अंतरिक्ष-युग की ‘माता मइया’ (निबंध) : विवेकी राय

Antriksha-Yug Ki 'Mata Maiya' (Hindi Nibandh) : Viveki Rai

साधी माधवी गंध से आपूरित नीम वृक्ष की डालों पर 'माता मइया' झूल डाले झूल रही हैं। गीत भी गा रही हैं...

नीमिया की डढ़िया मैया लावेली झुलहवा,
कि झूली-झूली ना, मइया गावेली गीतिया,
कि झूली-झूली ना।

रात के साढ़े सात बजे हैं। चारों ओर घरों से गीत की पवित्र गुनगुनाहट उठ रही है। दीपक अभी तक नहीं जला। जले भी कैसे! माता मइया का जब तक डग्गा नहीं बज जाता है तब तक दीपक जलाना मना है। चारों ओर अँधेरा... लेकिन अँधेरा क्यों? आज तो अष्टमी है। सिर के ठीक ऊपर चाँद का चमचमाता टुकड़ा आसमान में झूल रहा है। जब आसमान की ओर देखता हूँ, तब ऐसा लगता है कि असंख्य छिटके और जगमगाते तारों के बीच कहीं से कोई तारा अवश्य ही धीमे-धीमे किसी न किसी ओर खिसकता नजर आएगा! आसमान में घुड़दौड़ हो रही है। रूसी और अमेरिकी घोड़े दौड़ते हैं। मानव की महत्ता और विज्ञान की करामात पर ध्यान जाता है, परंतु ऐसा लगता है कि वह भगवान अभी भी स्वयंसिद्ध सबसे महान है जिसने असली तारों की फुलवारी उगाई, चाँद सूरज की रचना की और जिसने उस इनसान को बनाया जो विज्ञान का स्रोत, प्रवाह और संगम है। जिसके नाम में जादू है, जो राम है और जिसकी कल राम नवमी है, अर्थात कल की तिथि में ही भू-भार हरने के लिए उसने अवतार लिया। 'नवमी तिथि मधु मास पुनीता।'

हजारों वर्ष पहले की बात है। वह चैत की नवमी भी मधुमास में पड़ी थी। उस मधु ऋतु में भी नीम फूली थी। तब से उसकी डालों पर झूला डाले 'माता मइया' अथवा 'समय माता' झूल रही हैं। झूल-झूलकर गीत गा रही है। उनके गीतों की गूँज हर कंठध्वनि में प्रतिध्वनित है। उसकी पवित्र गुनगुनाहट में मैं खो जाता हूँ‌‌‌‌‌ -

‌ झूलत-झूलत मइया लगली पिअसिया,
की चली भइली ना, मलहोरिया आवासे...
कि चली भइली ना।

झूला झूलते माता को प्यास लगी। माता की प्यास कौन बुझाये? वह स्वयं मालिन के यहाँ चलीं -

'मालिन! अरी, सो रही हो या जागती हो? देखो, माता तुम्हारे द्वार पर आई है। एक बूँद पानी तो पिला।'

'सेविका अनुग्रहित हुई। माता, चरणों में प्रणाम। परंतु जल कैसे पिलाऊँ? मेरी गोद में तो तुम्हारा बालक पड़ा हुआ है।'

'बालक को सोने के खटोले में सुला दो और हमें शीघ्र घूँट-भर पानी देकर जुड़ाओ।'

'बड़ी कठिनाई है माता। आपके बालक के लिए मेरी गोद से सुरक्षित और कोई स्थान नहीं है। सोने का खटोला तो टूट-फूट जाएगा और तब बालक जमीन पर लोट जाएगा।'

'अच्छा, ऐसी बात है तो तुम उसे सुला दो। मैं उसे अपनी गोद में उठा लूँगी।'

एक हाथ लिहली मालिन झंझरे गडुअवा...
कि एक हाथे ना, सिंहासने के पाट,
कि एक हाथे ना।

एक हाथ में जलपात और एक हाथ में बैठने का आसन लिए मालिन माता की सेवा में उपस्थित हुई। माता ने जल ग्रहण किया और परम तृप्ति के साथ आशीर्वाद दिया -

'मालिन जिस प्रकार आज तुमने मुझ तृषित को शीतल जल से परितृप्त किया है, उसी प्रकार तुम्हारे पुत्र और पुत्र-वधू संसार में परितृप्त हों।'

'...मगर, माता! मुझे तो यह वरदान चाहिए यह बालक बड़ा होकर नगर में तुम्हारी फेरी लगाये!'

'एवमस्तु!'

झुग्गड़-झुग्गड़-झुग्गड़-झुग्गड़-

माता मइया का डग्गा बज रहा है। हट जाओ सामने से। सिर पर गमछा रख लो। माता मइया का रथ आ रहा है। लड़कों को खींच लो, स्वागत में घर-द्वार लीप-पोतकर साफ किया गया है। गली-कूचे झार-बुहारकर चिकने किये गए हैं। लौंग और इलायची के छाक से वायुमंडल को पवित्र बनाया गया है। मिट्टी के पुराने बर्तन सब खारिज कर दिये गए। नए-नए बर्तन आकर रखे हैं। आज ये अंवासे जाएँगे। उन पर घी से 'राम-नाम' लिख दिया जाएगा। कुम्हार के घर से आए झनकते वे लाल-लाल बर्तन! उनमें महत्वपूर्ण है 'कलश'। यह माता मइया की पूजा का 'कलश' है।

