अपने ही घर में (सिंधी कहानी) : ईश्वर चन्द्र
Apne Hi Ghar Mein (Sindhi Story) : Ishwar Chander
वसुधा
और उसका बच्चा ताँगे के पिछले हिस्से में बैठे रहे। सामान
उन्होंने आगे रखवा दिया। वसुधा के पिता ताँगे के आगे वाले
हिस्से में बैठ गए। जब ताँगा चलने लगा तो वसुधा को लगा कि उसका
शहर काफी बदल गया है। पाँच सालों के लम्बे अरसे के बाद इस शहर
में आई थी, जहाँ उसने अपना बचपन बिताया, जहाँ बड़ी होते-होते
बहुत से फूलों को खिलते और मुरझाते देखा था, जहाँ पक्षियों के
जोड़ों को देखकर अपनी आँखों में अनेक सपने सजाए थे, जहाँ एक
दिन सजी-सजाई डोली में बैठकर वह अपने मैके से बिछड़ गई थी।
पाँच साल बीत गए।
तब और अब में कितना फर्क़ आ गया है।
उसने रास्ते के दोनों ओर देखा। कितना बदल गया था उसका शहर!
रास्ते चौड़े हो गए थे। टाऊन हॉल के पास से गुज़रते, उसने देखा
कि सभी दुकानें पक्की हो गईं थीं। टाऊन हॉल के सामने एक बगीचा
बन गया था। बहुत सारे फूल राहगीरों की ओर देखकर मुस्करा रहे
थे। चौराहे पर सिग्नल लाइट्स लग गई थीं और रास्तों पर बीमार
बल्बों की जगह पर ट्यूब लाइट्स लटकाई गई थीं।
अपने पिता की ओर देखते हुए वसुधा ने कहा, ‘बाबा! कितना बदल गया
है अपना शहर!’
‘हाँ, बदल गया है।’ पिता ने मुख़्तसर जवाब दिया।
पिता का इतना संक्षिप्त जवाब उसे अच्छा नहीं लगा। उसे लगा,
उसके पिता कुछ सोच रहे थे।
लेकिन इन पाँच सालों में न जाने कितने सवाल उसने अपने मन की
स्लेट पर सँवार कर लिखे थे। वह भला कैसे
चुप रह पाती? पिता की ओर देखते हुए फिर पूछा :
‘संजय बड़ा हो गया होगा, कौन सी कक्षा में पढ़ता है?’
‘सातवीं में।’
‘सांतुना कैसी है?...अब तो काफ़ी बड़ी हो गई होगी? कहीं उसकी
बातचीत चलाई होगी?’
‘हाँ, एक-दो जगह चलाई है।’
वसुधा को यह सुनकर बिलकुल भी अच्छा नहीं लगा कि उसके पिता उसके
हर सवाल का इतना छोटा व मुख़्तसर जवाब दें। लेकिन फिर उसे लगा
कि उम्र बढ़ते-बढ़ते बहुत से लोगों का स्वभाव बदल जाता है।
उनकी बातों में कुछ ज़्यादा गंभीरता आ जाती है। यही सोच कर
उसने खुद को सान्त्वना दी। वसुधा ने इस बात पर से अपना ध्यान
हटा लिया। वह फिर यहाँ वहाँ, शहर के मनोरंजक स्थानों की ओर
देखने लगी। अचानक उसे लगा कि उसका बच्चा ताँगे में बैठे-बैठे
ऊँघने लगा है। शायद थकावट के कारण ठंडी बयार के लगने से उसे
नींद आने लगी थी।
वसुधा सोच रही थी, देखते-देखते चार सावन तो बीत गए थे। जब वह
हर रोज़ दरवाजे पर किसी चिट्ठी के आने के इन्तज़ार में जाकर
खड़ी होती, जिसमें पिता ने लिखा हो कि यह सावन तुम यहाँ आकर
बिताओ। पर हर सावन में उसे निराशा ही मिली। इसके पीछे जो सबब
हो सकता था, उसका भी उसे कुछ-कुछ अंदाज़ा था। अचानक उसे लगा कि
वह संकीर्ण गली आ गई थी, जहाँ बचपन में वह सहेलियों के साथ
धूल-मिट्टी की परवाह किये बिना खेला करती थी। पड़ोस की कुछ
औरतें व बच्चे, ताँगे की आवाज़ सुनकर बाहर निकल आए। वसुधा को
याद आया कि वह भी इसी तरह आवाज़ सुनकर बाहर निकल आया करती थी;
जब कभी कोई ताँगा या मोटर उसकी तंग गली में आती थी।
तब एक दरवाज़़े के पास आकर ताँगा रुक गया। वसुधा ने देखा, उसकी
माँ पहले से ही दरवाजे पर इन्तज़ार में खड़ी थी। बच्चा पिता की
गोद में देकर, वह ताँगे से कूदकर दौड़ती हुई माँ के आगोश में
समा गई। उसे फिर अपने आप पर आश्चर्य आने लगा कि वह कैसे ताँगे
से कूद पड़ी। इतनी फुर्ती आज कहाँ से आ गई थी उसमें?
