अंजाम-कार (कहानी) : सलाम बिन रज़्जाक़
Anjaam-Kaar (Story in Hindi) : Salam Bin Razzaq
आज शाम को ऑफ़िस से घर लौटते वक़्त तक भी मैं नहीं सोच सकता था कि हालात मुझे इस तरह पीस कर रख देंगे। मैं चाहता तो इस सानिहे को टाल भी सकता था मगर आदमी के लिए ऐसा कर सकना हमेशा मुमकिन नहीं होता। कुछ बातें हमारे चाहने या न चाहने की हुदूद से परे होती हैं और शायद ऐसे ग़ैर-मुतवक़्क़े सानिहात ही को दूसरे अल्फ़ाज़ में हादिसा कहते हैं। जो भी हो। मैं हालात के ग़ैर मरई शिकंजे में जकड़ा हुआ था और अब इससे निजात की कोई सूरत दिखाई नहीं दे रही थी।
आज घर लौटने में मुझे देर हो गई थी इसलिए मैं लम्बे-लम्बे डिग भरता घर की तरफ़ बढ़ रहा था। मुझे बीवी की परेशानी का भी ख़्याल था। वो यक़ीनन खिड़की की झिर्री से आँख लगाए मेरी राह देख रही होगी और ज़रा-ज़रा सी आहट पर चौंक पड़ती होगी। साँझ की परछाइयाँ घिर आई थीं। मैं जैसे ही गली में दाख़िल हुआ, इस जाने पहचाने माहौल ने मुझे चारों तरफ़ से घेर लिया। टीन की खोलियों के छज्जों से निकलता हुआ धुआँ इधर-उधर बहती नालियों की बदबू और अध नंगे भागते दौड़ते बच्चों का शोर, कुत्तों के पिल्ले, मुर्ग़ियाँ और बत्तख़ें, दो एक खोलियों से औरतों की गालियाँ भी सुनाई दीं जो शायद अपने बच्चों या फिर बच्चों के बहाने पड़ोसियों को दी जा रही थीं।
मैं जब अपनी खोली के सामने पहुँचा तो देखा कि मेरे दरवाज़े के सामने गंदे पानी की निकासी के लिए जो नाली बनी थी, उसमें शामू दादा का एक छोकरा देसी शराब की खनकती बोतलें छुपा रहा है। मुझे अपने सर पर देख कर पहले तो वो कुछ बौखलाया। फिर सँभल कर क़दरे मुस्कुरा दिया। देसी शराब की बू मेरे नथुनों से टकरा रही थी। मैंने ज़रा तेज़ लहजे में पूछा,
ये क्या हो रहा है?
वो इत्मीनान से मुस्कुराता हुआ बोला,दादा ने ये छे बोतलें यहाँ छुपाने को बोला है।
गली की गंदगी जब तक गली में थी तो कोई बात नहीं थी। मगर अब वो गंदगी मेरे दरवाज़े तक फैल आई थी और ये बात किसी भी शरीफ़ आदमी के लिए एक चैलेंज थी। लिहाज़ा मैं चुप न रह सका। मैंने उसी तेज़ लहजे में कहा,
ये बोतलें यहाँ से हटाओ। ये गटर तुम्हारी बोतलें छुपाने के लिए नहीं बनी है।
लड़का थोड़ी देर तक मुझे घूरता रहा। फिर बोला,अपन को नहीं मालूम, दादा ने यहाँ छुपाने को बोला था।
मैं कुछ नहीं जानता। चलो उठाओ यहाँ से।
लड़के ने होंटों ही होंटों में कुछ बड़बड़ाते हुए बोतलें वापस अपने मैले झोले में रख लीं। फिर जाते-जाते मुड़कर बोला,साब! जास्ती (ज़्यादा) होसियारी दिखाएगा तो भारी पड़ेगा। ये नेहरू नगर है।
मैंने जवाब में कुछ नहीं कहा। उस आवारा छोकरे के मुँह लगना बेकार था। वो बोतलें लेकर चला गया। यही ग़नीमत था। मैं अपने कमरे की तरफ़ बढ़ गया। मैंने कनखियों से देखा, मेरी और लड़के की गुफ़्तगू सुन कर इर्द-गिर्द की खोलियों के दरवाज़े खुले और कुछ औरतें बाहर झाँकती हुई, दिलचस्पी और तजस्सुस से मेरी तरफ़ देख रही थीं। मैंने उस तरफ़ ध्यान नहीं दिया और अपने कमरे के दरवाज़े पर पहुँच गया। बीवी भी शायद मेरी आवाज़ सुन चुकी थी। वो दरवाज़ा खोले खड़ी थी।
क्या हुआ? उसने क़दरे घबराहट के साथ पूछा। मैं कमरे में दाख़िल हो गया। बीवी ने दरवाज़े के पट भेड़ दिए।
कमबख़्तों को दूसरों की तकलीफ़ या इज़्ज़त का ज़रा ख़्याल नहीं। मैं जूते की लेस खोलते हुए बड़बड़ाया।
क्या हुआ? बीवी का लहजा घबराया हुआ ही था।
अरे वो शामू दादा का छोकरा अपने घर के सामने वाली नाली में शराब की बोतलें छुपा रहा था।
बीवी थोड़ी देर चुप रही फिर बोली,मैं कहती हूँ ख़ुदा के लिए कोई दूसरी जगह ढूंढ लीजिए। आज नल पर छे नंबर वाली आँटी भी ख़्वाह-मख़ाह मुझसे उलझ पड़ी थी।
मैंने बुश शर्ट के बटन खोलते हुए पूछा,क्या हुआ था?
