अँगूठी (उड़िया कहानी) : प्रतिभा राय
Angoothi (Oriya Story) : Pratibha Ray
वह आदमी निश्चिन्त हो अस्पताल के वार्ड के
फर्श पर पड़ा
सो रहा था। रोगियों से मिलने के समय का स्वाभाविक कोलाहल, नर्सों तथा
परिचरों की लगातार आवाजाही का शोर, दवाइयों के कीटनाशक इत्यादि की तीखी
गन्ध, यहाँ तक कि उस आदमी के स्थिर चेहरे पर लगातार बैठ रही भिनभिनाती
मक्खियों की खीझ भरे उपद्रव भी उस आदमी की नींद में बाधा नहीं डाल रहे थे।
बीमारी से परेशान जिन कुछ रोगियों को रात में भी ठीक से नींद नहीं आती, वे
उस आदमी को दोपहर से ही गहरी नींद में सोते देख मन-ही-मन ईर्ष्या कर रहे
थे।
जन्मस्थान से लेकर कब्रिस्तान तक आज हर जगह स्थानाभाव के बारे में कौन
नहीं जानता ? इसलिए अस्पताल में खाट की कमी के कारण उस आदमी को खाट न
मिलने की वजह से उसका फर्श पर सोना भला कोई मार-काट की बात तो नहीं। इतना
ही मिल जाना क्या उस बुढ़िया के लिए कोई कम आश्वासन की बात है ! अधेड़
उम्र के बेटे को लेकर जब बुढ़िया ट्रक के डाले में बैठकर कटक शहर के बड़े
अस्पताल के लिए चली, गाँव के सभी लोग जाने को मना कर रहे थे।
‘बड़े
अस्पताल में जान-पहचान न हो तो आसानी से खाट नहीं मिलेगी’ कहकर
डरा
रहे थे। बुढ़िया सबकी बात अनसुनी कर दो काँसे के बर्तन गिरवी रख बेटे को
लेकर नाक के सीध निकल आयी थी। खाट न मिलने पर भी वार्ड में नीचे फर्श पर
एक आदमी के सोने-भर की जगह बिना जान-पहचान के आसानी से मिल जाने पर
बुढ़िया को लगा मानो बिना पतवार के नाव से उसने समुद्र-पार कर लिया। खाट
की भला क्या जरूरत ? घर पर ही कौन-सा उसका बेटा खाट पर सोता था कि यहाँ
बिना खाट के उसे नींद नहीं आएगी ! बल्कि घर पर गीला-गीला-सा मिट्टी का
फर्श है और यहाँ सिलेट-सा चिकना सीमेण्ट का फर्श, घर में फटे टाट पर मैली
चिकटी कथरी बिछाता था, और यहाँ पर एक बित्ता मोटी रूई की फक्क साफ गद्दी
मिली है। घर में चाँद सूरज घुस आने के लिए जगह-जगह छप्पर उड़ी चाल थी तो
यहाँ पक्की मजबूत छत है। बुढ़िया के लिए इतना ही काफी था–ढाई
दिन की
सरकारी खाट के लिए इतनी लालच क्यों करे ? उसे भला यहाँ कौन-सा हमेशा के
लिए घर बसाकर रहना है! लालच से ही न पाप होता है, पाप से....मृत्यु !!
‘मृत्यु’ शब्द आते ही बुढ़िया की जर्जरित छाती के
पँजरे के
नीचे खोखले कलेजे में धड़धड़-सी आवाज हुई। मौत नहीं आती उसे, जलकर भस्म
नहीं हो जाता उसका पापी मन ! बुढ़िया ने खुदको मन-ही-मन कोसा, दुतकारा
धिक्कारा। कौन-सी बात सोचते-सोचते वह मरने की बात सोचने लगी-धत्....औरत का
मतलब कि मुँह में बुरी बात। पहले पाप फिर पुण्य....
बुढ़िया ‘मरण’ का खयाल दिल से निकालने के लिए इधर-उधर
देखकर
मन बहलाने की कोशिश करने लगी। वार्ड भर में लूले-लँगड़े मार-काट वाले रोगी
पड़े हैं....। किसी के सिर पर पट्टी बँधी है, किसी के हाथ-पैर, कमर-पीठ,
घुटने, पेट में पके हुए मक्के के छिलके-सी परत-दर-परत पट्टियाँ लपेटी हुई
हैं। और किसी के खेत में खड़े बिजूके के मुँह-सा आँखों को छोड़कर पूरे
चेहरे पर बैण्डेज हुआ है। कितने भयंकर लग रहे हैं तुम्हारे-हमारे जैसे लोग
! मानों नौटंकी-स्वाँग के लिए भेष बनाये हुए हैं। पर नहीं इन्होंने भेष
नहीं बदला है, पट्टियों के नीचे वाकई टूटा-फूटा शरीर-सिर है। इनकी तुलना
में तो उसके बेटे को कुछ भी नहीं हुआ है...पूरे शरीर में कहीं खरोच तक
नहीं है, कहीं सूत भर का बैण्डेज नहीं लपेटा गया है। जिस तरह काँछ बाँधे,
खुले बदन मजूरी के तौर पर चाल-छप्पर छाते-छाते पैर खिसकने पर मालिक के घर
के पक्के आँगन में आ गिरा था, उसी तरह खुले बदन सो रहा है।
इतनी जोर से
गिरने पर भी देवी मैया की कृपा से शरीर पर कहीं भी चोट का कोई निशान नहीं
है। सिर्फ घबराहट से बेहोश हो गया था। गाँव के कविराज की अथक कोशिश से भी
होश नहीं आया, चन्नामृत, झाड़-फूँक, टोना-टोटका भी काम नहीं आये। निरा
डरपोक है बचपन से। नीचे-ऊपर के दो भाई बहन नहीं रहे ना, इसीलिए डरपोक है।
डर से घबरा गया है...। डर दूर होते ही उठ बैठेगा ! मालिक की बिटिया कटक
में पढ़ती है। अपशकुन-सी तपाक से बोल पड़ी कि लोग तो महीनों बेहोश रहते
है। फिर अपाहिज हो जाते हैं। उसी ने कहा कि बड़े अस्पताल ले जाओ तो ठीक हो
जाएगा। पहले तो बुढ़िया तमतमा उठी थी। महीनों बेहोश रहने के बाद भला आदमी
कहाँ बचता है, आदमी है या कुम्भकर्ण। बड़े लोगों को क्या जवाब देना। जब
बात बुढ़िया के कानों में पड़ ही गयी थी, तब भला बुढ़िया बेटे को ले बड़े
अस्पताल गये बगैर कैसे रह सकती थी। माँ का जो मन है ! हालाँकि बुढ़िया
जानती है कि उसके बेटे के साथ कोई बड़ा हादसा नहीं हुआ है। हाँ, सिर फटकर
ढेर-सा खून बहता-हाथ, पैर, पँजरे की हड्डियाँ टूटतीं, कलेजा फटकर नाक-मुँह
से खून की उल्टी से बेहोश हो जाता, तब वह समझती होश लौटेगा या नहीं
लौटेगा। गाँव में जमीन-जायदाद को लेकर आपस में लाठी से एक-दूसरे का सिर
फोड़कर तमाम लोगों को लहूलुहान हो होश वापस न आना उसने देखा है, देख क्या
बल्कि भोगा है..इसी के बप्पा !
