सूची में नाम हो या योग्यता-सूची में वह पहले स्थान पर हो, यह अपेक्षा न शेष लोग उससे करते हैं और न वह स्वयं ऐसा सोचता है।

दूसरे लोग भले ही इसे मेरी नेतृत्त्व क्षमता मानकर मुझे नेता के रूप में स्वीकार कर लें किंतु मैँ खुद को सबसे पहले विद्यार्थी मानता हूँ। विद्यार्थी का सर्वोच्च उद्‌देश्य विद्या अर्जित करना होता है। उसमें अच्छा भाषण देने की प्रतिभा हो सकती है, उसमें अच्छा लेखक होने के गुण हो सकते हैं, वह अच्छा खिलाड़ी हो सकता है, उसमें नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता हो सकती है किंतु वह विद्यार्थी पहले है। उसमें बैठा भाषणकर्ता, उसमें छिपा लेखक, उसमें कुलाँचें भरता खिलाड़ी और उसमें मचलता मुद्‌दों को हाथ में लेनेवाला नेता उसके विद्यार्थी तत्त्व के सामने गौण होता है। विद्यार्थी के रूप में जो दायित्व उसने अपने ऊपर लिया है, उसे निभाना उसका पहला कर्त्तव्य है। इस कर्त्तव्य से विमुख होकर वह अच्छा विद्यार्थी नहीं बन सकता। उद्‌देश्य से भटककर भले ही वह अच्छा भाषणकर्ता बन जाए, अच्छा खिलाड़ी बन जाए, अच्छा लेखक बन जाए या अच्छा नेता बन जाए किंतु है वह अधूरा ही। पूर्णता की बात तो वह तभी सोच सकता है जब विद्यार्जन का अपना उद्‌देश्य उसकी दृष्टि से एक क्षण के लिए भी ओझल न हो।

मेडीकल कॉलेज में आने से पहले किसी ने मेरी नेतृत्व क्षमता को नहीं पहचाना। मुझे लगता है, मैं डायरी ठीक ही लिख लेता हूँ। अपने विचारों को, धटनाओं की मनःस्थिति को जिस तरह चाहता हूँ, डायरी में अंकित कर सकता हूँ। अपनी बात को सुनने वालों तक अच्छी तरह पहुँचा दे, उन्हें महसूस करा दे कि जो कुछ कहा गया है सार्थक है, यही गुण अच्छे भाषण-कर्ता में अपेक्षित है न? रैगिंग वाले मसले पर जो भाषण मुझे देने पड़े उनका असर स्पष्ट रूप से दिखाई देता था। प्रतिदिन सुबह घूमने जाता हूँ। व्यायाम करता हूँ। शरीर ठीक है। खेलों में कभी भाग नहीं लिया किंतु यदि किसी खेल में हाथ आजमाऊँ तो बुरा नहीं रहूँगा। लेकिन मेडीकल कॉलेज में मैंने डॉक्टर बनने के लिए प्रवेश लिया है। नेता के, लेखक के, भाषणकर्ता के, खिलाड़ी के गुण मुझमें हो सकते हैं किंतु यहां मैं हूँ ही इसलिए क्योंकि मुझे एक कुशल चिकित्सक बनना है। कुशल चिकित्सक मैं अन्य प्रतिभाओं के आधार पर नहीं बन सकता। उसके लिए मुझे पढना ही पड़ेगा। प्रयोग करने ही पड़ं़ेगे, अस्पताल में मरीजों को देखना ही पड़ेगा। ये सभी काम किए बिना मैं अच्छा चिकित्सक नहीं बन सकता। ये काम करके मैं अपने कर्तव्य का निर्वाह करूँगा। मुझे बस, इतना ही करना होगा। अच्छे अंक उसी तरह मिलेंगे, जिस तरह हमेशा, हर परीक्षा में मिलते हैं।

मैं वैचारिक स्तर पर स्पष्ट था। पहले टैस्ट में अपनी स्थिति देखकर चुभन महसूस हुई थी। रैगिंग प्रकरण के ताबूत में पार्टीवाली कील लगते ही मैंने एकाग्र भाव से अध्ययन शुरू कर दिया। दशहरे और दीपावली की छुट्टियों का मैंने भरपूर उपयोग किया। जितने दिन खुला रहा, उतने दिन नियमित रूप से पुस्तकालय जाता रहा। शेष समय में खरीदी हुई पुस्तकों से धर पर पढता रहा। जिन लड़कों से निकटता बनी थी, उनसे घुमा-फिराकर किताबें लाकर पढता रहा और नोट्‌स तैयार करता रहा। बेकार गँवाए लगभग साढे तीन महीनों के नुकसान की भरपाई करने की मैंने पूरी कोशिश की। दीपावली के बाद नवंबर में जब कॉलेज खुला तो मेरी स्थिति बेहतर थी। मुझमें आत्मविश्वास आ गया था। आसन्न दूसरे टैस्ट में अपनी स्थिति मेें सुधार की दृष्टि से मुझे शंका प्रतीत नहीं होती थी। मुझे लगने लगा था कि मेरा मूल स्वरूप दिशा पकड़ने के लिए पूरी तरह तैयार है।

नवंबर के अंत में दूसरा टैस्ट हुआ। एनेटॉमी, फिजियालॉजी, लैबोरेटरी एक्सपेरीमेंट, डिसैक्शन सभी विषयों में मैं अपने प्रदर्शन से संतुष्ट था। मौखिक रूप से पूछे गए प्रश्नों के लगभग सभी उत्तर मैंने ठीक दिए। पहले टैस्ट के कारण जो असंतोष का भाव मुझमें पैदा हुबा था, वह पूरी तरह तिरोहित हो गया। लगभग एक माह की पढाई के बाद जो आत्मविश्वास मुझमें पैदा हुआ था, उसमें वृद्धि हो गई। मुझे भरोसा था कि इस टैस्ट में मुझे अच्छे अंक मिलेंगे। पिछले टैस्ट के अंकों के साथ जोड़ने पर मेरी स्थिति चाहे बहुत अच्छी न बने किंतु दूसरे टैस्ट में मुझे मिलनेवाले अंक मेरी सामान्य छात्र और अच्छे नेता की अब तक बनी छवि को पूरी तरह बदल देंगे। अच्छा नेता सामान्य छात्र तो बन सकता है किंतु अच्छे अंक नहीं ला सकता। रो-धोकर परीक्षा तो उत्तीर्ण कर सकता है किंतु योग्यतम छात्रों में से एक नहीं हो सकता। दूसरे टैस्ट का परिणाम इस प्रचलित धारणा को जबरदस्त धक्का पहुँचाने वाला होगा।

किंतु दुसरे टैस्ट का परिणाम आया तो मैं दंग रह गया। आशा के सर्वथा प्रतिकूल दूसरे टैस्ट में भी मुझे मिलनेवाले अंक पहले टैस्ट के अंकों के आसपास थे। इस बार भी सर्वाधिक अंक मुकुल और अनुराधा को मिले थे। टैस्ट के बाद बुने सपने टूट गए। मुझे लगता था कि मुझमें कोई बड़ी कमी है जो रुकावट बन रही है। उस कमी को पहचानने की मैं जितनी कोशिश करता, निराशा उतनी ही बढती जाती थी। जितनी पढाई इस बार मैंने की है, वहुत कम सहपाठियों ने उतनी पढाई की होगी। पुस्तकालय में पिछले एक माह में जितना समय मेरा गुज़ारा है, किसी एक ने भी इतनी देर पुस्तकालय में बैठकर अध्ययन नहीं किया है। जितनी पुस्तकें, जितने अलग-अलग लेखकों की पुस्तकें पढकर मैंने नोट्‌स तैयार किए हैं, शायद ही किसी छात्र-छात्रा ने उतनी पुस्तकें, उतने लेखकों की पुस्तकों को देखा होगा। मेरी अंग्रेजी अच्छी है। अपने उत्तर अच्छी तरह लिखने की कला मुझे आती है, इसका प्रमाण अब तक परीक्षाओं में मुझे मिले अंक हैं। लिखित टैस्ट अच्छे हुए, प्रयोगशाला और डिसैक्शन में मैंने सब कुछ अच्छा किया। मौखिक प्रश्नों में से लगभग सबके उत्तर मैंने ठीक दिए। फिर मुझे अच्छे अंक क्यों नहीं मिले ?

दो-एक दिन बहुत निराशा और तनाव में गुजरे। मैं चिंतातुर था, लेकिन समझ नहीं पा रहा था कि चिंता-निवारण के लिए क्या करूँ। अपनी पद्धति में कोई परिवर्तन करूँ तो कैसा? किताबें बदलकर पढूं तो कौनसी? जितना समय लगाकर एक महीना मैं पढा था, उससे ज्यादा समय देकर पढना कम-से-कम मेरे लिए तो संभव नहीं था। अंत में मैंने सभी विषयों के अध्यापकों से मिलकर अपनी कमियाँ जानने का प्रयत्न करने का निश्चय किया। पूरा दिन कक्षा के बाद या उन्हें ढ़ूंढ़-ढ़ूंढ़कर मैंने उनसे पूछा कि मुझे सुधार के लिए क्या करना चाहिए? किसी ने पढाई पर ध्यान देने के लिए कहा। किसी ने बाकी गोरख-धंधों से निकलने के लिए कहा। किसी ने चलताऊ जवाब दिया। किसी ने टालमटोल की। किसी ने मुसकराकर केवल इतना कहा, कोशिश करते रही।

मेरा असंतोष बढ गया। अपनी असफलता का कारण जाने बिना मुझे चैन नहीं था। मैंने मुकुल और अनुराधा से बात करना तय किया। दोनों टैस्ट उन दोनों ने अच्छे अंकों से उत्तीर्ण किए हैं। प्रश्नों के जो उत्तर उन्होंने दिए, प्रयोगशाला व डिसैक्शन हॉल में जो कुछ उन्होंने किया, मौखिक प्रश्नों के जिस ढंग से जवाब उन्होंने दिए, किताबें जो उन्होंने पढी, नोट्‌स जो उन्होंने बनाए और कॉलेज के बाद पढने का जो कार्यक्रम उन्होंने रखा, उसकी जानकारी मुझे अपने सुधार में मदद दे सकती है। किसी से कम, किसी से ज्यादा लेकिन कक्षा के सब लड़के-लड़कियों से मेरी बातचीत होती रहती थी। कॉलेज के बाद उस दिन मैं मुकुल के घर चला गया। अपने आने का मकसद न बताकर गप-शप करते हुए मैंने इस बार टैस्ट में पूछे गए प्रश्नों की चर्चा छेड़ दी। मौखिक परीक्षा में पूछे गए प्रश्नों और उत्तरों पर उससे बात की। डैड बॉडी की एनेटॉमी पर उसके सामने अपनी जिज्ञासाएँ रखीं। मेंढक पर प्रयोगों के बारे में उससे तर्क-वितर्क किए।

उससे अगले दिन खाली पीरियड में मैंने अनुराधा से चाय पिलाने के लिए कहा। दो लड़कियों को साथ लेकर वह कैंटीन चली आई। यों तो पहले वर्ष के छात्र-छात्राओं के लिए वरिष्ठ छात्रों की ओर से घोषित वर्जित क्षेत्रों में से कैंटीन भी एक थी। किंतु रैगिंग के बहाने सारी वर्जनाएँ तोड़ने के बाद हमारी कक्षा के लड़के-लड़कियाँ मुक्त-भाव से कैंटीन में आते रहते थे। चाय पीते हुए हलके-फूलके ढंग से मैंने अनुराधा से भी उन विषयों पर बात की जिन पर पिछले दिन मुकुल से चर्चा हुई थी। अतिरिक्त रूप से केवल इतना किया कि प्रारंभ में मैंने अनुराधा की योग्यता की प्रशंसा की। उससे कहा कि तुम तो हमारी कक्षा का सितारा हो। मुकुल और तुम, दोनों के कारण हमारी कक्षा की बौद्धिक पहचान है। अनुराधा की बौद्धिक प्रतिभा की प्रशंसा जाहिर करने से मुझे यह लाभ हुआ कि टैस्ट के बारे में पूछी गई हर बात को उसने बहुत रस ले-लेकर सुनाया।

मुकुल और अनुराधा से बातचीत के बाद मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। विषय के बारे में उनकी जानकारी मेरी तुलना में कम थी। पुस्तकें उन्होंने मेरी तुलना में कम पढी थीं। पढाई को समय उन्होंने मेरी तुलना में कम दिया था। मौखिक परीक्षा में दोनों से प्रश्न पूछने की औपचारिकता का निर्वाह क्रिया गया था। मुझसे मौखिक परीक्षा में जैसे ओर जितने प्रश्न पूछे गए, वैसे और उतने प्रश्न यदि उन दोनों में से किसी से पूछे जाते तो निश्चय ही उनमें से कोई भी उतने प्रश्नों के उत्तर नहीं दे पाता, जितने प्रश्नों के उत्तर मैंने दिए थे। अभिव्यक्ति, बिषय की समझ, स्पष्टता, योग्यता और परिश्रम किसी भी दृष्टि से मैं उनसे बेहतर था। विषय की आमने-सामने बैठकर की गई चर्चा में भी वे दोनों मुझसे कमजोर थे। मैं समझने में असमर्थ था कि फिर मुकुल और अनुराधा में ऐसा वया है जिसके कारण उन दोनों को कक्षा में सर्वाधिक अंक मिले?

मुझे लगा, मेरी तीसरी आँख खुल रही है। सर्वाधिक अंक पानेवाले दस विद्यार्थियों की मैंने तालिका बनाई। इस तालिका में पहले टैस्ट में प्राप्त अंक भी सम्मिलित किए। विश्लेषण करने पर मैं इस नतीजे पर पहुँचा कि पहले से लेकर दसवें स्थान तक अंक पानेवाले सभी विद्यार्थी किसी-न-किसी रूप में प्रभावशाली थे। आई० सी ० एस० अधिकारी या डॉक्टर के पुत्र-पुत्री या भाई-बहन होने के नाते वे लोग अधिक अंक पाने के अधिकारी बने थे। दस में से केवल अनुराधा ही ऐसी थी जिसका संरक्षक उच्च पदस्थ अधिकारी या डॉक्टर नहीं था, मगर उसका शारीरिक आकर्षण और उसके साथ निकटता स्थापित करने की आकांक्षा अनुराधा की योग्यता के मानदंड बन गए थे। योग्यता का आधार जब पढाई नहीं है, अंक जब टैस्ट में किए गए प्रदर्शन के आधार पर नहीं दिए जाते तो मुझे अच्छे अंक कहां से मिलते? मैं परेशान हो गया। अंक कम मिलने के कारणों की तलाश करते-करते जिस जगह आकर खड़ा हो गया था, उससे आगे रास्ता बंद था। बंद रास्ते को कैसे खोला जाए, यही मेरी परेशानी का कारण था। मैं, जिसका पिता थड़ी पर फल बेचता हो, ऐसा साधनहीन छात्र अध्यापकों की दृष्टि में किस तरह काम का लड़का बन सकता है? आई० सी० एस० अधिकारी सरकार और प्रशासन के स्तर पर उनके लिए उपयोगी हैं। शहर एस ० पी० पर किया गया उपकार जरूरत के समय उनके लिए उपयोगी है। सहकर्मी या वरिष्ठ डॉक्टर पेशे की दृष्टि से उनके लिए उपयोगी हैं। खूबसूरत और वाचाल लड़कियाँ उनकी किसी-न-किसी वासना की पूर्ति को ध्यान में रखते हुए उपयोगी हैं। मैं कैसे उपयोगी बन सकता हूँ उनके लिए?

बहुत सोच-विचार के बाद मैं इस निर्णय पर पहुँचा, सच है कि जो कुछ मेरे पास है, उसकी उनमें से किसी के लिए कोई उपयोगिता नहीं है। मेरी नेता की छवि उनके लिए बेकार है। अधिक-से-अधिक उनमें से कोई सोच सकता है कि किसी अवसर पर अपने किसी प्रतिद्वंद्वी के खिलाफ मेरा इस्तेमाल किया जा सकता है। अयाचित, अनपेक्षित अवसर की प्रतीक्षा में मुझे कोई पालना नहीं चाहेगा। पालेगा भी तो रूखी-सूखी रोटी ही देगा। भाषण, लेखन आदि तो यों भी कॉलेजों में सजावट के सामान की तरह होते हैं। मेधा का कोई मूल्य है नहीं। पैसा मेरे पास है नहीं। कोई भौतिक लाभ मैं पहुँचा नहीं सकता। उनकी किसी भी इंद्रिय के लिए मेरा कोई लाभ नहीं है। इसलिए कोई दूसरा तरीका सोचना होगा। बंद रास्ता खोलना जरूरी है। मुझ जैसी स्थितियों में फंसा छात्र अपनी प्रतिभा को नाली में बहता देखकर छटपटाते हुए दम नहीं तोड़ना चाहेगा। दीवार से टकराकर सिर लहूलुहान करना पसंद करेगा, मगर रास्ता खोलने का प्रयत्न वह छोड़ेगा नहीं। बाबा की तरह, सिंधी समुदाय की तरह, रास्ता खोलने की समस्या मेरे सामने थी। जिजीविषा के साथ बुद्धि और मेहनत से बाबा के, सिंधी समुदाय के किए हुए प्रयत्नों ने रंग दिखाना शुरू कर दिया है। मैं भी पूरी ताकत, बुद्धि ओर परिश्रम से इस समस्या का मुकाबला करूँगा। उसी के अनुरूप मैंने एक योजना बनाई।

कक्षा में लेक्चर देते समय कभी-कभी अध्यापक हम लोगों से प्रश्न पूछ लेते थे। हम लोग भी समझने के लिए उनके सामने कुछ शंकाएँ रखते थे। अध्यापक अपनी प्रकृति के अनुसार सारी शंकाओं का समाधान करते थे। कोई प्रश्न का सीधा उत्तर देता था, कोई प्रश्न के आधार पर कुछ दूसरे प्रश्न पूछकर बात समझाता था। कोई हममें से ही किसी से उठकर उस शंकाविशेष का समाधान करने के लिए कहता था। कक्षा में से किसी का हाथ न उठने पर ही वह स्वयं शंका का समाधान करता था। कुछ कक्षा में अध्यापकों द्वारा पूछे गए प्रश्नों के आधार पर, कुछ सहपाठियों द्वारा उठाई गई शंकाओं के आधार पर, कुछ लेक्चर पर चलनेवाली बहस के आधार पर और कुछ पहले व दूसरे टैस्ट में प्राप्त अंकों के आधार पर मैंने ऐसे छात्रों की सूची बनाई जो मेधावी थे किंतु जिन्हें उनकी योग्यता के अनुसार अंक नहीं मिले थे। प्रत्येक छात्र से मैंने व्यक्तिगत रूप से बातचीत की तो पता लगा कि उनमें से हर एक परेशान है। किंतु यह बात उनकी समझ में नहीं आ रही थी कि कोई भी अध्यापक ऐसा क्यों करता है? वे ठीक लिखते हैं, ठीक उत्तर देते हैं, खूब पढ़ते हैं फिर भी उनको अंक कम मिलते हैं। मैंने अपना विश्लेषण उनके सामने रखा तो वे चाैंक गए। एक बार तो उन्हें इस विश्लेषण पर विश्वास नहीं हुआ। किंतु मैंने जब उनके सामने योजना रखी तो उन्हें लगा कि इस योजना के कार्यान्वयन में तो कोई खतरा मोल लेने की बात मैं कह ही नहीं रहा हूँ। किसी का विरोध नहीं करना है, किसी की शिकायत नहीं करनी है, किसी से झगड़ा नहीं करना है। मेहनत पहले से ज्यादा करनी है। सक्रियता पहले से ज्यादा रखनी है। कक्षा में खुलकर बात करनी है। लेक्चर का विषय पहले ही पढकर पूरी तैयारी के साथ कक्षा में जाना है। बस, बुद्धि को या समझ को जाँचने-परखने के लिए जो अध्यापक प्रश्न पूछते रहते हैं, उनका मुँह मुकुल और अनुराधा की ओर मोड़ना है। उन दोनों के निरुत्तर रहने पर हम लोगों में से ही किसी दूसरे को उसका उत्तर देना है।

हम लोगों ने साथ या आसपास बैठने का आग्रह कभी नहीं किया। कक्षा में जहां जगह मिल गई, बैठ गए। किंतु हर एक लेवचर में बहस, प्रश्न, प्रतिप्रश्न बढ़ गए। दिन में एक-दो अवसर ऐसे जरूर आ जाते जब हममें से कोई कहता, ‘‘सर, मुकुल जानता होगा।" ‘‘सर, अनुराधा को आता होगा।" ‘‘सर, मुकुल के लिए तो यह बहुत आसान प्रश्न है।" ‘‘सर, अनुराधा की तो यह बात रटी हुई है।"

प्रत्यक्ष रूप से मुकुल और अनुराधा के खिलाफ कुछ न कहते हुए, हम तोप का दहाना चालाकी से उनकी तरफ मोड़ देते। उन दोनों के धराशायी होने पर हम न हँसते और न मजाक उड़ाते। हममें से ही कोई उठता और कहता, ‘‘सर, मैं बताऊँ?"

कुछ छात्र महत्त्वाकांक्षी होते हैं किन्तु किसी-न-किसी के कारण उनकी महत्त्वाकांक्षा पूरी नहीं हो पाती। सर्वाधिक अंक पानेवाले विद्यार्थी ऐसे लोगों की ईर्ष्या का कारण बन जाते हैं। वश नहीं चलता, इसलिए उनका कुछ बिगाड़ तो नहीं पाते, किंतु उनकी छीछालेदर ऐसे छात्रों को अच्छी लगती है। हमारी कक्षा के अधिकांश छात्र स्वयं को बुद्धिमान, होशियार और समझदार मानते हैं। अंक प्राप्त करने के समर में वे टिक नहीं पाते थे। इसलिए एक खामोश, अज्ञात आक्रोश उनमें पनपने लगा था। मुकुल और अनुराधा कक्षा के सर्वाधिक अंक लेनेवाले विद्यार्थी थे। उन दोनों को ही लगातार नीचा देखना पड़ रहा था। हम सायास चेष्टा करते थे कि उनके विरुद्ध कोई शब्द हमारी जुबान से न निकले, किंतु विद्यार्थियों का वह ईर्ष्यालु वर्ग धीरे-धीरे उनके ऊपर फ़ब्तियाँ कसने लगा। अध्यापकों को महसूस होने लगा कि विद्यार्थी मुकुल और अनुराधा को कक्षा के सर्वाधिक योग्य विद्यार्थियों के रूप में स्वीकार नहीं करते। सक्रिय रूप से बहस में भाग लेने, प्रश्न उठाने, मुकुल और अनुराधा द्वारा अनुत्तरित प्रश्नों के भी उत्तर देने के कारण एक नया समूह उभर आया। इस समूह को दरगुजर करने या इस समूह की प्रतिभा को नकारने या इस समूह को गौण मानकर ध्यान न देने की प्रवृत्ति पर पहले अंकुश लगा। फिर क्रमशः मुकुल और अनुराधा मुख्य धारा से किनारों की तरफ़ धकियाए जाने लगे। उनके प्रति पूरी सहानुभूति के बावजूद अध्यापक उन्हें संरक्षण देने की स्थिति में नहीं थे। ऐसा वातावरण बनाने के लिए, अध्यापकों के सोच को उद्‌वेलित करके उन्हें मेधा को महत्त्व देने के लिए तैयार करने की प्रक्रिया में हम सबको कठिन परिश्रम करना पड़ा। पाठ तैयार करके यदि समय मिलता तो हम लोग सभी या एक, दो, तीन जितने लोग भी मिल जाते, पाठ पर आपस में बहस, बातचीत करते। पाठ को समझने में जो कच्चाई रह जाती, वह उस बहस और बातचीत में दूर हो जाती। सबसे बड़ी बात यह थी कि सब लोगों ने मन से यथास्थिति के साथ समझौता कर लिया था। बुद्धि उनके पास थी, मेधा उनके पास थी, पाठ्‌य-पुस्तकें उनके पास थीं, वे मेहनत करना चाहते थे, किंतु हताश थे कि मेहनत का प्रतिफल उन्हें नहीं मिलता। दिशा बदलती प्रतीत हुई तो मेहनत करने का उत्साह बढ़ गया। कुछ मेधावी छात्र एक अध्याय पढकर उस पर बातचीत कर लें तो बाकी रह क्या जाता है? पूर्वापेक्षा हमारी तैयारी का अनुपात भी बहुत बढ़ गया।

तीसरे टैस्ट में वर्चस्व उन विद्यार्थियों का रहा जो सचमुच सुपात्र थे। मुकुल और अनुराधा झटके से छः-सात सीढियाँ लुढक गए। तीसरे टैस्ट में मैं तीसरे स्थान पर रहा। तीनों टैस्टों के अंक मिलाएं तो मैं कहीं नहीं था मगर वार्षिक परीक्षा चालीस अंकों की थी। साठ में से अब तक जो अंक हमें मिले थे, इन चालीस में से प्राप्त अंकों में जोड़कर वर्ष-भर की स्थिति बननी थी। जनवरी में तीसरा टैस्ट, अप्रैल में वार्षिक परीक्षा, 10 मई को परिणाम और कक्षा में सातवाँ स्थान। यह स्थान अगले वर्ष सातवाँ नहीं रहेगा, में आश्वस्त हूँ।

मेडीकल कॉलेज में प्रवेश के बाद पहली बार डिसैक्शन हॉल में जाते हुए जो अनुभूतियाँ हुईं, उनकी चर्चा नहीं करूँगा तो अपनी डायरी की सार्थकता को संदेहास्पद सिद्ध करूँगा। बड़ा-सा हॉल। फार्मेलीन की तेज गंध। दिमाग को अजीब तरह की दहशत और रहस्य में डूबने को विवश करता वातावरण। मेडीकल कॉलेज में पढ़ते हैं। मुर्दे का डिसैक्शन किए बिना मानव की शरीर-रचना को ठीक प्रकार से समझना संभव नहीं है। चीर-फाड़ करके मुर्दे के अंग-प्रत्यंग का अध्ययन करना भावी डॉक्टर के लिए जरूरी है। फार्मेलीन में नहीं रखा गया तो मुर्दा शरीर सड़-गल जाएगा। चीर-फाड़ करने के लिए मुर्दे को बिना कपड़े पहनाए, बिना चादर ओढाए डिसैक्शन टेबल पर रखना पड़ेगा। मेडीकल कॉलेज में प्रवेश लेनेवाला प्रत्येक विद्यार्थी इन सच्चाइयों से परिचित होता है। किंतु कुछ डिसैक्शन हॉल का रहस्यमय वातावरण, कुछ फार्मेलीन की तेज गंध, कुछ नंगे, कुछ काले, कुछ विकृत मुँह वाले मुर्दे, कुछ सीजर्स, कुछ फोरसैप्स, कुछ स्केलपेल जैसे डिसैक्शन के काम में आने वाले उपकरण, कुछ संस्कार, कुछ भ्रांतियां, कुछ वहम मिलकर विचित्र अहसासों से भरते हैं। सहपाठियों की स्थिति विचित्र थी। दो-एक लड़कियाँ बेहोश होकर गिर गईं। लड़के हों या लड़कियाँ, दहशत सबके चेहरों पर पढी जा सकती थी। मेरे मन-मस्तिष्क पर हावी हो जाएँ, भयभीत करनेवाली ऐसी भावनाएँ तो पैदा नहीं हुई किंतु आठ-दस दिनों तक हर समय लगता था कि मेरे हाथों से मुर्दा शरीरों की गंध आ रही है और मेरा सिर फार्मेलीन की गंध से चकरा रहा है। धीरे-धीरे अभ्यस्त होने के बाद तो मुर्दा शरीरों पर जाने-अनजाने कोहनी टिका कर खड़े होने में भी कोई संकोच नहीं होता था, किंतु पहले कुछ दिन लगता था कि हम एक कमरे में कई मुर्दों के साथ बंद कर दिए गए हैं। सीजर्स, फोरसैप्स और स्केलपेल से छूते ही ये मुर्दे उठकर बैठ जाएँगे और हमारा गला पकड़ लेंगे।

काका भोजामल के लड़के उल्हासनगर से दुकान समेटकर जयपुर आ गए हैं। एक गली में किराए पर दुकान लेकर उन्होंने किराने का काम शुरू किया है। काका भोजामल ने भाग-दौड़ करके दो कमरों और रसोईघर, स्नानघर वाला एक मकान किराए पर लिया है। दो में से एक कमरा हॉलनुमा है। परदा लटकाकर उन्होंने उस कमरे को दो हिस्सों में बाँट दिया है। व्यावहारिक रूप से उनके पास तीन कमरे हो गए हैं। परिवार में आठ वयस्क और पाँच बच्चे हैं। जोड़-तोड़ बैठाकर काम चलानेवाली स्थिति बनी हुई है। किराने की दुकान दोनों विवाहित भाई सँभालते हैं। वीरू थड़ी पर नौकरी करता है। थड़ी से होनेवाली आमदनी, किराने की दुकान से होनेवाली बचत और वीरू का वेतन मिलाकर परिवार का खर्च आराम से चल जाता है। थड़ी पर काम इस बीच काफी बढ़ गया है। आकर माल लेने वाले लगे-बंधे ग्राहक पूर्वापेक्षा काफी संख्या में बढे हैं। बाबा को कुछ ठेके लेने में सफ़लता मिल गई है। ठेके का माल निश्चित समय पर पहुँचाने का काम वीरू करता है। कुछ ग्राहकों के घरों पर भी नियमित रूप से माल जाता है और वीरू ही यह माल पहुँचाता है। भाव लगाना, ग्राहकों को सँभालना, स्थायी ग्राहक को बनाए रखना, अन्य स्थानों से छिटककर आए ग्राहक को झेलना और थड़ी की सार-सँभाल मुख्यतः काका भोजामल करते हैं। मंड़ी से माल की खरीदारी, विभिन्न संस्थानों और ठेकों से संबंधित व्यक्तियों से संपर्क, महत्त्वपूर्ण ग्राहकों के साथ निकटता जैसे काम मुख्यतः बाबा करते हैं। दोनों पहले की तरह सब कुछ एक-दूसरे को बताते हैं। ज़रूरी हुआ तो पहले एक-दूसरे से सलाह करते हैं, इसके बाद उस काम में हाथ डालते हैं। सब देखने वालों को लगता है कि बाबा और काका भोजामल भाई हैं। कोई बाबा को छोटा भाई समझता है और कोई काका भोजामल को।

मीनू से मिलना होता रहता है। कभी मैं काका भोजामल के घर चला जाता हूँ और कभी मीनू हमारे यहाँ आ जाती है। जब उनके घर जाता हूँ तब तो मीनू से कोई विशेष बात नहीं हो पाती है किंतु जब मीनू हमारे यहां आती है तो ढंग से बातचीत हो जाती है। उसके पास बताने को अधिक कुछ होता नहीं है। कोई सहेली उसकी है नहीं। पड़ोस की दो-तीन लड़कियों के साथ हँसना-बोलना भर हो जाता है। वह पढती नहीं है। सारा दिन धर का काम और घर का वातावरण। मेरे पास मेडीकल कॉलेज की बातों का भंडार होता है। किसी-न-किसी तरह की उलझन होती है। आक्रोश, सिद्धांत और व्यवहार की गंध में रची-बसी घटनाएँ होती हैं। यह अब भी मेरे लिए आश्चर्य का कारण है कि इस तरह की पृष्ठभूमि, इस तरह के संस्कार, इस तरह की शिक्षा-दीक्षा न होते हुए भी मीनू ठीक वैसा ही क्यों सोचती है, जैसा कि मैं सोच रहा होता हूँ। मेडीकल कॉलेज की बिल्डिंग भी उसने कभी नहीं देखी, मगर मेडीकल कॉलेज की कार्यविधि, वहाँ की अंदरूनी समस्याएं, वहाँ की राजनीति उसे इतनी जल्दी समझ में आ जाती है कि एकाएक विश्वास नहीं होता। मैं नहीं जानता कि पूर्वजन्म के संस्कार होते हैं या नहीं होते, मैं यह भी नहीं जानता कि पुनर्जन्म सचमुच होता है या नहीं होता, किंतु मीनू के मामले में पूर्वजन्म के संस्कारों और पुनर्जन्म के सिद्धांत पर विश्वास करने की इच्छा होती है। इसे मेरी विवशता भी कहा जा सकता है, क्योंकि मीनू की समझ और उसके सोच की व्याख्या करने के लिए मेरे पास कोई तर्क नहीं है।

सारा साल चली गहमागहमी के बावजूद मैंने दो ट्‌यूशन निभाए हैं। योग्यता छात्रवृत्ति की राशि मार्च के प्रारंभ में मिली। प्रवेश के समय मेडीकल कॉलेज की फीस, ऐप्रन, दो जोड़ी सफेद पैंट-कमीज के लिए गत वर्ष बाबा को इधर-उधर से रुपया जुटाना पड़ा था। यद्यपि किताबें मैंने वही खरीदीं जो बहुत जरूरी थीं। मगर बाबा के ऊपर किताबों का बोझा भी पड़ा। ट्‌यूशन और छात्रवृत्ति से आए हुए रुपए बाबा ने मुझसे लिये नहीं, मैंने थोड़ा-बहुत ही खर्च किया होगा। बाकी रुपया इस साल की फीस में काम आएगा।

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(8)

6 सितम्बर, 1951

छात्रसंघ के विभिन्न पदों पर चुनाव के लिए आवेदन-पत्र जमा कराने की आज अंतिम तारीख थी। नियमानुसार प्रथम वर्ष के छात्र मतदान तो कर सकते हैं किंतु चुनाव नहीं लड़ सकते। इस दृष्टि से हमारी कक्षा को चुनाव लड़ने का अवसर पहली बार मिला है। गत वर्ष रैगिंग के मुद्‌दे को लेकर हम लोगों ने चुनावों का बहिष्कार किया था। चुनाव लड़नेवाले 3 वरिष्ठ छात्रों ने अप्रत्यक्ष रूप से संदेश भेजकर हम लोगों को मतदान करने के लिए राजी करने की कोशिश की थी। हमारा जवाब एक ही था, रैगिंग के मुद्‌दे पर हमारा समर्थन करने की घोषणा करो। नए छात्रों के सभी मत तुम्हें और तुम्हारे प्रत्याशियों को मिलेंगे।

चुनाव लड़नेवाले छात्रों के सामने दोहरा सकट था। कोई भी एक प्रत्याशी-समूह हमारा समर्थन करता तो उसका विरोधी प्रत्याशी-समूह इसको मुद्‌दा बना लेता। हमसे चार गुना मत वरिष्ठ छात्रों के थे। कोई भी प्रत्याशी चार मत खोकर एक मत लेने की बात नहीं सोच सकता था। इसलिए हमारी शर्त के अनुसार किसी प्रत्याशी ने घुमा-फिराकर भी रैगिंग के मुद्‌दे पर हमारा समर्थन करने की बात नहीं कही। इतना जरूर हुआ कि चुनाव-प्रचार में रैगिंग वाले प्रकरण को किसीने नहीं छुआ। हालाँकि रैगिंग कभी चुनाव-प्रचार में चर्चा का विषय बने, ऐसी नौबत आज से पहले कभी नहीं आई थी। इसलिए पिछले साल इन दिनों का यह ज्वलंत विषय चुनाव-चर्चा में नहीं आया, इसे अपनी उपलब्धि मानने का कोई कारण हमारे पास नहीं है। वरिष्ठ छात्रों मे रैगिंग के संबंध में कुछ नहीं कहा या कहा जाए हमारे मत का समर्थन नहीं किया, इसलिए अपने निर्णय के अनुसार हमारी कक्षा के एक भी विद्यार्थी ने मतदान में भाग नहीं लिया। हमारे बहिष्कार को बहुत तूल मिला हो, छात्रसंघ या प्रशासन के स्तर पर कहीं किसी ने ध्यान दिया हो, ऐसा नहीं हुआ। हम लोगों ने जरुर समझा था कि हर स्तर पर हमारे बहिष्कार को महत्त्वपूर्ण घटना माना जाएगा। लेकिन यह घटना क्योंकि महत्त्वपूर्ण नहीं थी इसलिए महत्त्वपूर्ण समझी भी नहीं गई। अपने खेमे में हमारे साथी बहुत तिलमिलाए थे लेकिन चुनावों में मतदान किसने किया और किसने नहीं किया, इस पर टिप्पणी करने की किसी को क्या जरूरत है? चुनाव परिणामों की घोषणा के लिए तो एक मत पड़ना ही काफी है। यों है यह विचित्र बात कि छोटी-छोटी समितियों, सोसाइटियों में बैठकों के लिए निर्धारित कोरम आवश्यक होता है, मगर चुनाव जैसे महत्त्वपूर्ण अनुष्ठान में कोरम की बात कोई नहीं कहता। गत वर्ष यदि कोरम का प्रावधान होता तब भी शायद अंतर नहीं पड़ता। बहिष्कार करनेवाले छात्र कुल छात्रों के बीस प्रतिशत ही तो थे। अस्सी प्रतिशत मतदाता दुनिया के किसी भी संविधान के कोरम से ज्यादा होंगे। मेडीकल कॉलेज के चुनावों में कोरम का विचार बहस का मुद्‌दा है, इस बात को स्वीकार करने से शायद ही कोई इनकार करेगा।

कुल मिलाकर देखें तो मेडीकल कॉलेज में चुनाव लड़ने और चुनावों में मतदान करने का अवसर हम लोगों को इस वर्ष पहली बार मिल रहा है। पिछले वर्ष, पूरा साल घटनाचक्र कुछ इस तरह चला कि चक्रवात में फंसे रेतकण की तरह विवश-सा मैं केंद्र में बना रहा। चुनाव की छूट मुझे उपलब्ध नहीं थी। रैगिंग का प्रकरण शुरू हुआ तब भी, और अंकोंवाले प्रकरण में रणनीति बनी, तब भी। घटनाओं ने इस तरह अपने जाल में फंसाया कि साहसपूर्वक लड़ने के अतिरिक्त कोई विकल्प था ही नहीं मेरे पास। मैंने साहस ही नहीं, धेर्य और बुद्धि से भी काम लिया और सफलतापूर्वक संकटों पर काबिज हो सका, यह अलग बात है। किंतु सचमुच जूझ जाने के अतिरिक्त मैं कर भी क्या सकता था उन परिस्थितियों में? बाबा ने अपने आपको इस उम्र में बदल लिया, वे धन्य हैं। जिसे ठीक समझता हूँ उस पर अड़ जाने की जिद मुझसे छोड़ी नहीं जाती। हो सकता है, किसी समय बाबा की तरह मैं भी सही और गलत का पैमाना अपने स्वार्थ को मान लूं। किंतु अभी तो मैं मन से इस स्थिति में नहीं हूँ कि अवांछित समझौते कर सकूं। मेरा गठन इस तरह का नहीं होता तो शायद कुछ नहीं होता। किंतु जैसी बनावट मेरी है. उसके चलते गत वर्ष चला धटनाक्रम और उसके केंद्र में मेरी उपस्थिति अस्वाभाविक नहीं है।

बाबा एकांगी रहे हैं। सिंध में स्वतंत्रता के लिए लड़ते हुए उन्होंने आदर्शों के साथ तिलमात्र भी समझौता नहीं किया। अब अर्थोंपार्जन की दौड़ में वे आदशोर्ं की तिलमात्र भी चिंता नहीं करते। मेरे व्यवहार में इस प्रकार का एकांगीपन नहीं है। आदर्श और व्यावहारिकता का सम्मिश्रण मेरे निर्णयों को प्रभावित करता है। झुकाव आदर्शों की ओर ज़रूर होता है किंतु व्यावहारिक पक्ष ध्यान में रहता ही न हो, ऐसा नहीं है। लाभ-हानि का आकलन करते हुए आदर्श के साथ उचित समझौता करने में मुझे हिचकिचाहट नहीं होती है। आदर्श को मैं सर्वोपरि मानता हूँ। आदर्श का महत्त्व मैं स्वीकार करता हूँ। किंतु व्यावहारिकता-शून्य आदर्श की परिणति आदर्श शून्य व्यावहारिकता में हो जाती है। बाबा इसके प्रमाण हैं। जो प्रतिमान मुझे आज स्वीकार्य हैं, कल और परसों भी मेरे लिए ग्राह्य रहेंगे। यह अगर संभव होगा तो केवल इसलिए क्योंकि मैंने व्यावहारिकता को तिलांजलि देकर आदर्शों को स्वीकार नहीं किया है।

सहपाठियों, अनेक वरिष्ठ छात्रों और अध्यापकों का आग्रह था कि इस बार छात्रसंघ के महासचिव पद के लिए मैं चुनाव लड़ूं। इस आग्रह का एक छोर उनकी इच्छा और दूसरा छोर उनका दबाव था। उनके विचार से महासचिव के रूप में छात्र-हितों की रक्षा करने का काम मैं अच्छी तरह कर सकूंगा। मुझे जिस तरीके से समस्याओं से निपटते हुए सबने देखा था, उसी के आधार पर यह विचार बना होगा। स्वतंत्रता के बाद देश में लोकतंत्र की अवधारणा जोर पकड़ रही है। सोचने-समझने के तरीके बदल रहे हैं। प्रतिमान बदल रहे हैं। जिन लोगों ने आजादी से अपनी असीम अपेक्षाएँ जोड़ रखी थीं, उनका मोहभंग होने लगा है। अत्याचार, अनाचार, शोषण, गरीबी, अन्याय, परपीड़न, भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, दमन और दबाव में वृद्धि हुई है। अंग्रेजों की सत्ता और अपने लोगों की सत्ता में अंतर दृष्टिगोचर नहीं होता। विरोध और समर्थन के बीच कशमकश चल रही है। जब तक सुस्थिरता आए, पुराने और नए के बीच सेतु बनने की क्षमता रखनेवाले लोगों की आवश्यकता बढ़ गई है। मेडीकल कॉलेज का प्रशासनिक ढाँचा अंग्रेजों की रीति-नीति से काम करता है जबकि अब देश का वातावरण स्वछंदता का पक्षधर बन रहा है। कक्षाओं में, अस्पताल में, चाल-चलन, व्यवहार, आचार-विचार के स्तर पर अध्यापकों की छात्रों से अपेक्षाएं उसी तरह की हैं, जिस तरह की अपेक्षाएं आज के अध्यापकों से उनके अधिकांश अंग्रेज़ अध्यापकों ने की होंगी। आज छात्र, अध्यापक से स्वयं को बहुत कमतर मानना नहीं चाहता। पुरानी रीति-नीति का स्वछंदता के साथ, पुराने दौर की अपेक्षाओं का नए दौर के अहम्‌वाद के साथ सामंजस्य बैठानेवाले छात्र नेता के रूप में मेडीकल कॉलेज से संबद्ध विभिन्न स्तर के लोग मुझमें संभावनाएँ देखते हैं।

गलत को बरदाश्त न कर पाने के कारण मैं चाहे-अनचाहे स्वयं को रोकते-रोकते भी भंवर में छलांग लगा देता हूं। सिद्धातों में आस्था के बावजूद समझौते का जो रास्ता मैं चुनता हूँ, उसमें गैर-जरूरी अड़ियलपन नहीं होता है। आगे बढकर उड़ते तीर को पकड़ता हूँ और उसे अपने हाथ में थामे रखने की जिद नहीं करता हूँ। यदि धारा का रुख वांछित दिशा में नहीं है तो पूरी एकाग्रता और पूरी ताकत के साथ प्रयत्न में जुट जाता हूँ कि धारा का रुख बदल जाए। इस प्रयत्न में मैं अकेला नहीं जुटता, दूसरे लोगों को भी साथ लेता हूँ। मेरे उद्‌देश्य अवांछित और अनुचित नहीं होते हैं। जिन साधनों का उपयोग मैं उद्‌देश्यों की प्राप्ति के लिए करता हूँ वे भी यथासंभव अवांछित और अनुचित नहीं होते हैं। लक्ष्य कभी ऐसे नहीं होते जिन्हें प्राप्त करना संभव न हो। मुश्किल हो सकता है, किंतु असंभव लक्ष्य पर मैं शरसंधान नहीं करता हूँ। सफलता मिले, चाहे न मिले, प्रयत्न करने में कोई कमी नहीं छोड़ता हूँ। यदि असफलता मिलती है तो निराश होकर बैठ नहीं जाता हूँ। असफलता के कारण तलाश करता हूँ। उन कारणों पर विचार करता हूँ। उनका विश्लेषण करता हूँ। उनको ध्यान में रखकर नई रणनीति बनाता हूँ और सफलता हासिल करने के लिए फिर प्रयत्नशील हो जाता हूँ।

इसके बावजूद मैं नेता नहीं हूँ। नेता को स्वभाव से महत्त्वाकांक्षी होना चाहिए। महत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए उसे हर तरह की नैतिक-अनैतिक, पवित्र-अपवित्र, हिंसक-अहिंसक, शासित-बाधित, जोड़-तोड़ और उठा-पटक में सिद्धहस्त होना चाहिए। नेतृत्व का गुण, समस्याओं को सुलझाने की रचनात्मक या विध्वंसात्मक प्रवृत्ति, नेता बनने की दृष्टि से पर्याप्त गुण नहीं है। अनैतिकता सिद्धांततः मुझे अप्रिय है। अपवित्रता से बचने की मैंं हर संभव कोशिश करता हूँ। हिंसा को मैंं अपना अंतिम और विवश परिस्थितियों में काम में लेनेवाला अस्त्र मानता हूँ। जोड़-तोड़ और उठापटक अनैतिकता, अपवित्रता और बौद्धिक हिंसा के परिणाम होते हैं। इसलिए संस्कारगत, स्वभावगत या परिस्थितिगत कारणों से जो भी गुण मुझमें हैं, उनके आधार पर मैं सफल नेता बन सकता हूँ, ऐसा मुझे नहीं लगता। छात्रसंघ का महासचिव यदि अच्छा नेता नहीं है तो संभव है, वह कार्य-निष्पादन सफलतापूर्वक न कर पाए। मेरी असफलता उन सबकी असफलता होगी जो समझतेे हैं कि मैं महासचिव के रूप में सफल रहूँगा।

यदि कोई ऐसा लड़का महासचिव बनता है जिसे मेरी तरह सोचनेवाले छात्रों का सहयोग और समर्थन प्राप्त हो तो इस बात की संभावना अधिक होगी कि वह छात्रों, अध्यापकों व प्रशासन की अपेक्षाओं पर खरा उतरे। अति न करे तो हमलोगों का सतत सहयोग उसे मिलता रहेगा। नेता के रूप में जोड़-तोड़, उठा-पटक वह करता रहेगा। निर्णय लेकर उनकी घोषणा, उनका कार्यान्वयन वह करता रहेगा। हम लोगों को कोई बात ठीक नहीं लगती तो उसे बता देंगे। अधिक-से-अधिक यह होगा कि हमारी बात एकाधिक बार वह नहीं मानेगा। ऐसी स्थिति में हम भी शेष छात्रों की तरह खामोशी से अध्ययन करते रहेंगे। वैसे एम.बी.बी.एस. का यह दूसरा वर्ष है। इसके बाद भी तीन वर्ष मुझे मेडीकल कॉलेज में रहना है। यदि महसूस होता है कि स्वयं महासचिव बनकर ही काम किया और कराया जा सकता है तो लड़ लेंगे चुनाव। इन विचारों की मैंने अपने समूह के पंद्रह-बीस लड़कों से चर्चा की। मुझे महासचिव का चुनाव लड़ाने की दृष्टि से वे लोग इतने अधिक उत्साहित थे कि पहले तो किसी ने मेरी बात सुनी ही नहीं। बहुत कहने पर मेरी बात तो सुन ली किंतु सहमत उनमें से एक भी नहीं हुआ। विशेष रूप से नेता के अपेक्षित गुणों की मेरी व्याख्या को किसी ने भी स्वीकार नहीं किया। मेरी सीमाओँ, मेरी आर्थिक स्थिति, समय के संदर्भ में मेरी व्यस्तताओं का विवरण भी जब उनके गले नहीं उतरा तो मैंने चर्चा की दिशा बदली, ‘‘ऐसा करते हैं कि इस बार महासचिव पद के लिए हम लोग कौशल किशोर को चुनाव लड़वाते हैं। हमारा पूरा समूह उसके साथ रहेगा। समूह साथ रहेगा, इसका मतलब है कि मैं भी साथ रहूँगा। नाम के लिए महासचिव कौशल किशोर होगा किंतु कोई भी काम वह अकेला फैसला लेकर नहीं करेगा। चुनी हुई कार्यकारिणी से बात बाद में करेगा, हम लोगों के साथ विचार-विमर्श पहले करेगा। कौशल किशोर में हम बीस लड़कों का समूह समाया हुआ होगा। इस साल महासचिव एक नहीं, इवकीस होंगे।"

मेरे प्रस्ताव का विरोध सबसे पहले कौशल किशोर ने करना चाहा। मैंने उसको बोलने से रोक दिया, ‘‘तुझे कुछ नहीं कहना है। नाम तेरा चलेगा इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी बीस लोग अपनी जुबान काटकर तुझे दे देंगे। तय यह होना है कि इवकीस महासचिवोंवाला विचार स्वीकार करने योग्य है या नहीं?"

जैसा मैं चाहता था, वही हुआ। बहस की दिशा बदल गई। इक्कीस लड़के बात करें, फैसला लें इसके बाद कार्यकारिणी विचार करे और प्रस्ताव को अस्वीकार कर दे तो वे बीस लड़के क्या कर लेंगे? एक है महासचिव। कार्यकारिणी की बात उसे वैधानिक रूप से माननी पड़ेगी। कार्यकारिणी की बैठक में शिरकत वही करेगा। जवाब वहीं देना पड़ेगा उसे, सवालों की बौछार का। कौशल किशोर या कोई और उलटा फँस जाएगा इस चक्कर में। हम लोगों को पूरा समय छात्रसंघ की नेतागिरी तो करनी नहीं है कि इस तरह वक्त बरबाद करते रहेंगे। कभी अपने आपको गैर-कानूनी ढंग से महासचिव मानने वाले बीस लोगों के साथ बैठकर परेशानी में डालेंगे और कभी कार्यकारिणी के साथ बैठकर दिमाग खराब करेंगे। सारा दिन यही करेंगे तो पढेंगे कब? इससे तो अच्छा है कि हम लोग महासचिव का चुनाव लड़ने की बात सोचे ही नहीं। सब लोग मिलकर महासचिव पद के लिए चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों में से जिसको मत देना है, उस पर विचार कर लेंगे। कौनसा पैनल अपेक्षाकृत बेहतर है, यह देखकर अन्य पदों के बारे में सोच लेंगे।

सबसे अधिक दबाव मेरी कक्षा के इस समूह का था, चुनाव लड़ने के लिए। बाकी लोगों की इच्छा और आग्रह का सामना करना आसान था। उनमें से कोई जिद करके, पीछे पड़कर या तर्क देकर चुनाव के लिए राजी करने की कोशिश करेगा, इस तरह की आशंका नहीं थी। हो सकता है कुछ लोग ऐसे भी रहे हों जिनकी इस बात में बहुत रुचि न रही हो कि मुझे महासचिब बन जाना चाहिए। औपचारिकतावश मुँह देखकर टीका लगाने वाले ढंग से उन लोगों ने यह बात उछाल दी हो। इसलिए जिस समूह में उठता बैठता था, जहां से मुझे मेडीकल कॉलेज में अपनी शक्ति की अनुभूति होती थी, वहाँ से अनापत्ति प्रमाण-पत्र पाने के बाद मैं निश्िंचत हो गया। अब मैं मतदाता हूँ। दर्शक हूँ, किंतु खिलाड़ी नहीं हूँ।

महासचिव पद के लिए चुनाव लड़ना चाहिए, सच कहा जाए तो अपने साथियों के मस्तिष्क में यह बीज अनजाने में मैंने ही बोया था। गत वर्ष रैगिंग प्रकरण सुलझाने के बाद जो आशंकाएँ मुझे चिंतित करती रही थीं मैंने अपने समूह में उनका जिक्र किया। दो जुलाई को कॉलेज खुला था। यह बात तीन जुलाई की है। मुझे स्पष्ट रूप से महसूस हुआ कि मेरे लगभग सभी साथी ठीक वैसा ही व्यवहार करने की बात सोचे हुए थे, जिसकी आशंका मुझे थी। जब सिद्धांतों की छाया में रैगिंग के नाम पर बढती कालिमा को धोने के लिए खून बहाने को तैयार मेरे साथी, वरिष्ठ छात्र बनते ही कनिष्ठ छात्रों की रैगिंग करने के अपने अधिकार का उसी वहशियाना तरीके से इस्तेमाल करने के इच्छुक हैं, तो साथ पढ़ने वाले अन्य छात्र-छात्राओं से तो कोई अपेक्षा मुझे रखनी ही नहीं चाहिए। एक छात्र ने तो कहा भी, ‘‘यार, पिछले साल रैगिंग की खिलाफत करने का मतलब यह थोड़े ही है कि रैगिंग नहीं करेंगे।"

‘‘यह मतलब हमारा पिछले साल भी नहीं था। पिछले साल भी हमने विरोध रैगिंग का नहीं किया था। हमने विरोध किया था रैगिंग के नाम पर की जाने वाली गुंडागर्दी का। हमने विरोध किया था उस प्रवृत्ति का जिसने रैगिंग को अत्याचार, परपीड़न और अनैतिकता का पर्याय बना दिया था।" मैंने उत्तेजित होकर कहा।

समूह में सन्नाटा खिंच गया। वातावरण को सामान्य बनाने के लिए एक ने हल्का-सा हँसकर कहा, ‘‘रैगिंग में से फूहड़ता माइनस हो जाए, फिर तो इजाजत है न?"

‘‘इस साल तुमने रैगिंग शालीनता के साथ ली। परिचय किया, मेडीकल कॉलेज के तौर-तरीके समझाए। शिष्टाचार के बारे में बातचीत की। नए छात्रों को बताया कि डॉक्टर का मरीज के प्रति क्या कर्त्तव्य होता है। थोड़ी-बहुत हँसी-मजाक की। गाना या चुटकुला सुना-सुनाया, यही न?"

‘‘हां, यही करेंगे। रैगिंग में होना ही यह चाहिए जो तूने बताया है।"

‘‘इस साल तुमने रैगिंग इसी तरह की। तुम लोगों में से कोई दावे के साथ कह सकता है कि अगले साल तुम्हारे इस साल के कनिष्ठ छात्र भी रैगिंग उसी तरह करेंगे?"

जवाब किसी ने भी नहीं दिया। मैंने फिर कहा, ‘‘रैगिंग की शुरुआत जब भी हुई होगी, जिसने भी की होगी, उसने नहीं सोचा होगा कि आगे चलकर इसका यह हश्र हो जाएगा। इसलिए शालीन तरीके से रैगिंग को शुरुआत करने से यह समस्या समाप्त नहीं होगी।"

‘‘खतम कर यार! नहीं करेंगे इस साल रैगिंग, बस!"

‘‘नहीं, हल इस तरह भी नहीं निकलेगा।"

‘‘तू साफ-साफ क्यों नहीं बोलता कि क्या करना है? बात को उलझाने में तुझे मजा आता है?"

मैं मुसकराए बिना नहीं रह सका, ‘‘हम लोगों को नई परंपरा शुरु करनी होगी इस साल।"

‘‘कौन-सी नई परंपरा शुरू करानी है?"

