अंजलीना का नाटक (कहानी) : प्रकाश मनु

Anjlina Ka Natak (Hindi Story) : Prakash Manu

1

प्रिंसिपल गोवर्धन बाबू अपने दफ्तर में बैठे थे। कुछ जरूरी काम निबटाने के बाद सोच रहे थे, ‘अब जरा स्कूल का एक राउंड ले लिया जाए।’

वे उठने की सोच ही रहे थे कि अचानक दरवाजे का परदा हटा और एक हँसती हुई सुंदर, लंबी-सी युवती अंदर आई। बोली, “नमस्कार...पहचाना आपने?”

गोवर्धन बाबू चकराए। बोले, “कुछ ठीक-ठीक याद नहीं आता। आइए, बैठिए तो!”

इस पर थोड़ी चंचल मुसकान वाली वह हँसमुख युवती बोली, “अंजलीना मेरा नाम है। अब शायद आप पहचान जाएँगे।”

“अरे हाँ भई, पहचान गया। अब क्यों न पहचानूँगा?” प्रिंसिपल गोवर्धन बाबू जैसे एक सुखद आवेग में बह निकले। बोले, “अंजलीना नाम औरों से इतना अलग है और खास कि उसे तो भूलना ही मुश्किल है। फिर जिसने तुम्हारा नाटक देखा हो, वो तो उसे भूल सकता ही नहीं! वह नाटक भी तुम्हारा अंजलीना, गजब का ही था...एकदम गजब!”

गोवर्धन बाबू शुरू में थोड़ा ठिठके थे, मगर अब बहे तो बहते ही चले गए। बोले, “सचमुच अंजलीना, उसके बाद बहुत से नाटक किए, पर मुझे आज भी लगता है, उसमें तुमने जो अभिनय किया था, उसका जवाब नहीं। तब तो तुम बहुत छोटी-सी थीं न। अब तो बड़ी हो गई हो। हो गए कोई पंद्रह-सोलह साल!...क्यों, ठीक कह रहा हूँ न?”

हँसकर बोली अंजलीना, “हाँ, इतने तो हो ही गए। पर वह नाटक! वह नाटक, नाटक कहाँ रहा? असल में आपने वह नाटक कराके मेरी तो जिंदगी ही बदल दी। मुझे क्या पता था कि कोई नाटक ऐसा भी हो सकता है जो किसी की सारी जिंदगी बदल दे। पता नहीं, ऐसा कब...कैसे होता है? पर होता तो है न सर, जरूर होता है!”

कहते-कहते अंजलीना के भीतर जाने क्या कुछ उपजा—थोड़ा दिव्य, अनिर्वचनीय और कुछ-कुछ रूहानी-सा, कि प्रिंसिपल गोर्वधन बाबू को वह एकदम बदली-बदली-सी लगी। आषाढ़ की पहली किशोर बदली, जिसके चारों ओर एक स्वर्णिम आभा खेल रही थी।

“मगर कैसे भला! यह तो तुमने नहीं बताया। उस नाटक का तुम्हारी जिंदगी से मतलब...?” गोवर्धन बाबू ने हैरान होकर पूछा।

“है, बहुत कुछ है सर!” अंजलीना थोड़ा गंभीर हो गई। फिर कुछ अजीब-सी हँसी हँसते हुए बोली, “क्योंकि अब नाटक ही मेरी जिंदगी है। जगह-जगह जाती हूँ, नाटक करती हूँ। खासकर छोटे-बड़े बच्चों के बीच नाटक करवाती हूँ, तो बड़ा अच्छा लगता है। लगता है, बच्चे नहीं, ये छोटे-छोटे ऊर्जा-पिंड है। इतने ताजे, मासूम, प्रसन्न... कि उनके बीच जाकर मैं खुद ताजगी से भर जाती हूँ।”

“अच्छा, यह तो...एक नेक काम कर रही हो तुम। वाकई!” गोवर्धन बाबू की आँखों में अंजलीना के लिए प्यार और आशीर्वाद का भाव उमड़ आया।

“पर सर, वह नाटक यहीं खत्म नहीं होता। वह थोड़ा और भी आगे चलता है।” अंजलीना हँस रही थी। मगर यह हँसी कुछ खुली-खुली तो कुछ बंद पहेलियों जैसी। जैसे तिलिस्मी डिब्बियों के बीच डिब्बियाँ।...जादू!

