अंधी पीसती है : संतोख सिंह धीर

Andhi Peesti Hai : Santokh Singh Dhir

टाँगों, बाँहों, सिर और कंधों पर भालों-गंडासों के अनगिनत घावों के कारण असह्य पीड़ा और टीस अनुभव करता आठ नम्बर का मरीज, अर्जुन, उठ बैठने की कोशिश में एक बड़ी गाली देकर बुड़बुड़ाने लगा, “यदि मेरे बस में हो तो गोली से उड़ा दूं धर के सबको, सब-के-सब तेल डाल कर फूंकने लायक हैं मेरे साले के।..."

छोटे-बड़े छत्तीस जख्मों से छिदा खोखलवाने का बाँका अर्जुन सवा महीने से चारपाई पर पड़ा था। वह तंग आकर दुःखी हुए दिल से बोल रहा था, फिर भी उसकी गालियाँ सुनकर दूसरे सिरे तक वार्ड में पड़े मरीज़ हँस पड़े। जिनके घाव स्पर्श मात्र से दर्द करते थे और जो हँस नहीं सकते थे, वे भी हँस पड़े।

सब के हँसने से उसके चेहरे से भी पीड़ा के बड़े बल साफ हो गए और उसकी आँखें खिल उठीं। उसी समय सामने के पाँच नम्बर के बेड से इंदरसिंह का भाई उसके मुँह में निवाले डालना छोड़कर, कमज़ोर कुहनियों पर काँपते अर्जुन को देख, झट उसकी तरफ आ गया और उसे बिठाकर, तह की हुई रजाई उसके पीछे रख, पाट उसे पकड़ा दिया।

"एक झूठ नहीं," बड़ी ही धीमी और करुण आवाज़ में, सहारे से पीठ टेके, अर्जुन की ओर देखता इन्दरसिंह बोला। रेल के नीचे आकर उसके दोनों पाँव कट गए थे। सारी-की-सारी रेल उसके ऊपर से गुज़र गई थी। बस उसका भाग्य था कि उसकी जान बच गई, नहीं तो बोटी-बोटी कट जाती। पिछले दो महीने से अस्पताल के पलंग पर बेजार पड़ा वह इस प्रकार के जीवन से तंग आ चुका था। कई बार वह आँसुओं के बिना ही रो लेता-'अच्छा होता मैं मर जाता...अब जीता रहकर क्या करूँगा पैर ही न रहे मेरे जब।'...पचास वर्ष की आयु में उसके पाँव कट गए थे। वह सात पुत्रियों और दो पुत्रों का पिता था। बड़ा लड़का तो बेचारा भगत ही था और दूसरा लड़का जो सबसे छोटा था, उसके जवान होने में अब देर न थी। बड़ी दो लड़कियों की ही शादी हुई थी, बाकी ढेर-सी लड़कियाँ अभी पड़ी थीं कि उसके पाँव कट गए। वह सारा दिन निराश आँखों से वार्ड की दीवारों और छत को देखता रहता। कभी भी किसी से खुलकर नहीं बोलता था। केवल अर्जुन के साथ ही कभी-हूँ-हाँ कर लिया करता था, क्योंकि दोनों के पलंग आमने-सामने थे, दोनों लम्बे दिनों के मरीज़ थे और दोनों को ही अभी और काफी दिन यहाँ रहना था।

“मैंने कहा, भाड़ में झोंकने लायक है सारा अमला, इंदरसिंह।" लाल कंबल में 'पाट' लेकर इंदरसिंह की तरफ देखता अर्जुन कहने लगा, "तिनका तोड़ने का भी कष्ट नहीं करता कोई। और तो और साला भंगी भी कम नहीं, जैसे अफ़लातून का बच्चा हो। हरामी अपने-आपको सिविल सर्जन का बाप समझता है, सुबह से चालीस बार कहा है, भाई मुझे उठाकर पेशाब करा जाओ, लेकिन सुनता ही नहीं।"

“क्या कहता है? यह तो ड्यूटी है उसकी।" छः नम्बर से अखबार आँखों के आगे से हटाकर नये आये सरदार सुखवंतसिंह ने पूछा, जिनका कल कोई छोटा आपरेशन हुआ था, और जो किसी कॉलिज में प्रोफेसर बताए जाते थे अब तक इस सारी बातचीत पर वह अखबार के पीछे धीरे-धीरे मुस्करा रहे थे, पर अब वह भी उसकी बातों में आ शामिल हुए।

"कहना क्या है सरदार जी, बस टालमटोल।" उसने खिली हुई आँखों से देखकर कहा, जिनके कोनों पर कौए के पंजों की तरह झुर्रियों का जाल खिंचा हुआ था, “टेढ़ी टाँग घुमाता, साला इधर-उधर घूमता रहता है, करता कछ नहीं।"
सामने पड़े सरदारजी को हलकी हँसी आ गई। साथ ही दर्द की छोटी-सी लहर उनके चौड़े-चौकोर माथे पर रेखाएँ बिखेर गई।