भाई-भाई में बँटवारे के समय आँगन में घेरा डालने की नौबत आने पर बित्ते-भर
जमीन के लिए तू-तू, मैं-मैं, फिर हाथापाई, लाठी उठाकर मार-धाड़ फौजदारी।
मैं नयी-नयी दुल्हन बीच-बचाव करने दोनों के बीच खड़ी हो गयी जाकर। कितनी
चिरौरी करते हुए बोली, ‘‘बड़े होने के नाते जेठजी हर
चीज में
दस आना, छह आना बाँट ही चुके हैं, यदि आँगन की एक बित्ता जमीन भी अधिक ले
रहे हैं तो उसमें जान क्यों निकल रही है ? धीमी-धीमी आग को जरा-सा ईधन मिल
जाए तो हहाकर जल उठने-सी, मरद बेटे के घट (चोला) में जरा-सी जान पड़ी तो
भाग्य लौटने पर सम्पत्ति अर्जित करना कौन-सी बड़ी बात है। बड़ा भाई
बित्ता-भर मिट्टी ही ले जाएगा भाग्य तो कोई नहीं।’’
वास्तव
में भला कौन किसका भाग्य ले जाता है
आँगन में लोगों की भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। कहीं कोई जोरू का गुलाम न कह दे
! ‘‘चल भाग जा..मेरे आगे से। चली आयी प्रवचन सुनाने,
फिर कभी
मरदों की बातों के बीच में मत आना, कहे देता हूँ, अपनी सीमा में
रह’’ इतनी कहकर नयी-नवेली दूल्हन को इतने लोगों के
आगे एक ओर
धकेलते हुए भाई के आगे तनकर खड़ा हो गया। ‘‘मैं जहाँ
लकीर
खींच दूँगा यदि वहीं घेरा न पड़ा...’’अभी मुँह की बात
खत्म भी
नहीं हुई थी कि सिर पर बड़े भाई के डण्डे की तेज चोट पड़ी। मटका भरकर सिर
पर डालने की तरह सिर से पैर तक खून से नहा लिया। गर्मियों की तपती जमीन न
पी जाती तो आँगन में खून-ही-खून दिखाई देता। हट्टा-कट्टा आदमी पेड़ कटकर
गिरने -सा भस्स से नीचे गिर पड़ा। बेहोश हो गया, बस ! फिर होश नहीं आया।
दरवाजे से अरथी उठी। बीच आँगन में खून की लकीर खींच गया, उसी पर घेरा
पड़ा। बिन बाप के बच्चे, इस बेटे को लेकर वह नववधू औरत उस दिन से अकेली
है, जीवन मिटा डालने की सोचते-सोचते, किसके लिए और कैसे जी गयी, कौन-जाने
बुढ़िया होने तक काफी दिनों तक जो जी गयी-फिर मरने की बात नहीं सोची,
बल्कि तमाम दुःख-यातनाएँ झेलती हुई जीवन को कितनी हिफाजत से पोते का मुँह
देखने तक सहेजकर रखा। छोड़ों, एक के लिए यदि दूसरा अपना जीवन खत्म करता
होता तो संसार की लीला ही न चलती...धन्य है ईश्वर की महिमा..!
उसके बेटे के शरीर से खून तो नहीं बहा, बिना कारण किधर से प्राण निकलेगा
जो होश नहीं आएगा। बुढ़िया ने फिर दाँतों तले जीभ दबा ली। छिः मैं मर
क्यों नहीं जाती ! बेटे के पास बैठकर फिर वहीं मरने की चिन्ता !
पाप की चिन्ता भूलकर मन बहलाने के लिए अब बुढ़िया ने बैण्डेज बँधे रोगियों
पर से अपनी निगाह हटाकर बेटे के चेहरे पर डाली। कितना मासूम नम्र- सा सोया
है बेचारा ! जागते रहने पर भी भला उसके बेटे ने कब शैतानी की है...बेटे को
सिर से पैर तक, मुँह-आँखें, सिर आदि बुढ़िया सहलाती जा रही थी। आज बेटे का
चेहरा ठीक बचपन के चेहरे-सा लग रहा है, शायद सिर मुड़ा हुआ है इसलिए ! बाप
के लिए सात साल के बेटे को सिर मुड़ाना जो पड़ता था, तब बप्पा के लिए
जितना नहीं रोया था, अपने घुँघराले बालों के लिए उससे अधिक रोया था।
रूपये-पैसों का इन्तजाम होने पर देवी मैया के पास बाल गिरवाने की सोच सात
साल तक बेटा अपने घुँघराले बाल लटकाए बाल-गोपाल बना फिरता रहा। कौए, कबूतर
के पंख खोंसकर, पिता की बैल हाँकने की औगी (डण्डी) को बाँसुरी की तरह
फूँकते हुए, गाँव की जात्रा में देखे कृष्ण की तरह पैर उलझाये, त्रिभंगी
मुद्रा में खड़े होकर कहेगा, ‘‘देखो मैं यशोदा की
आँखों का
तारा गले का हार हूँ...! माँ बाप दोनों हँसते हुए बेटे का स्वाँग देखते
रहेंगे, पेट भरता रहेगा...। वाकई घुँघराले बाल बेटे को खूब सोभते थे।
डॉक्टरों पर भूत सवार होने-सा एक अच्छे आदमी का सिर क्यों मुड़वा दिया ?