“यानी...?” गोवर्धन बाबू के माथे पर पसीना छलछला आया।

“वही बताने तो आई हूँ सर!” अंजलीना अब एकदम बच्चों की तरह हँसी। खिल...खिल, खुदर-खुदर-खुदर। बोली, “तब आपने जो नाटक करवाया था, उसे मैं तो खैर जीवन भर भूल ही नहीं सकती। और आप भी नहीं भूले होंगे। वह नाटक था ही ऐसा—एक भूत का नाटक। भूत क्या, महाभूत कहिए! वह विशालकाय काला-काला डरावना भूत एक बस्ती और उसके लोगों को खूब डराता, खूब परेशान करता। लोग बेहाल हैं। रो रहे हैं, परेशान हैं। कभी किसी के यहाँ वह चीजें तोड़ जाता है, बिखरा जाता है। कभी कहीं आग लगा जाता है। कभी किसी घर में इस तरह तोडफ़ोड़ और कुहराम मचा देता है, जैसे भीषण भूचाल आया हो। कभी बिना बात झगड़ा करवा देता है।

“और जब सुबह होती है, तो उस घर के सभी लोगों के सिर लहूलुहान मिलते हैं। कपड़े कीचड़ और कालोंच से भरे हुए। आधी-आधी रात को बच्चे ‘भूत-भूत’ चीखते उठते हैं। मगर वह भूत नजर नहीं आता। हमारे उठते ही भाग जाता है। जैसे ही जगार होती है—गायब! एकदम गायब। मगर उसके हाथ-पैरों और उसकी दुष्ट शरारतों के निशान आसपास हर कहीं नजर आ जाते हैं!”

2

गोवर्धन बाबू चुप, अपने आपमें लीन! जैसे किसी ने उन्हें वर्तमान से उठाकर किसी और देश-काल में पहुँचा दिया हो। बरसों पुराना वह नाटक जैसे फिर से आँखों के आगे खेला जा रहा हो और वे उसकी रंग-छायाओं और संगीत के सुर-ताल में खो-से गए हों।

फिर अपने इस दिवास्वप्न से उबरे तो अंजलीना की ओर उनका ध्यान गया। उन्हें लग रहा था कि इस बीच अंजलीना कितनी बदल गई है! उन दिनों की उस छोटी-सी लड़की में भी गजब की हिम्मत और दिलेरी थी, पर उम्र बढ़ने के साथ उसका आत्मविश्वास भी जैसे आदमकद हो गया हो।

उधर अंजलीना! मानो वह कोई लड़की नहीं, हवा का झोंका थी जो तेजी से कमरे में इधर से उधर, उधर से इधर बह रही थी।

और उस नाटक की व्याख्या करते-करते वह शायद भूल ही गई कि उसके सामने कोई अनाड़ी श्रोता नहीं, गोवर्धन बाबू बैठे हैं, जिन्होंने खुद वह नाटक लिखा और निर्देशित किया था।