‘‘मैं सोचता हूँ कि जुलाई के पहले या ज्यादा-से-ज्यादा दूसरे सप्ताह में द्वितीय वर्ष के छात्र नए छात्रों को चाय-पान के लिए बुलाएंगे। जो बातें बतानी हैं उनको सामूहिक रूप से या छोटे-छोटे समूहों में बाँटकर बता दी जाएँ। इसके बाद उनमें से हर एक को यह बताने के लिए बुलाया जाए कि आज हुई बातचीत से उसने नया सीखा? इसके साथ कोई गीत, भजन, कविता, नृत्य, चुटकुला, एकाभिनय, आवाजें निकालना, हँसना, रोना, भाषण देना, कुछ-न-कुछ प्रस्तुत करना आवश्यक होना चाहिए। इसी दौरान सब नए छात्र अपना परिचय देते रहेंगे। कुछ वरिष्ठ छात्रों का परिचय नए छात्रों को वैसे ही मिल जाएगा। बाकी लोग चाय-पान के दौरान घूम-घूमकर बातचीत करके परिचय भी देते रहेंगे और घुलते-मिलते भी रहेंगे। चाय के लिए आमंत्रित करके वरिष्ठ छात्र नए छात्रों को संकेत देंगे कि हम तुम्हारे संरक्षक हैं, पोषक हैं। हम तुम्हारे शोषक नहीं हैं। रैगिंग में जो पकड़ में आता है उसकी दुर्गति तो हो जाती है, किंतु उसे ज्यादा कुछ सीखने को नहीं मिलता। इस तरह प्रत्येक नए छात्र और छात्रा को जो कुछ बताया जाना चाहिए, संप्रेषित करना संभव हो सकेगा। गाकर, नाचकर, हँसकर, गप-शप करके नए और पुराने विद्यार्थियों के बीच खुलापन लाया जा सकेगा। नए छात्र स्वयं को पुराने छात्रों के निकट महसूस कर सकेंगे। सबसे बड़ी बात यह कि अब तक अगस्त के अंत में जाकर कहीं नए छात्रों को रैगिंग की दहशत भरी संभावनाओं से मुक्ति मिलती है। जुलाई और अगस्त के दो माह वे ठीक तरह से न कक्षाओं में बैठ पाते हैं और न पढ़ पाते हैं। सितंबर में चुनाव वक्त चुरा ले जाते हैं। इस परंपरा को शुरू करके हम लोग नए छात्रों को तुरंत पढाई में लग जाने की सुविधा प्रदान करेंगे। यह सिलसिला साल-दर-साल चला तो रैगिंग की बेहतर पूर्ति हो जाएगी। रैगिंग का उचित स्थानापन्न मिल जाने के कारण पुराने रास्ते की तरफ लौटनेवाले छात्रों की छवि अपने साथियों में अच्छी नहीं रहेगी।"

‘‘मुझे तो तेरी बात बहुत अच्छी लगी।"

‘‘एक को नहीं, अगर सबको मेरा सुझाव अच्छा लगा हो तो बताओ।" मैंने कहा।

सब लोग मेरी बात से सहमत थे। ‘‘कॉलेज के नए साल का आज दूसरा दिन है। नए छात्रों की रैगिंग करने का इरादा रखनेवाले हमारे सहपाठियों ने अपना काम शुरू कर दिया होगा। बायोकैमिस्ट्री की कक्षा थोड़ी देर में लगेगी। उसके बाद वहीं सबसे बात कर लेते हैं।"

बायोकैमिस्ट्री की कक्षा के तुरंत बाद मैं प्लेटफॉर्म पर आ गया। संक्षेप में गत वर्ष के संघर्ष की पृष्ठभूमि, संघर्ष के मुद्‌दों और विजय के कारण अपने कंधों पर आए दायित्वों की मैंने चर्चा की। फिर नई परंपरा स्थापित करने के लिए योजना प्रस्तुत करते हुए मैंने सबसे सुझाव माँगे। कक्षा के कुछ लड़के किसी भी कीमत पर इस योजना का पालन करने या रैगिंग न करने के पक्ष में नहीं थे। मेरे समूह के छात्रों ने जहाँ जोर देकर इस योजना को कार्यान्वित करने का समर्थन किया, वहीं कुछ छात्रों ने पिछले साल दी हुई वरिष्ठ छात्रों की दलीलें दोहराते हुए रैगिंग करना अपना अधिकार स्थापित किया। मुझे प्रस्तावित योजना का विरोध करनेवाले लड़कों के स्वरों की कटुता से आभास हुआ कि बहुमत के आधार पर निर्णय करने के बाद भी वे उसका पालन नहीं करेंगे। जिन छात्रों को विचार व्यक्त करने थे, वे सब बोल चुके तो मैं फिर प्लेटफॉर्म पर आया, ‘‘साथियो, सुझावों और विचारों से स्पष्ट है कि रैगिंग करने, न करने और नई परंपरा प्रारंभ करने वाले प्रश्न पर हम लोग एकमत नहीं हैं। गत वर्ष अनैतिक तरीकों से रैगिंग करने, वीभत्सता, उत्पीड़न और अनाचार के विरुद्ध जो संघर्ष हमारी कक्षा ने किया, उसका नेतृत्त्व आपने मुझे सौंपा था। इसलिए आप में से कोई अपना उत्तरदायित्व अनुभव करे चाहे न करे, किंतु व्यक्तिगत रूप में मैं रैगिंग की शुद्धता के लिए प्रतिबद्ध हूँ। वरिष्ठ छात्रों का विरोध करनेवाला आपका मित्र सिद्धांतों के प्रश्न पर अपने सहपाठियों का भी विरोध कर सकता है। प्रशासनिक स्तर पर, कानूनी ढंग से रैगिंग पर रोक लगाने के लिए, मुझे इस वर्ष महासचिव पद का चुनाव लड़ना पड़ा तो मैं यह भी करूँगा। मैं समझता हूँ, अपनी भावनाएँ मैंने आप तक पहुँचा दी हैं। अपने मतभेद सुलझाने के लिए हम सबने हमेशा मतदान का तरीका अपनाया है। आप में से जो मित्र नई परंपरा शुरू करने के पक्ष में नहीं हैं, वे अपने हाथ ऊपर उठाएँ।" एक छात्र ने स्पष्टता के साथ और दूसरे छात्र ने हिचकिचाते हुए हाथ उठाया। किंतु कक्षा के सभी छात्रों को नई परंपरा के समर्थन में देखकर, उन्होंने भी हाथ नीचे कर लिये।

नई परंपरा शुरू करने का प्रस्ताव पारित करके हमारी मंडली ने चौकसी रखते हुए बाकायदा सुनिश्चित किया कि हमारा कोई सहपाठी किसी नए छात्र की रैगिंग तो नहीं कर रहा है। नई परंपरा के विरोध में हाथ उठाने वाले दोनों छात्रों से मैंने कैंटीन में बैठकर अपनत्व और आत्मीयता के साथ इस संबंध में फिर चर्चा की। हर तरह से उन्हें समझ में आ गया है कि नई परंपरा की शुरुआत करना रेगिंग की बुराइयों को नेस्तनाबूद करने का एकमात्र उपाय है। यह विश्वास हो जाने के बाद ही उनके साथ मैंने कैंटीन छोड़ी। दस जुलाई को हमने मिलकर पैसा इकट्‌ठा करके नए छात्र-छात्राओं को चाय-पान के लिए कैंटीन में बुलाया। पूर्व निर्धारित योजनानुसार सब-कुछ हुआ। नए छात्र इतने खुश थे कि लगता था उन्हें कारून का खजानां मिल गया है। चाय-पान की व्यवस्था कक्षा के एक लड़के और एक लड़की के जिम्मे थी। उन दोनों ने ही कार्यक्रम का संचालन किया था। नए छात्र और छात्राएँ व्यवस्था व संचालन के काम में लगे लड़के और लड़की पर जैसे न्योछावर हो रहे थे। रैगिंग की दहशत को खूबसूरत मोड़ देकर खुशनुमा यादों में बदल देने वाले वरिष्ठ छात्र उन्हें देवता स्वरूप लग रहे थे। किसी भी तरह की मदद देने की तत्परता के साथ जब चाय-पान का कार्यक्रम समाप्त हुआ तो हम लोग बहुत संतुष्ट थे। हम लोगों में वे दोनों लड़के भी शामिल थे जिन्होंने इस परंपरा की शुरुआत के विरोध में एक बार हाथ उठा दिए थे।

मेरी चिंता दूर हो गई। रैगिंग की प्लास्टिक सर्जरी करने में मुझे सफ़लता मिली। विरोध को कटुता बढाए बिना, कटुता पैदा किए बिना समर्थन में बदलने में कामयाबी मिली। किंतु मुझे महासचिव के पद का चुनाव लड़ना चाहिए, इस बीज को अपने साथियों के मस्तिष्क में डालने का काम उसी दिन कर बैठा था मैं। उस दिन यदि मैंने यह धमकी नहीं दी होती तो प्रस्ताव के विरोध में उठनेवाले हाथ कहीं ज्यादा होते। ऐसी स्थिति में बहुमत के आधार पर लिये गए निर्णय को न मानने का मानस जिन छात्रों का था, वे खुलकर मैदान में आ जाते। तब वही करना पड़ता जो हमने गत वर्ष वरिष्ठ छात्रों के साथ किया था। चुनौती देनी पड़ती कि अवांछित तरीके से रैगिंग करनेवाले लड़कों को हम पीटेंगे। कनिष्ठ छात्रों के सामने पीटेंगे। अगर बाद में पता लगा तो संबंधित कनिष्ठ छात्र के पास ले जाकर पीटेंगे। ऐसा करने पर कक्षा की एकता टूटती। कनिष्ठ और वरिष्ठ दोनों वर्गों के छात्रों के बीच हमारी फजीहत होती। हम आपस में लड़ते और अब एम.बी.बी.एस. के तीसरे साल में पढ़नेवाले छात्र हँसते। महासचिव का चुनाव लड़कर रैगिंग पर प्रशासनिक और कानूनी रोक लगाने की धमकी ने ये सभी वीभत्स संभावनाएँ जरूर समाप्त कर दीं, किंतु उन बीजों को निकालने में मुझे बहुत शक्ति लगानी पड़ी।

बीजों को खोदकर निकाल फेंकने और उनको स्थायित्व प्रदान कस्ने की लड़ाई में जो दलीलें देकर मुझे चुनाव लड़ने के लिए तैयार करने की कोशिशें की गई थीं, उनमें से एक दलील रैगिंग को नया आयाम देने के लिए प्रारंभ की गई परंपरा को लेकर भी थी। सहपाठियों में मैंने अपने प्रति समर्थन का भाव अधिक पुष्ट किया था। समस्या कितनी भी जटिल क्यों न हो, उसका रुचिकर हल मैं दूँढ़ निकालता हूँ, यह धारणा अधिक बलवती हुई थी। भले ही ईर्ष्यावश रहा हो किंतु यदि कुछ छात्रों के मन में मेरे प्रति विरोध, क्षोभ या दुर्भाव पैदा हुआ होगा तो इस प्रकरण के बाद वह पूरी तरह समाप्त हो गया है। सामने चाहे कोई और हो किंतु अब तक नए छात्र-छात्राएँ इस तथ्य से भली-भाँति परिचित हो गए हैं कि चाय-पान के कार्यक्रम के पीछे मस्तिष्क, प्रेरणा और योजना एकमात्र मेरी थी। ऐसी अवस्था में महासचिव के लिए यदि मैं चुनाव लड़ता हूँ तो प्रथम वर्ष और द्वितीय वर्ष एम.बी.बी.एस. के सभी विद्यार्थियों के शत-प्रतिशत मत मुझे मिलने की आशा है। ऐसा अवसर शेष बचे तीन वर्षों में न जाने मिलेगा या नहीं? इसलिए चुनाव मुझे लड़ ही लेना चाहिए। जबकि मुझे मालूम है कि ये सारे काम मैं इसलिए नहीं करता हूँ कि इस वर्ष या अगले वर्ष या उससे अगले वर्ष मेरी चुनाव लड़ने की योजना है। चुनाव लड़ूंगा तब भी आस्था के आधार पर किए गए किसी काम का प्रतिफल मिले, यह कामना मैं नहीं करूँगा। चुनावों में मुझे हराना मेडीकल कॉलेज में पढ़ रहे विद्यार्थियों के लिए शायद कभी संभव नहीं हो सकेगा। लड़ूंगा तो जीतूंगा। क्योंकि मैं जानता हूँ कि मतदाता यदि समझदार है, समस्याओँ और उनका सामना करने की क्षमता रखनेवालों को पहचानता है तो उससे मत माँगना नहीं पड़ता। वह मत देता है।

रैगिंग के विकल्प के रूप में नई परंपरा डालने की बात मीनू को बताई तो उसे बहुत अच्छा लगा। एक उदाहरण देकर उसने अपनी चिता और प्रसन्नता मेरे सामने व्यक्त की। कहने लगी, ‘‘नई बहू को कई बार सास का व्यवहार बहुत खराब लगता है। उस व्यवहार का विरोध बहू करे या न करे, अलग बात है, मगर जब उसका बेटा शादी करता है तो नई बहू के लिए वह वैसी ही सास बन जाती है जैसी अपनी सास उसे लगती थी। रैगिंग की खामियों को भी हर साल मेडीकल कॉलेज में आने वाले नए विद्यार्थी देखते और भोगते हैं। किंतु जब रैगिंग करने का मौका आता है तो सुविधापूर्वक भूल जाते हैं कि कुछ बातें उनको अच्छी नहीं लगी थीं। तुमने जब विरोध किया तो मुझे अच्छा लगा क्योंकि हम लोग गलत बातों को अति की सीमा तक बरदाश्त करने के आदी हैं। बहू सास की ज्यादतियों को अति की सीमा तक बरदाश्त करती है न? मुझे लगता था कि अगले साल जब तुम्हें रैगिंग करने का अवसर मिलेगा अर्थात्‌ तुम सास बनोगे तो भूल जाओगे कि अभी एक साल पहले तुम्हें क्या महसूस हुआ था? ये बातें बताकर तुमने मेरी चिता को खुशी में बदल दिया है। तुममें कुछ है जो बाकी लोगों से अलग है। वही कुछ तुम्हें ऐसे काम करने की प्रेरणा देता है। हूँ तो तुमसे छोटी, मगर आशीर्वाद देती हूँ कि तुम हमेशा मजलूमों के दुःख-सुख से जुड़े रहो।"

खुशी के जज्बे से छलकते हुए जिस तरह मीनू ने अपनी बात कही, उससे मीनू का कद मेरी दृष्टि में बहुत बढ़ गया है। सोलह-सत्रह साल की धर में रहनेवाली, साधारण पढी-लिखी लड़की धटनाओं को जिस संवेदनापूर्ण ढंग से देखती-महसूस करती है, वैसा दुर्लभ है। मेंरे सहपाठियों में से किसी एक ने भी अपनी ओर से इतना स्पष्ट विश्लेषण करते हुए मुझे समर्थन नहीं दिया था। मेरे सोच को समर्थन मिला किंतु कितने विद्यार्थी विचार के स्तर पर हमारे कार्यकलापों की अंतरधारा से एकाकार हो पाए? शायद आयु का परिपक्वता के साथ, शिक्षा का समझ के साथ और पृष्ठभूमि का ग्राह्यता के साथ कोई संबंध नहीं होता। यदि ऐसा संभव होता कि मीनू मेडीकल कॉलेज में मेरे साथ पढ़ रही होती .....।

***

(9)

3 फरवरी, 1952

एक सप्ताह के बाद अम्मा आज घर आई है। घर की सफाई, झाड़-फूँक मैं करता था। बाबा और मैं भोजन के लिए काका भोजामल के धर जाते थे। उनके घर में स्थानाभाव है इसलिए रात को अपने घर आकर सोते थे। अम्मा पूरा समय काका भोजामल के घर रहती थी। 31 जनवरी को मीनू का विवाह था। विवाह से तीन दिन पहले रस्में शुरू हो गई थीं। अम्मा का दिन के समय काकी की मदद के लिए उनके घर जाना तो एक महीना पहले ही शुरू हो गया था। बड़ी, मंगौड़ी, खींचे, पापड़, दान-दहेज के सामान की खरीदारी, लेन-देन की तैयारी, साड़ी, सूट, जेवर, मिठाई, विवाह-गीत पता नहीं कितने काम थे जिनमें से किसी एक काम को भी अम्मा की मदद के बिना करते हुए काकी को ऐसा लगता था जैसे कोई भारी गलती कर जाएँगी। हालांकि दो लड़कों की शादियाँ उन्होंने अपने हाथों से की थीं। दो-दो बहुएँ थीं घर में। फिर भी अम्मा की सलाह के बिना वे एक इंच आगे नहीं खिसकती थीं।

अनुभवी अम्मा भी कम नहीं है। मेरी तीन बुआओं की शादियाँ उसने देखी हैं। उनमें से एक की शादी स्वतंत्र रूप से अम्मा और बाबा ने की है। लेन-देन के मामलों में अम्मा की रुचि है। विवाह से पहले और सगाई के बाद समधी टकरा जाएँ तो लड़कीवालों को क्या करना चाहिए? विवाह के बाद किसको वया देना चाहिए? कौन से त्यौहारों के अवसर पर कपड़े, मिठाई, फल, नकद क्या और कितना भेजना चाहिए? लड़के का जन्म हो तो लेन-देन क्या़ होगा? सामाजिक संबंधों के निर्वाह की दृष्टि से किस स्तर के लोगों को क्या देना चाहिए? ये बातें अम्मा बखूबी जानती है। दूर-दूर से महिलाएँ उससे मशविरा लेने आती हैं। विशेष रूप से सिंध में जिस गाँव में बाबा रहते थे, उसके आसपास के क्षेत्रों के निवासी जो विभाजन के बाद यहाँ चले आए हैं, अम्मा की लेन-देन संबंधी राय को बहुत महत्त्वपूर्ण मानते हैं। कम-ज्यादा का विवाद होने पर यदि कोई कह देता है कि अम्मा से राय लेकर उसके आधार पर सारा काम किया है तो सामान्यतः बात वहीं समाप्त हो जाती है। कभी-कभी मैं मजाक में कहता भी हूँ, ‘‘अम्मा, लेन-देन के मामलों में सलाह देने की तुम फीस तय कर दो। पूछने वालों की संख्या बढ जाएगी।"

अम्मा निश्छलता के साथ हँस देती है, ‘‘फीस तो मैं तय कर दूँगी लेकिन वसूली का काम तुझे करना पड़ेगा।"

मीनू का विवाह जयपुर में ही हुआ है। आयु अभी सत्रह वर्ष है। विवाह के लिए यह इतनी उम्र नहीं है कि काका भोजामल जल्दी करते। पुराने लोग हैं। लड़के-लड़कियों की शादियाँ जल्दी करते रहे हैं। सिंध में तेरह-चौदह की लड़की और सोलह-सत्रह के लड़के का विवाह कर दिया जाता था। संभवतः वही मानसिकता मीनू के मामलें में भी रही हो। काका भोजामल चाहते थे कि वीरू का विवाह भी मीनू के विवाह के साथ कर दिया जाय। रिश्ता हो नहीं सका और मीनू के विवाह के लिए लड़केवाले जोर डाल रहे थे। इसलिए वीरू का विवाह अभी नहीं हुआ। अन्यथा फलों की थड़ी पर नौकरी करनेवाले वीरू की शादी भी हो जाती। काका प्रयत्नशील रहेंगे। जल्दी ही हो जाएगी, वीरू की शादी। शायद वह स्वयं भी इच्छुक है। नौकरी ही सही, मगर काम से तो लग गया है वीरू? यह योग्यता क्या विवाह के लिए पर्याप्त नहीं है?

यह मानसिकता मुझे आश्चर्यचकित करती है। लड़का या तो बेरोजगार है या बहुत कम कमाता है। अगर कहा जाए कि पत्नी के साथ अलग घर बसाए तो उसे दिन में तारे नज़र आने लगें! बहू घर में आएगी तो केवल रोटी-कपड़ा तो देना नहीं पड़ेगा उसे। आना-जाना, उठना-बैठना, लेेना-देना, घूमना-फिरना, पिक्चर-सिनेमा, क्या है जो बिना पैसे के हो जाता हो ! साल-दो साल बाद बच्चे होंगे। जरूरतें और बढेंगी। खर्च और चढेंगे। खर्च की पूर्ति नहीं कर पाएँगे तो परिवार में खींचतान होगी। तनाव बढेगा। परिवार टूटने की नौबत आएगी। जब मुझ जैसा अनुभवहीन इतना सब कुछ समझ सकता है तो काका भोजामल जैसे अनुभवी व्यक्ति को यह बात समझ में क्यों नहीं आती? संभव है, इस मामले में कोई ऐसी गुत्थी हो जिसे अनुभव की कमी के कारण सुलझाने की कोशिश मुझे ज्यादा उलझाती हो।

मीनू जाएगी और वीरू की बहू आएगी। घर के सदस्य जितने पहले थे, उतने ही अब रहेंगे। यह सरलीकरण भी मेरी समझ से परे है। मीनू की साजसज्जा, उसके हार-सिंगार पर कितना खर्च आता है? उसे पिक्चर-सिनेमा दिखाने कितनी बार लें जाते हैं महीने में? उससे मिलने, केवल उससे मिलने कभी कोई रिश्तेदार आते हैं क्या? उनकी मेहमाननवाजी पर क्या कुछ भी खर्च नहीं होता? मीनू को मायके जाना पड़ता है? मीनू के कपड़े और बहू के कपड़े क्या एक जैसे होते हैं? मीनू को सोने के लिए क्या अलग जगह देते हो? फिर मीनू जाएगी और बहू आएगी, मात्र इतना कहकर मुद्‌दा कैसे खारिज कर सकते हो?

संयुक्त परिवार है इसलिए इस तरह के महत्त्वपूर्ण फैसले निभ जाते हैं और इस तरह के फैसले लिये जाते हैं इसलिए संयुक्त परिवार में दरार पड़ती है। बहू को अपनी हर गोपनीय और खुली जरूरत के लिए सास-ससुर की ओर देखना पड़ेगा तो उसकी मनःरिथति की क्या दशा होगी? पति अपनी कमाई से उसकी जरूरतें और इच्छाएँ पूरी करने की स्थिति में नहीं होता, इसलिए परमुखापेक्षी होना उसकी मजबूरी होती है। जरूरतें जब सास-ससुर को पूरी करनी हैं तो बहू के गुण-अवगुण, घर के सदस्यों के साथ मधुर-कटु संबंध, उठने-बैठने और बात करने का सलीका, कामकाज में सक्रियता-निष्कियता आकलन का आधार बनते हैं। आकांक्षाओं की लाश ढोती, घसीटती बहू जब प्रौढ़ होने लगती है तब जाकर कहीं बात मनवाने्‌ की अवस्था में आ पाती है। दाँत टूट जाने के बाद बादाम किसे अच्छे लगेगें भला? घर का लड़का निठल्ला है, बेरोजगार है, कम कमाता है; लेकिन पुरुष होने के नाते उसकी जरूरतें पूरी हो जाती हैं। घर की बहू सुघड़ है, सुंदर है, कामकाज में होशियार है, चतुर है, लेकिन महिला होने के नाते उसका दमन होता रहता है। लड़का कमा नहीं रहा है, लड़ता-झगड़ता है, घरवालों से उसका व्यवहार अच्छा नहीं है, ताने बहू को दिए जाते हैं। ऐसी विसंगतियाँ देखकर तो महसूस होता है कि प्रत्येक भारतीय महिला गरीब की जोरू है, घर के पुरुष और वरिष्ठ सदस्यों को अधिकार है कि वे जैसा चाहें वैसा सलूक उसके साथ करें।

बाबा थड़ी से लौटे नहीं थे। अम्मा ने भोजन की थाली लगाकर मेरे सामने रखी और स्वयं भी सामने आकर बैठ गई। काकी ने मीनू के लिए कौनंसे गहने बनवाए, कितना सोना दिया, कितनी साड़ियाँ और सूट दिए, ये बातें विस्तार से बताती रही अम्मा। इन जानकारियों में विशेष रुचि नहीं थी मेरी इसलिए ‘हाँ-हूँ' करता रहा। अचानक अम्मा हँसने लगी। मैंने आश्चर्य से अम्मा की तरफ देखा, ‘‘तेरी काकी एक मजेदार बात बता रही थी।"

‘‘ऐसी कौनसी मजेदार बात है जो तुम्हें याद आ गई और तुम अपनी हँसी नहीं रोक सकीं?"

‘‘सुनेगा तो तू भी मेरी तरह हँसेगा।"

‘‘हँसूँगा तो तब न, जब तुम बताओगी।"

‘‘जब इस लड़के की बातचीत चल रही थी, मीनू ने तेरी काकी से कहा था कि तेरे साथ शादी की बात चलाकर देखे।"

‘‘अच्छा!" मुझे आश्चर्य हुआ।

‘‘मीनू के साथ तेरा कोई चक्कर तो नहीं था?" अम्मा ने हँसते-हँसते पूछा।

‘‘अम्मा!" मैं चीखा, ‘‘यह बात तुमने सोच कैसे ली?" भोजन की थाली वहीं छोड़कर मैं खड़ा हो गया।

हाथ धोकर, पानी पीकर मैं घर से बाहर निकल गया। मीनू का अपनी माँ से अनुरोध और अम्मा की शंका, दोनों ही मेरे लिए कल्पनातीत बातें थीं। मीनू के हृदय में मुझे पति के रूप में पाने की इच्छा यदि किसी समय पैदा हुई थी तो उसने प्रत्यक्ष या परोक्ष संकेत क्यों नहीं दिया? रैगिंग के चक्कर में आई चोटों के बाद प्रतिदिन हाल-चाल पूछने आती थी। उसका रोजाना आना, मेरे प्रति उसकी चिंता और संलग्नता का परिचायक था। किंतु मन-ही-मन ऐसा भी कुछ चाहने लगी है मीनू, यह संकेत तो लिया नहीं जा सकता था उसके नियमित आगमन से। मेडीकल कॉलेज में चले घटनाचक्र का विवरण मैं मीनू को सुनाता था। वह कभी विस्तार से अपनी बात नहीं कहती थी, राय नहीं देती थी। मेरे साथ सहमति जरूर व्यक्त करती थी। मुझमें कभी कमजोरी नजर आती थी तो हिम्मत जरूर बढाती थी। घर-बाहर के सब लोग लड़ाई को प्रपंचों की संज्ञा देकर उनसे बचने की सलाह देते थे तो इस लड़ाई को लड़ने की बात कहकर मेरा आत्मबल जरूर बढाती थी। किंतु कभी शालीनता छोड़ी हो, कभी फासला घटाने की चेष्टा की हो, कभी कोई द्विअर्थी बात कही हो, ऐसी कोई घटना मुझे याद नहीं है।

कोई तर्क मुझे यह समझाने की स्थिति में नहीं था कि अपनी भावनाएँ मीनू ने मुझ तक क्यों नहीं पहुँचाई जबकि ऐसा करने के अनेक अवसर उसको मिलते थे। मैं अपनी गतिविधियों की विस्तृत कहानियाँ जब उसे बता रहा होता था, हम कमरे में बैठे रहते थे। अम्मा का बार-बार आना-जाना जरूर होता रहता था, मगर जिस तरह निरपेक्ष भाव से मैं अपनी बात कहता रहता था, अवसर देखकर उसी तरह वह भी संकेत दे सकती थी। कभी यह भी नहीं कहा उसने कि मुझे घर छोड़ आओ। हमारे और उसके. घर के फासले को तय करने में लगनेवाला समय भले ही बहुत कम होता किंतु संकेतात्मक रूप में मन की बात कहने के लिए तो वह दूरी, वह समय बहुत था। मीनू के मस्तिष्क में मुझसे विवाह करने का विचार एक दिन के सोच की परिणति तो होगा नहीं। अकेले-अकेले जो विचार-मंथन उसने किया होगा उसमें मुझे शरीक करने की कोई कोशिश क्यों नहीं की उसने?

संभव है मेरी धारणा, मेरे झुकाव के बारे में वह आश्वस्त न हो पाई हो। यदि मैं उसके प्रति झुकाव महसूस करता तो पहल करके उसके सामने यह बात जरूर रखता। किसी प्रकार का कोई संकेत मैंने उसे नहीं दिया कि मेरे हृदय में उसके प्रति प्रेम-भाव है। पत्र लिखकर, फूल देकर, छुकर, सौंदर्य की प्रशंसा करके या किसी दूसरी लड़की की तुलना में श्रेष्ठ बताकर मैंने कभी नहीं जताया कि मीनू का होना मेरे लिए कोई भिन्न अर्थ रखता है। आकर्षण यदि एकतरफा है तो आकर्षित सदैव अपूर्ण अनुभव करता है। मेरी ओर से आकर्षण की अभिव्यक्ति किसी भी रूप में कभी नहीं हुई। मीनू अपनी ओर से संकेत देती तो किस भरोसे पर? मैं उसमें इस दृष्टि से कोई रुचि दिखाता नहीं था। परोक्ष-अपरोक्ष संकेत नहीं देता था। संकेत को मैं ग्रहण नहीं करता तो उसकी मनःस्थिति पर क्या प्रभाव पड़ता? वह अपनी -नजर में कितनी अपमानित महसूस करती? प्रणय निवेदन की पहल अपने देश में लड़कियाँ करें, यह स्वीकृत धारणाओं के विपरीत है। अपनी लज्जा, अपने संकोच, लिहाज व स्वभाव के कारण पहल की अपेक्षा लड़कियों से की भी नहीं जाती।

क्या कोई ऐसा तरीका नहीं है जिससे लड़की अपने मनोभाव संप्रेषित कर सके? सम्मान को दाँव पर लगाए बिना अपनी भावनाओं को वरेण्य तक पहुँचाने का क्या कोई उपाय लड़की के पास नहीं होता है? मुसकान में आमंत्रण का सम्मिश्रण करके, हँसी में आकर्षण का घोल मिलाकर या मुद्राओं में आसक्ति का आसव सम्मिलित करके क्या कोई लड़की अपने मनोभावों को स्पष्ट नहीं कर सकती? प्रत्युत्तर न पाकर दूसरे पक्ष के मनोभावों की जानकारी भी उसे मिल जाएगी। प्रत्युत्तर के अभाव में नारी अपमानित, तिरस्कृत और पीड़ित अनुभव करके प्रतिहिंसा पर उतारू हो सकती है। ऐसे अनेक आख्यान भारतीय साहित्य में मिलते हैं। वह खामोशी से प्रतिपक्ष के नकार को स्वीकार करके अपना रास्ता चुन सकती है। ऐसे अनेक आख्यान भी भारतीय साहित्य में उपलब्ध हैं; किंतु मीनू अपनी भावनाओं को व्यक्त करना चाहती तो कर सकती थी, इसमें कोई संशय नहीं है। अपनी हलचल मन में बनाए रखकर काकी से औपचारिक प्रस्ताव का अनुरोध मीनू ने क्यों किया? काकी से बातचीत के बाद भी मोनू की मुझसे कई बार भेंट हुई होगी। उस बातचीत का हवाला दे देती तब भी पर्याप्त होता।

अगर मीनू ने अपने मन की बात मुझे बता दी होती या मनोभावों का संकेत मुझे दे दिया होता या काकी ने उसी समय अम्मा के सामने मीनू की इच्छा के अनुरूप प्रस्ताव रख दिया होता या अम्मा ने मुझसे मीनू से विवाह के संबंध में पूछ लिया होता तो मेरी प्रतिक्रिया क्या होती? क्या मैं स्वीकार करता? क्या मैं विचार करने के लिए समय माँगता? वया मैं स्पष्ट इनकार कर देता? क्या मैं पढाई की बात कहकर टाल जाता? क्या करता मैं उस समय? मेरे सामने यक्ष प्रश्न है। मैं सचमुच नहीं जानता कि मेरी प्रतिक्रिया क्या होती? मीनू मुझे समझदार लगती है। मेरी बाल सखी है। कम पढी-लिखी होने के बावजूद वैचारिक दृष्टि से मुझे प्रभावित करती है। उसके और मेरे विचार मिलते हैं। कद-बुत, चेहरे-मोहरे की दृष्टि से बहुत आकर्षक नहीं, तो भी ठीक है। मुझे पढाई पूरी करने में चार साल तब लगेंगे जब मैं एम.बी.बी.एस. के बाद पढाई छोड़ दूं। एम ० एस ० या एम ० डी ० करूं तो तीन साल और चाहिए। इससे पहले मैं स्वयं अम्मा-बाबा पर निर्भर रहूँगा। विवाह करके पत्नी को लाकर उनका भार और बढा दूँ? पत्नी को जीवन-भर सालती रहने वाली पीड़ाओं की सौगात दूं, यह मैं किसी स्थिति में नहीं चाहूँगा। पढाई पूरी करने और आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर हो जाने से पहले मैं विवाह करने की बात सोचूंगा भी नहीं।

मीनू को अपनी प्रेयसी या भावी पत्नी के रूप में मैंने कभी नहीं देखा। बचपन से साथ खेले, बड़े हुए हैं। एक-दूसरे को समझते हैं। एक-दूसरे को पसंद करते हैं। यह तो मैं जानता हूँ, किंतु दो लड़कों में ये सब बातें नहीं हो सकती हैं क्या? क्या मित्रता केवल लड़कों के बीच हो सकती है? सखीत्व क्या केवल लड़कियों के मध्य हो सकता है? लड़के और लड़की के संबंध मित्रतापूर्ण नहीं हो सकते क्या? लड़का और लड़की मात्र प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी, भाई-बहन या ऐसे ही किसी बंधन में बाँधे जा सकते हैं? मित्रता का बंधन उन्हें जोड़ नहीं सकता? समझ, पसंद और चाहत का रिश्ता मित्र के रूप में लड़के और लड़की नहीं रख सकते कभी? जरूरी है कि लड़के और लड़की के संबंधों के बीच वासना होगी ही? ठीक है कि अधिकांश स्थितियों में लड़के-लड़कियों के संबंध वासना एवं शरीर आधारित होते हैं किंतु क्या हर लड़के और लड़की के बीच विकसित संबंधों को केवल लिंग-भेद के साथ जोड़कर देखा जा सकता है?

मीनू मेरे साथ अपने संबंध मित्रवत्‌ मानती हो, ऐसा नहीं हो सकता क्या? हम दोनों में से किसी एक ने भी भाई-बहन या ऐसे किसी रिश्ते का नाम नहीं दिया है अपने संबंधों को कभी। शब्द की बात महत्त्वपूर्ण नहीं है, भावना के स्तर पर मीनू ने मुझे मित्र के रूप में देखा है हमेशा। बचपन में खेलते थे तब भी, अब अपना दुःख-सुख बाँटते थे तब भी। कहा चाहे कभी न हो किंतु रैगिंग प्रकरण में मारपीट के बाद बारह दिन बिस्तर पर रहने की अवधि में जब भी मीनू आती थी, उसकी आँखों में मेरे प्रति चिंता होती थी। प्रारंभ में वहां भय और चिंता का मिश्रण होता था। बाद में मेरा पक्ष सुनकर, मेरे इरादों की जानकारी पाकर और मेडीकल कॉलेज के अनेक विद्यार्थियों का संकल्प देखकर, भय का भाव उसकी आँखों से तिरोहित हो गया था। मगर उसकी आँखों से झाँकती चिंता पूरी तरह तभी समाप्त हुई थी जब समझौता ही गया था। जहां शब्दों का प्रयोग अनावश्यक हो जाता है, जहाँ पोर-पोर से गुंजित होती मंगलकामनाएँ वायुमंड़ल को कंपायमान करती रहती हैं, वहाँ सरल भाव के अतिरिक्त अन्य किसी भावना की बात सोचना भी ठीक नहीं है।

मीनू के विवाह की बातचीत चली तो मित्र को खो देने का डर उसको आतंकित कर गया होगा। पति न अपेक्षा करता है और न स्वीकार करता है कि उसकी पत्नी परपुरुष के साथ किसी प्रकार के संबंध रखे। पुरुष के साथ मित्रता की अवधारणा के अभाव में स्त्री-पुरुष के मित्रवत्‌ संबंधों की बात उसके जहन में आती नहीं है। पति अन्य पुरुष के साथ उसके संबंधों को केवल अनैतिकता की दृष्टि से देखता है। इसलिए विवाह के साथ मित्रता का गला घोंटने की अनिवार्यता ने मीनू को प्रेरणा दी होगी इस पथ का अनुसंधान करने की जो विवाह के बाद भी मित्र को उससे दूर न कर सके। मित्रता को बचाने का यही रास्ता उसे उचित लगा होगा। इसके बाद ही मीनू ने काकी से कहा होगा कि मेरे साथ विवाह की चर्चा करके देखे। इससे पहले मेरी तरह मीनू ने भी हमारे संबंधों को इस रूप में नहीं देखा होगा। अन्यथा हाव-भाव, तौर-तरीका, आँखों की भाषा, शब्द-चयन, शरीर-विन्यास, कुछ-न-कुछ उसके मनोभावों की चुगली कर देता। हर तरह मेरे सामने वह सामान्य रहती आई। कभी विशेष पोशाक पहनकर या श्रृंगार करके मुझे लुभाने की कोशिश उसने नहीं की। मैंने मीनू को प्रेयसी या भावी पत्नी के रूप में देखा नहीं, इसलिए ऐसी कोई अपेक्षा कभी नहीं की उससे। शरीर हमारी मित्रता का माध्यम होते हुए भी हम दोनों के लिए गौण रहा।

मीनू की ओर से विवाह की इच्छावाली बात सुनकर अम्मा यदि सोचती है कि हमारे बीच कोई चवकर रहा होगा, तो उसका दोष क्या है? अम्मा ही क्यों, कोई भी अगर इस बात को सुनेगा तो ठीक यही सोचेगा जो अम्मा ने सोचा है। बचपन से साथ खेले-कूदे, पढे-लिखे, पले-बढे लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे के प्रति आसक्त हो जाते हैं, इसको सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है। यह सिद्ध करने की आवश्यकता जरूर है कि उन परिस्थितियों में बड़े हुए बच्चे एक-दूसरे को चाहते हुए भी वासनाओं से हटकर केवल मित्र-भाव के वशीभूत प्यार कर सकते हैं। मित्रता को बचाने के लिए एक-दूसरे के साथ विवाह की बात सोच सकते हैं, अन्यथा विवाह के माध्यम से एक-दूसरे को पा लेने की बात वे नहीं सोचते। अम्मा ने तो बाद में सोचा होगा, काकी और पता लगने के बाद काका भोजामल ने ऐसा पहले सोचा होगा।

नहीं मालूम, काकी ने अम्मा को यह बात कब बताई? मीनू की सगाई से पहले, सगाई के तुरंत बाद या पिछले दिनों जब विवाह की तैयारियों के सिलसिले में अम्मा वहीं थी? मीनू की बात सुनकर हो सकता है काकी ने उसे डांटकर चुप करा दिया हो। हो सकता है, काकी हँसकर चुप हो गई हों। काकी ने काका भोजामल को यह बात अवश्य बताई होगी। काका भोजामल की प्रतिक्रिया क्या रही होगी? काका भोजामल ने तो खैर किसी भी स्थिति में सीधी बात बाबा से नहीं की होगी। या तो सलाह-मशविरा करके बात को वहीं दबा दिया होगा या फिर काकी ने अम्मा से पूछा होगा। मीनू की इचछा या मीनू से मेरे विवाह की चर्चा यदि काकी ने अम्मा से उस समय की होती तो अम्मा उन्हें चाहे जो कुछ कहे, मगर मुझसे जरूर कहती।

इसलिए काकी ने तब अम्मा से मीनू के संदर्भ में न पूछकर मेरे विवाह के बारे में पूछा होगा। हस्ब मामूल अम्मा ने कह दिया होगा, ‘‘अभी तो वह पढ़ रहा है, अदी। इस समय शादी करने का मतलब होगा घंटी अपने गले में बांधना।"

काकी ने हँसकर बात बदल दी होगी। हो न हो, काकी ने मीनू के मन की बात अम्मा को इन दिनों ही बताई है। अम्मा ने चाहे जो कुछ सोचा हो मगर वह भी काकी की तरह यह बात सुनकर हँसी जरूर होगी। काकी ने अम्मा को और अम्मा ने काकी को अपने मन की शंका नहीं बताई होगी, किंतु आज अम्मा ने जो प्रश्न मुझसे हँसते-हँसते पूछ लिया है, आशंका बनकर वह प्रश्न काकी के मस्तिष्क में उठा जरूर होगा। काकी मीनू की माँ है। अम्मा मेरी माँ है। काकी मुझे बचपन से देखती रही है। अम्मा मीनू को बचपन से देखती रही है। इसके बावजूद यदि मीनू ओर मेरे संबंधों के प्रति काकी और आम्मा आशंकित हैं तो मेरे नाराज होने का कोई कारण नहीं है इसमें। दोनों जो कुछ देखती-सुनती रही हैं उनका सोच उसके अनुरूप है कि पुरुष दोस्ती करते हैं। महिलाएँ सहेली बनाती हैं। पुरुष और महिला की मित्रता की भी कोई संज्ञा हो सकती है, यह बात उन्हें मालूम नहीं है। विवाह-प्रस्ताव की हलचल ने मीनू को इस संबंध पर विचार करने की प्रेरणा दी वरना मैं भी अम्मा से हुई बात को आरोप मानने के बाद ही सोचते-सोचते इस निर्णय पर पहुँचा हूँ। मैं व्याख्या करके मीनू और अपने बीच स्थापित मित्रता के घनीभूत संबंध को समझा सकता हूँ। संभवतः मीनू अब भी ऐसा न कर सके। लेकिन अनेक अत्यंत स्पष्ट धाराओं के बीच बहती एक अंतरधारा को पहचानने की आशा मैं क्यों करता हूँ? अम्मा से नाराज होकर, भोजन की थाली छोड़कर क्यों चला आता हूँ मैं? क्यों मैं महसूस नहीं करता कि हर आँख इतनी गहराई में पल्लवित पुष्प को नहीं देख सकती?

मीनू का सोच यथार्थपरक है। भारतीय समाज में, विशेषकर सिंध के रूढ़िग्रस्त समाज में, पुरुष-स्त्री की मित्रता को समझना बहुत मुश्किल काम है। संभवतः इस विचार-मंथन के बिना भी मैं विवाह के बाद मीनू से संपर्क करने की अतिरिक्त चेष्टा नहीं करता। किंतु अब मैं समझ सकता हूँ कि ऐसी कोई भी कोशिश भविष्य में मीनू के लिए परेशानी का कारण बन सकती है। मित्र की परेशानी का कारण मैं बनूँ, यह मेरी अंतिम वरीयता होगी। हम एक-दूसरे को नहीं देखेंगे, एक-दूसरे से नहीं मिलेंगे, एक-दूसरे से बात नहीं करेंगे तब भी एक-दूसरे के प्रति शुभेच्छाएँ रखेंगे। हम एक-दूसरे से चाहते ही क्या हैं इसके अतिरिक्त? पहले भी मंगलकामनाएँ की थीं, अब भी हित चाहते हैं और भविष्य में भी एक-दूसरे को प्रसन्न देखकर हमें प्रसन्नता मिलेगी। मीनू के विवाह की सूचना से मुझे कभी ऐसा नहीं लगा कि मेरा कुछ मुझसे छीना जा रहा है। अच्छा ही लगा कि उपयुक्त घर में उसका विवाह हो रहा है। पहले मीनू के विवाह से मुझे कोई तकलीफ नहीं थी, अब अम्मा की बात सुनकर मीनू के शुभ की कामना अधिक बलवती हुई है। मीनू मुझे पहले भी समझदार लगती थी, अब उसकी समझ को सलाम करने को जी चाहता है।

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जीवन में अच्छा-बुरा जो कुछ होता है, क्या वह पूर्व निर्धारित होता है? एक ग्राहक दुकान पर आता है। नटराज की पुरानी काँसे की मूर्ति ढेर में से उठाता है। ध्यान से देखता है। उस पर हुई खुदाई का अध्ययन करता है। कहाँ से खरीदी? जिससे खरीदी, उसके पास कहाँ से आई? कबाड़ वाले को यह कलात्मक मूर्ति क्यों देनी पड़ी बेचनेवाले का? इस तरह के अनेक प्रश्न पूछता है। मूर्ति की कीमत पूछता है। ग्राहक ने मूर्ति के संबंध में इतने प्रश्न पूछे हैं, प्रश्न पूछते समय ऐसे शब्दों का प्रयोग किया है कि कोई मूर्ख भी समझ सकता है, ग्राहक को मूर्ति बहुत पसंद आई है। मैं कहता हूँ, ‘‘आप पारखी हैं, साहब। आपसे मोल-भाव मैं नहीं करूँगा। जो कुछ देंगे, लेकर रख लूँगा। ग्राहक सौ का एक नोट देता है ओर मूर्ति उठाकर चला जाता है। दो-चार रुपए में खरीदी हुई मूर्ति एक सौ रुपए में बिक जाती है। मैंने मूर्ति की कीमत तक नहीं बोली। फिर भी मुझे अनायास इतना मुनाफा हो जाता है। क्या उस ग्राहक से वह लाभ पूर्व निर्धारित था? मूर्ति अब तक अगर नहीं बिकी तो क्या इसलिए क्योंकि आज पूर्व निर्धारित समय पर इसी ग्राहक को आकर इसे खरीदना था? यदि मैंं कबाड़ बेचने-खरीदने का धंधा न करता होता तो क्या यह ग्राहक फिर भी आता? मेरे प्रयत्न का कोई महत्त्व नहीं है? मैं दुकान पर नहीं बैठूं तब भी क्या यह ग्राहक मुझे रुपया दे जाएगा, क्योंकि उसका देना और मेरा लेना पूर्व निर्धारित है?

सक्रियता और निष्क्रियता, कर्म और अकर्म का भाग्य के साथ रिश्ता कई बार इतना भ्रमित करता है कि समझ में नहीं आता, क्या सच है और क्या झूठ है? अचानक मिल जाने वाला आदमी या स्थायी रूप से जुड़कर बिछुड़ने वाला आदमी भाग्य के किसी निश्चित विधान के अनुसार अचानक मिलता है या बिछुड़ने के लिए मिलता है, यह प्रश्न डायरी पढने के बाद लगातार मुझे परेशान कर रहा है। बेटे-बेटी का जन्म इसी घर में क्यों हुआ? माता-पिता, भाई-बहन, मौसी-भाभी के रूप में इन लोगों के साथ ही संबंध क्यों बने? दोस्ती अमुक व्यक्ति के साथ ही क्यों हुई? महत्त्वपूर्ण होते हुए भी ये प्रश्न कभी सिर नहीं उठाते। किंतु अच्छी लगने वाली स्त्री या प्रिय लगने वाला पुरुष यदि वितृष्णा पैदा करने लगे तो उसका कारण गुण-दोष के अलावा कुछ और भी हो सकता है, यह शंका डायरी लेखक ने तुर्शी के साथ मेरे मस्तिष्क में उतार दी है। कल जिसे हम पसंद करते थे, उसमें केवल गुण थे, दोष एक भी नहीं था, यह बात विश्वसनीय नहीं है। हमने संपूर्ण गुण व दोषों के साथ उसे स्वीकार किया था। आज यदि उसके दोष इतने भारी महसूस होते हैं कि गुणों के परखच्चे उड़ जाते हैं और हम संबंध तोड़ देने का फैसला करते हैं तो गुण और दोष इस फैसले के अकेले कारण नहीं ही सकते। यह शंका और भी बलवती होकर सताने लगती है जब ऐसा हादसा जीवन संगिनी के साथ हुआ हो।

डायरी-लेखक मीनू को पसंद करता है किंतु उसे पत्नी के रूप में उसने कभी नहीं देखा। मीनू ने अपनी माँ से कहा था कि डायरी-लेखक के साथ विवाह की बात चलाकर देखे, यह जानकारी उसे आश्चर्यचकित करती है। किंतु जब दोनों के बीच शारीरिक संबंधों का संकेत मिलता है तो वह क्रोधित हो जाता है। यद्यपि शारीरिक संबंधों की शंका डायरी-लेखक की अपनी माँ ने व्यक्त की है जिसे वह बहुत आदर की दृष्टि से देखता है, फिर भी यह शंका उसे आरोप जैसी प्रतीत होती है। उसकी बिगड़ी मनःस्थिति का सबसे बड़ा कारण शायद यह है कि जो उसने नहीं किया, नहीं सोचा वह उसके ऊपर आरोपित किया जा रहा है। उसे अपराधी ठहराया जा रहा है उस अपराध के लिए जो उसने न कभी किया है और न कभी जिसे करने की बात उसके मस्तिष्क में आई है। इसलिए उद्वेलित होकर वह भोजन की थाली बीच में छोड़कर घर से निकल जाता है। भटकता रहता है और सोचता रहता है कि यह सब हुआ तो कैसे हुआ, क्यों हुआ?

डायरी-लेखक नतीजे पर पहुंचता भी है। यही नतीजा उसे मीनू की समझदारी को सलाम करने की प्रेरणा देता है। डायरी-लेखक मंथन के बाद जिस नतीजे पर पहुँचता है उससे सहमति और असहमति हो सकती है, किंतु एक कोशिश के बाद डायरी-लेखक के प्रति अपने सख्य भाव को भाग्य के भरोसे छोड़ देने की प्रवृत्ति मीनू के कार्यकलापों से जरूर स्पष्ट होती है। मीनू ने प्रयत्न का संतोष अपने खाते में लिख लिया। प्रयत्न की सफलता और असफलता तो पूर्व निर्धारित है। पूर्व निर्धारित की जानकारी नहीं होती, इसलिए बुद्धि के अनुसार प्रयत्न किए जाते हैं। भाग-दौड़, जोड़-तोड़, उठा-पटक करने की चेष्टा होती है। मीनू को भी पूर्व निर्धारित की जानकारी नहीं थी, इसलिए अपनी सामर्थ्य के अनुसार सबसे बड़ी कोशिश उसने की। अपनी माँ से सत्रह वर्षीय, पुराने संस्कारों वाली लड़की जब अपनी पसंद के लड़के के साथ विवाह की बात चलाने के लिए कहती है तो उसके मन में जबरदस्त उथल-पुथल नहीं मची होगी, यह मानने का कोई कारण नहीं है। माँ क्या सोचेगी? क्या कहेगी? इतनी बड़ी बात कहने से पहले इस सत्रह वर्षीय साधारण पढी-लिखी लड़की के मन में ये प्रश्न न जाने कितनी ध्वनियों और प्रतिध्वनियों के साथ गूँजे होंगे। झंझाओं के शोर में से बचते-बचाते यदि वह सत्रह वर्षीय संकोची लड़की अपनी माँ से मन की बात कहने का साहस जुटा पाई तो निश्चय ही मन की उस बात का दबाव किसी और दबाव से ज्यादा होगा।

सफलता मिलने पर वांछित मिल जाएगा। मित्रता को चिरस्थायी बनाने की ललक हो या अचेतन में यह अहसास कि डायरी-लेखक से ज़्यादा अच्छा पति नहीं मिलेगा, मीनू ने अपनी कोशिश में असफल रहने पर बनने वाली स्थितियों के बारे में जरूर सोचा होगा। डायरी-लेखक का साथ हमेशा के लिए छूट जाएगा। भविष्य में उसके साथ संपर्कों में प्रगाढ़ता नहीं रह पाएगी। पति के घर में खुशी मिले या न मिले, उसी में संतुष्ट रहना होगा, दूसरे शब्दों में कहा जाए तो मीनू ने असफलता को भाग्य मानकर स्वीकार करने का मानस बना लिया होगा। भाग्य का अर्थ है, पूर्व निर्धारित घटनाक्रम से दो-चार होने की अनिवार्यता, प्रयत्न का कोई प्रभाव न होने की विवशता और होनी को स्वीकार करने की विकल्पहीन मजबूरी। मीनू के मन को जितनी भी पीड़ा क्यों न मिली हो, किंतु पूर्व निर्धारित के सामने विवशता के कारण जीवन से विरक्ति पैदा नहीं हुई उसमें। डायरी-लेखक से विवाह की इच्छा पूरी नहीं हुई, इसलिए मीनू ने अन्न-जल का त्याग नहीं किया। आजीवन अविवाहित रहने की घोषणा नहीं की। आत्महत्या करने की कोशिश नहीं की। स्वाभाविकता और सरलता नहीं छोड़ी। सक्रिय, चपल और हँसमुख बनी रही। कम-से-कम जाहिर तो नहीं हुई इनमें से कोई प्रतिक्रिया उसके व्यवहार में।

डायरी-लेखक के भाग्य ने उसे और मीनू को बार-बार मिलाया। सिंध में बिछुड़े तो उल्हासनगर में शरणार्थी शिविर में मिले। शरणार्थी शिविर में बिछुड़े तो जयपुर में मिले। व्यावसायिक संबंधों के कारण मीनू और डायरी-लेखक के पिता में पारिवारिक संबंध गहरे हुए। मीनू और डायरी-लेखक को एक-दूसरे को अधिक निकटता से समझने का अवसर मिला। लगता है सांसारिक जीवन में एक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति के साथ संबंध रखने, मिलने, बात करने का समय ठीक उसी तरह निश्चित होता है जिस तरह कहा जाता है कि निश्चित सांसें लेने के बाद उसका सांसारिक जीवन समाप्त हो जाता है। मृत्यु की भाषा में सोचें तो संबंधों की एक निश्चित उम्र होती है। आदमी की तरह वह पूर्व निर्धारित उम्र पूरी होते ही संबंधों की मृत्यु हो जाती है। मीनू और डायरी-लेखक के संबंधों की पूर्व निर्धारित साँसें भाग्य ने उन्हें बार-बार मिलाकर पूरी कर दीं। जो बची-खुची होंगी, अंतिम साँसों की तरह बीमार संबंधों के रूप में दोनों ढोते रहेंगे।

इस सिद्धांत के अनुसार, किस व्यक्ति की उम्र कितनी लंबी है जिस तरह यह कहना संभव नहीं है, उसी तरह संबंधों की उम्र कितनी लंबी रहेगी, यह कहना भी संभव नहीं है। फुलकारी मेरे धंधे का आधार है। बिना उसके मैं अपने आपको पंगु महसूस करता हूँ। क्या उसके साथ मेरे संबंधों की उम्र भी पूर्व निर्धारित है? इस जन्म में उम्र पूरी नहीं होगी तो अगले जन्म या अगले जन्मों तक संबंध चलते रहेंगे? इस जन्म में पूरी होती है तो उसी क्षण संबंध टूट जाएँगे, जिस क्षण उनकी उम्र समाप्त हो जाएगी? मीनू के डायरी-लेखक के साथ संबंध विवाह के कारण ग्रहण ग्रस्त हुए। उसने इससे पहले ही स्वयं को संबंधों की मृत्यु का दुःख झेलने के लिए मानसिक रूप से तैयार किया। किंतु जिन संबंधों के कारण मीनू ने डायरी-लेखक के साथ अपने संबंधों को मृत्यु की राह पर जाने दिया, उनकी अबाधता की जानकारी उसे थी क्या? क्या उसको मालूम था कि भाग्य ने पति के साथ संबंधों की जो उम्र निर्धारित की है, वह क्या है? यह अज्ञान सांसारिक जीवन का सबसे बड़ा ज्ञान भी है और सबसे बड़ा त्रास भी है।

मुझे पता लग जाए कि फुलकारी के साथ मेरे संबंधों की उम्र कम से कम इस जन्म में तो पूरी नहीं होगी तो मैं फुलकारी को सताने लगूँ, परेशान करके उसका शोषण करने लगूँ, इसकी संभावना बढ़ जाएगी। अगला क्षण अज्ञात है इसलिए अपनी बुद्धि से जो निर्णय मैं इस क्षण लेता हूं उसके परिणाम की जानकारी मुझे नहीं होती। जीवन में विविधता, रोमांच, दुःख, सुख, पीड़ा, कष्ट आदि से संबंधित प्रत्येक अनुभूति विरलता और सघनता के साथ इसीलिए हो पाती है क्योंकि पूर्व निर्धारित अज्ञात होता है। फुलकारी मेरी दुकान छोड़कर किसी और कबाड़वाले के पास जाना चाहता है। यदि मुझे मालूम है कि फुलकारी रुकेगा नहीं तो मैं उसे रोकने के लिए कुछ नहीं करूँगा। यदि मुझे मालूम है कि फुलकारी मुझे छोड़कर जाएगा नहीं तो मैं उसके जाने को लेकर चिंता नहीं करूँगा। फुलकारी को भी अगर पता है कि मेरे साथ उसके संबंधों की उम्र अभी लंबी है तो वह मुझे छोड़कर जाने की बात सोचेगा ही नहीं। ये आरोह-अवरोह, उद्वेग-संवेग के ज्वार-भाटे व्यक्ति के जीवन से निकल जाएँ तो फिर बचेगा क्या? एकरस जीवन किसे अच्छा लगेगा।

डायरी-लेखक सौच-विचार के बाद इस नतीजे पर पहुँचा है कि मीनू ने उसके साथ मित्रता को चिररथायी बनाने के लिए अपनी माँ से विवाह का प्रस्ताव रखने का आग्रह किया था। उसका निष्कर्ष है कि मीनू के मन में डायरी-लेखक के साथ विवाह की बात इससे पहले कभी नहीं रही। अन्यथा बातचीत, भंगिमा, मुस्कान, हाव-भाव से वह इस प्रकार का संकेत जरूर देती। क्या ऐसा नहीं हो सकता कि उम्र कम होने के कारण माता-पिता की ओर से अभी विवाह की बात चलाने की कल्पना उसने न की हो? मन के किसी कोने में इच्छा रही हो कि डायरी-लेखक के साथ विवाह हो जाए किंतु स्पष्टता के अभाव में संकोच के कारण, जल्दी न होने के अहसास ने, उसके मन में इस आशा को बनाए रखा हो कि डायरी-लेखक के हृदय में यदि उसका स्थान है तो संकेत वही देगा। विवाह की बात चल रही है, यह जानकारी मिलने के बाद डायरी-लेखक के सामने प्रणय-निवेदन करने की बजाय उसे अपनी माँ से आग्रह करना ज्यादा ठीक लगा हो। डायरी-लेखक यदि इच्छुक होगा तो उसे भी अपने माता-पिता को कहना पड़ेगा। यदि औपचारिक प्रस्ताव मीनू के माता-पिता की ओर से जाता है और डायरी-लेखक इच्छुक है तो अपनी सहमति दे देगा। इच्छुक नहीं है तो मीनू सीधी बात करे, उससे भी कोई लाभ नहीं होगा। इन बिन्दुओं को ध्यान में रखकर स्वयं कभी संकेत न देने वाली और फिर माँ से आग्रह करने वाली बात मीनू के लिए अनपेक्षित है क्या?