नए माहौल में आते ही उसका बच्चा रोने लगा। वसुधा की माँ ने
बच्चे को अपनी गोद में ले लिया। बच्चे को चुम्बन देते हुए उसने
कहाः ‘कितना दुबला हो गया है बिचारा...क्या उसकी तबीयत ठीक
नहीं है?’
वसुधा कोई जवाब देती, उससे पहले सांतुना आकर उसके गले लग गई।
वसुधा ने उसे प्यार करते हुए कहा, ‘कितनी बड़ी हो गई है मेरी
बहन!’ फिर यहाँ वहाँ नज़र फिराते हुए वसुधा ने पूछा, ‘संजय
कहाँ है?’
‘ट्यूशन पर गया है...बस आता ही होगा।’
उसने देखा, इस बीच उसके पिता ने सामान भीतर रखवा दिया। ताँगे
वाला अब वहाँ न था। सब भीतर आने लगे।
वसुधा को लगा, कोई फर्क़ नहीं आया था। खटिया वहीं थी, जहाँ
पहले थी। कोने में वही टेबिल रखी थी, जिस पर किताबें रखी हुई
थीं। शायद सांतुना की थीं या शायद संजय की... टेबल-लैम्प वही
था, सिर्फ़ उसका रंग बदला हुआ था। उसे लगा शायद संजय ने दिवाली
पर लैम्प को रंग-रोगन लगाया हो। कुल मिलाकर उसे कोई खास फर्क़
नज़र नहीं आया।
कुछ देर वह घर को यों ही देखती रही। फिर उसने सांतुना को आवाज़
देते हुए कहा, ‘मेरी अच्छी बहन! पहले मेरे लिये एक कप चाय बना
लाओ...और हाँ, बेबू के लिये थोड़ा दूध गरम कर लेना। पर सुनो,
पहले मेरे लिये चाय बना दो...ट्रेन की थकान बाक़ी है।’
सांतुना रसोईघर की ओर चली गई। पिता उससे कुछ कहे बिना ही घर के
बाहर चले गये। तब माँ ने कहा, ‘वसू बेटा! तुम कितनी कठोर हो,
महीने-दो के बाद ही माँ को चिट्ठी लिखती हो...बेटा, मेरा तो
बुढ़ापा है, मैं चाहे सुस्ती कर भी लूँ, पर तुम ऐसा मत किया
करो...बहुत ही चिन्ता हुआ करती है।’
उस बात का कोई जवाब दे उससे पहले वसुधा ने देखा, पड़ोसन रुकमा
चाची आ रही थी। अंदर आते ही वसुधा के सर पर हाथ फेरते हुए कहा,
‘आ गई बिटिया!’
‘हाँ चाची! क्या हाल है?’
‘अच्छा है बिटिया। रसोई में बैठी थी तो कमल दौड़ता हुआ आया
...कहा वसुधा दीदी आई हैं। वैसे तुम्हारी माँ ने बताया था कि
उसने तुझे ख़त लिखवाया है। बेटा, तुम्हारा पति नहीं आया क्या?’
‘नहीं! ये दिन उनके काम के हैं...फुर्सत हो तो कहीं आए!’
‘हाँ...और बताओ सुखी तो हो?’
‘हाँ...’ कुछ ठहरकर वसुधा ने कहा, ‘कमल नहीं आया चाची?’