कहते हैं कि सिर के भीतर दही में चोट लगने से खून तो खराब नहीं हो गया,
फोटो खींचकर देखेंगे। अजीब बात है ! सिर के ऊपर तो कहीं चोट है नहीं, ना
ही खून बहा है- मगज के भीतर कैसे खून बहेगा ! न जाने फोटो में क्या देखा,
यहाँ लाकर लिटा दिया । दवा आदि का दर्शन नहीं नाक मुँह दबाकर दाँत अलग
करके होश लौटाने की कोशिश तक नहीं कर रहे। उसके बेटे की बगल-से ही-डॉक्टर
नर्स आ जा रहे हैं।
दूसरे-दूसरे रोगियों को देख रहे है, दवा इंजेक्शन दे
रहे हैं-फल बिस्कुट दूध दे रहे हैं उसके बेटे की ओर देखते तक नहीं, मानो
उसे कुछ हुआ ही न हो ! अपनी खुशी से अस्पताल में आकर सो गया है। नींद
खुलने पर अपनी राह चला जाएगा। ठीक है, जिसका कोई नहीं, उसका भगवान होता
है। ऐसा ही हो। पर होश आने पर ही ना वह अस्पताल से जाएगा।
यही बात बुढ़िया सबसे पूछती है। नर्स दीदी का वही एक जवाब,
‘‘होश आने तक इन्तजार करना होगा, ठीक समय पर जो इलाज
करना
होगा, हम करेंगे। तुम घबराओगी तो कैसे होगा ?’’
‘‘वो तो ठीक है नर्स दीदी, पर एकाध खुराक दवा पिला
देने से
क्या होश नहीं लौट आएगा ? जरा-सा दूध पिला देने से नाड़ी में जान नहीं
दौड़ने लगेगी...?’’बुढ़िया की गीली आँखों में करूण
विनती है।
‘‘सबर कर मौसी ! बेहोश आदमी दवा, दूध निगलेगा कैसे
गले में
फँस नहीं जाएगा...? होश वापस आने पर, दवाई-खाना सब कुछ मिलेगा तेरे बेटे
को...।’’
आहा ! कितनी दयालु है नर्स दीदी, उसके बेटे को होश आने पर फल, बिस्कुट
दूध, डबल रोटी, सब जरूर देगी। अपनी बात से मुकरेगी नहीं नर्स दीदी, उसका
चेहरा ही बता रहा है...। बिचारी के हाथ, गला कान सब नंगे ही है, तिस पर
सफेद पोशाक ! करमजली राँड जो है ! भगवान उसके बेटे को लम्बी उम्र दे...।
बुढ़िया बेटे को फिर सहलाने लगी। देवी-देवताओं को टेरने
लगी,‘‘प्रभु जल्दी होश लौटा दो, अच्छी-बुरी चीजों के
खाने का
स्वाद जरा अभागे की जीभ को मिले, पेट में जाए। भूख भी लगी होगी। होश नहीं
है तभी न मुँह नहीं खुल रहा, पर पेट सट चुका है पीठ से। सुबह भात का पानी
एक कटोरा पीकर घर छाने निकला था। हाँड़ी में भात भी नहीं था। जो मूठी-भर
था, पोते-पोती दोनों सुबह कौआ बोलने से पहले ही खा चुके थे। ये राक्षस
बच्चे भला कुछ खाने-पीने देते हैं...? बुढ़िया ने लम्बी साँस छोड़ी,
बच्चों को दोष देने से क्या लाभ, गरीब के घर की भात-हाँड़ी तो हमेशा ही
खाली रहती है, पर पेट तो कभी खाली नहीं रहता, पेट तो भरा रहता है, भर-पेट
भूख से !
