अन्तिम परी (कहानी) : पॉल बोर्जे

Antim Pari (Story) : Paul Bourget

1
मेरी उम्र सोलह साल की थी, जब मैंने उसे प्रथम बार देखा। मुझे याद है, वैशाख की एक मनोरम संध्या को वह साक्षात्कार हुआ था। मैं नगर से अकेला निकलकर लक्ष्यहीन हो, स्वप्नदर्शी-सा दिन-रात मैदानों के बीच से चला जा रहा था। क्यों चला जा रहा था, यह नहीं जानता था। मेरी कुछ सालें ऐसी ही बीती थीं। तब मुझे एकान्त बहुत प्रिय लगता था।

मैंने देखा, कनक-रंजित नील समुद्र में सूर्य डूब गया। उपकूल से छाया उतरकर समतल भूमि पर फैल गई। अनन्त आकाश में तारे एक-एक करके खिल उठे। बीच-बीच में 'नाइटिंगिल' पक्षी के गीत की तरंगें उच्छ्वसित होने लगीं। मीठी वायु से वृक्ष-पल्लव सिहर उठे, तृण-पुंज दब जाने लगे। फिर चन्द्रमा दिगन्त में उदय हुआ, श्वेत और उज्ज्वल, मानो बादल के पलंग पर सोया हो; रूपहली किरणें पृथ्वी पर झर रही थीं। शीत-संताप-रहित पवन हृदय को उन्मत्तकारी सौरभ से भर रहा था। कुसुमित झाड़ियों के बीच से, नीड़ों में छिपे हुए पक्षियों के प्यार-भरे मृदु कलरव सुनाई दे रहे थे।

यह सब, मधुर शब्द और मधुर गन्ध उपभोग करने के लिए हृदय का द्वार खोल दिया कि देखा, कई युवतियों एक-दूसरे का हाथ पकड़कर गीत गाती हुई शहर को लौटी जा रही हैं। वे एक स्वर से प्रेम का गीत गा रही थीं। निद्रित मैदान के सन्नाटे में उनके तरुण स्वर किसी दूर की निर्झर-ध्वनि की भाँति लग रहे थे। मैं झाड़ियों के पीछे छिपा रहकर उनको देखने लगा। जैसे श्वेत छायाएँ रात्रि के समय प्रकाश होते ही अदृश्य होती, देखने में वे उसकी तरह की थीं। तारों के प्रकाश में उनके काले या गोरे मुख मैं देख पाया। मैं उनकी पोशाकों का 'खस-खस' शब्द सुन पाया! पथ पर वे अपने शरीर से निकली हुई जो अपूर्व सुगन्ध छोड़ गई थीं, वह मैंने लम्बी-लम्बी साँसें खींच कर जी भर कर सूंघी। संध्या की उस सौरभ-भरी, हृदय को बेसुध करने वाली समीर के उच्छ्वास से भी यह सौरभ मानो अधिक उन्मत्त करनेवाली थी।

वे जब चली गईं, तब जाने कैसी एक अज्ञात व्याकुलता ने आकर मेरे चित्त पर अधिकार कर लिया। मैदान के किनारे एक छोटा टीला था, उस टीले पर जाकर मैं बैठ गया। सामने फैला हुआ मैदान हरियाली का एक समुद्र-सा हो रहा था। दोनों हाथों से माथा ढंककर भीतर जो कम्पन हो रहा था, उसका शब्द सुनते-सुनते, उसका अर्थ समझने की चेष्टा करते-करते, एक गहरी स्वप्न-कल्पना में मैं डूब गया।

तब जो अनुभव किया, वह शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। एक भयानक वेदना से मेरा हृदय मानो फटने लगा। हृदय में मानो कहीं एक झरना दबा पड़ा था, वह मानो बाहर आने का पथ ढूँढ रहा था, मानो एक बन्दी तरंग-कारागार तोड़ कर बाहर निकलना चाहता था। मैं रोने लगा। आँसू बहने लगे। उन आँसुओं में भी जाने कैसी एक बिलासिता-सी छिपी रही।