“सच्ची बात है पर," दस नम्बर के बेड पर सीधा पड़ा पहलवान बोला, जो चार दिन हुए, गाँव की एक लड़ाई में चोटें खाकर आया था, "नीचे वाले भी कटी उँगली पर नोन नहीं डालते, ऊपर वालों की तो कोई बात ही नहीं।" वह कहता गया, क्योंकि अब तक वह भी उसके स्वभाव से परिचित हो चुका था।
"ऊपर वाले तो बल्कि अच्छे हैं," हाजियों-जैसी काली और कतरी हुई दाढ़ी में सहज स्वभाव से खुजलाते हुए अर्जुन ने कहा, “पर भंगी तो बड़ा ही हरामी है।"

गुरबचन भंगी अर्जुन के निकट ही कहीं बाहर बरामदे में सफाई कर रहा था और जालीदार खिड़की में से उसे सब कुछ सुनाई दे रहा था। वैसे तो सभी मरीजों की चिड़-चिड़ करने की आदत होती है और यहाँ सभी नवाब बन बैठते हैं, पर अर्जुन तो कुत्ते की तरह हमेशा भौंकता रहता था। सारे मरीज़ इसी ने बिगाड़ दिए थे। तभी तो साला गाँव के पट्टीदारों से कंधे तुड़वा कर आया है। धीरे से जाली का दरवाजा छोड़ते हुए वह लंगड़ाता जल्दी-जल्दी वार्ड में आ गया और अर्जुन की ओर बढ़ता हुआ कहने लगा, “ओ तू क्या बकता रहता है सारा दिन अर्जन? तुझे कहा नहीं था कि अभी आता हूँ। तू तो एक मिनट में आसमान सिर पर उठा लेता है। आओ, पकड़ाओ 'पाट' फेंक आऊँ। हाँ...बेकार ज़बान चलाता रहता है सारा दिन..." उसने कटी हुई दाढ़ी के ऊपर घुटे सिर को हिलाया, जिस पर से नीचे गर्दन तक पट्टी बँधी हुई थी।

"ओ, अब आये हो न।...आसमान उठा लेता हूँ, दो घंटे हो गए...। मेरी जान निकल रही थी...लो पकड़ो, हाँ।" अर्जुन ने बात को हँसी में ले जाकर बर्तन उसे पकड़ा दिया।
"मैं डॉक्टर से कह दूंगा।...सारा दिन गालियाँ देते हो।..." कृत्रिम क्रोध से बुड़-बुड़ करता, जोर से दरवाजा बंद करता गुरबचन बाहर निकल गया।

“कह दे जिससे कहना है...लगा ले जोर...कलक्टर बना है।" अर्जुन कमजोर और दयनीय था, पर दिन-पर-दिन स्वस्थ होने के हौसले में थोड़ा अकड़कर, झूठी डॉट के साथ इतने ऊँचे स्वर में बोला कि बरामदे से परे, शौचालय की ओर जाता गुरबचन अच्छी तरह सुन सके।

“जो न देखा सो ही भला" इंदरसिंह के बड़े भाई चननसिंह ने उसकी छाती पर कंबल ठीक करते हुए अर्जुन की बात का एक तरह से समर्थन किया और फिर जूठे बर्तन साफ़ करने के लिए वह बाहर चला गया।

बाहर से अर्जुन के लिए खूब कढ़ी चाय बनाकर, लोटे पर लोटा रखे उसकी पत्नी आयी। डोली के पास पाकर वह चाय का लोटा रख रही थी कि एक बड़ी-सी गाली देकर सबसे छिपाकर अर्जुन उसे घूरने लगा, “कहाँ मर गई थी तू री? इतनी देर...हरामजादी कृत्ती है।" ऐसा लगता था कि वह आँखों से ही उसे खा जाएगा।

बंतो को न तो गाली लगी और न घूरना ही। अपना पीला-सा मुंह ऊपर उठाकर आँखों से मंद-मंद मुस्कराती वह कटोरी में चाय उँडेलने लगी-“चाय बनाकर ही तो आती। लड़का बैठा रहा पैरों पर देर तक।” चाय की कटोरी उसके होंठों के पास करती वह धीमे-धीमे बुडबुड़ाई।
"लड़के को दबा देती खड्ड में मेरे साले का।" गरम घुट नीचे करता वह फिर घुड़का, "हाँ...हाँ, मैं पेशाब करने को तंग बैठा रहा.."
बंतो कुछ न बोली। वह अपने पति के टेढ़े स्वभाव से परिचित थी। "सिल्गट निकाल।" अर्जुन ने धौंस के साथ हुक्म दिया।

डिब्बे में से सिग्रेट निकालकर बंतो ने आप उसके होंठों में पकड़ाई और फिर उसे जला दिया। दो-तीन कश खींचने के बाद बंतो ने सिग्रेट अपनी उँगलियों में ले ली। अब थोड़े-थोड़े समय पश्चात बंतो उसके होंठों से सिग्रेट लगा देती और अर्जुन कश खींच कर धुआँ छत की तरफ उड़ा देता। उसकी दोनों बाँहें दुश्मनों ने तोड दी थीं, जिनके ऊपर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। वे अभी किसी ओर हिल नहीं सकती थीं। अपनी तरफ से तो दुश्मन बाँहें काट कर ही गए थे।