भगवान का फैसला कभी-कभी कितना उल्टा होता है। यदि हाँड़ी में भात नहीं
दिया, पेट में भूख भी मत दो....। पेट ही के लिए तो यह नाटक है, इतनी
मार-पीट, फौजदारी, चोरी, तस्करी, मेहनत- मशक्कत... वरना क्यों उसका बेटा
तपती धूप में खाली पेट चाल पर चढ़ता और फिर नीचे गिरकर बेहोश होता...।
आहा ! खूनी-मवाद मक्खियों की बदबू में भी उसका बेटा किस तरह दीन-हीन-सा
सोया हुआ है ! बुढ़िया ने फिर बेटे को सहलाया। अस्तूरे से खूब चिकने किये
सिर सहलाते समय उसे बेटे का मासूम चेहरा और भी अधिक करूण दिखा। बाप के
मरने पर सिरमुड़े बच्चे को देखते ही बुढ़िया का मन इसी तरह करूण, अधीर हो
जाता था। मुड़ा हुआ सिर बार-बार पुराने पड़ गये पति-शोक को कल की घटना-सी
याद करा देता था। माँ की छाती के घाव को कुरेद- कुरेदकर रक्त झराता था,
निर्दयी-सा कान के पास घण्टा बजाने की तरह गूँजता रहता था,
‘‘बिन बाप का बच्चा,
आभागा...अनाथ...’’ आज भी
बेटे का मुड़ा सिर बुढ़िया की दबी आशंका, छुपे भय, भींची सिसकियों को
कुरेद रहा है, कह रहा है ‘‘किस तरह अनाथ-सा पड़ा है
तेरा
बेटा, यहाँ कोई तेरा मददगार नहीं, अनाथ आभागा...।’’
बुढ़िया
एक हाथ से बहते आँसुओं को पोंछती जा रही थी और दूसरे से बेटे को उसी तरह
लगातार सहलाती जा रही थी। होश आने पर अपना मुड़ा सिर देख उसका बेटा खूब
गुस्सा होगा। खाने-पहनने का शौक तो कर नहीं सका, बस उन बाल के गुच्छों का
ही तो शौक था। पीठ ढ़कने को भले ही कपड़ा न हो, काम पर निकलने से पहले
बालों को खूब सजा-सँवारकर निकलेगा। रास्ते में जाते समय लोग देखते रह जाते
। बाल नहीं, मानों मुकुट लगा रखा हो । भूख, दुःख से असमय ही शरीर से मांस
घटा, रक्त घटा, तेज घटा, पर बालों का गुच्छा जैसा था, वैसा ही है,
कहीं-कहीं गरमी और तेल की कमी से एकाध बाल सफेद जरूर पड़ने लगे हैं, पर
घनापन सूत-भर भी नहीं कमा है। सिर नहीं, मानों टोकरी हो । क्यों मूँड़
दिया अस्तूरे से...अस्पताल के नाई को भी दया-माया नहीं है...चुटिया-भर बाल
भी छोड़ने को दैव ने नहीं कहा। छोड़ो, जो गया वह फिर नहीं लौटेगा। पर कुछ
ही दिनों में घास की जड़ अंकुरित होने-सी उसके बेटे के सिर के बाल उग ही
आएँगे। गरीब का सिर समझ बाल उगने में विधाता का न्याय विपरीत नहीं है....।
बुढ़िया फिर बेटे के शरीर-सिर सहला गयी। हाथों की मुठ्टियाँ बँध रही हैं
या मुट्ठी बाँध रहा है -? क्या होश लौट रहा है ! बुढ़िया बेटे के हाथ की
उँगलियाँ एक-एक करके सीधी कर रही है, बेटे की अँगुलियों में अपनी
अँगुलियाँ फँसाकर, हथेली से हथेली मिलाकर ठण्डे हो रहे बेटे के बदन को
अपनी सारी ऊष्मा संचरित करने की कोशिश कर रही है। बेटे के बायें हाथ की
उँगली में बुढ़िया की उँगली रूक जाती है। न जाने कब से पड़ी है वह चाँदी
की अँगूठी बेटे की बीच उँगली में, जैसे कि उँगली और अँगूठी में चोली-दामन
का साथ हो। सोने की अँगूठी ससुराल से पाने की कितनी आस लगाये था, पर उसकी
हाँड़ी में चावल डाला धान-कूटी घर की लड़की ने। विधवा माँ कहाँ से लाये
दहेज ! बिन बाप की औलाद, बिन पति की औरत का दुःख जानती है बुढ़िया। बहू मन
को भा जाने के बाद सोने की अँगूठी के लिए भला शादी कैसे तोड़ देता !
बेटे की शादी से पहले अपनी दो जोड़ी पुरानी बिछिया तुड़वाकर बेटे के लिए
चाँदी की अँगूठी बनवा दी थी बुढ़िया ने। गहनों में उतना ही था उसके पास।
सोने की अँगूठी पहनने का शौक चाँदी की अँगूठी से पूरा कर लिया था बेटे ने,
बिना आपत्ति के। असहाय, अभाव भरे जीवन में ऐसे कई सोने के सपनों को
मिट्टी, कंकड़, चाँदी, पीतल की वास्तविकता से पूरा किया जाता है । अड़कर
बैठ जाने से भला जीवन कैसे बीतेगा ।
बेटे की काली-काली उँगली में चिपकी चाँदी की अँगूठी मणि की तरह चमकती है।
गरीब के गन्दे, मैले, गाँठ पड़े, कमेरू हाथ की उँगली में सोने की अँगूठी
चाँदी की तरह इतनी फक्क नहीं दिखती, दिखती है बासी तुरई के फूल-सी फीकी
मानों पीतल हो ! पीतल से चाँदी लाख गुनी अच्छी है। चाँदी की दर भी आजकल
कौन कम है ?
हर रोज दाँत माँजते समय अँगूठी को जरा-सी राख से माँज-मूँज लेता है उसका
बेटा। कहीं घिस न जाए सोचकर हल्के-हल्के खूब सँभालकर माँजता है, सिर्फ मैल
न जमने देने के लिए। कितनी ही सँभाल क्यों न करे जिस तरह उसका शरीर काम
करते-करते पतला हो गया है, वह अँगूठी भी उसी तरह कमेरू की उँगली में
घिस-घिसकर नीचे से पतली हो गयी है। नयी अँगूठी पर कुछ काम किया गया था, आज
दिखाई नहीं देता, समय का हाथ लगकर वह काम कब का घिस चुका है, अब अँगूठी का
ऊपरी हिस्सा इमली के बीज की तरह चिकना है, बिल्कुल सादा। खाँटी चाँदी की
अँगूठी है न, इसलिए कुछ मुलायम है। उसका बेटा भी बिल्कुल खाँटी आदमी है।
इसलिए आजकल की चोरी-चमारी भरी दुनिया में वह मुलायम पड़ गया है। ठेके के
काम में दूसरे मजदूर काम से जी चुराते होंगे, उसका बेटा मर-जीकर दूसरे
पाँच लोगों का काम भी करता जाएगा। जो जितना कमेरू होता है वह उतना ही
पिसता है। उम्र से अधिक बूढ़ा हो जाता है। क्या जरूरत थी भूखे पेट चाल पर
चढ़ने की। नीचे रहकर पुआल के गट्ठर ऊपर बढ़ाता रहता तो नहीं होता। और भी
तो ढ़ेर सारे लोग थे.....कोई भी हट्ठा कट्टा जवान चाल पर चढ़ गया होता। जो
झुक गया उसी के गले में तो सभी पगहा डालते हैं। उसका बेटा वाकई बहुत अच्छा
है, अच्छा हुआ तो मरे ! बुढ़िया बेटे को, उसके हाथों को, उँगलियों को,
अँगूठी को सहलाती जा रही थी।
रोगियों से मिलने वालों की भीड़ छँटने लगी थी। साँझ ढल जो चुकी थी ! कौन
जाने अब गाँव लौटने को गाड़ी मिलेगी या भी नहीं ! उनके गांव का ट्रक
ड्राइवर काला मियाँ माल लेकर बरगढ़ जा रहा था। उसी के गाड़ी में बुढ़िया
बेटे को लेकर चली आयी । अस्पताल में बुढ़िया को छोड़कर काला मियाँ बरगढ़
चला गया। कह गया है कि उनके गाँव के जो एकाध साहब लोग कटक में नौकरी करते
हैं, उन्हें खबर करता जाएगा। वे लोग आकर बुढ़िया की सुध लेंगे। अस्पताल
में तो दवाई, खाना सब मुफ्त में मिलेगा। बुढ़िया को पैसों की क्या जरूरत
है ? सिर्फ गाँव लौटने भर का किराया लगेगा माँ-बेटे का।
पोते-पोती दोनों के लिए चमकीले कागज में लिपटी मीठी-मीठी गोलियाँ और
गुड़िया या एकाध पिपिहिरी ले जाने की इच्छा तो है, पर इतने पैसे कहाँ!