कुछ समय तक मैं इसी भाव से बैठा रहा, फिर जब उठकर खड़ा हुआ, तब देखा कि मेरे सामने कुछ दूरी पर एक स्वर्ग की देवी खड़ी मुझे देख रही है और मुस्करा रही है। कमल से भी अधिक श्वेत एक लम्बा वस्त्र उनकी देह पर झूल रहा था। और संगमरमर से भी अधिक सफ़ेद दो चरण घास के ऊपर रखे थे। सुनहले केश उनके कन्धों के चारों तरफ बिखरे थे, और जिस कुसुम के मुकट से उनका मस्तक भूषित था, उसी कुसुम की तरह कपोल उज्ज्वल थे! उस गुलाबी मुख पर बैशाख के प्रथम चुम्बन से हिम पर खिले हुए 'पेरिविस्कल' फूलों की तरह, दोनों आँखें चमक रही थीं। दोनों बाँहें नग्न थीं; एक हाथ उनकी छाती पर रखा था, और एक हाथ से मानो मेरा आह्वान कर रही थीं।

मैं कुछ समय तक अवाक् होकर चुपचाप उन्हें देखता रहा। निश्चय ही वे स्वर्ग से उतर कर आई थीं, क्योंकि उस सौन्दर्य में लौकिक स्त्री-सा कुछ भी नहीं था; चमकीले वस्त्र की तरह, उनके चारों ओर एक वायुमंडल, मानो किरणें फैला रहा था। अन्त में व्याकुलता के साथ हाथ बढ़ाकर मैं कह उठा, “तुम कौन हो?"

रात्रि की वायु से भी मृदु-मन्द-स्वर से उसने उत्तर दिया-मित्र! में एक परी हूँ। हमारे राजा ने तुम्हारे जन्म के समय, तुम्हारे हृदय के भीतर मुझे निद्रित रहने की आज्ञा दी थी; तुम्हारे हदय में पहले-पहल जो आकुलता आई, उस आकुलता के वेग से मैं जाग गई हूँ। मेरा जीवन तुम्हारे जीवन से गठित है। मैं तुम्हारी बहन हूँ। जीवन के आधे पथ तक हम लोग एक साथ चलेंगे। फिर सूखा फल जिस तरह से अलग होता है, मैं भी एक दिन बीच रास्ते से उसी तरह अलग हो जाऊँगी। पर देखो भाई, वह दिन और अधिक दूर नहीं है। जिस गुलाब का आयु-काल केवल एक प्रभात है, उसी की तरह मेरी भी नियति है। मुझसे प्रेम करने के समय यह बात भी स्मरण रखना कि मुझे एक समय खोना पड़ेगा; जब मेरी मृत्यु होगी, तब लाख रोने और दुख करने पर भी मुझे बचा नहीं सकोगे। शीघ्र तैयार हो जाओ। मेरे पास जादू की कोई सामग्री नहीं है। मेरे बालों के ये पुष्प-भूषण ही मेरी सजावट हैं। मैं तुम्हें इतनी धन-दौलत दूँगी, जो किसी राज-पुत्र के जन्म-काल में किसी उदार परी ने भी उसे नहीं दी है। तुम्हारे सिर पर मैं एक ऐसा मुकुट पहना दूंगी, कि अनेक राजा अपने मुकुटों के मूल्य से भी तुम्हारा वह मुकुट खरीदकर अपने को भाग्यवान् समझेंगे! तुम्हारे लिए मैं ऐसे अनुचरवर्ग नियुक्त करूँगी, जो राज-भवन या राजदरबार में नहीं दीखते। मैं अदृश्य होकर सदा तुम्हारे साथ रहूँगी। सदा ही तुम मेरा लाभकारी प्रभाव अनुभव करोगे। जिन स्थानों से तुम चलोगे, मैं उन स्थानों को सजाऊँगी। रात्रि को मैं तुम्हारी शय्या सुगन्धित करूंगी। तुम्हारे जगने पर, हर एक प्रभात तुम्हें हास्यमय लगे, इस उद्देश्य से, सारी प्रकृति को अपनी अन्तरात्मा प्रदान करूँगी। अहा, हम लोग कितने सुन्दर-सुन्दर उत्सवों का उपभोग करेंगे। केवल जो धन-दौलत तुम्हारे पास लाऊँगी, मित्र उसे पहचानना सीखना। हाथों से खिसकने के पहले ही उसे दृढ़ मुट्ठी में पकड़ लेना होगा। बिना बिगाड़े किसी चीज को कैसे स्पर्श करना चाहिए, यह जानना। मुझसे अलग होकर तुमको आधा पथ चलना है, पहले से उसका प्रबन्ध कर लेना। देखो मित्र, मैंने तुमसे पहले ही कह दिया है कि मैं बहुत थोड़े दिन तक जीवित रहूँगी; पर मेरे इस छोटे मूल्यवान् जीवन को और कुछ लम्बा करना या न करना तुम पर निर्भर है। मैं उन सब दुर्लभ पौधों की तरह हूँ जिन्हें यथा परिमाण सूर्य के प्रकाश और वर्षा से जीवित रखना पड़ता है। मेरे दोनों चरण बहुत सुकुमार हैं, अपने अनुसरण में उन्हें थका मत देना। मेरे कपोलों की चमक और प्रभा कमल से भी कोमल है; अगर उन्हें सुखा देना नहीं चाहते हो, तो जलती हुई वासना की आग के भीतर मुझे न ले जाना। घनी छाया के भीतर से मुझे ले जाना। मेरे चले जाने पर तुम जो भयानक कष्ट अनुभव करोगे, ख्याल रखना वह विषैला न हो उठे। वही करना, जिससे मेरी याद तुम्हें सुख की याद-सी लगे! तुम्हारे जीवन को मैं और किरण की धारा में उज्ज्वल और दीप्त तो नहीं कर सकूँगी, पर मेरे चले जाने पर भी अनेक दिनों तक तुम्हारे हृदय में उसका एक मधुर प्रतिबिम्ब जिससे छोड़ सकूँ, वही करना!"