होता क्या, ये लोग तो झगड़े के लिए बहाना तलाशते रहते हैं। सबको नंबर से तीन-तीन हंडे पानी मिलता है। मैंने सिर्फ़ दो हंडे लिए थे। वो कहने लगी, तुम्हारे घर में ज़्यादा मेम्बर नहीं हैं, तुम सिर्फ़ दो हंडे लो। मैंने कहा सबको तीन मिलते हैं तो मैं भी तीन ही लूँगी। दो क्यों लूँ? बस इसीपर बात बढ़ गई।
मैं खाट पर लेट गया। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर क्या किया जाए। अभी तीन-चार माह तक खोली बदलने जैसी मेरी हालत नहीं थी और यहाँ एक-एक दिन गुज़ारना मुश्किल होता जा रहा था। मुझे यहाँ आए हुए सिर्फ़ तीन महीने हुए थे। बीवी यहाँ के माहौल से इस क़दर परेशान हो चुकी थी कि रोज़ रात को सोने से पहले वो इधर-उधर की बातों के दरमियान घर बदलने की बात ज़रूर करती। मैं कभी समझा कर, कभी डाँट कर उसे टाल देता। ये बात नहीं थी कि वो मेरी माली हालत से वाक़िफ़ नहीं थी। मगर वो भी एक आम घरेलू औरत की तरह एक अच्छे घर की ख़्वाहिश को अपने दिल से किसी तरह भी अलग नहीं कर सकती थी। उसकी ये ख़्वाहिश उस वक़्त मज़ीद शिद्दत इख़्तियार कर जाती जब गली में कोई लड़ाई झगड़ा या दंगा फ़साद हो जाता। इस क़िस्म के दंगे यहाँ तक़रीबन रोज़ ही हुआ करते थे। बा'ज़ औक़ात तो मामूली झगड़े से भी ख़ून ख़राबे तक नौबत आ जाती। इतवार के रोज़ यहाँ के हंगामों में ख़ुसूसियत से इज़ाफ़ा हो जाता। हफ़्ते के छे दिन तो ज़्यादातर औरतें आपस में लड़ती रहतीं। कभी-कभी नल या संडास की लाइन में दो-चार औरतें एक-दूसरे से उलझ पड़तीं। झोंटे पकड़ कर भी खिंचे जाते। मगर ये झगड़े गाली-गलौज या मामूली नोच खसोट से आगे न बढ़ पाते। मगर इतवार का दिन हफ़्ते भर के छोटे मोटे झगड़ों का फ़ैसला-कुन दिन होता क्योंकि उस दिन उन औरतों के शौहरों, बेटों और दूसरे अज़ीज़ रिश्तेदारों की छुट्टी का दिन होता जो मोटर वर्कशापों, मिलों और दीगर छोटे मोटे कारख़ानों में काम करते थे। उस दिन शंकर पाटिल का मटके का कारोबार भी क्लोज़ रहता। अलबत्ता शामू दादा के अड्डे पर ख़ास रौनक़ होती सुबह ही से पीने वालों का तांता बंधा रहता। और लोग नो टॉनिकपाव सेर, पी-पी कर गली में इस सिरे से इस सिरे तक लड़खड़ाते गालियाँ देते और हँसते क़हक़हे लगाते घूमते रहते। हफ़्ते भर औरतें उन्हें अपने छोटे-छोटे झगड़ों की जो रिपोर्टें देती थीं वो उन्हीं रिपोर्टों की बुनियाद पर किसी न किसी बहाने लड़ाई छेड़ देते। हफ़्ते भर का हिसाब चुकाने के लिए मर्द अपने-अपने टीन और लकड़ियों के नाफ़ तक झोंपड़ों से निकल आते। दिन भर ख़ूब जम कर लड़ाई होती। दो-चार का सर फटता और दो-चार को पुलिस पकड़ कर ले जाती। ये हर इतवार का मामूल था।
यहाँ के माहौल से मैं भी काफ़ी परेशान था। मगर सिर्फ़ परेशानी से कब कोई मसला हल होता है। शहरों में एक साफ़ सुथरे माहौल में, मुनासिब मकान का हासिल करना मुझ जैसे मामूली क्लर्क के लिए कितना मुश्किल है, इसका सही अंदाज़ बीवी को नहीं हो सकता था। क्योंकि वह गाँव से पहली दफ़ा शहर आई थी।
इतने में बीवी चाय का प्याला लेकर साड़ी के पल्लू से मुँह पोंछती मेरे पास आ कर बैठ गई। थोड़ी देर तक ख़ामोश नज़रों से मेरी तरफ़ देखती रही। फिर बोली, लीजिए चाय पी लीजिए।
मैंने चाय का प्याला उठा लिया। वो कह रही थी।
परसों तीन नंबर वाली ज़ुलेख़ा आई थी उसने मुझसे उधार आटा माँगा। मैंने बहाना कर दिया कि गेहूँ अभी पिसाए नहीं गए हैं। उस वक़्त वो चुपचाप चली गई। मगर तब से संडास की लाइन में, नल पर मुझे देखते ही नाक चढ़ा कर आँखें मिचकाती है और मेरी तरफ़ मुँह करके थूकती है। कुतिया कहीं की।
बीवी ने मुँह बनाते हुए तल्ख़ लहजे में कहा। मेरी नज़रें बीवी के चेहरे पर गड़ी हुई थी। मैंने चाय का घूंट भरते हुए कहा,थोड़ा सा आटा दे देना था।
क्या दे देती? इसकी आवाज़ मज़ीद तीखी हो गई,आप नहीं जानते, इन लोगों की न दोस्ती अच्छी, न दुश्मनी। उसी लेन देन पर तो आए दिन यहाँ झगड़े होते रहते हैं। बीवी ने जैसे किसी बहुत बड़े राज़ का इन्किशाफ़ करने वाले अंदाज़ में कहा। मैं चुप था, वो कह रही थी।
आज आपने देर कर दी। ख़ुदा के लिए आप ऑफ़िस से जल्द आया कीजिए। आपके ऑफ़िस से लौटने तक मेरी जान सूखती रहती है। यहाँ पल, पल एक झगड़ा होता रहता है। आपके लौटने से पहले सामने वाली सकीना और राबों में ख़ूब गाली-गलौज हुई।
क्यों?
