व्यवस्था के चूहे से अन्न की मौत (व्यंग्य) : हरिशंकर परसाई
Vyavastha Ke Chuhe Se Ann Ki Maut (Hindi Satire) : Harishankar Parsai
इस देश में आदमी की सहनशीलता जबर्दस्त और तटस्थता भयावह है। पूरी व्यवस्था में मरे हुए चूहे की सड़ांध भरी हुई है। चूहे सरकार के ही हैं और मजे की बात यह है कि चूहेदानियां भी सरकार ने चूहों को पकड़ने के लिए रखी हैं। लेकिन वे किसी की पकड़ में आते ही नहीं है। क्यों? जांच की तो पता चला कि चूहेदानी में घुसने के छेद से बड़ा छेद बाहर निकलने का है, ‘कोई पकड़ में नहीं आता’।
बाजार में जब गेहूं का दाना न मिलता हो, तब कोई मित्र अगर 25-30 किलो गेहूं दे, तो देश का भविष्य एकदम उज्जवल दिखने लगता है। कल एक मित्र ने 25 से 30 किलो आटा एक बोरे में भेज दिया था और दुनिया के प्रति मेरी दृष्टि बदल गई थी। दुनिया मुझे उस वक्त बुरी नहीं लग रही थी। जिन मनीषियों ने संसार को दुखमय कहा है, उन्होंने यह तब कहा होगा, जब उनके घर में आटा नहीं होगा। आटा मिलने के बाद भी उन्होंने अपने मत को नहीं बदला। अगर मनीषी भी हम छोटे लेखकों की तरह अपनी रचना को एक बार फिर देख लें, तो दुनिया बहुत से गलत मंतव्यों से बच जाए। आटा देखते ही मुझे भविष्य बहुत आशावान लगा। मुझे लगा, विएतनाम में शांति होने ही वाली है, निशस्त्रीकरण होने में अब बहुत देर नहीं है, चीन और पाकिस्तान खुद समझौता करने के लिए भागे आने वाले हैं। मुझे ऐसी आशा भी हुई कि मेरे घर में आटा आ गया है, तो राष्ट्रसंघ का अर्थ-संकट भी आज हल हो जाएगा।
हम सब खुश और आशावान हो गए। बहन ने सोचा कि कुछ दिन चैन मिलेगा। भांजों ने सोचा कि कुछ दिन गेहूं की तलाश करने से बचे। हम आटे के बोरे को घेरकर बैठ गए और जैसे जन्म-दिन की ‘केक’ लोग काटते हैं, वैसे बोरे को खोलने लगे। बोरा खुला तो बदबू का झोंका आया। आटे को पलटा, तो उसमें मरकर सड़ा हुआ चूहा निकला। हम सब सन्न- जैसे जन्मदिन का ‘केक’ काटते ही कोई मर गया हो। सारा आटा रोग बन गया। हम मुंह लटकाए बैठे थे। कोई किसी से न बोल रहा था, न किसी की तरफ देख रहा था। मुझे लगा, अब विएतनाम समस्या खतरनाक मोड़ लेगी, राष्ट्रसंघ कर्ज में डूब जाएगा, निरस्त्रीकरण नहीं हो सकता और एटमी युद्ध की अब पूरी संभावना है।
याद आया, दो साल पहले जब चाचा मरे थे, तब उनकी लाश भी इसी कमरे में यहीं रखी थी और हम इसी तरह सिर लटकाए मौन, आसपास बैठे थे। तब कोई पूछता था, तो बताते कि चाचा निमोनिया से मर गए। आज कोई पूछे तो बताएंगे कि हमारा गेहूं चूहे से मर गया। चाचा जब उस लोक में पहुंचे होंगे तो वहां वालों ने पूछा होगा, ‘कहिए, पंडित श्यामलाल परसाई, कितने किलो पर चले आए?’ चाचा ने कहा होगा, ‘भैया, हम तो रुपए के ढाई किलो पर ही चले आए। पता नहीं आगे क्या हो। जीने वाले भुगतें।’ पिता ने जो रुपए के 20 सेर पर ही चले गए थे, जब सुना होगा, तो परेशान हुए होंगे कि बच्चे बड़ी मुसीबत में हैं। मैं चूहे को देख रहा था और आटे को। चूहों ने सड़कर हर जीवनदायिनी चीज को प्राणघातक बना दिया है। चूहों ने मेरे ही नहीं, सारे देश के गेहूं को मार डाला है। ये चूहे खाद्य व्यवस्था के बारे में घुसकर वहीं मोटे होकर मर गए और सड़कर सारी व्यवस्था को नष्ट कर दिया। अन्न सब दफना दिया गया। हमें सिर्फ सड़ांध का अनुभव हो रहा है। मुझे लगता है, सभ्यता के बोरे में ये चूहे घुसकर सड़ गए होंगे। मैं कहता हूं कि तुम अगर उसे आसपास से कुतरो, तो एक हद तक बर्दाश्त किया जा सकता है। मगर कम्बख्तो, उसमें घुसकर सड़ते क्यों हो? खुद तो मरते ही हो, हमारे लिए बदबू और रोग फैलाते हो। हम हर बोरे को खोलकर देखते हैं कि तुम मरकर सड़ रहे हो। क्या तुम हमें इस निष्कर्ष तक पहुंचाना चाहते हो कि हम समूची व्यवस्था को दफन कर दें?