अफ़ीम की गोली के ऊपर कढ़ी चाय और उसके ऊपर सिग्रेट, अर्जुन का नशा कुछ खिल गया। एक लम्बा कश खींचकर, सिग्रेट को सिरे तक जलाकर, तसल्ली के साथ धुएँ को सरसरी छोड़ता वह बोला, “लड़का कहाँ है?"
"बरामदे में खेलता छोड़कर आई थी।"
“जाओ, उसे लेकर आओ?" हुक्म हुआ।

छोटे-बड़े कई बर्तन कपड़े में बाँध कर बंतो बाहर चली गई और सफेद, दूध-सी पोशाक में स्प्रिंगदार दरवाजे को धीरे से बंद करती नर्स अन्दर आ गई। माथे पर रौब की हल्की-सी सिकुड़न और कंधों के ऊपर फैल रहा चौड़ा, बगले-सा सफेद स्कार्फ, जिसने आधा सिर और उसका भारी और शानदार जूड़ा ढक लिया था। वार्ड के फ़र्श पर नाज से चलती वह मेज़ की तरफ जाने लगी। एपरन के घेरे के नीचे सफेद मोजों में भरी और गोल पिंडलियाँ हलके-हलके थिरक रही थीं।

सारे वार्ड पर मानो हुस्न की छाया पड़ गई। आस-पास मानो एक लपट-सी उठने लगी। दूसरे सिरे पर छः नम्बर के पास पहुँचकर मेज के ऊपर उसने कागज रखे, फिर वापस एक नम्बर से बारी-बारी टेम्परेचर ले-ले वह चार्ट भरने लगी। चार नम्बर के बेड के पास जब बह आकर खड़ी हुई तो अर्जुन ने मुँह खोल ही दिया. “कोई मच्छरों का बंदोबस्त तो कीजिए बीबीजी। नित कहते हैं आपसे। एक पल को आँख नहीं लगती। सारी रात कानों के पास बीन बजती रहती है। हमें तो फाड़-फाड़ के खा गए मेरे साले के।"

“उफ! ओ ससुरे" धारियों वाले सूट में पड़े सरदार ने जबान काटी, “कमबख्त कितना अशिष्ट है। न अदब, न सलीका।" आँखों के आगे अखबार करता वह दिल में खिसिया गया।

“आज दवा छिड़कती हूँ सारी जगह,” सिकुड़न उसके माथे पर उसी तरह पड़ी रही, "मच्छर यहाँ है ही बहुत।" मुर्ख अर्जुन की गुस्ताखी को नजरअन्दाज करते हुए वह अपने प्रवाह में कहती गई, “दवाई तो मिलती नहीं वार्ड के लिए पूरी, ऊपर से हुक्म देते रहते हैं, मक्खियाँ मारो, मच्छर मारो। दवाइयाँ कोई नहीं देता।" सुना-सुनाकर कहते हुए उसने जरा मुँह बनाया और साथ ही कनखियों से छः नंबर की ओर देखकर ऊँची, पर सुरीली बोली में, आवाजें देने लगी, “जगतसिंह।..बंसीलाल ।..ओ गुरबचन।" उसका अभिप्राय था कि कोई जना अन्दर आ जाए, कोई भी।

जगतसिंह वार्ड का नौकर था, बंसीलाल आपरेशन थिएटर का नौकर था और गुरबचन स्वीपर था, भंगी, जिसकी जिम्मेदारी वार्डो-बरामदों को साफ रखने से लेकर नर्सों -कंपाउंडरों के बच्चे खिलाने, साग-सब्जी लाने, डॉक्टरों और सर्जनों के बूट साफ करने और वार्ड के मरीजों के मल-मूत्र साफ करने तक थी। नर्स की आवाज पर न जगतसिंह बोला, न बंसीलाल चौंका, जहाँ एक के ऊपर दूसरा और दूसरे के ऊपर तीसरा हुक्म करने वाला होता है, वहाँ हर किसी का दिल थोड़ा बहुत अपने आपको हाकिम समझने और प्रदर्शित करने का होता ही है। बंसीलाल समझता था कि जगतसिंह उसके नीचे है। जगतसिंह सोचता था कि नर्सें उसके अधीन हैं। नर्सों के विचार थे कि डाक्टरों को छोड़कर वे हर किसी से काम ले सकती हैं। पर गुरबचन स्वीपर को इस तरह का कोई भ्रम नहीं था। वह अच्छी तरह जानता था कि जितनी भी यह दुनिया है, सारी उससे ऊपर है। और आप वह किसी से भी ऊपर नहीं है और इस बात का बदला वह सबकी अवहेलना करके लेता था। लेकिन इस समय, सुबह-सुबह होने के कारण, प्रीतपाल नर्स की उसने अवहेलना नहीं की और बाईं टाँग से लंगड़ाता वह अन्दर आकर पूछने लगा, "हाँ, क्या हुआ?"