कुछ नहीं, सकीना के बच्चे ने राबो की बत्तख़ को कंकर मारा था। बस इसीपर दोनों में ख़ूब जम कर लड़ाई हुई वो तो सुखो ताई ने दोनों को समझा बुझा कर चुप कराया। वरना नोच खसोट तक की नौबत आ गई थी।
मैं सुनने को तो बीवी की बातें सुन रहा था। मगर मेरा ज़ेहन शामू दादा के छोकरे के साथ हुई गुफ़्तगू में उलझा हुआ था। कमबख़्त एक तो ग़लत काम करते हैं और टोको तो धमकियाँ देते हैं। दादा गिरी धरी की धरी रह जाएगी। अचानक बीवी बोलते-बोलते चुप हो गई। वो कुछ सुनने की कोशिश कर रही थी। आवाज़ें मेरे दरवाज़े पर आ कर रुक गईं। मैंने शामू दादा की आवाज़ सुनी, वो कह रहा था।
चल बे लालू! रख इसमें बोतलें। देखता हूँ कौन साला रोकता है।
एक लम्हे को मेरा दिल ज़ोर से धड़का। आख़िर वही हुआ जिससे मैं अब तक बचता आया था। मैंने बीवी की तरफ़ देखा। उसका चेहरा पीला पड़ गया था। उसने मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा,
जाने दीजिए, रख लेने दीजिए। अपना क्या जाता है।
प्याले में थोड़ी सी चाय बची थी। मैंने प्याला उसी तरह फ़र्श पर रख दिया। फिर उससे अपना हाथ धीरे से छुड़ाता हुआ बोला।
तुम चुप बैठी रहो। घबराने की ज़रूरत नहीं। हम इस तरह इनकी हर बात बर्दाश्त कर लेंगे तो ये लोग हमारे सर पर सवार हो जाएंगे। में खाट पर से उठ गया।
बीवी घिघियाई, नहीं, ख़ुदा के लिए आप बाहर मत जाइए। आप अकेले क्या कर सकेंगे। वो बदमाश लोग हैं।
मैंने उसे तसल्ली देते हुए कहा,पागल हुई हो। मैं क्या झगड़ा करने जा रहा हूँ। आख़िर बात करने में क्या हर्ज है।
मैं दरवाज़ा खोल कर बाहर आ गया। शामू दादा कमर पर दोनों हाथ रख खड़ा था। उसके पास और दो छोकरे जेबों में हाथ डाले खड़े थे। वही छोकरा जो पहले भी आया था, झोले से बोतलें निकाल-निकाल कर गटर में दबा रहा था। मेरे बाहर निकलते ही वो चारों मेरी तरफ़ देखने लगे। शामू एक लम्हे तक मुझे घूरता रहा। फिर छोकरे से मुख़ातिब हुआ।
ए साले! सँभाल कर रख, कोई बोतल फूट-वूट गई तो तेरी बहन की... ऐसी तैसी कर डालूँगा।
मैं अपने चबूतरे के किनारे पर आकर खड़ा हो गया। वो लोग मेरी तरफ़ मुड़े। उनकी आँखों में ग़ुस्सा, नफ़रत और हिक़ारत के भाव उतर आए। मैंने क़रीब पहुँच कर निहायत नर्म लहजे में शामू से कहा,
आपही शामू दादा हैं?
हाँ क्यों? शामू किसी कटखने कुत्ते की तरह गुर्राया।
देखिए यहाँ इन बोतलों को मत रखिए हमें तकलीफ़ होगी।
तकलीफ़ होगी तो कोई दूसरी जगह ढ़ूँढ़ो। इस झोंपड़ पट्टी में क्यों चले आए।
मेरी बात समझने की कोशिश कीजिए। ये चीज़ें हमें पसंद नहीं हैं। किसी दूसरी जगह क्यों नहीं रखते इन्हें।
ये बोतलें यहीं रहेंगी, तुम्हें जो करना है कर लो।
उसके बाक़ी दोनों साथी मेरी तरफ़ बढ़ते हुए बोले,ये तुम्हारे बाप की गटर है क्या?
उस वक़्त अंदर ही अंदर उबलते ग़ुस्से की वजह से मेरी जो हालत हो रही थी वो बयान से बाहर है। जी में आ रहा था कि उन तीनों कम बख़्तों की एक सिरे से लाशें गिरा दूँ। मगर मैं जानता था कि ऐसी जगहों पर अपना ज़ेहनी तवाज़ुन खोने का मतलब सिवाए पिटने के और कुछ भी नहीं। मैंने लहजे को ज़रा भारी बनाते हुए कहा।
देखो बाप-दादा का नाम लेने की ज़रूरत नहीं। मैं अब तक शराफ़त से आप लोगों को समझा रहा हूँ।
अरे तो, तू क्या कर लेगा हमारा। तेरी माँ की... मादर... साला... एक झापड़ में मिट्टी चाटने लगेगा और हमसे होशियारी करता है। शामू ने दो क़दम मेरी तरफ़ बढ़ाते हुए कहा।
गाली सुन कर मेरे तन-बदन में आग लग गई। मैंने उंगली उठा कर कहा,देखो शामू! अपनी हद से आगे मत बढ़ो। एक तो ग़ैर क़ानूनी काम करते हो और ऊपर से सीना ज़ोरी करते हो।
अरे तेरे क़ानून की भी माँ की... शामू मेरी तरफ़ लपकता हुआ बोला। उसके एक साथी ने उसे पीछे हटाते हुए कहा,ठहरो दादा, इस साले को मैं ठीक करता हूँ।