‘अरे उसे तो शर्म आती है। उससे कहा चल अपनी दीदी से मिलने
...तो कहने लगा पता नहीं वह मुझे पहचानेगी या नहीं...! बाकी
तुम्हें याद बहुत करता है...जब तुम शादी करके डोली में बैठी,
तब भी रो-रोकर बेहाल हुआ था और फिर दिन पड़ने पर पूछता रहा
वसुधा दीदी कब आएँगी? तुझसे बहुत स्नेह करता है।’ कहते हुए
रुकमा चाची की आँखों में पानी भर आया। आँसू पोंछते हुए कहने
लगी, ‘जब से उसे पता चला कि संजू की माँ ने तुझे आने के लिये
लिखा है, तब से हर रोज़ पूछता है।’
वसुधा की माँ जो वहाँ खड़ी थी सब सुन रही थी कहने लगी, ‘क्यों
नहीं पूछेगा, कमल की अम्मा! इतना सा था तब से मेरी वसुधा गोद
में लेकर उसे घुमाती थी...!’
वसुधा का मन भर आया, ‘चाची! बुलाओ तो कमल को।’
‘अब जाएगा कहाँ?...तुम तो कुछ दिन रहोगी न...कब तक शरमाएगा?
अपने आप चला आएगा तुमसे मिलने।’ चाची ने कहा।
वसुधा को लगा कि स्नेह की डोर इतनी मज़बूत होती है कि वह
अपना-पराया देखती ही नहीं।
सांतुना चाय ले आई। कप देकर जब वह जाने लगी तो वसुधा ने कहा,
‘अम्मा कितनी बड़ी हो गई है हमारी संतो। कोई घर-वर देखा है
इसके लिये?’
प्लेट में आधी चाय उंडेल कर वसुधा, रुकमा चाची की ओर कप बढ़ाते
हुए कहने लगी, ‘हाँ चाची, थोड़ी चाय पीलो।’
‘नहीं बेटे, आग लगे इस चाय को, जिसने नसों का खून ही सोख दिया
है...तुम पी लो...मुझे इस वक़्त इसकी तलब नहीं लग रही।’
‘अच्छा बेटा मैं चलती हूँ, घर में काम पड़ा है। मिले बिना रहा
न गया इसलिये चली आई, फिर आऊँगी।’
‘ज़रूर आना चाची!’ वसुधा ने अपनाइयत से कहा और कमल को भेजने की
हिदायत भी दी।
‘अच्छा, अच्छा!’
रुकमा चाची चली गई, तो उसने अपनी माँ से पूछा, ‘हाँ अम्मा मैं
संतू के लिये पूछ रही थी।’
कुछ गंभीर होते माँ ने बताया, ‘बेटा, घर तो बहुत ख़याल में हैं
...और फिर संसार में जहाँ लड़कियाँ हैं...वहीं उनके लिये भगवान
ने लड़के भी पैदा किये हैं, पर आजकल पैसा ही परमात्मा हो गया
है। सच पूछो तो बिटिया, अभी तक तुम्हारी शादी का कर्ज़ पूरी
तरह से नहीं उतरा है ...नहीं तो तुम ही सोचो बिटिया! पूरे पाँच
सालों का बिछोह मैं कैसे सह सकती..अपने नवासे को देखने के लिये
आँखें तरसती थीं...पर पैसे ने आजकल हर किसी को लाचार बना दिया
है। पैसा ही हमारे प्रेम के बीच में दीवार बना हुआ है। इन्हें
कहती तो और फटकारते थे...बिना पैसे तो वे भी बेगाने हो गए हैं,
घर में भी किसी के साथ ठीक से बात नहीं करते...’
वसुधा को जैसे आघात पहुँचा। उसने सोचा, ताँगे में आते हुए
रास्ते में बाबा के ऐसे रूखे व्यवहार का क्या यही कारण था?
उसकी माँ बात करते अचानक चुप हो गई। उसने देखा सामने से संजय आ
रहा था। वसुधा को सामने देखकर उसने अपनी किताबें खाट पर फेंकी
और दौड़ता हुआ जाकर वसुधा से मिला, ‘दीदी’ कहते हुए वह अपनी
दीदी से लिपट गया।
वसुधा की आँखों में पानी भर आया।
संजय रो पड़ा, ‘तुम बड़ी कठोर हो गई हो दीदी! हमें ऐसे छोड़कर
चली गई हो, जैसे हम तेरे कुछ नहीं लगते...क्यों नहीं आई इतने
साल...?’
