अंगूठी (नेपाली कहानी) : अच्छा राई 'रसिक'

Angoothi (Nepali Story) : Achha Rai Rasik

शर्राफ नहकुल सिंह अभी दुकान बंद ही कर रहा था कि एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति आकर बोला, “एक सोने की अंगूठी चाहिए। कृपया देखिए, यह अत्यंत ज़रूरी है।"

नहकुल सिंह ने काठ के एक नक्काशीदार छोटे संदूक का जर्मनी अक्षरों वाला ताला खोलकर उसमें से नीली चमकते नग वाली अंगूठी निकालकर कहा, "सोने की अँगूठी सिर्फ यही है, बाकी ये हैं जो कच्चे सोने की हैं।"

उस अधेड़ ग्राहक ने पूछा, "कितने में दोगे ?"

लंबी साँस खींचकर शर्राफ ने कहा, "कितना बताऊँ ! असली बात यह है कि मेरी इस अंगूठी को बेचने की इच्छा कतई नहीं है।"

इतना कहकर वह अंगूठी को हाथ में लेकर देखने लगा।

अधेड़ ग्राहक ने उत्सुकता से पूछा, "क्यों ?"

"ओह! यह एक लम्बी दास्तान है, नितान्त करुण!"शर्राफ ने लालटेन जलाते हुए कहा, "छोड़िए उस वारदात को ! इस अंगूठी का सोना, नग और परिश्रम सब मिलाकर कुल पचासी रुपये बनते हैं, पर मैं तीन सौ रुपयों से कम कीमत पर इसे बेच नहीं सकता-भले ही आप न खरीदें।"

जेब से रूमाल निकालकर शर्राफ नहकुल सिंह आँखें मलने लगा । उसे उस समय एलिथ विल्सन की 'चाँदनी में चेहरा' नामक कहानी याद आ रही थी।

चकित होकर ग्राहक ने पूछा, "बाप रे! पचासी रुपयों की अंगठी की कीमत तीन सौ रुपये?"

"महाशय आपको यदि अंगूठी खरीदनी है तो कहिए। यदि ऐसा है तो मैं वह दास्तान को सुनाकर मन का भार हल्का कर लेता हूँ। नहीं तो फिजूल में भर चुके जख्म को क्यों कुरेदते हो?" अँगूठी वापस संदूक में रखने का सुस्त उपक्रम करते हुए शर्राफ ने कहा।

ग्राहक ने कहा, "ठीक है, पहले अपनी कहानी सुनाइए।"

"परन्तु..."

परन्तु-किन्तु, अगर-मगर का अंदरूनी अर्थ समझकर ग्राहक ने आधिकारिक स्वर में कहा, "आप शंका मत कीजिए। यदि यह अंगूठी इतनी रहस्यमयी और कीमती है तो मैं इसकी तीन सौ रुपये की कीमत चुकाने को तैयार हूँ।" पीढ़े पर बैठते हुए उस व्यक्ति ने शर्राफ से कहा, "चाहे आपकी कहानी सुनते-सुनते आधी रात क्यों न बीत जाए।"

नहकुल शर्राफ की आँखें चमक उठीं। उसने अपने अमीर ग्राहक की ओर देखा-ग्राहक के कीमती वस्त्र और उसके व्यक्तित्व से वह अमीर घराने से ताल्लक रखता दिखाई देता था।

शर्राफ ने अँगूठी को हथेली में नचाते हुए कहा, "प्राण चले जाने के बाद भी कब्र के अन्दर पास रखने योग्य इस अंगूठी को मुझे बेचना नहीं चाहिए था। मैं बेचता भी नहीं लेकिन आज कर्ज़ की लीखें सिर की चुटिया तक फैल जाने की वजह से मैं यह तुच्छ काम करने को विवश हूँ। नहीं तो किसी भी कीमत पर मैं इस अंगूठी को नहीं बेचता-न ही इन बीती बातों को किसी को सुनाता।" रूमाल से आँखें मलते हुए शर्राफ बोला, "हाँ तो, सुनिए।"

अधेड़ ग्राहक दाहिनी कुहनी घुटने पर टिकाकर हथेली से ठुड्डी थामकर अंगूठी की कहानी सुनाने लगा।