“सर...सर, आपको याद आ गया न! आ गया सर?” अंजलीना नाटक के बारे में बताते-बताते जैसे खुद नाटक में दाखिल हो चली है—“और फिर...इस तमाम मारा-मारी और रोने-धोने के बीच आखिर एक छोटी-सी लड़की निकलकर सामने आती है। वह छोटी-सी है, मगर हिम्मत वाली है। वह छोटी-सी है, मगर सोचना जानती है और वह सोचती है कि इस भूत को भगाया जाए, जिसने सारी बस्ती को परेशान कर रखा है। उसके हिंदी के मास्टर साहब आशीर्वादीलाल जी ने एक दफा उसे बताया था कि बेटी, भूत-वूत कुछ नहीं होता है। ये सब मन के वहम हैं...एक किस्म का पागलपन! झूठ-मूठ की बात। तो...तो फिर जिस भूत की सब बात करते हैं, वह क्या है? वह छोटी-सी लड़की तो एकदम चकरा ही गई थी। उसे बहुत हैरान-परेशान देखकर हिंदी के मास्टर आशीर्वादीलाल जी ने उसे समझाया था कि बेटी, यह भूत असल में अशिक्षा और दरिद्रता का भूत है। यह अँधेरे में आता है, उजाले से भागता है। यह शब्दों की रोशनी से भागता है। हिम्मत से भागता और आपस में सच्चा प्रेम हो, तो भागता है...

“आप सुन रहे हैं सर!...तो उस बच्ची को यह बात समझ में आ गई। और समझ में आते ही, जैसे एक लौ-सी लग गई। अब वह बच्ची रात-रात भर जागकर किताबें पढ़ती है, ताकि भूत भागे। घर के आसपास दीए जलाती है। दूसरों के सुख-दुख में मदद करती हैं। आपस के झगड़े शांत करती हैं। लोगों के ईष्र्या-द्वेष मिटाती है और एक दिन भूत सच्ची-मुच्ची खत्म, भूत खत्म!...सब कहने लगे कि वाह, भई वाह! यह बच्ची तो बड़ी हिम्मती है, इसने भूत को भगा दिया। पर वह बच्ची जानती थी कि भूत कोई नहीं था, कहीं नहीं था। लोग ही एक-दूसरे को डराते थे, लोग ही एक-दूसरे का नुकसान करते थे। लोग ही एक-दूसरे के घरों में आग लगाते थे। और जब यह इष्र्या-द्वेष और नफरत खत्म हुई, तो भूत खुद-ब-खुद चला गया।...मैं ठीक कह रही हूँ न सर? आपके नाटक का मूल आइडिया मेरे ख्याल से यही है।”

गोवर्धन बाबू ने जो चुपचाप अंजलीना के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रहे थे, धीरे से सिर हिलाया। कहा कुछ नहीं। मानो कुछ कहकर अंजलीना के तीव्र भावावेग में बाधा न पहुँचाना चाह रहे हो।

वैसे भी उस पल अंजलीना को रोकना न तो उनके बस की बात थी और न खुद उसके बस की बात! कोई आँधी थी जो उसे और उसके शब्दों को तीव्रता से उड़ाए लिए जा रही थी—

“और सर, अब आगे की कहानी...? आपको क्या बताना, पर मुझे खुद ही दोहराना अच्छा लग रहा है। आप देखिएगा सर, कितना मैं समझ पाई?...तो हुआ यह कि एक दिन बस्ती के लोग शांत बैठे हुए उस भूत की चर्चा कर रहे थे तो वह भूत आया। सचमुच आया। और वह भूत क्या था, एक काला-सा विशालकाय साया। आते ही बोला, ‘आओ लोगो, मुझे हाथ लगाओ, मुझे छुओ। मैं असल आदमी नहीं, सिर्फ एक साया हूँ, एक भ्रम! और मैं सिर्फ उन्हें सताता हूँ, जो आपस में झगड़ते हैं और एक-दूसरे से नफरत करते हैं। अगर तुम प्रेम से रहोगे, तो मैं फिर तुम्हारे पास कभी नहीं आऊँगा। और आपस में लड़ना-झगड़ना शुरू कर दोगे, तो मैं एक दिन फिर तुम्हारे पास लौट आऊँगा। याद रखना मेरी बात!’