"ओ, जरा जाकर फौरन फ्लिट ले आ, मच्छर मारें। बंसी के पास पड़ी है।"
"बंसी के पास फिल्ट नहीं है" बीच ही में उसने बात काट दी।
"फिर कहाँ है, अगर उसके पास नहीं है? टाल रहे हो?" उसने थर्मामीटर को झटककर, पाँच नम्बर बेड के पास आते हुए सख्त होकर कहा।
"नहीं जी...सौंह गऊ की टालता नहीं, मडीकल वालों के पास गई हुई है...झूठ नहीं कहता।"
बिना आँख नीचे किए उसने ढीठ होकर कहा।
"सर्जीकल वार्ड की चीज़ मेडिकल वाले क्यों ले गए?"
"ले न जाएँ, वे तगड़े हैं। जो तगड़ा होगा ले जाएगा।"
"साला । नाक पर मक्खी नहीं बैठने देता।" अर्जुन उसके मुँह की ओर देखता आखिर हँसने लगा।
"अच्छा राउंड हो चुका है या नहीं?" नर्स बेचारी ने बात का रुख मोड़कर अपनी प्रतिष्ठा बचाते हुए पूछा। क्या पता, यह उल्लू का चर्खा ऐसे ही कोई गुस्ताखी कर बैठे। उसे तो छः नम्बर पर पड़े पेशेंट का लिहाज मारे जाता था।
“राउंड?" वह थोड़ा चौंका और फिर मुँह खोलकर खड़ा रहा। उसे याद ही नहीं था कि आज राउंड हो चुका है या नहीं। तभी बड़ी ही प्यारी और सत्कार-भरी आवाज आई, "नहीं सिस्टर, अभी तक नहीं आये राउंड करने डॉक्टर साहब।” छः नम्बर के बेड से अखबार को हटाकर स्वच्छ आँखें उसकी तरफ देखने लगीं।
“जी!" एकदम चौड़े और सुन्दर माथे पर से झूठे रौब की बनी सिकुड़नें साफ हो गयीं और उसके स्थान पर कानों तक सच्चा हुस्न दौड़ गया, "हाँ-हाँ" उसने एक अदा से घड़ी देखी और प्रकटतः अपने आपको, पर भीतर से किसी और को सुनाने के लिए, जरा मुँह बनाकर बोली, “अभी तक राउंड नहीं हुआ आज? सवा दस तो हो चले हैं।"

दरवाजे का स्प्रिंग चीखा। बगल में लड़का सँभाले, मैले-कुचैले कपड़ों वाली बंतो आ रही थी। नर्स यद्यपि जानती थी कि यह अर्जुन की पत्नी है सबके उस्ताद की "फिर भी उसने निर्लिप्त भाव से, कड़ी होकर कहा, "बीबी, बाहर रहो, बार-बार दरवाजा न खोलो, गंदगी आ रही है, मक्खियाँ आ रही हैं," दिल में उसे खयाल था कि क्या कहेंगे देखने वाले कि यही उसका प्रबंध है?
पर बंतो बिना उसकी ओर ध्यान दिये अन्दर चली गई। वह जानती थी कि यहाँ तो बर्राते ऊँट ही लदते हैं।
सब चार्ट भरकर नर्स मेज के निकट कुरसी पर बैठ गई। और टोकरी में से स्वेटर निकालकर घुरे डालने लगी, खाली बैठा क्या आदमी मक्खियाँ मारे जाए?

दरवाजा फिर चीख पड़ा। प्रोफेसर साहब का कोई दोस्त फलों का लिफाफा पकड़े आ रहा था। शांति से सलाइयाँ घरे डालती गई।
दरवाजा फिर चीख पड़ा और बार-बार चौखट पर ठक-ठक बजने लगा। कितने से लोगों का समूह अन्दर घुसा आ रहा था।
“भाई, अंदर मत आओ। आना ही है तो एक बार ही नहीं, बारी-बारी आओ, एक-एक कर आओ। समझ भी जाया करो।" तेज़ हाकिमाना आवाज़ में वह बोली।
किंतु समझ किसे थी? गाँवों के साधारण लोग कभी-कभी ही तो ऐसी जगहों पर आते हैं। भीड़-भाड़ में ही वे अपने-अपने आदमियों के पलंगों के पास खड़े हो गए।'
"कुछ नहीं, भाई, आराम आ जाएगा,"
"दुःख आते हैं घोड़े की चाल, जाते हैं चींटी की चाल" आने वाले मरीजों का हौसला बढ़ाते थे।

दरवाजे की ओर दृष्टि करके एकदम अर्जुन कहने लगा, "लड़का सँभाल लो मेरे पेट से...एक फूंक लगवाकर सिल्गट बुझा दो झट से।" उसने पास खड़ी बंतो को संकेत किया, सामने धीरे-धीरे, बगल में गठरी दबाए उसकी सास चली आ रही थी।

नाती को प्यार देकर गोद में लेती बुढ़िया काँपते मुर्झाए हाथों से दामाद का सर सहलाने लगी, “क्या हाल है, मल्ल, अब तुम्हारी चोटों का?"
माथा झुकाकर प्रणाम करता अर्जुन बोला, “अब तो अच्छा हूँ पहले से, बेबे।...अब तो मैं बच गया समझ, अब मैं नहीं मरता।"
"शुक्र है पुत्तर।" बुढ़िया ने पाटी छूकर माथा नवाया। “वाहगुरु तुझे उमर दे, कुछ लिया-दिया आ गया सामने, नहीं बाकी कुछ न छोड़ा था हरामियों ने।"
"कोई नहीं, बेबे, तू कुछ फिक्र न कर, जरा हड्डियों में जोर आने दे...देखना एक-एक को काट के छोडूंगा।" ।
"वे काहे पुत्तर? जो कोई करेगा, आप ही भरेगा। अब तू बैर न करना।"
"ना, बेबे, बदला तो मैं जरूर लूँगा और सीना ठोंक कर लूँगा।"
बुढ़िया चुप करके देखती रही, आगे कुछ न बोली। अर्जुन की उलटी मति से उसका कलेजा दहल रहा था।
रुककर अर्जुन फिर बोला, “और तो मुझे किसी पर ज़्यादा गुस्सा नहीं, पर सर्वण को नहीं छोड़ूँगा। उसने भाई बनके दगा दिया। आना था तो ललकार के आता। मैं तो उस समय नशे में धुत आ रहा था।"

