अपना-अपना आकाश (कहानी) : मैत्रेयी पुष्पा

Apna-Apna Aakash (Hindi Story) : Maitreyi Pushpa

यहाँ रहते हुए उन्हें चार महीने हो चुके थे, यह वे भी जानती थीं। पन्द्रह दिन पहले से मन में जोड़-गाँठकर हिसाब लगा रही थीं, इसकी वे अभ्यस्त हो चुकी थीं। अब फिर दिल्ली जाना था बड़े बहू-बेटों के पास…। दिल्ली के नाम से उनकी रूह थरथराने लगती थी, एक मुकम्मल दहशत जो मन में बैठ गई थी। जीवन का एक-एक दिन उनके लिए भारी हो उठा था, लेकिन अपने आप क्या कोई प्राण तज सकता है….?

वे उठना चाहती थीं, पर उठते समय लग रहा था जैसे हाथ-पाँवों का अंश खिंच गया है—अब इतना जाघर कहाँ था कि झमककर उठ पड़ें। कोई उमंग उछाह हो तो बूढ़े हाथ-पाँव भी त्वरित गति से चलने लगते हैं, मन में हील-हुलस ही नहीं तो तन भी शिथिल हो जाता है। जाने के नाम से उन्हें झुरझुरी चढ़ने लगी थी और शरीर में ठीक बुखार के पहले की-सी टूटन। सामान तो रखना ही था, वे बेबस-सी उठ खड़ी हुईं। अलगनी पर टँगे अपने कपड़े बटोर लाईं पर उन्हें तहाने की उनकी हिम्मत नहीं पड़ी, कमरे में पड़ी खाट पर तन ढीला छोड़ बेदम-सी बैठ गईं। लग रहा था माथे के भीतर चक्रवात उठ रहे हैं और कानों में सनसनाहट। कुछ देर बाद खिड़की से बाहर झाँकने की शक्ति बटोर वे खिड़की पर खड़े हो पुकारने लगीं—

‘‘नीटूऽऽऽ अरी नीटूऽऽऊ!’’

‘‘हाँ अम्मा!’’ छोटी पौत्री ने अपने खेल में व्यवधान डाले बिना ही उत्तर दिया।

‘‘अरी यहाँ आ री मेरे झौरें!’’ वे बुलाने लगीं।

लेकिन नीटू नहीं आई, वहीं कंधे उचकाकर रह गई। वे एक-दो बार और आवाज देती रहीं लेकिन नहीं—नीटू नहीं आई। वे खिसियायी-सी अपने कपड़ों को तह करने लगीं। दवा निकालकर रख ली, उसी के लिए पानी माँगना चाहती थीं, लेकिन….मग्धड़ छोकरी।’ वे बुदबुदा उठीं। फिर स्वयं ही जाने को तत्पर हुईं कि बहू गिलास में पानी लेकर हाजिर हो गई। जब यहाँ से जाने का वक्त समीप आता जाता तो बहू अति आर्द्र हो उठती, यह बात वे जानती हैं। दो-चार रोज बहू बड़ी मुस्तैदी से उनकी आज्ञा का पालन करती है, चीजें पल-छिन में हाजिर कर देती है। पर नीटू अभी कहाँ जानती है कि कब अपने व्यवहार में फेर-बदल कर देनी चाहिए! कभी-कभी तो उन्हें बड़ा आश्चर्य होने लगता है कि इतनी अवस्था जी लेने के बाद भी वे वह सब क्यों नहीं सीख पाईं जो कल की छोकरी इन बहुओं ने गुन लिया। वे कैसी नारियल-सी बनी रहीं, ऊपर से चिकनाई मलना उन्हें जिन्दगी-भर क्यों नहीं आ पाया?

‘‘अम्मा जी, बाँधि लियौ सामान?’’ इस घर का नौकर लल्लू पूछ रहा था।

‘‘आजु राति कूँ ही जानौ है, जरूली भइया?’’ वे अनुनय-सी करती पूछने लगीं कि शायद उनका जाना कुछ दिन और टल जाय।

‘‘देखि लेउ, फिर मेरी फुस्सित नाँय। टैम तो तुम्हारौ हू पूरौ है गयो यहाँ।’’ लल्लू अपनी मजबूरी जताते हुए यहाँ के अनुबन्ध की याद दिलाने लगा।

जाना तो पड़ेगा ही—वे सोचने लगीं और अटैची में हाथ से तहायी दो-चार धोती, ब्लाउज, पेटीकोट निरपेक्ष भाव से डालने लगीं। पर क्या करें, मन बार-बार हिलककर रह जाता वाक्यों की डोर से—

‘‘अम्मा, लखिया आबैगो। कचहरी में तारीख है, सो अम्मा, चाहें दुबक कें ही सही, तुमते मिलि कें जरूल जायगो।’’ गाँव से आया नाई उनसे कह गया था।

पर अभी लखिया की दी हुई तारीख में तो आठ दिन बाकी थे, इतना कौन रुकने देता उन्हें यहाँ। वैसे लखिया से मिलने का जतन तो उन्होंने खोज लिया था। चौराहे से दायें हाथ को जाने वाली गली का मंदिर भी बता दिया था नाई को, कि वे लखिया को उस मंदिर में मिल जाएँगी, पर अब कैसे…? मन में अटूट बेचैनी समेटे वे बहुत देर तक चुप्प अडोल-सी खाट पर बैठी रहीं।

छोटी बहू जल्दी-जल्दी खाना बना रही थी उनके साथ रखने के लिए। ‘‘रेलगाड़ी का खाना अम्मा कैसे पचा पाएँगी, सो जो उन्हें पसन्द है वही बना दिया है, कम-से-कम खा-पीकर तो पहुँचेंगी उनके घर।’’ बहू-बेटे की बतलावन वे साफ सुन रही थीं। इस बहू में कुछ सीमा तक तो सौहार्द्रता है। दिल्ली वाली बहुएँ तो कुछ ज्यादा ही तिनख हैं, वे उनकी बूढ़ी ठूठ काया की सामर्थ्य-असामर्थ्य नहीं पहचानना चाहतीं। तभी न उस दिन बड़ी बहू ने हुक्म सुना दिया था—