‘तुम लोगों ने मुझे आने के लिये भी कहाँ लिखा था?’...लेकिन ये
शब्द उसकी ज़बान से नहीं निकल पाए, उसके गले में ही कहीं अटक
गए। संजय अभी बच्चा है। वह बिचारा क्या समझेगा इन बातों को।
इसीलिये संजय के बालों पर प्यार से हाथ फेरते हुए वसुधा ने
कहा, ‘अरे! मैं तेरे लिये एक पेन ले आई हूँ, सुनहरा-सा
सुन्दर।’
सुनते ही संजय ‘मेरी अच्छी दीदी’ कहकर अपनी बहन से लिपट गया।
वसुधा ने अपना बैग खोलकर वह पेन निकालकर संजय को दिया। फिर एक
नई साड़ी निकाल कर सांतुना को आवाज़ दी, 'संतू...ओ संतू
...यहाँ तो आ।’
आटे वाले हाथ धोकर सांतुना कमरे में आई, 'तुमने बुलाया दीदी।’
‘हाँ...देखो यह साड़ी कैसी है?’
‘अच्छी है दीदी।’
‘तुझे अच्छी लगी।’
‘हाँ!’
‘यह तुम अपने पास रखो, मैं तेरे लिये ही लाई हूँ!’
सांतुना ने जवाब नहीं दिया, पर उसके चेहरे से वसुधा को लगा कि
वह खुश थी।
तब तक उसके पिता बाहर से लौट आए। आते ही वसुधा से कहा, ‘वसू
तेरे लिये मछली ले आया हूँ, तुझे बहुत पसंद है न?’
कुछ कहने की बजाय वसुधा सिर्फ़ मुस्कराई। वह पिता की ओर देखने
लगी। उसे खुशी यह थी कि, चाहे कुछ भी हो, इस बहाने उसके पिता
ने उसके साथ बात तो की।
पिता ने फिर पूछा, ‘हाँ तो बताओ बेटे, हमारे जमाई राजा का काम
कैसे चल रहा है?’
‘अच्छा चल रहा है!’
‘बहुत दिनों से उनसे मिलने को जी चाह रहा था।’ कहकर वह कुछ पल
रुक गए...फिर कहने लगे- "इस बार दिल्ली जाते हुए वहाँ से
गुज़रा भी था, पर फिर उतरा नहीं।’
‘तो आ जाते बाबा।’
‘हाँ आ तो जाता बेटे, पर पहली बार समधियों के घर में जाना कोई
आसान है क्या? कितना खर्चा हो जाता!’
फिर जैसे बात बदलते हुए पूछा, ‘वैसे तुम्हारे ससुराल वालों का
स्वभाव कैसा है?’
‘अच्छा है।’
‘सुखी तो हो न बिटिया?’