बाज़ार के एक निर्जन चौक में आँखें घुमाते हुए शर्राफ नहकुल सिंह ने कहानी शुरू की,"...काफी साल पहले इस दुकान पर पिताजी बैठते थे। मैं उनकी इकलौती संतान हूँ। उस वक्त मैं यही कोई पन्द्रह साल का था, नवीं कक्षा का विद्यार्थी। पर मैं यह सब बातें सुनाकर आपका वक्त बरबाद नहीं करना चाहता, संक्षेप में बताता हूँ। मैं बुद्धिमाया से प्रेम करता था। एक दिन बुद्धिमाया के पन्द्रहवें जन्म-दिन के चिरस्मरणीय अवसर पर मुझे एक पत्र मिला। उसने मुझे हिटी के हवाघर में मिलने को कहा था। मैं खुशी-खुशी वहाँ पहुँचा था। पिताजी को कहे बगैर चोरी-छुपे यह अंगूठी मैं अपने साथ ले गया था, यह बात आप समझ गए होंगे। प्रेम के लिए मैं चोरी भी कर सकता था। गहराती साँझ में मैंने अपनी बाँहों में बुद्धिमाया को लेकर यह अंगूठी उसकी कोमल अनामिका में पहना दी।"

इतना कहकर नहकुल सिंह थोड़ा हिला फिर बोला, "यह याद मुझे आज भी रोमांचित कर देती है। हाँ तो, कितनी देर तक आत्मविस्मृत बनी बुद्धिमाया ने कहा था, 'मरने पर भी इस अंगूठी को अपने से अलग नहीं होने दूंगी।' और उसने पानी हिटी में जलती काले नाग की पूजा की बत्ती की ओर देखते हुए यह कसम खाई थी। उस दिन की याद अण-परमाण में रची-बसी है इस अंगठी में। युवावस्था में ऐसी बातें या वारदातें हो ही जाती हैं ऐसा समझकर मुझे क्षमा करें। एक हफ्ते के बाद पिताजी को अँगूठी गुम हो जाने के बारे में पता चला। मेरे ऊपर शक भी उन्हें हुआ, पर मैं कोई कच्चा चोर नहीं था। आखिरकार मुझे बेकसूर समझ लिया गया।"

शर्राफ नहकुल सिंह की आँखों में एक हल्की मुसकराहट चमक उठी और फिर अचानक गायब हो गई। वह अपनी व्यथा-कथा सनाता गया,"मैं मामा-मामी के पास स्कूल की सर्दियों की छुट्टियाँ बिताने नेपाल चला गया। बुद्धिमाया से दूर। दो महीने वहाँ काटकर वापस घर आया। याद करके फूट-फूटकर रोने की इच्छा होती है.महोदय ! पिताजी और मेरे रिश्तेदारों ने मेरी शादी पक्की कर दी थी, सिर्फ मेरे आने का इंतजार था। मैं नहीं माना, ज़िद की, आगे पढ़ने की बात की। बुद्धिमाया के प्रेम के लिए विरोध किया। कहा, पिताजी की देखी हुई लड़की से कदापि शादी नहीं करूँगा। पर अन्त में उनके वचन से अधमरा-सा होकर मैं हार गया। पिताजी ने सारे घर को सिर पर उठा लिया था। उन्होंने ऊँची आवाज़ में कहा था, 'नहकुल, तेरी शादी की मुझे इतनी जल्दी नहीं थी पर जब तू नेपाल गया था तो एक आदमी के मुँह से बुद्धिमाया नाम की तामांग लड़की से तेरा चक्कर चलने की बात सुनी, इसलिए खानदान की नाक कटने से बचाने के लिए तेरी शादी कर रहा हूँ, समझा?'

"अधमरा होने के बावजूद मैंने गुस्से में पूछा था, 'किसने बताईं आपको ये फिजूल की बातें ?' मेरी तरह ही गुस्से में पिताजी ने कहा, 'इसे देखते हो ?' ओह, महाशय ! साँप की विष-भरी आँखों की तरह यह अँगूठी पिताजी के हाथ में थी।"

यह कहते हुए शर्राफ ने उस अंगूठी को नफ़रत-भरी नज़रों से देखा, दाहिनी हथेली पर रखकर उसे ग्राहक को दिखाकर बोला, "फिर दो-तीन हफ्तों तक मैं उन्हें अपनी शक्ल नहीं दिखा सका। बुद्धिमाया को उसके जन्म-दिन पर दी हुई अँगूठी कैसे पिताजी के हाथ पड़ गई...मैं समझ नहीं सका। मेरी शादी हो गई सुभद्रा के साथ। शादी होने के बाद मुझे मेरी प्राण-प्यारी बुद्धिमाया को मुझसे जबरदस्ती अलग करने वाले दुर्भाग्य बने मेरे पिताजी अब भाग्यदेव की तरह मुझे चाहने लगे। सुभद्रा के व्यवहार से तो अब बुद्धिमाया स्वप्न-सुन्दरी बनकर रह गई, पर यह अंगूठी हकीकत बनकर उसकी अंगुली में पड़ गई, क्योंकि पिताजी ने यह अब सुभद्रा को दे दी थी। मैं भी तो पिताजी की बहू को यह अंगूठी देना चाहता था न, महाशय ! परन्तु बहू बनी सुभद्रा !