‘‘अम्मा जी, आज तो बच्चे चायनीज खाने की जिद कर रहे थे सो उसी में से आया आपको भी दे देगी, खा लेना।’’ कहकर बहू पर्स झुलाती हुई घर से बाहर निकल गई। कैसे-कैसे खा पाई थीं उस अजब से भरछत भोजन को। नोन-मिर्च कि सिवई तो उन्होंने कभी सुनी ही नहीं। इतने बड़े जीवन में सिवइयों को उन्होंने हमेशा घी-बूरे के साथ परोसा था। नूडल्स पेट में डाल तो लिये लेकिन खाते ही पेट फुँक गया था। सिरका और मिर्च के जोड़ ने बूढ़ी आँतों को जला डाला था। अगले दो दिन तक मरोड़ और दस्तों से पीड़ित रही थीं। दोनों बहुएँ फुसफुसा उठी थीं—‘‘देखती नहीं कितना पचा पाएँगी, बस खाए सिद्ध।’’

स्टेशन छोड़ने बेटा-बहू दोनों आए थे। वे चलते समय नीटू और बबली के हाथ पर पाँच-पाँच रुपये रख आई थीं, बहू उन्हें ही लौटा रही थी—‘‘अम्मा जी, आप ही रख लो, आपके काम आएँगे, बच्चों को क्या कमी है।’’

‘‘अरी बच्चन के हाथ पर धर दीजो।’’ कहकर वे मन में कहीं उमेठ महसूस करने लगीं…अकथनीय पीड़ा से अन्दर ही अन्दर तिलमिलाकर रह गईं।

ट्रेन सीटी दे चुकी थी। लल्लू उनकी अटैची और नाश्तेदान थामे उन्हीं के पास आ बैठा था हमेशा की तरह। बेटे ने पैर छुए, उसके बाद बहू ने—‘‘बेटा होय…खाने अघाने रहौ….’’ आशीष देकर वे एक पल को अनचाहे ही आनन्दित हो उठी थीं सब कुछ भूलकर। फिर मन भारी हो उठा, आँखें भर आईं थीं। लेकिन उनसे छुटकारा पाने की जो अतिरिक्त उत्फुल्लता बहू के मुख पर चमक रही थी उसे देख वे अपनी अवांछनीयता पर संतप्त हो उठीं। वे रोना नहीं चाहती थीं फिर भी आँसू आँखों में छितराकर एक धुन्ध-सी छोड़ गए दृष्टि के सामने।

गाड़ी सरक ली थी और शहर से दूर होते उन्हें लग रहा था जैसे वे बेगानेपन के बियाबान में भागती हुई अनन्त रेगिस्तान की ओर जा रही हैं। जहाँ कोई अपना था न आत्मीय….।

‘‘लखिया आवैगो पर लौट जाइगो कम्बखत, ‘वे अपने-आप में ही बुदबुदा रही थीं। अपनी पराश्रिता पर क्रोधित थीं वे। बेटों के कहने से क्यों गाँव छोड़ा? क्यों अपनी देहरी का मोह तज ममता की मृग-मारीचिका के पीछे भाग लीं, या डर गई थीं वे? फिर क्यों नहीं दृढ़ होकर खड़ी हो सकी थीं बेटों के समक्ष? यह वे स्वयं नहीं आज तक जान पायीं। ममता, भय और रक्त का आपसी मेल-जोल खींच लाया था उन्हें यहाँ। अपने मनोबल की कमी पर तब से अब तक पछताती रही हैं। लखिया तो पैरों से लिपटा कैसा हिलककर रोया था—‘‘भाभीऽऽऽई, तू मत जाऽऽय भाभीऽऽऽई…।’’

क्या उत्तर देतीं इस बेजार हूक का, बैलगाड़ी में बैठी सिसकती रही थीं। सिर का पल्ला नीचे सरका लिया था। आधे घूँघट में ही बूढ़ी आँखें बरसती रही थीं, बेटों की सोच का क्या भरोसा? कलेजे में उठी सुबकी गले में ही घूँटती रही थीं।

वे जिस द्वार-चौखट को छोड़े जा रही थीं, उस घर में सास मरने के कुछ दिन बाद ही ब्याह के आ गई थीं और नववधू का जामा उतार ठेठ घरनी बनी गृहस्थी के उस कठिन प्रश्न-पत्र को हल करने में लग गईं जिसे उनकी सास अधूरा छोड़ गई थीं। जैसी आकांक्षा—वैसा ही परिणाम…वे सास से चार हाथ आगे ही निकली थीं। गृहस्वामिनी के अभाव में जो घर करब के झुये-सा बिखरा जा रहा था उसे उन्होंने तुरन्त बाँहों में भरकर प्रेम-रज्जु से कसकर बाँध दिया था।

वे पखेरुओं के कलरव से पहले उठ जातीं। घर-बाहर की झाड़ू-बुहारी, पानी-लत्ता और लीपा-पोती से लेकर ढोर-डंगरों की सानी-पानी सब कर डालतीं। ससुर के लिए दातुन और पानी से भरा सोने-सा दिपदिपाता जगन्नाथी लोटा मोरी पर धर देतीं, झटककर लखिया को जगा लातीं—‘‘सूरज मूड़ पै चढ़ौ है और तुम खटिया पर परे सोइ रहे। उठौ, कुल्ला-दातुन करौ।’’