यह कहकर, शिशु के रक्षक-देवता जैसे शिशु के पालने पर झुके रहते हैं, उसी तरह मेरी ओर उन्होंने अपना श्वेत मुख झुकाया और मेरे माथे पर अपने होंठों का स्नेहपूर्ण स्पर्श किया। वे होंठ झरी के आस-पास के ताजे पोदीना की गन्ध से मानो सुगन्धित थे।

क्या यह स्वप्न नहीं है? मैं मैदानों के ऊपर से लगातार चलने लगा; कभी पागल की तरह दौड़ रहा था, और कभी घास पर लेट कर घास को आँसुओं से भिगो रहा था; और कभी सनोवर वृक्ष के पतले वृन्त को अपनी छाती में चिपका रहा था. और सोच रहा था, मेरे उन्माद के लक्षण देखकर वह भी शायद सिहर रहा है, काँप रहा है। कभी मैं तारावलियों की ओर हाथ बढ़ा कर, प्रेम-मुग्ध हदय से उनसे बातें कर रहा था, और कभी फूलों के साथ, वृक्षों के साथ, तृणों के साथ बातें कर रहा था। मैं अनुभव कर रहा था कि मानो मेरे भीतर एक पुलक का प्रभाव दौड़ कर मेरे सर्वांग को आनन्द से बहा दे रहा है और वह मेरा हृदय पूर्ण करके सारी प्रकृति में फैल गया है। मानो बाँध टूट गया है। मैं हँसने लगा, रोने लगा। एक प्रकार के अनिर्वाच्य सुख और नामहीन आनन्द के असीम सागर में मानो तैरने लगा।

जब प्राची कुछ उज्ज्वल हो उठी, मुझे लगा मानो सृष्टि का जागरण मैं यहीं प्रथम देख रहा हूँ। मेरा हृदय भर उठा; मैं गर्व से भर कर साँसें लेने लगा। क्षण-भर के लिए लगा, मानो मेरी आत्मा देह से निकलकर मुक्त भाव से, लघु भाव से, आकाश के भीतर से उड़ जाएगी, और उदीयमान सूर्य ने जिन सब क्षीण वाष्पराशियों को अलग-अलग कर दिया था, उन्हीं वाष्पराशियों के साथ घुल-मिल जाएगी। पर्वत पर चढ़ कर एक ऊंचे स्थान से मैं विजयी की दृष्टि से सारे दिगन्त का निरीक्षण करने लगा। लगा कि अभी-अभी पृथ्वी की मेरे लिए सृष्टि हुई है, और मैं ही उसका प्रभु हूँ!

2
फिर वे मेरे पास आई। उस समय मेरी उम्र पूरे तीस साल की नहीं हुई थी। मुझे स्मरण है, कार्तिक मास की एक सन्ध्या को वह घटना हुई थी। मैं नगर से अकेला बाहर निकला था। लक्ष्यहीन, उदास और थका-सा मैदान के बीच से चला जा रहा था। यद्यपि स्वभावतः एकान्त स्थान मैं पसन्द नहीं करता था।