सरकार कहती है कि हमने चूहे पकड़ने के लिए चूहेदानियां रखी हैं। एकाध चूहेदानी की हमने भी जांच की है। उसमें घुसने के छेद से बड़ा छेद पीछे से निकलने के लिए है। वे इधर हमें पिंजरा दिखाते हैं और चूहे को छेद दिखा देते हैं। हमारे माथे पर सिर्फ चूहेदानी का खर्च चढ़ रहा है।
इस व्यापक षड्यंत्र से घबराकर सोचा था कि इस साल घर का गेहूं खाएंगे। जो अमेरिका और कनाडा को अपना घर मानते हैं, वे अपने घर का खाएं। मेरे भाई की थोड़ी-सी जमीन है। उसने मुझसे कहा था कि अपना दो बोरा गेहूं इटारसी में रखा है। उसे रेल से जबलपुर भेज देंगे। पर वह नहीं आया। मालूम हुआ कि जिलेबंदी हो गई है। परमिट लेना होगा। हजारों मील दूर अमेरिका से पराया गेहूं तो आ सकता है, पर 150 मील दूर से अपना गेहूं नहीं आ सकता। मुझे एक ज्ञानी ने बताया था कि अगर तुम यह कह देते कि गेहूं खाने के लिए नहीं, काला बाजार में बेचने के लिए ले जा रहे हैं तो आ जाने दिया जाता।
हमसे यह नहीं हुआ। कहते हैं देवताओं का पेट भावनाओं से भर जाता है। देवता होने का फायदा अब समझ में आ रहा है। अब दो रास्ते हैं। एक तो यह कि हम सब इटारसी जाएं और जब तक दो बोरे पूरे हों, उन्हें खाकर वापस लौट आएं या फिर हर हफ्ते इटारसी जाएं और हफ्ते भर के लिए गेहूं खाकर लौट आएं। इसमें एक डर है। हम गेहूं खाकर गाड़ी पर चढ़ने स्टेशन आए, तभी कोई अधिकारी हमारा पेट टटोलकर कहे- तुम नहीं जा सकते। भरे पेट पर जिलाबंदी है। इसी चिंता से बचने के लिए मैं अखबार उठाकर देखता हूं कि दूसरी जगह क्या हाल है। सब कहीं यही हाल है। मुझे सहसा राष्ट्र की एकता का बोध होता है। कोटि-कोटि नर नारी अन्न संकट के सूत्र में एक हो गए। भुखमरी और भ्रष्टाचार हमारी राष्ट्रीय एकता के सबसे ताकतवर तत्व बन गए हैं। एक मंत्री ने अभी कहा है कि यदि गरीबी और भुखमरी है तो इतने लोग सिनेमा क्यों देखते हैं। उन्हें नहीं मालूम यह भोजन से सस्ता पड़ता है। तीन घंटे भूख भाग जाती है। आदमी एक खाना छोड़कर सिनेमा क्यों न देखे?