‘हाँ।’
वसुधा को लगा जैसे उसके पिता का दिल भर आया हो। न जाने कौन सी
झनकार वसुधा की नसों में फैलने लगी। उस बीच वसुधा का बच्चा
नींद से जागा था। वह रोने लगा। संजय ने आगे बढ़कर उसे अपनी गोद
में उठाया। पिता वहाँ से उठकर दूसरे कमरे में चले गए। संजय
बेबू को पुचकारते हुए बाहर चला गया। तब माँ ने कहा, ‘वसु, सच
पूछो तो, इस बार भी इनकी मर्ज़ी तुम्हें आने के लिये लिखने की
न थी। पर मैं ही ज़िद करने लगी...इन्हें क्या है? ये तो छूट
जाते हैं पर मेरे कानों को तो भिनभिनाहट सुननी पड़ती है। जो भी
औरत घर में आती बस पहले यही बात पूछती- "क्या इस सावन में भी
वसुधा को नहीं बुलाएँगे...हम तो उसे देखने को तरस गए हैं,
कितने साल हो गए हैं...।’
वसुधा क्या कहती, वह चुप रही।
माँ ने फिर कहा, ‘मैंने उनसे कहा, भले कुछ ही दिन के लिये ही
सही, बेटी को बुलाओ तो सही...कम से कम यह तो पता चले कि हमारी
बेटी सुखी तो है।’
वसुधा समझ गई कि माँ ने एक तरह से उसे बता दिया कि उसे थोड़े
दिनों के लिये बुलाया गया है।
वसुधा ने अपना बैग बंद किया फिर अपने पर्स से कुछ रुपये निकाल
कर माँ को देते हुए कहा-‘माँ ये पैसे अपने पास रख लो...घर में
काम आ जाएँगे।’
माँ टकटकी लगाए बेटी को देखने लगी, 'नहीं बेटे, यह पाप मत
मढ़ो...मैं पैसे नहीं लूँगी...लड़की का एक दाना घर में आए तो
मन भर जाए...नहीं, मैं नहीं लूँगी।’
‘अरे अम्मा, तू रख तो सही...मैं तुम्हें तो नहीं दे रही, समझना
मैंने संजू और संतू को दिये हैं...बस।’
माँ शायद पैसे फिर भी लेने से इन्कार करती, पर उसने देखा वसुधा
की बचपन की सहेली प्रिया आ रही थी।
‘हाइ वसू! आख़िर तुम आ गई...गुड। आई एम ग्लाइड टू सी यू!
...अरे तुम इस तरह क्यों देख रही हो?’
‘कैसी हो प्रिया?’ वसुधा ने मुख़्तसर सवाल किया।
‘नाईस!...सो, हाओ मेनी इशूस्? कितने बच्चे हैं...?’
‘अभी तक तो एक...!’
‘गुड...लाल त्रिकोण की मदद कर रही हो? फिर मिलते हैं, अभी कुछ
जल्दी में हूँ...ओ.के...सी.यू....’
प्रिया से मिलकर वसुधा को आश्चर्य हुआ, ‘कैसे आई, कैसे चली गई?
कैसा दिखावा था वह?’
वसुधा ने माँ से पूछा, 'अम्मा यह प्रिया कितनी बदल गई है? अभी
तक इसकी शादी नहीं हुई है क्या?’
‘नहीं बेटे, तुम्हारी यह सहेली तो बिलकुल ही बिगड़ गई
है...आस-पड़ोस की तो नाक ही कटवा दी है...मैं तो संतू पर इसकी
परछाई तक नहीं पड़ने देती।’
‘पर अम्मा, प्रिया ऐसी तो न थी, ये सब अचानक...?’
‘नहीं बेटी! यह सब अचानक नहीं हुआ है। हालात ने करवाया है।
उसके पिता को लकवा मार गया। तीन साल हुए हैं, उसका भाई घर से
भाग गया। आज तक उसका पता नहीं चला है कि वह जिन्दा है या मर
गया है...मजबूरी क्या नहीं करवाती बेटे।’
वसुधा ने एक बार दरवाजे की ओर नफ़रत की नज़र से देखा, ऐसे,
जैसे वह प्रिया की ओर नफ़रत से निहार रही हो या शायद आज की
मजबूरियों की ओर।
वसुधा ने एक सर्द साँस ली।
उसके बाद माँ बेटी कुछ देर बातें करती रहीं। फिर नहा-धोकर
वसुधा पड़ोस में अपनी सहेलियों और जाने-पहचाने लोगों से मिलने
चली गई।
शाम को जब वह वापस लौटी तो घर में सभी के चेहरे उतरे हुए थे।
यह बात उसे बहुत अजीब लगी। उसके लौटते ही पिता बीड़ियाँ लेने के
बहाने बाहर निकल गया। माँ रसोईघर में चली गई। संजय टेबिल के
पास जाकर किताब उठाकर पढ़ने लगा। वसुधा को लगा कि उसकी
गैरहाज़िरी में निश्चित रूप से घर में झगड़ा हुआ है।
उसने सांतुना से पूछा, 'क्या बात है संतू! इस तरह सभी के चेहरे
क्यों उतरे हुए हैं?’
‘कुछ नहीं दीदी!...ऐसे ही पैसों को लेकर बाबा कुछ नाराज़ हो
रहे थे।’
वसुधा हैरानी से यहाँ-वहाँ देखने लगी। अचानक माँ ने कमरे में
आकर संजय से कहा, 'देखो बेटा, तुम्हारे पिता कहाँ जा रहे हैं?’