बुढ़िया ने एक आह भरी और फटी हुई नज़र सारे कमरे में दौड़ाने लगी, “हे वाहगुरु।" उसके मुँह से निकल गया। कितने बड़े-बड़े जवान अस्पताल के पलंगों पर लाल कम्बल ओढ़े गर्दनें गिराए पड़े थे। “दुखों का अंत नहीं।" उसने दर्द-भरे स्वर में कहा और एक क्षण के लिए उसे लगा कि सारी दुनिया बीमार पड़ी हुई है। फिर उसकी दृष्टि घूमकर नर्स पर आ रुकी। रूप और जवानी, ऊपर से सुंदर-सफेद कपड़े देखकर वह हक्की-बक्की रह गई। "लैकुड़े...यह भी तो किसी की लड़की है...हाँ भाई, क्या पार है दुनिया का।" उसने नर्स और अपनी लड़की के बीच पूरी एक दुनिया का अंतर जानकर दिल में कहा।

अब तो बहुत हो चूका था, इससे अधिक और हो भी क्या सकता था ? डॉक्टर अभी आ जाएँ तो कोई कुछ नहीं कहेगा, जिम्मेदारी तो उसी की है सारी। और नर्स ने अब पूरी तरह कठोर होकर ऊँचे स्वर में कहा, "भाई, एकदम वार्ड खाली कर दो सब। कोई न रहे अन्दर, फौरन बाहर हो जाओ। डॉक्टर आने वाले हैं।" हल्की-सी सिकुड़न फिर उसके माथे पर आ गई।

सब धीरे-धीरे खिसकने लगे। प्रोफेसर का दोस्त चप्पलें पटकता सीटी बजाने लगा। अर्जुन की सास गठरी में से सिवईं और आटा खोलती अपनी बेटी के साथ बाहर चली गई।

“आज डॉक्टर लेट है शायद,” कलाई को देखकर नर्स ने कहा, "कौन-सा खास वक्त तय होता है उनका।" वह अपने ही आप लेकिन जैसे किसी को सुनाकर बोली।

बाहर बरामदे में, परे, बूटों की खट्-खट् हुई। जानी-पहचानी पद-चाप थी। डॉक्टर आ गए हैं शायद...सलाइयों के ऊपर स्वेटर लपेट, टोकरी में फेंकती वह कुरसी से उठ खड़ी हुई । जगतसिंह दौड़कर फ्लाई-किलर हाथ में पकड़े जल्दी-जल्दी वार्ड में मक्खियाँ मारने लगा। बंसीलाल बरामदे में तेज-तेज घूमने लगा और वही गुरबचन फ्लिट लेकर वार्ड की दीवारों पर डी.डी.टी. के फव्वारे छोड़ने लगा।
अर्जुन मुस्करा पड़ा, “सौ मारे जो जोर से मेरे सालों को, गिने एक ना, अब आना है ना बाप ने।" धीरे से होंठों में वह बुड़बुड़ाया।

झट दरवाजा खोलकर स्टैथस्कोप गलों में डाले प्रफुल्ल-प्रसन्न चेहरों वाले डॉक्टर अन्दर आ गए। सिविल सर्जन, साथ में डॉक्टर कुँवरसेन और सर्जन इंद्रजीत। हाथ जोड़कर सलाम करता सारा अमला पीछे हो लिया। शहद-सी मीठी बोली में हाल-चाल पूछते वे बारी-बारी मरीजों के पास खड़े होते जाते थे, "कोई तकलीफ तो नहीं? कोई तकलीफ हो तो बताएँ?" वे हर किसी से पूछते।

"नहीं जी, कोई तकलीफ नहीं," अर्जुन ने उत्तर दिया था, पर उसी समय दिल में यह भी कह रहा था कि तकलीफें तो बहुत हैं, डॉक्टर साहब, पर आपको बताकर भी क्या कर लेंगे? काम तो फिर तुम्हारे इसी अमले से पड़ना है।