लखिया कैसा अल्हड़ बछेड़ा-सा मिला था उन्हें, इधर-उधर उजबक-सा फिरता, पाँवों पर ओक बहाए। आँखों में कीचड़ और दाँतों पर पीलेपन की परत…। कुछ दिन तो लिहाज में चुप ही रही थीं—उम्र में छोटा है तो क्या—है तो देवर ही। पर उसकी बावरी वेश-भूषा और गंदेलापन वे ज्यादा दिन बर्दाश्त नहीं कर पाई थीं। प्यार से कहतीं तो वह सुनता ही कहाँ था, ज्यादा-से-ज्यादा धुली कमीज पहनकर सिर पर टोपी धर लेता पर टाँगों में वही पट्टे का घुटन्ना लटकाए पूरे गाँव में चकफेरी करता रहता, गिल्ली डंडा बजाता रहता। बड़ी मुश्किल से पाजामा पहनने की आदत डाली थी और कंचे-गुच्ची से छुड़ाकर तख्ती पकड़ाकर स्कूल को ठेला था, पर क्या वह तख्ती से आगे बढ़कर स्याही-कापी पकड़ पाया? तख्ती-टाट पकड़े ही ओठों पर रेख निकल आई थी। हाँ, भाभी के वचन पालन करते-करते जरूर वह पालतू मेमने-सा हो उठा था।

घर में ससुर, विधुर चचिया ससुर, अनब्याहा जेठ, पति, लखिया और मेहनती मजदूरों की रेल-पेल—अच्छा-खासा कुनबा था और अकेली औरत जात—वे। रोटी सेंकने बैठतीं तो सुबह से दोपहर हो आती, पर वे जरा-सी भी तो नहीं डगमगाती थीं कभी। उनकी सहजता देखकर क्या लगता था वे अपनी परिवार की नाजोंपली सबसे छोटी पुत्री होंगी, जिन्हें माँ और भाभियों ने तवे पर चँदिया नहीं डालने दी थी। उनकी दक्षता देखकर ही तो ससुर ने कनस्तरी-भरे स्वर्ण-आभूषण उन्हें ऐसे सौंप दिए थे जैसे किसी विवाह-गृह से आया लड्डू-कचौड़ी का पड़ोसा हो, और वे उसे कभी उपलों में दाब आतीं, कभी अनाज-भरे गड्डे में गाड़ आतीं। तब बैंकों में रखने का चलन ही कहाँ था—सोचकर अपनी चतुराई पर वे स्वयं ही मुस्कुरा उठीं।

चतुर सुघड़ बहू सम्मान और सराहना की दावेदार थी। कारज-ब्यौहार, परव-त्योहार सबकी अग्रणी बनी रही थीं। समय कैसे सरग के पाखी-सा उड़ा गया, उन्हें खबर ही कहाँ लगी थी, वे तो भोर से साँझ और साँझ से भोर को जीवंत करती रहीं। इसी बीच वे तीन बेटों की माँ बन गईं। लखिया का ब्याह हो गया। लखिया का सम्बन्ध करते समय ससुर जी को उन्होंने कितना रोका था, पड़ौसी का लड़का बुलाकर उससे नाहीं करायी थी, तर्क दिलवाए थे कि लखिया को अभी शादी-ब्याह का क्या शऊर…। लेकिन—

‘‘अब का कल्ला फूटिंगे जा लखिया में,’’ कहते हुए ससुर जी हुक्का गुड़गुड़ाते चौपाल पर निकल गए थे। जवान-जहान बहू घर पर आ गई तो लखिया कैसा दुबका-दुबका फिरा था। भाभी का पल्ला एक पल को नहीं छोड़ता था। हर काम तो उसने भाभी से पूछकर किया था, फिर अब कैसे…? उसकी भाभी-भक्ति देखकर कभी-कभी तो उन्हें ही खटका होने लगता—बहू क्या सोचेगी….? भाभी का चाकर उसका पति…कैसे बर्दाश्त करेगी?

धकिया-पिछियाकर किसी तरह रात को बहू के पास भेजा था, पर वहाँ भी ढाक के तीन पात!

वे सवेरे ही बहू के पास जाना चाह रही थीं पर बार-बार हिम्मत बाँधने पर भी मन अड़ियल तुरंग-सा पीछे हटता ही चला जाता—कैसे पूछेंगी नई ब्याही से कि इस लखिया में मरदपने के लच्छन हैं कि नहीं? वयस में वे बहू की कोई हमउम्र तो थीं नहीं। लेकिन चिन्ता रात-भर उन्हें दीमक-सा खाती रही थी, एक पल को पलक नहीं मूँद सकी थीं…उसी बेचैनीवश पूछ बैठी थीं रात की बात…। बहू खिलखिलाकर हँस पड़ी थी।

‘‘काहे को हँस रही है री बिन्दो…बता न!’’ वे स्वयं नई दुल्हन की तरह शरमा उठी थीं, नीची आँखें किए कपोलों पर लाली दौड़ गई थी।

‘‘जीजीऽऽई…जीजीऽऽ हऽहऽहऽहऽअ!’’ बिन्दो हँसी नहीं रोक पा रही थी। ‘‘अब कछु बोलैगी हू कै हसति ही रहेगी,’’ वे आतुरता से भर उठी थीं—‘‘बोल जल्दी।’’ ‘‘जीजी, हऽऽअ हऽऽ! जीजी, काहे को भेजि दीये तुमने? पहले तो नीचे कू मुँह करें ठाड़े ही रहे, फिर हाल भये पिल्ला से कुँइ-कुँइ करि कें सोई गए। मैं झकझोरि-झकझोरि कें हारि गयी, अब तक नाहिं उठे। अब तुम हि जगाय लेउ जाय कें!’’

उन्होंने अपने माथे पर हाथ दे मारा—‘‘हाय मेरे राम जी!’’ वे क्या कहती बिन्दो से कि यह हौलू बिल्लाल निरा औघड़ है। अरे, खाना-पीना और यह सब…तो चिरई-चिरवा भी जानते हैं, फिर यह तो मानस-मनिख का पूतरा, कौन समझाए इस मूरख को! वे अजीब-सी दुविधामयी चिन्ता से घिर उठी थीं। वह तो बिन्दो समझदार निकली कि बालक की तरह भाभी के पल्लू से बँधे पति के प्रति कभी रोष प्रकट नहीं किया। सारे घर का काम उठा लिया था बिन्दो ने। अपनी जीजी को तो किसी काम से हाथ नहीं लगाने देती। लेना-देना, ऊपर का इन्तजाम और घर की मुख्तारी ही रह गई थी उनके जिम्मे। जिठानी के तीनों बच्चों का लालन-पालन भी बिन्दो ने अपनी ही गोद में डाल लिया था। वे पूजा करते-करते सौ-सौ बार ठाकुरजी को माथा झुकातीं कि हे मेरे पिरभू! लखिया के बचपन को हाथ लगाकर जरा-सा सगुना क्या दिया, मुझे बदले में ऐसी हिरदय की टूक सहोदरा बख्श दी!