" अन्य पतियों की तरह अपनी पत्नी सुभद्रा का विश्वास पाने के लिए मैंने बुद्धिमाया के बारे में सुभद्रा को सारी बातें बता दीं, कुछ नहीं छुपाया। सुभद्रा दुःखी हो गई। वह भी बुद्धिमाया की तरह हाड़-मांस की ही तो बनी थी।

"शादी के बाद भी मैंने पढ़ाई जारी रखी और प्रवेशिका परीक्षा दी भी। अन्तिम परीक्षा देकर मैं सीधा घर पहुँचा। दरवाज़े पर पहुँचते ही साधारण 'गुनिउँ-चोलो' पहने बुद्धिमाया मेरे कमरे से बाहर निकली। दबी मुसकराहट से ओंठ भींचते हुए नमस्कार करके चली गई। मुझे उसके नमस्कार का उत्तर देना तो दूर रहा, हैरान होने का मौका भी नहीं मिला। बाद में एक दिन सुभद्रा ने मुझे बताया कि पिताजी कर्सियांग गए हैं। मौका देखकर उसने बुद्धिमाया को जबरदस्ती बुलाया था। मैंने सुभद्रा की अंगुलियों की ओर देखा, वहाँ अँगूठी नहीं थी। प्यार उमड़ आया। अन्तर्हृदय में छुपा प्रेम द्रवित हो उठा।"

लालटेन की बत्ती को ऊपर करते शर्राफ नहकुल सिंह ने कहानी को आगे बढ़ाया,"मेरी शादी को अभी दो साल भी नहीं हुए थे कि पिताजी चल बसे। परिवार की इस दुकान की जिम्मेदारी मेरे कमजोर कन्धों पर आन पड़ी। एक बात और, मैंने जो परीक्षा दी थी उसमें मैं असफल हो गया जैसे बुद्धिमाया का श्राप लगा हो।

" कुछ समय के बाद सुभद्रा मुझे एक बेटी देकर कुछ घंटों में ही स्वर्ग सिधार गई। कुछ बच्चों के जन्म के साथ सचमुय उनकी माताओं की मृत्यु जुड़ी होती है। मेरी वह बेटी कुमारी आज सोलह साल की हो चुकी है। मैं उसकी सौतेली माँ नहीं लाया-दसरी शादी नहीं की। वह कन्या पाठशाला में दसवीं कक्षा में पढती है। पिछले साल नवीं कक्षा की परीक्षा में वह अव्वल दर्जे में पास हुई तो उसकी टीचर ने अपनी ओर से एक बहुमूल्य तोहफ़ा दिया-यही अँगूठी! बुद्धिमाया टीचर है और अविवाहित है।

"अठारह साल पहले युवावस्था में तोहफे के रूप में दी हुई यह अंगूठी बुद्धिमाया ने मेरी ही बेटी को दे दी। अब अगर इस अंगूठी को मेरी बेटी पहने तो कितना पाप लगेगा न! काले नाग की कसमें कहाँ जाएँगी? मैंने बेटी को कोई दूसरी अंगूठी बनाकर देने और इस अंगूठी को बेच देने का फैसला किया है। वैसे यह बेचने लायक चीज़ नहीं है-लाख रुपये मिलने पर भी। परन्तु दुकान की हालत बिगड़ती चले जाने की वजह से इसे बेचने को मजबूर हूँ। यह बुद्धिमाया के पास फिर से पहुँच जाती तो अच्छा होता। बस, कहानी इतनी ही है, शुक्रिया !"

कहानी के खत्म होते ही ग्राहक ने चार सौ रुपये देकर वह अँगूठी खरीदी और बाज़ार की ओर चल दिया। उसके काफी दूर पहुँचने पर शर्राफ नहकुल सिंह हँसा और बोला, 'मनगढन्त कहानी पर यकीन करने वाला कैसा पट्ट मूर्ख निकला !'

अनुवादक-सुवास दीपक

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