बुढ़िया के पल्लू में दो रूपये बँधे हैं। बस उतना ही। कुछ न ले गयी तो
बच्चे रूठ जाएगें । आते समय दोनों दादी के साथ कटक आने के लिए खूब जिद
करके रो रहे थे। ‘‘हम लोग कटक जाएँगे, मोटर-गाड़ी में
बैठेंगे... ’’ चिल्लाते हुए कुछ दूर तक ट्रक के
पीछे-पीछे
दौड़े थे। नौ साल का पोता बड़ा शौतान है। बड़ा चुस्त भी है ! सात साल की
पोती सुस्त है, इतनी की छूते ही गिर जाए। ट्रक के पीछे दौड़ते समय पोता
उसे पछाड़कर आगे चला आया था, इसलिए जोत से दौड़ते-दौड़ते पछाड़ खाकर मुँह
के बल गिर पड़ी थी। होठ फटकर लहूलुहान। रोते समय साँस नहीं लौट रही थी।
बहू भी सीधी-सादी, भोली-भाली है। बच्ची को उठाकर समझाना तो दूर, खुद
डबडबायी आँखों से ट्रक की ओर ताकती रही । सही- सलामत आदमी को कटक क्यों ले
जा रहे हैं, कुछ समझ नहीं पा रही थी। ‘‘तेरे लिए लेमनचूस, गुड़िया लाऊँगी’’ कहकर बुढ़िया के ट्रक से चिल्लाकर कहते-कहते
ट्रक रास्ते की मोड़ मुड़ गया। दोनों बच्चों का मुँह फिर दिखाई नहीं दिया।
काफी दूर तक बुढ़िया का मन भीतर-ही-भीतर मथता रहा। बुढ़िया को छोड़कर
पल-भर भी नहीं रह सकते दोनों बच्चे। घर में चावल भी नहीं था। कितना हाथ
पसारेंगे दूसरों के घर में ! आज माँ बच्चे तीनों उपासे न होंगे। हमारे
लौटने की राह देख रहे होंगे...।
बुढ़िया का पेट भी भूख से उमेठ रहा है । हर रोज आधा पेटकल रात से निर्जला उपास । बेटा आधे दिन की मजूरी करके चावल खरीदकर घर लौटता...। छोड़ो...।
यहाँ रोगी को ही खाना मिलता है, रोगी के माँ-बाप सगे-संबंधियों को नहीं मिलता । उसका बेटा तो इस तरह सो रहा है कि कोई शोर-शब्द नहीं । आज दोपहर सभी रोगियों को भात, दाल, तरकारी, दूध दिया गया । अच्छे रसोइए हैं इस बड़े अस्पताल में । बुढ़िया ने चखा नहीं तो क्या, खाने की महक से जान गई है । बेटे को कितना हिलाया-डुलाया, उसने कोई जवाब नहीं दिया । होश में होता तो बेटे को भी भात-तरकारी मिलता । बुढ़िया भी मुट्ठी भर खा लेती । बुढ़िया ने सोचा, कहेगी, बेटे का हिस्सा तो है, वह सो रहा है तो क्या उसका हिस्सा डूब जाएगा ? वह नहीं खाएगा तो उसकी माँ खाएगी ।' फिर झेंप गई । कहीं परिचर लोग झट मना न कर दें ! इतने अभाव में भी आज तक बुढ़िया ने पेट की ज्वाला से किसी के आगे हाथ नहीं पसारा, आज शहर आकर नाम रखाएगी ! बेटा उठने पर उसका सिर झुक जाएगा । बोलेगा, 'तूने ही न बचपन में सिखाया था-माँग कर मत खाना, कमाकर खाना ।' एक दिन सो गया तो तूने भीख माँगी ? मुफ्त का खाया ? गाँव के लोग भी आकर सुनेंगे । यह बात गाँव भर में फैल जाएगी कि बुढ़िया कटक में भीख माँगकर खा रही है। फिर क्या मुँह रह जाएगा।
गाँव के लोगों के दर्शन नहीं । काला मियाँ ने खबर दी या नहीं, भगवान जाने । बहुत हड़बड़ी में था । बुढ़िया मन-ही-मन चिंतित हो उठी ।
बेटे के हाथों में कुछ हरकत हुई । पहले की अपेक्षा जोर-जोर से साँसें ले रहा है। सीना जल्दी-जल्दी उठ-गिर रहा है । होश लौट जो रहा है।
नर्स दीदी जाते-जाते उसके पास रुक गई । ध्यान से देखा बेटे की ओर । दौड़कर गई और इंजेक्शन लाकर बेटे की बाँह में भोंक दिया । दो सफेद कपड़े पहने साहब बेटे के पँजरे की हड्डियों को पूरी ताकत से दबाने लगे । अरे ! जिंदा आदमी की छाती इतनी जोर-जोर से दबाने से जान नहीं निकल जाएगी ? अस्पताल में क्या इसी तरह होश में लाते हैं, इतनी निर्दयता से ? क्या इसी के लिए वह बेटे को इतनी दूर लेकर आई है ?