राउंड खत्म होने लगा। डॉक्टरों को एकाध सलाह सिविल सर्जन ने दी। दरवाजे के सामने पहुंचकर अपने अफसर के सामने डॉक्टर ने अमले को थोड़ा-सा कसा और फिर सब चले गये।
जगतसिंह ने आँख मारी, बंसीलाल खाँसा, नर्स ने कुछ मुँह बनाया, गुरबचन हँस पड़ा और फिर समझो, चारों तरफ अपना राज हो गया।
दरवाजा फिर बजा, “बर्तन लाओ, भाई दूध वाले!" बाल्टी और डिब्बा पकड़े काका बावर्ची ने आवाज दी।
“ओ, धीरे-धीरे दरवाजा छोड़कर, काकासिंह, कितनी बार कहा है तुझे।" तेवर डालकर नर्स बोली।
"अच्छा-अच्छा आगे ख्याल रखूँगा।" काका ने उत्तर दिया। प्रोफेसर ने नाक सिकोड़ा, “कैसे बदतमीज हैं ये?"
"मैंने आप से कहा नहीं सरदारजी?" सामने बैठा अर्जुन हँसा।
डोली में से मरीज बर्तन निकालने लगे। जब अर्जुन के बर्तन में दूध पड़ने लगा तो उसने डाँटा, “बड़ी जल्दी आ गए? यह दूध पीने का वक्त है?
ग्यारह बजे? घंटे में रोटी लेकर आ खड़े होगे।"
"क्या करें? ठेकेदार जब दूध लाये तभी तो मैं लाऊँ। मैं क्या अपना सिर फोड़ूँ?" लड़ने की तरह बावर्ची बोला।
"अगर तुम्हारे दूध पर रहें तो हो गये ठीक।"
“अच्छा-अच्छा, अब ले लो। और न लेना हो तो न लो।" लोटे में दूध डालता काका बावर्ची कहता गया।
स्प्रिंग वाले किवाड़ एक पल को कब्जों पर रुक गए। ड्रेसिंग करने वाली पेशेंट ट्राली अंदर आ रही थी।
“पट्टियाँ कराने वाले, हो जाओ भाई, तैयार।" ट्राली के पीछे से पतले और मेंढक जैसे रंगवाले करमसिंह कम्पाउंडर ने लम्बी आवाज़ लगाई।
“आ गया यह कसाई।" अर्जुन थोड़ा बुड़बुड़ाया। करमसिंह कम्पाउंडर उसे बहुत बुरा लगता था। वह इतना बेरहम था कि सीधे सुआ हड्डी में घुसेड़ देता। पट्टी करता चुभा-चुभाकर। और भी कई कम्पाउंडर थे, पर पता नहीं वह क्यों ऐसा था।
इंदरसिंह के पलंग के पास ट्राली आकर रुक गई। आज उसकी पट्टी थी।
“क्या हाल है इन्दरसिंह?" इंदरसिंह की टाँगों के कटे हए ठूँट्ठों पर से जल्दीजल्दी पट्टी खोलते हुए करमसिंह ने ऊँचे स्वर में कहा।
“अच्छा है," वह होंठों में से कहने ही लगा था कि जख्म पर से रुई उखड़ने से उसकी 'सी' निकल गई।
"तू ऐसे सी-सी न किया कर, इंदरसिंह। रहने दे अब नखरे को।...अब तो तू अच्छा-भला है।" रूखे और खुरदरे लहजे में करमसिंह ने ऊँची आवाज़ में फटकारा।
इंदरसिंह नाक सिकोड़कर, पीला चेहरा गिराए पड़ा रहा।
गंदा मांस काटने के बाद, ज़ख्मों पर फाहे रखकर करमसिंह कहने लगा, "ले, भाई जगतसिंह, अब बाँध दे पट्टियाँ।"
“बाँध दे अब तू ही, यानी।" जगतसिंह ने उत्तर दिया।
"क्यों? मैं क्यों बाँधूँ भला? ड्यूटी मेरी है या तेरी? मेरा काम तो सरदार जी, सिर्फ दवाई लगाना है। पट्टियाँ बाँधना तुम्हारा काम है।"
“वाह, सरदारजी ! कौन कहता है कि मेरा काम है?" जगतसिंह ने ऊँचे स्वर में कहा।
"मैं कहता हूँ, भाई, तेरा ही काम है जिस से मर्जी पूछ ले।"
"अच्छा तो फिर मैं पूछ के ही बाँधूंगा, हाँ। अपना काम तू कर...अपना काम मैं करूँ।" वह बुड़बुड़ाया।
इंदरसिंह बेचारा चुपचाप पड़ा सुने जा रहा था। 'क्या बकवास है यह..." प्रोफेसर ने दिल में कहा।

शर्म से प्रीतपाल का मुँह लाल हो गया। क्या कहेंगे देखने वाले।...कुर्सी से उठ कर वह आगे बढ़ती कहने लगी, "भाई, आप ऐसे ही झगड़ते रहें। लाओ, मैं बाँध देती हूँ पट्टी, मेरी ड्यूटी समझ लीजिए।" कहते हुए वह कलियों की तरह हँस पड़ी और इंदरसिंह के जख्मों के ऊपर दया-भरे दिल के साथ उसके हाथ झुक गये।
साढ़े बारह हो चुके थे। पहली पाली समाप्त थी।
"रोटियाँ लो, भई रोटियों वाले।” पशुओं को हाँकने की तरह, कंधे से टोकरी टाँगे काका बावर्ची आकर बोला।

दरवाजे की ओर गर्दन नीचे किए भीतर-ही-भीतर वह संकुचित हो रही थी। उसे लगता था कि ड्यूटी वाला यह वार्ड जैसे उसका अपना घर हो, और घर के अंदर कोई मेहमान पड़ा हुआ है और मेहमान के ही सामने जाने क्या कुछ हुआ जा रहा है।
कैदियों फकीरों की तरह रोटियाँ पकड़ा कर काका बावर्वी चला गया। अर्जुन बोला, "क्यों सरदारजी, झूठ है कोई मेरी बात?"
धीमे से प्रोफेसर हँसा।