उसने जेब से एक लम्बा सा चाक़ू निकाल लिया। कड़, ड़, कड़, ड़क्कड़, ड़, चाक़ू खुलने की आवाज़ के साथ ही मेरे जिस्म में सर से पैर तक च्यूँटीयाँ रेंग गईं। मेरी इंतहाई कोशिश के बावजूद हालात मेरे क़ाबू से बाहर हो चुके थे। एक लम्हे को मैं सर से पैर तक काँप गया। इर्द-गिर्द के झोंपड़ों से औरतें, मर्द और बूढ़े सब निकल आए थे। सबके सब इस झगड़े को बड़ी दिलचस्पी से देख रहे थे। शामू के साथी के चाक़ू निकालते ही दो तीन औरतों के मुँह से चीख़ें निकल गईं और उन चीख़ों ने मेरी नस-नस में एक कपकपाहट सी भर दी। मैं ज़िंदगी में पहली दफ़ा इस क़िस्म की सिचुवेशन से दो-चार हुआ था। मेरा सारा ग़ुस्सा एक ख़ौफ़-ज़दा बच्चे की तरह सहम कर मेरे अंदर ही दब गया। मैं अब सिर्फ़ एक घबराहट भरे पछतावे के साथ उस ग़ुंडे के चमचमाते चाक़ू की तरफ़ देख रहा था। मैं उस वक़्त भाग कर अपने कमरे में छुप सकता था। मगर अब भागना भी इतना आसान नहीं रह गया था। क्यों कि बीसियों आँखें मुझे अपनी नज़र के तराज़ू में तौल रही थीं। भागने का मतलब था मैं हमेशा-हमेशा के लिए उन निगाहों में मर जाता।
वो ग़ुंडा चाक़ू लिए मेरी तरफ़ बढ़ा और मैं बे-हिस-ओ-हरकत वहीं खड़ा रहा। मैं ये नहीं कहता कि उस वक़्त मैं बहुत बहादुरी से खड़ा था। बल्कि उस वक़्त अपने पैरों को उस जगह जमाए रखने में मुझे जिस कशमकश और तकलीफ़ का सामना करना पड़ रहा था वो मेरा ही दिल जानता है। मैं अपने कमरे के चबूतरे पर खड़ा था। वो ग़ुंडा बिल्कुल मेरे क़रीब पहुँच चुका था। क़रीब पहुँच कर वो भी एक लम्हे को ठिटका शायद उसे भी तवक़्क़ो थी कि मैं भाग कर कमरे में घुस जाउंगा। मगर जब ख़िलाफ़-ए-तवक़्क़ो उसने मुझे उसी तरह खड़ा पाया तो बजाए मुझपर चाक़ू का वार करने के मेरी टाँग पकड़ कर मुझे नीचे खींच लेना चाहा। मैं एक क़दम पीछे हट गया। मेरी टाँग उसके हाथ न आ सकी। इतने में पीछे से एक चीख़ सुनाई दी और कोई आकर मुझसे लिपट गया। मैंने पलट कर देखा, मेरी बीवी मेरी कमर पकड़े मुझे अंदर खींचने की कोशिश करने लगी। वो बुरी तरह रो रही थी।
चलिए आप अंदर चलिए। ख़ुदा के लिए आप अंदर चलिए। उसने मुझे कमरे की तरफ़ घसीटते हुए कहा। बीवी में इतनी ताक़त नहीं थी कि वो मुझे अंदर घसीट ले जाती। मगर मेरा शऊर भी शायद इसी में अपनी आफ़ियत समझ रहा था। बीवी ने मुझे कमरे में धकेल कर दरवाज़ा अंदर से बंद कर लिया और ज़ोर-ज़ोर से फूट-फूट कर रोने लगी। एक लम्हे तक बाहर सन्नाटा छाया रहा। सिर्फ़ मेरी बीवी की ज़ोर-ज़ोर से रोने की आवाज़ सुनाई दे रही थी। फिर बाहर से मुग़ल्लिज़ात का एक तूफ़ान उमड़ पड़ा। वो सब मुझे बेतहाशा गालियाँ दे रहे थे। फिर ऐसा भी सुनाई दिया जैसे कुछ लोग उन्हें समझा रहे हों। मगर दो तीन मिनट तक गालियों का सिलसिला बराबर चलता रहा। बीवी दोनों पैर पकड़े मेरे घुटनों पर सर टिकाए बुरी तरह रो रही थी। मैं खाट पर किसी बुत की तरह चुपचाप बैठा रहा। आख़िर मुग़ल्लिज़ात का तूफ़ान रुका और फिर ऐसा लगने लगा जैसे भीड़ छट रही हो। थोड़ी देर बाद बाहर मुकम्मल सन्नाटा छा गया। सिर्फ़ रह-रह कर किसी खोली से किसी औरत की कोई तीखी गाली उड़ती हुई आती और एक तमाँचे की तरह कान पर लगती। मैं पता नहीं कितनी देर तक उसी तरह चुपचाप बैठा रहा। बीवी पता नहीं कब तक गोद में सर डाले रोती रही। उस वक़्त नदामत ग़ुस्सा और ख़ौफ़ से मेरी अजीब कैफ़ियत थी। ज़ेहन गोया हवा में उड़ा जा रहा था और दिल था कि सीने में संभलता ही नहीं था। मेरी सारी कोशिशों के बावजूद मामला किसी काँच के बरतन की तरह मेरे हाथों से छूट कर टुकड़े-टुकड़े हो गया था और अब उसकी किरचें मेरे जिस्म में इस तरह गड़ गई थीं कि मेरा सारा वजूद लहू-लुहान हो गया था। मेरी सारी तदबीरें नाकाम हो गई थीं और अब मैं बहुत बुलंदी से गिरने वाले किसी बदनसीब शख़्स की तरह हवा में मुअल्लक़ हाथ पैर मार रहा था। किसी कगार को छू सकने या किसी ठोस जगह पर पाँव जमाने की बेनतीजा कोशिश... आख़िर मैंने तै कर लिया कि में जल्द ही ये खोली छोड़ दूंगा। मगर खोली छोड़ने से पहले अपनी तौहीन का बदला भी लेना था। मगर मैं अकेला क्या कर सकता था। मैं बहुत देर तक उसी पेच-ओ-ताब में बैठा रहा। आज मैं अपनी नज़रों में ज़लील हो गया था। रह-रह कर ग़ुंडों की गालियाँ मेरे कानों में गूँज रही थीं और मेरी बेबसी का एहसास बढ़ता जा रहा था और इस बेबसी के एहसास के साथ ही मेरा ग़ुस्सा भी बढ़ता जा रहा था। बीवी की सिसकियाँ अब थम चुकी थीं मगर उसका सर मेरी गोद में उसी तरह रखा था। मैंने आहिस्ते से उसका सर उठाते हुए कहा,
उठो चारपाई पर लेट जाओ।
बीवी उसी तरह फ़र्श पर बैठी साड़ी के पल्लू से अपनी नाक सुड़कने लगी। मैं उठ कर बुश शर्ट पहनने लगा। बीवी ने मेरी तरफ़ देखते हुए पूछा,कहाँ जा रहे हो?