बुढ़िया ने चिढ़ते हुए कहा, “बाबू जी, आप लोग जिस तरह से उसकी छाती पर चढ़कर दबा रहे हैं, उसकी पँजरे की हड्डियाँ टूट नहीं जाएँगी ? वह तो किसी काम का नहीं रहेगा" पाँच प्राणियों का परिवार बर्बाद हो जाएगा'"जरा सोच-समझकर करिए ना ? सो रहे आदमी को सोने भी नहीं देते...!"
वे लोग वहाँ से चले गए । कहीं बुढ़िया की बात का बुरा तो नहीं मान गए । मानने दो, आँखों के सामने बेटे की दुर्दशा मुँह बंद किए कैसे सह सकती है भला...!
बेटे में अब कोई हरकत नहीं थी । नर्स दीदी पैर से लेकर सिर तक एक सफेद चादर ओढ़ा गई । पास की खाट के रोगी, उनके सगे-संबंधी, कछुए की तरह मुँह निकालकर उसी के बेटे की ओर देख रहे थे । मानो कोई खास बात हुई हो । साफ चादर पर सबकी आँखें टिकी हैं । गरीब हुआ तो क्या चादर ओढ़ना भी मना है ? सरकार ने दया करके दी, तुम्हारी जेब से खर्च होने-सा खुसुर-फुसुर क्यों कर रहे हो? क्यों ताक रहे हो मेरे बेटे की ओर एकटक ? क्या वह चादर साथ लिए जा रहा है ? किसी का एक पैसा तक लेना उसकी जन्म-पत्री में नहीं है। जाते समय अस्पताल में चादर सँभलवाकर ही जाएगा...।
नर्स दीदी बड़ी फुर्तीली है, छन्-छन् चलेगी मानो विवाह-मंडप से दूल्हा उठ गया है, जल्दबाजी में मुँह पर चादर भी डाल गई । साँस रुक नहीं जाएगी ! बचपन से माघ माह के जाड़े में भी उसका बेटा सिर ढककर नहीं सोता । बोलेगा, “सोते में कहीं साँस बंद होकर प्राणपखेरू न उड़ जाए " जिस दिन मरेगा, होशोहवास में रहकर सबको कह देगा, समझाकर मरेगा । बड़ा डरपोक है, कम अपशकुनी भी नहीं । बुढ़िया ने बेटे के चेहरे से चादर हटा दी । बेटे का बदन ठंडा हो चला था, शायद गर्माहट कम होने लगी है, अब कैसी चिंता !
नर्स दीदी आई । बड़ा-सा मुँह बनाकर बोली-“मौसी ! यहाँ तुम्हारे कौन लोग हैं, उन्हें खबर कर दो...।"
बुढ़िया कुछ समझ नहीं पाई । बोली-“मेरा तो यहाँ कोई भी नहीं है, बेटी । जो भी हैं सब पराए हैं । बेटे की तबीयत खराब होने की खबर पाकर भी अभी तक कोई नहीं आया । क्या खबर भिजवाऊँ उन्हें ? उनका पता भी मैं नहीं जानती । कैसी खबर, मुझे क्यों नहीं बताती ?"
नर्स दीदी ने पूछा-"तो तुम्हारा यहाँ कोई नहीं है ? और गाँव में...?"
“गाँव में भला कौन है जिसे खबर भिजवाऊँ, बहू तो कुछ जानती नहीं"बच्चे दोनों तो नासमझ हैं, यही तो मेरा इकलौता कमाऊ पूत है "" बुढ़िया ने बेटे को फिर अति स्नेह से सहलाया । मन-ही-मन सोचने लगी, अहा ! बचपन से कितना कष्ट सहा है बेचारे ने, एक दिन भी अच्छा नहीं खाया, अच्छा नहीं पहना । भगवान ने उसे जरा आराम भी नहीं करने दिया जीवन में कितना खटेगा एक आदमी !
नर्स दीदी ने कहा, “तुम्हारे पास पैसे हैं ?"
“हुँह, क्या खाली हाथ बेटे को लेकर आई हूँ ? ये देखो, दो रुपए हैं, यहाँ दवाई वगैरह तो सब मुफ्त में मिलता है । लो, ले जाओ यदि जरूरत हो !” बुढ़िया अति आग्रह से पल्ले से नोट खोलने लगी । नर्स ने घबराकर कहा, “रखो, रखो, मैं भला क्या करूँगी रुपए ? तुम्हारे लिए ही कह रही थी..."
"मेरे लिए ?"
"हाँ, इसे अब गाँव क्यों ले जाओगी?" नर्स दीदी कुछ घबराई । बुढ़िया के भौचक चेहरे को देख, चेहरा कड़ा करके नर्स ने कहा, “यदि तुम्हारे पास रुपया-पैसा नहीं है, यहाँ अपना कोई आदमी भी नहीं है, तो तुम अकेली बुढ़िया इस शहर-बाजार में कैसे क्या करोगी ?"