दूसरी पाली शुरू हुई थी। लगभग चार बजे आकर करमसिंह कम्पाउंडर बोला, "तैयार हो जाओ, भई पेन्सलीन वाले।" लम्बी सुई उसके हाथ में थी। नौ नम्बर के बेड के पास खड़े होते उसने ऊँची आवाज़ में कहा, “लाओ भई, टीका दीपे का।"

हड़बड़ाकर नौ, नम्बर के पलंग से एक बुड्ढा उठा, जिस पर लगभग आठ वर्ष का एक लड़का माथे पर पट्टी बाँधे करवट से पड़ा हआ था. "है जो"...उसने घबराकर कहा। दीपा उसका पोता था, जिसे कुत्ते ने काट खाया था और गोदी में उठाकर उसको वह अस्पताल ले आया था।

जब वह कुछ न समझा तो करमसिंह और ऊँची आवाज़ में बोला, “ओए, पेंसलीन लगेगी इसको। अकेली पट्टी ने कुछ नहीं करना। टीका नहीं मँगवाया अभी? अच्छी-भली पर्ची दी है, लेकर आओ बाज़ार से अभी, जो जल्दी आराम चाहते हो, और इसे जगा दो।" कहते हुए वह आगे बढ़ गया।
क्षण-भर बुढा देहाती चुपचाप बैठा रहा। वह सोच रहा था, जहाँ महल जैसा अस्पताल है, वहाँ दवाइयाँ भी तो होंगी ही। फिर वह कंधे पर कपड़ा रख कर जूता टटोलने लगा।
"लेट जाओ अब, जवान।' सुई में से बारीक-सी धार हवा में मारते हुए सात नम्बर से करमसिंह बोला।
हाय! ओ मार दिया।" एकदम चिहँककर आदमी चीख उठा।
"रहने दो। हाय क्या करते हो? क्या यह कोई भाला है? लो पकड़ो, बस इतना ही काम था।” सुई निकालकर करमसिंह जल्दी-जल्दी फाहा मलने लगा।
"बाँह चढ़ाइए ऊपर, सरदारजी।" ऊँचे स्वर में कहते हुए करमसिंह ने प्रोफेसर की ओर सुई की।
इसी तरह कई लोगों को सुई लगा कर वह चलता बना।
"पता नहीं, ये लोग हमें बहरा क्यों समझते हैं? जो भी बोलता है, ऊँचे स्वर में ही बोलता है," धीरे से प्रोफेसर ने कहा।
"मैंने आपको कह दिया था सरदारजी। मैं तो सौ की एक जानता हूँ, गंडासा ले पकड़ और गाजरों की तरह कचर-कचर बस एक तरफ से काटता चला जाए। ऐसे ले खबर इनकी और कुछ न कहे मेरे सालों को।”
दूर तक हँसी की एक लहर गूंजने लगी। दस नम्बर से पहलवान बोला, “ओ अर्जना।"
"ओए हाँ।" उसने उत्तर दिया।
“ओए, अभी तेरा पेट नहीं भरा गंडासे चलाकर?" उसने मजाक करते हुए कहा। उसे पता लग गया था कि उसकी तरह ही अर्जुन भी गाँव से मार खाकर आया है।

“ओए, हम क्या समझते हैं इन बातों को, पहलवान । इधर पड़ी उधर भूल गए। इतनी-सी मार तो हमारी खायी-पी रोटी है। देखिये, सरदारजी। मील-भर होऊँगा गाँव से बाहर, जब मारा मुझे और चलकर आप ही मैं अपने घर आ गया-चाहे गिरता-पड़ता ही आया, तुम्हारी तरह नहीं कि चार आदमी खटिया उठाकर लिये आ रहे हैं माँ के पहलवान को।"
पहलवान हँस पड़ा, कई और भी हँस पड़े और इंदरसिंह भी मुस्करा पड़ा।

एकदम जगतसिंह दरवाजे की ओर भागा-भागा आया और झट जाली के किवाड़ कब्जों पर चीखते रुक गये।...कहीं, किसी गाँव में गोली चल गई थी और खून से भीगे कपड़ों के साथ स्ट्रेचर पर जख्मी आ रहा था। सारा अमला, डॉक्टर और पुलिस वाले साथ थे।
पल-भर के लिए सारे वार्ड में सन्नाटा छा गया। केस गंभीर था।
तीन नम्बर के बेड पर नया मरीज डाला गया। यह बेड आज ही खाली हुआ था। डॉक्टर के पाँव छूकर उसका एक संबंधी गिड़गिड़ाते हुए बोला,
"डॉक्टरजी"
"बिल्कुल बेफिकर रहो। मैं जिम्मेदार हूँ। अब इसे बच गया समझो। छरे निकल गए हैं, जख्म सी दिये हैं। ऐसे ही क्लोरोफार्म की बेहोशी है, फिक्र की कोई बात नहीं?...हाँ।...समझे?"
चुप्पी अभी तक वैसी ही थी।
"अच्छा, भाई, अब सारे हटो।...कोई इसे न बुलाये।" कंधे हिलाकार डॉक्टर ने संबंधियों से कहा और आप भी वहाँ से चला गया।