मैंने कहा,तुम आराम करो, मैं अभी पुलिस स्टेशन से हो आता हूँ।
नहीं आप कहीं न जाइए।
घबराओ नहीं। मैंने तसल्ली देते हुए कहा,अभी दस मिनट में आ जाऊंगा।
नहीं ख़ुदा के लिए आप उन लोगों से न उलझिए। वो लोग बहुत बदमाश हैं।
तुम ख़्वाह-मख़्वाह घबरा रही हो। ये लोग सीधे-सादे लोगों पर इसी तरह धौंस जमाते हैं। किसी को मारना इतना आसान नहीं होता। तुम देखना दस मिनट बाद पुलिस इन सबके हथकड़ियाँ लगा के ले जाएगी। किसी शरीफ़ आदमी को इस तरह परेशान करना हँसी खेल नहीं है।
मगर आप अकेले हैं और वो बहुत सारे हैं। आप अकेले कितनों से लड़ेंगे।
अरे मैं लड़ने कहाँ जा रहा हूँ। पुलिस में शिकायत दर्ज कराऊँगा। पुलिस ख़ुद आ कर इनसे समझ लेगी। हम इस तरह इनकी बदमाशी को सहते रहें तो जीना दूभर हो जाएगा। उन्हें उनकी बदमाशी की आख़िर कुछ तो सज़ा मिलनी चाहिए।
बीवी की आँखों से फिर आँसू बहने लगे,जब हमें यहाँ रहना ही नहीं है तो फिर ख़्वाह-मख़्वाह इनके मुँह लगने की क्या ज़रूरत है?
मैंने ज़रा कड़े लहजे में कहा,तुम अंदर से कुंडी लगा लो। तुम इन बातों को नहीं समझतीं। वो लोग हमारे दरवाज़े पर आकर हमें यूँ ज़लील कर जाएँ और हम पुलिस में शिकायत तक न करें। इससे बड़ी बुज़्दिली और क्या हो सकती है। आज उन्होंने दरवाज़े पर गड़बड़ की, कल घर में घुस सकते हैं। फिर लहजे को थोड़ा नर्म बनाते हुए कहा,तुम समझदार हो, हिम्मत से काम लो। मैं अभी लौट आऊँगा। चलो उठो दरवाज़ा अंदर से बंद करो।
ये कह कर मैं बाहर निकल गया। बीवी मरे क़दमों से चलती मेरे पीछे आई। मैंने दरवाज़ा बंद होने के साथ ही उसकी हल्की-हल्की सिसकियों की आवाज़ भी सुनी। गली में काफ़ी अंधेरा था। पास की खोलियों के दरवाज़े बंद हो चुके थे। चारों तरफ़ एक नाख़ुशगवार क़िस्म का सन्नाटा छाया हुआ था। मैं गली को पार करके सड़क के किनारे आ गया। यहाँ लैंप पोस्ट की मलगजी रौशनी ऊँघ रही थी। मैंने मुड़ कर दाएं तरफ़ नज़र दौड़ाई जहाँ शामू का शराब का अड्डे था। चारों तरफ़ टाट से घिरे उस अड्डे में काफ़ी रौशनी हो रही थी। बाहर बेंचों पर कुछ लोग बैठे पीते दिखाई दिए। पास ही सीख़ कबाब वाला अपनी अँगेठी दहकाए बैठा था। अड्डे से रह-रह कर हल्के-हल्के क़हक़हों और ग्लासों के खनकने की मिली जुली आवाज़ें आ रही थीं। पुलिस स्टेशन जाने का रास्ता उसी तरफ़ से था। मगर मैं उस तरफ़ जाने के बजाए दूसरी तरफ़ मुड़ गया और रेल की पटरी क्रॉस करके बड़ी सड़क पर निकल आया। मैं दिल ही दिल में पुलिस स्टेशन में इंस्पेक्टर के सामने की जाने वाली शिकायत का ख़ाका तरतीब देने लगा। मैं ज़िंदगी में पहली दफ़ा पुलिस स्टेशन जा रहा था। दिल में एक तरह की घबराहट भी थी। मगर उन बदमाशों को मज़ा चखाने का जज़्बा इस घबराहट पर कुछ ऐसा हावी था कि पैर पुलिस स्टेशन की तरफ़ बढ़ते ही गए। मैंने सुन रखा था कि वहाँ शरीफ़ आदमियों से कोई सीधे मुँह बात तक नहीं करता। मैं ज़ेहन में ऐसे जुमलों को तरतीब देने लगा जिनके ज़रिए पुलिस इंचार्ज के सामने अपनी बेबसी और परेशानी का वाज़ेह नक़्शा खींच सकूँ और वो फ़ौरन मुतअस्सिर हो जाए। पुलिस स्टेशन की इमारत आ गई थी। गेट में दाख़िल होते वक़्त एक बार फिर मेरा दिल ज़ोर से धड़का।
मैं इमारत की सीढ़ियाँ चढ़ कर वरांडे में पहुँचा। पास ही बिछी बेंच पर एक कांस्टेबल बैठा हथेली पर तम्बाकू और चूना मसलता नज़र आया। उसने अपनी टोपी उतार कर पर बेंच रख ली थी और उसकी गँजी खोपड़ी बल्ब की रौशनी में चमक रही थी। मुझपर नज़र पड़ते ही उसने इस्तफ़हामिया नज़रों से मेरी तरफ़ देखा। मैं उसके क़रीब पहुँच कर एक वक़्फ़े के लिए रुका। फिर बोला,मुझे एक कंप्लेन लिखवानी है।
कहाँ से आए हो? उसने तेवरी चढ़ा कर पूछा।
नेहरू नगर से।
क्या हुआ? उसकी नज़रें सर से पैर तक मेरा जाइज़ा ले रही थीं।
वहाँ कुछ ग़ुंडों ने मुझपर हमला करना चाहा था।
हुम। उसने तम्बाकू को अपने निचले होंट के नीचे दबाते हुए ज़ोर से हुंकारी भरी। फिर हाथ झाड़ता हुआ बोला,जाओ, उधर जाओ। उसने सीधे हाथ की तरफ़ इशारा करते हुए कहा और दिवार से टेक लगा कर बैठ गया। मैं उस तरफ़ मुड़ गया जिधर कांस्टेबल ने इशारा किया था। कुछ क़दम चलने के बाद एक खुला दरवाज़ा दिखाई दिया। मैं दरवाज़े में ठिटक गया और सामने कुर्सी पर बैठे एक मोटे हवालदार को देखने लगा। वो शायद हेड कांस्टेबल था और गर्दन झुकाए हुए कोई फ़ाइल उलट-पलट रहा था। पास ही एक दूसरी मेज़ पर कोई क्लर्क कुछ टाइप कर रहा था और एक दूसरा कांस्टेबल एक तरफ़ कुर्सी पर बैठा जमाइयाँ ले रहा था। मैंने एक लम्हे तवक़्क़ुफ़ के बाद खंकार कर कहा,मे आई, कम इन? हेड कांस्टेबल ने फ़ाइल से गर्दन उठाई जमाही लेने वाला कांस्टेबल चिंधाई आँखों से मुझे देखने लगा। हेड कांस्टेबल ने गर्दन हिला कर मुझे अंदर आने की इजाज़त दी। मैं अंदर दाख़िल हुआ और मेज़ के पास जा कर खड़ा हुआ।
क्या है? हेड कांस्टेबल ने फ़ाइल पर से नज़रें उठाते हुए पूछा।
जी... जी... मुझे एक कंप्लेन लिखवानी है।
कहाँ रहते हो?