‘क्या बात है माँ?...कहाँ जाएंगे?...बीड़ियाँ लेने गए हैं
शायद।’
‘नहीं बेटा, तुम्हें पता नहीं....तुम तो पाँच साल हमसे जुदा
रही हो ...इस बीच घर में क्या-क्या न हुआ है...।’
वसुधा ने देखा कि उसकी माँ की आँखें भर आई थीं।
‘क्या बताऊँ बिटिया, तुम्हारे पिता पैसे के मामले में बहुत
तकरार करते हैं...सुनते-सुनते मैं भी तंग हो जाती हूँ, तीन बार
तुम्हारे पिता ने आत्मघात करने की कोशिश की है, तीनों बार इन
बच्चों की क़िस्मत है जो लोग उन्हें बचा लेते हैं।’
‘...तो गुज़रे कुछ बरसों में इस घर में इतना कुछ हो चुका है।’
वसुधा का गला भर आया। कुछ समय के लिये शब्द उसकी ज़बान पर अटक
से गए, फिर भी कोशिश करके उसने पूछा, 'आज फिर क्या हुआ?’
माँ बेहताशा-सी होकर रोने लगी...बस इतना ही कह पाई-‘आज तुम जो
आई हो बेटी।’
वसुधा के पैरों तले जैसे धरती खिसक गई।
‘मैं? मैंने क्या किया है?’
‘कुछ नहीं किया है...कुछ नहीं किया है बिटिया।’
‘नहीं, बताओ माँ, हक़ीक़त क्या है?’
‘क्या करोगी सुनकर बेटी! उससे तो मैं मर जाती तो अच्छा होता।
फिर कोई मोह की, ममता की डोर तो न होती। अपनी बेटी को देखे
बिना नहीं रह सकती। ख़त मैंने ही तुझे लिखवा भेजा था।’
वसुधा को अब भी बात ठीक से समझ में नहीं आ रही थी। वह सवाली
नज़रों से माँ की ओर देखने लगी।
‘तुम आज ही तो आई हो बेटी! और ये कैसा स्नेह है, कैसा लगाव है
एक पिता का, उसने आज ही पूछना शुरू किया है कि, 'वसुधा आई तो
है, पर रहेगी कितने दिन? ज्यादा दिन रखने की या उसे और उसके
बच्चे को खिलाने की सामर्थ्य नहीं है मुझमें। पूछ लो कि वह कब
जाएगी?’ माँ ने रोते दिल में दबे सभी राज़ फाश करते हुए
कहा-‘अब तुम ही बताओ बिटिया! कौन डायन माँ होगी जो अपनी बेटी
से यह पूछेगी कि तुम आई तो हो, पर जाओगी कब? ...मैं मर क्यों
नहीं गई ...मैं मर क्यों नहीं गई।’ कहकर माँ फिर रोने लगी।
वसुधा की जबान तालु से लग गई, ज़हर का वह घूँट चुपचाप पी गई।
कुछ पल वह चुपचाप न जाने क्या सोचती रही। फिर उसे महसूस हुआ कि
वह अपने ही घर में किसी अजनबी की तरह चली आई है।
उसे कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। पर यह अहसास उसे घायल करता
गया कि उसके घर में आने की खुशी कितनी क्षणभंगुर, कितनी झूठी
थी।
रात को काफ़ी कोशिश करने के बावजूद भी उसे नींद न आई। पिता के कहे
शब्दों पर काफ़ी देर तक वह सोचती रही। बहुत सोचने के बाद उसे
लगा कि वे शब्द एक पिता के स्नेहपूर्ण प्रेम के नहीं, एक पिता
की मजबूरियों ने कहे थे...आज की हालात ने कहे थे। वसुधा को लगा
कि आज के हालात ने इन्सान को कितना मजबूर कर दिया है कि वह
अब मोह-ममता के जाल में जकड़ा नहीं जा सकता। उसे लगा जैसे वह
किसी पराए घर में सो रही है। आँखों में आए आँसू पोंछते, करवट बदलकर,
वह सोने की कोशिश करने लगी।
(रूपांतरकार : देवी नांगरानी)