बुढ़िया ने अपनी बात जोर देकर कही, “अकेली बुढ़िया बेटे को लेकर गाँव से कटक आ सकती है, गाँव लौट क्यों नहीं सकती ? इसकी नींद खुलने पर चली जाएगी, न आएँ गाँव के लोग, किस दिन मेरी मदद को आए थे जो आज उन्हें ढूँढं ? इसकी नींद खुल जाए तो मैं शहर-बाजार की परवाह नहीं करती...।"
"तुम्हारा बेटा अब नहीं रहा मौसी !” नर्स दीदी ने इस बार साफ-साफ कह दिया, “नाहक गाँव क्यों ले जाओगी, यहीं दाह कर जाओ । तुम्हारे पास पैसे तो हैं नहीं, सरकारी लोग मुर्दा उठा ले जाएँगे...।"
बुढ़िया पहले न समझ पाने-सी बड़ी-बड़ी आँखें फाड़े नर्स दीदी की ओर ताकती रही । उसके बाद फूट-फूटकर रोने लगी । बेटे को पकड़कर लोट गई । चादर खींचकर बेटे की सुन्न, शिथिल देह को पैर से सिर तक, सिर से पैर तक दोनों हाथों से सहलाने लगी, उसके पथराए चेहरे को पागलों-सी चूमते हुए आँसुओं और लार से भर दिया । बेटे के मुँह से मुँह लगाकर, बेटे के मुँडे हुए सिर से सिर टकराकर विकल रुलाई के बीच जीवन-भर के रोए अतीत को दोहरा गई। बेटे के धूल में खेलने से लेकर दैव के निष्ठुर खेल तक कितनी हँसी-रुलाई, भूख, दुःख की स्मृतियों को आँसुओं में मिलाकर उगलने लगी । जमीन को खरोंचने लगी । फिर ढाँय-ढाँय करके फर्श पर सिर पटकने लगी । फर्श की धूल लेकर बेटे के बदन और सिर पर लगाकर पागलों-सी गुहार मारने लगी, “ऐ तैंतीस करोड़ देवताओ ! जो जहाँ कहीं भी हो, सुनो । मेरे बेटे के शरीर में जान लौटा दो धन-दौलत नहीं माँगती, घर-द्वार नहीं माँगती, रुपया-पैसा नहीं माँगती, बस थोड़ी-सी हवा-मेरे बेटे की साँसें लौटा दो..."
रोगी, रोगियों के सगे-संबंधी बुढ़िया के पुत्र-शोक से अभिभूत हो उठे थे और उनकी आँखें छलछला आई थीं। सबके हृदय में शोक की रागिनी बज उठी थी, बिचारी-च्च-च्चबिचारी बुढ़िया कितनी दुखियारी है' ऐसे भाव खिल उठे थे चेहरों पर, आँखों में । सभी बुढ़िया की ओर देख रहे थे।
काफी देर तक रोते-बिलखते बुढ़िया थक गई । बिलखने का स्वर बदलने लगा । अब हृदय के असह्य शोक क्षोभ में बदल गए । बुढ़िया ने कोसा, गरियाया-दगाबाज, अल्पायु बेटे के बाप को, पति के हत्यारे जेठ को, बाप से भी अधिक निष्ठुर, गलाकाट, धोखेबाज बेटे को । फिर कोसा, गरियाया जीवन-मृत्यु की चाबी पकड़े दैव-विधाता को, गाँव वालों को, घर का , छप्पर छा रहे दूसरे मजदूरों को, मालिक को, काला मियाँ, डॉक्टर, नर्स परिचर और उसकी ओर देख रहे रोगियों को । बुढ़िया की पसलियाँ, आँत-पित्त, मांस-चर्म सारी सत्ता क्षोभ के झोंके से दहल उठी थी । अविराम वाक्यों में, क्रोधित लय में बुढ़िया सबको शाप देती जा रही थी।
“तुझे, तीनों लोक में ठौर न मिले रे अल्पायु मनुआ के बप्पा ! यदि आधी उम्र में ही जाने के लिए आया था तो बाजे-गाजे-आतिशबाजी के साथ शादी क्यों की थी रे ? मर्दानगी दिखा रहा था रे निरबंसिया ? मेरे हाथ की चूड़ियाँ फुड़वा कर तेरा जी नहीं भरा था, जो गलाकाट, दगाबाज शैतान (मनुआ) को मेरे पास छोड़कर चला गया रे अविश्वासी ! बाप से बेटा दो कदम आगे ही निकला गलाकाट, माँ का गला काटकर तुझे क्या मिला रे मनुआ दगाबाज ! अपना पेट काट-काटकर तुझे खिलाकर इसीलिए इतना बड़ा किया था क्या रे शैतान ! मेरे बेटे को खाकर तुझे क्या मिला रे राँड़ घर की लड़की (बहू)"अब तो तेरा पेट भर गया होगा खसम खौनी, भाई का खून पीकर तेरा कलेजा जुड़ा गया रे छाती फटा, तेरे सिर पर बिजली गिरे रे मेरे आदमी के हत्यारे (जेठ), सुबह-सुबह यमदूत बनकर घर का छप्पर छवाने बुलवा लिया रे किरहे मालिक, मेरे बेटे को सूली पर चढ़ा दिया रे कोढ़िया, लूले-लँगड़े मजूरो, ट्रक में लादकर कसाईखाने में डाल गया रे पठान, रास्ते में गिरकर छटपटाकर मरेगा रे पठान, ज्ञान की बड़ाई कभी नहीं टिकी रे अधबुढ़िया, बाजारों में घूमने वाली साहब-घर की दिदिया, काल के मुँह की बात फला गई, तेरे मुँह में कीड़े पड़ें रे दिदिया, जिस हाथ से मेरे बेटे को मारा वे हाथ टूटकर गिर जाएँ रे मुँहझौंसे डॉक्टरो, मेरा वंश डुबोया है, तेरा पूरा वंश डूब जाए रे कुलक्षणी नर्स दीदी, हैजे से मरो रे आँखें फाड़े इधर देखने वालो, तुम्हारे घरों से भी अरथी उठेगी रे करमजलो, तेरी पृथ्वी रसातल में चली जाए रे दैव-विधाता, तुझे पूजने वाला कोई भी न बचे रे दैव-विधाता...।"
क्षण-क्षण शोक का स्वर, शोक की भाषा बदलती जाती...कभी नरम, कभी कठोर, कभी अश्लील...देखने वाले स्तब्ध हो सुनते रहे, सोचते रहे, शोक के इतने सुर! इतनी भाषाएँ!! इतने राग और लय!!!