डायरी-लेखक मीनू को अच्छी तरह जानता है। इसके आचार, विचार, व्यवहार से भली-भाँति परिचित है। मीनू के संदर्भ में जिस नतीजे पर वह सोच-विचार के बाद पहुँचा है, उसके ठीक होने की संभावना ज्यादा है। किंतु मीनू के व्यवहार का विश्लेषण करने पर यह निष्कर्ष भी निकल सकता है, इससे इन्कार शायद डायरी-लेखक स्वयं भी न कर सके। इस निष्कर्ष के खिलाफ़ केवल एक ही दलील बनती है। क्या सत्रह वर्ष की एक लड़की इतनी अधिक परिपक्व हो सकती है? यह दलील इतनी वजनदार है कि इसको ध्यान में रखकर तौलने के बाद डायरी-लेखक का सोच अपने निष्कर्ष की तुलना में मुझे अधिक ठीक लगता है।

मीनू समझदार है। डायरी-लेखक के साथ मित्रता की बलिवेदी पर चढकर विवाह करना होगा, यह बात अच्छी तरह जानती है। भारतीय समाज में विवाह के बाद परपुरुष के साथ शरीर विहीन मित्रता भी स्वीकार्य नहीं है, इस सच्चाई का अहसास उसे बखूबी है। अपने माहौल से, अपने संस्कारों से इतनी समझ उसमें पैदा हो गई है कि समाज की स्वीकृत मर्यादाओं के अंदर रहकर ही उसे जीवन व्यतीत करना है। इसलिए एक अपरिचित के साथ फेरे लेते हुए, वह मित्र जिसे पति के रूप में पाने का प्रयत्न उसने किया था, भूत बनकर उसे न आतंकित कर पाया और न उसकी परछाई ही पड़ने दी उसने अपने ऊपर। कबाड़ बेचता हूँ। इन्सान साँस लेता है। कबाड़ निर्जीव है। हो सकता है मेरा सोचना ठीक न हो किंतु डायरी-लेखक के साथ मीनू का विवाह हो जाता, तो दोनों के लिए ज्यादा अच्छा होता। मीनू को मित्र पति के रूप में मिल जाता और डायरी-लेखक को ऐसी पत्नी मिल जाती, जिसके विचार उससे मिलते थे।

मेरी गुत्थी पूर्वापेक्षा सुलझी है। किंतु अब भी वह इतनी उलझी हुई है कि उसे पूरी तरह सुलझा देखने के लिए मुझे इंतजार करना पड़ेगा।

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(10)

11 अगस्त, 1952

बीता कल रविवार था और आने वाले कल जन्माष्टमी की छुट्‌टी है। पंद्रह अगस्त का अवकाश भी इसी सप्ताह है। इसलिए बाहर से जयपुर आकर पढ़ने वाले अधिकतर लड़के घर चले गए हैं। कक्षा में उपस्थिति कम थी, इस कारण से पहला पीरियड पढाने आए अध्यापक ने छुट्‌टी कर दी। इसके बाद सबका मन ऐसा उखड़ा कि साइकिलें उठाकर पिकनिक मनाने निकल गए। आठ बजे घर लौटा हूँ। कई दिनों से डायरी लिखने की बात सोच रहा हूँ। दिमाग में बहुत-सी सामग्री इकट्‌ठी हो गई है। कॉलेज में पढाई नहीं हुई इसलिए रात को पढ़ने की अनिवार्यता नहीं है। रोजाना तो जो आज पढाया गया और कल पढाया जाएगा, उसे मैं रात को पढता हूँ। सुबह पाँच से सात बजे तक यह मानकर पढाई करता हूँ कि मुझे कॉलेज की पढाई के सहारे नहीं, अपनी पढाई के सहारे उत्तीर्ण होना है। आठ बजे कॉलेज पहुँचना होता है। सात बजे उठकर, नहा-धोकर, खा-पीकर, साइकल लेकर निकलता हूँ। तब जाकर कहीं दौड़ते-भागते कॉलेज पहुँच पाता हूँ।

इस साल परीक्षाएँ विश्वविद्यालय ने ली थीं। मार्च में वार्षिक परीक्षाएँ हुईं। तीन टैस्ट इस साल भी हुए लेकिन उनके आधार पर केवल दस प्रतिशत अंक जोड़कर वार्षिक परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। पिछले साल जो नींव हमने डाली थी, पुख्ता हो गई है। कम-से-कम हमारी कक्षा में, योग्यता अंकों का आधार होती है। प्रथम वर्ष की तरह योग्यता के अलावा सब कुछ महत्त्वपूर्ण है, वाली बात अब नजर नहीं आती। इसी के कारण पिछले साल जो भरोसा मैंने स्वयं को दिया था, उसे सार्थक करते हुए मैं कक्षा में तीसरा स्थान बना पाया। वर्ष-भर दिए गए टैस्ट रहे हों, चाहे कक्षा में पढाए जाने वाले विषयों पर बातचीत, बहस और प्रश्नोत्तर, योग्य एवं मेधावी छात्र की मेरी छवि में निखार ही आया। सहपाठियों के बीच भी और अध्यापकों के बीच भी मेरी प्रतिभा की धाक बढी। इस वर्ष कॉलेज की ओर से वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेकर मैंने अपने लिए तीन पुरस्कार और कॉलेज के लिए दो शील्ड़ जीते। प्रवेश के प्रारंभिक दिनों में बनी नेता वाली छवि अब पूरी तरह बदलकर ऐसे छात्र की छवि में परिणत हो गई है जो होशियार, पढाई में तेज, मिलनसार, पाठ्‌येतर गतिविधियों में सक्रिय और नेतृत्व की क्षमता रखने वाला है। कक्षा का कोई भी महत्त्वपूर्ण या सामूहिक काम मेरी सहमति के बिना नहीं होता। बीस लड़कों की हमारी मंडली पूर्ववत्‌ बनी हुई है।

रैगिंग के विकल्प के रूप में गत वर्ष जो नई परंपरा हमने शुरू की थी, चालू वर्ष में वह परंपरा लुप्त या कमजोर न हो जाए, इसका पुख्ता इंतजाम हम लोगों ने किया था। हमारी मंडली ने सतर्कता के साथ स्थितियों पर नजर रखी। द्वितीय वर्ष के किसी छात्र ने प्रारंभिक दो-चार दिनों में नए छात्रों में से किसी को अगर रैगिंग के लिए पकड़ा तो हमने उसे घेर लिया। उससे पूछा कि पिछले साल तेरी रैगिंग किसने की थी? नकारात्मक उत्तर मिलने पर कुछ समझाकर और कुछ डांटकर हमने गत वर्ष प्रारंभ की गई नई परंपरा के अनुसार जुलाई के पहले या दूसरे सप्ताह में नए लड़कों को चाय-पान के लिए बुलाकर उस परंपरा को आगे बढाने का आग्रह किया। द्वितीय वर्ष के उन छात्रों को हमने बुलाया, जिनकी अपनी कक्षा पर पकड़ थी। रैगिंग और चाय-पान के कार्यक्रम के बारे में उनसे बातचीत की। गत वर्ष की तरह इस वर्ष भी दस जुलाई को ही द्वितीय वर्ष के छात्रों ने प्रथभ वर्ष के छात्रों को चाय-पान के लिए आमंत्रित किया। कोशिश रहेगी कि हम लोग जब एम0बी0, बी0एस0 करके निकलें तो चाय-पान का कार्यक्रम मेडीकल कॉलेज में इतने सुदृढ रूप से प्रचलित हो जाए कि रैगिंग करने वाली बात किसी को याद ही न रहे।

बाबा की आमदनी पहले की तुलना में कई गुना बढ गई है। उनके सामने अभी अनेक लक्ष्य हैं, जिनकी पूर्ति के लिए उन्हें पैसा जमा करना है। थड़ी बेचकर बाबा एक पक्की दुकान लेना चाहते हैं। रहने के लिए मकान खरीदना चाहते हैं। अम्मा की बाँहों को सोने की चूड़ियों से भर देना चाहते हैं। अपने लिए सोने की चैन ओर हीरे की अँगूठी खरीदना चाहते हैं। जो कुरता वे पहनते हैं उसके लिए सोने के बटन बनवाना चाहते हैं। हीरे की लौंग और हीरे जड़े बुंदे दिलवाकर अम्मा की सिंध की अधूरी इच्छा पूरी करना चाहते हैं। फिलहाल बाबा बाजार में पैसा ब्याज पर चलाते हैं। काका भोजामल ने परिवार के बढे खर्चों के बावजूद मीनू की शादी की है। बाबा मुझे कई बार ट्‌यूशन छोड़ने के लिए कह चुके हैं। उनसे मैं कुछ नहीं कहता, मगर ट्‌यूशन करता रहता हूँ। फीस, किताबों की कीमत, जमाने की रंगत के अनुसार कपड़े, नई साइकल पर उन्होंने बरवक्त पैसा खर्चा किया है। हर महीने सौ रुपए वे मुझे हाथ-खर्च के लिए देते हैं। छात्रवृत्ति मुझे इस वर्ष भी मिली है। ट्‌यूशन, छात्रवृत्ति और बाबा के दिए हुए हाथ-खर्च में से बचाकर एक हजार रुपया मैंने पिछले साल भर में अम्मा को दिया है। लक्ष्यपूर्ति के लिए, संभावित खर्चों को ध्यान में रखते हुए बाबा कंजूसी करते हों, ऐसा बिलकुल नहीं है। मेरा और अम्मा का हाथ उतना ही खुलता है, जितना ्‌ज़रूरी होता है। ईंधन के मामले में चूरीमिट्‌टी के लड्‌ड़ू बनाने वाली बात हो या हर दूरी पैदल तय करने वाली नीति, अम्मा फिजूलखर्ची बिलकुल नहीं करती है। खर्च के बारे में जो नियम उसने अपने लिए यहाँ आने के तुरंत बाद निर्धारित किए थे, वह ध्यान पूर्वक अब भी उनका पालन करती है।

मीनू को विवाह के बाद पति के साथ भोजन के लिए बुलाया था। काका भोजामल और उनके पूरे परिवार को भी आमंत्रित किया था। मीनू के पति शराब पीते हैं या नहीं पीते, मैं नहीं कह सकता, लेकिन बाबा के बहुत आग्रह करने के बाद भी हमारे घर में उन्होंने शराब नहीं पी। बाबा व काका भोजामल शराब पीते रहे और मीनू के पति सोडा वाटर। मीनू नई दुलहन के कपड़ों में थी और खुश लग रही थी। ससुराल में अपने पति के साथ सोनू खुश रहे, हम सब भी तो यही चाहते हैं। मैं और वीरू परोसगारी कर रहे थे। बाबा, काका भोजामल, मीनू के पति और काका भोजामल के दोनों विवाहित लड़के साथ बैठे थे। चारपाइयाँ मिलाकर, उन पर चादरें बिछाकर बैठने की व्यवस्था थी। मीनू वहीं चारपाई पर बैठी गपशप में भाग ले रही थी। कभी वह उठकर रसोईघर की तरफ चली जाती, कभी यहाँ-वहाँ खड़ी होकर भतीजों-भतीजियाों के साथ चुहल करती और कभी चारपाई पर टाँगें लटकाकर बैठ जाती। शादी के बाद अपने मायके में आकर लड़की जैसा महसूस करती है, वैसा ही निश्िंचत और स्वतंत्र मीनू महसूस कर रही थी। डॉक्टर साहब संबोधन के साथ दो-एक बार मीनू के पति ने अपने पास बैठाकर मुझसे निकटता स्थापित करती चाही, लेकिन परोसगारी की जिम्मेदारी होने के कारण मैं उनके पास बैठकर विशेष बातचीत नहीं कर पाया। यों भी उनके साथ निकटता का कोई औचित्य नहीं था। मुझे अकारण उनके घर जाना नहीं है। उन्हें अकारण हमारे घर आना नहीं है। गलती से कभी काका भोजामल के घर मुलाकात हो जाए तो अलग बात है, अन्यथा सालों साल शायद मुलाकात भी न हो हमारी। फिर निकटता बढाने की औपचारिकता में उलझने से क्या लाभ? मैंने तो मीनू से भी उस दिन औपचारिक बातचीत ही की। अपनी सीमाएँ और मर्यादाएँ जानने वालों के लिए अच्छा यही होता है कि वे उनका उल्लंघन न करें। मीनू के पति शिष्ट और मिलनसार हैं। देखने-सुनने में अच्छे हैं। कम-से-कम मुझे तो वे ठीक ही लगे।

कॉलेज छात्रसंघ के महासचिव ने इस वर्ष सबसे ज्यादा निराश किया। मुझे अपराध-बोध इसलिए होता है क्योंकि कक्षा के साथियों ने, कुछ अन्य लोगों ने महासचिव पद का चुनाव लड़ने के लिए पुरजोर आग्रह किया था, मगर मैंने उन्हें टाल दिया था। वैसे तो इससे पहले जो लड़के छात्रसंघ के महासचिव बने हैं, छात्रों के हित में उन्होंने क्या किया है, यह बात मुझे मालूम नहीं है, किंतु महासचिव के रूप में मैं जो कुछ करता, वह तो दूर रहा वर्तमान महासचिव ने ऐसा मान लिया कि बाहुबल के सहारे कॉलेज तो क्या पृथ्वी की संपदा को भी भोगा जा सकता है। उसके कुकृत्य देख-देखकर मैं अपने निर्णय पर पछताता रहा। अपनी भावनाओं की विस्तृत चर्चा मैंने अपने साथियों से की तो उन्होंने भी पलटकर सारी स्थितियों का दोष मेरे ऊपर मढ़ दिया।

जो बातें मुझे अच्छी नहीं लगीं, उन्हें गिनने बैठूंगा तो सूची बहुत लंबी हो जाएगी। सबसे पहले पिकनिक के दौरान और उसके बाद अगले कुछ दिनों में ऐसी बातें सामने आईं, जिन्हें देख-सुनकर हमारे कान खड़े हो गए। वर्षा ऋतु में किसी समय प्रतिवर्ष मेडीकल कॉलेज के सभी विद्यार्थियों की एक पिकनिक आयोजित की जाती है। पिकनिक का आयोजन छात्रसंघ करता है। हर साल पिकनिक का पैसा जोड़कर फीस कॉलेज में जमा कराई जाती है। लगभग आठ हजार रुपयों की धनराशि छात्रसंघ के महासचिव के पास पिकनिक के लिए उपलब्ध रहती है। पिकनिक स्थल पर आने-जाने के लिए बसें, नाश्ते के अलावा दाल, बाटी, चूरमे की व्यवस्था, हाउजी, तीन टांग की दौड़, जलेबी दौड़, कॉलेज किंग व कॉलेज नवीन के रैफल, म्यूजीकल चेयर जैसे खेलों के बीच साल-भर याद रखने लायक मौज-मस्ती का वातावरण रहता है। विद्यार्थी पिकनिक की प्रतीक्षा करते हैं।

इस बार सभी विद्यार्थियों को सुबह साढे नौ बजे कॉलेज बुलाया गया था। अकेला लड़का, अकेली लड़की, एक लड़का और एक लड़की साथ, दो लड़के साथ, दो लड़कियाँ साथ इस प्रकार पाँच वर्गों में कॉलेज से आमेर तक साइकल दौड़ का आयोजन किया गया था। पिकनिक में जाने वाले प्रत्येक लड़के और लड़की के लिए पाँच में से किसी-न-किसी वर्ग में भाग लेना आवश्यक था। स्टाफ सदस्यों में से कोई भी बस में विद्यार्थियों के साथ नहीं जाता था, इसलिए बसों की व्यवस्था नहीं की गई। आमेर की दूरी कॉलेज से केवल आठ मील है। इसलिए किसी विद्यार्थी को इस प्रतियोगिता में भाग लेने में परेशानी नहीं हुई। सबको बहुत आनंद आया। प्रत्येक वर्ग में सबसे पहले आमेर पहुँचने वालों को पुरस्कार दिए गए।

आमेर पहुँचकर सबको एक केला और एक सेब दिया गया। इसके बाद विभिन्न खेल शुरू हुए। हो-हल्ला, छेड़छाड़, चीख-चिल्लाहट, गीत-नृत्य के बीच भोजन का समय हो गया। भोजन चल ही रहा था कि हमने देखा, महासचिव सहित कुछ लड़के एक तरफ पेड़ों के झुरमुट में बैठे शराब पी रहे थे। हमने जान-बूझकर दरगुज़र किया। भय तो था ही कि तूल पकड़ने पर यह बात कोई दूसरा रूप भी ले सकती है। भोजन समाप्त हुआ तो शाम के पाँच बज चुके थे। लड़के-लड़कियों को साइकलों से लौटना था। कम-से-कम एक घंटे का रास्ता था। बीच में घाटी पड़ती थी। महासचिव और उनके साथी शराब पीकर फैल रहे थे, आपस में झगड़ रहे थे और गालियाँ दे रहे थे। पहल करके दस-दस के मिश्रित समूहों में हमने लड़के-लड़कियों को वापस भेजना शुरू किया। सबके जाने के बाद महासचिव और उसके साथियों को साइकलों के डंडों पर बैठाकर किसी तरह हमने उनके घरों पर पहुँचाया।

दूसरे दिन कॉलेज में पिकनिक की मौज-मस्ती की जगह महासचिव और उसके साथियों के किस्से सबकी जुबान पर थे। सब लोग उनके आचरण पर थू-थू कर रहे थे। विशेष रूप से लड़कियाँ इतनी अधिक क्षुब्ध थीं कि उनमें से कई भविष्य में पिकनिक में न जाने की कसम खा रही थीं। तभी पता लगा कि साइकल दौड़ प्रतियोगिता रखकर बसों का जो पैसा बचाया गया था उसे महासचिव और उसके साथी आपस में बाँटकर खा गए हैं। पिकनिक के लिए उपलब्ध राशि में से बचाकर उसका दुरुपयोग करने की बातें हम लोग पहले सुनते थे, मगर योजनापूर्वक इस मद में से एक बड़ी रकम डकार जाने की कोई बात हमने इससे पहले नहीं सुनी थी। अगले कुछ दिनों में छात्रसंघ के महासचिव सहित लगभग सभी पदाधिकारियों की हमने खूब ख्िांचाई की। लेकिन उन्होंने स्वीकार नहीं किया कि पिकनिक के पैसे में से उन्होंने किसी प्रकार की हेरा-फेरी की है। मेरे प्रति दुर्भावना के बीज भी महासचिव के मन में इस घटना के बाद की गई उसकी ख्िांचाई के कारण पड़े। आगे चलकर एक मामले में उसने मुझसे हिसाब चुकता करने की कोशिश ही नहीं की, उस कोशिश में सफलता भी मिली उसे।

दोपहर के समय मेरे लिए न घर जाकर भोजन करना संभव होता है और न टिफिन साथ लेकर आना ठीक लगता है। बाबा की कमाई में वृद्वि के कारण आर्थिक दृष्टि से मैं उतना दबाव महसूस नहीं करता था। नाश्ता करके और दूध पीकर मैं घर से आता था किंतु शाम को घर लौटने तक पेट के लिए यह सब पर्याप्त नहीं होता था। मैंने छात्रावास में रहने वाले अपने सहपाठियों के साथ अतिथि के रूप में छात्रावास के भोजनालय में दोपहर का भोजन करना शुरू किया। भोजन का हिसाब भोजनालय के मासिक खर्च में जितने समय भोजन हुआ, उसका भाग देकर निकाला जाता है। अतिथि ने जितने समय भोजन किया है उसके आधार पर संबंधित छात्र से राशि ले ली जाती है। जितने लड़कों के अतिथि के रूप में भोजन करता था, मैं उन्हें भुगतान दे देता था। इस व्यवस्था में और कोई परेशानी नहीं थी। बस, अलग-अलग छात्रों को, उनके साथ अतिथि के रूप में किए गए भोजन का पैसा देने के लिए मुझे हिसाब रखना पड़ता था।

मेडीकल कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए चार छात्रावास हैं। एक छात्रावास में लड़कियाँ रहती हैं। शेष तीन में से एक में स्नातकोत्तर कक्षाओं के छात्र, दूसरे में तृतीय से पंचम्‌ वर्ष के वरिष्ठ छात्र और तीसरे में प्रथम व द्वितीय वर्ष के वरिष्ठ व कनिष्ठ छात्र रहते हैं। चारों छात्रावासों में भोजनालय चलते हैं। भोजनालय की व्यवस्था संबंधित छात्रावास में रहने वाले छात्रों के चुने हुए प्रतिनिधि करते हैं। छात्रसंघ पर महासचिव के रूप में जिस छात्र का कब्जा रहता है उसी के चहेते छात्र भोजनालय की व्यवस्था के लिए चुने जाते हैं। भोजनालय के लिए जो सामान, आटा, दाल, घी, तेल, सब्जियाँ, दूध, दही, पनीर आदि खरीदा जाता है उसमें ये लोग हेराफेरी करते हैं। छात्रावासों के भोजनालयों में प्रति समय भोजन का खर्च यदि एक आना भी बढ़ जाता है, तो हजारों रुपए महीना इधर-उधर हो जाते हैं।

सारी व्यवस्था का दायित्व क्योंकि चुने हुए छात्र प्रतिनिधि का होता है इसलिए मैंने औपचारिक रूप से कनिष्ठ छात्रावास के भोजनालय के छात्र प्रतिनिधि से संपर्क किया। उसने कहा, ‘‘मेरे बिचार से कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए, फिर भी मैं महासचिव से पूछकर बताऊंगा।"

दो दिन बाद उसने बताया, ‘‘महासचिव ने वार्डन से बात की थी। नियमानुसार छात्रावास के भोजनालय में नियमित रूप से भोजन केवल वे छात्र कर सकते हैं जो छात्रावास में रहते हैं। तू डे-स्कॉलर है इसलिए नियमित रूप से भोजन वाली बात नहीं बन सकती। तू अतिथि के रूप में भोजन करता रह न, क्या दिक्कत है?"

मुझे मालूम था कि नियमों में किसी डे-स्कॉलर को छात्रावास के भोजनालय में भोजन करने की सुविधा देने का प्रावधान नहीं है। यदि छात्र प्रतिनिधि चाहे तो बिना शोर-शराबे के ऐसी व्यवस्था कर सकता है। किसी को नुकसान हो नहीं रहा है इसलिए खामोशी से इस तरह की व्यवस्था हो जाती है। भोजनालय का खर्च छात्रों में बँट जाता है। कॉलेज की ओर से किसी प्रकार का अनुदान मिलता नहीं है। जितनी अधिक संख्या में भोजन करने वाले होंगे, प्रति छात्र खर्च उतना ही कम आएगा। इस कारण से किसी को इस तरह के अनुरोध को स्वीकार करने में हिचकिचाहट नहीं होती है। मैंने छात्र-प्रतिनिधि से कुछ नहीं कहा। कनिष्ठ छात्रावास के वार्डन से मिला। महासचिव ने सचमुच उससे संपर्क किया था। उसने कहा, ‘‘नियमानुसार छात्र के लिए छात्रावास में रहना जरूरी है किंतु इसमें एतराज होना नहीं चाहिए। इंतजाम तो आप लोग ही करते हैं, देख लीजिए। नियमों के कारण मैं तो कुछ करने की स्थिति में हूँ नहीं।"

चीफ़ वार्डन से मिला तो उसने वार्डन से बात करने के लिए कहा। वार्डन से हुई बातचीत का विवरण उसे दिया तो उसने वार्डन से बात करके और स्वयं एक बार नियम देख लेने के बाद मिलने के लिए कहा। मैं दुबारा मिलने गया तो उसने भी वार्डन वाली बात दोहरा दी, ‘‘लिखित में तो इजाजत नहीं दी जा सकती, लेकिन सब कुछ आप लोगों के हाथ में है। वैसे भी सारे काम नियमों के अनुसार कौन करता है?"

प्रशासनिक स्तर पर काम बनता न देख मैं अपने कुछ साथियों को लेकर महासचिव के पास गया, ‘‘बॉस, देख लीजिए न, कोई रास्ता निकल सकता हो तो निकालकर नाम लिखवा दीजिए।"

‘‘तुम्हें रोकता कौन है? अतिथि के रूप में भोजनालय में भोजन करने से तुम्हें कोई रोके तो बताओ। जब ऐसे ही काम निकल रहा है तो नियम क्यों तुड़वाते हो?"

उससे बहस करने की, दलीलें देने की बहुत कोशिश की मगर उसका जवाब एक ही था, ‘‘अतिथि के रूप में भोजन करने से तुम्हें कोई नहीं रोकेगा। हमें नियम तोड़ने के लिए मजबूर मत करो।"

मेरे साथियों ने वापस लौटकर उसे जमकर गालियां दीं। मगर भोजनालय का सदस्य नहीं बनने दिया तो नहीं ही बनने दिया उसने। यद्यपि इससे उसको कोई लाभ नहीं हुआ, किंतु पिकनिक वाले दिन का हिसाब उसने चुकता कर दिया।

उसकी तोड़फोड़ और भुजबल से समस्याएँ सुलझाने की प्रवृत्ति के कारण उन दिनों ही एक हंगामा हो गया। हमारे कॉलेज के दो छात्र मोटरसाइकल से अजमेर जा रहे थे। जयपुर से तेईस मील आगे दुर्धटना हो गई। ट्रक ने मोटरसाइकल को पीछे से टक्कर मारी। दोनों लड़के गिरे और ट्रक उनके ऊपर से निकल गई। मौके पर ही दोनों की मृत्यु हो गई। खबर मेडीकल कॉलेज पहुँची तो कुछ छात्र मोटरसाइकलों से तुरंत रवाना हो गए। महासचिव ने प्रिसिंपल से बात करके उनसे माँग की कि दोनों छात्रों के मृत-शरीर जयपुर लाने के लिए एम्बुलेंस उपलब्ध कराई जाए। प्रिसिंपल ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया। उनका कहना था कि छात्र निजी कारणों से, निजी वाहन से अजमेर जा रहे थे। शासन या अस्पताल या कॉलेज से उनकी यात्रा का प्रत्यक्ष या परोक्ष कोई संबंध नहीं था। राजमार्गों पर न जाने कितनी दुर्घटनाएँ प्रतिदिन होती हैंं। उनमें न जाने कितने लोगों को जान से हाथ धोना पड़ता है। जब उनके लिए एम्बुलेंस नहीं जाती है तो छात्रों के लिए भी एम्बुलेंस नहीं जाएगी। एम्बुलेंस गई तो लोग आरोप लगाएँगे कि दुर्धटना में मृत लड़के क्योंकि मेडीकल कॉलेज में पढ़ते थे, इसलिए यह पक्षपात हुआ है। महासचिव ने प्रस्ताव रखा कि एम्बुलेंस में पैट्रोल लड़के भरवा देंगे। प्रिसिंपल ने यह बात भी नहीं मानी। उनका निर्णय पूर्ववत्‌ था, ‘‘एम्बुलेंस ले जानी है तो किराया-भाड़ा अग्रिम जमा कराइए।"

विवश होकर महासचिव ने किराया जमा कराके एम्बुलेंस भिजवाने के आदेश कराए। उसके साथ कुछ छात्र एम्बुलेंस में ही दुर्घटनास्थल के लिए निकल गए। दोनों छात्रों के सफेद चादर से ढके मृत शरीर लेकर एम्बुलेंस और मोटरसाइकलों का काफिला वापस लौटा। उधर पोस्टमार्टम की प्रक्रिया चल रही थी और इधर महासचिव दुःखी व क्रोधित छात्रों को गुस्से से उफनते हुए कह रहा था, ‘‘हमारे दो होनहार साथियों के मृत शरीर लावारिस सड़क के किनारे पड़े थे और प्रिसिंपल हमें नियम दिखा रहे थे। कायदे कानून आदमी के लिए होते हैं, आदमी कायदे-कानून के लिए नहीं होता है। जो नियम हमारे ऊपर सवार हो जाएँ, ऐसे नियम हमें नहीं चाहिएं। ऐसे नियमों को हम आग लगा देंगे। ऐसे नियम बनाने वालों को हम फूक देंगे। हमारे शहीद साथियों की आत्माएँ अपने अपमान का बदला लेने के लिए तड़प रही हैं। हम उनके अपमान का बदला लेंगे। इन बड़ी-बड़ी इमारतों के विशाल कमरों में बैठकर अपने आपको शहंशाह समझने वालों को हम बता देंगे कि भारत में अब राजाशाही और सामंतवाद नहीं चलेगा, कि भारत में अब लोकतंत्र है। यहाँ वही होगा, जो जनता चाहेगी।"

इस तरह का भड़काने वाला भाषण सुनकर छात्रों की मनःस्थिति पर जो विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंका होती है, वही हुआ। भाषण के दौरान ही नारेबाजी, पत्थरबाजी, तोड़-फोड़ और आगजनी शुरू हो गई। पुलिस आई। लाठीचार्ज हुआ। आँसू गैस के गोले छोड़कर क्रुद्ध छात्रों को तितर-बितर किया गया। महासचिव सहित धेरे में आने वाले छात्रों को पुलिस पकड़कर ले गई। माहौल शांत हुआ तो पता लगा कि भवन के शीशे पत्थरों की मार से टूट गए थे। मुख्य दरवाजा आग से झुलस गया था। कॉलेज के अहाते में खड़ी बस को तोड़-फोड़ करने के बाद स्वाहा कर दिया गया था। स्टील और लोहे के मलबे के अलावा बस की जगह कुछ नहीं था।

महासचिव ने हिंसा भड़काकर प्रिसिंपल के सैद्धांतिक एतराज का हिंसक जवाब दिया। प्रिसिंपल के एम्बुलेंस भेजने से इनकार करने के बाद रुपए जमा कराके काम तो निकाला ही गया था। अब प्रश्न उन रुपयों का था जो एम्बुलेंस के लिए जमा हुए थे। प्रिसिंपल ठीक था या नहीं? उसने अपने विशेषाधिकार का प्रयोग करते हुए छात्रहित में एम्बुलेंस भेजने की बात न मानकर ठीक किया या नहीं? एम्बुलेंस भेजने की स्थिति में हो सकता है प्रिसिंपल पर पक्षपात करने के आरोप लगते, किंतु एम्बुलेंस न भेजने पर जो तूफान उठा, उसका अनुमान प्रिसिंपल ने लगाया था या नहीं? इन प्रश्नों के उत्तर हिंसा से मिलने संभव नहीं हैं। एम्बुलेंस का पैसा जमा कराके, मृत शरीर मंगवाकर, पोस्टमार्टम करके दाह-संस्कार करा दिया जाता। लड़के मेडीकल कॉलेज में पढते थे, एम्बुलेंस मेडीकल कॉलेज की है, इस आधार पर जमा कराए गए रुपए वापस माँगने की कार्रवाई चलाई जा सकती थी। मिल जाते बहुत अच्छा, नहीं मिलते तब भी इतने से रुपयों को इज्जत का प्रश्न बनाकर कॉलेज में हिंसा फैलाना उचित नहीं ठहराया जा सकता। बाहुबल और शक्ति प्रदर्शन के आधार पर समस्याओं का हल निकालने में विश्वास करने वाले महासचिव को यह बात समझ में नहीं आ सकती कि वह गुंडों का सरदार नहीं है। मेडीकल कॉलेज में पढ़ने वाले पढे-लिखे युवक-युवतियों, देश के भावी डॉक्टरों ने चुनकर उसे महासचिव की कुरसी पर इसलिए नहीं बैठाया है ताकि वह अपनी सत्ता को कायदे, कानूनों और नियमों से ऊपर समझने लगे। चतुराई के साथ स्थितियों में सुधार करने का दायित्व सौंपा गया है उसे। सत्तामद में चूर होकर स्थितियों को बिगाड़ने के लिए उसे महासचिव नहीं चुना गया।

मैं और मेरे साथी इस घटना पर कई दिनों तक बातचीत करते रहे। कुछ दिनों तक तो हमारी बातचीत का केंद्र बिंदु महासचिव और उसका विध्वंसात्मक सोच ही रहा। वैचारिक रचनात्मकता के अभाव में व्यावहारिक रचनात्मकता की कल्पना की नहीं जा सकती। पद का दुरुपयोग करने वाला कोई भी व्यक्ति शायद रचनात्मक हो ही नहीं सकता। रचना में भी वह अपना लाभ तलाश करेगा। उन्हें लगता है कि प्रभुत्व धौंस से मिलता है, आतंक से मिलता है, हिंसा से मिलता है, गुंडागर्दी से मिलता है, मारपीट से मिलता है, डरा-धमकाकर गलत को मनवा लेने से मिलता है। किंतु इस तरह के लोग यदि नेतृत्व सँभालते हैं तो अपने अनुयायियों को भी उन्हीं कीटाणुओं का भंड़ार बना देंगे। विध्वंसात्मक सोच वाले पतवारधारी कहाँ ले जाएँगे हमारे नवस्वतंत्र देश को? एक बार तो महासचिव को पद से हटाने के लिए अभियान चलाने की बात भी उठी थी। किंतु लगा कि यह काम करने से कॉलेज में झगड़े होने लगेंगे। मेडीकल कॉलेज को गृहयुद्ध में झोंकने का निर्णय महासचिव के सोच से कम विध्वंसात्मक कहलाएगा क्या? कुछ महीनों की बात है। इसके बाद तो छात्रसंघ का काम यों ही समाप्त हो जाएगा।

कुछ दिनों के बाद मैंने एक ऐसा दृश्य देखा जिसने मुझे पूरी तरह हिलाकर रख दिया। रात को दस बजे का समय होगा। नवंबर का महीना था और दूसरा टैस्ट चल रहा था। मैं घर पर बैठा पढ़ रहा था कि बायोकैमिस्ट्री के एक सूत्र ने अटका दिया। कोई दूसरी पुस्तक देखकर उसे समझने के अलावा कोई विकल्प नहीं था। टैस्ट दूसरे दिन सुबह होनेवाला था, इसलिए उसी समय उठकर मैंने साइकल निकाली। अम्मा को बताकर छात्रावास आया। सीढियाँ चढ़कर जैसे ही मैं बाईं ओर मुड़ा, मेरा ध्यान एल आकार में बनी दाहिनी विंग की ओर चला गया। पूर्णतः नग्न एक लड़की बरामदे में जलती ट्‌यूबलाइट की दूधिया रोशनी के बावजूद एक कमरे से निकलकर दूसरे कमरे में जा रही थी। मैं भौंचक्का-सा अपने स्थान पर ठिठक गया। इच्छा हुई, जाकर देख आऊँ कि क्या मामला है? किंतु पाँव उठे नहीं।

बाईं ओर चलता हुआ मैं अपने सहपाठी के कमरे में आया। दरवाजा खुला था और वह टेबल लैंप की रोशनी में दीवार के साथ तकिया लगाकर बिस्तर पर बैठा पढ रहा था। मुझे देखकर वह मुसकराया। मैं चारपाई पर बैठ गया। ‘‘इस समय कैसे आना हुआ?"

‘‘बताता हूँ। पहले यह बता कि पहले तल्ले की दाहिनी विंग में कौन कौन रहते हैं?"

‘‘क्यों?" उसके होंठों पर रहस्यपूर्ण मुस्कान थी।

‘‘यों ही।"

‘‘मैं जानता हूँ कि यह सवाल तू क्यों पूछ रहा है।."

‘‘क्यों पूछ रहा हूँ?"

‘‘यहाँ आते समय दाहिनी विग में कुछ देखा था?"

‘‘हां, देखा था।" मैंने सहमति में सिर हिलाया।

‘‘तुम्हें पहली बार पता लगी हैं ये बातें?" वह विस्मित था।

‘‘यहाँ यह सब रोजाना होता है?" मैं अपने अज्ञान पर आश्चर्यचकित था।

‘‘दाहिनी विंग में लाल और प्रेम के कमरे हैं। दोनों के घर यहीं हैं, इसलिए ज्यादातर यहाँ रहते नहीं हैं। महासचिव ने दोनों से कमरों की चाबियाँ ले रखी हैं। हर रोज लड़की आती है। महासचिव, उसके कुछ साथी लाल के कमरे में और कुछ साथी प्रेम के कमरे में नंगे पड़े रहते हैं। शराब चलती रहती है। यहाँ आते ही लड़की भी नंगी हो जाती है और उसी अवस्था में दोनों कमरों में घूमती रहती है। महासचिव के साथी भी नग्नावस्था में एक से दूसरे कमरे में जाते रहते हैं। दोनों कमरों के बीच में पड़ने वाले कमरों में रहने वाले लड़के भी चाहें तो थोड़ा हँस-बोल आते हैं। लेकिन ये बातें तो सारा मेडीकल कॉलेज जानता है। तुझे क्या सचमुच पहली बार पता लगी हैं ये बाते?"

‘‘तूने कभी बताया नहीं तो पता कैसे लगता?"

‘‘मैं तो सोचता था, तुझे सारी बातें मालूम हैं।"

‘‘महासचिव की इन हरकतों से तुम लोगों की पढाई पर कोई असर नहीं होता?"

‘‘होता क्यों नहीं है? दाहिनी विंग के कुछ लड़के तो पढ़ते ही इस तरफ आकर हैं।"

‘‘फिर तुम लोगों ने वार्डन से शिकायत क्यों नहीं की?"

‘‘तू समझता नहीं है, महासचिव बड़ा शातिर है। एक तो वह डे स्कॉलर है। उसके नाम दोनों में से कोई भी कमरा नहीं है। शिकायत करेंगे तो लाल और प्रेम मारे जाएँगे।"

‘‘गलत कामों के लिए कमरा देंगे तो मरेंगे नहीं?"

‘‘चल, मान लिया। मगर महासचिव चतुर्थ वर्ष में पढता है, फिर भी ये धंधे कनिष्ठ छात्रावास में करता है। अपने फंसने की जगह तो उसने छोड़ी ही नहीं है।"

‘‘क्यों, वार्डन आकर अपनी आँखों से नहीं देख सकता? ये लोग चोरी छिपे तो कुछ करते नहीं हैं।"

‘‘वार्डन भी सारी बातें जानता है। उससे डरता है इसलिए चुप है।"

सूत्र समझकर मैं लौट आया। अगले दिन टैस्ट देने के बाद मैंने पूरा घटनाक्रम अपनी मंडली को सुनाया। कुछ लोगों के पास यह खबर उड़ती उड़ती पहुँची थी। मगर उन्होंने अफ़वाह मानकर उस पर विश्वास नहीं किया था। बाकी लड़कों के लिए यह जानकारी पूरी तरह नई थी। मामला गंभीर था। यदि कुछ किया न गया तो कनिष्ठ छात्रावास व्यभिचार का अड्‌डा बना रहेगा। लपटें उठीं तो निरपराध लड़के भी फँस जाएँगे। पहले हुई वारदातों की तरह इस घटना को दरगुज़र करना संभव नहीं था। सवाल कुछ महीनों का नहीं है अब, हर दिन और हर रात का है। इतना खुलकर सब कुछ चल रहा है, इसका अर्थ है कि महासचिव को प्रशासनिक स्तर पर किसी का डर नहीं है। बुद्धिबल यदि काम नहीं करता और बाहुबल का ज़वाब बाहुबल से देना पड़ता है तब भी हम पीछे नहीं हटेंगे, हमारी मंडली ने निश्चय किया।

छात्रावास के लड़के यदि मौखिक या लिखित शिकायत करते हैं तो उनमें से कुछ के साथ गुंडागर्दी की जा सकती है। दस-पंद्रह लड़कों ने आकर कमरे में ही यदि किसी को पकड़ लिया तो भरोसा नहीं है कि कितने लोग उसकी मदद के लिए पहुँचेंगे। लड़कों में साहस की कमी नहीं है किंतु इस तरह का उपाय ज्यादा अच्छा रहेगा कि महासचिव और उसके साथी कोई झमेला खड़ा न कर सकें। हमारी मंडली या मंडली में से कुछ चुने हुए छात्र या कोई एक, उदाहरण के लिए मैं स्वयं, अगर महासचिव को समझाने की चेष्टा करेंगे तो हो सकता है वह इसे चुनौती के रूप में ले। हमने सलाह, धमकी और चुनौती तीनों का मिला-जुला रूप अपनाने की योजना बनाई।

एक विस्तृत शिकायती-पत्र की तीन प्रतियाँ हमने तैयार कीं। एक प्रति प्रिंसिपल के लिए, दूसरी प्रति चीफ वार्डन के लिए और तीसरी प्रति अपने लिए। महासचिव की सारी कारगुजारियों का उल्लेख तो हमने उस शिकायती-पत्र में किया ही, उसके साथ कनिष्ठ छात्रावास के वार्डन द्वारा जान-बूझकर की जा रही अनदेखी का भी जिक्र किया। कक्षा में सार्वजनिक रूप से इस शिकायती-पत्र का पाठ किया गया। सुझाव और संशोधन मांगे गए। वहीं छात्रावास में रहने वाले अपने सहपाठियों से हमने शिकायती-पत्र पर हस्ताक्षर कराए। प्रथम वर्ष के छात्रों को हमने इस झगड़े में नहीं डाला। कारण स्पष्ट था कि उन्हें डराने, धमकाने ओर आतंकित करने की संभावनाएँ अधिक थीं। रैगिंग के मामले में हमारी कक्षा ने जो रौब-दाब कायम किया था, उसके कारण हममें से किसी पर हाथ डालने से पहले महासचिव को दस बार सोचना पड़ता। इस कार्यवाही को हमने गुप्त रखने की कोई चेष्टा नहीं की। हम चाहते थे कि बात महासचिव तक पहुँचे ताकि वह बौखलाए।

दूसरे दिन सुबह हमारी मंडली के सभी बीस सदस्य महासचिव के पास पहुँचे। गुड मार्निंग आदि के बाद मैंने शिकायती-पत्र की प्रिसिंपल के पास भेजने के लिए तैयार की गई प्रति आगे बढाते हुए कहा, ‘‘बॉस, छात्रावास में रहने वाले हमारे सहपाठी यह पत्र प्रिंसिपल को देने जा रहे थे। पता लगा तो हमने ले लिया। आप जरा देख लीजिए।"

महासचिव ने पत्र को आद्योपांत अक्षरशः पढ़ा। हमारी आशंका के प्रतिकूल वह बिल्कुल भी उत्तेजित नहीं हुआ। पहले मुसकराया और फिर बोला, ‘‘यार, यह सब तो चलता रहता है कॉलेज में।"

मैंने गंभीरता के साथ कहा, ‘‘बॉस, अगर यह सब चलता है, तो नहीं चलना चाहिए। कम-से-कम आपको यह सब करने से बचना चाहिए।"

‘‘किसी को बुरा लगता था तो मुझे बता देता। लड़कों को परेशान करने की मंशा तो हमारी कभी रही नहीं।"

‘‘मान लीजिए बॉस, हमें पता नहीं लगता और यह पत्र प्रिंसिपल के पास पहुँच जाता तो कितना बुरा होता?" कहते-कहते शिकायती-पत्र मैंने महासचिव के हाथ से वापस ले लिया। ‘‘हम लोगों का निवेदन मानें तो कम-से-कम छात्रावासों में इस तरह के काम करना बंद कर दीजिए।"

उस दिन मन-ही-मन मैंने फैसला किया कि अगली बार छात्रसंघ के महासचिव पद के लिए चुनाव लडं़ूगा।

सितंबर में चुनावों की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। इसलिए पदचाप अभी से सुनाई देने लगी है। चुनाव लड़ने के इच्छुक लड़के-लड़कियों के नाम फिजा में तैरने लगे हैं। मंडली में कई बार मेरे महासचिव पद के लिए चुनाव लड़ने के बारे में चर्चा होती रही है। पिछले महासचिव से मिले दुःख-दर्द जब भी बातचीत में आते हैं, कोई-न-कोई साथी कह देता है, ‘‘तू चाहे इस साल भी चुनाव मत लड़। लेकिन फिर हमें दुःखी मत करना। गलत बातों से ज्यादा तकलीफ तुझे ही होती है और तू अपनी तकलीफ खत्म करने के लिए हमें दुःखी कर देता है।"

‘‘चुनाव तो इस साल इससे लड़वा लेंगे, लेकिन करेगा तब भी यह हमें ही दुःखी। हमारे बिना इसे न स्वर्ग में कोई पूछेगा और न नर्क में।" एक ज़ोरदार ठहाका गूंज उठता है, जिसमें एक ठहाका मेरा भी होता है।

मेडीकल कॉलेज की पढ़ाई बिना अस्पताल और मरीजों के अधूरी होती है। पिछले साल तक हम लोगों को पढ़ाई के सिलसिले में या कुछ सीखने के लिए अस्पताल जाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। इस साल से अस्पताल में जाने का सिलसिला शुरू हो गया है। जुलाई से नवंबर मेडिसिन के विभिन्न विभागों में और दिसंबर से अप्रेल तक सर्जरी से संबंधित विभागों में दो घंटों के लिए जाना होगा। पाँच-पाँच के समूहों में अलग-अलग वार्डों में जाकर मरीजों को देखना होगा। मरीजों को जांचकर निदान तक पहुँचने का प्रयत्न करना होगा। मरीज की फाइल देखकर जानकारी लेनी होगी कि कौनसे लक्षण हों तो कौनसी बीमारी हो सकती है? निदान असंदिग्ध बनाने के लिए कौनसी जांच करानी चाहिए? जांच के परिणामों का विश्लेषण कैसे करना चाहिए? केस हिस्ट्री लेते समय कौनसे प्रश्न मरीज से पूछे जाने चाहिएं? मरीजों की सेवा करने की स्थिति में तो अभी नहीं हैं मगर उनकी सेवा कैसे की जाए, यह समझ निश्चय ही वार्ड पोस्टिंग से विकसित हो जाएगी। इन थोड़े से दिनों में अनुभव हुआ है कि वार्ड में जाकर दो घंटे व्यतीत करने वाली बात न हमें अर्थवान लगती है और न वार्डों में हमें गंभीरता से लिया जाता है। मरीजों को पता होता है कि हम सीख रहे हैं या पढ़ रहे हैं, इसलिए वे हमारे प्रश्नों के उत्तर बेदिली से देते हैं। नर्सिंग स्टाफ और रेजीडेंट डॉक्टर काम के बोझ से पहले ही इतने दबे हुए हैं कि हमारी शंकाओं, जिज्ञासाओं और प्रश्नों को सुनकर वे झुंझलाने लगते हैं। अध्यापकगण जब कक्षा लेते हैं तब भले ही वार्ड में भरती मरीज विशेष के बारे में चर्चा कर ली जाय अन्यथा वहाँ हम लंगड़ों की तरह दौड़ने की चेष्टा में संलग्न होते हैं। वार्ड से मन को उखाड़ने के लिए ये कारण पर्याप्त हैं। हम जबरदस्ती कितना सीख लेंगे? जो सीखेंगे वह सचमुच कैसा होगा? संभव है अभी शुरुआत है इसलिए ऐसा लगता हो, भविष्य में स्थितियाँ मनोनुकूल लगने लगें। फिलहाल तो लगता है कि वार्ड पोस्टिंग को लाभदायक बनाने की दृष्टि से हाथ-पैर हमें ही मारने पड़ेंगे।

यों तो चुनाव के बारे में किसी प्रकार की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती, फिर भी मैं मानता हूँ कि छात्रसंघ के महासचिव पद का चुनाव मुझे जीत जाना चाहिए। अपनी कक्षा के शत-प्रतिशत मत मुझे निर्विवाद रूप से मिलने चाहिएं। अब तक मैंने जो भी सामूहिक काम किया है उसमें पूरी कक्षा को साथ लेने की कोशिश की है। यह कोशिश रस्म अदायगी के रूप में की गई हो, ऐसा भी नहीं है। मैंने स्वयं विचार किया, तैयारी की। हमारी मंडली ने बैठकर विचार रखे। मेरे विचारों में जो खामियाँ नजर आईं, उन्हें सुधारकर मंडली के सब साथियों की सहमति से योजना का प्रारूप बनाया। उस प्रारूप को पूरी कक्षा के सामने रखा। वहां भी सबसे विचार मांगे। सबकी बातें पूर्वाग्रह मुक्त होकर सुनीं। उनके आधार पर फिर कोई फेरबदल करनी पड़ी तो की। योजना को अंतिम रूप देकर उसके कार्यान्वयन की दृष्टि से यदि आवश्यक हुआ तो कक्षा के छात्र-छात्राओं को दायित्व दिए। उन दायित्वों की पूर्ति की दृष्टि से अपनी मंडली के साथियों से चर्चा की। सफलता मिली तो उसे अपनी सफलता न कहकर पूरी कक्षा की सफलता कहा। ऐसे में कक्षा के सभी सहपाठी स्वाभाविक रूप से मुझे प्यार भी करते हैं और मुझे सम्मान भी देते हैं। कोई लड़ाई मैंने अपने लिए नहीं लड़ी। हर लड़ाई पूरी कक्षा के लिए लड़ी है।

चतुर्थ और अंतिम वर्ष के छात्र जानते हैं कि रैगिंग के खिलाफ लड़कर मुझे व्यक्तिगत रूप से कितना सहना पड़ा है। पहली बार रैगिंग के दौरान जो मार मुझे पड़ी थी, उसे भूलना वरिष्ठ छात्रों के लिए आसान नहीं है। चतुर्थ वर्ष के कई छात्र चश्मदीद गवाह हैं, जब छात्रावास में तोड़ देने वाली यातनाओं के बीच पूछे गए इस प्रश्न का कि बोल सीनियर्स की बात मानेगा या नहीं, हर बार मैंने एक ही उत्तर दिया था, ‘‘गलत बात नहीं मानूंगा।"

बेहोश होकर भी वरिष्ठ छात्रों की गलत बात मैंने नहीं मानी। वह गलत क्या सचमुच सबके लिए गलत था? एक साँस में बीस गालियाँ देने की फरमाइश हमारी कक्षा के न जाने कितने छात्रों से की गई होगी। उनको तो यह फरमाइश गलत नहीं लगी। मुझे गलत लगी, मैं लड़ा। लड़ा ही नहीं, लड़ता चला गया। इसके बाद भी वरिष्ठ छात्र मुझे अनेक समस्याओं से जूझते देखते रहे। गत वर्ष पिकनिक के बाद महासचिव और उसके नशे में धुत्‌ साथियों को साइकलों पर लादकर उनके धरों पर पहुँचाने का काम किसके कारण हुआ? लड़कियों को छात्रावास में लाकर वातावरण प्रदूषित करने का अपराध करने वाले महासचिव को सही रास्ते पर लाने का काम किसने किया? वरिष्ठ छात्र बखूबी जानते हैं। यदि कोई वरिष्ठ छात्र महासचिव का चुनाव लड़ता हो तो इस कारण से मित्रों के कुछ मत उसे मिल जाएँ अलग बात है, अन्यथा चतुर्थ और अंतिम वर्ष के छात्रों के अधिकांश मत भी मुझे मिलने चाहिएं।

प्रथम और द्वितीय वर्ष के छात्रों के लिए तो रैगिंग के वीभत्स आतंक से मुक्ति ही पर्याप्त होनी चाहिए, मेरे समर्थन में खड़े होने के लिए। रैगिंग के स्थान पर पिछले साल और इस साल जो आयोजन प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों के लिए द्वितीय वर्ष के विद्यार्थियों ने किया उससे तो प्रारंभिक दो-ढाई महीनों में मेडीकल कॉलेज में दिखाई देता वातावरण ही बदल गया है। गाहे-बगाहे, स्पष्ट आभास होता है कि उनकी दृष्टि में मेरी जगह केवल वरिष्ठ छात्र की ही नहीं है बल्कि उनकी आँखों में मेरी परछाई अतिमानव के रूप में बनती है। प्रथम वर्ष के छात्रों को चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं होता है। उनका पूरा समर्थन मुझे मिलना चाहिए। द्वितीय वर्ष के छात्र भी निश्चित ही मुझे मत देना चाहेंगे।

फिर नेतृत्व की क्षमता के साथ जो परीक्षाएँ अच्छे अंकों से उत्तीर्ण करता हो, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में अपने कॉलेज का नाम रोशन करता हो, स्वयं भी पुरस्कार जीतकर लाता हो और कॉलेज को भी शील्ड दिलाता हो ऐसा महासचिव पद का प्रत्याशी दूसरा कौन होगा? ऐसा जुझारू, संयत, आदर्शवादी छात्र मुझे तो मेडीकल कॉलेज में नजर नहीं आता, जिसमें नेतृत्व की क्षमता तो है किंतु नेताओं वाले अवगुण नहीं हैं। कोई दूसरा विद्यार्थी ऐसा छात्र ढूँढ़ पाएगा, मुझे नहीं लगता। इसलिए मैं मानता हूँ कि महासचिव पद का चुनाव मुझे जीत जाना चाहिए।

जो आशंका मुझे इन दिनों बार-बार त्रस्त करती है, वह किसी दूसरे को विचित्र लग सकती है। चुनावों में हार-जीत का भय मुझे नहीं सताता। मुझे डर इस बात से लगता है कि महासचिव के रूप में दायित्वों का निर्वाह करते हुए मैं अपनी पढाई का नुकसान न कर बैठूं। मैं इस बिंदु पर बहुत स्पष्ट हूँ कि मेडीकल कॉलेज में मैंने डॉक्टर बनने के उद्‌देश्य से प्रवेश लिया है। मैं रैगिंग करा सकता हूँ। सुविधाओं को तिलांजलि दे सकता हूँ। महासचिव बनने से इनकार कर सकता हूँ, किंतु पढाई का नुकसान बरदाश्त नहीं कर सकता।

इस वर्ष वाडोर्ं में पोस्टिंग की शुरुआत हुई है। वार्ड में जाकर सीखने की दृष्टि से स्थितियाँ पूर्णतः विपरीत हैं। जब तक स्वयं रुचि लेकर पीछे नहीं पड़ूंगा, सीखने को कुछ नहीं मिलेगा। महासचिव के रूप में जो कुछ मैं करना चाहता हूँ वह इतना समय साध्य, इतना श्रम साध्य होगा कि आग्रहशील बनकर वार्ड में नया कुछ सीखा जा सके, इतनी सुविधा शायद न मिले। महासचिव पद का चुनाव लड़ने की दृष्टि से मुझमें आज भी यदि हल्की सी हिचकिचाहट पैदा होती है तो उसका कारण यह आशंका है। निर्णय लेने से पूर्व मैं अधिकतम विचार करने का पक्षधर हूँ। एक वार निर्णय कर लेने के बाद डूबना-तैरना मुझे कतई पसंद नहीं है। किंतु निर्णय लेते समय मुझे जानकारी नहीं थी कि महासचिव के दायित्वों और वार्डों में सीखने के बीच टकराव हो सकता है। अब स्पष्ट रूप से इस संकट को मैं देख रहा हूँ। अन्य विद्यार्थियों की तरह वार्ड के दो घंटे गपशप में या कैंटीन में गुजार नहीं सकता। इस समय को आगे-पीछे किया नहीं जा सकता। पुस्तकें तो मैं घर पर रात-भर जागकर भी पढ़ सकता हूँ लेकिन वार्ड में दो घंटे निर्धारित अवधि में ही रहना होगा।

प्रत्येक समस्या में ही उसका समाधान छिपा होता है। महासचिव पद को अपनी इच्छाओं के अनुसार गरिमा प्रदान करते हुए, महासचिव के रूप में मेडीकल कॉलेज में चिरस्मरणीय काम करते हुए अपने मूल दायित्व के निर्वाह की दृष्टि से जो समस्याएँ मेरे सामने आ सकती हैं इस समय मैं केवल उनका अँधेरा पक्ष देख पा रहा हूँ। उन समस्याओं का उजला पक्ष भी निश्चित रूप से होगा। मेरी दृष्टि समस्याओं के कुहासे में आज भले ही उलझ गई हो किंतु कल जब मैं उस कुहासे में प्रवेश करूँगा तो आर-पार देख पाऊँगा। आज तक मैं समस्याओं पर विजय हासिल करता आया हूँ। मुझे विश्वास है कि कल भी विजय मेरी होगी। आशंकाओं से भयभीत होकर मैं पीछे नहीं हटूंगा। अपनी प्राथमिकताओं की जानकारी मुझे भली-भाँति है। वरीयता क्रम से दृष्टि हटाए बिना मैं अपने सभी संकल्प पूरे करूँगा। मैं संकल्पपूर्ति का संकल्प लेता हूँ।

महासचिव पद के लिए अपनी जीत की संभावनाओं का आकलन करते हुए संभवतः मेरा विश्लेषण एक आत्ममुग्ध व्यक्ति का स्वकथन बन गया है।

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(11)

25 सितम्बर, 1952

गुलाल से सराबोर, थकान से चूर, विजय से उल्लसित और नवप्रदत्त दायित्वों के बोझ से दबा कुछ देर पहले घर लौटा हूँ। अम्मा और बाबा के चरण स्पर्श करके उन्हें महासचिव पद का चुनाव जीतने की सूचना दी तो दोनों ने बाँहों में लेकर मेरा मस्तक चूम लिया। मेरे सिर और बालों में अटा गुलाल अम्मा और बाबा को भी रंगीन बना गया। हम तीनों ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगे। विभाजन के केवल पाँच साल बाद बेटा समाज के बुद्धिमान तबके की भावी नाक माने जाने वाले समूह का सिरमोर बनकर आया है, यह इबारत मैं बाबा की आँखों में भली भाँति पढ़ पा रहा था। अम्मा की आँखें, उसका मुखमंडल, उसका अंग-अंग शुद्ध प्रसन्नता से दमक रहा था, किंतु बाबा की आँखों में प्रसन्नता से अधिक गौरव था।

मुझे लगा, अम्मा और बाबा की आकांक्षाओं, उनकी अपेक्षाओं, उनके देखे हुए सपनों की परछाइयाँ नजर आ रही हैं उनकी आँखों में। मेरे विषय में जो कुछ प्रतीतियाँ दोनों ने अपने-अपने ढंग से गढी हैं, दोनों की आँखों में उतर आई हैं वे प्रतीतियाँ ज्यों-की-त्यों। अम्मा ने शायद मेरी खुशी के अतिरिक्त कुछ नहीं चाहा है। जीवन में हर तरह के सुुख, हर तरह की खुशियाँ मुझे मिलें, अम्मा की तपश्चर्या का लक्ष्य यही है शायद। उसने सपना नहीं देखा है मेरे समृद्ध भविष्य में भागीदारी का। उसने अपेक्षा नहीं रखी है मेरी शादी में आने वाले दहेज की। उसने नहीं चाहा है मेरी पत्नी की सेवा का सुख भोगना। मेरा समृद्ध भविष्य, मेरा सुखपूर्ण विवाहित जीवन, मेरे खूबसूरत बच्चे देखने की आकांक्षा जरूर है अम्मा की, लेकिन अपना स्वार्थ नहीं जोड़ा है उसने इन आकांक्षाओं के साथ। इसलिए मुझे सम्मान मिलने की सूचना से उसका संबंध केवल प्रसन्नता के रूप में साकार हुआ है। खालिस प्रसन्नता, जिसमें दूसरी किसी ख्वाहिश की कोई मिलावट नहीं है।

बाबा ने शायद अपने अधूरे सपनों की पूर्ति मुझमें देखी है। उन्होंने सिंध में स्वतंत्रता आंदोलन के लिए अपने आपको खपाया। विभाजन के बाद उनका मोहभंग हुआ तो उन्होंने दूसरे छोर को पकड़ा। पहले अपने लिए उनका कुछ नहीं था। सब कुछ देश के लिए था। तन भी, मन भी और धन भी। अपने लिए कुछ भी करते हुए उन्हें लगता था, देश के साथ विश्वासघात कर रहे हैं। मगर शायद एक अज्ञात अपेक्षा उन्होंने देश से की थी। उन्हें अचेतन में लगता होगा कि स्वतंत्रता के बाद देश उनके लिए इतना कुछ करेगा कि अपने लिए कुछ न करने का गम उन्हें नहीं रहेगा। अचेतन में बैठी अज्ञात अपेक्षा की पूर्ति के स्थान पर जब उन्हें दर-ब-दर होना पड़ा तो जो उथल-पुथल उनके अंदर हुई उसने उन्हें ऐसे व्यक्ति में बदल दिया जो सब कुछ अपने लिए करता है, अपने लिए सोचता है और अपने लिए बोता-काटता है। कृतित्व के इस छोर को पकड़ने के बाद मुझे, अपने एकमात्र पुत्र को, डॉक्टर बनाकर उन्होंने समाज में, देश में सम्मानजनक स्थान प्राप्त करने का सिंध में देखा सपना पूरा करना चाहा होगा। यही कारण है कि उस सपने की पूर्ति के संकेत पाकर खुशी के साथ ये गौरव-भाव से भर गए हैं।

खुशी तो अम्मा और बाबा दोनों को हुई है, किंतु बाबा की आँखों में खुशी के साथ घुला-मिला गौरव देखकर मुझे अच्छा नहीं लगता। महासचिव का चुनाव जीतकर मैंने कोई बड़ी उपलब्धि अर्जित की हो तब भी बाबा को अपनी पीठ क्यों थपथपानी चाहिए? प्रजनन कर्म भले ही माता-पिता के सहयोग से संभव हुआ हो किंतु बालक माता-पिता की बनाई हुई कलाकृति, तैयार की हुई रचना या गढी हुई जीवित मूर्ति नहीं होता। उसके सुकृत्यों और कुकृत्यों का कारण केवल माता-पिता नहीं होते। उसके निर्माण में घर के वातावरण के अतिरिक्त अनेक पक्ष काम करते हैं। जिन बच्चों के साथ बालक खेलता है, जिन दोस्तों के साथ खाता-पीता-घूमता है, जिस स्कूल-कॉलेज में पढ़ता है, अपनी खुली और बंद आँखों से जिन्हें देखता है, जिस हवा में सांस लेता है, जिस वातावरण से प्राणवायु ग्रहण करता है, उसके निर्माण में उनकी भी महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। बालक की उपलब्धियों का छोटा-बड़ा अंश इनमें से किसी एक गुणक के हिस्से में आ जाए, यह तो संभव है, किंतु इनमें से कोई एक गुणक बालक की सभी उपलब्धियां अपने नाम कैसे लिख सकता है? कैसे एक स्कूल या कॉलेज कह सकता है कि अमुक व्यक्ति अमुक विशिष्ट स्थान पर इसलिए पहुँचा क्योंकि यह इस स्कूल या कॉलेज में पढा? कैसे एक बाल सखा दावा कर सकता है कि बचपन से खेल-खेल में जो कुछ उसे सिखाया उसी के कारण वह विशेष उपलब्धियां अर्जित कर सका? कैसे एक पिता गौरव से सीना फुला सकता है कि उसकी रचना, उसका अंश होने के कारण बेटा इतना ऊपर उठ सका है?

मैं छात्रसंघ के महासचिव का ना-कुछ चुनाव जीतकर आया हूँ तो बाबा को वे सुविधाएँ, वे उपदेश, वे संस्कार, वे हितपोषक निर्देश याद आ गए हैं, जिनके कारण उन्हें लगता है कि मैं कुछ हो गया हूँ। कल डॉक्टर बनकर लौटता हूँ, परसों ऐसा कुछ करता हूँ जिससे अन्य डॉक्टरों की तुलना में मेरी यश-पताका ऊँची हो जाती है, नरसों कोई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार जीतता हूँ। तो क्या इसके पीछे अकेले बाबा होंगे? अम्मा की अनबोली चिंताएँ, मीनू की खामोश मंगलकामनाएँ, मित्रों की दीर्घ सदेच्छाएँ कहीं नहीं होंगी? मेरी उपलब्धि बाबा के लिए मेरे ऊपर गर्व करने का प्रेरक तत्त्व तो बन सकती है, किंतु मुझे परिदृश्य से निकालकर बाबा को अपने ऊपर गर्व करने का कारण नहीं बन सकती। यदि आज बाबा मेरी उपलब्धि का कारण स्वयं को मानकर अभिभूत होते हैं तो कल जो अपेक्षाएँ वे मुझसे रखेंगे, अपरिमित होंगी। न मैं उतनी अपेक्षाओं को पूरा कर सकूंगा और न मेरी भरसक कोशिश के बाद भी वे संतुष्ट महसूस करेंगे।

मैं जानता हूँ, बाबा जान-बूझकर ऐसा नहीं कर रहे हैं। आज तो वे यहां तक तैयार हैं कि डॉक्टर बनने के बाद शादी करके पत्नी के साथ मैं उ़नसे अलग रहूँगा। मजाक में वे कहते भी हैं कि शादी के तुरंत बाद इसके अलग रहने का इंतजाम कर देंगे। यह आगे बढकर कहेगा कि साथ रहना है तो सोचेंगे, वरना सजे-धजे मकान की चाबी देकर कहेंगे, इसे हमारी तरफ से दहेज मानना। चाहे शब्दशः वे ऐसा न कहें जैसा कहते हैं लेकिन किसी बिंदु पर यदि मैंने चाहा कि अलग रहना चाहिए तो वे मना भी नहीं करेंगे।

मना नहीं करेंगे, ठीक है। आज वे कहते हैं कि शादी के तुरंत बाद इसकी गृहस्थी अलग कर देंगे, यह भी ठीक है। किंतु क्या हृदय से स्वीकार करेंगे वे इस स्थिति को? मेरी उपलब्धियाँ जिस तरह अपने प्रति गौरव-भाव से भरती हैं उन्हें उससे तो ऐसा बिलकुल नहीं लगता। मैं कृतसंकल्प हूँ कि जीवन-भर अम्मा, बाबा के लिए वह सब करूँगा जो मेरे वश में है। अपेक्षाओं की अमरबेल को खाद-पानी की जरूरत नहीं होती है। वह अपनी रफ्तार से बढती है। उसका बढना पेड़ के लिए कष्ट का कारण होता है। मैं नहीं चाहता कि किसी समय बाबा अपेक्षाओं की स्वपल्लवित अमरबेल से आहत हों।

इस बार छात्रसंघ के चुनावों में हमारे पैनल के सभी छात्र और छात्राएं विजयी रहे हैं। प्रारंभ में मैंने प्रस्ताव रखा था कि हमारे पैनल का कोई भी प्रत्याशी चुनाव जीतने के लिए कोई प्रयत्न न करे। विजिटिंग कार्ड, पोस्टर, बैनर, जुलूस, व्यक्तिगत संपर्क, टोलियां बनाकर संपर्क, मित्रों के माध्यम से मत के लिए अनुरोध कुछ भी न किया जाए। चुनाव लड़ने वाले प्रत्याशियों के भाषणों का एक सत्र रखने की मेडीकल कॉलेज में परंपरा है। सारा कॉलेज ऑडीटोरियम में इकट्‌ठा होता है। मुख्य चुनाव अधिकारी की देख-रेख में सभी प्रत्याशियों को मंच पर आकर बात कहने के लिए पाँच-पाँच मिनट का समय मिलता है। विभिन्न गुट अपने प्रत्याशियों के समर्थन और समर्थ विरोधी प्रत्याशियों के विरोध में जाकर नारे लगाते हैं। हूटिंग होती है। वक्तृत्व कला में पारंगत प्रत्याशी ही प्रभावशाली ढंग से श्रोताओं तक अपनी बात पहुँचा पाते हैं। शेष प्रत्याशी या तो स्वयं निराश हो जाते हैं या हूटिंग के शिकार हो जाते हैं। मेरा प्रस्ताव था कि हमारे पैनल के प्रत्याशी सारे कॉलेज की साधारण सभा में प्रभावशाली तरीके से बोलने के अतिरिक्त कुछ न करें।

इस प्रस्ताव के अनेक लाभ थे। किसी प्रकार का प्रयत्न न करके हम सिद्ध करते कि चुनावों में विजय का संबंध हमारे स्वार्थ से नहीं है। छात्रों का हित देखने वाले प्रतिनिधि कौन हो सकते हैं, यह फैसला मतदाता छात्रों को करना है। विभिन्न माध्यमों से प्रचार करके मतदाता पर प्रकारांतर से प्रत्याशी अपने पक्ष में दबाव डालता है। दबाव वही प्रत्याशी डालना चाहेगा जिसे अपनी विजय से किसी प्रकार का लाभ मिलने की आशा हो। छात्रों की सेवा जब हमारा एकमात्र उद्‌देश्य है तो हम उस प्रक्रिया को क्यों चुनें जो ऐसे प्रत्याशियों द्वारा अपनाई जाती है जिनका चुनाव जीतना किसी स्वार्थपूर्ति की भूमिका होता है।

इस प्रस्ताव से सबसे बड़ा नुकसान यह था कि मतदाता के अहम्‌ को हमारे व्यवहार से चोट पहुँचती। चुनाव जीतने की दृष्टि से हमारी गंभीरता भी इस तरह संदिग्ध हो जाती थी। मतदाता को हम यह सोचने का अवसर देते कि जब अभी से कन्नी काटी जा रही है तो बाद में क्या होगा?