डुग्गड़-डुग्गड़-डुग्गड़-डुग्गड़-

गली से डग्गा बजाता हुआ निकल गया। मोती चमार बजा रहा है। अभी-अभी दवरी पर से आया है। पानी भी नहीं पिया। चट गले में डुग्गी लटकाकर बाँस की दो लकड़ी लेकर माता मइया के शुभागमन सूचक 'डग्गा' गाँव में गली-गली घुमा आया। प्रति वर्ष घड़ी-भर रात गए मइया की सवारी आती है। गीत शुरू रहते हैं। हाँ, इसके बाद दीप जलता है और कलश भरने का काम प्रारंभ हो जाता है।

वर्ष भर की पवित्र और सुहावनी रात। घर-घर गीत और गली-गली गुनगुनाहट! नदी किनारे माता मइया की धूम है। पवित्र सिहरन और पूज्य भावना के संगम पर स्नान। लड़कों में कोई अचिंत्य महत्ता का कोलाहल है। माताओं के साथ वे भी स्नान कर रहे हैं। यह माता माई को गज्जी है। 'गज्जी' यानी कलश ढकने का वस्त्र। कोई भी कोरा वस्त्र हो। कम-से-कम एक गिरह भी, मूल चीज है भावना। अमूर्त माता मइया का महिमा सूत-सूत में इस प्रकार अनुस्यूत है कि वह गज्जी बहुत भारी हो जाती है। यह मइया का पीढ़ा है। यह मइया का 'सिरिजना' है। मइया की हर चीज पवित्र मन से, पवित्र तन से और पवित्र वचन से छुओ। कलश को सावधानी से ले चलो। कलश में 'पानी' नहीं 'जल' है। आम्र-पल्लव दिन के ही लाकर रखे हैं। घर के सबसे साफ और पवित्र तथा परंपरागत कोने में पूजा-कलश स्थापित होगा। घरों में आज बालकों की भी चीख-पुकार नहीं। अद्भुत शांति। केवल गीत की गुनगुनाहट...'नीमिया की डढ़िया...।' अथवा 'जय-जय अगरवा मइया, जय-जय पिछरवा।' 'अगवारे-पिछवारे' सर्वत्र माता माई की जयजयकार है। आसमान से एकदम ज्योतिर्मय रूप में माता उतरती हैं। वे धन, यश, लाभ और पुत्र-पौत्रादिकों को स्वास्थ्य प्रदान करती हैं। सबसे अधिक प्रिय हैं उन्हें 'बालक'। बालकों का अलौकिक प्यार प्रदान करती हैं। पापियों को रथ में बाँधकर घसीटती हैं। माता का यह एक दूसरा ही रूप है।

रथवा चढ़ि मैया गरजति आवे...
कि सगरी नगरिया मैया फेरिया लगावे।

माता अत्यंत तेजोद्दीप्त स्वर्ण-रथ पर आरूढ़ गरजती हुई आती हैं और योगक्षेम के साथ नाश-विनाश लिए समस्त नगरी का परिभ्रमण करती हैं। उनका रथ वायुवेग से चलता है। उसकी अश्रुत घरघराहट के आतंक से बालक दुबके रहते हैं। डग्गे की आवाज सुनते ही रोमांच हो जाता है।

...और लो, सचमुच पश्चिमी क्षितिज के ऊपर एक तारिका चलती हुई दिखायी पड़ी। ठीक वही तरिकाओं का रूप, ठीक वही रंग, ठीक वही चमक। अंतर इतना ही है कि वह निःशब्द ऊपर की ओर सरक रहा है। धीमे-धीमे खिसक रहा है, परंतु अविराम खिसक रहा है खिले हुए फूलों के बीच यह एक ऐसा फूल है कि सबके बीच सीधे मार्ग निकालकर चल रहा है। सारी फुलवारी स्तब्ध है। वास्तव में यह क्या है? क्या यह नए युग की नई लीक नहीं है? ओफ, अभी तो बन रही है। जब गहरी हो जाएगी तो क्या होगा? पुरानी लीकों पर पानी फिर जाएगा। तब इन गीतों की गुनगुनाहट का क्या होगा? जब विज्ञान के ऐसे मूर्त रथ चमचमाते हुए आसमान में दौड़ने लगे तब, 'माता मइया के उस अमूर्त रथ का क्या होगा?

जैसे-जैसे विचार करता हूँ बड़ी निराशा होती है। क्या भविष्य की शिक्षा प्राप्त माताएँ वर्तमान जैसा 'माता मइया' की पूजा का तन्मय वातावरण उत्पन्न कर सकेंगी? क्या उनमें हार्दिकता का यह स्रोत रह जाएगा? क्या ये पवित्र रातें, ये गीत, ये पावन स्वर विज्ञान की आँच से बच सकेंगे? नहीं बच सकेंगे।

देखो, वह आग की चिनगारी उपग्रह बनकर आसमान में उठ रही है। पुराना सब जलकर भस्म ही हो जानेवाला है। बुरे के साथ अच्छा भी जलेगा। 'नीमिया की डढ़िया मइया' की अंतिम गूँज भी शायद जल जाए। तब क्या होगा? यह रामनवमी का त्यौहार क्या होगा? जब कंप्यूटर युग आ जाएगा, तब कृत्रिम जीव बनने लगेंगे, कविता आदमी नहीं, यंत्र बनाने लगेंगे, गुरुत्वाकर्षण पर नियंत्रण हो जाएगा और उपग्रहों द्वारा दोतरफा संचार साधारण घटना हो जाएगी, लोग चाँद-सितारों पर तफरीह करने लगेंगे और 'राम-राम' का स्थान यंत्र ले लेंगे तब 'रामनवमी' का क्या होगा? 'माता मइया' का क्या होगा?

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