मजाल है कि बिन्दो जीजी के बिना कौर तोड़ जाय। वे हजार बार कहतीं—‘‘अरी बिन्दो, खाय लै री! कब तक भूखी बैठी रहैगी?’’ पर वह दोनों का भोजन एक ही थाली में परोसकर बैठ जाती—‘‘आ जाऔ जीजी, अब बहौत है गयी पूजा। और कहा माँगि रही हौ राम जी पै। सब तौ है।’’ कहकर जोर से हँसने लगती। बिन्दो हरगिज ग्रास न तोड़ती जब तक कि वे तुलसी के चौरा पर लोटा न ढार लेतीं।

बहुत समय बीत गया था पर बिन्दो के गर्भ में आस नहीं ठहरी थी। मुहल्ले में खुसुर-पुसुर होने लगी थी। वे घबरा उठी थीं बहुत अधिक।

जब पहले-पहले बिन्दो के पाँव भारी हुए तो उन्हें लगा था वे ताई नहीं, दादी बनने जा रही हैं। हौंस-हुलस से भरी वे कृष्ण कन्हैया और यशोदा के गीत गाया करतीं। हाथोंहाथ रखतीं बिन्दो को; पर वह भी मरी बड़ी अड़ियल थी, न जाने कब खेत पर जाकर चौड़ी नाली का पाट फलाँग गयी। तबीयत बिगड़ी तो वे बैलगाड़ी में धरे इस डॉक्टर से उस डॉक्टर पर भागती रही थीं लेकिन कहाँ ठीक हो सका था…कच्चा ही गिर गया, बिन्दो ही बड़ी मुश्किल से बच पायी थी।

उनके पति को न जाने कौन-सा रोग लगा था कि गँवई-गाँव से लेकर शहर तक के इलाज़-उपचार हुए लेकिन वे एक दिन…और इसी तरह ससुर, चचिया ससुर मृत्यु-पथ पर अनुगामी बने चल दिए। अनब्याहे जेठ तो कब के साधू होकर चले गए थे। बड़ों का साया सिर से उठ गया। रह गए वे और लखिया, अनाथ हुए पूरी गृहस्थी का वजन लिए। पर लखिया समय का नाजुक मिजाज पहचानकर रातोंरात कैसे घर का पालनहार बनकर खड़ा हो गया कि वे स्वयं विस्मित रह गयी थीं। उनके तीनों बच्चों की पढ़ाई में रंचमात्र का अंतर नहीं आने दिया लखिया ने। भीषण लू-लपट और शीत सरकती रातों को बराबर करके वह बैलों के साथ बैल की नाईं जुतता रहता। रक्त-स्वेद मिलाकर धरती की कोख में बीज बोता रहा और फसल समेट-बेचकर भाभी के हाथ पर पाई-पाई रखता रहा। भतीजों को पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाने का व्रत साध वह स्वयं धरती की धूल में मिलता रहा था।

आड़ा समय भी निकल गया अच्छे ही वक्त की तरह। तीनों बेटे बड़े हो गए। बड़े दोनों दिल्ली में नौकरी करने लगे, छोटा आगरा बैंक में मैनेजर हो गया। लखिया का श्रम सफल हो गया था। वे निछावर हो गयी थीं पुत्र-सरीखे देवर पर। शादी की बात आयी तो जाहिर है कितने ही धनाढ्य शहरी कन्याओं के पिता उनके बेटों के ससुर बनने का सौभाग्य खोजने लगे। उन पिताओं को योग्य दामाद चाहिए थे, इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं…। शादी भी उनके बेटों ने शहर में पली-पुसी कन्याओं से की, गाँव की अल्हड़ गँवार को वे कैसे निभा पाते! शादी की बाबत बेटे ने माँ और चाचा को पूछा ही कहाँ ही था, बस खबर दे दी थी कि इस-इस तारीख को चले आयें, सो वे लखिया और बिन्दो को लेकर चली गयी थीं। गाँव आकर बड़े ताने-उलाहने सुनने पड़े थे—‘‘बेटा ब्याहि लियौ और एक खीकरी तक न दिखाई।’’

अब वे किसी को क्या बतातीं कि वे बुला ली गयीं, यही क्या कम था! वैसे उस समारोह में वे तीनों मेल ही कहाँ खा रहे थे! गाँव-पुरा में वे भले ही मुखिनी बनी रहीं, किन्तु अपनी कोख जाये पुत्र के विवाह में वे लखिया और बिन्दो को समेटे पीछे की कुर्सियों पर दुकी-छिपी अजनबी-सी बैठी रही थीं। समधी के पूछने पर छोटा उन्हें बुला ले गया था तो वे सहमती-सिकुड़ती विशाल स्टेज तक पहुँची थीं—बहू-लड़के ने जग-रीति निभाने को पाँवों का स्पर्श किया तो वे अन्तर्मन तक भीग उठी थीं अपनी ही आर्द्रता से। उसी भावातिरेक में डबडबाई आँखों सहित मुख को बड़े के कानों तक ले गयी थीं—‘‘चाचा-चाची हू बैठे हैं उनके हू….’’ वाक्य पूरा नहीं कर पायी थीं कि दुल्हा बने बेटे ने मुख दूसरी ओर फेर लिया तथा किसी नवागन्तुक की बधाई लेने में मशगूल हो गया। परन्तु उन्होंने अपने समधी के नव-जामाता को अनाथ होने के कलुष से तो बचा लिया था और कुछ समय तक वहीं अवांछित-सी खड़ी रहकर पुनः अपनी तीन की बिरादरी में आ मिली थीं। कैसी विकट वेदना महसूस की थी—नौ महीने गर्भ में रखा उन्होंने, पाल-पोसकर खड़ा कर दिया बिन्दो ने और खून-पसीने से सींचता रहा लखिया। मन में असंख्य कीकर-बबूलों की अव्यक्त चुभन लिए अनायास ही दुरियाये से वे तीनों तटस्थ भाव से तमाशाई बने बे-बात सारी रात जागते ब्याह देखते रहे थे।