शोक का स्वर अब अलग है। असहाय करुणा से जननी के हृदय का अभिमान झर रहा है-"जा, जहाँ सुख से रहेगा, निश्चिन्त हो सोएगा, बेरोकटोक डोलता फिरेगा, वहीं जा। बुढ़िया माँ मरती रहे, परेशान होती रहे, दुनिया भर के कष्ट झेलती रहे, तुझे उससे क्या! बुढ़िया की कमर की हालत तो देखता है रे मनुआ...तीन प्राणियों को मेरे गले में बाँध जाने का विवेक कहाँ से मिला? बाप-बेटे दोनों कामचोर हैं, निकम्मे हैं, दुनियादारी के बोझ से इतना डर! औरतों में अधिक बल देखा! गृहस्थी बनायी किसलिए? जा-जा, जब तूने मेरे बारे में ही नहीं सोचा, मैं क्यों सोचूँ तेरे बारे में? इस दुनिया में कौन किसका है? सब माया है, सब धोखा है, झूठ है, फरेब है!!"
बुढ़िया अपने आप शान्त हो गयी। उसने खुद ही खुद को समझाया। बेटे की ओर से मुँह फेरकर दरवाजे से बाहर अँधेरे को थकी-माँदी-सी ताकती रही, मानो कुछ भी न सोच रही हो, या फिर सोच की बोझ से जड़ बन गयी है। बुढ़िया उसी तरह काफी देर तक बैठी किसी सोच में डूब गयी। बुढ़िया के शोक का उच्छ्वास कम हो जाने पर नर्स आयी। दो परिचर आये। नर्स ने कहा, "मौसी, अब छोड़ो। ये लोग लाश उठा ले जाएँगे। जिन्दा रोगियों के बीच लाश रात-भर नहीं पड़ी रहेगी। बेटे का दाह हो जाएगा। तुम चिन्ता मत करो।"
बुढ़िया ने चौंककर देखा। कातर स्वर में बोली, "मेरे पास तो सिर्फ दो ही रुपये हैं, उतने में।..." बुढ़िया भुक-भुकाकर रो पड़ी। नर्स ने सान्त्वना देते हुए कहा, "रुपये नहीं चाहिए, मौसी! मुफ्त में दाह हो जाएगा..."
"अब देर मत करो, लाश उठवाने का इन्तजाम करो।" नर्स चली गयी। दोनों परिचर लाश के पास झुककर धीरे से बोले, "जितने रुपये हैं, दे दे मौसी, बिल्कुल मुफ्त में कैसे होगा काम!"
बुढ़िया ने आग्रहपूर्वक पल्लू से दो रुपये खोलकर उनकी ओर बढ़ा दिये।
मन में जरा भी कंजूसी नहीं है। जिसने जीते-जी कभी किसी का ऋण नहीं रखा, मरने के बाद क्यों उसे ऋणी बनाएगी जीते-जी बुढ़िया माँ...। मुफ्त में क्यों लाश उठाएँगे दूसरे लोग...!
अन्तिम बार बुढ़िया ने मरे हुए बेटे को सहलाया। विदाई चुम्बन के प्लावन से हृदय का समस्त वात्सल्य, असहाय मातृत्व की समस्त निचुड़ी हुई करुणा बहा गयी। विडम्बनापूर्ण आशीर्वचन बहा गयी, "जा, इस पार का सुख तो जान नहीं पाया, उस पार ही सुख से रह, निश्चिन्त रह..."
परिचरों ने लाश उठाने को हाथ बढ़ाया। झुककर कहा, "मौसी! छोड़छोड़...रात हो रही है। मिट्टी के पिण्ड से अब कैसा मोह?"
बुढ़िया ने खूब धीरे, खूब सँभालकर बेटे का शरीर, सिर सहलाया, बेटे की मजबूत अधखुली सुन्न हथेली को अपनी थुलथुली नस-भरी हथेली से पकड़कर हृदय के बाकी बचे कोमल, करुण, आवेग को बहाकर खुद को झाड़झूड़कर खोखला कर दिया।
परिचरों ने पैर-सिर से लाश को उठाकर पकड़ा। बुढ़िया ने उसी तरह बेटे की उँगलियों में अपनी उँगलियाँ उलझा ली थीं, मानो जकड़ गयी हों। बेटे और बुढ़िया की उँगलियों के बीच बेटे की वही अतिप्रिय अँगूठी बुढ़िया को छुल गयी। सहसा होश आने-सा बुढ़िया ने बेटे की कड़ी उँगली से चिपी हुई चाँदी की अंगूठी खींच-खाँचकर काफी कष्ट से निकाल लेने की जी-जान से कोशिश की। दोनों परिचरों की निगाह भी उसी चाँदी की अंगूठी पर थी, "छि:! बुढ़िया कितनी लालची है! मरे हुए बेटे की उँगली से..." बुढ़िया को उनकी प्रतिक्रिया की परवाह नहीं है। अन्त में बुढ़िया वह अंगूठी जोर से खींचकर बेटे की उँगली से उतार लायी।
दूसरे के शोक से अभिभूत देखने वाले विस्मय से तटस्थ हैं। उनके मन में संवेदना के बदले एक घृणा भरी भर्त्सना है-"छिः छिः! बड़े नीच लोग हैं...माँ है या पत्थर...।"
परिचर लाश उठा ले गये।
"मेरे मनुआ को कहाँ ले जा रहे हो रे करमजलो, तुम्हें धर्म नहीं सहेगा रे छाती फटे।" बिन बेटे की माँ दहाड़ें मार-मारकर बिलखती हुई उठकर लाश के पीछे-पीछे अस्पताल का फाटक लाँघ रास्ते में कुछ दूर तक दौड़ गयी। विधवा जननी के शोक के स्वर से पेड़-पत्ते, आकाश, पृथ्वी स्तब्ध रह गये। चहुँओर अँधेरा घिर आया। अँधेरे में अब बेटा नहीं दिख रहा था। सिर्फ बेटे की उँगली की चाँदी की अंगूठी बुढ़िया के हाथ की मुट्ठी में चमक रही थी।
बुढ़िया अंगूठी को अति सावधानी से तार-तार हुए पल्लू में सात परत करके गाँठ बाँधते हुए बेटे की वापसी राह की ओर एकटक ताकती खड़ी रही। कितना अन्धकार था!