बादलों से आकाश ढका था। एक बहुत शीतल वायु वृक्षों के अन्तिम डार पत्तों में धक्का मार रही थी। बेलों और झाड़ियों में केवल कुछ छोटे-छोटे बीज के आकार के फल लगे थे। दूर के किसानों के घरों से कुत्तों के घोर विषाद-भरे चीत्कार और वृक्षों के डार-पत्तों के बीच से ऊपर उठता हुआ धागा-सा पतला नीला धुआँ-यही उस उजाड़ ग्रामीण प्रदेश के जीवन का निदर्शन था। कुछ पक्षी डर से विह्वल होकर एक डार से दूसरी डार पर उड़ कर जा रहे थे। काले कौवों के नीड़ों से भूमि पर कुछ धब्बे पड़ गए थे। सन्ध्या के भूरे आकाश में बहुत से सारस एक पंक्ति में धीमी गति से उड़े जा रहे थे।

इस शोक से आच्छन्न प्रकृति के साथ अपनी अन्तरात्मा को मिलाकर मैं चलने लगा। सुन्दर दिन के अवसान में चित्त पर जैसी एक ठंडे विषाद की छाया मँडराती है, उसी तरह बहुत देर से विषाद से अभिभूत था। मैं जिस पत्र-हीन झाड़ी के नीचे बैठा था, वहीं देखा-बग़ल से दो स्त्रियाँ धीमे क़दमों से चली जा रही हैं। दोनों ही काँटेदार पौधे सिर पर धरे कुछ झुक गई थीं। शायद जाड़े के समय के लिए संचय करके रखने के उद्देश्य से उन्हें कुटिया में ले जा रही थीं।

कैसी अद्भुत स्मृति है! कैसी अद्भुत निकटता है! बहुत पहले ठीक इसी समय किसी एक बैशाख की सन्ध्या में ठीक इसी स्थान पर से युवतियों को हाथ पकड़कर गाते हुए जाते देखा था। उस समय मेरी उम्र सोलह साल की थी, और तब ये झाड़ियाँ फूलों से भूषित थीं।
तब मैंने दोनों हाथों से मुख ढंक लिया, और उस बैशाख की सन्ध्या से इस कार्तिक की सन्ध्या तक जो समय बीत गया है, उसे लेकर मन-ही-मन बार-बार आन्दोलन करने लगा। फिर एक विषादपूर्ण हरी क्लान्ति में डूब गया।

फिर सहसा उठकर देखा:-थोड़ी दूर पर एक पीले रंग की मूर्ति विषादपूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देख रही है। वह रमणी इतनी बदल गई थी कि बहुत कठिनाई से मैं उसे पहचान सका। उसके प्रथम आविर्भाव के समय जो ज्योतिपूर्ण वायुमंडल उसके चारों ओर घिरा था, उसे और नहीं देख पाया। उसकी फटी कुर्ती के भीतर से कुचले हुए से दो स्तन दीख रहे थे। उसके दोनों पैर खून से भरे थे। उसकी निर्जीव बाँहें जीर्ण पंजर की बग़ल से शिथिल भाव से लटक रही थीं। उसकी आँखों में नीलिमा गायब होकर कालिख आ गई थी। आँसुओं की धाराओं ने उसके नीले रंग के कपोलों पर गहरी रेखाएँ अंकित की थीं। ऐसा लगा कि अभागी बहुत कष्ट से देह का भार धरे है। टूटे वृन्त के सूखे कमल की तरह वह भूमि की ओर झुक गई थी।
मैंने उससे पूछा, "तुम क्या चाहती हो?"

"मित्र! हम लोगों के विच्छेद का समय आ गया है। अब और साक्षात नहीं होगा. इसलिए यह अन्तिम विदा लेने आई हूँ!" यह बात बुढ़िया ने शोक से दुखी स्वर से, जाड़े की वायु से भी अधिक विषाद-भरे स्वर से, मृदु गुंजन करके कही।

मैं कह उठा, "जा, जा, यहाँ से! झूठी कहीं की। तूने मेरे लिए क्या किया है? तूने जो दौलत देने का वचन दिया था, वह सब दौलत कहाँ है? मैंने यात्रा-पथ पर बहुत ढूँढा, कुछ भी नहीं पाया। तूने जो रत्नों का भण्डार मेरे पैरों पर समर्पित करने का वचन दिया था, वह रत्नों का भण्डार कहाँ है? दैन्य के सिवाय मैंने तो और कुछ भी नहीं पाया। मेरे मस्तक पर तूने जो मुकुट पहनाने की डींग हाँकी थी, उसका क्या हो गया? मेरे सिर पर तो काँटों के मुकुट के सिवाय और कुछ नहीं है। जिन भड़कीले अनुचरों को देने का वादा किया था, वे अनुचर कहाँ हैं? अनुचरों में निराशा और एकान्त ही तो मेरे एकमात्र साथी हैं। अब तू कह रही है कि हम लोगों में विच्छेद होगा। तू दुखों की प्रेतनी है। विच्छेद होने में मेरी क्या हानि है? अगर मेरा सारा जीवन तेरे ही प्रभाव से गठित हुआ हो, तो तू भाड़ में जा, जहन्नुम में जा! तू अमंगल की पिशाचिनी है!"