“इस पर बस्ती के सब लोग हैरान। मगर वह छोटी-सी बच्ची—नाम भी उसका अंजलीना आपने ही रखा था, उठी और बोली, ‘नहीं अब हम नहीं लड़ेंगे। इसके बजाए हम पढ़ेंगे, हम आगे बढ़ेंगे।’ और उस लड़की ने आखिर बस्ती के सारे बच्चों को पढ़ाने का निश्चय कर लिया।”

इतना कहने के बाद अंजलीना एक क्षण के लिए रुकी, जैसे अपने ही शब्दों की गरमी और उत्तेजना के मारे हाँफने-सी लगी हो और कुछ भी कह न पा रहा हो। फिर उससे उबरकर बोली, “सर, तब तो आपने नहीं बताया था, और इतना भर कहा था कि बरसों पहले मेरा एक बचपन का दोस्त इस नाटक की पांडुलिपि मेरे पास छोड़ गया था। पर अब मैं कह सकती हूँ—शर्तिया कह सकती हूँ कि वह नाटक आपका ही लिखा हुआ था—आपका!”

सुनकर गोवर्धन बाबू एक क्षण के लिए चुप। न हूँ, न हाँ। जैसे जो कहा जा रहा है, उससे उनका कोई वास्ता ही न हो।

लेकिन फिर वे उस आविष्ट मुद्रा से बाहर आए। उन्हें आना ही था।

“हाँ-हाँ, कैसे भूल सकता हूँ?...कैसे भूल सकता हूँ अंजलीना!” गोवर्धन बाबू धीरे से मुसकराए और बीता हुआ जमाना मानो झप-झप करता हुआ उनकी आँखों के आगे एक फिल्म की तरह साकार हो गया।

3

गोवर्धन बाबू को याद आया, आज से कोई पंद्रह वर्ष पहले का समय। तब वे प्रिंसिपल नहीं थे। इस स्कूल में आए हुए उन्हें पाँच-सात साल ही हुए थे और इन पाँच-सात सालों में ही उन्होंने स्कूल के सभी विद्यार्थियों से कुछ अजब ढंग की दोस्ती कर ली थी, जिसे कुछ भी नाम देना मुश्किल है। बच्चे उन्हें अपना दोस्त भी मानते थे, गाइड भी और यहाँ तक कि अभिभावक भी। तब वे हिंदी पढ़ाते थे। साथ ही नाटक लिखते भी थे। मंच पर नाटक कराते भी थे।...तब इन सब कामों में कितना आनंद आता था! एक किस्म का नशा-सा था उन्हें नाटकों का। बरसों नाटक...नाटक...और नाटक। यहाँ तक कि उन्हें सपने में भी नाटक, उसके दृश्य और किरदार ही नजर आते। कभी-कभी तो पूरी-पूरी रात...! और ऐसा भी कई दफा हुआ कि रात जो दृश्य देखे, वे सुबह उठने पर इस कदर ताजे थे स्मृति में कि वे झट लिखने बैठ गए। और बड़े अजब-गजब नाटक लिखे गए इसी तरह। उनका बहुचर्चित ‘भीमा’ नाटक इसी तरह लिखा गया था, ‘धरतीपुत्र’ भी!...

अब प्रिंसिपल होने के बाद भी वे थोड़ा बहुत समय निकालकर नाटक लिखते हैं। नाटक कराते भी हैं। पर अब दूसरे जरूरी या गैर-जरूरी दफ्तरी काम इतने बढ़ गए हैं कि इतना समय ही नहीं मिल पाता कि पहले की तरह नाटकों की दुनिया में पूरी तरह खो जाएँ। उतनी फुर्सत ही नहीं। पर फिर भी कोई नाटक करने वाला हो या बढ़िया नाटक कहीं हो रहा हो तो गोवर्धन बाबू आज भी उसे देखने से अपने-आपको नहीं रोक पाते। भले ही इसके लिए उन्हें मीलों दूर गाड़ी ड्राइव करके जाना पड़े या कि रात-रात भर जागना पड़े।