मतदाता से सीधा संपर्क करके उससे मत मांगने में बुराई क्या है? प्रत्याशी चुनाव लड़ रहा है। अपनी योजनाएँ और उन योजनाओं की पूर्ति की दृष्टि से अपना व्यक्तित्व साथ लेकर उसे मतदाता के सामने जाना चाहिए। मतदाता प्रत्याशी को पहचान और समझ सके, यह अधिकार उसे नहीं है क्या? सभी छात्रों की साधारण सभा में विचार व्यक्त करना खुली संसद में बोलने की तरह है। उससे व्यक्ति की भाषण क्षमता की जानकारी तो मिलती है किंतु उसके व्यक्तित्व की कमियाँ और खूबियां मतदाता के सामने जाहिर नहीं हो पाती हैं।

मेरा प्रस्ताव एक भी समर्थक नहीं पा सका। हम लोगों ने कॉलेज और अस्पताल की दीवारें, सड़कें लिखावटों और पोस्टरों से पाट दीं। पैनल के छात्रों की झंड़ियों की बंदनवारें और बैनर कलात्मक ढंग से सजाए। इत्र में डूबे विजिटिंग कार्ड मतदाता को देतेे हुए टोलियाँ बनाकर कॉलेज में, छात्रावासों में, घरों पर जाकर हमने सघन संपर्क किया। पैनल के नाम वाले पैंफलेट प्रत्येक मतदाता तक पहुँचाए। मुकाबला प्रत्येक पद के लिए था किंतु ऐसा माना जा रहा था कि महासचिव पद के लिए मुकाबला सबसे कम है। फिर भी प्रयत्नों की दृष्टि से महासचिव के चुनावों पर पूरा ध्यान देते हुए हम लोग अन्य पदों के लिए उसके साथ-साथ प्रचार कर रहे थे। विजय की संभावनाएँ सर्वाधिक हैं, यह समझते हुए भी हमारे प्रचार का केंद्र महासचिव का पद था।

ऑडीटोरियम में मेडीकल कॉलेज की साधारण सभा के सामने हमारे पैनल के प्रत्याशियों की स्थिति भी अन्य प्रत्याशियों से बहुत अच्छी नहीं रही। निराशा और घबराहट के कारण हकलाने लगना, अपनी बात को ढंग से न कह पाना, गुस्से में उबल पड़ना और हूटिंग में उखड़ जाना। अधिकांश प्रत्याशी इनमें से किसी-न-किसी कारण से श्रोताओं पर अपना प्रभाव नहीं छोड़ पाए। मेरा नाम पुकारा गया तो मैं धेर्यपूर्वक उठा और धीरे-धीरे चलता हुआ मंच पर माइक के सामने खड़ा हो गया। नाम के साथ ही पक्ष और विपक्ष में नारेबाजी शुरू हो गई थी। मैं खामोशी से नारे सुनता रहा और मंद-मंद मुस्कराता रहा।

कुछ इस कारण से कि नारे लगाने वाले अधिकांश छात्र मेरे पक्षधर थे और कुछ इस कारण से कि वाद-विवाद प्रतियोगिताओं का स्थापित वक्ता होने का लाभ मुझे प्राप्त था, वातावरण जल्दी ही शांत हो गया। ऑडीटोरियम में पूरी तरह खामोशी हो जाने तक मैं मुस्कराता हुआ चुपचाप खड़ा रहा। फिर मैंने कहना शुरू किया, ‘‘इस मंच पर मिले पांच मिनट हमारे पैनल के सामर्थ्य को रेखांकित करने के लिए उतने ही कम हैं जितनी कम इस ऑडीटोरियम की छत की ऊंचाई मेडीकल कॉलेज के छात्रों के नारों के लिए है।"

ऑडीटोरियम ठहाकों ओर तालियों से गूँज उठा। ‘‘मेडीकल कॉलेज में पढ़ने वाले विद्यार्थी के पास बुद्धिबल और बाहुबल के साथ भारी गलाबल भी है। इन तीनों का रचनात्मक इस्तेमाल करने का संकल्प हमारे पैनल का है। महासचिव पद के लिए मैं आपके सामने खड़ा हूँ। किंतु यदि आप चाहते हैं कि बंद मुट्‌ठी का सच हमारा सच बनना चाहिए, हमारी बुद्धि और आवाज़ को खुला आकाश मिलना चाहिए, भावी नस्लों को याद आना चाहिए कि 1952 में हमारे पूर्वजों ने अमुक सौगात दी थी इस मेडीकल कॉलेज को, तो अकेला महासचिव पंगु साबित होगा। महासचिव के हाथ-पाँव मेरे पैनल के साथी हैं। जब तक आपके मत के हकदार सभी नहीं बनते तब तक ये उद्‌देश्य प्राप्त नहीं किए जा सकते। सुभाषचंद्र बोस ने कहा था ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा।' मैं अनुरोध करता हूँ - तुम मुझे मत दो, मैं तुम्हें ताकत दूंगा। और याद रखिए, मेरा मैं-मेरे पैनल के बिना अधूरा है।"

मैंने अपने भाषण में किसी की निंदा नहीं की थी। किसी के खिलाफ गाली गलौज वाली भाषा में बात नहीं की थी। निर्धारित समय का पूरा उपयोग मैंने बोलने के लिए नहीं किया था। सूत्र रूप में अपने इरादे जाहिर किए थे। एकाधिकार की धारणा को तिलांजलि देकर सामूहिक नेतृत्व पर जोर दिया था। बहुत देर तक बजती तालियाँ, ऑडीटोरियम में रही खामोशी, किसी प्रकार की फब्ती या नारेबाजी का अभाव मेरे भाषण के प्रभाव का मूल्यांकन करने के लिए काफी थे।

मंच से मैं अपने पाँवों से नहीं, अपने साथियों के पाँवों से उतरा था। उत्साह के साथ नारे लगाते हुए मुझे कंधों पर उठाकर मेरे साथी ऑडीटोरियम से बाहर निकल आए। वहां भंगड़ा और नारों का जो तूफान उठा, उसमें ऑडीटोरियम से निकल-निकल कर लड़के शामिल होते गए। प्रत्याशियों को सुनने के लिए रह गए उनके मुट्‌ठी भर कट्‌टर समर्थकों को छोड़कर सभी लड़के-लड़कियाँ बाहर निकल आए। मैंने अपने पैनल के साथियों से हाथ मिलाकर एक रिंग बनाई थी, उसी के बीच में नाच चल रहा था। तालियों की तालबद्ध आवाजें, स्वरबद्ध नारे, भंगड़ा नाचते लड़के और उनको घेरकर चक्कर लगाता हमारा पैनल। थोड़ी देर ऑडीटोरियम के बाहर नाचने के बाद उसी स्थिति में हम लोग पूरे कॉलेज में घूम आए।

भाषण और भाषण के बाद बने वातावरण से मेरे साथी और हमारे पैनल के छात्र बहुत खुश थे। सबका मानना था कि मैदान तो हम लोगों ने आज ही मार लिया है। अब तो मतदान और परिणामों की औपचारिकता पूरी होनी है। अपनी विजय के प्रति आशान्वित तो पहले ही थे, उस शाम के बाद आशा, विश्वास में बदल गई।

हमारा विश्वास गलत नहीं था। हमारा पूरा पैनल केवल विजयी नहीं हुआ है, अच्छे मतों से विजयी रहा है। अपेक्षा के अनुसार सबसे अधिक मत मुझे मिले हैं। मुझे चार सौ नब्वे मत मिले हैं और पचासी मत महासचिव पद का चुनाव लड़नेवाले तीन उम्मीदवारों में बँटे हैं। हमारे पैनल का सबसे कम मत लेकर विजयी रहा छात्र सांस्कृतिक सचिव है। किंतु मिले उसे भी तीन सौ बीस मत हैं। मेडीकल कॉलेज के छात्र-छात्राओं ने जितना विश्वास हमें दिया है, उससे मेरे मन में जिम्मेदारी का अहसास बढ गया है।

प्रारंभ में आर्थिक व्यवस्था हमारे लिए सबसे बड़ा संकट थी। अब तक पैसा जुटाने के लिए एक गलत तरीका अख्तियार किया जाता था। एक या अधिक टोलियों में लड़के बाज़ारों में जाकर दुकानदारों से चंदा लेते थे। चंदा न देने वाले दुकानदारों से लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट करते थे। उनकी दुकानों में नुकसान, तोड़-फोड़ करते थे।. भयभीत दुकानदार जाते ही लड़कों को चंदा दे देते थे। किसी की चंदा कम देने की हैसियत होती थी और लड़के ज्यादा चंदा माँगते थे, तो उनसे गिड़गिड़ाकर अनुरोध करके दुकानदार छूट हासिल करता था। जितने पैनल चुनाव लड़ते थे, उतनी बार दुकानदारों को चंदा देना पड़ता था। चुनावों को शहर का व्यापारी वर्ग भयातुर दृष्टि से देखता था।

मैंने चंदा माँगकर चुनावों के लिए पैसा इकट्‌ठा करने वाली बात का डटकर खुला विरोध किया। मैं जब खुलकर किसी मुद्‌दे के पक्ष या विपक्ष में खड़ा हो जाता हूँ तो मेरे साथी असहमति के तेवर छोड़ देते हैं। आर्थिक संसाधनों की चुनावों में जितनी अधिक जरूरत पड़ती है, उसे सब जानते थे। बिना पैसे के चुनाव जीतना लगभग असंभव काम था। मैंने अड़ जाने वाले ढंग से विरोध किया था तो रास्ता भी मुझे ही निकालना था। वैसे तानाशाही तरीके से जिद पर उतरकर बात तभी कहता हूँ, जब कोई ऐसा सैद्धांतिक पहलू मेरे मस्तिष्क में होता है जिसके बारे में कोई समझौता मैं नहीं कर सकता। चुनाव हम लड़ें, पैसा दुकानदार दें। क्यों? क्योंकि हमारे पास संगठित शक्ति है। हमारे पास ताकत है। बीस रुपए नहीं दोगे तो दो सौ रुपए का नुकसान कर देंगे, दो हज़ार की तोड़-फोड़ कर देंगे, बीस हजार की बेइज्जती कर देंगे। अपना भला चाहते हो तो बीस रुपए दे दो। यह चंदा है? नहीं, यह डाका है जो हर साल चुनावों के समय मेडीकल कॉलेज के लड़के डालते हैं। मेडीकल कॉलेज में पढ़ने वाले लड़के डाके डालें, गुंडागर्दी करें, यह मुझे स्वीकार्य नहीं था। किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं था।

हम चंदा नहीं लेंगे, ठीक है। लेकिन दूसरे लड़कों को कैसे रोकेंगे? हमारे अतिरिक्त, दूसरे पैनल बनाकर भी चुनाव लड़ रहे हैं लड़के। वे चंदा माँगने बाज़ारों में जरूर जाएँगे। धमकाएँगे भी और ज़रूरत पड़ी तो मारपीट, तोड़-फोड़ भी करेंगे। उसको डाका नहीं कहोगे तो क्या कहोगे? वह डाका भी मेडीकल कॉलेज के लड़के डालेंगे। उसे कैसे स्वीकार लोगे?

मानता हूँ कि इस साल मैं दूसरे लड़कों को चंदा लेने से नहीं रोक सकता। किंतु हम यदि चंदा माँगने नहीं जाते हैं तो एक टोली घटेगी। जो भार मेडीकल कॉलेज के चुनावों के कारण विपत्ति की तरह दुकानदारों के ऊपर टूटकर पड़ता है, उसमें कमी आएगी। इस साल इतना ही सही।

अगले साल चंदा माँगने के लिए लड़के जाएँ इससे पहले दुकानदारों के संगठनों से बातचीत करेंगे। चंदा लड़कों की शर्तों पर नहीं दुकानदारों की शर्तों पर दिया जाएगा भविष्य में। याचक और डाकू का फर्क मिटाने की लड़कों की मुहिम में दुकानदारों को शरीक नहीं होना है। याचक डाकू बनना चाहे तो उसका मुकाबला करना है। मेडीकल कॉलेज छात्रसंघ का महासचिव चुना जाता हूँ तो निश्चय करके कमर कसने के लिए जरूरी बल दुकानदारों को सरलता से मिल जाएगा। इसके बाद ज़रूरी हुआ तो सक्रिय रूप से लड़कों की डाकू प्रवृत्ति का सामना करेंगे। इस वर्ष इतना समय बाकी नहीं बचा है कि ठोस उपाय करके इस विकृति को रोका जा सके। लड़कों को चंदे के लिए निकलने से मना करें। वे यदि इनकार करते हैं तो जबरदस्ती रोकें लड़ाई-झगड़े करें। सीधा इलजाम लगेगा कि व्यापारियों से पैसा लेकर उनसे मिल गया है। चुनाव उसी पैसे से लड़ा जा रहा है। दूसरे लड़कों को चंदा नहीं मिलेगा तो पैसे की कमी के कारण ढंग से चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। इस तरह अपनी विजय सुनिश्चित करना चाहता है। अगले साल इस तरह का आरोप या तो कोई लगाएगा नहीं और यदि लगाएगा तो कोई विश्वास नहीं करेगा।

अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने की दृष्टि से हम लोगों ने एक उपाय सोचा। मिट्‌टी के पाँच गुल्लक खरीदे। जन-संपर्क और प्रचार के लिए जो टोलियाँ हमने बनाईं, उनको एक-एक गुल्लक दे दिया। ये टोलियाँ जब जिससे मिलें, सारी बातचीत के बाद श्रद्धानुसार चुनाव के लिए दान देने का अनुरोध करें। कितना और इतना का आग्रह किसी से नहीं करना है। प्रतिदिन जो पैसा इकट्‌ठा होगा, शाम को एक लड़के को सौंप दिया जाएगा। वही चुनाव के हर एक मद पर किए जाने वाले खर्च का हिसाब-किताब रखेगा।

दान देने की शुरुआत हम लोगों ने स्वयं की। हमारी कक्षा के प्रत्येक छात्र और छात्रा ने अपनी हैसियत के अनुसार अधिक-से-अधिक दान देने की चेष्टा की। अकेली हमारी कक्षा के दान का गुल्लक तोड़ा गया तो उसमें पाँच सौ से अधिक रुपए निकले। प्रथम वर्ष, द्वितीय वर्ष, चतुर्थ वर्ष, अंतिम वर्ष, स्नातकोत्तर छात्र, अध्यापक, किसी को भी हमने छोड़ा नहीं। सबसे अनुरोध किया। हँसी-खुशी के साथ देने और न देने वालों, कम और ज्यादा देने वालों, बहस करके और आसानी से देने वालों का आभार मानते हुए हम जनसंपर्क भी करते रहे और दान भी लेते रहे। इस तरह पैसा एकत्र करने से हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति तो हुई ही, एक लाभ हमें और भी हुआ। यह संदेश मेडीकल कॉलेज से संबंधित प्रत्येक छात्र के पास पहुंचा कि चुनावों के लिए हम दुकानदारों जैसे असंबद्ध लोगों के पास नहीं जा रहे हैं। छात्र अपने संघ के चुनाव लड़ रहे हैं, इसलिए उसमें जो कुछ खर्च होता है उसे भी छात्र वहन करेंगे। अपनी, अपने माता-पिता की, अपने संरक्षक की जेब सुरक्षित रखकर दूसरों की जेब काटने का काम नहीं किया जा रहा है इस बार।

मेरे वश में यह बात थी नहीं अन्यथा मैं कहता, माता-पिता या संरक्षक का पैसा भी दान के रूप में चुनावों के लिए देने का कोई अधिकार नहीं है तुम्हें। कैंटीन में एक महीने तक समोसा मत खाना। उससे जो पैसा बचे, चुनाव फंड में दान में दो। यदि बस, रिक्शा या स्कूटर से कॉलेज आते हो तो एक महीना पैदल आओ। पैसा बचाकर इसके बाद दान दो। छात्रसंघ से तुम्हारा संबंध तभी आत्मीयता पूर्ण होगा जब तुम अपनी व्यक्तिगत ज़रूरतें कम करके छात्रसंघ के चुनावों के लिए पैसा दान में दोगे। घरवालों से माँगकर दान में दी हुई बड़ी रकम भी छात्रसंघ के प्रति मोह पैदा नहीं करेगी तुममें।

हर एक गुल्लक भर जाने पर पाँच-सात लड़कों की उपस्थिति में वह लड़का तोड़ता जो चुनाव व्यय के लिए जिम्मेदार नियुक्त किया गया था। कितनी गुल्लकें भरीं और तोड़ी गईं, यह हिसाब वह लिखता जाता। जो खर्च पोस्टर बनवाने पर, बैनर बनवाने पर, पैंफलेट छपवाने पर या चुनाव संबंधी किसी भी कारण से किया जाता, उसे भी वह लिखता जाता। चुनाव से दो दिन पहले तक हम लोगों ने दान स्वीकार किया। और चुनाव से एक दिन पहले आखिरी बार हमने आय-व्यय का हिसाब छात्रसंघ के सूचना-पट्‌ट पर लगा दिया। आखिरी बार इसलिए क्योंकि उससे पहले हर दूसरे या तीसरे दिन अपनी सुविधा को ध्यान में रखते हुए हम लोग आय-व्यय का विवरण छात्रों की जानकारी के लिए सूचना-पट्‌ट पर लगवाते थे। इस तरह हम ईमानदार, अपनी ईमानदारी जग जाहिर करते थे। ईमानदारी का सच जब तक लोगों को मालूम नहीं हो जाता, ईमानदार का सच परदे में बना रहता है। मुझे लगता है, आदर्श को जब तक इस व्यावहारिकता से नहीं जोड़ा जाएगा तब तक आदर्श अस्वीकार्य महसूस होता रहेगा।

मैंने अपनी मंडली के सामने घोषित रूप से कहा था कि यदि मैं महासचिव का चुनाव जीतता हूं तो ऐसे काम हाथ में लेना चाहूँगा जो लीक से हटकर हाेंगे। वे काम मैं अकेला नहीं कर सकता। अकेला मैं उन्हें करना भी नहीं चाहूँगा। साथियों का सहयोग जब तक नहीं मिलेगा तब तक उन कार्यों को कर पाने की बात मैं सोचूँगा ही नहीं। मैं चाहूँगा कि समस्याओं को युक्ति और बातचीत से सुलझाया जाए। सिनेमा हॉल में फिल्म चालू होने के आधे घंटे के बाद मेडीकल कॉलेज के दस छात्र पहुँचते हैं। मैनेजर से कहते हैं, फिल्म रीवाइंड कराओ। हम यह फिल्म शुरू से देखना चाहते हैं। मैनेजर धर्म-संकट में है। बात स्वीकार करता है तो हॉल में बैठे हुए दर्शक कुरसियाँ तोड़ते हैं और बात स्वीकार नहीं करता है तो मेडीकल कॉलेज के लड़के सिनेमा हॉल का नक्शा बदलते हैं। मैं चाहूँगा कि लड़के मर्यादा में रहें। ताकत के बूते पर ऐसा कुछ भी करने के लिए किसी को विवश न करें जो अनुचित है। अनुचित को सहन न करें और उचित का तिरस्कार न करें। बिना हिंसा किए स्वस्थ वातावरण बनाना मेरी पहली पसंद होगी।

हर साल पिकनिक होती है। खा-पीकर, मौज-मस्ती करके हम लौट आते हैं। हर साल सांस्कृतिक सप्ताह का आयोजन होता है। मेडीकल कॉलेज के लड़के विभिन्न वाद्य बजाते हैं। शास्त्रीय और सुगम संगीत का ज्ञान रखते हैं। फिर भी गाने वाले छात्रों के साथ बजाने के लिए वाद्यमंडली बाहर से किराए पर आती है। हम क्यों नहीं अपने वाद्ययंत्र खरीदकर अपने कॉलेज के छात्रों को कॉलेज वाद्यमंडली बनाने के लिए प्रोत्साहित करते? एक साल हम पिकनिक नहीं मनाएँगे। उस साल के बाद हर साल वाद्यमंडली को दिया जाने वाला किराया बचेगा।

मैं ये काम करूंगा तो तूफान खड़ा हो जाएगा। मैं तूफान से नहीं डरता लेकिन केवल तब, जब साथी मेरे इर्द-गिर्द होंगे।

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(12)

1 जनवरी, 1953

ईसवी सन्‌ के अनुसार नए साल का पहला दिन है। कॉलेज में दिन भर नववर्ष की शुभकामनाओं का सिलसिला चलता रहा। विद्यार्थियों के बीच उल्लास और उत्साह के साथ नववर्ष की शुभकामनाओं का आदान-प्रदान, अध्यापकों के पास समूहों में जा-जा कर नववर्ष की शुभकामनाओं की अभिव्यक्ति, कॉलेज और अस्पताल के प्रमुख स्थानों पर हैप्पी न्यू ईयर की चमकीली पन्नियाँ, लगभग हर कक्षा में नए साल के उपलक्ष्य में सामूहिक खान-पान का कोई-न-कोई कार्यक्रम।

कॉलेज छात्रसंघ की ओर से इकत्तीस दिसंबर और एक जनवरी को शामिल करते हुए अखिल भारतीय मेडीकल कॉलेज उत्सव के एक सप्ताह के कार्यक्रम आज समाप्त हुए हैं। कल रात को बारह बजे के बाद तक नववर्ष के स्वागत में रंगारंग कार्यक्रम चलते रहे। वाद-विवाद प्रतियोगिताएँ, एकल और युगल व समूह गीत प्रतियोगिताएँ, नृत्य प्रतियोगिताएँ, वाद्य-वादन प्रतियोगिताएँ, नाटक प्रतियोगिताएँ, एकांकी एवं मूकाभिनय प्रतियोगिताएँ 26 दिसंबर से चल रही थीं। कॉलेज स्तर पर कहानी, लेख और कविता प्रतियोगिता आयोजित करके पुरस्कृत व चुनी हुई रचनाएँ शामिल करते हुए एक स्मारिका का विमोचन उत्सव के पहले दिन उद्‌घाटन के समय करा दिया था। विज्ञापनों के माध्यम से उत्सव के खर्च की व्यवस्था की थी। विज्ञापन स्मारिका में प्रकाशित हो गए थे। वार्षिकोत्सव के लिए कॉलेज की ओर से व्यय का प्रावधान हर साल होता है। उसे मिलाकर पर्याप्त धन की व्यवस्था हो गई थी।

उद्‌घाटन के तुरंत बाद छब्बीस से प्रारंभ हुई प्रतियोगिताएँ तीस दिसंबर को समाप्त हुई। इकतीस दिसंबर को आडीटोरियम में रात को नौ बजे से प्रथम पुरस्कृत प्रस्तुतियों को मिलाकर रंगारंग कार्यक्रम रखा गया था। आठ से नौ बजे के बीच आडीटोरियम के बाहर ही शामियाना लगाकर भोज की व्यवस्था की हुई थी। बाहर से आए सभी प्रतियोगियों के आवास की व्यवस्था छात्रावासों में की गई थी। भोजन भी संबंधित छात्रावास के भोजनालय में होता था। लड़कियों की लड़कियों के छात्रावास में व्यवस्था थी। भोजन के समय छात्रसंघ के प्रतिनिधि के साथ छात्रावास प्रतिनिधि, प्रीफेक्ट, छात्रावास के कुछ छात्रों को भोजनालय में उपस्थित रहने की दृष्टि से निश्चित कर दिया गया था। वे ध्यान रखते थे कि आदर पूर्वक मेहमान छात्रों को भोजन कराया जाए।

उत्सव की योजना बनाकर अक्तूबर में ही पहले चीफ प्रॉक्टर और इसके बाद प्रिसिंपल के साथ एक मीटिंग रखकर विभिन्न कार्यकलापों के लिए एक अध्यापक और तीन छात्रों की एक-एक समिति बना दी थी। वित्त समिति को खर्च का पैसे-पैसे का हिसाब रखने के लिए कहा गया था। मैं स्वयं ध्यान रखता था कि पैसे की हेराफेरी कहीं न हो। प्रत्येक समिति का अध्यक्ष अध्यापक और सदस्य सचिव मेरा विश्वसनीय छात्र था। व्यवस्था व व्यय की दृष्टि से अधिक संवेदनशील समितियों में सदस्य सचिव भी मेरे अधिक विश्वसनीय सहयोगी ही थे। मैंने निश्चय किया हुआ है कि एक सप्ताह में कॉलेज छात्रसंघ के नोटिस बोर्ड पर उत्सव के कारण हुए व्यय का विस्तृत ब्योरा लगा देंगे। मिश्रित व्यय के नाम से होने वाली हैराफेरी की संभावनाओं को समाप्त करने के लिए मिश्रित व्यय में शामिल और प्रत्येक मद पर हुआ व्यय अलग से घोषित करेंगे। सार्वजनिक जीवन में शुद्धता के लिए मुझे ज़रूरी लगता है कि कुछ भी गोपनीय न रखा जाए। गोपनीय वही हो सकता है जो अनियमित है। कॉलेज के हित में अमुक गतिविधि या अमुक योजना या अमुक नीति को गोपनीय रखने वाली बात से मैं पूर्णतः असहमत हूँ। यही कारण है कि महासचिव के चुनाव के दौरान भी आय-व्यय का हिसाब हम लोग छात्रसंघ के नोटिस बोर्ड पर लगाते थे। हम गलत उद्‌देश्य से कोई काम नहीं करते, फिर छिपाएँ क्यों? देश के संचालन में रक्षा और कूटनीति में भले ही गोपनीयता का महत्त्व हो, किंतु कॉलेज के स्तर पर और देश के स्तर पर भी सामान्यतः गोपनीय कुछ भी क्यों होना चाहिए?

हम पैसा इधर-उधर करना नहीं चाहते इसलिए निःशंक होकर लेनदेन के हिसाब को सार्वजनिक करते हैं। छात्रों को अवसर देते हैं कि वे हमारी गतिविधियों पर नजर रखें। उन्हें उकसाते हैं कि जो कुछ गलत होता दिखाई दे, वह उजागर किया जाना चाहिए। गलत को अनदेखा करने का अर्थ है गलत में आपकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहभागिता। बताइए, समझाइए, दलीलें देकर कर्ता-धर्ता को विवश करिए कि वह आपकी बात माने या फिर उसकी बात सुनकर उसके दृष्टिकोण से सहमत हो जाइए। पूर्वाग्रह नहीं है तो प्रत्येक बहस, प्रत्येक विचार-विमर्श का परिणाम सहमति से होता है यदि व्यवस्था गलत करने पर तुली है, आपकी बात की सत्यता को स्वीकार करते हुए भी उसके अनुसार सुधार करने को तैयार नहीं है तो विरोध करिए। गलत की तरक ध्यानाकर्षित करके या उसका विरोध करके दायित्वमुक्त हो जाते हैं। गलत में सहभागी होने का आरोप तो निश्चय ही आपके ऊपर नहीं लगाया जा सकता। गलत को ठीक में चाहे न किंतु विरोध का महत्त्व होता है। उस महत्त्व को रेखांकित करिए। अखिल भारतीय मेडीकल कॉलेज उत्सव की योजना से लेकर उसके सफल आयोजन तक एक बात बार-बार मस्तिष्क में उठती रही है। उस पर मैंने अपने साथियों के साथ यद्यपि चर्चा नहीं की कभी किंतु चर्चा न करने के पीछे रहे कारण, उस बात का महत्त्व कम नहीं करते। स्वतंत्रता मिले पाँच वषोर्ं से अधिक हो गए हैं। अंग्रेजी तो बदस्तूर बनी हुई है। किंतु अंग्रेजियत को भी हम उसी तरह बनाए हुए हैं। संवत्सर को हम लोग भूलकर ईसवी सन्‌ को याद रखते हैं। विक्रम संवत्‌ के अनुसार नववर्ष को मनाने के स्थान पर ठिटुरती रात में ईसवी सन्‌ के अनुसार नववर्ष का स्वागत हमें अधिक प्रिय है। राजनीतिक स्वतंत्रता हमने सिंध, पंजाब और बंगाल के विभाजन की शरशय्या पर प्राप्त की। आर्थिक स्वतंत्रता के लिए हम जूझ रहे हैं। संस्कारगत स्वतंत्रता हमसे कोसों दूर है। विक्रम संवत्‌ 2009, ईसवी सन्‌ 1953, छप्पन वर्ष सही किंतु जो हम पहले दे चुके हैं दुनिया को, उसे भुलाकर अंग्रेजों की मानसिक दासता को प्रसन्नता पूर्वक ढोते चले जाएं तो राजनीतिक स्वतंत्रता का अर्थ क्या रह जाता है?

साथियों से चर्चा न करने का पुख्ता कारण था। विक्रम संवत्‌ के अनुसार मार्च-अप्रैल में नववर्ष प्रारंभ होता है। उन दिनों मेडीकल कॉलेज में परीक्षाएँ चल रही होती हैं। प्रतीकात्मक रूप से तो नववर्ष को मनाया जा सकता है किंतु बडे पैमाने पर, धूमधाम से उन दिनों नववर्ष के उपलक्ष्य में किसी प्रकार का आयोजन करना संभव नहीं होता है। विक्रम संवत्‌ के अनुसार नववर्ष धूमधाम से मना नहीं सकते, ईसवी सन्‌ के अनुसार नववर्ष मनाएँ नहीं। यह संभव नहीं था। इसलिए इस मुद्‌दे पर बातचीत करने से भी कोई लाभ नहीं था। सोमवार, 15 मार्च को विक्रम संवत्‌ के अनुसार नववर्ष का प्रारंभ है। बड़े पैमाने पर उत्सव करना चाहे संभव न हो किंतु पोस्टर लगाकर, नोटिस बोर्ड पर बधाई संदेश लिखकर, कॉलेज के पोर्च में सरस्वती की प्रतिमा के सम्मुख दीप प्रज्वलित करके हम लोग निश्चय ही प्रतीक के रूप में उस दनि को महत्त्वपूर्ण दिन के रूप में मनाएंगे। अपनी पुरातन संस्कृति को अग्रेंजों की संस्कृति के समानान्तर खड़ा करने की कोशिश परीक्षाओं के तेज बुखार के चलते भी छोड़ेंगे नहीं।

अखिल भारतीय मेडीकल कॉलेज उत्सव की योजना पहली बार जब चीफ प्रॉक्टर के सामने गई थी तो उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि इतना बड़ा आयोजन करना तुम लोगों के वश को बात नहीं है। समितियाँ बनाकर, व्यवस्था व धन से जुड़े सभी पहलुओं को समेटते हुए हमने एक विस्तृत योजना पहले ही कागजों पर तैयार कर रखी थी। उस लिखित प्रारूप को चीफ प्रॉक्टर ने देखा तो लगा कि थोड़े-बहुत आश्वस्त हुए हैं। व्यक्तिगत रूप से मेरी छवि काम आई। नेतृत्त्व क्षमता के अनेक रूप चीफ प्रॉक्टर देख चुके थे। अध्ययन में मेरी अच्छी स्थिति मणिकांचन योग की तरह छवि को अधिक निखारती थी। अध्यापकों को प्रत्येक समिति में अध्यक्ष के रूप में देखकर हमारी नीयत और क्षमता के बारे में उनके संशय कम हुए। प्रिंसिपल से मैंने उनके साथ जाकर बातचीत की। काम जिस ढंग से धीरे-धीरे योजनानुसार होता गया, चीफ प्रॉंक्टर का विश्वास हमें मिलता गया। हर एक निर्णय हम उनकी सहमति के बाद लेते थे। हर एक काम हम खुले रूप में करते थे। हर एक गतिविधि का संचालन अलग-अलग लड़के-लड़कियों के पास था। एकाधिकार वाली प्रवृत्ति किसी भी काम से नहीं झलकती थी। मैं जब भी उनसे मिलता, उन्हें नजर आता, आठ-दस लड़के मेरे साथ होते। चीफ प्रॉंक्टर उत्सव के मुख्य सलाहकार बनते गए।

सभी काम बाँटकर समितियों को सौंप देने के कुछ कारण थे। मेरी आस्थाएँ और मेरी व्यस्तताएँ दोनों की इसमें सहभागिता थी। अधिक-से-अधिक लोग यज्ञ में समिधा समर्पित करें, यह मेरी आस्था है। अध्ययन मेरी प्रथम वरीयता है। एकाधिकारवादी बनकर अपने आपको महत्त्वपूर्ण भले ही दिखा दूं किंतु अध्ययन पर इसका अपरिहार्य रूप से विपरीत प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता। किताबें तो रात-रात-भर जागकर मैं अब भी पढ़ता हूँ, किंतु अस्पताल में, वाडोर्ं में जाने वाला काम तो निर्धारित समय पर ही किया जा सकता है। समितियाँ बनाने के बाद ठीक प्रकार से काम होता है या नहीं, यह देखना हम लोगों का काम था। छात्रसंघ के पदाधिकारी, मेरी मंडली के साथी और मैं इस काम कोे बांट करते थे। कक्षाओं में जाना, अस्पताल में जाना, पढ़ना, सबकुछ मेरे लिए इसी कारण संभव हो पाया। समीतियां नहीं बनतीं, समीतियों के पास अधिकार नहीं होते, समीतियों के काम-काज की लगातार समीक्षा नहीं होती, समीतियों की कमजोरियों को समझकर उनकी पूर्ति करने के लिए योजनाबद्ध प्रयास नहीं होते तो हर जगह मुझे दौड़ना पड़ता। काम हो जाते, किंतु धकेलने वाले अंदाज में होते। प्रत्येक गतिविधि के केंद्र में मैं स्थापित हो जाता। किंतु अपनी पढाई के रूप में इसकी कीमत मुझे चुकानी पड़ती। महासचिव हूँ। महत्त्व सिद्ध किया जाए, इसकी कोई आवश्यकता न थी और न है। उत्सव अच्छी तरह हो जाए। बाहर से आने वाले छात्र-छात्राओं को सम्मान मिले। उन्हें किसी प्रकार की तकलीफ न हो। यह महासचिव की सफलता का द्योतक नहीं है क्या? पढाई बरबाद करूँ। जो पहले ही मुझे प्राप्त है उस महत्त्व को दिखाने के लिए, मैं कॉलेज में जिस उद्‌देश्य से आता हूँ उसकी बलि चढा दूँ, यह कम-से-कम मुझे तो उचित नहीं लगा। आज संपन्न हुए समापन समारोह में उत्सव की सफलता के बारे में जो बातें सुनने को मिलीं, उन्होंने सिद्ध कर दिया कि मेरा निर्णय गलत नहीं था।

मेहमान छात्र-छात्राओं को रेलवे स्टेशन पर बने स्वागत कक्ष से कॉलेज लाने के लिए बसों की व्यवस्था, प्रतियोगिताओं के लिए प्रत्येक दल द्वारा माँगी गई सुविधाओं की व्यवस्था, प्रतियोगिताओं में भाग न लेनेवाले मेहमान छात्र-छात्राओं के बैठने की व्यवस्था, उनके आवास की व्यवस्था, भोजन की व्यवस्था, जयपुर के दर्शनीय स्थल देखने के इच्छुक मेहमानों के लिए वाहन एवं पथ-प्रदर्शक की व्यवस्था, अपने-अपने स्थान पर वापस जाने के लिए रेलों में आरक्षण की व्यवस्था, मेहमान छात्र-छात्राओं को निर्धारित रेलगाड़ियों तक ले जाने के लिए वाहन के साथ छात्रसंघ के किसी प्रतिनिधि की उपस्थिति, एक सप्ताह तक रहे मेले के वातावरण में सबकी सुविधाओं का ध्यान रखने के लिए अपनी सुविधाओं को भूल जाने वाले पचासों छात्र-छात्राओं की समर्पित सेवा, हर बात को महासचिव के खाते में डाल दिया गया। मैंने अंत में दिए धन्यवाद में यद्यपि भाषणों का हवाला देते हुए जोर देकर कहा कि विभिन्न समितियों ने यदि मुस्तैदी से अपने दायित्व का निर्वाह न किया होता तो आपका यह महासचिव कुछ भी नहीं कर पाता। फिर भी पावर हाउस का नियंत्रक कौन है, लोग यह देखते भी हैं और समझते भी हैं।

छात्रसंघ के चुनावों के बाद पहला कार्यक्रम कॉलेज पिकनिक का होता आया है। कार्यकारिणी की पहली बैठक में मैंने प्रस्ताव रखा कि एक तो हम लोग वर्ष-भर के कार्यक्रम अपेक्षित तारीखों के साथ निश्चित कर लें दूसरा इस वर्ष पिकनिक न करके पिकनिक फंड का उपयोग कॉलेज ऑरकेस्ट्रा के लिए वाद्यों की खरीदारी में करें। वर्ष-भर के कार्यक्रमों को निश्चित करके प्रस्ताव चीफ प्रॉक्टर के पास भेज दिया जाए, इससे पूरी कार्यकारिणी सहमत थी किंतु पिकनिक फंड का उपयोग वाद्य-यंत्र खरीदने में किया जाए, इस विषय में कुछ सदस्यों के मन में हिचकिचाहट थी। मन में इच्छा और उत्सुकता भले ही रही हो किंतु किसी सदस्य ने आगे बढकर यह नहीं कहा कि हमें वाद्य-यंत्रों से क्या लेना-देना है? पिकनिक के लिए जब फंड है तो पिकनिक होनी ही चाहिए। जिन सदस्यों ने हिचकिचाहट दिखाई उन्होंने बात तो यही कही किंतु मेडीकल कॉलेज के अन्य छात्रों के एतराज को ढाल बनाकर कही। मैं इस भावना को समझता था। मुझे तो उल्टी आशंका थी कि कार्यकारिणी में इस प्रस्ताव की खिलाफत होगी। मन-ही-मन मैं हँसा। मैंने कहा, ‘‘मेरी इच्छा है कि आने वाली नस्लें हम लोगों को याद रखें। यह तभी हो सकता है जब हम लोग कोई स्थायी काम करें। स्थायी काम कई हो सकते हैं। उनको करने के तरीके भी कई हो सकते हैं। मुझे लगता है कि यदि पिकनिक से बेहतर मनोरंजन की योजना हम लोग बनाते हैं तो पिकनिक फंड का उपयोग वाद्य-यंत्रों की खरीद में करने का काम ज्यादा आसान हो जाएगा। वाद्य बजाने वाले लड़के-लड़कियों की मेडीकल कॉलेज में कमी नहीं है। हमारे ऑडीटोरियम में श्रवण यंत्रों की अच्छी व्यवस्था है। मंच अच्छा बना हुआ है। हर साल वार्षिकोत्सव में वाद्य-यंत्र बजाने के लिए हमें किराए पर कलाकार लाने पड़ते हैं। छात्रसंघ पर कलाकार विद्यार्थियों का कोई अधिकार यदि हम मानते हैं तो यह काम हमें जरूर करना चाहिए। वाद्य-यंत्र हमेशा काम में आएँगे। आरकेस्ट्रा क्लब में शामिल होकर इच्छुक छात्र वाद्य-यंत्रों पर रियाज कर सकते हैं। जो सीखना चाहते हैं, उनके लिए आरकेस्ट्रा क्लब किसी शिक्षक की व्यवस्था कर सकता है। इसलिए पहला प्रश्न यह है कि हम स्वयं पूरे मन से इस प्रस्ताव का समर्थन करते हैं या नहीं?

हिचकिचाहट के स्वर समर्थन में बदल गए। तुरंत एक समिति बनाकर तीन दिन में हमने वर्ष-भर के कार्यक्रमों की योजना तैयार कर ली। उस योजना की एक प्रति नोटिस बोर्ड पर सुझावों के लिए लगा दी। पिकनिक फंड के वैकल्पिक उपयोग वाला बिंदु भी दलीलों के साथ हमने नोटिस बोर्ड पर लगा दिया। पाँचों वषोर्ं के चुने हुए छात्र-छात्राओं की मीटिंग बुलाकर पिकनिक फंड के संबंध में हमने विस्तार से बातचीत की। बहुत कम विद्यार्थी थे जिन्हें हम लोग समझा नहीं पाए, अन्यथा सारा कॉलेज इस प्रस्ताव पर हमसे सहमत था। पिकनिक के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा पैसों की हेराफेरी का प्रश्न भी हम लोग उठाते रहे, इस आग्रह के साथ कि हेराफेरी में रुचि होती तो हम लोग भी पिकनिक कराना चाहते।

कॉलेज के स्तर पर विद्यार्थियों से व्यापक सहमति मिल जाने के बाद कुछ लडकों के साथ मैं चीफ प्रॉंक्टर से मिला। छात्रसंघ की ओर से प्रस्तावित वार्षिक कार्यक्रम और पिकनिक फंड का उपयोग इस वर्ष कॉलेज आरकेस्टा के लिए वाद्य-यंत्र खरीदने के लिए करने का प्रस्ताव हम लोगों ने प्रिंसिपल के साथ विचार-विमर्श करके बताने के लिए चीफ प्रॉंक्टर को सौंपा। चीफ प्रॉक्टर ने पहली नजर में ही इस प्रस्ताव से असहमति व्यक्त की। उन्होंने कहा, पिकनिक फंड के लिए पैसा हर विद्यार्थी से लिया जाता है। इस पैसे को कॉलेज किसी और मद में कैसे लगा सकता है? हम लोगों की दलीलों और आग्रह के बाद वे किसी तरह प्रिंसिपल से बात करने को तैयार तो हुए लेकिन प्रिंसिपल ने भी ठीक वही प्रतिक्रिया दी जो चीफ प्रॉक्टर ने दी थी।

छात्रसंघ की कार्यकारिणी की बैठक बुलाकर हमने स्थिति पर विचार किया। हमें लगा कि जब लगभग सभी विद्यार्थी पिकनिक फंड का साजों की खरीदारी करने में उपयोग करने वाले प्रश्न पर एकमत हैं तो कॉलेज प्रशासन को इनकार करने का अधिकार नहीं होना चाहिए। बात मनवाने के लिए जिन उपायों पर चर्चा हुई उनमें से एक हड़ताल भी थी। हड़ताल, हिंसा, तोड-फोड़, मार-पीट, गुंडागर्दी, शक्ति-प्रदर्शन को मैं सिद्धांततः नापसंद करता था। कुछ उम्र का प्रभाव और कुछ पहले के उदाहरण, छात्रों के सोच की दिशा बहुत जल्दी हिंसा की ओर मुड़ जाती है। हड़ताल होगी। नारे लगेंगे। प्रशासन को आमने-सामने खड़ा करके सवाल-जवाब होंगे। प्रदर्शन होगा। जुलूस निकलेंगे। वातावरण कुछ ऐसा बनेगा कि तोड़-फोड़ और हिंसा को टालना संभव नहीं रह जाएगा। उस गरमाहट में महासचिव के नाते अगर मैं हिंसा विरोधी, तोड़-फोड़ विरोधी बात कहकर छात्रों को नियंत्रित करना चाहूँगा तो छात्र मेरे खिलाफ खड़े हो जाएँगे। अच्छा यह होगा कि हड़ताल होने ही न दी जाए। हड़ताल नहीं होगी तो उसके बाद की सारी आशंकाएँ अपने आप निर्मूल हो जाएँगी।

सबकी बातें सुनने के बाद मैंने कहा, ‘‘परसों आठ बजे से हम लोग कक्षानुसार पंक्ति बनाकर प्रिंसिपल के कक्ष में जाएँगे। गुड मार्निंग करेंगे। कहेंगे कि हमें पिकनिक नहीं चाहिए और कक्ष से बाहर आ जाएँगे। कक्ष में एक समय में एक लड़का या लड़की जाएगी। उसके बाहर निकलते ही दूसरा छात्र या छात्रा अंदर जाएगी। हड़ताल हमारा पहला नहीं, आखिरी हथियार होगा। कल हमारी कार्यकारिणी प्रिंसिपल से मिलकर उन्हें राजी करने की कोशिश करेगी। जैसी कि आशा है, उसमें हमें सफलता नहीं मिलेगी। इसलिए परसों के कार्यक्रम के लिए हम कल शाम को चार बजे ऑडोटोरियम में सब विद्यार्थियों की एक आपातकालीन मीटिंग बुलाएँगे। यहीं स्थिति का खुलासा करके परसों के कार्यक्रम की घोषणा कर देंगे।"

कार्यक्रम और उसकी कार्यविधि सबको ठीक लगी। मैंने ऑडीटोरियम में आपातकालीन मीटिंग के लिए नोटिस जारी कर दिया। निश्चयानुसार दूसरे दिन प्रिंसिपल से मिलने हमारी कार्यकारिणी गई। हमने उनसे यहाँ तक कहा कि छात्रों की ओर से सहमति व्यक्त करते हुए छात्रसंघ प्रशासन को एक पत्र लिख देगा। इस पत्र के आधार पर पिकनिक फंड का उपयोग वाद्ययंत्र खरीदने में कर लिया जाए। लेकिन प्रिंसिपल नहीं माने। कानूनी अड़चन के अलावा उनका यह भी मानना था कि छात्रसंघ की लिखित सहमति के बावजूद बाद में कई छात्र इस बात को लेकर हंगामा करेंगे कि पिकनिक क्यों नहीं हुई? वे अंग्रेजों के समय मेडीकल कॉलेज के प्रिंसिपल का दबदबा देख चुके थे। अनुशासन में तेजी से आई गिरावट से वे क्षुब्ध थे। एक खास तरह का जिद्‌दीपन उनके स्वभाव में था। प्रस्ताव को पहले ही अस्वीकार कर चुके थे। ये कारण मिलकर उन्हें राजी न कर पाने का संकेत देते थे। इसीलिए मैंने यह मान लिया था कि उनकी स्वीकृति बातचीत के बाद भी नहीं मिलेगी। वक्त बरबाद किए बिना इसलिए मैंने आपातकालीन बैठक का नोटिस निकाला था।

सभी वषोर्ं के चुने हुए विद्यार्थियों की मीटिंग बुलाकर पिकनिक फंड वाले मुद्‌दे पर चर्चा पहले की जा चुकी थी। इसलिए आपातकालीन बैठक में जब पृष्ठभूमि बताते हुए मैंने प्रिंसिपल की असहमति और उसके कारण पिकनिक फंड के बेहतर उपयोग की हमारी इच्छा पूरी न होने की बात रखीं तो सबको लगा कि प्रिंसिपल हमारे साथ ज्यादती कर रहे हैं। प्रिंसिपल की असहमति के पीछे मैंने उनकी इस मान्यता की चर्चा भी की जिसके फलस्वरूप वे सोचते थे कि बाद में पिकनिक की माँग को लेकर कुछ छात्र हंगामा करेंगे। प्रिंसिपल को भरोसा नहीं है कि यह हम सबकी सहमति से लिया हुआ फैसला है। उनको बताने के लिए कि छात्रसंघ ने गलत तस्वीर नहीं बनाई है, गुडमॉनिंग हमें पिकनिक नहीं चाहिए कार्यक्रम बनाया गया है। मैंने विस्तार से कार्यक्रम का विवरण दिया तो सबको यह एक नए खेल जैसा लगा। इस बिंदु-विशेष में रुचि हो चाहे न हो, किंतु खेल की रोचकता और नयापन दूसरे दिन सब विद्यार्थियों को प्रिंसिपल-कक्ष के बाहर खींच लाया। एक-एक करके लड़के-लड़कियों ने उनके कक्ष में जाकर कहना शुरू किया,. ‘‘गुड मार्निंग सर, हमें पिकनिक नहीं चाहिए।" पहले तो उन्हें समझ में नहीं आया कि यह हो क्या रहा है? किंतु जब दस-पंद्रह विद्यार्थी वही शब्द दोहराते हुए उनके सामने से निकल गए तो उन्हें लगा कि विद्यार्थी उनके निर्णय के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं। वे उठे और दरवाजा खोलकर अपने कक्ष से बाहर आए। वहाँ सर्पाकार कतारें बनाकर खड़े छात्र और छात्राओं को देखकर उन्हें न जाने कैसा डर लगा कि तेजी से पंक्तियों के बीच में से होते हुए वे बाहर निकल गए। वे अपनी कार तक पहुँचें इससे पहले दौड़कर मैं उनकी कार के सामने खड़ा हो गया। मुझे दौड़ता देख कई लड़के भी मेरे पीछे दौड़ पड़े थे। प्रिंसिपल की कार के चारों ओर छात्र ही छात्र थे।

मैंने आवाज ऊँची उठाकर भाषण वाले अंदाज में कहा, ‘‘दोस्तो, प्रिंसिपल साहब की हम इज्जत करते हैं। इसलिए आपमें से कोई भी उन्हें या उनकी कार को हाथ नहीं लगाएगा।"

मैं घूमकर उनके पास गया, ‘‘आपको तकलीफ देने का हमारा कोई इरादा नहीं है, सर! हम लोग सिर्फ इसलिए आपका वक्त ले रहे हैं ताकि आपको अपनी भावनाओं से अवगत करा सकें कि हमें पिकनिक नहीं चाहिए।"

‘‘हमें पिकनिक नहीं चाहिए। हमें पिकनिक नहीं चाहिए", की आवाजें चारों ओर से तूफानी शोर की तरह उठने लगीं।

प्रिंसिपल स्पष्ट रूप से घबराए हुए थे, ‘‘ओके, आइ'ल सी टु इट।"

‘‘थैंक यू सर, थैंक यू वेरी मच। हम लोग आपके पास कब आएँ?" मैंने विेनम्रता से पूछा।

मेरे प्रश्न को सुनकर प्रिंसिपल और ज्यादा घबराए, ‘‘नहीं, नहीं, आप सब लोगों को आने की जरूरत नहीं है। कल चीफ प्रॉक्टर आपको बता देंगे।"

‘‘कल नहीं, अभी बताओ", की ठिठोलीपूर्ण आवाजें फिर उठने लगीं।

मैंने हाथ ऊपर उठाकर चुप रहने का इशारा किया, ‘‘सर, आप इजाजत दें तो कल इसी समय हम तीन-चार लड़के आपके पास आ जाएँगे।"

छात्रों के दबाव को और मेरी विनम्रता में छिपी धमकी को प्रिंसिपल बहुत अच्छी तरह समझ रहे थे। वे किंचित्‌ खामोश रहे। फिर बोले, ‘‘ठीक है, कल दस बजे आप लोग आ जाइए।"

‘‘आइए सर, हम आपको चैंबर तक पहुँचा दें।" मैंने मुसकराकर कहा।

‘‘नो, नो, मुझे कहीं जाना है।" प्रिंसिपल ने भाग जाने वाली नीयत को छिपाने की चेष्टा की।

‘‘फिर हम लोग चलते हैं, सर। चलो दोस्ताें, कल दस बजे मैं अपने तीन-चार साथियों के साथ प्रिंसिपल साहब की सेवा में आऊँगा। मुझे विश्वास है कि आदरणीय प्रिंसिपल साहब फैसला हमारे पक्ष में देंगे।"

उसी शाम को एक और झमेला हो गया। कॉलेज और अस्पताल के बीच में एक सड़क है। उस सड़क पर सभी प्रकार के वाहन चलते हैं। कॉलेज में से निकलकर अस्पताल जाते समय हम लोगों को वह सड़क बहुत सावधानी पूर्वक पार करनी पड़ती है, फिर भी दुर्घटनाएँ हो जाती हैं। शाम के समय कॉलेज से निकलकर अस्पताल की ओर जाते हुए द्वितीय वर्ष एम बी०, बी० एस ० के एक छात्र को राज्य परिवहन निगम की एक बस ने कुचल दिया। वह चालक बस समेत भाग गया, किंतु अन्य छात्रों ने बस का नंबर देख लिया था। छात्र को तुरंत अस्पताल उठाकर ले गए। वहाँ उसे मृत घोषित कर दिया गया।

उसी रात को चालीस-पचास छात्रों का एक जत्था परिवहन निगम के डिपो पर पहुँच गया। मैनेजर से दुर्घटना करने वाली बस के ड्राइवर का उन्होंने पता पूछा। मैनेजर जानता नहीं था या उसने बताया नहीं, यह तो कहा नहीं जा सकता, किंतु ड्राइवर का पता न मिलने के कारण लड़कों ने डिपो में तोड़-फोड़ और मार-पीट शुरू कर दी। डिपो में उपस्थित कर्मचारियों ने भी सरियों से मारपीट का जवाब दिया। कुछ लड़कों के चोटें आईं। कुछ कर्मचारी भी चोटग्रस्त हुए होंगे। रात को कुछ लड़के मेरे घर आए।

शाम को हुई दुर्घटना के समय मैं कॉलेज में था। एफ ० आई ० आर ० लिखवाकर मैंने शहर एस ० पी ० से बात की। यद्यपि मुकुल के पिता अब शहर एस ० पी० नहीं थे किंतु मेडीकल कॉलेज के महासचिव के रूप में शहर एस ० पी ०, अखबार वाले व सिनेमा वाले मुझे बखूबी जानते थे। मैं हिंसा और मार-पीट नहीं करता था किंतु मैं हिंसा और मार-पीट कर भी सकता हूँ और करा भी सकता हूँ, यह आतंक विशेष रूप से इन तीन तबकों पुलिस, अखबार और सिनेमाओं के प्रमुख लोगों पर पूरी तरह काबिज था। इसलिए सूचना मिलते ही शहर एस ० पी ० तुरंत सक्रिय हो गए। एस ० पी ० अच्छी तरह जानते थे कि बस के ड्राइवर को गिरफ्तार किए बिना बात बहुत ज्यादा बढ़ सकती है। पोस्टमार्टम रात को होता नहीं है, इसलिए लाश को मारचुअरी में भिजवाकर मैं घर आ गया था। न मुझे ऐसा संकेत मिला था और न मैंने ऐसी कल्पना की थी कि लड़के रात को डिपो चले जाएँगे, अन्यथा मैं घर नहीं आता।

मैं तुरंत कॉलेज पहुँचा। डिपो जाकर मार-पीट करने वाले लड़के कनिष्ठ छात्रावास के थे। वहाँ जाकर स्थिति की जानकारी ली। चोटग्रस्त लड़के मरहम-पट्‌टी कराके छात्रावास में आ गए थे। मैं उन लड़कों से भी मिला।

इस नतीजे पर पहुँचने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई कि डिपो वालों ने बचाव और प्रतिक्रिया के रूप में मार-पीट की थी। अगर लड़कों ने वहां जाकर बदसलूकी, लड़ाई-झगड़ा न किया होता तो वे लोग भी ऐसा कुछ नहीं करते। लेकिन लड़के जितने उग्र थे, उसे देखते हुए यह बात कहने से कोई लाभ नहीं था। वे लोग चाहते थे कि सुबह जुलूस बनाकर पहले एस ० पी ० के बँगले पर चला जाए। माँग की जाए कि हमारे साथी को कुचलकर मार देने वाले बस ड्राइवर को गिरपतार. करो। इसके बाद परिवहन निगम के प्रबंध निदेशक के कार्यालय चला जाए। उनसे कहा जाए कि डिपो मैनेजर को निलंबित करो। उसका निलंबन अगर हाथों-हाथ न किया गया तो परिवहन निगम के प्रधान कार्यालय को तहस-नहस करके उसमें आग लगा दी जाए।

रात को ही विभिन्न छात्रावासों के साठ-सत्तर लडकों की एक मीटिंग बुलाकर कल के जुलूस और उसकी माँगों के बारे में विचार-विमर्श हुआ। तय हुआ कि सुबह आठ बजे जुलूस बनाकर एस ० पी ० के बँगले पर चलेंगे। एस ० पी ० को अल्टीमेटम दिया जाएगा कि ड्राइवर को शाम तक गिरफ्तार करो, नहीं तो शहर में बंद का आह्‌वान किया जाएगा। थोड़ी तोड़-फोड़ करके शहर एस ० पी ० को बंद का नमूना दिखा दिया जाएगा। इसके बाद परिवहन निगम के प्रबंध निदेशक के कार्यालय के सामने प्रदर्शन किया जाए और तब तक वहाँ से न हटा जाए जब तक मैनेजर को निलंबित नहीं कर दिया जाता। मैनेजर के निलंबन की माँग से मैं सहमत नहीं था फिर भी उस समय मैंने कुछ नहीं कहा।

मेरे सहपाठी और छात्रावास में रहने वाले मंडली के साथी अब वरिष्ठ छात्रावास में रहते थे। लगभग ढाई बजे कुछ साथियों के साथ मैं वरिष्ठ छात्रावास में आया। एक कमरे में मंडली के छात्रावास में रहनेवाले साथी एकत्र हुए। स्थिति पर चर्चा करके हम लोगों ने योजना बनाई कि मैं सुबह जुलूस का नेतृत्त्व करता हुआ शहर एस ० पी ० के बँगले की तरफ बढूंगा। हमारा एक तेज-तर्रार साथी उससे पहले एस ० पी ० के बँगले पर जाकर उन्हें सारी स्थिति बताएगा। परिवहन निगम के मुख्यालय में भी पुलिस फोर्स रखने का आग्रह करेगा। संभव हुआ तो अपने सामने शहर एस० पी० की परिवहन निगम के प्रबंध निदेशक से बात कराएगा कि वे लड़कों की माँग को ज्यादा हील-हुज्जत न करके मान लें। परिवहन निगम की यूनियन से बात करने की आवश्यकता हो तो प्रबंध निदेशक वैसा कर लें। निलंबन के आदेश बाद में निरस्त किए जा सकते हैं। बस ड्राइवर की गिरफ्तारी यदि एस० पी ० के लिए सचमुच संभव न हो तो वे झूठ बोलने को तैयार होकर आएँ। पुलिस फोर्स के साथ, बँगले की ओर आने को तैयार लडकों से कॉलेज में या फिर रास्ते में मिलें। ड्राइवर की गिरफ्तारी के नारे सुनते ही छात्रों को बता दें कि ड्राइवर को रात को ही गिरफ्तार किया जा चुका है। उद्‌देश्य दो हैं। लड़के शांत रहें, भड़कें नहीं ओर किसी भी स्थान पर हिंसा न हो।

लगभग चार बजे सोकर छः बजे उठ जाना पड़ा। नहा-धोकर सात बजे मैंने कनिष्ठ छात्रावास में जाकर चार-पाँच लड़कों को कल दुर्घटना में मृत छात्र के पोस्टमार्टम के लिए तकाजा करने की दृष्टि से भिजवाया। उनसे कहा कि पोस्टमार्टम के बाद उस लड़के के परिवार वालों के साथ उनके घर जाकर दाह-संस्कार के समय की सूचना आकर कॉलेज में दें। मृत्यु के शोक में कॉलेज बंद घोषित कर दिया गया था। एक चक्कर मैं भी मारचुअरी का लगा आया। मृत छात्र के परिजनों से कल ही मुलाकात हो गई थी। उनको तसल्ली दी और आठ बजते-बजते कॉलेज आ गया। वरिष्ठ छात्रावास से कनिष्ठ छात्रावास की ओर रवाना होते समय शहर एस० पी ० के बँगले के लिए लड़का रवाना हो चुका था।

छात्र इकट्‌ठे हुए तो सबसे पहले दो मिनट मौन रखकर हमने मृत छात्र को श्रद्धांजलि दी। इसके बाद मैंने एक छोटा-सा भाषण दिया, ‘‘हमारा एक साथी कल अकाल मौत मारा गया है। उसे हम वापस तो नहीं लौटा सकते, लेकिन उसके हत्यारे की गिरफ्तारी के लिए हम जान की बाजी लगा देंगे। इसी सिलसिले में हमारे कुछ साथियों का राज्य परिवहन निगम वालों से कल रात को झगड़ा हुआ है। हमारी माँग है कि झगडे़ के लिए जिम्मेदार मैनेजर को निलंबित किया जाए। पहले हम लोग शहर एस ० पी ० के बंगले पर चलेंगे और बाद में परिवहन निगम के मुख्यालय चलेंगे। मैं आप सबसे एक बात जोर देकर कहना चाहता हूँ कि हम यह विरोध जिन उद्‌देश्यों की प्राप्ति के लिए कर रहे हैं उसके लिए आपके हाथ में पत्थर तभी आना चाहिए जब मैं निशाना साधूंगा। आपका महासचिव चाहता है कि पुलिस की लाठी, गोली का पहला वार उसके सिर और छाती पर हो। यह अधिकार आपने ही उसे दिया है। लेकिन वह इस अधिकार का उपयोग तभी कर पाएगा जब आपके हाथ उसकी हलचल देखकर आगे बढेंगे। हमारा जुलूस तभी नारे लगाएगा, जब जरूरी होगा। हमारे होनहार साथी की लाश का पोस्टमार्टम अभी होगा। हमारे कुछ साथी वहाँ हैं। दाह-संस्कार के समय की सूचना वे लोग दे देंगे। मगर दाह-संस्कार से पहले हम लोग नारे लगाएँ, यह शिष्टचार के खिलाफ है।"

इसी दौरान शहर एस ० पी ० हमारे बीच आ गए। उनके साथ पुलिस फोर्स के दो ट्रक भी थे। मगर सिपाहियों सहित ट्रक कॉलेज परिसर के बाहर ही रुक गए थे। एस ० पी ० हमारे बीच बिलकुल अकेले आए थे। मैंने छात्रों से फिर कहना शुरू किया, ‘‘शहर एस ० पी ० हमारे सामने हैं। हम जो सवाल बँगले पर जाकर उनसे पूछना चाहते थे, वही सवाल उनसे यहाँ पूछेंगे। एस ० पी ० साहब, हमें अफसोस है कि एक दरिंदा हमारे साथी को मौत की नींद सुलाकर भाग गया और आप अब तक उसे गिरफ्तार नहीं कर सके हैं। यह इजलास आपसे दो टूक जवाब सुनना चाहता है कि आप उसे कब तक गिरफ्तार कर लेंगे?"