बुढ़िया ने दुखित भाव से कहा, "मैं न अमंगल की पिशाचिनी हूँ, और न दुखों की। मुझे खोने के पश्चात् मनुष्य मुझे पहचान नहीं सकता। मैंने जिन सुखों से उसे सुखी किया था, उसका मूल्य अब वह नहीं समझ सकता, क्योंकि अब वह वे सब सुख उपभोग नहीं कर रहा है। मनुष्य की नियति यही है। अपने भाइयों की तरह, मित्र तुम भी कृतघ्न हो। तुम मुझको अपराधी बना रहे हो। मैं तुम पर करुणा करती हूँ। क्षण भर में ही तुम मुझे पहचान सकोगे, तब प्रथम बार मुझे जैसा देखा था, एक दिन के लिए मुझे फिर एक बार वैसा देखने की इच्छा करोगे। शायद अपनी सारी अवशिष्ट आयु के मूल्य में भी यह अभिलाषा पूर्ण करना चाहोगे। तुम कातर भाव से पूछ रहे हो, कहाँ वह सुख-सम्पदा है, जिसकी मैंने प्रतिज्ञा की थी? पर वे सब सुख और सम्पदा तो मैंने तुम्हें खुले हाथों से दान की थी, तुम्हीं ने तो उसकी अवज्ञा की। मुकुट की बात कहते हो? मैंने तो तुम्हारे ललाट पर बसन्त-प्रभात की नवीनता, उज्ज्चलता और शान्ति का मुकुट पहना दिया था। अनुचर-वर्ग की बातें कहते हो? मैंने प्रेम, विश्वास, आशा और मोहिनी यह सब अनुचर तुम्हें दिए थे। तुम्हारी दैन्य दशा ऐसी हास्यमयी और सुन्दर बना दी थी कि अनेक प्रतापी और ऐश्वर्यशाली व्यक्ति अपने धन और दौलत के बदले में उस दरिद्रता को प्राप्त करने के लिए आकांक्षी होते। तुम्हारे एकान्त को तो मैंने मोहक स्वप्न में पूर्ण किया था। तुम्हारे द्वारा तुम्हारी निराशा से भी प्रेम करा दिया था; तुम्हारे आँसू से तुम्हें इतना उत्तेजित कर दिया था कि अब से लाख मुसीबत आने पर भी तुम आँसू नहीं बहाओगे। जब तुम रास्ते पर चलते थे, तब तुम्हारे रक्षण के लिए ममता और दया को मैं जागृत रखती थी। तब तुम मित्र की दृष्टि और भाई के हाथ के सिवा और कुछ नहीं देख पाते थे। आकाश मुस्कान-भरे चेहरे से तुम्हारी ओर देखता रहता था; पृथ्वी भी तुम्हारे पैरों के नीचे पुष्पित हो उठती थी। अब कहो तो सही, मैंने जो तुम्हें इतनी चीजें दी उन सबको लेकर तुमने क्या किया? उन धन-सम्पदाओं में से कुछ भी क्या रख पाए हो? तुम्हारे यात्रा-पथ के दोनों किनारों पर मैंने जो इतने सुख के बीज बोये थे, अब उनमें से क्या बचा है? तुम अगर कुछ भी संभालकर नहीं रख पाए, तो क्या उसके लिए मैं उत्तरदायी हूँ? तुम अगर वह सब उपभोग नहीं कर सके, तो उसके लिए मैं कैसे अपराधी हो सकती हूँ?"