अर्द्ध चैत्र की गहरी खामोशी चारों तरफ सोने लगी तो नये आये मरीज के जख्मों में दर्द जागने लगा। क्लोरोफार्म की बेहोशी धीरे-धीरे दूर हो चली थी। एक-दो रातें उसकी हालत विशेष ध्यान की माँग करती थीं। उसके लिए डॉक्टर एक बार फिर वार्ड में आया था।
नौ-साढ़े नौ हो चुके थे, पर नींद किसी को नहीं आ रही थी। नींद आज किसी को आती भी कैसे? तीन नम्बर के ऊँचे-ऊँचे डकराने की आवाजें सारे वार्ड में सुनाई दे रही थीं।

बाहर घास पर चौकड़ी इकट्ठी हो गई। जगतसिंह अटेंडेंट, बंसीलाल आपरेशनवाला, करमसिंह कम्पाउंडर, काका बावर्ची और गुरबचन स्वीपर, सारी सीमाएँ तोड़-ताड़कर खुली रात में आ बैठे थे। उनमें से कई की आज नाइट-ड्यूटी लगी हुई थी। सारी बातें छोड़कर जगतसिंह ने मतलब की कही,
"क्यों भाई बाबू करमसिंह, तनख्वाह आई कि नहीं अभी?"
"अभी कहाँ आई तनख्वाह?" करमसिंह ने मुँह लटकाया।
बंसीलाल बोला, “देख लीजिए अंधेर...जनवरी की अभी तक नहीं आई, आज मार्च की इक्कीस जा रही है। इसे कहते हैं अंधेर-गर्दी ।...अंधे की कलम में ताकत नहीं मालूम होती।" उसने सिविल सर्जन को कहा, जिसकी ऐनक पर बहुत मोटे शीशे थे।
“अभी कई इक्कीस गुजरेंगी, बेटा। यह कांग्रेस का राज है, तू चिंता क्यों करता है? तेल देख, तेल की धार देख।" लेखराम ने हँस कर कहा।
"सिविल सर्जन का क्या है, भाई एक हजार डकारता है। वह तो बैंक में से निकाल-निकालकर खाता जाएगा। मुश्किल तो हम गरीबों के लिए है-साठ-साठ वालों के लिए।" काका बावर्ची बोला।
फिर एक कहकहा उठा।

एक पल बाद काका बोला, “हाँ, आज वाला वह मरीज कहाँ से आया है, जिसकी गोली निकाली गई है जाँघ में से?"
झट करमसिंह उठ खड़ा हुआ, "लो भाई, मैं काम भूल गया एक" और अगले क्षण वह जा चुका था।
वार्ड में सब ठीक-ठाक था। कराहने की आवाजें धीमी होते-होते अब दब गयी थीं। साढ़े दस से ऊपर का समय था। तीन नम्बर के पलंग के पास जाकर करमसिंह ने ऊँचे स्वर में कहा, "उठ, भाई ओ नाहरसिंह।" स्लीपिंग डोज उसके हाथ में थी।
कई मरीजों की शांति भंग हो गई। पर नाहरसिंह गहरी नींद सोया रहा। अब जाकर उसे नींद आई थी। नींद का झोंका आखिर सूली पर भी आ ही जाता है।
"वह तो बेचारा आराम से पड़ा है" आधे सोये-से अर्जुन ने कहा।
"नहीं जी, दवाई तो देनी ही है, कौन खाएगा यह कल को?" कहते हुए नाहरसिंह का कंधा हिलाकर करमसिंह और जोर से बोला, "उठ भाई ओ! सुनता नहीं?
हड़बड़ाकर जख्मी जागा और तीव्र पीड़ा से फड़फड़ाने लगा, “हो-हो-हो"।"
"ले पकड़, दवाई पी।" करमसिंह ने हाथ बढ़ाया।
"ओए-ओए।...ना-ना नींद खराब होती है।"
“ले पकड़, पी ले, पी ले, नींद की ही दवाई है यह।" जबरदस्ती करमसिंह ने गिलास उसके मुँह से लगा दिया और नाहर ने आँखें मींच कर नींद आने की दवाई पी ली।
“वाह, भाई, वाह! यह भी खूब है।" करमसिंह के चले जाने पर प्रोफेसर के मुँह से निकला, "नींद से जगाकर नींद की दवाई देना हमारे देश में ही होता है।"

"मैं कहता नहीं था, सरदारजी?" फटी-सी आवाज़ में अर्जुन बोला, “यही तो मैं चिल्लाता रहता हूँ। बस, एक बात मेरे बस में नहीं है, यदि मेरे बस में हो..." और आगे अर्जुन वही कुछ कहने लगा जो वह बराबर कहता रहता था।
धीरे से सरदारजी ने टोका, “नहीं, अर्जना, सभी ऐसे नहीं होते हैं।"
"मैंने कहा, आप मान जाइए, सरदारजी, आपको पता नहीं।"
"नहीं अर्जना, नहीं।"
“लो आप मानते नहीं, पर मैं तो सौ की एक जानता हूँ...झूठ हो तो पकड़ लीजिए।...बस एक तरफ से गंडासा फिरने वाला है।"
अपने-अपने पलंगों पर कई मरीज हँस पड़े।

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