बस, यही पुनरावृत्ति होती रही हर ब्याह में हर नई बहू के आगमन पर…इसी पीड़ादायिनी स्थिति से गुजरती हुई वे खून को सफेद होते देखती रहीं, हलक में विष उतारती रहीं। खैर, जो भी हुआ, होकर गुजर गया, वे रह तो रही थीं अपने गाँव में, अपने पति के निज आँगन में, बेटों और उनकी गृहस्वामिनी बहुओं से उनका सरोकार ही कितना था! आँख-ओझल होने का सुख भी कितना बड़ा होता है, उन्होंने यह पहली बार जाना था।

बरस-साल गुजरने लगे लेकिन अचानक एक दिन वह क्षण आया जब गाँव आकर उनके बेटों ने अप्रत्याशित ज्वालामुखी का विस्फोट किया था। और निकलने वाले लावे की झुलस वे आज तक झेल रही हैं आँखें मीचकर…काश, उस दिन उस ज्वालामुखी की आग से वे जलकर भस्म हो गयी होतीं तो बेहतर था।

तीनों भाइयों के रहन-सहन के स्तर एक थे, उनकी हर बात आपस में मेल खाती थी, पर लखिया तो अनमेल था। लखिया से निभाना दूभर था उनके लिए, फिर क्या पड़ी थी उन तीनों को गाँव से तार जोड़े रहने की! क्यों वे अपने-आपको असुविधाओं के दलदल के बीच ढकेलकर बड़े अफसरों की दुहिता–अपनी पत्नियों के समक्ष अपने अहं को तुच्छ होने देते! अतः सब समस्याओं का समाधान एक था…सिर्फ एक-और बाप-दादों की जमीन के बँटवारे का प्रश्न पुत्रों ने माँ के समक्ष फाँसी के फन्दे-सा लटका दिया था। वे कहाँ-कहाँ नहीं भागी थीं, किस-किसके पास नहीं गयी थीं कि कोई उनके पुत्रों को समझाए कि जिस चाचा से वे धरती बाँटने की बात कर रहे हैं वह उनके निज-जनक से ज़्यादा पूज्य है, आदरणीय, आत्मीय है। शिराओं में दौड़ता रक्त अवश्य माता-पिता का है लेकिन सुघड़ शरीर-सौष्ठव, दिन-रात एक कर बिन्दो ने दिया है और शिक्षा का वचन पहनाया है इसी अनपढ़ चाचा लखिया ने। अपने ही बेटों के समक्ष भिखारिन-सी हा-हा खाती रही थीं, दूध की लाज रखने की भीख माँगती रही थीं, दादा और बाप की आबरू का वास्ता देती रही थीं, पर वे क्यों मानते? दुनियादारी की किताब का हर पृष्ठ घोटकर पीने वाले को कोमल मिट्टी का मोह व्यापता है भला? अपने बेटों की वाक्पटुता और बुद्धि-चातुर्य के समक्ष से निरी मूर्ख बनी पराजित होती रही थीं।

उनके बुद्धिमान पुत्रों ने जाने कैसे-कैसे बँटवारा किया था कि विधुर निस्सन्तान चचिया ससुर और जेठ के हिस्से की जमीन तीनों भाइयों में बेहिचक बँट गयी थी। लखिया को तो अपने पिता की जमीन का आधा हिस्सा ही मिल पाया था, वह भी ऊसर-बंजर। तहसीलदार से लेकर ऊपर-नीचे के सभी सरकारी मुलाजिमों पर तीनों बेटों का जादू बोल रहा था, वहाँ लखिया को कौन पूछता, कौन सुनता उसकी?

कभी उन्होंने सोचा था कि बड़ा जब पहली तनख्वाह लाएगा तो लखिया के चरणों में धरवा देंगी…लेकिन…? पुत्र-सरीखे लखिया के भतीजे उम्र-भर बैल की तरह जुतने के लिए ऊसर-बंजर उसके नाम लिखवा गए, उनके अपने ही रक्त-अंश…छिः, वे वितृष्णा से भर गयीं। मुख नहीं देखना चाहती थीं कुपूतों का।

क्या हुआ था उस रात और क्या घटा था उस दिन…‘‘क्या कहा था पुत्रों ने माँ के कान में–‘‘माँ…माँ, नाराज हो हमसे? हम कोई अलग हैं क्या? आपके ही रक्त-अंश…आपके ही अपने रूप हैं माँ। चाचा ने बहुत सेवा कर ली, अब हमें मौका दो।’’

इन पंक्तियों ने क्यों धतूरे का-सा प्रभाव फैला दिया था उनके स्वत्व पर! सम्मोहिनी ममता कहाँ से चीख उठी थी…चुपचाप कहीं अन्दर ही, जैसे इन्हीं शब्दों को सुनने को तरस रही थीं वे, इन वाक्यों को सुनने को ही जीवित थीं…। ‘पर नहीं’…अचानक मोह भंग कर जाग उठी थीं।