नेहरू नगर में।
क्या हुआ, जल्दी बोलो। उसका लहजा बड़ा अहानत-आमेज़ था।
मैंने दिल में अल्फ़ाज़ तौलते हुए कहा,जी बात ये है कि मैं नेहरू नगर में पाँच नंबर ब्लॉक में रहता हूँ। वहाँ शामू दादा का शराब का अड्डा है। उसके छोकरों ने आज मुझपर चाक़ू से हमला करना चाहा था।
क्यों? तुमने उसे छेड़ा होगा। हेड कांस्टेबल ने कहा।
मैं इस रिमार्क पर बौखला गया। मैं समझ रहा था शराब के अड्डे का ज़िक्र आते ही ये लोग उन ग़ुंडों की ग़ुंडागर्दी को समझ जाएंगे। क्योंकि शामू ना-जाइज़ शराब का कारोबार करता था। मगर अब हवालदार के तेवर देख कर मेरा दिल डूबने लगा। मैंने मुसम्मी सूरत बना कर कहा,जी मैंने कुछ नहीं किया।
फिर क्या उसका दिमाग़ ख़राब हो गया था जो ख़्वाह-मख़्वाह तुमसे झगड़ा करने आ गया। उसके दुरुश्त लहजे ने मेरे रहे सहे हवास भी ग़ायब कर दिए थे। फिर भी मैंने संभलते हुए कहा,
जी बात ये थी कि वो हमारे घर के सामने वाली नाली में शराब की बोतलें छुपा रहा था। मैंने मना किया। बसी इसीपर बिगड़ गया।
हुम, ये बात है। ये बताओ तुमने मना क्यों किया?
जी! मैं हैरत से उसकी तरफ़ देखने लगा। साहब वो मेरे घर के सामने शराब छुपा रहा था। मैं एक शरीफ़ आदमी हूँ। क्या मुझे उसपर एतराज़ करने का हक़ भी नहीं।
हेड कांस्टेबल ने एक बार मुझे घूर कर देखा और बोला,अरे शराब की बोतलें नाली में छुपा रहा था ना, तुम्हारा क्या बिगड़ता था उससे।
मुझे अब सचमुच ग़ुस्सा आ गया था। मैंने दिल ही दिल में उस मोटे हवालदार को एक मोटी सी गाली दी मगर बज़ाहिर अपने लहजे को हत्तल-इमकान नर्म बनाते हुए कहा,मगर हवालदार साहब (हरामी साहब) वो ग़ुंडा आदमी है। अगर मैं उस वक़्त एतराज़ न करता तो वो कल मेरे घर में घुस सकता था और फिर उसका धंदा भी तो क़ानूनन ना-जाइज़ है।
बस-बस हमको मालूम है। यहाँ क़ानून मत बघारो। उधर जाओ पहले साहब से शिकायत करो। वो कहेगा तो हम कंप्लेन लिख लेगा। उसने बाएं तरफ़ एक केबिन के बंद दरवाज़े की तरफ़ इशारा करते हुए कहा। फिर वो कुर्सी में पड़े जमाही लेते सिपाही से मुख़ातिब हुआ,भाले राव इस आदमी को साहब के पास ले जाओ।
भाले राव ने एक बार फिर मुँह फाड़ कर जमाही ली और कुछ बड़ बड़ाता हुआ नागवारी से बोला,चलो।
वो कुर्सी से उठा और लड़खड़ाते क़दमों से चलता हुआ केबिन की चिक़ हटा कर अंदर चला गया। फिर चंद सेकंड बाद ही बाहर निकला और मेरी तरफ़ देखे बग़ैर बोला,जाओ। और ख़ुद दोबारा उसी कुर्सी की तरफ़ मुड़ गया जहाँ पहले बैठा जमाहियाँ ले रहा था। मैं चिक़ हटा कर अंदर दाख़िल हुआ। सामने एक सख़्त चेहरे और बड़ी-बड़ी मूंछों वाला शख़्स मुझे घूर रहा था। मैंने थूक निकलते हुए दोनों हाथ जोड़ कर उसे नमस्कार किया और उसके सामने जा खड़ा हुआ (मेरे दोनों हाथ नमस्कार की शक्ल में अब भी जुड़े हुए थे) सामने दो ख़ाली कुर्सियाँ पड़ी थीं। मगर मैं इस क़दर नर्वस हो गया था कि कुर्सी पर बैठने के बजाए, मेज़ के कोने से लग कर खड़ा हो गया।
क्या बात है? उस सख़्त चेहरे वाले पुलिस इंस्पेक्टर ने (हाँ वो सूरत से पुलिस इंस्पेक्टर लगता था) अपनी मोटी आवाज़ में पूछा।
मैंने फिर अपने ख़ुश्क होते गले पर हाथ फेरते हुए कहा,साहब मैं एक कंप्लेन लिखवाने आया हूँ।
कहाँ रहते हो? उसने मुझे सर से पाँव तक घूरते हुए पूछा।
नेहरू नगर में। मैंने इंतिहाई नर्म और मुल्तजी आवाज़ में जवाब दिया।
बैठो। उसने कुर्सी की तरफ़ इशारा किया।
मैं एक कुर्सी पर बैठ गया और शाम के झगड़े की तफ़्सीलात सुनाने लगा। मेरी गुफ़्तगू के दौरान वो सिगरेट सुलगा कर हल्के-हल्के कश लेता रहा। वो मेरी बातें इतनी बेदिली से सुन रहा था जैसे कोई घिसा-पिटा रिकॉर्ड सुन रहा हो। बस वो सुनने के लिए सुन रहा था। जब मैं चुप हुआ तो एक लम्हे को उसकी तेज़ निगाहें मेरे चेहरे पर जमी रहीं। फिर उसकी आवाज़ मेरे कानों से टकराई।
अच्छा तो अब तुम क्या चाहते हो?