शहर एस ० पी ० मेरे करीब आए, ‘‘सबसे पहले तो मैं मेडीकल कॉलेज के आपके साथी और भावी डॉक्टर की असामयिक मौत पर अफसोस जाहिर करता हूँ। शराब पीकर सड़कों पर गाड़ियां दौड़ाने वाले ड्राइवर से बड़ा गुनाहगार कोई नहीं हो सकता। आपके साथी को कुचलकर बस को भगा ले जाने वाले ड्राइवर को कल रात हमने गिरफ्तार कर लिया है। कानून के अनुसार उसे सजा दिलाने का काम हमारा है। मेरी आप सबसे गुजारिश है कि मेहरबानी करके हम पर भरोसा रखें और शांति बनाए रखें।"

‘‘शहर एस ० पी ० ने जो जानकारी हमें दी है, उससे पुलिस की चौकसी पर विश्वास पुख्ता होता है। नौ बजनेवाले हैं। हम लोग मौन जुलूस के रूप में सीधे मारचुअरी चलेंगे। पोस्टमार्टम के बाद अपने प्रिय साथी के मृत शरीर को उनके परिजनों के साथ भेजकर हम लोग राज्य परिवहन निगम के मुख्यालय चलेंगे। निगम के प्रबंध निदेशक से हम माँग करेंगे कि कल रात को हमारे साथियों पर जिस मैनेजर की शह पर हमला किया गया था, उसे निलंबित किया जाए।"

शहर एस ० पी ० फिर मेरे निकट आए, ‘‘यदि आप लोगों को एतराज न हो तो मैं एक सुझाव देना चाहता हूँ। पोस्टमार्टम के बाद आपके साथी का दाह-संस्कार जल्दी ही करना पडे़गा। आप लोग जुलूस के रूप में अगर राज्य परिवहन निगम के मुख्यालय जाएंगे और प्रबंध निदेशक से बात करेंगे तो शायद अपने साथी की अर्थी को कंधा देना आपके लिए मुमकिन न हो सके। अगर आप लोग चाहें तो आपके दो-तीन साथियों को ले जाकर मैं प्रबंध निदेशक से मिला देता हूँ। आपकी माँग यदि वे नहीं मानते हैं तो कल आप लोग जुलूस लेकर वहाँ जा सकते हैं।"

द्वितीय वर्ष एम.बी.बी.एस. के. छात्रों में कुलबुलाहट हुई। मैंने बदला लेने की उनकी बेचैनी को पहचानकर कहा, ‘‘मेरे विचार से शहर एस ० पी ० ठीक कहते हैं। अपने साथी की अर्थी को कंधा देकर श्मशान पहुँचाना हमारे लिए सबसे ज्यादा पुनीत कर्म है। मैनेजर से हम कल निपट सकते हैं, मगर कल हमारे लिए अपने साथी के दर्शन करने की गुंजाइश भी नहीं रह जाएगी। निगम के मुख्यालय आप लोग किसे भेजना चाहेंगे?"

जैसा कि अपेक्षित था, मुझे तो बातचीत के लिए जाना ही था। मैंने तीन छात्र द्वितीय वर्ष एम० बी ० , बी ० एस ० के अपने साथ ले लिये। शहर एस ० पी ० के साथ हम लोग निगम के प्रबंध निदेशक के घर पहुँचे। मैंने मैनेजर की कल रात की करतूत की शिकायत की तो प्रबंध निदेशक ने लडकों की बदसलूकी, गाली-गलौज, मार-पीट की बात बताई। मेरे साथ आए लड़कों ने प्रबंध निदेशक की बात का प्रतिवाद किया। कहा-सुनी और गरमाहट बढने लगी तो मैंने प्रबंध निदेशक से कहा, ‘‘बहस करके हम लोग किसी नतीजे पर नहीं पहुँच पाएँगे। आपके सामने दो रास्ते हैं। पहला यह कि डिपो मैनेजर को आप तुरंत प्रभाव से निलंबित करके जांच अधिकारी नियुक्त कर दें। जांच अधिकारी चाहेगा तो हम लोगों के बयान भी ले सकता है। उसकी रिपोर्ट के आधार पर आप अंतिम फैसला कर लीजिएगा। दूसरा यह कि कल हमारे जिस साथी को आपकी निगम के ड्राइवर ने कुचल कर मार डाला है, हमें उसकी मौत का बदला लेने दें। एस० पी० साहब यहाँ बैठे हैं। इनके सामने मैं आपको चुनौती देता हूँ कि यदि आपने कुछ नहीं किया तो अपने साथी की मौत का बदला लेने से हमें कोई नहीं रोक सकेगा। फैसला आपको करना है। यदि आप मैनेजर को निलंबित करें तो खबर भिजवा दीजिएगा, वरना कल हमें जो मुनासिब लगेगा, करेंगे।"

मैं उठकर खड़ा हो गया। मेरे तीनों साथी भी मेरे साथ खड़े हो गए। वहां से सीधे हम अस्पताल पहुँचे। पोस्टमार्टम कराके मृत शरीर को उसके परिजन घर ले जा चुके थे। सारे लड़के भी वहीं गए हुए थे। हम चारों सीधे उनके घर पहुँचे। श्मशान गए। लौटकर छात्रावास आए। नहा-धोकर फारिग हुए ही थे कि एक साथ दो सूचनाएँ आईं। डिपो मैनेजर को निलंबित कर दिया गया है। प्रिंसिपल ने पिकनिक फंड को किसी दूसरे काम में लेने की अनुमति तो नहीं दी है मगर आरकेस्ट्रा के लिए वाद्ययंत्र खरीदने के लिए दस हजार रुपए का विशेष अनुदान स्वीकृत कराया है। यह राशि उन्होंने चिकित्सा मंत्री से विशेष अनुरोध करके दिलाई है।

मुझे सुखद लगा कि भले ही कूटनीति से काम लेना पड़ा हो किंतु वाद्ययंत्रों के रूप में कॉलेज आरकेस्ट्रा को स्थायी भेंट दिलाने में मैं सफल हो गया हूँ। हिंसा, झगड़े-फसाद, मार-पीट, तोड़-फोड़ की पूरी संभावनाओं के बावजूद लड़कों के अहम्‌ भाव को तुष्ट करते हुए हिंसा का रास्ता अपनाए बिना भी वे सब काम कर पाया हूँ, जो मैं करना चाहता था। उस दिन जितना संतोष मुझे हुआ, वह सचमुच अपरिमित था।

***

(13)

23 अप्रैल, 1953

आज तृतीय वर्ष एम.बी.बी.एस. की परीक्षाएँ समाप्त हुई हैं। लिखित परीक्षाएँ, और प्रायोगिक परीक्षाएँ सभी अच्छी हुई हैं। मुझे विश्वास है कि इस वर्ष कक्षा में स्थिति और भी सुधरनी चाहिए। तेज रफ्तार से दौड़ता समय इस वर्ष घटनाओं के जाल में फँसाकर मुझे पढाई से विरक्त और विमुख करने पर पूरी तरह आमादा था। यदि उद्‌देश्य की मशाल बहुत ज्वलनशील नहीं होती तो इस बात की पूरी संभावना थी कि मैं इस जाल में फँस जाता। कॉलेज की विभिन्न गतिविधियाँ मेरी प्राप्य नहीं हैं। कॉलेज में मैंने पढने के लिए प्रवेश लिया है। जीवन में सफल डॉक्टर बनने के लिए अध्ययन के अलावा कोई रास्ता नहीं है। महासचिव मैं एक वर्ष के लिए हूँ। डॉक्टर मुझे जीवनपयर्ंत रहना है। राजनीति को धंधा बनाने का मेरा कोई इरादा नहीं है, डॉक्टर के रूप में मुझे आजीविका अर्जित करनी है। ये बातें अगर मस्तिष्क में स्पष्ट नहीं होतीं तो समय का प्रवाह कभी रैगिंग के विरोध के बहाने और कभी छात्रसंघ के महासचिव के बहाने मुझे कहीं दूर ले जाकर फेंक देता। इतनी दूर जहाँ से अपने उद्‌देश्य को छू पाना भी मेरे लिए संभव नहीं रह जाता।

अध्ययन मेरी दृष्टि में सबसे ज्यादा महत्त्वपूर्ण है, फिर भी आस्थाओं के कारण जो दायित्व मैंने स्वीकार किए, उनका निर्वाह करने में कोई कमी नहीं छोड़ी है। रात-भर जागकर मैंने अगर पढाई की तो दिन-भर भाग-दौड़ करके महासचिव के रूप में समस्याएँ भी सुलझाईं। केवल समस्याएँ सुलझाईं हों, इतना ही नहीं हुआ। बल्कि वही काम करने का प्रयत्न हुआ जिनका स्थायी महत्त्व हो सकता है, जो स्वस्थ वातावरण के निर्माण में सहायक हो सकते हैं। फिर प्रचलित रीति के विपरीत पूरी कोशिश हुई कि हिंसा, तोड़-फोड़, मार-पीट किए बिना ही समस्याओं का समाधान कर लिया जाए। कक्षा में विषय पर बातचीत में मेरी तैयारी देखकर जहाँ मेरे साथी और सहपाठी ताज्जुब करते थे कि मैं न जाने कब पढाई करता हूँ, वहीं महासचिव के रूप में हर जगह मुझे उपस्थित देखकर सारा कॉलेज मेरी सक्रियता का प्रशंसक था। जिन मूल्यों की स्थापना की इच्छा छात्रसंघ के महासचिव के रूप में मेरी थी, उनकी न मैंने कभी घोषणा की और न उनका कभी ढिंढोरा पीटा। मगर जो लोग अंतर समझ पाते हैं, अंतर्धारा को पहचान पाते हैं, उनसे कुछ भी छिपा हुआ नहीं है। जब छात्र अनुशासन हीनता और अराजकता का पर्याय बनते जा रहे हों, एक व्यक्ति अपने ढंग से उन्हें नियंत्रित कर ले तो यह घटना आज के दौर का आश्चर्य महसूस होती है। नियंत्रण कर पाने में सक्षम व्यक्ति अनुशासन हीनता और अराजकता का पक्षधर न हो, हिंसक तरीकों से काम करने में विश्वास न करता हो तो आश्चर्य और भी बढ़ जाता है।

इस साल भागमभाग, व्यस्तता और घटनाचक्र की तेज रफ्तार ने यदि मुझे सबसे अधिक परेशान किया तो उसका एकमात्र कारण था वार्ड में जाने के लिए निर्धारित समय में अन्य झंझटों का खड़ा हो जाना। मेरी कोशिश होती थी कि इस समय विशेष में कोई दूसरा काम न करूं। कोई काम आ पड़ता है तो उसे कुछ देर के लिए टाल दूं। फिर भी कई समस्याएँ अनचाहे ढंग से उसी समयावधि में खड़ी हो जाती थीं। छात्रसंघ की पूरी कार्यकारिणी होती है। कक्षा प्रतिनिधि के रूप में प्रीफेक्ट होते हैं। प्रत्येक छात्रावास में छात्रों की एक समिति होती है। इसके बावजूद महासचिव को ही हर एक छोटी-बड़ी समस्या सुलझानी पड़ती है। एकाधिकारवादी प्रवृत्ति के कारण वषोर्ं से बिगड़े ढर्रे का यह परिणाम है। प्रारंभ में मैंने प्रयत्न किया था कि समस्याएँ उसी छात्र के पास जाएँ, जिसे इस काम के लिए चुना गया है। मगर महसूस हुआ कि छात्र सोचते हैं, मैं समस्याओं का सामना करने से कतराता हूँ। यह प्रयत्न भी किया कि अन्य छात्र नेता आगे बढकर समस्याओं को स्वयं ही हाथ में ले लें। छात्रों को इससे अवमानना का असंतोष होता था। मजबूर होकर हर जगह महासचिव के भागने की परंपरा मुझे भी ढोनी पड़ी। यह परंपरा प्रकृति के अनुकूल न होते हुए भी मुझे अखरती नहीं यदि वार्ड के लिए निर्धारित समय में मुझे छोड़ दिया जाता। फिर भी किसी तरह निभ गई। कभी समस्या उठ खड़ी हुई। जाना पड़ा। आधा घंटा देर से ही सही, घंटा-भर निकल जाने के बाद ही सही, मैं वापस वार्ड में पहुँचने की चेष्टा करता रहा और उस चेष्टा में सफल भी होता रहा।

अस्पताल अपने आपमें एक अलग दुनिया है। प्रिंसिपल, फैकल्टी डीन, प्रोफेसर, रीडर, लैक्चरर, पैथालॉजिस्ट, रेडियोलॉजिस्ट, कंपाउंडर, नर्स, टेक्नीशियन, रेडियोग्राफर, वार्ड ब्वाय, स्वीपर की ऊपर से कदम-ब-कदम नीचे उतरती सीढियाँ। सीनियर रजिस्ट्रार, हाउस सर्जन, इंटर्न, विद्यार्थी डॉक्टर, विद्यार्थी कंपाउंडर, विद्यार्थी नर्स के कंधों पर पचास रुपए से एक सौ रुपए प्रतिमाह के स्टाइफँड की नींव पर खड़ी अस्पताल की व्यवस्था। अस्पताल की प्रशासनिक व्यवस्था के कर्णधार सुपरिटेंडेंट ओर डिप्टी सुपरिटेंडेंट। अस्पताल की बिजली व्यवस्था के लिए इंजीनियर, मैकेनिकों व टेक्नोशियनों का अमला। अस्पताल भवन और फर्नीचर के रख-रखाव के लिए पी ० डब्लयू ० डी ० वालों की फौज। लिफ्ट, इंक्वायरी, लांड्री, दर्जी, टेलीफोन ऑपरेटर, रसोइए, चौकीदार, क्या नहीं है यहाँ जो अलग दुनिया मानने की दृष्टि से हिचकिचाहट पैदा करे? सब पुर्जे महत्त्वपूर्ण हैं। फिर भी किसी के बिना काम नहीं रुकता। विदेश जाना है, टीके लगवाकर प्रमाण-पत्र यहाँ से लेना पड़ेगा। ऑपरेशन कराना है, तेज रोशनियों के घेरे में एनेस्थीटिस्ट के निर्देशानुसार दस तक की गिनती पूरी करने से पहले ही बेहोशी में डूबते हुए, सर्जन के चाकू के नीचे यहीं आना पड़ेगा। ऑपरेशन या किसी अन्य कारण से ब्लड ट्रांसफ्यूजन होना है, खून के लिए ब्लड बैक यहीं मिलेगा। ठीक होकर अस्पताल से घर जा रहे हैं, मंदिर में प्रसाद चढाना है, हनुमानजी का एक मंदिर अस्पताल में इसी उद्‌देश्य से बनवाया गया है। विद्यार्थी डॉक्टर अस्पताल की दुनिया में आज के लिए चाहे महत्त्वहीन हों किंतु कल के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। क्रमशः हाउस सर्जन, रजिस्ट्रार, लैक्चरार, रीडर, प्रोफेसर और यूनिट हैड की देखरेख में अस्पताल की विशाल प्रयोगशाला में उपलब्ध जीवित उपकरणों से विद्यार्थी डॉक्टर प्रयोग करता है। निरीक्षण, परीक्षण, विश्लेषण करता हुआ वह मरीजों का इलाज करने की स्थिति में पहुँचता है। बाहरी दुनिया की तरह अस्पताल की दुनिया में भी सीखता वही है जो सीखना चाहता है। विद्यार्थी चाहेगा तो उसे रास्ता दिखा दिया जाएगा, किंतु रास्ते पर चलने की ललक उसे ही पैदा करनी होगी अपने आपमें। इस सच्चाई की जानकारी वार्ड पोस्टिंग के प्रारंभिक दिनों में ही मुझे बखूबी हो गई थी। इसलिए क्लीनिक कक्षा में जो कुछ पढाया गया, उसके अनुसार मरीजों में लक्षण तलाश करना, लक्षणों से निदान तक पहुंचना, समान लगने वाले लक्षणों की बारीकियों को पहचानकर गलत निदान से बचना और इलाज के लिए दवाओं का चयन करके सचमुच दी जा रही दवाओं के साथ फार्मेकालॉजी के अनुसार मिलान करना, अस्पताल में काम की यह प्रक्रिया मैंने अपने लिए तय कर ली थी। इंट्रामस्क्यूलर इंजेक्शन तो भुजाओं या नितंबों की मांसपेशियों में लगाना सीखने में कोई कठिनाई वाली बात नहीं थी। किंतु इंट्रावीनस इंजेक्शन या ड्रिप के लिए नस तलाश करने का काम अभ्यास सम्मत था। चीरा लगाना, टाँके लगाना, आर्टीफीशियल रेस्पीरेशन देना, इमरजेंसी में दवाओं व सुइयों का चयन करना, ड्रेसिंग करना, ब्लड प्रेशर देखना, स्टेथेस्कोप के विविध प्रयोग समझना तभी संभव था जब ये काम करने का अवसर मिले।

प्रत्येक वार्ड का आधारभूत काम रजिस्ट्रार और हाउस सर्जन करते हैं। लैक्चरर, रीडर, प्रोफेसर राउंड लेते समय निर्देश देते हैं। रजिस्ट्रार, हाउस सर्जन के साथ मिलकर निर्देशों का पालन करते हैं। तीन वर्ष की पोस्टग्रेजुएशन स्तर की पढाई के लिए हाउस सर्जन, रजिस्ट्रार और सीनियर रजिस्ट्रार के रूप में प्रतिवर्ष वार्डों में किया गया काम ही उन्हें योग्य डॉक्टर बनाता है। हमारे स्तर पर व्यावहारिक ज्ञान रजिस्ट्रार से अधिक मिलना संभव नहीं है, यह समझने में मुझे अधिक समय नहीं लगा। काम का बोझ रजिस्ट्रार के ऊपर रहता है इसलिए किसी विद्यार्थी को सिखाने के लिए समय खराब करने में उसकी रुचि बिलकुल नहीं होती है। मैंने प्रयत्न किया कि हर एक मरीज की फाइल देखकर मैं उसके बारे में जानकारी ले लूं। जिन मरीजों का काम करना मेरे लिए संभव होता, मैं रजिस्ट्रार को बताकर फाइल के अनुसार कर लेता। खून और पेशाब के नमूने लेकर कॉलेज की प्रयोगशाला में भेजना, एक्स-रे आदि के लिए रिक्वीजीशन बनाकर मरीज को संबंधित विभाग में भिजवाना, निर्देशों के अनुसार मरीजों को दवाइयाँ लिखकर देना, मरीजों की मंगवाई हुई दवाओं की जांच करके बताना कि कौनसी दवा कब और कितनी लेनी है, वार्ड में बड़ों के साथ छोटे-छोटे काम भी इतने होते हें कि अगर मदद करने वाला मिल जाए तो रजिस्ट्रार राहत महसूस करता है। इनके कारण मुझे सीधा फायदा यह होता था कि रजिस्ट्रार जब संभव होता, मुझे समझाता, सिखाता और काम करने के लिए दे देता।

वार्ड में भरती मरीजों को मोटे तौर पर तीन श्रेणियों में विभाजित किया जा सकता है। पहले वर्ग में ऐसे मरीज आते हैं जो प्रोफेसर, रीडर या लैक्चरार को घर में दिखाकर फीस देते हैं और अस्पताल में भरती होकर संबंधित डॉक्टर के माध्यम से, उपलब्ध सुविधाओं का लाभ उठाते हैं। जिस डॉक्टर को घर में दिखाकर वे भरती होते हैं, वह डॉक्टर राउंड के समय उनको ज्यादा ध्यानपूर्वक देखता है। दूसरी श्रेणी में आने वाले मरीज पद, परिचय या संबंधों के कारण वार्ड में महत्त्व हासिल कर लेते हैं। इन दोनों श्रेणियों के मरीजों में वरिष्ठ डॉक्टरों में से किसी-न-किसी की रुचि होती है।

इसलिए रजिस्ट्रार और हाउस सर्जन को भी उनका विशेष ध्यान रखना पड़ता है। रात को दो बजे कोई परेशानी हुई। परिचारक ने वार्ड में उपलब्ध रजिस्ट्रार या हाउस सर्जन को बताया। रजिस्ट्रार या हाउस सर्जन ने स्वयं आकर एक बार मरीज को देखा। उससे जरूरी सवाल पूछे। बहुत कम स्थितियों में पूरी तरह निरापद देखकर उसने स्वयं उपचार कर दिया अन्यथा वरिष्ठ डॉक्टर को टेलीफोन किया। हालात बताए और निर्देशानुसार उपचार कर दिया। यह भय रजिस्ट्रार या हाउस सर्जन के मन में ऐसे मरीजों के मामले में हमेशा बना रहता है कि कहीं उसकी स्वनिर्ण्िात उपचार विधि को गलत बताकर डाँट-डपट न हो जाए।

तीसरी श्रेणी के मरीज सबसे ज्यादा जरूरतमंद, सबसे ज्यादा परेशान, सबसे ज्यादा भोले-भाले और सबसे ज्यादा ध्यान देने योग्य होते हैं। किंतु निर्धनता अस्पताल में भी अभिशाप बनकर उनके सिर पर खड़ी रहती है। वरिष्ठ डॉक्टर उनको रस्म अदायगी के तौर पर देखते हैं। उनकी तकलीफ की तरफ न कोई देखता है और न उसे दूर करने की चेष्टा करता है। पलंग या तो मिलता नहीं है, अगर मिलता है तो गरमियों में पंखे से दूर और सरदियों में खिड़की के पास मिलता है। वरिष्ठ डॉक्टरों के लिए उपेक्षित प्राणी होता है, इसलिए रजिस्ट्रार और हाउस सर्जन भी उसकी ओर उतना ही ध्यान देते हैं जितना जरूरी होता है। तीसरे वर्ग में आने वाले मरीजों की संख्या शेष मरीजों से अधिक होती है।

इन मरीजों के साथ होने वाला सौतेला व्यवहार मुझे बहुत परेशान करता है। लोक कल्याणकारी राज्य में अमीर और गरीब के बीच भेद करना उचित है क्या? कानून सम्मत ढंग से कर गरीब भी देता है। अमीर के लिए सरकारी अस्पतालों के अलावा भी इलाज कराने के लिए अनेक स्थान हैं। गरीब खर्च बरदाश्त नहीं कर सकता इसलिए सरकारी अस्पताल में आता है। फिर अमीर को गरीब के हक पर डाका डालने की इजाजत हम क्यों देते हैं? दवा न खरीद पाने के कारण मृत्यु के मुख में जाने को विवश निर्धन मरीज को न देकर निःशुल्क दवाएँ उन्हें दी जाती हैं जो दवाएँ खरीदने में सक्षम हैं। क्यों करते हैं हम ऐसा? गरीब मरीज को जाँच के लिए अस्पताल की प्रयोगशाला की सुविधा हम नहीं देते। किंतु अमीर मरीज को आयकर न देने वाले व्यक्ति के रूप में सत्यापित करके महँगी से महँगी जाँच अस्पताल से निःशुल्क करा देते हैं। केवल इसलिए क्योंकि या तो दस रुपए देकर उसने घर पर दिखा दिया है या वह प्रभावशाली है। स्वकल्याण को क्या परम कल्याण मानने लगे हैं हम लोग?

अस्पताल में प्रतिदिन ये खेल मैं देखता था। मन-ही-मन दुखी होता था। किंतु विरोध करने में स्वयं को अक्षम पाता था। विरोध तो अलग बात है, लैक्चरार, रीडर या प्रोफेसर से मात्र कह सकूं, इस स्थिति में भी नहीं था मैं। सरकार प्राइवेट प्रेक्टिस बंद कर दे तो डॉक्टर, गरीब मरीजों की तरफ ध्यान देने लगेंगे या अवैध तरीकों से वे मरीजों से रुपए लेना शुरू कर देंगे, यह बहस का विषय है। किंतु प्राइवेट प्रेक्टिस बंद करना या न करना भी मेरे हाथ में नहीं था। रजिस्ट्रार और हाउस सर्जन से किसी प्रकार की अपेक्षा रखी नहीं जा सकती थी। समस्याओं से जूझने की मुझे आदत है, इसलिए मैं अलग-अलग पहलुओं से विचार करता रहा। किसी सहपाठी को विचार-मंथन में शामिल करने से कोई लाभ नहीं था। मैं अकेला ही प्रक्रियाओं में से रास्ता निकालने का प्रयास करता रहा। अंततः एक उपाय मुझे सूझा।

प्रत्येक लैक्चरार, रीडर और प्रोफेसर को निर्धारित स्तर के विद्यार्थियों की निर्धारित समय पर क्लिनिक कक्षा लेनी होती है। क्लिनिक कौनसे मरीज की बीमारी को ध्यान में रखते हुए होगी, यह कार्यक्रम रजिस्ट्रार ही तैयार करता है। विशेष रूप से तृतीय और चतुर्थ वर्ष के विद्यार्थियों के मामले में सामान्यतः किसी मरीज विशेष को क्लिनिक के कार्यक्रम में रखने की बात अध्यापक नहीं कहते हैं। जिस मरीज पर क्लिनिक में विस्तार से बातचीत होती है, स्वाभाविक रूप से उसके रोग के लक्षण, निदान, जांच ठीक होने की संभावनाओं, आदि पर अच्छी तैयारी हो जाती है। उस मरीज को अनेक मेडीकल विद्यार्थियों के प्रश्नों का सामना करने की असुविधाजनक स्थिति से जरूर गुजरना पड़ता है किंतु इलाज की दृष्टि से उसके ऊपर अधिक ध्यान चला जाता है।

मैं पहले अपनी तरफ से वार्ड में भरती मरीजों की पहुँच और आर्थिक स्थिति का जायजा लेता। रोग की दृष्टि से उसका परीक्षण करके, लक्षणों के अनुसार पुस्तकों में संदर्भ ढूंढ़कर, केस हिस्ट्री लेकर, फाइल देखकर मैं आकलन करता कि रोग किस अवस्था में है? आर्थिक स्थिति और रोग की गंभीरता के आधार पर मैं रजिस्ट्रार से उस केस को क्लिनिक में रखवाने का अनुरोध करता। क्लिनिक में चर्चा से पहले क्योंकि मैंने पूरी तरह तैयारी की होती, इसलिए संभावित-असंभावित सभी प्रकार की शंकाएँ क्लिनिक के माध्यम से दूर हो जाती थीं। मरीज की विस्तृत जांच, उसके विस्तृत परीक्षण का लाभ यह मिलता था कि निदान पर पहुँचकर तुरंत उचित इलाज वाली स्थिति आ जाती थी। निदान की दृष्टि से आवश्यक जांच, एक्सरे, आदि भी अस्पताल से हो जाते थे। इसके बाद बचती थीं दवाएँ। अगर मरीज स्वयं दवाएँ लाने की व्यवस्था कर लेता तो ठीक है वरना रजिस्ट्रार से कहकर महँगी दवाएँ मैं उसे अस्पताल से दिलवा देता था।

कभी-कभी अस्पताल से दवा की व्यवस्था कराना संभव नहीं होता था। मरीज आर्थिक दृष्टि से दवा लाने की हालत में होता नहीं था। क्लिनिक में केस पर विस्तार से बातचीत हो गई। हर तरह की जाँच हो गई। परीक्षण हो गए। असंदिग्ध निदान हो गया। मगर मरीज के पास दवा लाने के लिए पैसे नहीं हैं। यह स्थिति मन को और ज्यादा खराब लगती थी। छात्रसंघ के महासचिव के रूप में दबदबा था ही। कुछ साथियों को लेकर मैं लायन क्लब और रोटरी क्लब के सचिवों से मिला। गरीब और जरूरतमंद मरीजों की व्यथा-कथा उन्हें सुनाई। ये लोग सामाजिक काम प्रचार और प्रदर्शन के लिए अधिक करते हैं, सेवाभाव इनके हृदयों में कम होता है। यह अहसास मुझे था। मैंने उनसे कहा कि मरीजों को दवाएँ देने से आपके क्लब को, आपको प्रचार भी मिल सकता है। जहाँ तक प्रक्रिया को बात है, उसमें हम लोग आपकी सहायता करेंगे। आप अस्पताल के सामने स्थित किसी एक मेडीकल स्टोर को एक निश्चित सीमा में दवाएँ उपलब्ध कराने के लिए कह दीजिए। सीमा आप हमें बता दीजिए। जरूरतमंद मरीजों की जानकारी हम लोगों को रहती ही है। जिसे हम अस्पताल से दवा नहीं दिला पाएँगे ऐसे मरीज को निर्धारित मेडीकल रुटोर पर भेजेंगे। बिल सत्यापित करके हम मेडीकल स्टोर में वापस भेज देंगे। आप उसके आधार पर भुगतान कर दीजिएगा। पहली बार आप लोग स्वयं चलकर अपने हाथों से दवाएं दीजिए। फोटो खिंचवाइए। अखबारों में छपवाइए। बाद में हम आपकी सहायता करते रहेंगे।

दोनों सचिवों ने अपने क्लब के सदस्यों के साथ विचार-विमर्श किया। इस काम में एक-डेढ़ महीना लग गया। किंतु आखिर लायन क्लब ने पिचहत्तर रुपए की प्रतिमाह और रोटरी क्लब ने पचास रुपए की प्रतिमाह दवा देने के लिए दुकानदारों को निर्देश दे दिए। पहली बार क्लब के अध्यक्ष व सचिव सहित कार्यकारिणी ने अस्पताल आकर दवाएँ मरीजों को दीं। दवाएँ देते हुए उनके फोटो खिंचे। प्रचार हुआ। छात्रसंघ की ओर से सराहना करते हुए हमने भी उन्हें पत्र लिखे। मेरे मन की उथल-पुथल को थोड़ी-बहुत राहत मिली। फिलहाल किसी और की तो इस तरह के काम में रुचि थी नहीं। इतना मैं जरूर समझ पाता हूँ कि लायन क्लब और रोटरी क्लब के एक सौ पच्चीस रुपए गरीब मरीजों की इतनी बडी संख्या की दवाओं की जरूरत पूरी नहीं कर सकते। मंथन जारी है। कोई-न-कोई उपाय निकल आना चाहिए। साल-दो-साल भले ही लग जाएँ, किंतु जब तक इस संबंध में कोई स्थायी व्यवस्था नहीं हो जाती, मेरा सोच काम करता रहेगा।

समय की कमी सरकारी अस्पताल में कितनी घातक साबित हो सकती है, इसका एक उदाहरण मैं लाख चाहकर भी अपने मस्तिष्क से निकाल नहीं पा रहा हूँ। ऐसा माना जाता है कि कुछ इंजेक्शन सैंसिटीविटी टैस्ट किए बिना किसी भी स्थिति में नहीं लगाए जाने चाहिएं। पैंसिलीन को इंजेक्ट करने से पहले जरूर टैस्ट कर लेते हैं। किंतु अन्य दवाओं को टैस्ट करने के मामले में लापरवाही या समयाभाव काम कर जाता है। सैंसिटीविटी टैस्ट करेंगे तो पाँच मिनट इंतजार करके असर देखना पड़ेगा। पाँच मिनट इंतजार कौन करे? लगाओ इंजेक्शन, देखा जाएगा। संभवतः यही प्रवृत्ति रही होगी कि एक मरीज को बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन बिना सैंसिटीविटी टैस्ट किए लगा दिया कंपाउंडर ने। मैं उस समय पास वाले बिस्तर के मरीज से हिस्ट्री पूछ रहा था। इंजेक्शन लगाकर कंपाउंडर जल्दी-जल्दी दूसरे मरीज की तरफ चला गया था। अचानक मेरा ध्यान गया तो मैंने देखा कि जिस मरीज को इंजेक्शन लगा था उसका चेहरा सफेद झक्क हो गया। पसीना उसकी पेशानी पर छलछला आया। तब तक मुझे नहीं पता था कि कंपाउंडर ने उसे कौन-सा इंजेक्शन लगाया था। रीएक्शन होता है, यह तो मुझे मालूम था किंतु ऐसी स्थिति में क्या करना चाहिए, इसकी जानकारी मुझे नहीं थी।

मैं दौड़कर रजिस्ट्रार के पास गया। उसे बताया कि बैड नं० पाँच के मरीज को कंपाउंडर ने इंजेक्शन लगाया था। लगता है, रीएक्शन हो गया है।

‘‘ओ गॉड, उसे तो बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन लगा है।" हड़बड़ाकर वह उठा और तुरंत मरीज के पास आया।

देखते ही उसे समझ में आ गया कि बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन रीएक्ट कर गया है। कंपाउंडर को आवाज लगाकर उसने एविल लाने के लिए कहा। झटपट तीन-चार अलग-अलग तरह के इंजेक्शन एक के बाद एक उसे लगा दिए। थोड़ी देर में उसकी उखड़ी साँसें नियंत्रित होने लगीं तो रजिस्ट्रार ने चैन की सांस ली। अपनी कुरसी पर लौटकर काफी देर तक वह सिर को हाथों में थामकर बैठा रहा। मैंने जानकारी की तो पता लगा कि बी-कॉम्पलेक्स इंजेक्शन के कारण रीएक्शन तो एक हजार में से केवल एक मरीज को होता है, किंतु रीएक्शन एक बार हो गया तो मरीज की तुरंत मृत्यु हो जाने का डर होता है। पैंसिलीन सहित कोई भी दूसरा इंजेक्शन ऐसा नहीं है जिसका रीएक्शन होने के बाद इतनी जल्दी मृत्यु होने की संभावना रहती हो।

इस व्याख्या के बाद समझने में मुझे देर नहीं लगी किं रजिस्ट्रार ने कुरसी पर बैठते ही अपना सिर हाथों में क्यों थाम लिया था? कंपाउंडर को इस बात की जानकारी थी कि बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन सैंसिटीविटी टैस्ट करने के बाद ही लगाया जाना चाहिए। उसे यह भी मालूम था कि बी-कॉम्पलेक्स का इंजेक्शन अगर रीएक्ट कर जाए तो परिणाम बहुत भयंकर हो सकता है। फिर क्यों नहीं किया उसने सैंसिटीविटी टैस्ट? लापरवाही? समयाभाव? मरीजों का अज्ञान कि जिसके कारण वे मृत्यु के कारणों का अनुमान नहीं लगा पाते? निर्धनता? ईश्वर की इच्छा मानकर इलाज को चुनौती न देने की मानसिकता? भारतीय सोच कि मरने वाला तो चला गया, अब यह सब किसके लिए किया जाए? सब बातों का थोड़ा-बहुत प्रभाव हो सकता है किंतु सबसे बड़ा कारण है व्यक्तिगत जवाबदेही का अभाव। कहते हैं, अरब देशों में इलाज अस्पताल नहीं करता, डॉक्टर विशेष करता है। गलत इलाज को डॉक्टर की व्यक्तिगत जिम्मेदारी माना जाता है। उसकी गलती से यदि मरीज की मृत्यु हुई है तो डॉक्टर को सजा-ए-मौत भी मिल सकती है। देश का कानून ऐसे डॉक्टर को हत्या का अभियुक्त मान सकता है। यदि पोस्टमार्टम रिपोर्ट या विशेषज्ञों की समिति की रिपोर्ट के आधार पर सिद्ध होता है कि मृत्यु डॉक्टर की गलती से नहीं हुई तो अलग बात है। अन्यथा डॉक्टर के खिलाफ मुकदमा सरकार की तरफ से चलता है। मृत व्यवित के परिजनों को न्यायालय के द्वार खटखटाने की जरूरत नहीं होती। यह प्रक्रिया अपने आप चल पड़ती है। क्या इसी तरह का कोई कानून अपने देश में नहीं बनना चाहिए? अंग्रेजों से पहले, वैद्य को ईश्वर का रूप मानकर अपने देश में उसकी पूजा करते थे। धनवंतरी का उद्‌गम समुद्र-मंथन से माना गया है। ईश्वर स्वरूप वैद्य कोई लापरवाही करेगा और रोगी की जान पर बन आएगी, यह बात सोची भी नहीं जा सकती थी। किंतु अंग्रेजों ने चिकित्सा को पैसे से जोड़कर भी लापरवाही करते रहने का अधिकार अपने पास सुरक्षित रखा। इंग्लैंड में तो लापरवाही करने पर अदालत उन्हें माफ नहीं करती। फिर भारत में ही यह विशेषाधिकार क्यों था उनके पास? चिकित्सा पद्धति हमने उनसे ली है, इसका अर्थ यह नहीं है कि एलौपैथी के चिकित्सकों को भी अंग्रेजों को इस देश में प्राप्त विशेषाधिकार स्वाभाविक रूप से मिल जाने चाहिएं।

अपनी समझ और योग्यता के अनुसार मरीजों, विशेषकर गरीब मरीजों को राहत पहुँचाने की कोशिश अवसर आते ही उन्माद की तरह मेरे ऊपर हावी हो जाती है। कई बार मैं इतनी अधिक रुचि लेने लगता हूँ कि रजिस्ट्रार तथा अन्य लोगों को आशंका होने लगती है। किसी प्रकार का व्यक्तिगत संबंध, किसी प्रकार का आर्थिक लाभ यदि नहीं होता है तो कौन करता है इतना आगे बढ़-चढ़कर मदद? हो सकता है, शरणार्थी शिविर और उसके बाद जो स्थिति मैंने सिंध से आए लोगों की देखी, यह उन्माद उसकी देन हो। हो सकता है, मैंने स्वयं विभाजन के बाद जो कुछ भोगा है, यह जज्बा उसकी उपज हो। किंतु जरूरतमंद की सहायता के लिए जितना आगे बढ जाता हूँ, वह लोगों को चाैंकाता है।

एक घटना मुझे याद आती है! मेरी पोस्टिंग पीडिएट्रिक वार्ड में चल रही थी। दो दिन पहले डीहाइड्ऱेशन के बारे में हमें बताया गया था कि बच्चों में पानी की कमी उलटी, दस्त, कम दूध या पानी पिलाने के कारण कई बार हो जाती है। ग्लूकोज सेलाइन चढाकर डीहाइड्रेशन को दूर करने के उपाय कर लिये जाते हैं। किंतु यदि ग्लूकोज सही समय पर न चढाया गया तो डीहाइड्रेशन का असर मस्तिष्क पर पड़ सकता है। ऐसी स्थिति में शिशु की देखते ही देखते मृत्यु हो सकती है।

हमारी पाँच विद्यार्थियों की टोली ने दस बजे जैसे ही वार्ड में कदम रखा, अपने सात-आठ माह के बच्चे को गोद में लिये फटे-पुराने कपड़े पहने एक ग्रामीण महिला रोती हुई नजर आई। मैं अपने साथियों को लेकर उसके निकट चला गया। पूछा तो उसने जानकारी दी कि लगभग पौन घंटा पहले आउटडोर से पानी की कमी का इलाज करने के लिए भरती करके यहाँ भेजा है। आउटडोर वालों ने जो पर्ची लिखकर दी थी, उसके अनुसार वह दो बोतल ग्लूकोज अपने साथ लेकर आई थी। मगर हर एक की चिरौरी करने के बाद भी कोई सुन नहीं रहा है। सहानुभूति का स्पर्श पाकर वह दहाड़ें मारकर रोने लगी। मैंने इधर-उधर देखा। एडमीशन डे होने के कारण मरीजों की आमद जारी थी। रजिस्ट्रार बुरी तरह व्यस्त था। फिर भी मैं रजिस्ट्रार के पास चला गया, ‘‘बॉस, आउटडोर से एक डीहाइड़े्रशन का केस आया है। मुझे लगता है, बच्चा सीरियस है। आइ ० वी ० ड्रिप अभी नहीं चढी तो वह मर सकता है।"

पीडिएट्रिक्स में हफ्ता-भर पहले ही पोस्टिंग हुई थी। रजिस्ट्रार ने अजीब-सी नजरों से मुझे देखा, ‘‘तुम चलो। मैं अभी आता हूँ।"

मैं लौटकर महिला के पास आ गया। बच्चा गैस्प करने लगा था। माँ जोर-जोर से चिल्लाकर रोने लगी थी। मैं दौड़ता हुआ फिर रजिस्ट्रार के पास गया, ‘‘बॉस, बच्चा गैस्पिंग कर रहा है।"

अब रजिस्ट्रार को लगा कि मामला सचमुच गंभीर है। उठकर वह जल्दी-जल्दी बच्चे के पास आया। बच्चे की स्थिति देखकर उसने एक पल भी गंवाए बिना ड्रिप लगाने के लिए नस तलाश करनी शुरू कर दी। बच्चा शॉक में चला क्या था। नस मिल नहीं रही थी। पैर, कलाई दोनों जगह कई प्रिक लगाने के बाद भी जब नस नहीं मिली तो मैंने सुझाव दिया, ‘‘बॉस विनी सैक्शन कर लेते हैं।"

रजिस्ट्रार को उस स्थिति में इससे बेहतर रास्ता कोई नहीं सूझा होगा। चीरा लगाकर उसने सबक्यूटेनियस टिशू को काट दिया। नस नजर आने लगी। नस में चीरा लगाकर छेद करके उसने नीडल सीधी उसमें डाल दी। पाँव को बाँधने के लिए पैड आदि कुछ भी नहीं थे। हममें से एक ने ऊँचा उठाकर ग्लूकोज की बोतल को पकड़ लिया। मैंने बच्चे के पाँव को सँभाले रखा। ग्लूकोज की रफ्तार तेज थी फिर भी पहली बोतल समाप्त होते-होते तीन घंटे लग गए। इतना समय हम लोग उसी अवस्था में बैठे रहे। ग्लूकोज मिलने के थोड़ी देर बाद बच्चे की गैस्पिंग रुक गई थी। आधी बोतल समाप्त होते-होते उसकी स्थिति भी सुधरने लगी थी।

बच्चे की माँ की आँखों में जो कृतज्ञता थी, उसने श्रम से कई गुना ज्यादा मुआवजा हमें दे दिया था। किंतु बाद में रजिस्ट्रार से रहा नहीं गया। उसने मुझसे पूछ ही लिया, ‘‘इस औरत को तुम जानते थे क्या?"

चिकित्सा व्यवसाय अनिवार्यतः इनसान और उसकी भावनाओं से जुड़ा हुआ है। इनसान और उसकी भावनाओं के सूक्ष्म तंतुओं का ध्यान रखे बिना कोई भी चिकित्सक कैसे काम कर सकता है, मैं समझने में असमर्थ हूँ। ठीक है कि चिकित्सक की भी मौलिक आवश्यकताएँ होती हैं, उसे भी सामाजिकता का निर्वाह करना पड़ता है, उसे भी परिवार का पालन-पोषण करना होता है, उसमें भी मानवीय कमजोरियाँ होती हैं। किंतु खून के बिना भी शरीर की कल्पना की जा सकती है क्या? शरीर के अपने गुण-अवगुण होते हैं किंतु शरीर में से मांस का टुकड़ा निकाल लिया जाए और रक्त की एक बूंद भी गिरे नहीं, यह संभव है क्या? मानव की पीड़ाओं को देखकर जिसमें करुणा न जागे, मानवीय संवेदनाएँ जिसे छू न सकें, वह चिकित्सक हो सकता है क्या? अपने चारों ओर फैले डॉक्टरों को देखता हूँ तो ये प्रश्न निरर्थक लगते हैं। मैं नहीं जानता कि डॉक्टर बनने के लिए उनका मेडीकल कॉलेज में आना एक संयोग मात्र है या सचेतन ढंग से उन्होंने डॉक्टर बनना चाहा था। यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूं कि कम-सेे-कम मैं पर्याप्त सोच-विचार के बाद मेडीकल कॉलेज में आया हूँ। मेरे लिए प्रत्येक पीड़ित, प्रत्येक रोगी मानवता का प्रतिरूप है। प्रत्येक पीड़ित मेरा रिश्तेदार है। रुपया या सामाजिक संबंध उसके साथ मेरा रिश्ता नहीं बनाते। उसके साथ मेरा रिश्ता बनाता है वह व्यवसाय जो मैंने सचेतन रूप से चुना है।

चीफ प्रॉक्टर के पास छात्रसंघ की कार्यकारिणी ने वर्ष-भर के प्रस्तावित कार्यक्रम जब भेजे थे तो उनमें शामिल दो कार्यक्रम उनकी समझ में नहीं आए थे। हमने श्री मन्मथनाथ गुप्त को स्वतंत्रता सेनानी के रूप में भाषण देने के लिए बुलाने का प्रस्ताव रखा था। दूसरा हमने सोलह मार्च को वर्ष प्रतिपदा के अवसर पर प्रतीक के रूप में विक्रम संवत्‌ के अनुसार नए वर्ष का स्वागत करने का निश्चय किया था। मार्च में परीक्षाओं के कारण बड़ा आयोजन संभव नहीं था, इसलिए प्रिंसिपल की ओर से कॉलेज पोर्च में सरस्वती की प्रतिमा के सम्मुख दीप प्रज्वलित करके औपचारिक रूप से नया साल रेखांकित करने की बात हम लोगों ने सोची थी। ईसवी सन्‌ के नए साल की तरह कॉलेज में, अस्पताल के प्रमुख स्थानों पर तीन-चार बैनर लगवाने का विचार भी हमने किया था। बैनरों पर लिखना था विक्रम संवत्‌ 2010 शुभ हो।

श्री मन्मथनाथ गुप्त का नाम चीफ प्रॉक्टर ने पहली बार सुना था। मैंने उनके बारे में विस्तार से बताया तो वे इस कार्यक्रम के लिए तैयार हो गए। किंतु वर्ष प्रतिपदा के लिए उनका कहना था कि अलग-अलग संवत्‌ के अनुसार नया साल मनाना उचित नहीं है। एक तर्क उन्होंने यह भी दिया कि भारत सरकार ने शक संवत्‌ को स्वीकार किया है, विक्रम संवत्‌ को नहीं। इसलिए अगर मनाना ही है तो नया साल शक संवत्‌ के अनुसार मनाओ। दासता की मानसिकता और भारतीय संस्कृति के गौरव की पृष्ठभूमि में इस विषय पर मैंने उनसे लंबी बात की। किंतु वे सहमत नहीं हुए। सोलह मार्च को हमने अपने निश्चय के अनुसार विक्रम संवत्‌ का नया साल मनाया, किन्तु दीप प्रिंसिपल की बजाय मैंने प्रज्वलित किया और आयोजन छात्रसंघ की ओर से न करके हमने व्यक्तिगत रूप से किया।

मेडीकल कॉलेज के चीफ प्रॉंक्टर जब भारतीय संस्कृति के स्थान पर अंग्रेजों के उपहारों को ज्यादा महत्त्व देते हैं तो इस देश के बहुसंख्यक सामान्य बुद्धि के लोगों को क्यों दोष दिया जाए? भाषा, वेश-भूषा, आचार-विचार, रहन-सहन, खान-पान सब कुछ तो दासता की कहानी बोलते हैं चिल्ला-चिल्लाकर। आजाद हैं हम किस तरह आखिर? अंग्रेजी को हम अंतरराष्ट्रीय भाषा कहते हैं। हिंदी हमें अंग्रेजी की तुलना में गंवारू लगती है। अंग्रेजों को, उनकी सभ्यता को, उनके देश में बनी सामग्री को हम सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। अपना अतीत और वर्तमान हमें हेय प्रतीत होता है। क्या होगा उनका भविष्य जो अतीत को निकृष्टतम और वर्तमान को निकृष्ट मानते हैं?

महासचिव बनते ही मैंने छात्रावासों के भोजनालयों को चलाने के लिए चुनाव कराए। चुनाव हर एक महासचिव कराता था। इसलिए मैंने अगर चुनाव कराए तो कोई विशेष बात नहीं की। इस बार केवल एक ही अंतर था। हमेशा महासचिव के चहेते लड़के भोजनालय में छात्र-प्रतिनिधि चुने जाते थे। महासचिव और छात्र-प्रतिनिधि मिल-बाँटकर पैसा खा जाते थे। छात्रावास में रहने वाले छात्र समझते थे, फिर भी सबूत न होने के कारण कुछ कह नहीं पाते थे। महासचिव का वरद्‌हस्त होने के कारण छात्र-प्रतिनिधि के खिलाफ आवाज उठाने का साहस करना हर एक छात्र के लिए संभव भी नहीं था।

मैंने केवल एक संशोधन के साथ चुनाव कराए। प्रत्येक माह की अंतिम तारीख को आगामी एक माह के लिए छात्र-प्रतिनिधि चुना जाएगा। अगले माह के लिए यदि फिर उसी प्रतिनिधि को चुनने के लिए छात्रावास में रहने वाले छात्र इच्छुक हों तो ऐसा कर सकते हैं। किंतु चुनाव हर महीने होंगे। इस संशोधन का स्पष्ट अर्थ सब लड़के तुरंत समझ गए। पूरा साल हेरा-फेरी करते चले जाने का अनुबंध अब समाप्त हो गया था। एक महीना काम करो। ईमानदारी से काम करोगे तो अगले महीने फिर चुन लिए जाओगे। हेरा-फेरी करोगे तो एक महीने बाद छुट्‌टी हो जाएगी। जो लड़के छात्रावास के भोजनालय से अवैध लाभ उठाते थे, उन्हें यह संशोधन अच्छा नहीं लगा। किंतु विरोध के लिए केवल एक दलील उनके पास थी। हर महीने चुनावों का झंझट समय की बरबादी है। यह दलील किसी को भी स्वीकार्य नहीं थी। इसलिए कोई ध्यान हम लोगों ने नहीं दिया। इस संशोधन का परिणाम मानना चाहिए कि इस वर्ष प्रति समय भोजन का खर्च पिछले साल की तुलना में औसत दो आने कम आया है। प्रत्येक माह छात्र-प्रतिनिधि के चुनाव के कारण भोजनालय के खर्च में आई कमी से छात्र इतने उत्साहित हैं कि मुझे नहीं लगता, अब कभी पुरानी पद्धति लौट पाएगी।

एक काम और हुआ है इस वर्ष, जिसे मेडीकल कॉलेज के इतिहास में हमेशा याद रखा जाएगा। हमारे कॉलेज में एम ० एस० जनरल सर्जरी और एम ० डी ० मेडीसिन की स्नातकोत्तर डिग्रियों की पढाई तो होती है किंतु अन्य विषयों में ऐसी व्यवस्था नहीं है। चिकित्सा विज्ञान तेजी से प्रगति कर रहा है और यहाँ हम अब भी जनरल सर्जरी और जनरल मेडीसिन में उलझे हुए हैं। निजी स्तर पर लड़कों ने प्रयास किए हैं, किंतु उनकी कोई सुनता नहीं है। जिस विषय में कॉलेज में आधारभूत संरचना उपलब्ध है, स्नातकोत्तर अध्ययन की दृष्टि से आवश्यक ढाँचा है, कॉलेज के अनुरोध पर मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया एक विशेषज्ञ समिति भेजकर उस विषय पर एक जांच रिपोर्ट मंगवाती हैं। मानकों के अनुरूप होने पर विशेषज्ञ समिति की रिपोर्ट के आधार पर मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया स्वीकृति देती है। इस स्वीकृति का अर्थ है, अब संबंधित विषय में स्नातकोत्तर अध्ययन की दृष्टि से कॉलेज सक्षम है। कॉलेज, मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया से प्राप्त स्वीकृति विश्वविद्यालय को भेजता है। राज्य सरकार से अनुदान मिलता है, इसलिए विश्वविद्यालय औपचारिक स्वीकृति के लिए प्रस्ताव राज्य सरकार को भेजता है। राज्य सरकार की स्वीकृति मिलने पर संबंधित विषय में स्नातकोत्तर अध्ययन-अध्यापन की अनुमति विश्वविद्यालय दे देता है।

हमारे कॉलेज ने आपथैलमालॉजी में एम ० एस ० की डिग्री के लिए अनुरोध दो साल पहले मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया को भेजा था। पिछले सत्र में मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया का विशेषज्ञ दल आया था। उनकी जाँच के आधार पर पिछले सत्र के अंत में स्वीकृति आ गई थी। मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया की स्वीकृति के अभाव में, संबंधित विषय में संबंधित कॉलेज से प्राप्त डिग्री को अन्य विश्वविद्यालय, अन्य राज्यों और केंद्र सरकार के स्तर पर मान्यता नहीं मिलती है। कॉलेज से विश्वविद्यालय को और विश्वविद्यालय से राज्य सरकार को पत्र भेज दिया गया। राज्य सरकार से स्वीकृति की प्रतीक्षा थी। क्योंकि वहां से स्वीकृति नहीं आ रही थी, इसलिए विश्वविद्यालय कोई निर्णय लेने में अक्षम था। पिछले सत्र में यह माना जा रहा था कि नए सत्र में एम ० एस ० आपथैलमालॉजी की कक्षाएँ शुरू हो जाएँगी। स्नातकोत्तर परीक्षाओं के विषय बढने से अधिक विद्यार्थी उनमें प्रवेश ले पाते। अब अगर एम ० एस० और एम ० डी ० में प्रवेश एम ० बी ० , बी ० एस० साठ प्रतिशत अंकों से उत्तीर्ण करने वालों को मिलता है तो उसके बाद साठ प्रतिशत से कम अंक लाने वाले दो छात्रों को एम ० एस ० आपथैलमालॉजी में प्रवेश मिल सकेगा।

विद्यार्थी, विशेषकर इंटर्नशिप करने वाले विद्यार्थी, बहुत उत्सुक थे। छात्रसंघ के महासचिव का चुनाव जीतते ही कई अंतिम वर्ष के छात्र और इंटर्नशिप करने वाले विद्यार्थी मुझसे मिले। सारी बात की जानकारी मुझे थी। फिर भी उन लोगों से मैंने विस्तार से मामला समझा। कॉलेज के पास आधारभूत ढाँचा है। मेडीकल काउंसिल ऑफ इंडिया की स्वीकृति मिल चुकी है। विश्वविद्यालय तैयार है, फिर सरकार क्यों रोककर बैठी है इस प्रस्ताव को? इधर-उधर प्रश्न उछाला। मगर कहीं से संतोषजनक जवाब नहीं मिला। आखिर हमने इस मुद्‌दे को उठाने का निर्णय किया।

सबसे पहले कार्यकारिणी, एक अंतिम वर्ष का छात्र और एक इंटर्न छात्र यह समूह मेरे साथ प्रिंसिपल से मिला। हमने प्रिंसिपल से आग्रह किया कि कॉलेज और विद्यार्थियों के हितों को देखते हुए वे इस मामले को रुचि लेकर निर्णय कराएँ। प्रिंसिपल को राज्य सरकार के स्तर पर हुई कार्रवाई और राज्य सरकार की ओर से स्वीकृति न मिलने के कारणों की जानकारी

थी। स्नातकोत्तर कक्षाओं को पढाने के लिए कॉलेज में संबंधित विषय के एक प्रोफेसर, एक रीडर और एक लैक्चरार का होना अनिवार्य था। जबकि हमारे कॉलेज में आपथैलमालॉजी में इस समय केवल एक लैक्चरार ही कार्यरत था। इन नियुक्तियों के बाद वेतन, भत्तों आदि पर होने वाले खर्च को लेकर राज्य सरकार के स्तर पर निर्णय नहीं हो पा रहा था। निर्णय नहीं हो पा रहा था, इसलिए स्वीकृति नहीं मिल रही थी।

मामला जितना लगता था, उससे ज्यादा उलझा हुआ था। यदि दबाव डालकर राज्य सरकार से स्वीकृति ले ली जाती है तब भी एक प्रोफेसर और एक रीडर की नियुक्ति के लिए राज्य सरकार राज्य लोक सेवा आयोग को पत्र लिखेगी। विज्ञापन प्रकाशित होगा। आवेदन-पत्र आएँगे। साक्षात्कार की तारीखें तय होंगी। साक्षात्कार होंगे और तब जाकर कहीं नियुक्तियाँ होंगी। इस प्रक्रिया में लगभग एक वर्ष लग जाएगा। इतना अधिक समय लगे, यह हम लोगों को स्वीकार नहीं था। समय कम लगे, इसका कोई उपाय नजर नहीं आता था। प्रिंसिपल, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग, राज्य सचिवालय और कुछ अध्यापकों से हम लोगों ने सलाह-मशविरा करके एक कार्यनीति बनाई। उसके अनुसार हमने अपने कॉलेज में नियुक्त सभी लैक्चरार, रीडर एवं प्रोफेसर के पदों पर कार्यरत एम ० एस० अध्यापकों के बारे में जानकारी ली कि उनमें से कौन-कौन एम ० एस ० जनरल सर्जरी है? एक प्रोफेसर ऐसे थे जिन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से एम ० एस ० आपथैलमालॉजी में किया था किंतु हमारे कॉलेज में जनरल सर्जरी में प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थे।

उसी प्रकार निदेशक, चिकित्सा एवं स्वास्थ्य विभाग के अधीन राज्य में चलने वाले विभिन्न अस्पतालों और डिस्पैंसरियों में कार्यरत डॉक्टरों की शैक्षणिक योग्यता की सूची देखने पर पता लगा कि एक डॉक्टर एम ० एस ० आपथैलमालॉजी है और राज्य के एक अस्पताल में कार्यरत है।

ये दो नाम मिल जाने के बाद स्थितियाँ अपेक्षाकृत आसान हो गईं। समय लेकर हमारा एक शिष्टमंडल राज्य के स्वास्थ्य सचिव से मिला। एम ० एस ० आपथैलमालॉजी को शुरू करने की दृष्टि से उन्होंने कोई कठिनाई नहीं बताई। कहने लगे, ‘‘राज्य लोकसेवा आयोग को नियुक्तियों के लिए जल्दी ही पत्र चला जाएगा। इसके बाद पढाई शुरू हो जाएगी।"

इस उत्तर के लिए हम लोग तैयार थे। राज्य लोक सेवा आयोग के माध्यम से नियुक्तियों में समय लगेगा और हम चाहते थे कि इस समयावधि को घटाने के लिए मेडीकल कॉलेज और एक अन्य अस्पताल में कार्यरत एम० एस ० आपथैलमालॉजी योग्यता प्राप्त दो डॉक्टरों को अस्थायी या एडहॉक नियुक्ति देकर पाठ्‌यक्रम इसी सत्र से शुरू कर दिया जाए। हम लोगों ने अपनी पूरी ताकत लगा दी लेकिन स्वास्थ्य सचिव ने हमारा प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। अगले दिन समय लेकर हमारा शिष्टमंडल स्वास्थ्य मंत्री से मिलने गया। उन्होंने स्वास्थ्य सचिव को बुला लिया। पिछले दिन हुई बातें दोनों ओर से दोहराई गईं। स्वास्थ्य मंत्री चुपचाप स्वास्थ्य सचिव और हम लोगों की दलीलें सुनते रहे। अंत में उन्होंने कहा, ‘‘अस्थायी या एडहॉक नियुक्तियों के बारे में मैं अकेला कोई निर्णय नहीं ले सकता। मुख्य मंत्री महोदय से बातचीत करके मैं जल्दी ही आपकी सूचना दूंगा।"

स्वास्थ्य मंत्री स्पष्ट रूप से हम लोगों को टाल देना चाहते थे। मैंने कहा, ‘‘सर, परसों हमारे कॉलेज के सभी छात्र इसी समय आपकी सेवा में उपस्थित होकर आपका निर्णय सुनेंगे। कृपया हमें निराश मत कीजिएगा।"

स्वास्थ्य मंत्री कुछ कहें इससे पहले मैं उठ खड़ा हुआ। मेरे साथ शेष छात्र भी खड़े हो गए और हम लोग कमरे से बाहर निकल आए। मैं स्वास्थ्य मंत्री को एक प्रकार से धमकी देकर आया था कि यदि परसों इस समय तक आपने हमारी बात नहीं मानी तो मेडीकल कॉलेज के सभी छात्र यहाँ आकर कुछ भी कर सकते हैं। मैंने यह धमकी जान-बूझकर दी थी। एक तो स्वास्थ्य मंत्री टालमटोल की नीति अपना रहे थे। दूसरे यह निर्णय उनके स्तर पर लिया जा सकता था। मुख्य मंत्री का परामर्श या सहमति इसलिए अनावश्यक थी क्योंकि स्वास्थ्य मंत्री अपने अधीन कार्यरत डॉक्टरों को केवल इधर-से-उधर लगा रहे थे और वह भी अधिक-से-अधिक एक वर्ष के लिए। इसलिए उनके ऊपर अधिकाधिक दबाव डालना जरूरी था।

मैं जानता था कि सरकार से उसके सचिवालय में जाकर टकराना आसान नहीं है। किंतु टकराना तो हम भी नहीं चाहते थे। हम चाहते थे सरकार के ऊपर दबाव डालकर एम ० एस ० आपथैलमालॉजी इसी सत्र में शुरू कराना। टकराना, हिंसा, लड़ाई-झगड़ा, तोड़-फोड़ करना यों भी मेरी नीतियों के खिलाफ है। हिंसा मत करो। हिसा का आतंक फैलाओ। लड़ाई-झगड़ा, मार-पीट मत करो। लड़ाई-झगडे़, मार-पीट की दहशत फैलाओ। आतंक और दहशत से बना दबाव बिना हिंसा और तोड़-फोड़ के अधिकांश काम करा देता है। हिंसा न हो। झगड़ा-फसाद न हो। दबाव बढ़ता चला जाए। इस दृष्टि से जरूरी योजना मेरे दिमाग में थी।

तीसरे दिन सुबह मेडीकल कॉलेज के लगभग पाँच सौ लड़के-लड़कियाँ स्वागत कक्ष के सामने, सचिवालय में जाने के लिए प्रवेश-पत्र प्राप्त करने के लिए पंक्तिबद्ध खड़े थे। दस बजे से पहले ही हम लोग वहां पहुँच गए थे। प्रवेश-पत्र जारी करने वालों ने स्वास्थ्य मंत्री के पी ० ए ० से टेलीफोन पर पुष्टि करनी चाही कि हम लोगों के कथन के अनुसार क्या स्वास्थ्य मंत्री ने मेडीकल कॉलेज के सभी विद्यार्थियों को मिलने का समय दिया है? पी ० ए ० ने ऐसी किसी स्वीकृति से इनकार कर दिया। परिणामस्वरूप हम लोगों को प्रवेश-पत्र नहीं दिए गए। स्वागत कक्ष में मैंने पी ० ए ० से टेलीफोन पर मंत्रीजी से बात कराने के लिए कहा। उसने बताया कि मंत्रीजी अभी आए नहीं हैं। वे घर से रवाना हो चुके हैं और किसी भी समय कार्यालय आ सकते हैं।

यह सूचना मेरे लिए पर्याप्त थी। सचिवालय में प्रवेश की व्यवस्था सामने के द्वार से भी है और पीछे के द्वार से भी। मंत्रीजी के सचिवालय में प्रवेश की संभावना सामने वाले द्वार से अधिक थी। फिर भी वे पिछले दरवाजे से सचिवालय में चले न जाएँ, इस दृष्टि से लगभग सौ लड़के पिछले दरवाजे पर जाकर खड़े हो गए। शेष छात्र-छात्राओं के साथ मैं सामने वाले दरवाजे पर खड़ा रहा। पुलिस का अच्छा-खासा इंतजाम था। शहर एस ० पी ० स्वयं पुलिस बल का नेतृत्व कर रहे थे। पुलिसवाले बड़ी तादाद में मुख्य द्वार पर खडे़ थे। उन्हें डर था कि हम लोग मंत्रीजी की कार रोककर उनके साथ दुर्व्यवहार कर सकते हैं।

मैं शहर एस ० पी ० को एक तरफ ले गया, ‘‘एस ० पी ० साहब, आप जानते हैं कि मैं हिंसा के खिलाफ हूँ। स्वास्थ्य मंत्री से बात हम करके रहेंगे। आप शक्ति-प्रदर्शन करना चाहें तो आपकी मर्जी की बात है। मगर फिर किसी प्रकार के हादसे की जिम्मेदारी आपकी होगी!"