लखिया को समझाना भी कोरा आडम्बर लग रहा था, क्या कहकर दिलासा देतीं? अस्त्र-शस्त्र छिने पराजित योद्धा-से वे और लखिया दोनों उजाड़ आँगन में निःशब्द बैठे थे। बड़ा बेटा आँधी-तूफान-सा आया और हाथ पकड़कर उठाने लगा–‘‘चलो माँ, गाड़ी तैयार है।’’ ‘‘ना…’’ लखिया रोकने लगा तो उसे जोर से धक्का दिया था बड़े ने। हाथापाई होने लगी, गाली-गलौज–‘‘चाचा होगा अपने घर का, जिन्दगी-भर तो माँ को फुसलाए रहा, चलाता रहा बदनामियों के काँटों में…।’’ बड़ा इतना ही कह पाया था कि–‘‘चलूँगी…चल।’’ चीखती हुई वे घर से बाहर हो गयी थीं। लखिया उस घिनौने वाक्य-बाण-संधान से पीड़ित विस्मित-सा वहीं का वहीं खड़ा रह गया। उस दिन वे जान गयी थीं कि औरत आखिर में औरत ही होती है–हाथ की लकीरों की तरह अमिट रिश्तों में बँधी हुई भी महत्त्वहीन…स्वत्वहीन। उम्र के किसी भी पड़ाव पर लांछनों का अचूक बाण उसे घायल कर विवश बना सकता है। वे अपने चारों ओर बने कुचक्र के जाल में बिद्ध मृगी-सी विवश चली आयी थीं, मर्यादा का अतिक्रमण करने वाले पुत्र के साथ। लखिया से अपने के छुड़ाती हुई, बिलखता छोड़कर…।

बड़े के साथ उन्होंने नहीं रहना चाहा था। मँझले ने ही उन्हें रखने का जिम्मा अंगेज लिया था। बेटे ने माँ को राजधानी का एक-एक कोना घुमा-फिराकर कटु स्मृतियों को उनके मन से निकालने के भरसक प्रयत्न किए थे–आज बिड़ला मन्दिर…आज कुतुबमीनार…छतरपुर का लोटस टैम्पल…चिड़ियाघर…इन्दिरा गांधी की समाधी…राजघाट और न जाने कहाँ-कहाँ। महानगर की गरिमामयी भव्य इमारतों को देखकर वे कैसी बावरी-सी हो गयी थीं! कहाँ गाँव के लिपे-पुते पचास-सौ घर और कहाँ महा-समुन्दर-शा शहर दिल्ली। कोई सीमा नहीं थी उनके कौतूहल की। हर चीज अचरज-भरी लगती…बिन्दो देखती तो यहाँ से हटती नहीं…। बिन्दों की याद आते ही उन्हें अपने कमरे के नरम गद्देदार पलंग पर काँटों की नोकें छूने लगतीं। भीषण गर्मी के कूलर की शीत बयार उन्हें अपने चबूतरे पर नीम तले की छाँव बनकर बेचैन कर जाती। पुत्र और पुत्रवधू उन्हें उदासी से बाहर खींचने का प्रयत्न करते। उस दिन कार में दौड़ती घूमती हुलस उठी थीं–‘‘कितनी कुतबमिनार है रे दिल्ली में?’’

‘‘माँ, एक ही है।’’

‘‘फिर जि कहा है?’’

‘‘ये तो मकान हैं, होटल हैं।’’ बेटे ने स्पष्ट किया।

‘‘इत्ते ऊँचे पै को रहत होयगौ?’’ वे अचरज कर रही थीं।

ऐसे ही घूमते-फिरते एक दिन वह कागज भी सामने रख दिया बेटे ने जिस पर उन्हें दस्तखत करने थे। ‘‘पूरे एक लाख की जमीन है। माँ का क्या भरोसा? झट चाचा के नाम लिख देगी। आफ्टर ऑल शी हैड शॉफ्ट कॉर्नर फॉर हिम।’’ बड़े ने मँझले से कहा था।

‘‘माँ, लगाओ अँगूठा।’’ मँझले ने अँगूठे पर स्याही लगाने की तैयारी कर ली। लेकिन उन्होंने चिकू से पैन माँगकर टेढ़े-मेढ़े अक्षरों में बड़े मनोयोग से लिख दिया–‘कैलाशो देवी’। उन्हें क्या पता था कि यह लिखावट उनके नाम चढ़ी दस बीघे जमीन को भी छीन ले जाएगी और आज से उनका बुढ़ापा रेहन चढ़ जाएगा अपने ही बेटों के घर, किलस-किलसकर चुकने को! ससुर ने कितने चाव से उनके नाम यह जमीन की थी और आज वह भी…। लखिया के साथ जो उनके बेटों ने किया उसी आवृत्ति से वे भी ढक दी जाएँगी, ऐसा वे कहाँ सोच पायी थीं! माँ-बेटे के शाश्वत संबंधों के बीच आने वाली स्वार्थपरता को मापने का पैमाना किसी जननी के पास होता ही कहाँ है?

जमीन बेचकर बेटों ने आनन-फानन में पैसे बना लिए थे और बिना किसी विवाद के आपस में धनराशि बाँट ली थी, गाँव से नाता तोड़कर गंगा नहा लिए थे। उन्हें तो इस बात का उस समय पता भी नहीं चल सका था। सब कुछ चुपचाप हुआ था।

उनको अपने पास रखने के नाम पर अब तीनों बिदकने लगे थे। हिस्सा तीनों का बराबर था, तो उनकी रोटियों की जिम्मेदारी एक क्यों लेता? तथा कथित बुद्धिजीवि उनके पुत्र भावुकता की प्रवाहिनी को चातुर्य के अंकुश से बाँध पाने में समक्ष निकले थे। अतः यह मामला भी आसानी से सुलट गया इस नयी मुक्ति से। अब हर चार महीने पर उनका बिस्तर एक घर से उठाकर दूसरे में पटका जाने लगा। उनसे बिना पूछे, उन्हें बिना बताए ही उनकी विदा की तैयारी होने लगती, बड़ी उत्साहित प्रसन्नता के साथ। कुछ दिन बाद ही वे समझ पायी थीं कि बेटों ने उनके जीवन के शेष रहते दिनों को भी आपस में बाँट लिया है, जमीन की ही तरह, शान्ति से…। चार-चार महीने में खण्डित करके जीवन के शेष सालों को विभाजित कर दिया है। अब चार माह से एक दिन भी अधिक वे एक घर में नहीं रह सकती थीं, क्योंकि इनमें से कोई भी घर उनका अपना गाँव वाला घर नहीं था…यहाँ बिन्दों नहीं रहती थी जो थाली परोसे उनकी प्रतीक्षा मे सूखती रहे–यहाँ उनकी अपनी पुत्रवधू थी जो खाने की प्लेट किसी तरह नौकरानी से उनके ही कमरे में पटकवा देती थी, क्योंकि उनमें टेबल-मैनर्स नहीं थे। और न यहाँ लखिया था जो भाभी की गाँठ में बँधा इर्द-गिर्द चकफेरा खाता रहे। यहाँ उनका पुत्र रहता था जो माँ के कमरे की ओर आना जरूरी नहीं समझता था। यही किस्सा तीनों बेटों के घर का था, किसी का राई कम, किसी का रत्ती ज्यादा। बहुओं से मिला तिरस्कार उन्हें इतना नहीं सालता था, जितना गमगीन करती थी बेटों से मिली उपेक्षा। अनवरत दारुणता के चक्र में फँसी वे किसी निर्गम पथ को नहीं खोज पा रही थीं।