जी!मैं उसके सवाल का मतलब नहीं समझ सका था। इसलिए जी करके रह गया। इंस्पेक्टर ने शायद मेरे लहजे में छुपे इस्तिजाब को भाँप लिया था। उसने फ़ौरन दूसरा सवाल किया।
क्या काम करते हो?
जी साहब में सी वार्ड में क्लर्क हूँ।
घर में कौन-कौन है?
जी, मैं और मेरी बीवी।
शायद नए आए हो?
जी हाँ, छे साथ महीने हुए हैं।
अच्छा देखो, वाक़ई तुम्हारे साथ ज़्यादती हुई है और मुझे इसका बड़ा अफ़सोस है मगर...
इंस्पेक्टर के इन जुमलों से मेरी ढारस बंधी और मेरा हौसला भी बढ़ा। मैंने दरमियान में जल्दी से कहा, सर! अगर आप चाहें तो...
इंस्पेक्टर को शायद मेरा इस तरह दरमियान में टोकना बुरा लगा। उसने क़दरे सख़्त लहजे में कहा।
पहले हमारी बात सुनो!
जी सर! मैं सहम कर एक दम से चुप हो गया।
देखो! हम अभी तुम्हारे साथ दो-चार सिपाही रवाना कर सकते हैं और साथ ही उसके आदमियों की मुश्कें कसवा कर यहाँ बुला सकते हैं। मगर सोचो इससे क्या होगा। वो दूसरे ही दिन ज़मानत पर छूट जाएगा और फिर तुम्हें वहीं रहना है और वो है ग़ुंडा आदमी। छूटने के बाद वो इंतिक़ामन कुछ भी कर सकता है। क्या तुममें इतनी ताक़त है कि उससे टकरा सको?
मगर सर! क़ानून...
उसने हाथ उठा कर मुझे चुप करा दिया और सिगरेट की राख ऐश ट्रे में झाड़ता हुआ बोला,
क़ानून की बात मत करो। क़ानून हमको भी मालूम है। पुलिस तुम्हारी कंप्लेन पर एक्शन ले सकती है। मगर चौबीस घंटे तुम्हारी हिफ़ाज़त की गारंटी नहीं दे सकती।
मैं गर्दन झुकाए चुपचाप बैठा रहा। इंस्पेक्टर ने दूसरी सिगरेट सुलगाते हुए कहा।
देखो! तुम सीधे-सादे आदमी मालूम होते हो। हो सके तो वो जगह छोड़ दो और अगर वहीं रहना चाहते हो तो फिर उन ग़ुंडों से मिल कर रहो।
मगर सर! वो ना-जाइज़ शराब का धंदा करता है क्या पुलिस उसका धंदा बंद नहीं करा सकती? (मुझे फ़ौरन एहसास हुआ कि मुझे ये सवाल नहीं पूछना चाहिए था) एक पल के लिए इंस्पेक्टर की आँखों में ग़ुस्सा उतर आया। उसने मुझे घूर कर देखा। फिर गंभीर आवाज़ में बोला,पुलिस ख़ूब जानती है कि उसे क्या करना चाहिए और क्या नहीं। शामू का धंदा बंद होने से सारे काले धंदे बंद हो जाएँगे, ऐसा नहीं है।
जी में आया कह दूँ, काले धंदे तो बंद नहीं होंगे। मगर शामू से मिलने वाला हफ़्ता ज़रूर बंद हो जाएगा और तुम यही नहीं चाहते। मगर ऐसा कुछ कहना अपने आपको अंधे कुएं में गिराने जैसा ही था। क्योंकि अगर ये सामने बैठा हुआ इंस्पेक्टर नाराज़ हो जाए तो उल्टा मुझे अंदर करा सकता है। मैंने कितनी ही दफ़ा शामू के अड्डे पर पुलिस वालों को कोका कोला पीते और सीख़ कबाब उड़ाते देखा था। एक दो दफ़ा तो वो बाहर बैठा हुआ हेड कांस्टेबल भी दिखाई दिया था। ये मेरी ही भूल थी कि मैं यहाँ दौड़ा चला आया था। मुझे सचमुच यहाँ नहीं आना चाहिए था। इन हराम-ख़ोरों से मुंसिफ़ी की तवक़्क़ो रखना, कंजूस से सख़ावत की उम्मीद रखने जैसा ही था। मुझे यूँ गुम सुम बैठा देख कर इंस्पेक्टर ने सिगरेट को ऐश ट्रे में रगड़ते हुए कहा,
देखो! अब भी कंप्लेन लिखवाना चाहते हो तो बाहर जा कर लिखवा देना। एक कांस्टेबल तुम्हारे साथ जाएगा और शामू को यहाँ बुला लाएगा। अब तुम जा सकते हो। इतना कह कर उसने मेज़ पर रखी घंटी बजाई। झट एक हवालदार अंदर दाख़िल हुआ। इंस्पेक्टर ने रोबदार आवाज़ में कहा,
देखो ये कोई कंप्लेन लॉज कराना चाहते हैं। पांडे से कहो इनकी कंप्लेन लिख ले और भाले राव को इनके साथ भेज दे।
यस... सर...! हवालदार ने सर झुका कर कहा। फिर मेरी तरफ़ मुड़ कर बोला, चलो।
मैं हवलदार के पीछे बाहर निकल आया। हवलदार ने उसी मोटे कांस्टेबल को मुख़ातिब करते हुए कहा,
पांडे साहब! बड़े साहब ने इस आदमी की कंप्लेंट लॉज करने को कहा है।
पांडे ने ख़ुशूनत आमेज़ नज़रों से मेरी तरफ़ देखा। चिड़चिड़ाहट और बेज़ारी उसके चेहरे से साफ़ पढ़ी जा सकती थी। एक लम्हे को उसकी और मेरी नज़रें मिलीं। मैंने धीरे से कहा,
नहीं मुझे कोई कंप्लेन नहीं लिखवानी है।
इतना कहकर मैं तेज़ी से दरवाज़े के बाहर निकल गया। अपने पीछे मैंने पांडे की आवाज़ सुनी जो शायद भाले राव से कह रहा था,
ज़रा इनका हुलिया तो देखो। दम तो कुछ भी नहीं और चले हैं दादा लोगों से टक्कर लेने।