‘‘पुलिसवाले यहां इसलिए नहीं खड़े हैं कि आप लोगों के साथ झगड़ा करें। मंत्रीजी की सुरक्षा सुनिश्चित करना हमारी जिम्मेदारी है।"

‘‘मैं यही कहने के लिए आपको इस तरफ लाया हूँ। हम लोग मंत्रीजी को किसी तरह का नुकसान पहुंचाना नहीं चाहते।"

‘‘फिर यहाँ भीड क्यों लगा रखी है आप लोगों ने?"

‘‘ताकि माँग के प्रति सभी मेडीकल छात्रों की एकजुटता का अहसास उन्हें हो सके। बातचीत भीड़ तो किया नहीं करती। परसों भी हम लोग शिष्टमंडल लेकर उनसे मिलने गए थे। आज भी बात उनसे शिष्टमंडल ही करेगा।"

‘‘आप मुझसे क्या चाहते हैं, यह बताइए।"

‘‘आपसे इतना ही चाहता हूँ कि मेडीकल छात्रों की पंक्ति के बीच में से मंत्रीजी की कार को निकलने दिया जाए।"

‘‘किसी छात्र ने अगर सामने आकर उसे रोकने की कोशिश की तो क्या होगा?"

‘‘मुझ पर विश्वास करिए, ऐसा नहीं होगा। विवास न करना चाहें तो हमारी पंक्ति के साथ आप पुलिसवालों को भी फैला दीजिए। आपके सिपाहियों के हाथों में लाठियाँ हैं। हम लोग निहत्थे हैं।" मैं मुसकराया।

अशांति की आशंका और मंत्रीजी की सुरक्षा में से एक को चुनने का स्पष्ट संकट उनके सामने था। उन्हें इस संकट से निकालने के लिए मैंने ही कहा, ‘‘इस व्यवस्था के बाद मंत्रीजी की सुरक्षा को यदि कोई खतरा है भी तो वह बहुत कम है। आप सख्ती करेंगे। मजबूरन हमें उग्र होना पड़ेगा। हो सकता है मंत्रीजी की सुरक्षा आपके लिए अधिक मुश्किल काम हो जाए।"

शहर एस ० पी ० निर्णय पर पहुँचते प्रतीत हुए, ‘‘मैं आपकी बात पर भरोसा कर लेता हूँ। मुख्य द्वार के बाहर आप लोग पंक्ति बना लीजिए।"

मैंने संदेश भेजकर पंद्रह-बीस लड़कों को पिछले दरवाजे पर छोड़कर बाकी सबको बुलवा लिया। मुख्य द्वार की सलाखों से शुरू करके एक-दूसरे के हाथ पकड़कर आमने-सामने दो पंक्तियों में हम लोग खड़े हो गए। जितना अधिक-से-अधिक फैलकर खडे़ होना संभव था, हमने उतने हाथ लंबे करके पंक्तियाँ बनाईं। कार बीच में से निकल सके, इस दृष्टि से दोनों पिँक्तयों के बीच में लगभग दस फीट की जगह खाली थी। मुख्य द्वार के अंदर पुलिस वाले खड़े थे। हमारी पंक्तियों से लगभग सटकर एक-एक पुलिसवाला तीन-तीन फीट की दूरी पर खड़ा हो गया। लाठीधारी पुलिस के जवान, लड़के-लड़कियों के हास-परिहास, हँसी-मजाक और व्यंग्यबाण झेलते हुए अपने कर्त्तव्य का पालन कर रहे थे।

स्वागत कक्ष में जाकर मैंने पी ० ए ० से संपर्क किया, ‘‘आपने कहा था कि मंत्रीजी घर से निकल चुके हैं। आधा घंटा हो गया है और वे अभी तक पहुंचे नहीं हैं। आपके पास कोई सूचना तो नहीं है?"

पी० ए ० के पास कोई सूचना नहीं थी। मैंने उनसे कहा, ‘‘शायद आपको नोट कराना मंत्रीजी को याद नहीं रहा है किंतु आज मिलने का समय परसों तय हुआ था। मंत्रीजी आ जाएँ तो कृपया उन्हें बताएँ कि मेडीकल कॉलेज के पाँच सौ छात्र सुबह दस बजे से उनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। वे सबसे मिल सकें तो हम लोगों को ज्यादा अच्छा लगेगा। यह संभव न हो तो दस लड़कों का एक शिष्टमंडल उनके दर्शन करना चाहेगा। उनको यह भी बता दीजिएगा कि जब तक मुलाकात हो नहीं जाती, छात्र वापस नहीं लौटेंगे।"

लगभग एक घंटा और गुजर गया। पंक्ति में खड़े छात्र-छात्राएँ उकताहट और थकान के कारण कसमसाने लगे थे कि मंत्रीजी की कार आ गई। पंक्तिबद्ध, एप्रन पहने, स्टेथेस्कोप लटकाए छात्र-छात्राओं को देखकर यह समझना किसी के लिए भी मुश्किल नहीं था कि ये सब मेडीकल कॉलेज के विद्यार्थी हैं। दूर से देखकर ही स्वास्थ्य मंत्री की कार की रफ्तार धीमी हो गई। उन्होंने कार रोकी तो नहीं किंतु धीमी गति से चलती कार मुख्य द्वार में प्रवेश करते ही खड़ी हो गई। शहर एस ० पी ० मुस्तैदी से कार के निकट गए। मंत्रीजी ने उनसे कुछ पूछा और मुझे बुला लिया। मैं एस ० पी ० के साथ गया तो उन्होंने मुसकराते हुए कहा, ‘‘भाई इतने लोगों को परेशान करने की क्या जरूरत थी? अकेले आते तो आपसे हम बात नहीं करते क्या?"

‘‘आपकी मेहरबानी है, सर। सब लड़के-लड़कियाँ यहाँ इसलिए आए हैं ताकि आपको हमारी उत्सुकता का अहसास हो सके। आप मुनासिब समझें तो तकलीफ करके आशीर्वाद के दो शब्द कहें।"

‘‘यह तो नहीं हो पाएगा। मगर ऐसा करिए, तीन-चार लडकों के साथ आ जाइए।"

‘‘थैंक्यू वेरी मच, सर। जब आपने इतनी कृपा की है तो दस लड़कों से मिलने की इजाजत दें। विद्यार्थियों ने इन लड़कों को मिलकर बातचीत करने के लिए चुना है।"

मंत्रीजी हलका-सा हँसे, ‘‘ठीक है, ले आइए।"

मंत्रीजी की कार निकल गई तो एस ० पी ० के साथ स्वागत कक्ष में जाकर हमने प्रवेश-पत्र बनवाया। जाते ही मंत्रीजी ने अंदर बुलवा लिया। बोले, ‘‘अपनी बात करने का जो तरीका आप लोगों ने चुना, उससे मैं खुश हूँ। मेडीकल कॉलेज के विद्यार्थियों की छवि इससे बिलकुल अलग तरह की है।"

‘‘आप स्वीकार करेंगे सर, कि बिना क्रिया के प्रतिक्रिया नहीं होती है। जिस तरह मुख्य द्वार पर कार रोककर आपने हमसे बात की, क्षमा करें, कितने मंत्री करते हैं?"

मंत्रीजी हँसे। मैंने फिर कहा, ‘‘आप संवेदनशील हैं सर, हमें आपसे बहुत आशाएँ हैं। आपथैलमालॉजी में पी ० जी ० कक्षाएँ शुरू कराके आप हमारा दिल ही नहीं जीतेंगे, राज्य की जनता का भी भला करेंगे।"

‘‘भाई, मुख्य मंत्रीजी स्थाई या एडहॉक नियुक्तियों के पक्ष में नहीं हैं।"

‘‘सर, आप हमारे प्रस्ताव से सहमत हैं या नहीं? आपकी बुद्धिमत्ता पर हमें पूरा भरोसा है। सहमत हुए तो आप मुख्य मंत्रीजी को भी राजी कर लेंगे।"

मंत्रीजी मुसकराए, ‘‘आप बहुत होशियार हैं। मुझे कुछ समय और दीजिए। देखता हूँ, क्या किया जा सकता है?"

‘‘हमें एक आश्वासन दे दीजिए सर, कि पी ० जी ० कक्षाएँ इसी वर्ष चालू हो जाएँगी। फिर हम कतई जल्दी नहीं करेंगे।"

‘‘देखिए, कोई समयबद्ध बात तो मैं कर नहीं सकता। इतना जरूर कहूँ सकता हूँ कि मैं अपनी ओर से पूरी कोशिश करूँगा।"

‘‘आप चाहें तो हम लोग मुख्य मंत्रीजी से मिल सकते हैं।"

‘‘आप लोग देखिए, मिलना चाहें तो मिल लीजिए।"

‘‘मेरा मतलब है, यदि इस तरह आपके प्रयत्नों को बल मिलता हो तो हम लोग उनसे मिल सकते हैं।"

‘‘मेरे विचार से कोई फर्क पड़ना नहीं चाहिए।"

‘‘ठीक है सर, हमारा भी यही मानना है कि आप पूरी तरह सक्षम हैं आप चाहेंगे तो पी० जी० कक्षाएँ इसी साल चालू हो जाएँगी। हम तीन दिन बाद आपसे संपर्क कर लें?"

‘‘ठीक है, ऐसा कर लीजिए।"

मंत्रीजी का जवाब वही था जो उन्होंने दो दिन पहले दिया था। बाहर आकर हमने विस्तृत रिपोर्ट दी। सब लोग असंतुष्ट थे। फिलहाल तीन दिन मंत्री के उत्तर के लिए प्रतीक्षा करनी थी। कॉलेज लौटकर मैं चीफ प्रॉक्टर से मिला। उन्हें सारी स्थिति बताई। सहयोग माँगते हुए उनसे मैंने अनुरोध किया कि वे प्रिंसिपल के माध्यम से स्वास्थ्य मंत्री तक एक खबर पहुंचाएं, ‘‘यदि तीन दिनों में आपने निर्णय नहीं किया तो छात्र आंदोलनात्मक कार्यवाही करेंगे। आंदोलन में हिसा, तोड़-फोड़, हड़ताल, मार-पीट कुछ भी होने का डर है।"

हमारी माँग पूरी हो, इसमें प्रिंसिपल की भी रुचि थी। उसी दिन यह खबर स्वास्थ्य मंत्री तक पहुँच गई। तीसरे दिन स्वास्थ्य मंत्री अचानक एक दिन के लिए दौरे पर चले गए। अगले दिन लौटे। हम लोग मिले। बातचीत हुई। किंतु परिणाम वही रहा, टालमटोल। उस दिन मैं स्वास्थ्य मंत्री से कह आया, ‘‘लगता है, हम लोग शांति की भाषा अभी समझते नहीं हैं। जो भाषा आपको समझ में आती है, अब हम उसी में बात करेंगे। भविष्य में आपसे बात करने नहीं आएँगे। आना चाहें तो आपका हम स्वागत करेंगे।"

अगले दिन से कॉलेज में अनिश्चितकालीन हड़ताल शुरू हो गई। दो दिन बाद रेजीडेंट डॉक्टर हड़ताल में शामिल हो गए। अस्पताल की सेवाएँ चरमरा गईं। जुलूस, नारेबाजी, तोड़-फोड़, पुलिस के साथ मार-पीट सब कुछ हुआ। शहर बंद कराया गया। नौ दिन तेज तूफान के हालात रहे। दसवें दिन स्वास्थ्य मंत्री का बातचीत के लिए संदेश आया। हम लोगों ने बातचीत करने से स्पष्ट इनकार कर दिया। हमने कहलवाया, ‘‘पी ० जी० कक्षाएँ शुरू करने के आदेश जब तक नहीं आएँगे, हड़ताल जारी रहेगी।"

ग्यारहवें दिन सूचना आई कि राज्य लोक सेवा आयोग जब तक चयन करे, तब तक एडहॉक नियुक्तियाँ करके आपथैलमालॉजी में स्नातकोत्तर कक्षाएँ प्रारंभ करने के आदेश हो गए हैं। लड़ाई लंबी चली। संघर्ष तीखा हुआ। वरीयताओं के खिलाफ हड़ताल, हिंसा, मार-पीट, तोड़-फोड़ में लिप्त होना पड़ा, किंतु जो उपलब्धि हमें मिली उसकी हर एक ने खुलकर प्रशंसा की। प्रिंसिपल ने अंतिम वर्ष के छात्रों के लिए आयोजित विदाई समारोह में मेरे लिए जो शब्द कहे, उन्हें मैं चरम मानता हूँ, ‘‘मैं ऐसे कई अवसरोंं के बारे में जानता हूँ जब हिंसा और अराजकता को टाला नहीं जा सकता था। इस साल मेडीकल कॉलेज के छात्रों ने आपस में एक बार भी सिर-फुटौवल नहीं की। इस साल कुछ ऐसे काम हुए हैं जो वक्त के सफों पर लंबे समय तक कायम रहेंगे। छात्रसंघ के इस साल के महासचिव के रचनात्मक सोच पर मेडीकल कॉलेज की आने वाली पीढियां फख्र करती रहेंगी।"

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विवाह के बाद डायरी-लेखक ने मीनू का जिक्र इतना कम किया है कि भ्रम होता है, कहीं डायरी-लेखक ने उसे भुला तो नहीं दिया। मीनू के बारे में जो विचार उसके रहे हैं, उनको देखते हुए यह मानने को जी नहीं चाहता कि डायरी-लेखक ने मीनू को कभी याद किया ही नहीं होगा। वर्ष-भर कॉलेज की गतिविधियों और पढाई में वह इतना व्यस्त रहा है कि किसी और बात का ध्यान रखने की उसे फुरसत नहीं मिली शायद। मीनू की शादी हो जाने के बाद उसके बारे में विशेष जानकारी उसे मिलती भी नहीं होगी। याद का झोंका आया और निकल गया तो डायरी में उसके लिए कोई जगह नहीं होती। झोंका आया। तीर की तरह चुभा, नाजुक हथेलियों के स्पर्श की तरह उसने गुदगुदाया, लू के थपेडों की तरह झुलसा गया या दिसंबर की रात की तरह सिहरन भर गया तो डायरी में जगह मिलती है उसे। डायरी-लेखक के मन में मीनू के प्रति जो भावनाएँ रही हैं, उनमें लड़के-लड़की वाला आकर्षण भी लगता है, नहीं था। प्रिय पात्र यदि शारीरिक दृष्टि से उत्तेजित करता है तो उसका बिछोह चैन से बैठने नहीं देता। अनेक व्यस्तताओं के बावजूद याद दामन नहीं छोडती और अथक थकान के बावजूद नींद पास नहीं आती। ऐसा कुछ होता तो कॉलेज की मशगूलियों पर लिखने की बजाय डायरी-लेखक उन भावनाओं को डायरी में उतारता।

यादों में से इस तरह धक्के देकर निकालने का एक अर्थ और भी निकलता है। कुछ सुनना नहीं, कुछ सोचना नहीं, कुछ बोलना नहीं, इच्छाशक्ति का अधिकतम प्रयोग करके स्मृतियों को दूर रखना, कठिन जरूर है किंतु जल्दी ही यादों के दंश से मुक्ति पा लेता है इस तरह व्यक्ति। मित्र भाव से ही सही, डायरी-लेखक ने मीनू को जितना सराहा है, उसके बाद एकाएक यादों की फुनगियों से तोड़कर फेंक देना, किसी भावप्रवण व्यक्ति के लिए संभव नहीं है। विवाह के बाद, विशेष रूप से मीनू के झुकाव की जानकारी मिलने के बाद डायरी-लेखक सोच-विचारकर मित्रता संरक्षण के नतीजे पर पहुँचकर किसी दूसरी दुनिया में चला गया है, ऐसा मानना उचित नहीं होगा। आरंभ में यादों के तूफान उठे होंगे। डायरी-लेखक ने बलपूर्वक उन्हें दरगुजर करते हुए अपना ध्यान दूसरी तरफ लगाया होगा। तभी एक समय ऐसी स्थिति बनी होगी जब मीनू की यादों ने उसके सोच पर दस्तक देना बंद किया होगा।

क्या ऐसा मानना चाहिए कि डायरी-लेखक के मन में मीनू के प्रति आज भी आकर्षण है? यह प्रश्न इस अर्थ में शायद अप्रासंगिक है कि डायरी-लेखक ने स्वयं को मीनू से काट लेने का संकल्प किया है। कभी मीनू से मिलना नहीं। कभी मीनू के हाल-चाल पूछना नहीं। कभी मीनू के दुःख-सुख के बारे में सोचना नहीं। कैसा आकर्षण, कैसा विकर्षण? मीनू दुनिया की अरबों औरतों की तरह एक औरत है उसके लिए। इससे ज्यादा नहीं। डायरी-लेखक ने मान लिया कि मीनू की चर्चा भी उसके वैवाहिक जीवन के लिए संकट का कारण बन सकती है। इस मान्यता के अनुसार उसने मीनू से स्वयं को पूरी तरह काट दिया। उसके सुख-दुःख की जानकारी तक नहीं रखी। वया डायरी-लेखक के इस रवैये को सराहा जा सकता है? कोई यह दावा कैसे कर सकता है कि उसके मरते ही अमुक आदमी का जीवन खुशियों से भर जाएगा? दुनिया में हजारों गम होते हैं। एक गम को घटा देने से बाकी बचे गमों का अस्तित्व कैसे समाप्त किया जा सकता है?

मैंने जीवन-भर कबाड़ बेचा है और कबाड़ खरीदा है। मैं इनसान की जिंदगी की बारीकियों को न समझूं, यह स्वीकार किया जा सकता है। मगर डायरी-लेखक मेडीकल कॉलेज में पढ़ता है। योग्य है। मेधावी है। योग्यता छात्रवृत्ति उसे मिलती है। कॉलेज-भर का चहेता है। न जाने कितने लड़के-लड़कियों, मरीजों, परिचारकों, अध्यापकों और दूसरे लोगों से उसका मिलना-जुलना होता है। इनसान की जिंदगी का सच यह है कि शादी कें बाद ज्यादा कुछ गलत हो जाता है। मीनू की जिंदगी में शादी के बाद सब ठीक है, इसे डायरी-लेखक की खुशफहमी के अलावा क्या कहा जा सकता है?

डायरी-लेखक में लगन है। समस्याओं का सामना करने और धीरज रखकर उन्हें सुलझाने की उसमें कुव्वत है। सिद्धांतप्रिय है। निर्माण की बात सोचता है, विध्वंस की नहीं। मीनू के विवाह के बारे में डायरी-लेखक का सरलीकृत सोच अनुभव की कमी का परिचायक है। लड़कियों से मित्रता वह करता नहीं है, इसलिए लड़कियों के कारण पैदा होने वाली गुत्थियां उसके जीवन में कभी आई नहीं हैं। ले-देकर मीनू से उसके आत्मिक संबंध बने तो उसकी भी शादी हो गई। लड़कियों को, विवाह को, विवाह के बाद खड़ी होने वाली पेचीदगियों को दूर से देखकर या कल्पना करके नहीं समझा जा सकता। जब तक पानी में न उतरा जाए, तब तक तैरना नहीं आ सकता। पानी में उतरने के बाद चाहे बहुत कम लोग डूबते हों किंतु कोई डूब नहीं सकता, यह कहना गलत होगा। डायरी-लेखक पानी में कभी उतरा नहीं। डूबने और तैरने का अंतर उसके लिए किताबी है। यह अनुमान वह कैसे लगा सकता है कि विवाह के बाद भी जिंदगी अकल्पित हादसों की शिकार हो सकती है? मीनू की खुशी चाहते-चाहते डायरी-लेखक मीनू की खोज-खबर लेना भूल गया।

चपेट में मुझ जैसा कबाड़ी नहीं, डायरी-लेखक जैसा प्रबुद्ध व्यक्ति आ गया है इस बार!

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(14)

2 नंवबर, 1953

आज दीपावली की रात है। चारों ओर उल्लास का वातावरण है। बमों और आतिशबाजी की आवाजों के साथ बच्चों की किलकारियाँ एकाकार हो गई हैं। थड़ी से पूजन करके बाबा आज जल्दी लौट आए हैं। अम्मा-बाबा के साथ बैठकर मैंने भी लक्ष्मीपूजन की औपचारिकता निभाई है। बिजली और दीपकों की कृत्रिम रोशनी अमावस्या के अंधकार को परास्त -करने में अक्षम है। मेरे हृदय में फैला घना अंधकार निर्णय पर पहुँचने के बाद भी आज की रात की तरह दिशाभ्रम पैदा करता है। निराशा, निरुत्साह, वैराग्य, असहायता की स्थिति से इतना अधिक क्लांत हूँ कि प्रकाश की कोई किरण मुझे दिशा दिखाने का साहस नहीं जुटा पा रही है। इच्छा होती है, सब कुछ छोड़कर कहीं चला जाऊं या दस-बीस लोगों को अंधाधुंध गोलियों से छलनी कर दूं या आत्महत्या कर लूं। किंतु जब अपना निर्णय ही मुझे बेचैनी से मुक्त नहीं कर पा रहा है तो पलायन की पीड़ा को कैसे कम करेगा? निर्णय मैंने सोच-विचार कर लिया है। मीनू पर रहम या दया करके नहीं लिया है। भावुकता में बहकर निर्णय नहीं लिया है मैंने। फिर भी अनेक प्रश्न मथ-मथकर इस निर्णय की वास्तविकता को किरचों में बदलने पर तुले हैं।

छात्रसंघ के महासचिव के दायित्व इतने अधिक थे कि किसी तरह पढाई की जरूरतों को मैं पूरा करता रहा। सारा साल कॉलेज छात्रसंघ और पढाई की चुनौतियों को पूरा करते-करते इस तरह निकला जैसे कि दुनिया में मेरे लिए कुछ और था ही नहीं। चकरघिन्नी की तरह होशोहवास खोकर पागलों की तरह घूमता रहा। यह भी नहीं सोचा कि सिंधी परिवारों में लड़की जापे के लिए सामान्यतः मायके नहीं आती है। फिर मीनू ने बच्ची को जन्म मायके में कैसे दिया? जापे से दो माह पहले वह मायके आ गई थी। कभी ध्यान नहीं गया कि ऐसा क्यों हुआ है? मीनू का विवाह हो गया, इसका अर्थ यह तो नहीं था कि मैं उसकी तरफ से आँखें बंद कर लूं? उसके हाल-चाल, उसके दुःख-सुख की जानकारी मुझे नहीं रखनी चाहिए थी क्या? मीनू को खुश देखने की इच्छा के तकाजे क्या सिर्फ इतने थे कि मैं निष्क्रिय हो जाऊँ? आँखें बंद कर लूं उसकी तरफ से? जिस काम को हाथ में उठाता हूँ, परिणाम आने तक उसको छोड़ता नहीं हूँ। मीनू के मामले में कहां गया मेरा यह स्वभाव? उसे खुश देखने तक सचेत क्यों नहीं रहा मैं? मेरे पास इन प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं है। अपराध-बोध है कि समय रहते सब बातें मालूम हो जातीं तो संभव है मैं मीनू को आज की स्थिति से बचा लेता। मन पर भारी बोझ है कि उसकी दुरावस्था का जिम्मेदार मैं हूँ। कैसे हुई मुझसे यह भूल? कैसे हो गया मैं इतना लापरवाह? कैसे बंद कर ली मैंने अपनी आँखें उस तरफ से जिधर मुझे आँखें फाड़-फाड़कर देखते रहना चाहिए था?

अम्मा ने बता दिया था कि मीनू गर्भवती है। अम्मा ने यह भी बता दिया था कि मीनू मायके में रह रही है। अम्मा ने ही खबर दी थी कि मीनू एक बच्ची की माँ बन गई है। अम्मा ने ही करुणा-भाव के साथ सूचना दी थी कि मीनू को उसके पति ने छोड़ दिया है। पहली बार सुनकर मुझे अम्मा की बात इतनी अविश्वसनीय लगी कि आंखों में प्रश्न भरकर मैं उसे देखने लगा था। अम्मा ने अपनी बात दोहरा दी, ‘‘मीनू को उसके पति ने छोड़ दिया है।"

‘‘क्यों?" मुझे अम्मा की बात पर अब भी विश्वास नहीं आ रहा था।

‘‘थी तो नहीं ऐसी, लेकिन वह कहता है कि शादी से पहले मीनू के किसी दूसरे के साथ नाजायज ताल्लुकात थे।"

यह बात मेरे लिए और अधिक अविश्वसनीय थी, ‘‘मीनू को तो अम्मा, तुम और मैं शुरु से देखते रहे हैं। मैंने तो किसी के साथ बिना जरूरत के बात करते भी नहीं देखा उसे।"

‘‘मैं भी यही कहती हूँ बेटा। लेकिन वह मुआ कहता है कि मीनू खुद इस बात को मानती है।"

‘‘मीनू से तुम्हारी बात हुई?"

‘‘हाँ, मैंने बात की थी उससे।"

‘‘क्या कहती है?"

‘‘कुछ नहीं बताती, बस चुप रहती है।"

‘‘काकी को या अपनी भाभियों को तो बताया होगा उसने?"

‘‘नहीं, किसी को न कुछ बताती है और न इस मामले में कोई बात करती है।"

‘‘बाकी बातें कर लेती है?"

‘‘हां, दुनिया जहान की बातें कर लेगी। मगर खाविंद के लगाए हुए इलजामों की बात निकलते ही खामोश हो जाती है।"

‘‘तलाक की कार्यवाही हो गई या होनी है?"

‘‘अदालत में तो जाना नहीं था। चार पंचों ने बैठकर जो फैसला किया, दोनों ने मान लिया।"

‘‘क्या फैसला किया?"

‘‘ससुराल और मायके दोनों तरफ से जो जेवर बने थे, मीनू को मिले। चालीस हजार रुपए उसके अपने गुजारे के और दस हजार रुपए बेटी की शादी के लिए बैंक में जमा कराए।"

थोड़ी देर मैं पसोपेश में रहा फि यह बात अम्मा से कहूँ या न कहूँ। आखिर अपनी आदत के अनुसार आम्मा से आँखें मिलाते हुए मैंने पूछ लिया, ‘‘अम्मा, तुम कहो तो एक बार मैं मीनू से बात करना चाहता हूँ।"

‘‘तू बात करके क्या करेगा? जब सगी माँ को मीनू कुछ नहीं बताती तो तुझे क्या बताएगी?"

‘‘फिर भी मैं एक बार उससे बात करना चाहता हूँ। तुम उसे यहीं बुला सकती हो?"

‘‘बुला तो लूँगी, मगर मुझे कोई फायदा नजर नहीं आता।"

‘‘कोई बात नहीं, एक बार उसे बुला ही लो अम्मा!"

कौन है वह जिसके साथ विवाह से पहले मीनू के अनैतिक संबंध थे? मीनू इस विषय में कोई बात क्यों नहीं करती? तलाक जितनी बड़ी घटना के बाद किस बात का डर लगता है उसे जो बोलने नहीं देता? पति के आरोप का प्रतिवाद यदि मीनू नहीं करती तो क्या इसका अर्थ यह नहीं निकलता कि आरोप निराधार नहीं है? मीनू अगर उस व्यक्ति का नाम बता दे तो बात की जा सकती है उससे कि वह मीनू को स्वीकार कर ले। मीनू की बातचीत, उसका व्यवहार, उसका चाल-चलन, उसके तौर-तरीके, उसका आचार-विचार, उसके व्यक्तित्व का कोई भी पहलू इस बात का संकेत नहीं देता था। मुझसे बात करते हुए कभी ऐसी हरकत नहीं की उसने कि उसका कोई दूसरा अर्थ निकाला जा सके। यदि बहुत समर्पित-भाव से मीनू संबंधों का निर्वाह कर रही थी तो उसने मेरे साथ विवाह का प्रस्ताव रखने का आग्रह क्यों किया काकी से? उसके साथ विवाह की बात चलाने के लिए क्यों नहीं कहा जिससे उसके संबंध थे?

मैं अपने भीतर उग आए प्रश्नों के जंगल को काट नहीं पा रहा था। हजारों में से एक प्रश्न का उत्तर मिलता तो रक्तबीज की तरह उसकी जगह दस प्रश्न नए खड़े हो जाते थे। मेरी स्थिति विचित्र थी। इच्छा होती थी, उठूं और काका भोजामल के घर जाकर सीधा मीनू के सामने खड़ा हो जाऊं। दीमक की तरह चिपके प्रश्न दिखाकर उसे कहूँ कि इन्हें अगर मार सकती हो तो मारो, वरना मैं पागल हो जाऊँगा। जिसे खुश देखने की कामना की थी, वही मीनू चरित्र-हीनता के आरोप के साथ जलालत की मार सह रही है। मार खा रही है, फिर भी चुप है। इतना असमर्थ तो नहीं हूँ मैं कि कुछ कर ही न सकूं। लेकिन मीनू जुबान खोलकर बताए तो सही कि सच्चाई क्या है? क्यों लगाया पति ने उसके ऊपर यह आरोप? क्यों स्वीकार कर लिया मीनू ने उस आरोप को? अगर इस आरोप में सच्चाई थी तब भी समझौते का कोई रास्ता तलाश किया गया क्या? दूसरे दिन अम्मा को मैंने काका भोजामल के घर भेजा ताकि वह मीनू को अपने साथ ला सके। अम्मा को लौटने में दो घंटे लगे। इस अवधि में मैं व्यग्रता के साथ उसका इंतजार करता रहा। अम्मा लौटी तो साँस ले सके इससे पहले ही मैंने पूछ लिया, ‘‘मीनू से बात हुई?"

‘‘हाँ," अम्मा ने चारपाई पर बैठते हुए कहा।

‘‘क्या बात हुई?"

‘‘अभी बताती हूँ। जरा एक गिलास पानी पिला दे।"

मैंने रसोईघर में जाकर मटके में से पानी भरा और गिलास लाकर अम्मा के हाथों में दिया। पानी पीकर अम्मा कुछ स्वस्थ हुई तो मैंने फिर प्रश्नसूचक निगाहों से उसकी तरफ देखा।

‘मैंने उससे कहा कि आ तुझे घर ले चलती हूँ। सारा दिन घर में बैठी-बैठी परेशान होती होगी।"

मेरे होंठों पर मुसकान की एक रेखा उभरी और लुप्त हो गई, ‘‘हूँ।"

‘‘मीनू ने टकटकी लगाकर मेरी तरफ देखा और तेरे लिए पूछ लिया। मैंने बताया कि दीपावली की छुट्टियों के कारण तू घर पर है। फिर वह टाल गई।" मैं समझ गया, अम्मा के चेहरे पर मीनू ने पढ़ लिया होगा कि मैं उससे बात करना चाहता हूँ। यही कारण था कि वह टाल गई।

अगले दिन कह-सुनकर मैंने फिर अम्मा को मीनू के पास भेजा। जैसा मैंने कहा था, अम्मा ने मीनू को ठीक वही बात कह दी कि कल भी मैं उसके कहने से आई थी और आज भी मुझे उसी ने भेजा है। उसने कहलवाया है, अगर तुम्हें आने में दिक्कत है तो कोई बात नहीं। कल वह खुद आ जाएगा। मीनू पर तुरंत असर हुआ। उसने स्वीकृति दे दी तो अम्मा ने काकी से बात करके मीनू की नवजात बिटिया को गोद में उठा लिया।

यह उम्मीद तो मुझे थी कि आज मीनू अम्मा को टालेगी नहीं, किंतु आज ही वह हमारे घर आ जाएगी, यह आशा मैंने नहीं की थी। मीनू की बिटिया अम्मा की गोद में ही थी जब मीनू और अम्मा ने घर में प्रवेश किया। मुझे देखकर मीनू ने मुसकराने की कोशिश की। वह पहले से कुछ कमजोर हो गई थी। खड़ा होकर मैंने भी मुसकराकर उसकी तरफ देखा और आगे बढ़कर उसकी बिटिया को अम्मा से ले लिया। मेरी गोद में आते ही बच्ची पता नहीं क्यों रोने लगी।

‘‘तेरी गोद इसे पसंद नहीं है," कहकर अम्मा ने बच्ची मुझसे वापस ले ली। अम्मा और मीनू इस बात पर जोर से हँसीं। मीनू को बैठने के लिए कहकर अम्मा बच्ची को पानी पिलाने रसोईघर में चली गई।

मीनू मामूली-सी कमजोर जरूर हो गई थी अन्यथा उसका व्यवहार, उसकी मुसकान, उसकी हँसी, उसकी बातचीत सुनकर ऐसा आभास नहीं होता था कि वह इतने बडे संकट से गुजर रही है। अम्मा के जाते ही मैंने ध्यान से देखकर उसके चेहरे की पर्तों में छिपे परिवर्तनों को तलाश करना चाहा कि हँसते हुए उसने पूछ लिया, ‘‘इतने ध्यान से क्या देख रहे हो?"

‘‘देख रहा हूं कि तुम पहले वाली मीनू ही हो या कोई और?"

‘‘क्यों, यह शंका कैसे हुई?"

‘‘इतना बड़ा हादसा हो जाने के बाद यह शंका तो किसी को भी हो सकती है।"

‘‘तुम्हें भी?" मीनू गंभीर हो गई।

‘‘हाँ, मुझे भी।"

‘‘इसीलिए अम्मा के साथ धमकी भिजवाई थी?"

‘‘तुम कल टालमटोल क्यों कर गईं?"

‘‘मैं जानती थी कि तुम मुझसे क्या पूछोगे।"

‘‘बताना नहीं चाहती हो क्या?"

‘‘तुम्हें बताने में कोई एतराज नहीं है मगर बताकर भी क्या होगा।"

‘‘बताने से लाभ होगा या हानि, यह फैसला तो सुनने के बाद ही किया जा सकता है।"

‘‘मैं जानती हूँ, बताने से लाभ या हानि कुछ नहीं होगी।"

‘‘न सही, मैं जानना चाहता हूँ, इसलिए बता दो।"

बच्ची को दुलारती-पुचकारती अम्मा कमरे में आ गई। वह अम्मा की गोद में चुप भी थी और खुश भी।

‘‘बहुत प्यारी बच्ची है," अम्मा ने कहा।

मीनू हँसी, ‘‘ऐसा क्या प्यारा नजर आया आपको इसमें?"

‘‘गुदगुदी है। खूबसूरत है। गोरी-चिट्‌टी है। और किसे कहते हैं प्यारा बच्चा?" अम्मा ने अँगुली में थूक लगाकर बच्ची के गाल पर लगा दिया।

‘‘कोई नजर-वजर नहीं लगेगी इसे।" मीनू का स्वर किंचित्‌ तिक्त था।

‘‘अरी, तुझे क्या मालूम? छोटे बच्चों को वैसे ही नजर ज्यादा लगती है। इसकी तो बात ही कुछ और है। तू इसके गाल पर काला टीका लगा दिया कर।"

‘‘ठीक है।" कहते हुए मीनू के अंदाज से स्पष्ट था कि वह बात को यहीं समाप्त करना चाहती है।

‘‘तुम लोग बातें करो। मैं बाजार से पकौड़े और डबलरोटी लेकर आती हूँ। बिटिया को साथ ले जाऊँ न?"

‘‘तुम्हें पूछने की जरूरत है क्या अम्मा?" मीनू ने उलाहना-सा दिया।

अम्मा चली गई तो छूटी हुई डोर को मैंने फिर पकड़ा, ‘‘बताओ।"

‘‘कई बातें तो वैसे ही तुम्हें पता लग गई होंगी। जो जानना हो, पूछ लो। बता दूंगी।"

‘‘पति के साथ क्या बात हुई थी कि उन्होंने तुम्हारे ऊपर आरोप लगाया?"

‘‘कहीं से उन्हें पता लगा कि मैंने तुमसे शादी करनी चाही थी।"

‘‘किसने बताया?"

‘‘यह बात उन्होंने मुझे नहीं बताई।"

‘‘फिर?"

‘‘मैंने स्वीकार किया।"

‘‘वे उखड़ गए। बोले, जब कोई दूसरा तुम्हारी निगाह में था तो मुझे धोखा देने की क्या जरूरत थी? मैंने समझाने की बहुत कोशिश की, मगर वे नहीं माने। कहने लगे, एक बार तुमने जिसे पति के रूप में देख लिया, वह मुझसे पहले तुम्हारा पति है। मेरी किसी दलील का उनके ऊपर असर नहीं हुआ। मैंने उन्हें यहाँ तक कहा कि तुमने कभी मुझसे शादी की बात सोची भी नहीं होगी। ये मेरी एकतरफा भावनाएँ थीं। हारकर मैंने उनसे कहा कि आप जिसकी चाहें मैं कसम खाने को तैयार हूँ। मेरा किसी के साथ नाजायज संबंध नहीं रहा। जवाब में उन्होंने कहा कि मुझे तुम्हारे ऊपर अब कोई भरोसा नहीं है। तुम कसम भी झूठी खा सकती हो। नाटक तो तुम इसमें भी कर सकती हो। अगर तुम उसे राखी बाँधो तो मैं तुम्हारी बात की सच्चाई पर विचार कर सकता हूँ।"

‘‘राखी बाँधने वाली बात तो बहुत आसान थी। तुम आकर या वहां बुलाकर बाँध देतीं मुझे राखी।"

‘‘जब तक वे मेरे ऊपर अविश्वास करते थे, तब तक बात समझ में आती थी। मैंने तुमसे विवाह करना चाहा था, वे मुझे दोषी मान सकते थे। किंतु तुम्हारे ऊपर अविश्वास करने का उन्हें क्या अधिकार था? तुमने तो विवाह करना नहीं चाहा था मुझसे। राखी बाँधने का अर्थ है, मैं उन्हें विश्वास दिलाने के लिए तुम्हारे ऊपर अविश्वास की तोहमत लगाऊँ। फिर उन्होंने राखी बाँधने के बाद भी विचार करने की बात कही थी। मैं तो दोनों जहानों से गई। निर्दोष पर सार्वजनिक रूप से राखी बाँधकर आरोप लगाया कि तुम भी मुझे किसी और नजर से देखते थे। पति मेरी बात मान लेंगे, इसका भी भरोसा नहीं। इसलिए राखी बाँधने वाली बात मानने से मैंने इनकार कर दिया।"

‘‘मेरे विचार से राखी बाँधने वाली बात तुम्हें मान लेनी चाहिए थी।"

‘‘एक बात बताऊँ, तुमसे मैंने कभी कुछ कहा नहीं है, मगर मुझे हमेशा लगता रहा है कि मेरे पति तुम हो। जन्म-जन्मान्तर का रिश्ता है या बचपन से साथ रहने के कारण पैदा हुआ वहम, मैं नहीं जानती। झूठ-मूठ की राखी बाँधकर दूसरे जन्म में खोना नहीं चाहती हूँ तुम्हें मैं। इस जन्म में मैं तुम्हें पा न सकी। किसी तरह दिन गुजार दूंगी। लेकिन राखी बाँधकर हमेशा-हमेशा के लिए तुमसे पति-पत्नी का नाता तोड़ दूं, यह मुझसे नहीं होगा।" मीनू फफक फफककर रो रही थी। मैं हतप्रभ था। समझ में नहीं आ रहा था, क्या कहकर उसे सांत्वना दूूं।

मैंने उठकर मीनू को पानी पिलाया। वह स्वस्थ हुई तो मैंने कहा, ‘‘तुम अभी अट्‌ठारह साल की हो। तुम्हारे सामने सारा जीवन ज्यों-का-त्यों पड़ा है। ऊपर से एक बच्ची की जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर आ गई है। मायके में धीरे-धीरे तुम्हारी उपेक्षा होने लगेगी। लोगों की नजरें तुम्हें खा जाना चाहेंगी। इस तरह अकेले जीवन कैसे गुजार सकोगी?"

‘‘ईश्वर जो कुछ करता है, अच्छा करता है। धीरे-धीरे अपने आप रास्ता निकलने लगेगा।"

‘‘मैं चाहता हूँ, एक बार तुम्हारे पति से मिलकर उन्हें समझाने की कोशिश करके देखूँ।"

‘‘कोई फायदा नहीं है। उनके दिमाग में यह बात जमकर बैठ गई है कि मेरे तुम्हारे साथ नाजायज संबंध थे। मेरे इनकार पर जिस तरह उन्हें विश्वास नहीं आया, उसी तरह तुम्हारे समझाने से भी वे समझेंगे नहीं।"

‘‘फिर भी मैं चाहता हूँ कि एक बार कोशिश करके देख लूं।"

‘‘मैं तुम्हें रोकूंगी नहीं। मेरा अहित तुमसे बरदाश्त नहीं होगा। तुम दुखी होते रहोगे। इसलिए बात करके तसल्ली कर लो कि तुमने अपनी तरफ से कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी।"

अम्मा बाजार से लौट आई थी। मीनू से बात करने की इच्छा बढ़ गई थी। किंतु अम्मा की उपस्थिति में खुलकर बात करना संभव नहीं था। अम्मा ने बाजार के बहाने मीनू से बातचीत का पर्याप्त समय पहले ही दे दिया था। उसे मालूम था कि मीनू ने अपनी माँ के सामने मुझसे विवाह करने की इच्छा जाहिर की थी। इसी वजह से हँसते-हँसते उसने पूछ भी लिया था मुझसे, ‘‘मीनू के साथ तेरा कोई चक्कर तो नहीं था?" आज मीनू को अम्मा मेरे कहने से बुलाकर लाई थी। मीनू के तलाक की बात सुनने के बाद जो प्रतिक्रिया मुझ पर हुई थी, उसे अम्मा ने देखा और महसूस किया था। मीनू और मेरे संबंधों को लेकर जो शक का कीड़ा अम्मा के दिमाग में था, चक्कर वाली बात सुनकर थाली छोड़कर चले जाने वाली घटना के कारण संभव है तब थोड़ा कमजोर पड़ा हो। किंतु मीनू को चरित्र दोष के आरोप के साथ मिले तलाक के कारण अम्मा के दिमाग में वह कीड़ा फिर मजबूत हुआ होगा। इसके बावजूद अम्मा मीनू को बुलाकर लाई थी। बाजार के बहाने अम्मा ने मीनू को और मुझे घर में अकेला छोड़ा था। मुझे लगा, संदेह से अधिक अम्मा को मेरे ऊपर विश्वास है। उसी विश्वास ने उसे मीनू के साथ मुझे घर में अकेला छोड़ने का साहस दिया।

अम्मा ने संदेह का मुझे लाभ दिया है। हालाँकि मैंने और मीनू ने कभी ऐसा कुछ नहीं किया जो समाज या नैतिकता की दृष्टि से गलत कहा जा सके, फिर भी परिस्थितियों के संकेत को अम्मा ने नकार दिया। मीनू के पति के सामने सब बातें खुली किताब की तरह थीं। मोती जैसे सुंदर साफ-साफ लिखे हुए अक्षरों के बीच में उन्होंने वह पढने की कोशिश की जो लिखा हुआ नहीं था। नजर नहीं आया तो आरोपित किया। मीनू ने स्पष्टीकरण दिया तो अपनी कल्पना पर उन्हें थोड़ा-बहुत संदेह हुआ। किंतु संदेह का लाभ उन्होंने मीनू को नहीं दिया। अपनी कल्पना को सच सिद्ध करने के चक्कर में वे मीनू की विचारणा के ऐसे नाजुक बिंदु पर चोट कर बैठे कि मीनू उसे बरदाश्त नहीं कर पाई। हो सकता है, राखी बाँधकर भावनाओं के सँजोकर रखे गए फूलों को वह अपने हाथों से नोंचकर फेंकेने को तैयार हो जाती, किंतु उसे भरोसा नहीं था कि पति इसके बाद उस पर पूरा विस्वास कर लेंगे। तुम्हारी बात की सच्चाई पर विचार कर सकता हूँ, कहने वाला व्यक्ति कब राखी के बंधन को मानने से इनकार कर देगा, क्या भरोसा? मीनू अन्य पत्नियों की तरह रोई नहीं, गिड़गिड़ाई नहीं। स्वाभिमान के साथ खड़ी रही। नारी की अस्मिता को खिलौना स्वीकार करने से इनकार कर दिया उसने। यह सोचे बिना कि भविष्य के विकराल जबड़ों के बीच एक बच्ची को साथ लेकर वह अपना अस्तित्व कैसे बचा पाएगी।

पति ने अविश्वास किया। मीनू ने समझाने की कोशिश की। बात बिगड़ती चली गई। परिणति तलाक में हुई। किंतु इस दुर्धटना की जड़ में तो मैं हूँ। मेरे कारण मीनू के पति ने संदेह किया। मुझे राखी बाँधने से इनकार कर देने के कारण मीनू के पति का संदेह विश्वास में बदला। मीनू ने यदि विवाह करने की इच्छा प्रकट की थी तो क्या हो गया? लड़का और लड़की एक-दूसरे को देखते हैं। लड़का लड़की को पसंद कर लेता है। लड़की लड़के को पसंद नहीं करती। बात नहीं बनती। रिश्ता नहीं होता। कौन कह सकता है कि लड़के को पसंद करने वाली लड़की या लड़की को पसंद करने वाला लड़का दूषित चरित्र है? मीनू को दोषी सिद्ध करने का औचित्य किसी भी दृष्टि से समझ में नहीं आता। फिर भी यदि मीनू को दोषी ठहराया जाता है, उसे जीवन-भर उस अनकिए जुर्म की सजा भोगने को विवश किया जाता है तो उसका कारण मैं हूँ। उस प्रकरण में मूल अपराधी का कर्त्तव्य है कि वह निर्दोष को सजा भोगने न दे। मैं मीनू के पति से मिलूंगा। उन्हें समझाने की पूरी कोशिश करूँगा कि अभी कुछ नहीं बिगड़ा है। एक निर्दोष का जीवन अब भी बरबाद होने से बचाया जा सकता है। हाथ जोड़ूंगा। पाँव पकडं़ूगा। मगर उन्हें मीनू को ससम्मान स्वीकार करने के लिए राजी करूँगा। मेरा अपराध इसी तरह धुल सकता है।

दूसरे दिन मैं मीनू के पति की दुकान पर गया। देखते ही उन्होंने मुझे पहचान लिया। उठकर मिले। मुझे बैठाने के बाद स्वयं बैठे। नौकर को भेजकर सोडा मँगवाई। अतिथि को आदर देने की सिंध की परंपरा को उन्होंने बखूबी निभाया। उसके बाद उन्होंने आने का कारण पूछा। मैंने मीनू के साथ उनके संबंधों की बात की तो मुझे रोकते हुए बोले, ‘‘डॉक्टर साहब, वह मामला अब खत्म हो चुका है। गड़े मुरदों को उखाड़ने से किसी को कुछ भी हासिल नहीं होता है।"

‘‘आप ठीक कहते हैं, लेकिन इस मामले में तो अभी मुरदा भी कहीं नहीं है। कब्र का सवाल तो बाद में उठेगा।"

‘‘आप मेरे मेहमान हैं। चलकर मेरी दुकान पर आए हैं। आपका अनादर मैं करना नहीं चाहता। इसलिए इस मुद्‌दे को छोड़कर मेरे लायक कोई और सेवा हो तो बताइए।" उठकर वापस चले आने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं छोड़ा था उन्होंने। मीनू के पति के प्रति वितृष्णा का भाव मुझमें पहले को तुलना में बढ गया।

कैसा आदमी है यह जो किसी की बात सुनने के लिए तैयार नहीं है? जो खुद को ठीक लगता है, वही करता है। उसके कारण किसी का कितना नुकसान हो रहा है, इस पर विचार नहीं करता। अपनी सनक के आधार पर सजा सुनाता है और अपील का अधिकार किसी को नहीं देता।

मैं लौटा तो मीनू के पति के प्रति जबरदस्त आक्रोश था मुझमें। धीरे-धीरे मीनू के पति के स्थान पर मेरी अपनी मूर्ति आती चली गई। वितृष्णा और आक्रोश का निशाना मीनू के पति के स्थान पर मेरी मूर्ति बनती चली गई। मैं अपराधी हूँ। मीनू को अट्‌ठारह साल की उम्र में यह कलंकपूर्ण सजा मेरे कारण सुनाई गई है। यह भाव मुझे पीड़ा की अतल गहराइयों में घसीटकर ले जाता रहा। मेरा दम घुटने लगा। सांस लेना दूभर हो गया। लेकिन अपराध-बोध पल-पल बढ़ता चला गया।

अपराध-बोध के मारक शिकंजे से मुक्ति के लिए तड़पते हुए मैं उपायों पर विचार करता रहा। मीनू की कोई रोजगार शुरू कराने की दृष्टि से मदद करूँ? रोजगार पति का विकल्प नहीं हो सकता। मीनू को दूसरा विवाह करने के लिए तैयार करूँ? फिलहाल तो ऐसा संभव नहीं लगता। एकाएक एक सवाल तैरता हुआ आया और मेरे सामने स्थिर हो गया। क्या मीनू की मदद मैं केवल अपने अपराध-बोध के अहसास के कारण करना चाहता हूँ? मेरे हृदय के किसी कोने में मीनू के लिए क्या और कुछ भी नहीं है जो उसके बारे में सोचने के लिए मुझे प्रेरित करता है? क्या मेरे मन में मीनू के लिए जुड़ाव, आत्मीयता और अपनत्व नहीं है जो उसके हित के लिए मुझे चिंतित करता है? यदि ऐसा है तो केवल अपराध-बोध नहीं है जिसके कारण मैं मीनू के भविष्य के बारे में विभिन्न विकल्पों पर विचार कर रहा हूँ। कुछ और भी है जो मुझे मीनू के दुःख के साथ एकाकार कर रहा है। मुझे लगा कि परिस्थितियों ने कभी विचार करने का अवसर नहीं दिया, इसलिए अपने मन की भावनाओं को मैं समझ नहीं पाया। मीनू कम उम्र होते हुए भी उन भावनाओं को संज्ञा प्रदान कर सकी, जिन्हें अपने भीतर होते भी मैं पहचान तक नहीं सका। जब मेरे मन में भी मीनू के प्रति वही भावनाएँ हैं जो उसके मन में मेरे प्रति हैं तो उन्हें कोई नाम देने से क्यों हिचकिचा रहा हूँ मैं? अब तो मीनू का अपराधी भी हूँ मैं। मीनू जिसे जन्म-जन्मातर का रिश्ता कहती है वह किसी भटकाव के कारण साल-डेढ साल के लिए दिशा खो बैठे तो उसे पूरे जन्म के लिए व्यर्थ मानना कहाँ तक उचित है?