और उन्हें याद आने लगे अपनी अलग-अलग दुनियाओं में खींच ले जाते वे तमाम नाटक जो उन्होंने कराए या फिर जिनसे किसी न किसी रूप में वे जुड़े रहे। और वे भी, जो एक दर्शक के रूप में देखे गए। वे तमाम-तमाम किरदार, दृश्यांकन और अभिनेता, अभिनेत्रियाँ और मित्र-मंडली। एक अजब-सा कोलाज सभी का—अद्भुत! उनकी याद ही रोमांचित कर देती है।

गोवर्धन बाबू की इस तंद्रा को फिर से अंजलीना ने तोड़ा। बोली, “सर, भूत का वह नाटक ‘भूत हमारे दिल में है’ जिसकी स्क्रिप्ट आपने शब्दों में लिखी थी, मैं गाँव-गाँव, गली-गली घूमकर उसे हकीकत में लिख रही हूँ। आपके शब्द अब महज शब्द नहीं, सच्चाई में बदल रहे हैं सर!”

“अरे वाह, वाह अंजलीना!” गोवर्धन बाबू सुनकर इतने खुश हुए कि एकाएक खड़े हो गए और अंजलीना के पास आकर प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा। बोले, “मेरी योग्य शिष्या, तुमने सचमुच वह किया है जो मैं चाहता था, मगर शायद कह नहीं पाता था। जो कह नहीं पाया, उसे भी तुमने समझा और अपनाया। यही...यही एक अच्छे शिष्य की पहचान है।”

थरथराते हुए भीगे-भीगे शब्द। जितने कहे गए, उससे कहीं ज्यादा अनकहे।

अंजलीना बोली, “पर अब सिर्फ मुझी को आशीर्वाद देने से नहीं चलेगा सर! अब मैं अकेली नहीं, बहुत-से लोग हैं। एक बहुत बड़ा दल है हमारा, जिसमें छोटे-बड़े हर उम्र के लोग हैं। सभी के सभी एक सपने को लेकर चल रहे हैं। जगह-जगह पढ़ाना, कक्षाएँ लगाना, बातचीत या संवाद। फिर कविताएँ, कहानियाँ, बहुत कुछ। यहाँ तक कि बच्चे ही नहीं, बड़े भी—बच्चों के माता-पिता भी हमारी क्लासों में आते हैं। हम लोग उन्हें कहानियाँ, कविताएँ सुनाते हैं। एक से एक दिलचस्प नाटक किए जाते हैं, जिन्हें सुनकर पेट में बल पड़ जाएँ। मगर हँसी-हँसी में कोई ऐसी उम्दा बात भी कह दी जाती है जो लोगों के दिलो-दिमाग पर नक्श हो जाए।”

गोवर्धन बाबू इस तरह हैरान होकर अंजलीना की तरफ देख रहे थे कि जैसे अंजलीना नहीं, उन्हीं का कोई सपना देह धारे सामने बैठा हो। बोले, “सच कहूँ अंजलीना, वो नाटक सिर्फ एक नाटक नहीं, एक सपना था और तुमने उसे वाकई साकार कर दिया।”

“किंतु सर...!” अंजलीना धीरे से हँसी, “आप अपनी आँखों से उस सपने को साकार होता देखें, इसीलिए मैं यहाँ आई हूँ—आपको निमंत्रण देने।”

और जब अंजलीना ने विरदीपुर गाँव में हो रहे अपने कार्यक्रम की सूचना दी, तो गोवर्धन बाबू खुश होकर बोले, “ठीक है, मैं आऊँगा। कल सुबह ही तुम्हारा नाटक है न! मैं पहुँचूँगा, जरूर पहुँच जाऊँगा। यों भी विरदीपुर कितनी दूर है—कुल सत्रह किलोमीटर।”

4

अगले दिन गोवर्धन बाबू विरदीपुर पहुँचे, तो उनका वही नाटक मंच पर होने जा रहा था, जिसे उन्होंने कोई पंद्रह-सोलह वर्ष पहले लिखा और मंचित किया था। बस, फर्क यह था कि तब उस नाटक के निर्देशक वे थे और आज अंजलीना थी, जो बड़ी होकर सचमुच एक सच्ची कलाकार बन गई थी।...और उस नाटक में भाग लेने वाले पात्र? अंजलीना ने ही बताया, वे आसपास की झुग्गी-झोंपड़ी के लोग थे। सुनकर वे चौंके थे—क्या सचमुच?