मैं तेज़-तेज़ क़दम उठाता हुआ पुलिस स्टेशन के बाहर निकल आया। क्लाई की घड़ी देखी, दस बज रहे थे। दुकानें क़रीब-क़रीब बंद हो चुकी थीं। सिर्फ़, न्यू स्टार, होटल खुला था और पान वाले की दुकान पर कुछ लोग खड़े नज़र आ रहे थे। मैंने जेब से दस पैसे का एक सिक्का निकाला और पान वाले से एक पनामा सिगरेट ख़रीद कर पास ही जलते हुए चराग़ से उसे सुलगाया।
मेरे क़दम फिर अपने महल्ले की तरफ़ उठ गए। मैं इस वक़्त बिल्कुल ख़ाली उज़्ज़ेहन हो गया था। न मुझे शामू पर ग़ुस्सा आ रहा था न पांडे हवालदार पर न पुलिस इंस्पेक्टर पुर। मुझे वो तीनों एक जैसे ही लगे। इंस्पेक्टर की बातों ने मुझे झिंझोड़ कर रख दिया था। मुझे लग रहा था, सच्चाई, इंसाफ़ और शराफ़त सब किताबी बातें हैं। हक़ीक़ी ज़िंदगी से इनका दूर का भी वास्ता नहीं। इस दुनिया में शरीफ़ और ईमानदार आदमी को लोग इसी तरह नफ़रत-ओ-हिक़ारत की नज़र से देखते हैं जिस तरह किसी ज़माने में ब्रह्मण, शुद्र लोगों को देखते थे। मैं रेलवे पटरी क्रॉस करके पतली सड़क पर आ गया था। नालियों से उठने वाले बदबू के भबकों ने मेरा इस्तक़बाल किया। मैं फिर अपने महल्ले में दाख़िल हो चुका था। सामने शामू के अड्डे पर वैसी ही चहल पहल थी। सीख़ कबाब वाले की अँगेठी बराबर दहक रही थी और ग्लासों की खनक और पीने वालों की बहकी-बहकी गालियाँ फ़िज़ा में तैरती फिर रही थीं।
मैं एक पल के लिए ठिटका। फिर अपने घर की तरफ़ मुड़ने के बजाए शामू के अड्डे की तरफ़ बढ़ गया। क़रीब पहुँच कर मैंने अड्डे का जाइज़ा लिया। पाँच दस आदमी बेंचों पर बैठे, सीख़ कबाब चखते, शराब के घूंट ले रहे थे। सोडा वाटर की बोतलें और शराब के ग्लास उनके सामने रखे थे। देसी शराब की तेज़ बू मेरे नथुनों से टकराई। दो छोकरे पीने वालों को सर्व कर रहे थे। उनमें एक वही था, जिसने मुझपर चाक़ू उठाया था। मैं जैसे ही रौशनी में आया। उसकी नज़र मुझपर पड़ी। एक लम्हे के लिए वो चौंका फिर अपने हाथ में दबी सोडे की बोतल दूसरे छोकरे के हाथ में थमाता हुआ धीमी आवाज़ में कुछ बोला। उस छोकरे ने भी पलट कर मुझे देखा और फिर लपक कर अंदर के कमरे में चला गया। मुझपर चाक़ू उठाने वाला अपनी कमर पर दोनों हाथ रखे उसी तरह खड़ा मुझे घूर रहा था। मैं धीरे-धीरे चलता हुआ क़रीब की एक बेंच पर जा कर बैठ गया। इतने में शामू लुंगी और बनियान पहने बाहर निकला। उसके साथ दो छोकरे और भी थे। शामू के तेवर अच्छे नहीं थे।
कौन है रे! उसने तीखे लहजे में मुझपर चाक़ू उठाने वाले छोकरे से पूछा। फिर उसके जवाब देने से पहले ही उसकी नज़र मुझपर पड़ गई और वो भी एक लम्हे के लिए ठिटक गया। मेरी नज़रें उसके चेहरे पर गड़ी हुई थीं। उसने इन छोकरों से कुछ कहा। जिसे मैं नहीं सुन सका। फिर वो धीरे-धीरे चलता हुआ मेरे क़रीब आ कर खड़ा हो गया। दूसरे छोकरे चंद क़दम के फ़ासले से मुझे नीम दायरे की शक्ल में घेर कर खड़े हो गए। शराब पीने वाले दूसरे गाहक भी अब बहकी-बहकी बातें करने की बजाए हमारी तरफ़ देखने लगे थे। शायद वो भी समझ गए थे कि अब यहाँ कुछ होने वाला है। मैं उसी तरह बेंच पर बैठा शामू की तरफ़ देख रहा था। शामू ने अपनी लुंगी ऊपर चढ़ाते हुए कड़े लहजे में पूछा,
अब क्या है?
मअन उसकी और मेरी नज़रें मिलीं। उसकी आँखों से चिंगारियाँ निकल रही थीं। मैंने निहायत पुर सुकून लहजे में जवाब दिया,
पाव सेर मौसंबी और एक सादा सोडा।
शामू के हाथ से लुंगी के छोर छूट गए और वो हैरत से मेरी तरफ़ देखने लगा।
नीम दायरे की शक्ल में खड़े उसके छोकरे भी हैरान नज़रों से एक-दूसरे की तरफ़ देखने लगे। उनके लिए मेरा ये रवैया शायद क़तई ग़ैर मुतवक़्क़े था। वो सब पत्थर की मूर्तियों की तरह बे-हिस-ओ-हरकत खड़े मेरी तरफ़ देख रहे थे। उनकी आँखों में उस वक़्त एक अजीब क़िस्म की परेशानी झलक रही थी। चंद सानियों के लिए ही क्यों न हो, उस वक़्त वो मुझे बहुत बेबस नज़र आए और उनकी इस बेबसी को देख कर मुझे अंदर से बड़ी राहत का एहसास हुआ। चँद सेकंड तक कोई कुछ न बोला। मैंने उसी ठहरे हुए लहजे में आगे कहा,
और एक प्लेट भुनी हुई कलेजी भी देना।