मन-ही-मन मैंने तय किया कि अपने अपराध का प्रायश्चित मैं मीनू से विवाह करके करूँगा। पढ़ रहा हूँ। परिवार का दायित्व सँभालने की स्थिति में अभी नहीं हूँ। बाबा पर बोझ बढाना नहीं चाहता। इसलिए विवाह भले ही पढाई पूरी करके नौकरी मिल जाने के बाद करूँ, किंतु मीनू और उसकी बिटिया का भविष्य अब मेरा दायित्व है। इस बीच मीनू पर लगे आरोप के कारण उड़ी धूल बैठ जाएगी। मीनू इन दिनों भोगे त्रास के आतंक से मुक्त हो जाएगी। मीनू से विवाह करने का मेरा प्रस्ताव अम्मा और बाबा के लिए आज की तुलना में अधिक ग्रहणीय हो जाएगा। अधिक-से-अधिक पाँच वषोर्ं में एम ० डी ० या एम ० एस ० कर लूँगा। इतना समय काफी होगा सब स्थितियों को विवाह की दृष्टि से उचित बिंदु पर पहुँचाने के लिए। मीनू से तब तक अपने निर्णय की चर्चा नहीं करूँगा। अन्यथा अकारण ही वह दबाव-ग्रस्त हो जाएगी। नौकरी मिलने के तुरंत बाद विवाह का प्रस्ताव लेकर उसके पास जाऊँगा।

निर्णय बहुत सोच-समझकर लिया है। अपने अपराध-बोध से मुक्ति का इससे सुंदर रास्ता मेरे पास नहीं है, मैं जानता हूँ। फिर भी आज दीपावली की रात को होते बमों के धमाके मेरे निर्णय की परखच्चियाँ उड़ाने पर तुले हैं।

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(15)

5 जनवरी, 1956

बाबा ने जब डायरी लिखना सिखाया था तो कई बातों के साथ उन्होंने यह बात भी बताई थी कि डायरी के माध्यम से जितना अच्छा आत्मविश्लेषण किया जा सकता है, उसका जोड़ तुम्हें कहीं नहीं मिलेगा। इसीलिए डायरी की गोपनीयता बहुत जरूरी है। सोचता हूँ, हमारे कार्य-व्यवहार में ऐसा कुछ होना ही क्यों चाहिए कि उसे छिपाना पड़े? अच्छा या खराब, भला या बुरा जो कुछ हम करते हैं यदि उसके पीछे गलत इरादा नहीं है तो सार्वजनिक रूप से खोलकर रख देने में क्या बुराई है? दुनिया तो खेल ही नीयत का है। अच्छी नीयत से किए गए काम को, देखने वाले चाहे किसी भी नजर से देखें किंतु काम करने वाले को भयभीत होने की क्या आवश्यकता है? आत्मविश्लेषण का सर्वश्रेष्ठ उपकरण जरूर है डायरी। किंतु एक आदत सिंध में ही बाबा ने मुझमें पक्की कर दी थी। रात को सोने से पहले मैं अपनी दिनभर की गतिविधियों, दिनभर के कार्यकलापों, दिनभर की उठा-पटक के बारे में चिंतन करता हूँ। मैंने जो किया वह ठीक था या नहीं? मैं किसी दूसरे ढंग से काम करता तो परिणाम सुधरता या बिगड़ता? मैंने किसी के साथ दुर्व्यवहार तो नहीं किया? मेरे कारण किसी के मन को कोई तकलीफ तो नहीं हुई है? मैंने किसी की भावनाओं को ठेस तो नहीं पहुंचाई? स्वयं से ये प्रश्न पूछते हुए आत्मविश्लेषण होता चलता है। हाथों-हाथ सुधार और परिमार्जन भी होता रहता है।

गोपनीयता और आत्मविश्लेषण दोनों डायरी के साथ अनिवार्यतः जुडे़ तत्त्व मुझे निरर्थक लगने लगे तो मैंने डायरी लिखना बंद कर दिया। ये विचार पहले भी आए थे, किंतु डायरी लिखने का नशा मेरी आदत में आ गया था। अवसर मिलते ही या कोई महत्त्वपूर्ण घटना होते ही डायरी लिखने की हूक उठने लगती थी मन में। निरर्थकता का अहसास धीरे-धीरे गहराता गया। जब पलटकर देखता ही नहीं हूँ अपनी लिखी हुई डायरी को तो लिखता क्यों हूँ उसे? तीखापन लिये हुए प्रश्न उठा तो मैंने डायरी लिखना बंद कर दिया। दो वषोर्ं से अधिक समय तक मैंने डायरी नहीं लिखी। आज भी लिखने बैठा हूँ तो केवल इसलिए, क्योंकि इस बीच इतना कुछ इकट्‌ठा हो गया है मेरे भीतर कि मैं किसी के साथ बाँटकर कुछ हलका होना चाहता हूँ।' मन का बोझ, अहसासों की तुर्शी, अपने ढंग से देखी हुई घटनाएँ जिसे बताकर हलका हो सकूं, ऐसा व्यक्ति कोई नहीं है मेरे आसपास। मुझ जैसे लोकप्रिय, मिलनसार और सार्वजनिक जीवन में सक्रिय व्यक्ति की यह विचित्र त्रासदी है।

एक मीनू है जिसे मैं अपनी हर बात उसी रूप में बता सकता हूँ। मुझे महसूस होता है कि मेरे सोच का सुर-ताल मीनू के सोच के सुर-ताल से पूरी तरह मिलता है। मेरे मन की कई बातें मीनू बिना बताए समझ जाती है। अपने अहसास, उलझनें उसको बताता हूँ तो वह उन्हें इतना जल्दी ग्रहण करती है जैसे कि वे अहसास और उलझनें उसकी अपनी हों। सारी परेशानियों के बावजूद उसने तलाक के बाद स्वयंपाठी छात्रा के रूप में पिछले साल राजस्थान बोर्ड से मैट्रिक उत्तीर्ण करके दूसरे साल उत्तर प्रदेश बोर्ड से इंटर की परीक्षा का फार्म भरा है। उत्तीर्ण वह तृतीय श्रेणी में हुई है। किंतु विपरीत वातावरण, विपरीत मानसिक स्थितियाँ, भविष्य की अनिश्चितता और छोटी बच्ची के पालन-पोषण के साथ जितनी जल्दी मीनू इंटर तक की सीढियाँ चढ जाएगी, वह उसकी छोटी उपलब्धि नहीं होगी। काका भोजामल के घर जाकर मीनू से गप-शप करते हुए उसे अपनी अंतरंग बातें बता सकूं, उसके अंतरंग अहसास सुन सकूं, इतनी सुविधा नहीं होती। कभी मीनू हमारे घर आती है और अवसर मिल जाता है तो सलीके से मन-चाही बातचीत हो जाती है। अम्मा ने शब्दों में कभी इजहार नहीं किया, किंतु मीनू जब भी आती है और मैं घर में होता हूँ तो अम्मा कोशिश करती है कि हम दोनों को कुछ समय मिल जाए ताकि हम अकेले में बात कर सकें। मीनू की व्यस्तताएँ इतनी बढ गई हैं कि उसके लिए जल्दी आना संभव नहीं होता। यों भी रोजाना हमारे घर आने के लिए कोई बहाना मीनू के पास है ही कहाँ! इसलिए मन में बातें इकट्‌ठी होती गई हैं। मन पर बोझ बढ गया है। डायरी लिखने बैठा हूँ, ताकि किसी जीते-जागते इनसान के साथ न सही, डायरी के पृष्ठों के साथ तो अपनी भावनाएँ बाँट लू।

तृतीय वर्ष एम.बी.बी.एस. में छात्रसंघ के कारण व्यस्तताएँ इतनी अधिक रहीं कि पूरे प्रयत्नों के बावजूद मैं परीक्षा में दूसरे स्थान पर ही आ सका। इतना जरूर हुआ कि प्रगति का सिलसिला टूटा नहीं किंतु सर्वाधिक अंक लाने का मेरा लक्ष्य पूरा हो नहीं पाया। सोचता हूँ तो लगता है कि महासचिव पद के साथ जुड़ी अपेक्षाओं को दो कदम आगे बढकर निभाते हुए मैं परीक्षा में जो जगह बना पाया, वह छोटी उपलब्धि नहीं है। पद, प्रतिष्ठा और पैसे जैसे उपादानों का नशा सीधा दिमाग पर हमला करता है। ईमानदारी से विशिष्ट प्रकार के काम करने की ललक रखने वाले लोगों को भी यह नशा इतना दिग्भ्रमित करता है कि मूल पगडंडी का पता ढूंढे से नहीं मिलता। पद के नशे से अपने दिमाग को बचाते हुए मैंने पढाई को अपनी प्रथम वरीयता के सिंहासन से गिरने नहीं दिया, इस बात का मुझे संतोष है। वैसे भी अंतिम वर्ष एम.बी.बी.एस. के बाद योग्यता-क्रम द्वितीय वर्ष, चतुर्थ वर्ष और पंचम वर्ष में विश्वविद्यालय की ओर से आयोजित परीक्षाओं में प्राप्त अंकों को जोड़कर बनता है। प्रथम वर्ष और तृतीय वर्ष में परीक्षाएँ कॉलेज की ओर से होती हैं। उनमें योग्यता-प्रदर्शन का लाभ तात्कालिक होता है। चतुर्थ वर्ष और पंचम वर्ष में प्रथम स्थान तथा द्वितीय वर्ष में तृतीय स्थान पर रहने के कारण कुल मिलाकर अंतिम वर्ष एम ० बी ० , बी ० एस० में मेरा योग्यता सूची में प्रथम स्थान रहा। यों तो मेडीकल कॉलेज के इतिहास में मेरा नाम कई कायोर्ं के साथ प्रथम छात्र के रूप में जुड़ा है किंतु ऐसा छात्र जो छात्रसंघ का महासचिव रहा हो और जिसने एम ० बी० , बी ० एस ० की परीक्षा सर्वोच्च स्थान पर रहते हुए उत्तीर्ण की हो, मेडीकल कॉलेज को शायद कभी न मिल सके।

अंतिम वर्ष का परीक्षा परिणाम जून में आया। जून के अंत में प्रारंभ हुई छः माह की इंटर्नशिप दिसंबर में पूरी हुई। विश्वविद्यालय में सर्वाधिक अंक होने के कारण स्नातकोत्तर अध्ययन के लिए चुना हुआ विषय मुझे आसानी से मिल गया। मैंने जनरल मेडीसिन में एम ० डी ० करने का निर्णय लिया है। भविष्य में संभावनाओं की दृष्टि से मेरा आकलन और अन्य लोगों की सलाह जनरल मेडीसिन में एम ० डी ० करने के पक्ष में थी। पहला साल हाउस जॉब, दूसरा साल रजिस्ट्रार, तीसरा साल सीनियर रजिस्ट्रार। इंटर्नशिप से शुरू हुआ स्टाईपैंड प्रतिवर्ष क्रमशः बढता जाएगा। एम.बी.बी.एस. अंतिम वर्ष तक छात्रवृत्ति मिलती थी। वह बंद हुई तो स्टाईपैंड शुरू हो गया। सोचकर संतोष होता है कि डॉक्टर बनने के लिए मैंने बाबा पर विशेष आर्थिक बोझ नहीं पड़ने दिया।

यों तो अब बाबा भी आर्थिक दृष्टि से सक्षम हैं। फलों का काम छोड़कर उन्होंने शहर के मुख्य बाजार में पगड़ी देकर ली हुई दुकान में किराने का थोक व्यापार शुरू किया है। जमीन खरीद ली है। उस जमीन पर मकान बनवाने का काम साल-छः महीने में शुरू हो जाएगा। काका भोजामल नए काम में भी बाबा के भागीदार हैं। फलों की थड़ी का मालिक अब वीरू है। उसने भी किसी के साथ भागीदारी कर ली है। थड़ी को बेचने वाले बाबा और काका भोजामल। थड़ी को खरीदने वाले काका भोजामल और वीरू का भागीदार। भागीदार से उसके हिस्से की रकम नकद लेकर काका भोजामल को अपने हिस्से का रुपया ब्याज सहित किश्तों में देने की छूट दी है बाबा ने। बाबा और काका भोजामल ने अपनी सारी जमा पूँजी किराने के थोक व्यापार में लगाई है। काम और मुनाफा जिस रफ्तार से बढ रहा है, उससे दोनों संतुष्ट नजर आते हैं।

एम.बी.बी.एस. के तीसरे साल में अस्पताल के काम-काज और तौर-तरीकों से परिचित कराने के लिए हमारी वार्ड पोस्टिंग हुई थी.। गंभीरता से लेने के कारण परिचय से आगे बढकर काम सीखने, मरीजों को देखने, रोगों को समझने की दृष्टि से आधारभूमि उसी साल बन गई थी। चौथे और पाँचवें साल में अन्य विषय छूट चुके थे। मेडीसिन, सर्जरी, आपथैलमालॉजी और प्रीवेंटिव एंड सोशल मेडीसिन की शाखाएँ-प्रशाखाएँ हमारे अध्ययन-क्षेत्र में आ गई थीं। चर्म रोग और रेडियोलॉजी मेडीसिन तथा कान, नाक, गला और स्त्री रोग सर्जरी के अंतर्गत आने वाले महत्त्वपूर्ण विषय थे। चौथे साल से हमारा वास्ता ऐसे अध्यापकों के साथ निकटता से पड़ने लगा जो मुख्य रूप से दवाओं या ऑपरेशन के माध्यम से रोगियों का इलाज करते हैं। पढाना इन वरिष्ठ डॉक्टरों के काम का अपेक्षाकृत कम जरूरी हिस्सा था। लैक्चरार, रीडर या प्रोफेसर पदनाम जरूर मिला हुआ है उन्हें, किंतु वे सब किसी-न-किसी यूनिट के साथ जुड़े हुए हैं, जिसका अर्थ है मरीजों का इलाज। कक्षाएँ लेते हैं। विद्यार्थियों के लिए क्लिनिक में निश्चित केसों पर विस्तृत बातचीत होती है। मगर छः घंटे के निर्धारित कार्य समय में से औसत एक घंटा प्रतिदिन भी अध्यापन नहीं करना पड़ता है उन्हें। अध्यापन उनके दायित्वों का एक छोटा भाग है, बस।

मेडीकल कॉलेज और अस्पताल में कार्यरत अधिकांश लैक्चरार, रीडर, प्रोफेसर पैसा कमाने के लिए नौकरी करते हैं। पैसा उन्हें मरीजों से मिलता है, विद्यार्थियों से नहीं। इसलिए उनका अधिक ध्यान मरीजों की तरफ रहता है। यदि डॉक्टर का अधिक ध्यान मरीजों की तरफ जाता है तो यह अच्छी बात है। मगर क्यों जाता है उसका ध्यान मरीजों की तरफ? इस एकमात्र प्रश्न में गुँथे अनगिनत प्रश्न, अनगिनत मंतव्य, अनगिनत पैंतरे, अनगिनत चालबाजियाँ, अनगिनत झूठ, अनगिनत धोखे और अनगिनत फरेब देख-भाँपकर चिकित्सा-व्यवसाय से विरक्ति होने लगती है। छिटपुट उदाहरणों से भ्रष्ट मानसिकता की सतही जानकारी तो तृतीय वर्ष में पहली बार हुई वार्ड पोस्टिंग में ही मिल गई थी। मगर अब लगता है, यह सब कीचड़ के समुद्र की तरह है। इसकी लंबाई, चौड़ाई, गहराई को नापना साधारण आदमी के लिए संभव नहीं है। घटनाओं और उदाहरणों के रूप में बात करूँगा तो यह अनंत कथा बन जाएगी। बात सूत्रों के रूप में ही की जा सकती है।

जीवन की तरह अस्पताल में कार्यरत चिकित्सकों को भी सिद्धांतवादी, मध्यममार्गी और भ्रष्ट इन तीन श्रेणियों में बाँटा जा सकता है। तीनों श्रेणियों में नरम और गरम प्रकृति के लोग हैं। उसी के अनुसार वे व्यवहार करते हैं। उसी के अनुसार मरीज से संबंध बनाते और बढाते हैं। तीनों श्रेणियों में कानून से डरकर, नियमानुसार काम करते हुए अपनी मंजिल पर पहुँचने में प्रयत्नशील लोग हैं। तीनों श्रेणियों में अति करने वाले लोग हैं। मानसिक पीड़ा, नियमों का चक्कर किसी-न-किसी दौर में तीनों श्रेणियों के डॉक्टरों को परेशान कर चुका है। हालांकि अट्‌ठाईस-त्तीस साल की उम्र में एम ० डी ० या एम ० एस ० करके आए हैं ये लोग। मेडीकल कॉलेज और अस्पताल में फिर भी कुछ लोग मानसिक रूप से यथेष्ट परिपक्व नहीं है। इस कारण से कोई-न-कोई घटना सिद्धांतवादी खेमे के डॉक्टरों में से एक-आधे को तोड़कर मध्यममार्गी या भ्रष्ट खेमे में धकेलती रहती है। सिद्धांतवादी खेमे की सदस्य संख्या इसलिए समय के साथ कम होती गई है जबकि भ्रष्ट और मध्यममार्गी खेमे की सदस्य संख्या समय के साथ बढती गई है।

वैचारिक दृष्टि से परिपक्व सिद्धांतवादी, झटकों को बरदाश्त कर जाते हैं। अन्य सिद्धांतवादियों को भ्रष्टाचार की गोद सब समस्याओं का समाधान नजर आती है। अगर ईमानदारी का यही सिला मिलता है तो बाज आए ऐसी ईमानदारी से, सोचा और पाला बदल लिया। शायद यह अस्वाभाविक नहीं है। पानी बहेगा। कोई चेष्टा नहीं की जाएगी तो उसका रुख नीचे की तरफ होगा। पानी को ऊपर चढाना है तो मोटर का इस्तेमाल करना पड़ेगा। झटकों के परिमाण के अनुसार शक्तिशाली सिद्धांत प्रदत्त बल जब तक नहीं है, गिरावट की दिशा भ्रष्टाचार की तरफ ही हो सकती है। आत्मबल तय करता है कि सिद्धांतवादी कितने पत्थरों की मार सह सकेगा। आत्मबल जितना कम होगा, पत्थरों की मार सहन करने की शक्ति उतनी ही कम होगी। पत्थरों की मार सहन करने की शक्ति जितनी कम होगी, अपनी जगह दृढता के साथ खड़े रहने की संभावनाएँ उतनी कम होंगी। भ्रष्ट श्रेणी आए दिन ऐसे लोगों का तत्परता के साथ स्वागत करती है।

नरम प्रकृति के भ्रष्ट डॉक्टर घर पर आने वाले मरीजों को देखते हैं। लैक्चरार की दिन में देखने के लिए निर्धारित फीस दस रुपए, रीडर की पंद्रह रुपए और प्रोफेसर की अट्‌ठारह रुपए है। लेकिन निर्धारित फीस कोई नहीं लेता है। बीस से तीस रुपए तक सबने अपनी फीस स्वयं ही निर्धारित कर ली है। माँगने वाले को, निर्धारित फीस के अनुसार अलग-अलग तारीखों में रसीदें दे देते हैं। बाकी मरीजों से ली गई फीस न इनकम टैक्स में दिखाते हैं और न बैंक में जमा कराते हैं। घर पर देखे हुए जिन मरीजों को भरती करते हैं, नरम प्रकृति के भ्रष्ट डॉक्टर वार्ड में उनका पूरा ध्यान रखते हैं। मल, मूत्र आदि की जाँच और एक्स-रे ‘मरीज आयकर नहीं देता' लिखकर निःशुल्क करा देते हैं। मरीज खुश हो जाता है। ठीक होकर लौटने के बाद स्वयं भी घर पर दिखाकर इलाज कराना चाहता है। मिलने-जुलने वालों, मित्रों, परिचितों, रिश्तेदारों को भी यही सलाह देता है।

नरम और उग्र प्रकृति के भ्रष्ट डॉक्टरों को इतने मात्र से संतोष नहीं होता है। वे मरीज को उतनी ही सेवाएँ देते हैं, जितना वह पैसा देता है। वार्ड में भरती होने के बाद भी उसे घर आकर फीस देनी चाहिए। आउटडोर में आने वाले मरीजों को वे ध्यान देकर नहीं देखते। घर पर दिखाने के संकेत समर्थ मरीजों को देते रहते हैं। अस्पताल से जांच केवल उन मरीजों की कराते हैं जिन्होंने कम-से-कम तीन-चार बार फीस दी है। अन्यथा जांच अस्पताल से बाहर कराने के लिए कहते हैं। आउटडोर में दिखाने वाले मरीजों को तो वे निजी प्रयोगशालाओं में भेजते ही हैं, वार्ड में भरती मरीज को भी जाँच के लिए बाहर भिजवा देते हैं। निजी प्रयोगशालाएँ पर्चे में लिखी हुई प्रत्येक जाँच का जितना पैसा मरीज से लेती हैं, उसका पच्चीस प्रतिशत संबंधित डॉक्टर के पास पहुँच जाता है। आउटडोर में लिखें चाहे घर पर या अस्पताल में भर्ती मरीजों की पर्चियों पर, कुछ ऐसी दवाएँ वे जरूर लिखते हैं जो निश्चित दुकान से ही मिलती हैं। इन दवाओं पर दुकानदार के माध्यम से कंपनी उन्हें पच्चीस से पचास प्रतिशत तक कमीशन देती है। अस्पताल के अधीक्षक ने तो अपने बेटे के नाम से बी-कांप्लेक्स सिरप बनाने की एक यूनिट लगा रखी है, जिसमें बी-कांप्लेक्स के नाम पर गुड़ का सुगंधयुक्त घोल शीशियों में भरा जाता है। प्रत्येक नुस्खे में इस बी-कांप्लेक्स सिरप को वे जरूर शामिल करते हैं। उनकी यूनिट के डॉक्टर भी प्रत्येक मरीज के लिए अधीक्षक के बनाए बी-कांप्लेक्स सिरप को जरूरी मानते हैं।

आक्रामक किस्म के भ्रष्ट सर्जन मरीज के साथ ऑपरेशन की कीमत तय कर लेते हैं। हैसियत के अनुसार दो सौ से एक हजार के बीच रकम तय हो जाती है और सर्जन ऑपरेशन तभी करता है जब पूरी रकम उसे अग्रिम रूप से मिल जाती है। इस तरह के मरीज वार्ड में अत्यंत महत्त्वपूर्ण मरीज माने जाते हैं।

यूनिट हैड रीडर हो या प्रोफेसर, अपनी यूनिट का राजा होता है। नियमानुसार प्रत्येक यूनिट में कार्यरत लैक्चरार, रीडर और प्रोफेसर के लिए पद के अनुसार पलंगों की संख्या निश्चित होती है। उतने पलंगों पर भरती मरीजों का दायित्व संबंधित डॉक्टर का होता है। वह भरती, इलाज, जांच, निःशुल्क दवाएँ, अस्पताल से छुट्‌टी आदि सभी मामलों में निर्णय लेकर निश्चित पलंगों के मरीजों की देखभाल करता है। किंतु व्यवहार में यूनिट हैड ही अपनी यूनिट के सभी पलंगों के बारे में निर्णय लेता है। पदनाम यूनिट हैड के अधिकारों की दृष्टि से कहीं आड़े नहीं आता। जो मरीज अस्पताल की व्यवस्था से परिचित होते हैं, यूनिट हैड को घर पर दिखाकर अस्पताल में भरती होते हैं। यूनिट में कार्यरत अन्य डॉक्टरों के पास केवल ऐसे मरीज पहुँचते हैं जो या तो इस व्यवस्था से परिचित नहीं होते या आस्था, जान-पहचान, संदर्भ से बँधे होते हैं। घोषित रूप से यूनिट में कार्यरत अन्य डॉक्टर यूनिट हैड को लाभ पहुँचाने की चेष्टा करते रहते हैं। सैकंड ओपीनियन के नाम से हो या एक्सपर्ट एडवाइस के आवरण में, मरीजों को बाकायदा यूनिट हैड के घर भिजवाते रहते हैं।

जो अधीनस्थ डॉक्टर यूनिट हैड को खुश नहीं रखते हैं उन्हें सीधे तरीके से तो कोई कुछ नहीं कहता लेकिन जिन मरीजों को वे भरती करते हैं उन्हें अहसास जरूर करा दिया जाता है कि यूनिट में चलती सिर्फ यूनिट हैड की है। यूनिट में मरीज भरती हुआ है। एक डॉक्टर को उसने घर पर दिखाया है अर्थात्‌ वह पैसा खर्च कर सकता है। स्वयं पैसे वाला नहीं है तो कहीं से उधार लेगा। लेकिन इलाज कराने में कंजूसी नहीं करेगा।

राउंड के समय नाक-भाैं सिकोड़कर अधीनस्थ डॉक्टर की लिखी हुई दवाओं को बदल देंगे। बदली हुई दवाओं में एक ऐसा इंजेक्शन भी शामिल होगा जिसकी कीमत एक सौ तीस रुपए होगी। रजिस्ट्रार को दवाएँ लिखवाते समय मरीज या उसके निकटस्थ को बुलाकर यूनिट हैड कहेंगे, ‘‘मरीज की हालत को देखते हुए हम एक महँगा इंजेक्शन ,लिख रहे हैं। इंपोर्ट होता है। शहर में केवल अमुक दुकानदार मंगवाता है। एक इंजेक्शन अस्सी रुपए का आएगा। आप खर्च कर सकें तो लिखें। इस इंजेक्शन के बिना मरीज की हालत नहीं सुधरेगी। आप देख लीजिए।"

जाहिर है मरीज या उसके परिजन वश चलते इनकार नहीं करेंगे। ढेर सारी महँगी जाँचें, एक्स-रे बाहर से कराने के लिए लिख देंगे। कहेंगे, ‘‘केस बहुत बिगड़ चुका है। बाहर से जाँच जल्दी भी होगी और सही भी होगी। अस्पताल के बारे में तो आप जानते ही हैं।"

एक बार जाँच हो गई। कुछ जांँचें नई और कुछ रिपीट लिखकर मरीज को दूसरी बार निजी लेबोरेटरी में भेजा जाएगा। तब तक अस्सी रुपए वाला इंजेक्शन रोजाना लगता रहेगा। पच्चीस प्रतिशत कमीशन इंजेवशन पर और पच्चीस प्रतिशत कमीशन निजी प्रयोगशाला से कराई गई जाँचों पर यूनिट हैड को मिलता रहेगा। पाँच दिनों में मरीज को फायदा हुआ तो ठीक है अन्यथा मरीज में खर्च करने की हिम्मत के अनुसार या तो जाँच पर जाँच होती चलेगी या फिर झगड़ा करने के बाद या खामोशी से मरीज भागकर किसी दूसरे डॉक्टर की शरण लेगा।

कुछ सर्जन आउटडोर में आए मरीज को घर बुलाकर और घर आए मरीज को समझाकर प्राइवेट नसिंग होम में ऑपरेशन कराने के लिए तैयार करेंगे। कहेंगे, ‘‘अस्पताल में भी मैं ही ऑपरेशन करूँगा। मगर वहाँ की गंदगी और बदइंतजामी में आपका केस बिगड जाएगा। कुछ पैसा जरूर खर्च होगा लेकिन पैसा तंदुरुस्ती से बड़ा तो नहीं होता।"

मरीज पूरी कोशिश करेगा कि सर्जन की सलाह के अनुसार प्राइवेट नसिर्ंग होम में ऑपरेशन कराए। नसिर्ंग होम में एनेस्थीसिया, ऑपरेशन थियेटर, ऑपरेशन, नसिर्ंग केयर, जाँच, कमरा हर एक के लिए पैसा वसूल किया जाएगा। डिसचार्ज जान-बूझकर निर्धारित समय से एक घंटा बाद दिया जाएगा ताकि कमरे का एक दिन का किराया अतिरिक्त वसूल किया जा सके। मेडीकल स्टोर नर्सिंग होम वालों का चलता होगा। सर्जन तीन दिन की दवाएँ लिखेगा। अगले दिन बदलकर दूसरी दवाएँ लिख देगा। मेडीकल स्टोर से दवाओं की बिक्री बढी। मुनाफा बढा। नर्सिंग होम के मालिक को फायदा हुआ। सर्जन की फीस एक सौ रुपए प्रति ऑपरेशन बढ गई। उसके माध्यम से भरती हुए मरीज का कमीशन अलग।

अस्पताल में मरीजों से संबंधित सभी चीजें खरीदी जाती हैं। सबके लिए कंपाउंडर, नर्स, डॉक्टर इंचार्ज या डॉक्टरों की समिति नियुक्त होती हैं। चादरें, गद्‌दे, तकिए, थियेटर में ले जाने से पहले मरीज को पहनाने के लिए पाजामा और गंजी, ऑपरेशन थियेटर में काम करने वाले डॉक्टरों के लिए एप्रन, मुँह पर बाँधने के लिए पट्‌टी, सिर पर बाँधने के लिए स्कार्फ, पलंग, यूरीन पॉट, स्टूल पॉट, तसला हर चीज की अस्पताल में जरूरत होती है। कोटेशन लिये जाते हैं। लेखा नियमों के अनुसार औपचारिकताएँ पूरी होती हैं। संबंधित लोगों के पास उनका तयशुदा हिस्सा पहुँच जाता है। अच्छी और स्तरीय चीजों के स्थान्‌ पर खराब और घटिया सामान की आपूर्ति हो जाती है। दवाओं, ड्रेसिंग के लिए पट्टियों, रुई, स्पिरिट आदि की खरीद में प्रतिवर्ष लाखों रुपए इधर से उधर होते हैं। परिणामतः कभी ऐसी दवाओं का ढेर लग जाता है जिनकी अधिक जरूरत नहीं पडती, जो एक्सपायरी डेट निकल जाने के कारण फेंक दी जाती हैं और कभी सर्जीकल आउडोर, सर्जीकल वार्ड, इमरजेंसी, ऑपरेशन थियेटर में स्पिरिट की एक बूंद तक नहीं होती। मरीजों से पट्टियाँ, रुई, अडहेसिव प्लास्टर मंगवाकर ऑपरेशन के दौरान और ऑपरेशन के बाद इस्तेमाल करने पड़ते हैं।

मध्यममार्गी डॉक्टर ज्यादा उठा-पटक नहीं करते। अवसर मिलता है तो लाभ उठा लेते हैं। नहीं मिलता है तो पीछे नहीं दौड़ते हैं। वार्ड ब्वाय, नर्स, कंपाउंडर, प्राइवेट डॉक्टर उनके घर मरीजों को नहीं भेजते हैं क्योंकि मध्यममार्गी डॉक्टर उन्हें मरीज भेजने के लिए कमीशन नहीं देते हैं। करते सब कुछ हैं, सही भी, गलत भी। यह करें, वह न करें इस तरह की जिद्‌द उनमें नहीं होती। आराम तलबी के साथ अस्पताल जाएँगे, राउंड लेंगे, कॉफी क्लव में बैठकर कॉफी पीते हुए गपशप करेंगे, चुटकुले सुनाएंगे और समय पूरा होने से कुछ देर पहले चले जाएंगे। किसी से ज्यादा दोस्ती नहीं करते, किसी से दुश्मनी नहीं करते। कोई खतरा उठाकर किसी का काम नहीं करते, खतरा न हो तो किसी का काम करने से इनकार नहीं करते। निरापद होते हैं इसलिए अस्पताल में इस वर्ग के डॉक्टरों की तरफ कोई विशेष ध्यान नहीं देता।

सिद्धांतवादी डॉक्टर अस्पताल की नाक भी होते हैं और झगड़े का कारण भी। प्राइवेट प्रेक्टिस नहीं करेंगे। कहेंगे, इससे हमारे व्यक्तिगत जीवन पर खराब असर पड़ता है। मरीज आया है। आप पत्नी से बात कर रहे हों या मेहमानों से, छोड़कर उठेंगे। मरीज जब तक है उसे खुदा मानेंगे। आप सो रहे हैं। रात के दो बजे हैं। मरीज घंटी बजाकर आपको जगाता है। आप उसे एक्जामिन करते हैं। प्रेस्क्रिप्शन लिखते हैं। भरती करना है तो इमरजेंसी में फोन करते हैं, मरीज भेज रहा हूँ। दवाएँ लिख दी हैं। मेरे वार्ड में भरती कर दो। तबीयत ठीक नहीं है। सिर दर्द से फटा जा रहा है। मरीजों की लाइन लगी है। देखना पड़ेगा। चंद रुपयों के लिए नहीं खोलकर बैठना है हमें कोठा। ग्राहक जब चाहेगा, आएगा। नोटों के बल पर नचवाएगा। दस का एक नोट नजर करेगा और चल देगा। पिक्चर देखने की इच्छा है। शहर में अच्छा नाटक चल रहा है। बच्चे कहते हैं, आज रात का भोजन किसी होटल में करेंगे। जीजा या साला आया है, उसे घुमाने आमेर ले जाना है। बरसात का मौसम है। पिकनिक पर रामगढ जाएँगे। भांजे से मिलने का मन कर रहा है। दो दिन के लिए दिल्ली हो आते हैं। नहीं, आप कुछ नहीं कर सकते। कहीं नहीं जा सकते। क्योंकि सुबह, दोपहर, शाम मरीज आपको घर पर दिखाने आते हैं। एक दिन में दस मरीज भी आएँ तो सौ रुपए का नुकसान हो जाएगा। जेब से जो पैसा खर्च होगा सो अलग। उपन्यास पढ़ना चाहते हैं? नहीं पढ़ सकते, मरीज देखने का समय है। बच्चों के साथ साँप-सीढी खेलना चाहते हैं। नहीं खेल सकते, मरीज देखने का समय है। लखनऊ से बचपन का दोस्त आया है। पुराने दिन याद नहीं कर सकते, मरीज देखने का समय है। मरीजों को देखना हमारा कर्त्तव्य है। इसका मतलब यह कहाँ है कि हम न शादी करें, न माँ या पिता बनें, न दोस्त हों हमारे, न रिश्तेदारी निभाएँ और न समाज में उठें-बैठें।

चार घंटे सुबह और दो घंटे शाम को अस्पताल में काम करते हैं। मरीजों को देखते हैं। राउंड लेते हैं। इमरजेंसी निपटाते हैं। लड़कों को पढाते हैं। कॉल पर होते हैं तो चौबीसों घंटे घर पर बने रहते हैं ताकि कॉल आने पर ऐसा न हो कि हम घर पर न मिलें। होली, दीपावली लोग त्योहार मनाते हैं। ड्‌यूटी लगती है तो ऐसे अवसरों पर भी हम अस्पताल जाते हैं। जितना वेतन सरकार देती है, उससे ज्यादा ही काम करते हैं। घर पर मरीजों को देखना या न देखना हमारी सेवा शतोर्ं में शामिल होता तो सोच-समझकर नौकरी करते। नौकरी स्वीकार करते तो मरीजों को नियमानुसार देखते, नहीं तो नौकरी नहीं करते। अब तो घर पर मरीजों को देखना, न देखना हमारी मर्जी पर निर्भर करता है। सरकार ने घर पर मरीज देखने की फीस तय की है। घर पर मरीज नहीं देखते तो आर्थिक नुकसान हमें होता है। व्यक्तिगत जीवन, स्वेच्छा से कुछ भी करने की स्वतंत्रता हमें उस फीस से ज्यादा अच्छी लगती है। छः घंटे अस्पताल को देते हैं, बहुत है। अपने पंख कटवाकर सोना नहीं चाहिए हमें।

देख भी लें घर पर मरीज, मगर बात यहां खत्म नहीं होती। ईमानदारी को अलविदा कहने और बेईमानी को अंगीकार करने का संकेत है अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टर के लिए प्राइवेट प्रेक्टिस। घर पर मरीज केवल पैसे के लिए, फीस के लिए देखते हैं न? मरीज कितना पैसे वाला है, इसका अनुमान मरीज के पहनावे, उसकी बातचीत, उसकी चाल-ढाल से लगाने की कोशिश होगी। अगर वह पैसे वाला है तो उसके प्रति दृष्टिकोण अलग होगा और अगर सामान्य या निर्धन है तो उसके प्रति दृष्टिकोण अलग होगा। हम फीस लेकर देखना चाहते हैं। मरीज फीस देकर दिखाना चाहता है। हम चाहेंगे कि जिस तरह भी बन पड़े, उससे ज्यादा फीस मिल जाए। फीस ज्यादा न मिले तो कोई दूसरा लाभ मिल जाए। मरीज धनवान होगा, उच्च पद पर होगा तो हमारे वे स्वार्थ पूरे हो सकेंगे। घर पर फीस देकर दिखाने वाला निर्धन मरीज हमारे लिए उपेक्षणीय हो जाएगा। घर पर मरीज देखने के साथ मानसिकता में ऐसे परिवर्तन अनिवार्यतः आते हैं। किसी में कम, किसी में ज्यादा। लेकिन मरीज को उसकी बीमारी के आधार पर न देखकर उसकी हैसियत के आधार पर देखने की प्रवृत्ति वर्चस्व स्थापित कर लेती है। अस्पताल में मरीजों को देखने में मन नहीं लगता। यदि यह मरीज घर आता तो बीस रुपए देता, तीस रुपए देता। तुलना करता हुआ मस्तिष्क अस्पताल में मरीज को चलताऊ ढंग से देखेगा।

अस्पताल में आने वाले मरीजों में से कुछ ऐसे होंगे जिन्हें हम घर पर देख चुके हैं। हमारे कहने से ही वे अस्पताल में दिखाने आए हैं। ये मरीज हमारे मरीज हो जाएँगे। शेष मरीज क्या हुए? पराए मरीज? सरकारी मरीज? लावारिस और अनाथ मरीज? जिन्हें हम अपना मरीज मानते हैं, उन्हें दूसरों से पहले देखेंगे। उनसे दूसरों की तुलना में ज्यादा प्यार से बात करेंगे। उन्हें दूसरों की तुलना में अधिक समय लगाकर एग्जामिन करेंगे। उन मरीजों में हमें अपना ग्राहक नजर आता रहेगा। फिर जिस काम के लिए सरकार हमें वेतन देती है, उसका क्या हुआ?

वार्ड में चालीस मरीज भरती हैं। उनमें से चार मरीजों ने मुझे घर पर फीस देकर दिखाया था। मेरी पर्ची के आधार पर उनकी भरती हुई है। रीडर के छः और प्रोफेसर के दस मरीज भरती हैं। चालीस में से बीस मरीजों ने पैसे के बल पर किसी-न-किसी का ध्यान खरीदा है। राउंड पर वार्ड में गया। चालीस में से चार मरीजों के प्रति मेरे मन में जो भावनाएँ होंगी, छतीस मरीजों को संलग्नता के साथ वे भावनाएँ देखने ही नहीं देंगी मुझे। यह भी हो सकता है कि अगर मैं समर्थ हूँ, दबंग हूँ, सरकार में मेरी पहुँच है. तो मैं देखूँ ही उन चार मरीजों को और राउंड पूरा मानकर वार्ड से निकल जाऊँ।

यदि मैं सभी चालीस मरीजों को देखता हूँ तब भी सर्वाधिक रुचि उन चार मरीजों के प्रेस्क्रिप्शन में लूँगा, जो मुझे घर पर दिखाकर भरती हुए हैं। निदान के लिए आवश्यक जाँचें हुई हैं या नहीं, नहीं हुई हैं तो हो जाएँ। इंजेक्शन निर्धारित समय पर लग रहे हैं या नहीं, नहीं लग रहे हैं तो लग जाएँ। राउंड लेते समय बाकी मरीजों के पलंगों पर जाते समय मेरे चेहरे पर पत्थर जैसी तटस्थता होगी। इन चार मरीजों के पलंगों पर पहुँचते ही मेरे होंठ मुसकराने लगेंगे। कोई दूसरा मरीज या उसका परिजन मुझसे कुछ पूछने आएगा तो मैं सीधे मुँह बात नहीं करूँगा उससे। उन चार में से कोई एक या उसका परिजन आएगा तो मैं उसे संतुष्ट करके भेजूंगा। मेरे व्यवहार में यह दोहरापन उस फीस के कारण आता है जो उन मरीजों ने घर पर दी थी मुझे। घर पर दी हुई फीस का असर अस्पताल में भी मेरे ऊपर है। जबकि सरकार अस्पताल में मरीजों को देखने, उनका इलाज करने की कीमत मुझे देती है। अगर मैं कहता हूँ कि सरकार वेतन बहुत कम देती है, इतने से रुपयों में क्या होता है आजकल? अगर इसी वेतन में गुजारा करने की नौबत आ जाए तो कार और वैस्पा छोड़कर मुझे साइकल पर अस्पताल में आना पडे़गा। मैं एक सीधा-सा सवाल पूछता हूँ, ‘‘भाई, तुम्हें किसने कहा यह नौकरी करने के लिए? वेतन कम है तो छोड़ो नौकरी। वह काम करो, जिससे ज्यादा पैसा मिले।"

आँशिक रूप से आदर्शवादियों से में सहमत हूँ। सरकारी अस्पताल में काम करने वाले डॉक्टर की प्राइवेट प्रेक्टिस ही सब झंझटों की जड़ है। सुबह आठ बजे गरमियों में और सुबह नौ बजे सर्दियों में अस्पताल जाने का समय है। घर पर मरीज देखने वाले डॉक्टर के पास अस्पताल जाने के समय के एक-एक घंटे बाद तक मरीज आते रहते हैं। कोई देखने निकले तो अस्पताल जाने का समय गुजरने के बाद भी डॉक्टरों को घर में नहाता हुआ या नाश्ता करता हुआ देख सकता है।

कुछ बड़े दिल वाले, मैं उन्हें दुःसाहसी कहूँगा, डॉक्टर ऐसे भी हैं जिन्होंने घर के एक कमरे में पलंग आदि लगवाकर इनडोर हॉस्पीटल खोल रखा है। आठ बजे की बजाय दस बजे अस्पताल जाते हैं। आधा घंटा वहाँ रुककर लौट आते हैं। मरीजों को खुले आम घर बुलाते हैं। अस्पताल में मरीज को हाथ भी नहीं लगाते। घर में यूरीन और ब्लड टैस्ट करने के लिए प्रयोगशाला चलती है। एक स्क्रीनिंग मशीन घर में लगी हुई है। मरीज को उसके अंदरूनी हिस्सों की स्थिति खुद देखने के लिए कहते हैं। फेफड़ों को मरीज स्क्रीनिंग मशीन पर देखता है। डॉक्टर साहब बताते हैं, अमेरिका से यह मशीन मंगवाई है। हिंदुस्तान में केवल मेरे पास है। मरीज सोचता है, डॉक्टर साहब अद्‌भुत हैं। एक्स-रे फिल्म बीस रुपए में मिल जाती है। वे मरीज से पचास रुपए लेते हैं। बीस साल की नौकरी अभी नहीं हुई है। दस लाख रुपए लगाकर एक आलीशान अस्पताल बनवाया है। जल्दी ही नौकरी छोड़ने का विचार है उनका। सरकार और प्रशासन में जबरदस्त पैठ है। इसलिए उनके खिलाफ कार्यवाही की बात कोई सोचता ही नहीं है।

एक बार शुरुआत हो जाए तो भ्रष्ट आचरण की कोई सीमा नहीं होती। जिन्हें अवसर नहीं मिलता वे यदि भ्रष्ट नहीं हैं तो उनकी प्रशंसा करने योग्य कोई बात नहीं है। तारीफ तो तब है कि भ्रष्टाचार करने की सुविधा हो और पाक-साफ रहा जाए। एक बार प्राइवेट प्रेक्टिस के नाम पर स्वाद चखा नहीं कि हवस बढती जाती है। फिर मानवता, पीड़ा, दुःख, दर्द गौण हो जाते हैं। फीस नहीं है तो अस्पताल में दिखाओ और अस्पताल में तुम्हें अच्छी तरह देखा नहीं जाएगा। प्राइवेट प्रेक्टिस शुरू करते समय भले ही डॉक्टर एक सीमा निर्धारित कर ले किंतु अपनी तय की हुई हदों में वह रह पाएगा और हर इनसान के आँसुओं का खारापन उसे हमेशा एक जैसा लगता रहेगा, ऐसा व्यवहार में होता नहीं है।

भ्रष्ट आचरण यदि सीमाओं को स्वीकार नहीं करता है तो सिद्धांत भी समझौता करना नहीं जानता। सिद्धांतवादी टूटकर घोर भ्रष्टाचारी बन जाए, यह तो हो सकता है किंतु झुककर वह सिद्धांत के साथ समझौता कर ले, ऐसा नहीं होता। इसी अस्पताल में एक प्रोफेसर हैं। आउटडोर में बैठने से पहले कंपाउंडर के माध्यम से वे मरीजों में टोकन बँटवा देते हैं। ठीक समय पर अस्पताल आते हैं। वार्ड में राउंड लेते हैं। इसके बाद एकाग्र-भाव से टोकन नंबर के अनुसार मरीजों को एक-एक करके देखते रहते हैं। टाई लगाकर कोई महत्त्वपूर्ण व्यक्ति आए या फटे कपड़े पहने कोई गरीब, वे सबको उतनी ही तन्मयता के साथ देखते हैं। सबको टोकन नंबर के क्रम में ही देखते हैं। अस्पताल का कोई सहयोगी डॉक्टर, प्रिंसिपल यहाँ तक कि मंत्री भी चाहे कि वे किसी मरीज को बीच में देख लें, तो स्पष्ट इनकार मिलता है। निर्धारित समय के अतिरिक्त मरीज से मिलने की अनुमति उनके वार्ड में किसी को नहीं मिलती है। राउंड के समय वे केवल मरीज को एक्जामिन नहीं करते। यह भी देखते हैं कि जो अलमारी मरीज के सामान के लिए पलंग के पास रखी है, वह व्यवस्थित है या नहीं? सफाई ठीक नहीं हुई है तो वार्ड ब्वाय को बुलाकर डाँटेंगे। चादर, तकिए के गिलाफ बदले नहीं गए हैं तो नर्स को बुलाकर जवाब तलब करेंगे। मरीज के पहने हुए कपड़े गंदे हैं, अलमारी अस्त-व्यस्त है, दवाएँ बिखरी पड़ी हैं तो मरीज के परिचारक से पूछेंगे कि यदि इन बातों का ध्यान भी तुम नहीं रख सकते तो यहां बैठने की क्या जरूरत है? घर जाकर आराम से सोओ। मरीज की देखभाल हम खुद ही कर लेंगे। घर पर मरीज को देखते नहीं हैं। कोई निकटस्थ असमय घर आ जाए, गंभीर बात हो, उसी समय उसे अस्पताल पहुँचने के लिए कहेंगे और स्वयं अस्पताल आकर उसे देखेंगे। मरीज वार्ड में पलंग उपलब्ध न होने के कारण फर्श पर लेटे होते हैं। राउंड के समय नीचे बैठकर वे ऐसे मरीजों को एग्जामिन करते हैं। मरीज का हित उनकी दृष्टि में सर्वोपरि है। अपनी छवि खराब करके, कटु बातें कहकर उद्‌दंड व्यवहार करके, सहयोगियों के साथ संबंध बिगाड़कर, प्रिय-अप्रिय कदम उठाकर, सब कुछ दाँव पर लगाकर वे सुनिश्चित करना चाहते हैं कि मरीज के हितों की रक्षा हो रही है। मरीज के मन में चाहे उनके प्रति अगाध श्रद्धा हो किंतु सारा कॉलेज उन्हें सनकी कहता है। वे पैदल अस्पताल आते हैं। उनके घर में बैठने के लिए पुराने जमाने का आबनूसी लकड़ी का बना एक सोफा रखा है।

यदि वह अति अच्छी नहीं है तो यह अति भी अच्छी नहीं कही जा सकती। आदर्श और व्यावहारिकता का कोई खूबसूरत संगम नहीं हो सकता है क्या? शायद यह बहुत मुिकल काम नहीं है। हम लोग इस कोण से विचार नहीं करते। इसलिए अपने-अपने दायरों में घूमते-भटकते रहते हैं।

तृतीय वर्ष एम.बी.बी.एस. में लायन क्लब और रोटरी क्लब के सहयोग से गरीब मरीजों को दवाएँ उपलब्ध कराने के लिए मासिक अनुदान की व्यवस्था की थी। बाद में शहर के कुछ दानवीरों और पैसेवालों से बात करके स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट नाम से एक संस्था का गठन मैंने कराया। पाँच लाख रुपए की मूल राशि से मैंने इस ट्रस्ट के लिए आर्थिक सहयोग देने वालों में से ही कुछ लोगों को चुनकर ट्रस्टी बना दिया। ट्रस्ट का कार्यालय अस्पताल परिसर में है। अस्पताल परिसर में कार्यालय खुलवाने की दृष्टि से प्रयत्न तो बहुत करने पड़े किंतु अंत में सफलता मिल गई। अस्पताल में भरती कोई भी मरीज ट्रस्ट के कार्यालय में आवेदन करके दवाओं के लिए अनुरोध कर सकता है। तुरंत ट्रस्ट की ओर से मौके पर जाकर मरीज की स्थिति की जाँच हो जाती है और प्रेस्क्रिप्शन के अनुसार दवाएँ उपलब्ध करा दी जाती हैं। इसके अतिरिक्त भी ट्रस्ट कई काम करता है। लोगों से पुरानी पत्रिकाएँ लेकर वाडोर्ं में भरती मरीजों व उनके परिचारकों को दी जाती हैं। कोई मरीज चाहे तो समाचार लिखकर पोस्टकार्ड उसके बताए हुए पते पर भेजा जाता है। मरीज को खून की जरूरत है। खून खरीदने के लिए उसके पास पैसे नहीं हैं। खून दान में दे सके ऐसा कोई परिजन उपलब्ध नहीं है। ट्रस्ट की ओर से दानदाता की व्यवस्था करके खून उपलब्ध करा दिया जाता है। इसके लिए ट्रस्ट में स्वेच्छा से खून दान में देने के इच्छक व्यक्तियों की एक सूची है।

एक और काम स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट करता है जो मेरी दृष्टि में बहुत जरूरी है। ट्रस्ट ने कुछ पैंफलेट, कुछ पुस्तिकाएं और कुछ पोस्टर तैयार कराए हैं। यह सामग्री स्वास्थ्य शिक्षा देने के उद्‌देश्य से तैयार कराई गई है। डॉक्टरों की लूट-खसोट, धोखाधड़ी इसलिए चल जाती है क्योंकि अधिकांश लोगों को उन बातों की जानकारी नहीं है, जिनके कारण डॉक्टर उन्हें अँधेरे में रखने में सफल हो जाते हैं। फिलहाल अस्पताल में भरती मरीजों के परिचारकों को, अस्पताल के सामने बनी धर्मशाला में रहने वाले मरीजों के रिश्तेदारों को ट्रस्ट इस सामग्री के माध्यम से बताने की कोशिश करता है किं अच्छे स्वास्थ्य के लिए उन्हें क्या करना चाहिए? ट्रस्ट के पास फोटो स्लाइड हैं। प्रोजेक्टर है। इन लोगों के लिए प्रति सप्ताह एक स्लाइड शो का आयोजन ट्रस्ट करता है। खुलकर तो डॉक्टरों के हथकंडों की बात अभी नहीं करते, किंतु प्रतीकों और संकेतों में कोशिश होती है कि लोग हकीकत को समझें। जितना समय मिल पाता है उसके अनुसार प्रतिदिन मैं भी ट्रस्ट के कार्यालय में जाकर बैठता हूँ।

स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट को व्यावहारिक आदर्श का प्रतिरूप बनाने के लिए कुछ योजनाएँ मेरे मस्तिष्क में हैं। अभी तीन साल यही अस्पताल मेरा कार्यक्षेत्र रहेगा। इस अवधि में उन योजनाओं को किस सीमा तक अमली जामा पहनाया जा सकेगा, इसी पर निर्भर करेगा मेरे उस प्रश्न का उत्तर कि आदर्श और व्यावहारिकता का कोई खूबसूरत संगम नहीं हो सकता है क्या?

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12 मार्च, 1959

दुनिया का चक्र अपनी रफ्तार से चल रहा है। न तेज, न धीरे। सम गति से। परिस्थितिवश हमें ही लगता है कि समय वहुत तेजी से या बहुत धीरे-धीरे गुजर रहा है। भौतिक और सांसारिक दृष्टि से सब कुछ करते हुए भी मन व्यग्र बना रहता है। ऊपर से कुछ भी असामान्य नहीं लगता लेकिन सचमुच एक बेचैन लावा अंदर-ही-अंदर खौल रहा होता है। चेहरे को भंगिमाओं से नहीं, यदि मन की हलचल को सीधा पढने का कोई तरीका होता तो दुनिया का नक्शा कोई दूसरा रूप ग्रहण कर चुका होता।

मीनू के तलाक के बाद मैं चाहता था कि समय की रफ्तार तेज हो जाए। चतुर्थ तथा अंतिम वर्ष एम.बी.बी.एस. का बाकी बचा डेढ साल इंटर्नशिप के छः महीने और एम ० डी ० के तीन साल आँख झपकते गुजर जाएँ। घड़ी के स्िंप्रग की तरह दाएँ-बाएँ करके समय को तेजी से निकल जाने दिया जाए। समय की रफ्तार मेरे चाहने से न बदलनी थी, न बदली। एम ० डी ० की परीक्षाएँ देर से होने के कारण पाँच साल बढकर, सवा पाँच साल हो गए। अंतिम तीन माह पढाई के भारी दबाव के बावजूद कैसे गुजारे हैं, मैं ही जानता हूँ। हर काम करते हुए मीनू की याद बनी रहती थी। जिस तरह रेलगाड़ी में चौबीस घंटों का लंबा सफर करने के बाद अंतिम दो-तीन घंटे गुजारने मुश्किल हो जाते हैं, उसी तरह अंतिम तीन महीने मैंने एक-एक दिन गिनकर गुजारे हैं।

छात्रसंघ महासचिव के रूप में अर्जित प्रतिष्ठा के कारण अंतिम वर्ष एम.बी.बी.एस. तक महासचिव का चुनाव वही लड़के जीत पाए, जिनका मैंने समर्थन किया। चुनाव जीतने वाले लड़के महत्त्वपूर्ण फैसले लेने से पहले मुझसे सलाह-मशविरा करते रहे। मैंने प्रत्यक्ष रूप से और हमारी मंडली ने परोक्ष रूप से समर्थन दिया था इसलिए महासचिव की गतिविधियों पर हम लोग नजर रखते रहे। जहाँ लगता था कि महासचिव की दिशा ठीक नहीं है, वहाँ हम लोग हस्तक्षेप करते थे। छात्रों के आपसी झगड़ों को सुलझाना, बाहुबल से समस्या हल करने पर अड़े हुए लड़कों को समझा-बुझाकर विकल्प देना, प्रतिनिधि मंडलों में शामिल होकर महासचिव को सक्रिय सहयोग देना, ध्यान देने योग्य छात्र समस्याओं पर महासचिव से बात करना, उन अनेक कायोर्ं का एक छोटा सा हिस्सा थे जिनमें से कुछ मैं स्वेच्छा से करता था और कुछ किसी-न-किसी कारण से मुझे करने पड़ते थे। रैगिंग के विकल्प के रूप में प्रारंभ की गई चाय-पान की परंपरा, भारतीय संस्कृति की प्रतिष्ठा के लिए कोई-न-कोई प्रयोग, मूल्यों के प्रति लगाव छात्र-संघ की गतिविधियों के साथ मिलकर मुझे वर्ष-भर व्यस्त रखते थे। पढाई और अस्पताल मैं किसी भी कीमत पर नहीं छोड़ता था। व्यवहार में महासचिव के रूप में अत्यधिक व्यस्त दिन एवं रात्रि चर्या जैसी व्यस्तता वाली स्थिति बनी रही।

इंटर्नशिप के छः माह में मैं जिस वार्ड में भी गया, लोगों को लगता था जैसे रजिस्ट्रार को मुक्त करके मुझे ही वार्ड की जिम्मेदारी सँभालनी है। सुबह और शाम निर्धारित समय पर तो अनिवार्यतः वार्ड में रहता ही था। लौटते समय भी देख लेता था कि वार्ड का सारा काम निपट गया है। भले ही देर हो जाए लेकिन कोशिश रहती थी कि दोपहर को या रात को वार्ड रजिस्ट्रार के साथ छोड़ूं। मरीजों से जीवन-भर वास्ता पड़ेगा। उनके ऊपर ध्यान देकर सीखने का यही अवसर है। ऐसे अवसर फिर नहीं मिलेंगे। कुछ इंटर्न मानते थे कि ये छः महीने मौज-मस्ती करने के लिए मिलते हैं। काम करने के लिए सारी जिदगी सामने पड़ी है। मेरे और उनके सोच में विलोमार्थक अंतर था। इसलिए मेरे और उनके व्यवहार में भी विपरीत ध्रुवों जितनी दूरी थी। रजिस्ट्रार भी कहते रहते थे, ‘‘यार, इंटर्नशिप में हमने भी कभी काम मन लगाकर नहीं किया। सब लोगों को मस्ती करते देखकर काम में मन लगता ही नहीं था।"

एम ० डी ० के तीन साल तो वार्ड और कॉल दोनों ही मेरे ऊपर थे। वरिष्ठ डॉक्टरों के आने से पहले पहुँचकर वार्ड में राउंड लेने से दिन की शुरुआत होती थी। कभी वरिष्ठ डाक्टरों को राउंड दिलाना, कभी जाँच के लिए पर्चियाँ बनाकर मरीजों को भेजना, कभी नए मरीजों को बिस्तर देकर उनकी हिस्ट्री लेना, कभी दवाएँ लिखना, कभी इंजेक्शन और दवाओं का नियमित इस्तेमाल देखना, कभी ब्लड प्रेशर देखना, कभी ड्रिप लगाना, कभी कंपाउंडर या नर्स को मरीज विशेष के संदर्भ में निर्देश देना, कभी सामने खड़े रहकर इंट्रावीनस इंजेक्शन लगवाना, कभी मरीज के परिचारक को उसके मरीज के बारे में, खाने-पीने की चीजों के बारे में बताना, वार्ड में सैकड़ों काम थे जो मेरे सिर पर थे।

अंतर इतना ही था कि अन्य रजिस्ट्रार, हाउस सर्जन झल्लाते, झींकते और शिकायतें करते हुए ये सारे काम करते थे, जबकि मैं मुसकराते हुए अपने काम निपटाता रहता था। किसी मरीज या उसके परिचारक को दरगुजर नहीं करता था। सबसे प्यार से बात करता था। अधिकांश रजिस्ट्रार काम के बोझ से परेशान रहते थे। बोझ मेरे ऊपर भी उतना ही या उनसे ज्यादा ही था, मगर मैं हँसते हुए खुशनुमा ढंग से काम करता था।

उनसे ज्यादा काम मेरे पास इसलिए होता था क्योंकि उनके वाडोर्ं में बिना फीस दिए भरती होने वाले मरीजों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाता था। पैसे या पहुँच के आधार पर मरीजों की चिंता की जाती थी। मैं अपने वार्ड में निर्धन मरीजों की भी उतनी ही तत्परता के साथ देखभाल करता था जितनी तत्परता मैं वरिष्ठ डॉक्टरों के भरती किए हुए मरीजों के मामले में दिखाता था। वार्ड में भरती लगभग पचास प्रतिशत मरीज अतिरिक्त रूप से मेरी चिंता के दायरे में आते थे। इन मरीजों की परवाह क्योंकि वरिष्ठ डॉक्टर नहीं करते थे इसलिए उन्हें अन्य मरीजों के बराबर सुविधाएँ देने की दृष्टि से मुझे अधिक मेहनत करनी पडती थी। निर्धन मरीजों के प्रति मेरे मन में लगाव और सहानुभूति अधिक थी इसलिए अपनी मेहनत हमेशा मुझे सार्थक लगती थी।

दोपहर के समय वार्ड से फारिग होकर मैं घर आता था। भोजन करके थोड़ी देर लेटता था। शाम को घर से ही अस्पताल चला जाता था। रात को अस्पताल से निकलकर मैं घर नहीं जाता था। वार्ड से किसी भी समय बुलावा आ जाता था। इसलिए छात्रावास में सोता था। छात्रावास के भोजनालय में रात का भोजन किया। देर रात तक थीसिस पर काम करता रहा या पढता रहा। इस बीच कॉल आया तो टेलीफोन पर या स्वयं जाकर कार्यवाही कर ली। एक-डेढ़ बजे सोता था। सुबह छः बजे उठकर घूमने और व्यायाम करने निकल जाता था। लौटकर नहा-धोकर छात्रावास में ही नाश्ता करके अस्पताल चला जाता था। सोने के बाद अस्पताल से बुलावा आए तब भी, सुबह उठने का समय आगे-पीछे नहीं होता था। दिन के समय थोड़ी देर सो लेता था, इसलिए रात को थोड़ा-बहुत समय अधिक जागना पड़ा तो परेशानी नहीं होती थी।

कोशिश करता था कि शाम को अस्पताल में पहुँचकर कुछ समय स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के कार्यालय में बैठूं और इसके बाद वार्ड में जाऊँ। किसी दिन दोपहर को घर लौटने में देर हो गई, शाम को अस्पताल जल्दी पहुँचना संभव नहीं हो सका तो रात को वार्ड से मुक्त होने के बाद आधा घंटा, पौन घंटा जितना समय निकल पाया, स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के कार्यालय जाता था। दिन में, रात में जब भी गुंजाइश हो एक बार स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के कार्यालय में मैं जरूर जाता था। शाम के समय जाने का अधिक लाभ मिलता था। उस समय मरीज से मिलकर उसके परिजन, अपने परिजन नहीं तो वार्ड के किसी अन्य मरीज के परिजन वापस लौटते थे। पाँच बजे तक मरीजों के परिजनों को अस्पताल में आकर मिलने की सुविधा मिलती है। दवाओं की जरूरत की सूचना सामान्यतः उस समय आती थी कार्यालय में। मैं सक्रिय रूप से अस्पताल के काम-काज के साथ जुड़ा हुआ था। स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट का काम भी सक्रियता के साथ करता था। इसलिए विभिन्न वाडोर्ं में भरती मरीजों के बारे में जानकारी लेता रहता था। अधिकांश मामलों में गरीब मरीजों की दवाओं की माँग का फैसला हाथों-हाथ हो जाता था। जिन मरीजों के बारे में मुझे जानकारी नहीं होती थी, लौटते समय मैं संबंधित वार्ड में होता हुआ चला जाता था। ट्रस्ट के कार्यालय को टेलीफोन पर बता देता था। दवाओं की आपूर्ति सूचना आने के एक घंटे में हो जाती थी। शाम को ट्रस्ट कार्यालय में न जाने की स्थिति में सारा काम कर्मचारियों को करना पड़ता था। दवाओं की आपूर्ति में समय अधिक लग जाता था।

ट्रस्ट कार्यालय में दिन-भर की गतिविधियों का लेखा-जोखा करता था। दवाओं की आपूर्ति के वाउचर और माँग-पत्र नजर से निकालता था। स्वास्थ्य शिक्षा के कार्यक्रम के सुचारु संचालन की दृष्टि से विभिन्न बिंदुओं की जाँच करता था। मरीजों के लिए खून की आपूर्ति सुनिश्चित करता था। दानदाताओं को पत्र लिखवाकर या उनसे टेलीफोन पर बातचीत करके प्रगति का विवरण देकर संपर्क सुदृढ करता रहता था।

सीनियर रजिस्ट्रार सामान्यतः वार्ड में रुचि लेना कम कर देते हैं। एक हाउस सर्जन और रजिस्ट्रार वार्ड का काम करने के लिए होते हैं। सीनियर रजिस्ट्रार तीसरा व्यक्ति हो जाता है। एम ० डी ० अंतिम वर्ष की तैयारी भी उसे करनी पड़ती है। इसलिए वरिष्ठ डॉक्टरों से संपर्क बनाए रखने, भरती मरीजों और उनकी बीमारियों की जानकारी रखने के उद्‌देश्य से सीनियर रजिस्ट्रार वार्ड में आते हैं। वरिष्ठ डॉक्टरों के कहने पर या इच्छा व्यक्त करने पर वार्ड के दैनिक काम भले ही कर लें किंतु बहुत रुचि लेकर वे वार्ड के काम में हाथ नहीं डालते हैं। मैं सीनियर रजिस्ट्रार के रूप में भी वार्ड में उसी तरह काम करता रहा जिस तरह रजिस्ट्रार या उससे पहले, हाउस-सर्जन के रूप में करता था। वार्ड का काम करने वाले दो के स्थान पर तीन लोग थे। इसलिए काम जल्दी हो जाते थे। पढने का समय घंटा-दो-घंटा ज्यादा मिल जाता था। मेरी जरूरतें इससे ज्यादा थीं भी नहीं।