गोवर्धन बाबू ने अपनी निगाहें वहीं जमा दीं, जहाँ नाटक के छोटे-छोटे डिटेल्स की चर्चा करते वे ‘कलाकार’ जमा थे। मैली जिंदगी के कालिदास! एकदम साधारण, मामूली लोग। साधारण और कुछ-कुछ बदरंग कपड़े। साधारण मेकअप। पर ये नन्हे-नन्हे कलाकार थे जिनके भीतर आत्मविश्वास कूट-कूटकर भरा था। उनके चेहरे पर इतनी खुशी थी, आँखों में इतनी चमक कि गोवर्धन बाबू बस खोए-खोए-से उन्हें देखते भर गए थे।

और फिर नाटक शुरू हुआ, लगभग उसी ढंग से जैसे उन्होंने कभी किया था। पर फिर काफी क्षिप्रता से आगे चल पड़ा। काफी तेज गति और भीतर उथल-पुथल मचाने वाले दृश्य।...एकदम जादुई! नाटक सचमुच उससे भी अच्छा था, जैसा गोवर्धन बाबू ने आज से वर्षों पहले करवाया था। खास बात यह कि नाटक एकदम बच्चों की चंचल, चुटीली भाषा में था। अंजलीना ने उसमें छोटे-छोटे बच्चों के लिए कुछ बड़े ही बढ़िया, छोटे-छोटे चंचल संवाद डाल दिए थे। इससे नाटक में एक नया ही नटखटिया रंग आ गया था।

छोटे-छोटे बच्चों के ये चुस्त संवाद सुनकर लोग खूब हँसे। मजे की बात यह कि नाटक खेलते हुए इन बच्चों के हाव-भाव बखूबी उभरकर आते थे। जैसे एकदम मँजे हुए कलाकार हों। कपड़े साधारण, हैसियत मामूली। लेकिन आत्मविश्वास ऐसा कि उनकी आँखों की चमक देखकर विस्मय होता था।

नाटक देखते-देखते गोवर्धन बाबू कहाँ से कहाँ जा पहुँचे, खुद उन्हें अंदाजा नहीं था। नाटक जो सामने चल रहा था, वह तो कभी का छूट गया था और आँखों के आगे एक दूसरा ही नाटक चल पड़ा था। कल के भारत का चित्र उनकी आँखों के आगे जगमग-जगमग करने लगा था। जब हर कोई पढ़ेगा, हर बच्चा बस्ता लेकर पढ़ने जाएगा। सबकी आँखों में खुशी की चमक होगी और कोई आधा पेट खाकर नहीं रहेगा। हर ओर भरपूर खुशियाँ होंगी और सपने की एक जगमगाती हुई दुनिया।

शब्दों की एक जगमग...जगमग...जगमगाती दुनिया! यानी कि रोशनी...रोशनाई... रोशन अक्षर-अक्षर। जग...जगर-मगर।

पढ़ कबूतर अटर-बटर।

देख मत बिटर-बिटर...!

हवा में रोशनी की झालरों की तरह फड़फड़ाते टुकड़ा-टुक्ड़ा संवाद। हर संवाद जिंदगी की एक जिंदा दास्तान खुद में सहेजे हुए। गोवर्धन बाबू फड़क उठे।

नाटक खत्म होने पर तालियाँ...। खूब-खूब तालियाँ!

तालियों की उस तेज गडग़ड़ाहट के बीच रंगों और काली, सुरमई छायाकृतियों का पूरा एक कोरस। तेजी से घूमता हुआ चक्र। हरा-नीला-पीला-लाल...! पर उसमें श्वेत और उस श्वेत के भीतर सुनहरा ‘ग्लो’ बार-बार डोमिनेट करता है।

पीला...सुनहरा रंग! उम्मीद का, आशा का...आने वाले कल का। आने वाले कल के नन्हे-नन्हे हँसते हुए सूरज!