वे सारा दिन बैठी ऊबती थीं, उबासियाँ लेती रहतीं, सोचती रहती…गाँव में मरा दिन भी कैसी कुलाँचे भरते हिरन-सा भागता आता और आँखों से ओझल हो जाता। यहाँ तो पहाड़-सा दिन, जुग-सी रात, कोई क्या करे? कैसे काटे…? ड्राइंगरूम में टी.वी., वी.डी.ओ. चलता रहता तो वहाँ जा बैठतीं। पहले तो कुछ पल्ले ही नहीं पड़ता था। लेकिन यदि हिन्दी में कुछ आ रहा हो तो थोड़ा-थोड़ा समझने की कोशिश करतीं। बीच में टोका-टाकी भी कर देतीं–पूछ लेतीं। सबको नागवार गुजरता पर बच्चों और बहू के भृकुटि-वक्र को क्या वे समझ पातीं, वे तो जिज्ञासु बनी पूछती ही चली जातीं। ऊपर से मिलने-जुलने वाले-कभी बच्चों के, कभी बहू-बेटे के। उनके बीच बैठी वे सभी को कैसी बेमानी लगती! बहू चिड़िचिड़ी होने लगती। एक दिन तंग आकर कह ही बैठी–‘‘अम्मा जी, कोई आ जाय तब तो अपने कमरे में उठ जाया करो। गाँव में क्या टी.वी. ही देखती थीं? कुछ आपके लायक आएगा तो बुला लेंगे।’’

वे मर्माहत हुई अपने कमरे में चली गयी थीं। उनकी बहू क्या जाने कि गाँव में क्या था–उनका स्वनिर्मित स्वर्ग था–जिससे बिन्दों थी, लखिया था और थे सभी ग्राम्य जन। यदि यह टी.वी गाँव में होता तो बहू देखती कि इसके सामने पाँच सौ आदमी बैठे होते बे-रोकटोक–हर्षित उल्लसित। खैर, वे अपने कमरे में कैद हो गयीं। न कहीं निकलतीं न किसी से बोलतीं। भोजन जैसा भी मिल जाय, जब भी मिल जाय, स्वीकार्य था–देर से मिले तो खाली पेट की आँतों की ऐंठन और ऊलजलूल हो तो पेट में हुए अफारे को चुपचाप झेल जाना उन्होंने सीख लिया था। पल-पल टीसने वाले घाव अन्दर-ही अन्दर बहने को अपने अन्तर में कहीं गहरे गाड़ दिए थे।

जब यहाँ से आगरे गयी थीं तब तो फिर भी उन्हें चैन मिला था। दिल्ली का भाँय-भाँय करता कोठी के अन्दर का वह कमरा तो उन्हें किसी कारागार से कम नहीं लगता था। आगरे में छोटी बहू सीधी लाठी-सी तो हर वक्त खड़ी नहीं रहती थी, कुछ मोह-माया तो थी उसके हिय में। आसपास गीत-ढोलक की आवाज शादी-ब्याह की सी हुलस जगा देती मन में। अपनी बोली-बानी दुखते मन को कहीं सहला तो जाती थी। नाई, धोबी गाँव से आते ही रहते। नाई ही तो कहने आया था उनसे, कि लखिया के यहाँ बेटा हुआ तो वह सीधा दिल्ली गया था रेल में बैठकर, पर बड़े, मँझले किसी का घर उसे मिला ही नहीं, पूछता-पाछता बड़े के दफ्तर पहुँचा था सो बड़े ने उससे मिलने से साफ इन्कार कर दिया। एक चिट्ठी लिखाकर दे आया था दरबान को, अपनी भाभी के लिए और कह आया था, ‘‘सहाब की माँ को दे देना किरपा करि कें।’’ लेकिन उन्हें चिट्ठी मिली कहाँ, मिलती तो क्या वे रुकतीं, कैसे भी नहीं…।

‘‘अम्मा, लखिया दस्टौन के जिन उलमि-उलमि के देखत रहयौ हौ कै मति भाभी आवै, बड़ी देर में दावत बैठारी वाने।’’ नाई की बात सुनकर वे कई दिनों तक सहज नहीं हो पायी थीं…लखिया के बेटे के ही सपने देखती रही थीं।

‘‘अम्मा जी, फरीदाबाद आय गयौ।’’ लल्लू की आवाज से उनकी तंद्रा टूटी, बटोरी हुई विगत यादें इधर-उधर छिटक गयीं तो धोती की छोर से उन्होंने अपनी गीली आँखें पोंछ डालीं। पानी पीना चाहती थीं। इशारा करके पानी माँगा। लल्लू ने साथ लाई सुराही से पानी उड़ेकर उन्हे गिलास थमा दिया।