वार्ड में सक्रिय रूप से काम करते रहने के कारण, स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट से जुड़े होने के कारण अस्पताल में भरती सभी प्रकार की बीमारियों के मरीजों की जानकारी मुझे रहती थी। शार्ट केस हों या लाँग केस, अस्पताल में कुछ भी मुझसे छिपा हुआ नहीं था। एम ० डी ० की परीक्षा में इसके अलावा कुछ विशेष था नहीं। किताबें पढता था। क्लिनिक कक्षाओं में जाता था। स्पेशल क्लिनिक सेशन में सक्रियता से प्रश्न पूछता था। एम ० डी ० की तैयारी के नाम पर वार्ड में काम न करने की बात मुझे कभी समझ में नहीं आई।

ये सभी काम करते हुए व्यस्तता बनी रहती थी। व्यस्तता परीक्षा में विलंब के बाद भी उसी तरह बनी रही। मगर पाँच साल गुजर जाने के बाद लगता था कि मीनू से बात करने के लिए मजबूरी में की गई टाल-मटोल वैसे ही बहुत हो चुकी है। तीन महीने लगने का अर्थ है, नब्बे दिन। एक-एक गुजरता हुआ दिन मुझे भारी महसूस होता था। मुझे लगता था कि पाँच साल तक मीनू के प्रति किया गया अत्याचार तीन महीने और करूँगा तो यह दुष्कृत्य की श्रेणी से निकलकर महादुष्कृत्य की श्रेणी में आ जाएगा। मीनू से चर्चा नहीं की थी। मेरे एम ० डी ० हो जाने या नौकरी मिलने का इंतजार वह नहीं कर रही थी। इसलिए एकांतिक प्रतीक्षा में तीन महीने की वृद्धि मुझे और भी अखरती रही। मेरी व्यस्तता देखकर, पहले की तरह मुझे सक्रिय देखकर किसी को महसूस चाहे न हुआ हो, किंतु सच्चाई यह है कि ये तीन महीने, इससे पहले बिताए पाँच वषोर्ं से भी लंबे लगते रहे मुझे।

1956 में इंटर करने के बाद मीनू ने पढना बंद करके कपड़ों की सिलाई का एक कारखाना शुरू किया। घर में यद्यपि उसको किसी से शिकायत नहीं थी किंतु सारी उम्र एक बच्ची के साथ पिता या भाइयों पर आश्रित रहना उस जैसी लडकी के लिए संभव नहीं था। दूसरे विवाह के लिए काकी और अम्मा ने अलग-अलग और संयुक्त रूप से मीनू से बात की थी। दुःख-सुख, हारी-बीमारी, बच्ची की शिक्षा, उसका पालन-पोषण और सबसे बढकर शरीर के तकाजे। मीनू चुपचाप सुनती रहती थी। अंत में हर बार एक ही बात कहती थी, ‘‘आप मेरी चिंता मत करिए। मैं शादी नहीं करूँगी।"

बच्ची साथ थी। नौकरी पता नहीं कब मिले? पता नहीं कहाँ मिले? पता नहीं कैसी मिले? काका भोजामल और काकी नहीं चाहते थे कि मीनू उनकी आँखों से दूर हो जाए। सब कुछ सोचकर घर के पास में एक कमरा लेकर दो सिलाई मशीनें खरीदकर काका ने रेडीमेड कपड़ों की दुकान से काम की व्यवस्था की। सिलाई, कशीदा, रसोईघर के सारे काम सिंधी परिवारों में लड़कियों को बचपन से ही सिखाना शुरू कर देते हैं। मीनू के लिए सिलाई समस्या नहीं थी। इस काम में सिलाई की समझ जरूरी थी, स्वयं मशीन पर बैठकर सिलाई करने की जरूरत नहीं थी। कपड़ा नमूने के अनुसार काटकर मीनू कारखाने में बैठकर काम करने वाली महिलाओं को सिलाई के लिए देती है। . महिलाएँ कारखाने में आकर उससे कटे हुए कपडे़ ले जाती हैं। तैयार माल को मीनू जाँचकर देखती है। कमी होती है तो दुरुस्त कराती है और दुकानदार को दे देती है। प्रारंभ में काका भोजामल स्वयं दुकानदार से कपड़ा लाने और सिलाई हो जाने के बाद पहुँचाने का काम करते थे। दुकानदार से लेन-देन भी वही करते थे। कारखाने में या अन्यथा काम करने वाली महिलाओं को जितनी सिलाई उन्होंने की, उसके आधार पर भुगतान करके मीनू कापी में लिख लेती थी। बाद में जिद करके दुकानदार के पास कपड़ा लेने, सिले हुए कपड़े पहुँचाने और पैसों का हिसाब करने भी मीनू जाने लगी। काम शुरू किए दो वषोर्ं से ज्यादा हो गए हैं। आमदनी ठीक है। काका भोजामल, काकी और स्वयं मीनू संतुष्ट हैं। आर्थिक दृष्टि से किसी पर बोझ बने रहने की चिंता अब मीनू को नहीं है। सब लोग यह जरूर चाहते हैं कि मीनू पुनर्विवाह करने के लिए तैयार हो जाए। मैं समझता हूँ, उनकी यह इच्छा भी जल्दी पूरी हो जाएगी।

एम ० डी ० की परीक्षा और परिणाम के बीच में जो चौदह दिन मिले, उसमें से अधिकांश समय मैंने स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के कार्यालय में काम किया। स्वास्थ्य शिक्षा के लिए जो सामग्री ट्रस्ट में थी, उसे संशोधित करके तैयार करने की जरूरत काफी दिनों से महसूस होती थी। कुछ नए पैंफलेट, ब्रोशियर लिखने थे। प्रचार सामग्री, पोस्टरों का स्वरूप बदलना था। टीकाकरण, घर और शरीर की सफाई, कपड़ों की धुलाई, बीड़ी व तंबाकू का प्रयोग, पानी का शुद्धिकरण, कुंओं का रख-रखाव, गर्भवती की देखभाल, विभिन्न आयु वर्ग के शिशुओं की सार-सँभाल, बच्चे को स्तनपान कराने की विधि, पर्याप्त मात्रा में पानी का इस्तेमाल, चोट लगने पर टिटनेस का इंजेक्शन जैसे विषयों पर तुरंत संदर्भ-पुस्तिका तैयार करनी थी। प्राथमिक चिकित्सा के लिए प्रशिक्षण शिविर आयोजित करने का सघन कार्यक्रम प्रस्तावित था। उसके लिए पृष्ठभूमि सामग्री तैयार करनी थी। उन चौदह दिनों में मैंने यह सारे काम निपटाए।

निदेशक, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा विभाग में नौकरी के लिए आवेदन-पत्र पहले ही दे दिया था। आशा है कि एम ० डी ० का परिणाम आते-आते नौकरी के आदेश आ जाएँगे। शहर के किसी अस्पताल में काम करना या निजी क्लिनिक खोलकर बैठना मुझे पसंद नहीं है। मैं चाहता हूँ कि ग्रामीण क्षेत्र में जयपुर से दूर कहीं काम करने का अवसर मिले।

पिछले तीन सालों में जयपुर के इर्द-गिर्द के गाँवों में वहीं के निवासियों के सहयोग से स्वास्थ्य शिक्षा के कार्यक्रम चलाने की कोशिश की है। कुछ गाँवों में व्यवस्था जम गई है। कुछ गाँवों में अपेक्षित ढंग से ढाँचा खड़ा नहीं हुआ है। मैं स्वयं बहुत कम किसी गाँव में जा पाया हूँ किंतु ट्रस्ट के कार्यकर्ता गाँवों में जाते रहे हैं। गाँव के किसी समझदार, प्रतिष्ठित, वरीयतः पढे-लिखे एक व्यक्ति का चुनाव करके ट्रस्ट की ओर से स्वास्थ्य शिक्षा से संबंधित सारी सामग्री उसे सौंप दी जाती है। उस सामग्री को पढकर गाँव के लोगों से वह उसकी चर्चा करता रहता है। इस काम के लिए किसी से अतिरिक्त समय देने के लिए नहीं कहा जाता है। चौपाल पर बातचीत में, खेत की मेढ पर सुस्ताते समय, तैयार खेत की रखवाली के दौरान, शादी-विवाह में, किसी उत्सव या मेले में वह व्यक्ति अपना अर्जित ज्ञान दूसरों को देने की चेष्टा करता है। स्वास्थ्य की दृष्टि से किस स्थिति में क्या करना चाहिए, वह सलाह देता है।

दाई से कहता है कि जापे के बाद नाल या तो ब्लेड को पानी में उबालकर उससे काटो या चाकू को पानी में उबालकर काम में लो। फावड़ा, खुरपी जैसी चीजों का इस्तेमाल नाल काटने में मत करो। कुत्ते या साँप ने काटा है तो ओझा बुलाकर झाड़ा भले ही डलवाओ, लेकिन शहर के अस्पताल में भी दिखा दो। शहर के अस्पताल में आकर वे सीधा ट्रस्ट के कार्यालय में संपर्क करते हैं। अपनत्व के साथ रास्ता दिखा दिया जाए, इससे ज्यादा कुछ चाहते कहाँ हैं वे लोग? मैं चाहता हूँ कि ग्रामीण क्षेत्र में नौकरी करते हुए गाँवों में रहने वालों की चिकित्सा संबंधी जरूरतों की देखभाल करूँ ताकि शहर के अस्पताल में वे तभी आएँ जब बहुत जरूरी हो। स्वास्थ्य शिक्षा कार्यक्रम का क्षेत्र में ढाँचा खड़ा करके मैं ठीक प्रकार से चलाता रहूँगा। विवाह के तुरंत बाद मीनू शहर से निकल जाएगी तो मानसिक दृष्टि से उसके लिए भी ठीक रहेगा।

स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के मुख्य ट्रस्टी और ट्रस्टी पहले भी कहते रहे थे, मगर एम ० डी ० की परीक्षा हो जाने के बाद उन्होंने जोर देकर सरकारी नौकरी न करके मुझे ट्रस्ट में नौकरी करने के लिए कहा है। काम मेरी रुचि का है। ट्रस्ट की स्थापना मेरे प्रयासों से हुई है। ट्रस्ट के कार्य-कलाप प्रभावशाली ढंग से चलें, यह बात मैं संपूर्ण हृदय से चाहूँगा। शहर में रहना, न रहना मेरे लिए महत्त्वपूर्ण नहीं है। प्रस्ताव है कि मैं ट्रस्ट के निदेशक के रूप में काम कर सकता हूँ। गाँवों में स्वास्थ्य शिक्षा के साथ स्वास्थ्य सेवा की योजना भी बनाई जा सकती है। मुख्यालय शहर में रखूंगा या किसी गाँव में, यह मेरी मरजी पर निर्भर करता है। वेतन जो मैं माँगूँगा, वेतन-वृद्धियाँ मैं जिस तरह से तय करूँगा और भत्ते जो मैं लेना चाहूँगा, ट्रस्ट दे देगा।

काम सचमुच मेरी रुचि का है। वेतन, व्यावसायिक संतोष, सोद्‌देश्यता समाज-सेवा सभी दृष्टियों से प्रस्ताव अच्छा है। मगर भविष्य में आने वाले दायित्वों की बात सोचता हूँ तो लगता है कि सरकारी नौकरी करना ट्रस्ट की नौकरी करने से ज्यादा ठीक रहेगा। ट्रस्ट के साथ आज ताल-मेल अच्छा है। कल किसी कारण से संबंध खराब हो जाते हैं। नौकरी छोड़नी पड़ती है तो अपनी जिम्मेदारियाँ किस तरह निभाऊंगा? ट्रस्ट में नौकरी करूँगा तो ट्रस्ट के माध्यम से जो कुछ करना चाहता हूँ, उसे तेज गति से कर सकूंगा। सरकारी नौकरी करूँगा तब भी यथाशक्ति ट्रस्ट के उद्‌देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयत्नशील रहूँगा। मेरे ऊपर जो पैसा ट्रस्ट खर्च करेगा, उसका उपयोग कहीं अन्यत्र हो सकेगा। यदि दायित्वों के तकाजे न होते तो मैं ट्रस्ट की नौकरी सरकारी नौकरी के मुकाबले ज्यादा पसंद करता। अनबन होने पर नौकरी छोड़ने की नौबत आ सकती है, इस खतरे के बाद भी ट्रस्ट की नौकरी का चुनाव करता। अम्मा-बाबा को आर्थिक दृष्टि से मेरी तरफ देखने की जरूरत नहीं है। आवश्यकता हो चाहे न हो किंतु हर एक माता-पिता की यह इच्छा होती है कि बेटा कमाकर रुपया उन्हें लाकर दे। अम्मा-बाबा भी इसके अपवाद नहीं हैं। मगर मैंने कुछ नहीं दिया, तब भी उनको किसी परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा। विवाह करूंगा। उसके बाद मीनू और उसकी बच्ची को किसी प्रकार की तकलीफ न हो यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी तो मेरी है।

एम ० डी ० का परिणाम घोषित होने के दो दिन बाद, कल ही नियुक्ति-पत्र मिला है। एम ० डी ० का परिणाम परीक्षा की समाप्ति के साथ ही संकेत देकर बता दिया गया था, इसलिए औपचारिक घोषणा ने उतना रोमांच नहीं दिया जितना एम ० बी ०, बी ० एस ० के दौरान परिणाम की घोषणा से मिला था। नौकरी के आदेश ने वह रोमांच जरूर दिया है। चित्तौड़गढ़ जिले के एक छोटे गाँव में सी ० ए ० एस ० के रूप में नियुक्ति मिली है। चित्तौड़ से दो बसें बदलकर कोई दो फलार्ंग पैदल चलकर उस गाँव में पहुँचा जा सकता है। ऐसे ही किसी शहर से पूरी तरह कटे, चिकित्सा सेवाओं से अब तक महरूम रहे छोटे गाँव में मैं नियुक्ति चाहता था। रोगियों की सेवा का बेहतरीन सुख और स्वास्थ्य शिक्षा का सघन काम, मेरी ये दोनों इच्छाएँ जिस जगह पूरी हो सकती हैं, ऐसे ही गाँव में नियुक्ति हुई है। .

मीनू से विवाह की बात करने का सवा पाँच साल पहले लिया हुआ संकल्प पूरा करने का समय आ गया है। अब मीनू से बातचीत करने के लिए अम्मा को काका भोजामल के घर भेजने की जरूरत नहीं है। मीनू रेडीमेड कपड़ों की सिलाई का कारखाना चलाती है। सिलाई करने वाली महिलाओं से काम कराती है। उनको हिसाब करके काम का भुगतान करती है। दुकानदार से कपड़ा लेकर आती है। दुकानदार को सिले हुए कपड़े देकर आती है। मोल-भाव करती है। अपने काम का पारिश्रमिक लेती है। मीनू अब घर में कैद रहने वाली काका भोजामल, काकी, अपने भाइयों और भाभियों पर निर्भर एक तलाकशुदा औरत मात्र नहीं है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व है अब।

मैं मिठाई लेकर कल शाम को ही काका भोजामल के घर गया। काकी के पाँव छूकर एम ० डी ० में उत्तीर्ण होने और नौकरी मिलने की खबर दी। फिर डिब्बा खोलकर मिठाई का टुकड़ा उनके मुँह में डाला। गाँव में नियुक्ति की बात सुनकर काकी को अच्छा नहीं लगा। कहने लगीं, ‘‘इतना पढ़-लिखकर, बड़ा डॉक्टर बनकर भी अगर इकलौता लड़का गाँवों में धक्के खाता रहेगा तो क्या फायदा हुआ इतना पढने से? इससे अच्छा तो यह होता कि तू यहीं अपना दवाखाना खोल लेता। भाऊ क्या कहते हैं?"

‘‘फिलहाल होकर आता हूँ काकी। ये बातें बाद में देखते रहेंगे। मीनू तो कारखाने में होगी?" मैंने काकी की बात को टाल दिया।

‘‘हाँ वहीं है। तू कुछ खा-पी ले तो ले चलती हूँ।"

‘‘खाना-पीना क्या है, काकी? आप उठिए।"

‘‘अरे, कैसी बातें करता है तू? खुशखबरी लेकर आया है, मुँह भी मीठा नहीं करेगा?"

वे उठकर गईं और दस मिनट में समोसे और बरफी लेकर लौट आईं। प्लेटों में डालकर मेरे सामने रखते हुए काकी ने पूछा, ‘‘तू चाय पीएगा या सोडा?"

‘‘काकी, आपका मन रखने के लिए थोड़ा-बहुत खा लेता हूँ। पीऊंगा कुछ भी नहीं।"

काकी ने बहुत आग्रह किया लेकिन मैंने बरफी की एक चक्की खाकर पानी पीया और चलने के लिए उठकर खड़ा हो गया।

‘‘तूने समोसों को तो हाथ ही नहीं लगाया?"

‘‘आपने मुँह मीठा करने की बात कही थी न! समोसे से तो मुँह नमकीन हो जाएगा।" मैंने मजाक में उनकी बात को उड़ाया, ‘‘अब आप जल्दी उठिए।"

कतरनों, सिले हुए कपड़ों और कटिंग के लिए फैले थानों से घिरी मीनू मुझे कारखाने में देखकर चाैंक गई, ‘‘तुम? तुम कैसे आए यहां?"

‘‘काकी के साथ आया हूँ।" मैं मुसकराया।

हड़बड़ाहट में पूछे गए सवाल और मेरे जवाब पर वह भी मुसकराई। उसने इधर-उधर देखा। कारखाने में कुरसी नहीं थी। दो स्टूल थे जिन पर बैठकर दो औरतें सिलाई कर रही थीं। एक औरत को उसने स्टूल से उठने का इशारा किया और स्टूल उठाकर अपने तख्त के पास रखते हुए बोली, ‘‘आओ, बैठो।"

‘‘बैठूंगा नहीं। बताने आया था कि एम ० डी० भी हो गया हूँ और नौकरी भी मिल गई है।"

‘‘बधाई हो। इतनी अच्छी खबर लेकर आए हो, एक नहीं एक साथ दो-दो। फिर बैठोगे क्यों नहीं?"

‘‘बैठूंगा इसलिए नहीं क्योंकि कल तुम्हें हमारे घर आना है। वहीं बातें करेंगे।"

‘‘कोई खास बात है कल?"

‘‘हां, खास बात है तभी तो कह रहा हूँ।"

‘‘कल कब आना है?"

‘‘समय तुम बताओ।"

‘‘दुकानदार के पास सुबह ग्यारह बजे जाना है। उससे पहले आ जाऊँगी। ठीक है?"

‘‘ठीक है। आओ काकी, चलें।" मैं दरवाजे की तरफ मुड़ गया।

काकी को महसूस हुआ शायद कि दूसरे दिन आने की बात मैंने केवल मीनू से ही क्यों कही? उनसे क्यों नहीं कही? कारखाने से बाहर निकलते ही काकी ने पूछ लिया, ‘‘कल घर में कोई कार्यक्रम रखा है क्या?"

‘‘नहीं, मीनू कई दिनों से घर आई नहीं है। इसलिए कह दिया उसे आने के लिए।" काकी के मन के संशय को पहचानते हुए मैंने स्पष्ट किया।

घर लौटकर मैंने अम्मा को सारी बात बताई। ‘‘कल मीनू को क्यों बुलाया है? कोई काम है उससे?"

‘‘है, उससे शादी के बारे में बात करना चाहता हूँ। तुम तरीके से सब इंतजाम कर देती हो अम्मा। इसलिए उसको यहीं बुला लिया।" मैंने मुसकराते हुए कहा।

जवाब में अम्मा भी मुसकराई, ‘‘कब आएगी?"

‘‘यही कोई ग्यारह बजे।"

‘‘ठीक है। शादी के बारे में तेरी कल मीनू से बात हो जाए तो अच्छा है। नौकरी पर जाने के बाद तेरे आने-जाने का कोई पता नहीं रहेगा।"

आज अपने बताए हुए समय के अनुसार करीब ग्यारह बजे मीनू आई थी। मुश्किल से दस मिनट अम्मा साथ बैठी हाेंगी। इसके बाद यह कहते हुए अम्मा उठ गई कि ज्यादा देर तो तू बैठ नहीं सकेगी, तेरे लिए कुछ ले आऊँ। मीनू, अम्मा को रोकती रह गई मगर उसकी तरफ ध्यान न देकर अम्मा तुरंत घर से निकल गई। अम्मा के जाते ही मैंने मीनू से पूछा, ‘‘काम-काज कैसा चल रहा है?"

‘‘मेहनत जरूर करनी पड़ती है, लेकिन यह सोचकर संतोष होता है कि मैं अब किसी के ऊपर बोझ नहीं हूँ।"

संयोगवश पहले ही औपचारिक प्रश्न ने मुझे बात का रुख अपनी तरफ मोड़ने का अवसर दे दिया, ‘‘जिसे तुम बोझ कहती हो उसे क्या अधिकार में नहीं बदला जा सकता?"

मीनू ने मेरी आँखों में देखा। मेरे प्रश्न को वह समझ गई थी, ‘‘तुमसे तो मैंने कुछ भी नहीं छिपाया है, फिर यह सवाल क्यों पूछ रहे हो?"

‘‘मुझसे कुछ नहीं छिपाया है, यह सवाल इसीलिए पूछ रहा हूँ।" मैं मुसकराया। मेरी बात का निहितार्थ मीनू की समझ में नहीं आया।

‘‘आज से पाँच साल चार महीने पहले अपने तलाक के बारे में बताते हुए तुमने कहा था कि हम इस जन्म में नहीं मिल सके तो क्या हुआ, दूसरे जन्म में मुझे पाने का अधिकार तुम छोड़ना नहीं चाहतीं। कहा था न?"

‘‘हाँ, कहा था।"

‘‘अब भी तुम वैसा ही सोचती हो?"

‘‘हाँ।" मीनू के स्वर में दृढता थी।

‘‘उसी दिन मैं तुम्हारे पति से बात करने गया था, तुम जानती हो।"

‘‘हां।"

‘‘उन्होंने तुम्हारे बारे में जब मुझसे बात नहीं की तो उस दिन मैंने एक फैसला किया था।" मीनू निगाहों में प्रश्न भरकर मेरी ओर देखती रही। ‘‘मीनू, उस दिन मैंने तय किया था कि पाँच साल बाद तुम्हारा और मेरा अगला जन्म हो जाएगा।"

‘‘तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आ रही है।"

‘‘मुझे मालूम था कि पाँच साल बाद एम ० डी ० करके नौकरी मिल जाएगी। वह समय आ गया है। अब तुम्हें किसी के ऊपर बोझ बनकर रहने की जरूरत नहीं है। मैं तुमसे विवाह करूँगा। हमारा पुनर्जन्म आज होगा।"

‘‘तुम्हें याद हो तो उसी दिन मैंने यह भी कहा था न, कि तुम्हारे ऊपर तोहमत लगे, यह बात मैं बरदाश्त नहीं कर सकती?"

‘‘लोग कहते हैं तो कहते रहें। हमारी चिंता जब दुनिया नहीं करती तो हम दुनिया की चिंता क्यों करें?"

‘‘दुनिया की चिंता करती तो तलाक से बचने के लिए कुछ और हाथ-पांव मैं भी मारती। मुझे दुनिया से ज्यादा चिंता तुम्हारी है, तुम्हारे सम्मान की है।"

‘‘तुमसे विवाह करके मेरा सम्मान कम नहीं होगा, मीनू। मुझे नौकरी दूर-दराज के गाँव में मिली है। वहाँ तुम्हें और मुझे कोई नहीं जानता। हम आज विवाह करते हैं और कल यहाँ से निकल चलते हैं।"

‘‘मेरे तलाक के लिए तुम दोषी नहीं हो। सारी दुनिया चाहे तुम्हें दोषी ठहरा दे लेकिन मैं जानती हूँ कि तुम्हारे कारण मेरा तलाक नहीं हुआ है। मुझसे शादी करके मेरे तलाक का दोष तुम अपने सिर पर उठा लो, यह मुझसे नहीं होगा। मुझे कमजोर मत समझो। तुम्हें पाने के लिए एक जन्म में तपस्या करने की सामथ्य मुझ में है।"

मीनू उठ खड़ी हुई। धीरे-धीरे चलती हुई दरवाजे पर आकर रुकी। भरपूर नजर डालकर कुछ क्षण मुझे देखती रही। उसकी आँखों में प्यार का सागर ठाठें मार रहा था। फिर वह चली गई। अम्मा अभी तक बाजार से लौटी नहीं थीं।

विवाह से इनकार करके मीनू मेरा अपराध-बोध बढा गई। मेरी तरफ अँगुली उठाने का अवसर वह किसी को देना नहीं चाहती। इसलिए मुझसे विवाह नहीं करती। मुझसे प्यार करती है। जन्म-जन्माँतर से मुझसे पति-पत्नी का संबंध मानती है। इसलिए पुनर्विवाह की बात स्वीकार नही करती। दूसरे जन्म में मुझे पति के रूप में पा सके, इसलिए इस जन्म में तपस्या करना चाहती है। जन्म-जन्माँतर से पति-पत्नी के रिश्ते को लेकर जो विश्वास उसके मन में है, वह वहम है या सच, मुझे नहीं मालूम। एक जन्म के बाद पुनर्जन्म होता भी है या नहीं, मुझे नहीं मालूम। किंतु इतना समझ सकता हूँ कि उसके कष्टों का कारण मैं हूँ। मुझसे विवाह नहीं करती है, तो मेरे कारण। किसी दूसरे से विवाह नहीं करती है, तो मेरे कारण। पति ने चाहा था कि राखी बाँधकर संदेह समाप्त करने का प्रयास करे। इस बात को उसने स्वीकार नहीं किया, तो मेरे कारण। अगला जन्म होगा तो मीनू और मैं दुनिया के किस कोने में किस रूप में जन्म लेंगे? एक-दूसरे से मिलेंगे या नहीं? सभी प्रश्नों के उत्तर अनिश्चित हैं। अनिश्चित दूसरे जन्म के लिए निश्चित रूप से हुए इस जन्म को बूंद-बूंद कर गला देना चाहती है मीनू, केवल मेरे कारण। मुझे उसकी अवधारणा पर न पूरा विवास है ओर न पूरा अविश्वास। किंतु उसे दृढ विश्वास है कि पुनर्जन्म होगा। पूर्व जन्मों की तरह मैं उसे पति के रूप में मिलूँगा। मैं स्वयं जब विश्वास और अविश्वास के झूले में झूल रहा हूँ तो उसके दृढ़ विश्वास को चुनौती देने का साहस कहाँ से लाऊँ?

अपने वहम के कारण या अपने विश्वास के कारण मीनू जो जीवन जीने के लिए अभिशप्त है, उसका एक मात्र कारण मैं हूँ। पति ने उसे तलाक दिया, यह शायद बहाना है। मीनू को इसलिए तलाक का कोई अफसोस नहीं है। विवाह हुआ। एक वर्ष पति के साथ रहना पड़ा। पति के साथ शारीरिक संबंध बने। बच्ची को जन्म दिया। मीनू एक दुर्घटना के रूप में लेती है इन बातों को। स्वाभाविक रूप से जो होना चाहिए था, नहीं हुआ। अस्वाभाविक रूप से प्रयत्नपूर्वक जो हुआ, वह चल नहीं पाया। इस जन्म में वियोग भाग्य में लिखा था। दुःखी मन से स्वीकार करने की बजाय नियति के लिखे को खुशी से मानते हुए दूसरे जन्म का इंतजार करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है मीनू। कल माता-पिता नहीं रहेगे। भाई-भाभियां उपेक्षा और तिरस्कार कर सकते हैं। मीनू किसी के ऊपर बोझ बनकर नहीं रहना चाहती। पूरा जीवन इसी तरह गुजारने का निर्णय उसका अपना है। अच्छा या खराब, भला या बुरा जैसा भी, उसके विश्वासों की नींव पर खड़ा है यह निर्णय। जीवन में कभी किसी को इस निर्णय की भर्त्सना करने का अधिकार नहीं देना चाहती मीनू।

विश्वास के वजीर की इतनी मजबूत किलेबंदी की है मीनू ने। आयु का, शिक्षा का, रुपयों का, विश्वास का कोई हथियार जिस मीनू के पास नहीं था, उसने पाँच वषोर्ं में एक ऐसे दुर्ग की रचना कर ली है जो अभेद्य है। जिसका दरवाजा तब तक नहीं खुलेगा, जब तक वह नहीं चाहेगी। उसके विश्वास के वजीर का प्राण मैं हूँ। एम० डी ०। समर्थ। योग्य। मेधावी। सरकारी नौकरी का नियुक्ति-पत्र मेरी जेब में है। मीनू के विश्वास के वजीर का प्राण होते हुए भी मीनू ने किले की दीवारें चुनते समय मेरी एम ० डी ०, मेरी सामर्थ्यों मेरी योग्यता, मेरी मेधा, मेरी नौकरी से कोई मदद नहीं ली। मैंने अपनी ओर से सब कुछ देना चाहा था उसे। लेकिन उसने लिया नहीं। अपने बूते पर बनाए किले में बैठकर विश्वास के वजीर की जीवन-भर रक्षा करेगी मीनू। उस विश्वास के वजीर की, जिसका प्राण मैं हूँ।

मीनू इतने कम साधन होते हुए भी इतना कठिन काम करने का संकल्प ले सकती है। मेरे कारण ले सकती है। तो क्या मेरा कोई दायित्व नहीं है? मीनू जीवन-भर यज्ञ की अग्नि को प्रज्वलित रखने के लिए तिल-तिल समर्पित होती रहेगी और मैं उसकी आँच में हाथ तापकर सुख प्राप्त करता रहूँगा। मुझे जिस अप्रतिम विश्वास का केंद्र बनाकर वह अगले जन्म की प्रतीक्षा करने को प्रस्तुत हुई है, उसकी रक्षा क्या मुझे नहीं करनी चाहिए? तपस्विनी बनकर वह जिस पुनीत लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधना करने निकल पड़ी है, उस लक्ष्य को मीनू की तपस्या का प्रतिदान क्या बिलकुल नहीं देना चाहिए? वह कहे या न कहे, वह चाहे या न चाहे, वह स्वीकार करे या न करे किंतु उसकी तपस्या मेरी भी तपस्या है। उसकी साधना मेरी भी साधना है। उसकी अग्नि मेरी भी अग्नि है। उसकी चिंता मेरी भी चिंता है। मीनू से अलग करके में अपने आपको देख नहीं सकता। उसकी गति में हो मेरी गति है।

करनी ही है तो तपस्या अकेली मीनू क्यों करे? जन्म-जन्माँतर के संबंधों वाला सूत्र भले ही उसका हो किंतु चाहता तो मैं भी हूँ उसे। उसकी आँखें अगर मुझे देखकर अगाध प्रेम से परिपूर्ण हो जाती हैं तो मेरा हृदय भी उसके लिए प्यार से छलकता रहता है। क्या हुआ अगर हमने प्रेम को शब्द नहीं दिए? क्या हुआ अगर हम एक-दूसरे के शरीरों को अपना नहीं कह सकते? मन के रिश्ते क्या रिश्ते नहीं होते? ताली हो या चुटकी, बजाएंगे तो दो हाथ या दो अँगुलियां मिलकर ही। मैं पहला या दूसरा आदमी तो हो सकता हूँ लेकिन तीसरा आदमी कैसे हो सकता हूँ?

मुझे अहसास है कि अम्मा-बाबा मेरे फैसले से दुखी होंगे। उनका एक मात्र पुत्र यदि विवाह नहीं करता तो उनके सपने टूट जाएँगे। वंश की बेल आगे नहीं बढेगी तो उन्हें लोक-परलोक व्यर्थ अनुभव होंगे। मुझे अहसास है कि मीनू भी मेरे फैसले को पसंद नहीं करेगी। संभव है वह मुझे फैसला बदलने के लिए कहे। वह दलील देगी कि मुझसे जन्म-जन्माँतर के संबंधों की बात उसका अपना विश्वास है। इस सोच को संपूर्ण आस्था के साथ मैं नहीं मानता। जिस धारणा पर पूरा विश्वास नहीं है, उसके लिए मैं विवाह न करूँ, यह अनुचित है। अपने विश्वास की नाव वह खे रही है। ऐसा करने का उसे नैतिक अधिकार है। मैं किस अधिकार से उसका साहचर्य निभाना चाहता हूँ? उसके साथ दलीलों में उलझने की मुझे कोई जरूरत नहीं है। मैं स्पष्ट हूँ कि ये पैमाने मीनू के लिए और मेरे लिए अलग-अलग नहीं हो सकते। मेरे लिए यदि मीनू की जिंदगी यज्ञ की समिधा बन सकती है तो उसके लिए मेरी जिंदगी को यज्ञ की समिधा बनना ही होगा। नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों की अवज्ञा मैं नहीं कर सकता।

अब सरकारी नौकरी करने की भी कोई सार्थकता नहीं है। सरकारी नौकरी की सुरक्षा का वरण मैं किसके लिए करूँ? अम्मा-बाबा को मेरे पैसों की जरूरत नहीं है। फिर भी जो बन पडे़गा, समर्पित करके उनकी अपेक्षाओं को पूरा करने की चेष्टा सरकारी नौकरी न करके भी कर सकता हूँ। अपनी आजीविका के लिए मुझे कितना चाहिए? एम ० डी० हूँ। कहीं भी बैठकर इतना कमा सकता हूँ कि मेरी जरूरतें पूरी हो जाएँ। कहीं जगह न मिले तो अम्मा-बाबा के साथ रह सकता हूँ। सुरक्षा-असुरक्षा का क्या महत्त्व है अब मेरे लिए? जब तक जीऊँगा, काम करूँगा। रोगियों की सेवा करने की पात्रता मुझ में है। स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट मेरी मानस संतति है। पाल-पोसकर उसको आगे बढाऊँगा। मीनू के विवाह से इनकार का सबसे बड़ा लाभ शायद इसी में निहित है।

मीनू मानती है कि इस जन्म में दुर्घटनावश उसका और मेरा मिलन नहीं हुआ। मैं भी मान लेता हूँ कि मेरा यह जन्म स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के लिए हुआ है। नौकरी करते हुए मैं ट्रस्ट को पूरा समय नहीं दे पाता। विवाह होता। बच्चे होते। गृहस्थी के, समय और पैसे की दृष्टि से तकाजे होते। दायित्वों से भागने की आदत नहीं है। बच्चों की, गृहस्थी की जरूरतें पूरी करने के लिए, संभव है स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट का काम करने के लिए पर्याप्त समय मैं नहीं निकाल पाता। आज सोचता हूँ गाँवों में रहकर मरीजों की सेवा के साथ स्वारथ्य-शिक्षा पर ध्यान दूंगा। कल बच्चों की शिक्षा का प्रश्न खड़ा होता। उनकी हारी-बीमारी, उनके सुख-दुःख, उनकी सुविधा-असुविधा का प्रश्न खड़ा होता। संभव है, मैं शहर की तरफ भागता। वही सब करने लगता जिसे देख-देखकर आज चिढ़ता हूँ। अब रिथर चित्त से ग्रामीण क्षेत्रों में मरीजों की सेवा और स्वास्थ्य शिक्षा का काम करता रहूँगा। एक मीनू का यह जन्म सुखी बनाने के लिए अनेक लोगों के सुखों की बलि ले लेता। सेवा और व्यक्तिगत सुख-दुःख अलग रहें तो अच्छा है।

विवाह न करके मैं मीनू के प्रति अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करूँगा। यह मेरा व्यक्तिगत सरोकार होगा। विवाह न करके मैं ग्रामीण क्षेत्र के मरीजों की सेवा करूँगा। स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के उद्‌देश्यों को पूरा करने के लिए काम करूँगा। यह मेरा सार्वजनिक और सामाजिक सरोकार होगा। कुल मिलाकर विवाह न करके मैं व्यक्तिगत, सार्वजनिक और सामाजिक सभी सरोकार पूरे करूँगा। अविवाहित जीवन के सुख-दुःख और शरीर की माँग जितना मीनू को सताएँगे उससे कुछ कम ही सताएँगे मुझे। मीनू के सामने ललचाई नजरों से अपने आपको बचाकर जीने की अतिरिक्त चुनौती है। अर्थोपार्जन की सामर्थ्य मीनू में मुझसे कम है। मीनू को एक बच्ची का जीवन सँवारना है। नारी होने के नाते अनेक अधिकार समाज मीनू को नहीं देता। सच यह है कि विवाह न करके भी मैं मीनू के साथ आधे-आधे की नहीं, तीन चौथाई-एक चौथाई की हिस्सेदारी निभाऊंगा।

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(17)

31 मार्च, 1959

कल से स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के साथ जुड़ रहा हूँ। जुड़ा हुआ तो प्रारंभ से हूँ, अब पूरे समय के लिए जुड़ रहा हूँ। अब तक संतोष के रूप में ट्रस्ट से अपना पारिश्रमिक लेता था। कल से संतोष के साथ भरण-पोषण के लिए भी ट्रस्ट पर निर्भर हो जाऊंगा। ट्रस्ट मुझे मेडीकल कॉलेज के रीडर को मिलने वाला मासिक वेतन, भत्ते, वेतन वृद्धि सुविधाएँ आदि देगा। मैंने तय किया है कि अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद जितना पैसा बचेगा उसे ट्रस्ट को ही गुप्त दान के रूप में सौंप दूँगा। घोषणा न मैंने इस इरादे की की है और न विवाह न करने वाले इरादे की।

राजस्थान के ग्रामीण क्षेत्र में मुख्यालय बनाने के लिए स्थान और जमीन की तलाश मेरा पहला लक्ष्य होगा। जयपुर सहित राजस्थान के बड़े शहरों में यहीं के अस्पताल के कार्यालय की तरह इकाइयाँ काम करेंगी। ग्रामीण क्षेत्रों में स्वास्थ्य शिक्षा की दृष्टि से प्रशिक्षण, बातचीत, पोस्टरों, पुस्तिकाओं, स्टिकरों, पैंफलैटों, गोष्ठियों, भाषणों आदि के माध्यम से कार्यक्रम शुरू करेंगे। कोशिश करेंगे कि प्रत्येक गाँव में यह काम करने के लिए सेवानिवृत्त और वृद्ध लोगों का सहयोग लें। धन की आवश्यकता निश्चित रूप से पड़ेगी। पाँच लाख रुपए से जो ट्रस्ट अभी बना हुआ है, उसका ब्याज इतने बड़े काम का आधार नहीं बन सकता। आर्थिक दृष्टि से राजस्थान और राजस्थान से बाहर के धनिकों को जोड़ने की चेष्टा करेंगे। इस समय स्वास्थ्य जागरण ट्रस्ट के पाँच ट्रस्टी हैं। सबसे बात हुई थी। प्रत्येक ने स्वयं और अपने स्रोतों से एक-एक करोड़ रुपए जुटाने का संकल्प लिया है।

जहाँ भी स्थापित होगा, मैं कालांतर में मुख्यालय में ही रहूँगा। वहीं एक चिकित्सा केंद्र चलेगा। चिकित्सा केंद्र में कार्यरत्‌ डॉक्टरों को वेतन आदि सरकारी नौकर के बराबर मिलेंगे। किंतु उन्हें प्राइवेट प्रेक्टिस करने की छूट नहीं होगी। उसके बदले वेतन की पचास प्रतिशत राशि प्रतिमाह नॉन प्रेक्टिसिंग अलाउंस के रूप में देने का प्रावधान होगा। चिकित्सा केंद्र में कार्यरत्‌ चिकित्सकों को परिसर में बनाए गए आवासों में ही रहना होगा। अनेक सपने हैं। उनकी पूर्ति कितनी हो पाती है, यह समय ही बताएगा। क्योंकि ये सपने मेरे अपने हैं, उधार लिये हुए सपने नहीं हैं, इसलिए मैं उन्हें साकार करने के लिए अपनी संपूर्ण क्षमता और प्रतिभा को झोंक देने के लिए कृत संकल्प हूँ।

डायरी आज अंतिम बार लिख रहा हूँ। क्यों लिखता हूँ? किसके लिए लिखता हूँ? क्या उपयोगिता है लिखने की? ये सवाल घूम-फिरकर कुछ वषोर्ं से मस्तिष्क में उठ रहे हैं। इन सवालों का एक ही जवाब है कि भविष्य में मैं डायरी नहीं लिखूँगा। अब तक लिखी हुई डायरी को मैं नष्ट नहीं करूँगा। चाहता हूँ कि मीनू के पति मेरी डायरी को पढें। मीनू की निर्दोषता का अहसास उन्हें यह डायरी करा सके, इससे बड़ी उपयोगिता इसकी क्या हो सकती है? एक तो उन्होंने पुनर्विवाह कर लिया है। दूसरा मीनू भी अब लौटकर उनके पास जाना नहीं चाहेगी। उसका विश्वास विवाह के रूप में घटित दुर्घटना को दोहराने की इजाजत नहीं देगा। इसलिए डायरी पढकर के वे मीनू को अपना लें, यह मंशा मेरी नहीं है। वे मीनू से क्षमा माँगकर गलती स्वीकार करें, इसमें भी मेरी रुचि नहीं है। मैं चाहता हूँ, उन्हें अहसास होना चाहिए कि विचार की एक जुंबिश से उन्होंने तीन जिंदगियाँ दांव पर लगा दी हैं। मीनू, उसकी बच्ची और मैं, तीनों उनकी अविवेकशीलता के शिकार हुए हैं। केवल उनके कारण मीनू ओर मैं असामान्य जीवन जीने को अभिशप्त हैं। केवल उनके कारण मीनू की बिटिया को जीवन में अनेक असुविधाजनक स्थितियों का सामना करना पड़ेगा। केवल उनके कारण मीनू के माता, पिता, भाई, भाभियाँ और मीनू से जुड़े अनेक लोगों को पीड़ा पहुँची है।

मैं प्रतिक्रियावादी नहीं हूँ। इसलिए डायरी पढ़वाकर मीनू के पति को जीवन-भर पश्चात्ताप की आग में झुलसने के लिए नहीं छोडना चाहता हूँ। बस, उन्हें अहसास हो जाए। उन्हें विश्वास हो जाए कि जीवन में एक बहुत बड़ी भूल वे कर बैठे हैं। लंबी उम्र उनके सामने पड़ी है। इस समय डायरी पढकर वे सोच-विचार और उथल-पुथल की जिस प्रक्रिया से गुजरेंगे उससे उनकी मानसिकता पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। पश्चात्ताप की भावना उनके व्यवहार में असंतुलन और अस्वभाविकता पैदा कर सकती है। यह सब मैं नहीं चाहता। मीनू के साथ उनका विवाह हुआ था। उन्होंने चाहे जो कुछ किया हो, उनके प्रति अमंगल की भावना मुझमें नहीं है। जीवन जी लें। सुख भोग लें। अधिक परिपक्व हो जाएँ। इसके बाद भेंजूगा डायरी उनके पास। गोपनीयता में मेरी आस्था नहीं है। इसलिए न इसे सुरक्षित स्थान पर रखूँगा, न अपने साथ घुमाऊँगा। घर में किताबों के साथ यह भी पड़ी रहेगी। पच्चीस साल बाद, तीस साल बाद, जब भी उचित समय आएगा, डायरी मीनू के पति के पास पहुँच जाए, यह व्यवस्था कर दूंगा।

काश, डायरी के साथ अब तक का जीवन अध्याय बंद करना मेरे लिए संभव होता!

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डायरी-लेखक ने डायरी के अंतिम पृष्ठ में जो इच्छा व्यक्त की है, उसे पूरा करने का उचित समय उसकी नजर में अब आया है। इसीलिए यह डायरी मेरे पास पहुँची है। जी हाँ, यही कबाड़ बेचने वाला मैं, मीनू का पति हूँ। मैंने ही मीनू की बात पर विश्वास न करके केवल शक के आधार पर उसे तलाक दे दिया था। दरअसल हमारी शादी के बाद एक दिन मीनू की भाभी के मुँह से यह बात निकल गई कि मीनू तो डॉक्टर पति के सपने देखती थी। मीनू से मैंने पूछा। सीधा नहीं पूछा। अनुमान लगाकर डॉक्टर के बारे में पूछा। पूछा भी इस तरह जैसे कि मुझे सारी बात मालूम है। मीनू ने मासूमियत से सारी बात बता दी। सत्रह साल की घरेलू लड़की से हेर-फेर की उम्मीद आप कर भी नहीं सकते। बात खराब तो लगी लेकिन मैंने मीनू से कुछ कहा नहीं। गृहस्थी पहले की तरह चलती रही। शादी के छः-आठ महीनों के बाद पता लगा कि डॉक्टर मेडीकल कॉलेज छात्रसंघ का महासचिव चुना गया है। मेडीकल कॉलेज छात्रसंघ का महासचिव सीधा-सादा आदमी तो हो नहीं सकता। वह एक तरह से गुंडों का सरदार होता है। आए दिन मार-पीट, आए दिन तोड़-फोड़, आए दिन दादागिरी दिखाकर चंदे की वसूली, आए दिन लड़कियों के साथ छेड़-छाड़, आए दिन सिनेमा हॉलों में हुड़दंग मेडीकल कॉलेज के लड़के करते रहते हैं। अब तो फिर भी कम हो गई हैं ये बातें, मगर उन दिनों आए दिन मेडीकल कॉलेज के लड़कों का नाम झगडे़-फसाद की वारदातों में सुनते रहते थे। ये सारे काम होते थे महासचिव की सरपरस्ती में। डॉक्टर का महासचिव बनना इस बात का सबूत था कि वह बिगड़ों का सरगना है।

इसके बाद मैंने मीनू पर जोर डालना शुरू किया। वह अपनी तरफ से हरचंद कोशिश करके मेरे शक को दूर करने की चेष्टा करती थी मगर डॉक्टर का मेडीकल छात्रसंघ का महासचिव बनना मुझे उसकी बातों पर विश्वास करने नहीं देता था। मुझे लगता था कि जरूर मीनू और डॉक्टर में अनैतिक संबंध रहे होंगे। मीनू सच नहीं बोल रही है। मीनू ने कसम खाने के लिए कहा तो मुझे लगा कि मीनू मुझे विश्वास दिलाने के लिए झूठी कसम खाएगी। आए दिन लोग ‘कसम से, कसम से' करते रहते हैं। किसी को कसम आज तक लगते नहीं देखी। मैं खुद नहीं चाहता था कि मीनू को छोड़ दूँ। इस शक के अलावा मुझे मीनू से कोई शिकायत थी भी नहीं। ऐसा नहीं है कि मैं खुद को समझाने के लिए दलीलें नहीं देता था। देता था। मगर शक के कीड़े का डंक इतना तेज था कि दलीलों का मेरे ऊपर कोई असर नहीं होता था।

कशमकश के उस दौर में मैं कभी-कभी यह कल्पना करके पागल हो जाता था कि मीनू ने इस तरह हँसी को दुपट्‌टे में छिपाते हुए तिरछी निगाहों से डॉक्टर को देखा होगा या कि डॉक्टर के आगोश में मीनू की मुद्राएँ इस तरह की रही होंगी। फाहिश और वाहियात बातें सोच-सोचकर मेरा खून -गरम हो जाता था। इच्छा होती थी, मीनू का गला घोंटकर मार दूं और अभी जाकर डॉक्टर को गोली से उड़ा दूं। कभी ऐसा भी होता था कि मन बहुत शांत होने पर मैं डॉक्टर को निर्दोष मानने के लिए दलीलें गढ़ने लगता था। जरूरी तो नहीं है कि मेडीकल कॉलेज छात्रसंघ का .हर एक महासचिव गुंडा हो। डॉक्टर बातचीत करने में बहुत शिष्ट और समझदार है। पढाई में भी सुनते हैं, तेज है। उसके ऊपर शक करना ठीक नहीं है। ऐसे ही किसी दौर में मैंने तय किया कि मीनू से डॉक्टर को राखी बाँधने के लिए कहूँगा। पहले कभी दोनों के बीच नाजायज ताल्लुकात रहे भी हैं तो शादी के बाद ऐसी संभावनाएँ राखी बाँधने के कारण खत्म हो जाएँगी।

मीनू राखी बाँधे यह फैसला कशमकश के चलते हुआ था। इसलिए जब मीनू से बात हुई तो उसे मैंने यही कहा कि राखी बाँधो, फिर विचार करूँगा। डायरी पढने के बाद लगता है कि यदि मैं ऐसा नहीं कहता तब भी मीनू डॉक्टर को राखी बाँधने के लिए तैयार नहीं होती। मीनू ने डॉक्टर को राखी बाँधने से इनकार किया तो मेरा शक विवास में बदल गया। मन में पाप नहीं है तो राखी बाँधने से इनकार क्यों करती है मीनू? मीनू के मन में पाप है। राखी बाँधने से इनकार उस इरादे की घोषणा है कि शादी के बाद भी मीनू डॉक्टर के साथ नाजायज ताल्लुकात बनाए रखेगी। डायरी पढने के बाद ही मीनू और डॉक्टर के संबंधों की गूढ़ता को मैं समझ पाया। राखी बाँधकर भाई स्वीकार न करने का अर्थ अनिवार्यतः अनैतिक संबंध होता है, यह भ्रम डायरी ने तोड़ा। डायरी जब तक नहीं पढी थी, मैं आश्वस्त था कि मीनू को तलाक देकर मैंने कोई गलत काम नहीं किया है। पढाई पूरी करने के बाद भी तलाकशुदा मीनू से डॉक्टर ने शादी नहीं की तो मुझे भरोसा हो गया कि डॉक्टर ने मीनू का शरीर इस्तेमाल किया था। उसकी गुंडई का जैसे प्रमाण मिल गया था मुझे। यह बात मैं सोच भी नहीं सकता था कि विवाह का प्रस्ताव डॉक्टर ने तो रखा था, मगर मीनू ने उसे नहीं माना था। डायरी में व्यक्त भावनाएँ, बताया हुआ घटनाक्रम ऐसा है जो दुनिया की रवायत से मेल नहीं खाता। डायरी को पढकर भी उसमें लिखी हुई बातों पर अविश्वास करने को जी चाहता है।

डायरी के अंतिम पृष्ठ में जो कुछ डॉक्टर ने लिखा है उसे और जीवन का सूरज पश्चिम की ओर जाने की उम्र में डायरी मिलने की घटना को जोड़कर देखता हूँ तो इस नतीजे पर पहुँचता हूँ कि डायरी लिखते समय डॉक्टर के सामने यह विचार नहीं रहा होगा कि मीनू से संबंधित घटनाएँ ओर भावनाएं कभी मैं भी पढूंगा। डायरी में जो कुछ लिखा है उसे गलत मानने या मिलावटी समझने का कोई कारण मुझे नजर नहीं आता है । घटनाओं, संशयों, चिंताओं के उस दौर में डॉक्टर को मेरे कारण जो तकलीफ हुई उसके लिए माफी माँगने के मकसद से मैं उसे तलाश करूँ, यह अलग बात है। वरना इसलिए डॉक्टर को तलाश करने की जरूरत नहीं महसूस होती है कि डायरी का सच जानने के लिए, मुझे उससे बातचीत करनी है। खुद को संदेह का लाभ देने की स्थिति भी नहीं लगती मुझे कि जिसके सहारेे मैं डॉक्टर से कह सकूं, ‘‘तुम्हारे अमुक बयान पर मुझे विश्वास नहीं होता।"

डॉक्टर जब मीनू के बारे में बात करने मेरी दुकान पर आया था, तब भी मेरी नजर में उसकी हैसियत गुंडों के सरगना जैसी थी। मैं उससे बिगाड़ना नहीं चाहता था। अंदर-ही-अंदर डरता था कि वह खुद मार-पीट न कर दे या उसके इशारे पर सौ-पचास लड़के आकर मेरी दुकान में आग न लगा दें। इसलिए उसके साथ बहुत सलीके से बातचीत की। उसकी मेहमान नवाजी की। उसे इज्जत दी। सच यह है कि उस समय भी मेरे दिमाग में बिच्छू रेंग रहे थे। मेरा वश चलता और मुझे उसके शोहदेपन से डर नहीं लगता तो मैं धक्के मारकर उसे दुकान से बाहर निकाल देता। उस समय या उस दौर में एक बार भी मैंने सोचा नहीं कि अगर डॉक्टर वैसा ही है जैसा मैं उसके बारे में सोचता हूँ, तो कोई नमूना उसने दिखाया क्यों नहीं? घर मिले तब तो ठीक है लेकिन दुकान पर भी उसने बेइंतिहा शराफत से बात की। पूर्वाग्रह आदमी के सोच-विचार को किस सीमा तक कुंद करके बिगाड़ देते हैं, डॉक्टर की डायरी पढने के बाद यह बात समझ में आई है। दूर खड़े होकर हम आदमी के बारे में जो कुछ सोचते हैं वह उससे बिलकुल उलटा हो सकता है। इसलिए सुनना काफी नहीं है, देखना भी काफी नहीं है। धारणा बनाने से पहले आदमी को समझना जरूरी है। अगर डॉक्टर को समझने की कोशिश मैंने उन दिनों की होती, छात्रसंघ का महासचिव बनने के बाद अपने आग्रह उस पर थोपे नहीं होते तो इतनी बड़ी दुर्घटना नही घटती।

डायरी पढने के बाद स्पष्ट रूप से अहसास हो गया है कि मैंने मीनू को उस जुर्म की सजा दी है जो उसने किया ही नहीं। अट्‌ठारह साल की उम्र में जिस लड़की को तलाक दे दिया गया हो, उसकी मनःस्थिति कितनी खराब हो जाएगी, यह मैं समझ सकता हूँ। उस समय मेरी नजर में वह सिद्ध दोषी थी। इसलिए उसकी मनःस्थिति की चिंता मैंने नहीं की। लोग उसको किस नजर से देखते होंगे, यह बात कभी जहन में नहीं आई। उसके मां-बाप, भाई-भाभियां भी इस इलजाम के साथ तलाक मिलने के बाद उसकी पवित्रता को लेकर संदिग्ध होंगे। जुबान से कुछ न कहकर भी हजार तरीकों से यह बात वे लोग कह देते होंगे। रेडीमेड कपड़ों का काम शुरू करने के बाद बाजार में दुकानदार उसे देखकर व्यंग्यपूर्वक हँसते होंगे। इशारों में उसे अश्लील आमंत्रण देते होंगे। हम भी तो कहते हैं, मिर्च नहीं होंगे तो मिर्ची की गंध कहाँ से उठेगी? मीनू के मामले में मिर्च नहीं थे, फिर भी मिचोर्ं की तेज गंध फैल गई, मेरी बदौलत।

बिटिया की शादी में भी मैं नहीं गया। स्कूल में पढते समय, बच्चों के साथ खेलते समय, बच्चों के माता-पिता की कटूक्तियाँ सुनकर बिटिया को जरूर संदेह हुआ होगा कि माँ के चरित्र में कोई दोष तो रहा ही होगा। वरना कौन अपने बसे-बसाए घर को उजाड़ता है! मैं उसकी शादी में नहीं गया तो मेरे मन में बैठी नफरत का अनुमान उसने लगाया होगा। माँ पर उसका संदेह अधिक पुख्ता हुआ होगा। डॉक्टर का मीनू से मिलना-जुलना पिछले पच्चीस-तीस सालों में कितना होता रहा है, यह मैं नहीं जानता। हो सकता है, डॉक्टर के चरित्र को भी बिटिया शक की निगाहों से देखती हो। और किसी को समझा सकूं चाहे न समझा सकूं, मगर बिटिया को तो मुझे हकीकत बतानी ही चाहिए। डायरी पढ़ने के बाद मीनू के लिए कम-से-कम इतना तो कर ही सकता हूँ मैं। मीनू से माफी मांगूंगा तो कोई अंतर नहीं पड़ेगा। मीनू के मन में मेरे के प्रति नाराजगी का भाव कभी रहा होगा, डायरी पढकर इस पर शक होता है। जिस विवाह को दुर्घटना मानकर मीनू ने निरस्त कर दिया हो, उसके खलनायक के प्रति घृणा, अवसाद, नाराजगी, नाखुशी या शिकायत मीनू के मन में अगर है, तो ताज्जुब की बात होगी। माफी माँगने उसके सामने जाऊंगा तो शायद हँस देगी। यह भी नहीं पूछेगी कि जिसे मुजरिम मानकर तुमने सजा सुनाई थी इतने साल गुजर जाने के बाद कैसे महसूस हुआ कि उसने तो कोई जुर्म ही नहीं किया? तलाकशुदा जीवन को तपस्या मानकर व्यतीत करने वाली औरत का कद, किसी तरह की माफी से बहुत ऊँचा होता है। मैं मीनू को छू नहीं पाऊंगा, तो अपनी क्षमायाचना उस तक पहुंचाऊंगा कैसे? अनकिए अपराध की सजा जिसे तोड़ नहीं पाई, मेरी माफी उसे संतोष कैसे देगी? जमाने की निगाहों, संकेतों और इरादों को झेलतेे, पचाते प्रौढ हो चुकी मीनू के लिए करने को है ही क्या मेेरे पास? मीनू के साथ जो कुछ मैंने किया है उसका प्रायश्चित्त संभव ही नहीं है शायद।

और डॉक्टर? उसकी जिंदगी तबाह करने का क्या अधिकार था मुझे? व्यक्तिगत जीवन में खुश आदमी समाज को जितना दे सकता है अपने आप से लड़ता हुआ आदमी उसका पासंग भी देने की स्थिति में नहीं होता। अपने आपको सँभालने में खर्च शक्ति का बचा हुआ हिस्सा ही तो समाज के काम में आएगा। पत्नी, बच्चों के लिए लगाया हुआ समय भले ही समाज-सेवा के लिए दिए जाने वाले समय में कटौती जैसा महसूस होता हो किंतु प्रसन्न परिवार से जो ऊर्जा मिलती है वह उस कटौती की पूर्ति कई गुना अधिक कर देती है। डॉक्टर को झंझाओं में झोंककर मैंने समाज का भी अहित किया है। डॉक्टर ने भले ही समझा दिया हो अपने आपको, किंतु विवाहित जीवन छीनकर मैंने उसके साथ-साथ अनगिनत गरीब, पीड़ित, जरूरतमंद लोगों के प्रति अपराध किया है।

पत्नी हैं, बच्चे हैं। न होते तब भी मीनू को वापस लौटने के लिए मनाना संभव नहीं होता। डॉक्टर ने मुझे पश्चात्ताप की आग में जलने से बचाने के लिए अपनी डायरी इतने समय के बाद भेजी है। पहले पता लगता तो मैं इतना असहाय और असमर्थ महसूस नहीं करता, जितना अब करता हूँ। मीनू के लिए न सही, अपनी बिटिया के लिए तो निश्चित रूप से बहुत कुछ कर सकता था मैं। उसकी शिक्षा-दीक्षा, उसका पालन-पोषण, उसका विवाह, उसकी उलझनें, उसकी परेशानियां, उसके संत्रास मेरी चिंता का विषय होते। वह अकेली मीनू की बिटिया तो नहीं है। मीनू को दोषी मानकर मैंने बिटिया को भी सजा में शामिल कर दिया। जानता हूँ, गुजरा हुआ पल वापस नहीं लौटता। जो विध्वंस मैंने किया है, उसका परिष्कार संभव नहीं है। मृत्युपयर्ंत पश्चात्ताप की आग में जलने के अलावा कोई रास्ता नहीं है मेरे पास। डॉक्टर का हृदय विशाल है। सामाजिक जीवन में काम का बहुत लंबा अनुभव है उसे। जितना बड़ा अपराध मैंने किया है उसके सौवें हिस्से को धो सकूं, तब भी मेरे अपराधी मन को राहत महसूस होगी। मुझे उम्मीद नहीं है कि डॉक्टर के अलावा कोई और मुझे रोशनी दिखा सकता है।

मृग-मरीचिका के पीछे दौड़ने से कुछ हासिल नहीं होता, किंतु यह दौड़ जिजीविषा को सहारा देती है। जो अपराध मैं कर बैठा हूँ, उसका कोई प्रायश्चित्त नहीं हो सकता। बीते समय को वापस लौटा सका है कोई आज तक? फिर भी मैं डॉक्टर को तलाश करने की कोशिश करूंगा। जब तक डॉक्टर से मुलाकात हो तब तक तो, अपने आपको धोखे में रख सकूंगा मैं!

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