और नाटक के चरम विश्रांति-बिंदु तक आते-आते यादों और यादों का बहुत बड़ा काफिला। जिंदगी में साथ चलने वाले इतने लोग, इतने ढेर सारे लोग, और इतने चेहरे, इतने कामकाजी वर्षों की थकान और उतार-चढ़ाव। जाने क्या कुछ याद आ रहा गोवर्धन बाबू को! और फिर एकाएक सब कुछ गु-ड़ु-प!

तालियाँ...! अब वे तालियाँ बजा रहे हैं, लोगों के तालियाँ बजाने के बहुत देर बाद। यह एक नया प्रभात है गोवर्धन बाबू के जीवन में और इस उषावेला की उषा है—अंजलीना।

उन्होंने अपने भीतर झाँककर देखा। बहुत कुछ...! बहुत कुछ अब जैसे ऊपर की काई हटाकर, एकदम नया-नया होकर चमकता हुआ सामने आ गया था। जैसे कालिख के पहाड़ को फाड़कर बाहर निकला तेजस्वी बाल सूर्र्य। कैसे होता है यह कायाकल्प? अचानक एक पल...और उस पल में बहुत...बहुत कुछ!

5

नाटक खत्म होने के बाद अंजलीना ने झोंपड़पट्टी के उन कलाकार बच्चों को प्रिंसिपल गोवर्धन बाबू से मिलवाया। उस वक्त अँधेरे और रोशनी की परछाइयों के बीच दिप-दिप करते उन बच्चों के चेहरे तो खिले-खिले थे ही, लेकिन उन बच्चों से भी ज्यादा खिले-खिले नजर आ रहे थे गोवर्धन बाबू। आँखों में अनोखा भाव झिलमिल-झिलमिल कर रहा था। बोले तो इतने भावविभोर होकर कि होंठ कँपकँपा रहे थे।

धीरे-धीरे खुद पर काबू पाकर उन्होंने कहा, “मुझे खुशी है, बहुत खुशी...बहुत-बहुत खुशी...कि जो काम मैं नहीं कर पाया, वह मेरी बहादुर शिष्या अंजलीना ने कर दिखाया। इसने लगता है कि मेरे ही सपने को पूरा किया है। मैं तो बस इतना ही कह सकता हूँ कि मैं हमेशा-हमेशा तुम्हारे साथ हूँ। हर सुख-दुख की घड़ी में...हर पल, हर घड़ी!”

प्रिंसिपल गोवर्धन बाबू अपने साथ बच्चों के लिए ढेर सारी रंग-बिरंगी किताबें लेकर गए थे। कहानी, कविताओं की, नाटकों की। उनमें डुगडुगी बजाने वाले भालू की कहानी थी, तो किताब पढ़ने वाले खरगोश की भी। बैंड बजाने वाला हँसमुख शेर था, तो सलामी देता हाथी और...और...!

उन्होंने वे किताबें उन बच्चों को बाँट दीं और सबके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “मैने बहुत सोचा, पर किताब से अच्छा उपहार शायद कोई ओर नहीं हो सकता। वे हर तरह के भूत को भगाती हैं क्योंकि उनके साथ ज्ञान का उजाला होता है। शब्दों का उजाला। और अज्ञान-अशिक्षा के भूत उजाले से भागते हैं। उन्हें सिर्फ अँधेरा ही रास आता है।”

कहते-कहते गोवर्धन बाबू एक क्षण के लिए रुके। फिर अपनी बड़ी-बड़ी मूँछों में मुसकराते हुए बोले, “यों वह महाभूत कैसे भागा होगा, इसका कुछ-कुछ अंदाजा मुझे है। मुझे अभी थोड़ी देर पहले बताया था अंजलीना ने कि यह मैदान खुद बच्चों ने झाड़ू लगाकर साफ किया और अंजलीना भी आपके साथ थी। हाथ में झाड़ू लिए सफाई और भागदौड़ करती हुई। इतने बहादुर लोगों का मिलकर एक साथ झाड़ू लगाना! फिर तो वह भूत हो चाहे महाभूत, पूँछ दबाकर भागेगा ही एक मच्छर की तरह। भागना ही होगा उसे...!” गोवर्धन बाबू अपनी बात कहकर खुद ही खुदर-खुदर हँसने लगे और उनके साथ-साथ बच्चे भी।