इन बातों के पश्चात्, एक प्रकार से मेरी सारी सत्ता प्रकाशित हो उठी। मुझे लगा-मानो एक आवरण मेरी आँखों से हट गया है, तब मैं अपने हृदय का सारा भीतरी भाग साफ़ देख पाकर डर से विह्वल हो पड़ा। मैंने धीमे स्वर से कहा, "अजी, तुम ठहरो! जाओ मत! जिन धन, सम्पदाओं की मैंने अवज्ञा की थी, उन्हें लौटा दो, असली प्रकाश से मेरी आँखें खुल जाएँ। मेरे प्रेम को, मेरे मोह को लौटा दो; मेरे विश्वास को, मेरे आश्वासन को लौटा दो, जिससे केवल एक दिन प्रेम कर सकूँ। यह तुम कर दो, तब तुम चाहे जो भी क्यों न हो, मैं मरते समय तक तुमको आशीर्वाद दूंगा।"

उसने कहा, "हाय! मेरी मृत्यु जो सिर पर मँडरा रही है, क्या तुम देख नहीं पा रहे हो? मेरी ओर देखो, मैंने बहुत ही कष्ट पाया है; अब मेरा और कुछ भी नहीं है, केवल छाया अवशिष्ट है। देखो, बहुत दिनों से एक अज्ञात रोग मुझे जला रहा है, एक सर्वग्रासी साँस की वायु ने मेरी हड्डियों को सुखा दिया है। मेरे हदय के जीवन-निर्झर को निःशेष कर दिया है। मेरे कलेजे में अब और खून नहीं है। मेरे हाथ का स्पर्श करके देखो, मृत्यु की गीली ठंड अनुभव करोगे। फिर भी, अगर तुम इच्छा करते, तो मैं और अनेक वर्ष बच सकती थी। निर्दय! तुम्हीं ने मुझे अकाल में मार दिया। तुम्हारा अनुसरण करने में मैंने अपना सारा बल नष्ट किया है। मेरे दोनों पैर लहूलुहान हो गए हैं। मैंने तुमसे कितनी ही क्षमा माँगी; पर सब व्यर्थ हुआ। तुम कहते रहे-"चलो! चलो!" में चलती रही, क्लान्त-अवसन्न होकर हाँफती हुई चलती रही। चलते-चलते रास्ते के काँटेदार पेड़-पौधों से मेरी पोशाक फट गई; दोपहरी की धूप के ताप से मेरा माथा जलता रहा। वसन में गाँठ देकर फिर सँभालकर पहन लूँ, मुकुट के मलिन झरते हुए फूलों को उठा लूँ, इतना समय भी तुम्ने मुझे नहीं दिया। कोई फूलों से शोभित सुन्दर आश्रम, कोई रहस्यमय मरु-कानन दे कर जब तुमसे कहती-"मित्र, शान्ति वहीं है, वहीं हम लोगों का तम्बू गड़ेगा।" तब तुम किसी तरह भी नहीं रुकते थे। जिद करके लगातार चलते ही रहते थे, और मुझे निर्दय भाव से रेगिस्तान की बालू पर से खींच ले जाते थे। किसी भी अत्याचार से क्या मुझको छुटकारा दिया है? तूफान आने पर मेरा सिर कभी बचाया है? श्रान्त, क्लान्त और निराश होकर कितनी ही बार तुम्हें छोड़ जाने का निश्चय किया; पर कृतघ्न! मैं तुमसे प्रेम करती थी। मैं तुम्हारे पास नहीं हूँ, यह अनुभव कर जब तुम आश्चर्य करते और फिर मेरे पास लौट कर इशारे से या करुण स्वर से मुझे पुकारते थे, तब मैं और रह नहीं पाती थी; मैं उठकर फिर तुम्हारे पास आती थी। पर आज उन सबका अन्त हो गया है मित्र, अब और अधिक मैं नहीं रह सकती। मेरे रक्त का प्रवाह बन्द हो रहा है; मेरी दृष्टि क्षीण हो गई है, मेरे पैर काँप रहे हैं। आओ, बाँहों से एक बार मुझे हृदय में चिपका लो, तुम्हारे हृदय में ही मैंने जीवन पाया था, तुम्हारे हृदय पर ही मैं मरना चाहती हूँ!"

उसे लेने के लिए मैं दोनों हाथ बढ़ाकर कह उठा, "नहीं, तुम नहीं मरोगी। तुम्हें मरने नहीं दूंगा; परन्तु अपरिचित जीव मुझसे कहो, तो तुम कौन हो?"
वह बोली, "मैं अब कुछ नहीं हूँ, पर एक समय थी तुम्हारी जवानी...!"

तब आकुल होकर मैंने उसे पकड़ने की चेष्टा की; पर इसके पहले ही वह कहीं गायब हो गई थी। देखा-उस स्थान पर उसके बालों से गिरे हुए कुछ फूल पड़े हैं। मैंने संभालकर वे सब फूल उठा लिए, परन्तु हाय, उन फूलों में कोई सुगन्ध नहीं थी!