दिल्ली आकर बड़े के घर रहने की बारी थी उनकी। वे सीधी अपने कमरे में चली गयीं सामान समेत। उन्होंने बेहोंस माहौल में भी बच्चों को पकड़कर उनके सिर सहला दिए। बच्चे निर्लिप्त भाव से उन्हें देख अपने-अपने कामों में लग गए। बेटे-बहू के सपाट चेहरे देखकर वे अनमनी हो उठी थीं। रात को मँझला बेटा आ गया था। वे रात्रि-भोजन के लिए मनह कर चुकी थीं। जो कुछ छोटी बहू ने रखा था वही खा लिया। रात को नींद लग गयी। न मालूम ऐसी गहन निद्रा उन्हें कैसे आ गयी! आँख खुली तो सवेरा था। उन्होंने अपनी अटैची खोलकर कपड़े निकाले और अलमारी में रख दिए। वे बड़े मनोयोग से यहाँ रहने की अभ्यस्त होने के प्रयत्न में लगी थीं, ठीक उसी बच्चे की तरह जो परीक्षा के दिनों में बे-मन उबाऊ किताबे पढ़ने का प्रयत्न करता जाता है। स्नान कर पूजा करने बैठ गयीं। बड़ी देर तक ठाकुर जी के गीत मन-ही-मन गुनगुनाती रहीं–‘‘जा विधि राखै राम, ताहि विधि रहिए।’’

पूजा से उठी ही थीं कि लल्लू ने पुकार लिया–‘‘अम्मा जी पूजा है गयी होय तो आ जाऊँ?’’

‘‘आ जा…आ जा ललुआ।’’ वे लाड़ से बोलीं ।

वे पलंग पर बैठी थीं, लल्लू नीचे आकर बैठ गया।

‘‘अब जाय रहयौ हूँ अम्मा जी, कछू कहनी तौ नाँय?’’

‘‘का कहनी है रे मोय अब।’’

‘‘बैसें अब तौ तुम बंगलौर जाय रही हौ–सो खूब बजइयौ घंटरिया और खूब मनइयौ अपने ठाकुर जी। भजन-कीर्तन की पूरी छूट है, वहाँ कोई न रोकै तुम्हें।’’

‘‘कहाँ रे…कहाँ की बात कहि रहयौ है?’’ वे अचम्भे में पड़ी रही थीं।

‘‘मईं बंगलौर की, तुम्हें नाय पतौ सो? राति दोऊ भइया बात करि रहे कि बौहत परेसान करन लगी हैं अम्मा। सब बहुएँ दुखी है गयी हैं इनते, सो इन्हें मईं करि आऔ। खच्चा की बात है सो भेजत रहिंगे। आसरम में जाऔगी अम्मा जी तुम। मैंने सबरी बात सोनू भइया ते पूछि लई। परि अकेली परी-परी अकुताई जाऔगी। वहाँ न कोई अपनौ न जानि-पहचानि कौ।’’

सुन्न-सी रही गयीं वे स्तब्ध…इतनी अवांछित…क्यों पड़ी हैं यहाँ? क्यों जाती हैं मँझले के घर? और छोटे के आगरे? क्यों…क्यों…क्यों? अन्तर की ज्वाला पूरे वेग से शिखरान्वित हो जलने लगी थी, साँसों की धौंकनी उच्छवास छोड़ रही थी। छाती में सुलगन से उठे धुएँ के गुबार घुमड़ने लगे थे…इतनी परायी कि माँ के लिए वनवास की तैयारी कर दी उनके अपने ही बेटों ने…!

‘‘लल्लू, लाज मति जाय बेटा…मेरी अखीरी विनती सुन लै।’’ वे लल्लू के समक्ष घिघिया रही थीं, भीख माँग रही थीं उससे एक दिन की, केवल एक दिन…बस्स।

रात को बहू ने सास के बंगलौर जाने की पूरी तैयारी कर दी। जरूरत की हर चीज–घंटी, सुमिरनी माला, ठाकुर जी, उनकी पोशाक और वांछित सब वस्तुएँ।

भेजने को तो उन्हें वृन्दावन भी भेज सकते थे, लेकिन वृन्दावन पास है। वे लौट सकती थीं। इसी कारण सबने मिलकर बंगलौर का चुनाव किया था। कोई पूछेगा तो कह सकेंगे–उनका मन भगवद्-भक्ति में रम गया था सो गृहस्थ का मोह त्याग गयीं। कितना आसान तरीका…मुक्ति का, उनकी और परिवार की…दोनों की।

रात को अम्मा जी ने लल्लू से क्या कहा, क्या सुना–किसी को कान भनक नही लग सकी थी। सुबह सूरज चढ़ चुका था। बड़ी बहू बेड-टी पीते-पीते प्याला हाथ में लिए पीछे के लॉन में आकर कुर्सी पर बैठ गयी। अम्मा जी इस समय तक तो नहा-धोकर पूजा पर बैठ जाती थीं मगर आज कहीं से कोई आवाज नहीं, न हरि-नाम जपने की गुनगुनाहट, न घंटी बजने की टिन-टिन और न अलगनी पर फैले अध-निचुड़े से कपड़े। कमरे में झाँककर देखा तो सलवटविहीन बिछावन ज्यों-की-त्यों पलंग पर थी। सामान करीने से अलमारी में रखा था। बाथरूम झाँककर देख लिए, इधर-उधर नजर मार ली, पर कहीं नहीं…आखिर कहाँ गयीं सवेरे ही सवेरे? अचरज-भरे अंदेशे में डूबी बहू अपने पति को जगा लायी।

बरामदे में लल्लू कम्बल ओढ़े जमीन पर लुढ़क खर्राटे ले रहा था। बड़े ने लल्लू को झकझोर के जगा दिया। घबराकर मँझले को फोन किया तो वह भी जल्दी से आ गया। चारों ओर खोज-पुकार होने लगी। नुक्कड़ ने पान वाले से पूछताछ कर ली। सभी आश्चर्य में डूबे उनके गन्तव्य का सूत-छोर पकड़ने की कोशिश कर रहे थे।

‘‘थाने में रिपोर्ट तो लिखवा आते।’’ बड़ी बहू ने सुरक्षा का दृष्टिकोण अपनाते हुए कहा।

दोनों बेटे कार लेकर थाने की ओर भागे। लल्लू मुँह बाये सब देख रहा था और मन-ही-मन अनुमान लगा रहा था कि अब तक तो अम्मा जी गाँव पहुँच चुकी होंगी।

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