गोवर्धन बाबू का भाषण खत्म हुआ तो बच्चों ने देर तक तालियाँ बजाकर अपनी खुशी प्रकट की।

लेकिन नाटक अभी खत्म कहाँ हुआ था। उसका अंतिम दृश्य भी अभी सामने आना था। और वह आया मिंटी के साथ! मिंटी एक नन्ही-मुन्नी बच्ची थी। कोई चार-पाँच बरस की। वह मंच पर आई और अपनी पतली, लेकिन चटख आवाज में बोली, “मेरा नाम मिंटी है। सर...सर, लगता है, यह नाटक आपने मेरे लिए लिखा है। अंजलीना दीदी बता रही थीं, आप बहुत अच्छे लेखक हैं। तो एक नाटक मेरे लिए और भी लिखिए। उसका नाम मैं बताती हूँ—‘मिंटी, कल के भारत की आशा’। मैं इतनी छोटी होकर भी उस भूत से लड़ने के लिए खुद आगे आ गई हूँ। पढ़ती भी हूँ और अंजलीना दीदी के कहने पर छोटे-छोटे बच्चों को पढ़ाती भी हूँ। तो वह भूत कहाँ ठहरेगा? मैं आपको यकीन दिलाती हूँ कि मैं खूब-खूब पढ़ूँगी और आपके काम को आगे बढ़ाऊँगी...और भूत कभी आया तो उस भूत के छक्के छुड़ा दूँगी!”

सुनकर गोवर्धन बाबू अवाक! उन्होंने प्यार से उस नन्ही नटखट बच्ची को गोद में उठाया और पुचकारा।

6

इस क्षण कोई उन्हें पास से देखे, तो उनकी आँखें एकदम गीली-गीली-सी हैं। बरसने को तैयार। खुद पर किसी तरह काबू पाकर बोले, “हाँ, मेरी बच्ची, मैं लिखूँगा नाटक, मैं जरूर लिखूँगा। अभी पिछले कुछ दिनों से तो इतनी निराशा थी मेरे दिल में कि लगने लगा था, जैसे लिखने-पढ़ने से कुछ भी नहीं होता। पर होता है, बहुत कुछ होता है लिखने-पढ़ने से, अगर मेरा लिखा मिंटी जैसी प्यारी बच्ची के दिल को भी छू गया! मैं जल्दी ही नया नाटक लिखूँगा और उसका नाम होगा—‘मिंटी, कल के भारत की आशा’। जरूर लिखूँगा—जरूर!”

इस पर इतनी तालियाँ बजीं—इतनी तालियाँ कि गोवर्धन बाबू जाने कहाँ से कहाँ पहुँच गए। उन्हें मानो कुछ नहीं सुनाई दे रहा था, कुछ भी नहीं।

बस, कोई भीतर कह रहा था—गोवर्धन बाबू, तुम्हें लिखना...जरूर लिखना है, अंजलीना जैसी बहादुर शिष्या के लिए। इस नन्ही बच्ची मिंटी के लिए, और बहुत-बहुत बच्चों के लिए, जिन्हें इनकी बेहद जरूरत है।

गोवर्धन बाबू चलने लगे, तो अंजलीना और ढेर-ढेर-से बच्चे उन्हें दूर तक विदा करने आए। गोवर्धन बाबू की कार आगे जा रही थी, पर उन्हें बराबर लग रहा था कि उनका मन तो पीछे अंजलीना और उसकी प्यारी नाटक-मंडली के साथ ही छूट गया है।

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