अँधेरे में उजाला (बांग्ला कहानी) : शरतचंद्र चट्टोपाध्याय

Andhere Mein Ujala (Bangla Story in Hindi) : Sarat Chandra Chattopadhyay

1.
बहुत दिनों की बात है। सत्येंद्र चौधरी जमींदार का लड़का बी.ए. पास करके घर लौटा, तो उसकी माँ बोली, 'लड़की साक्षात् लक्ष्मी है। बेटा, बात सुन, एक बार देख आ!'
सत्येंद्र ने सिर हिलाकर कहा, 'नहीं माँ, अभी मुझसे किसी तरह न होगा। इससे मैं पास न हो सकूँगा।'
'क्यों नहीं हो सकेगा? बहू रहेगी मेरे पास, तू पढ़ेगा-लिखेगा कलकत्ता में, पास होने में तुझे क्या बाधा होगी, मैं तो सोच ही नहीं पाती, सतू!'
'नहीं माँ, बहुत सुविधाजनक नहीं होगा, अभी मेरे पास समय नहीं है, ' इत्यादि कहता-कहता सत्य बाहर जाने लगा।
माँ बोली, 'जा मत, ठहर; और भी बात है।' थोड़ी रुककर बोली, 'मैंने वचन दिया है बेटा, मेरा मान नहीं रखेगा?'

सत्य लौटकर खड़ा हो, असंतुष्ट होकर बोला, 'बिना पूछे वचन क्यों दे दिया?' लड़के की बात सुनकर माँ के हृदय को दुःख हुआ; बोली, 'वह मुझसे अपराध हो गया, परंतु मुझे तो माँ की बात रखनी ही होगी! इसके अतिरिक्त विधवा की लड़की बड़ी दु:खी है, बात सुन सत्य, राजी हो जा!' 'अच्छा, फिर बताऊँगा।' कहकर वह बाहर चला गया।

माँ बहुत देर चुपचाप खड़ी सोचती रहीं, यह उनकी एकमात्र संतान है। सात-आठ वर्ष हुए, पति का स्वर्गवास हो गया तब से विधवा स्वयं ही नायब-गुमाश्ताओं की सहायता से बड़ी जमींदारी का शासन करती आ रही हैं। लड़का कलकत्ता रहकर कॉलेज में पढ़ता है, जमींदारी-गृहस्थी का कोई समाचार भी उसे नहीं रोक पाता। माता ने मन-ही-मन सोच रखा था, लड़के के वकालत पास कर लेने पर उसका विवाह करेगी एवं पुत्र और पुत्रवधू के हाथ में जमींदारी-गृहस्थी का संपूर्ण भार देकर निश्चिंत हो जाएगी। इससे पूर्व लड़के को गृहस्थ बनाकर वे उसकी उच्च शिक्षा में बाधा नहीं बनेंगी; परंतु बात कुछ और ही बदल गई। पति की मृत्यु के पश्चात् इस घर में इतने दिनों तक कोई काज-कर्म नहीं हुआ! उस दिन किसी एक व्रत के उपलक्ष में सारे गाँव को न्यौता दे दिया। स्वर्गवासी अतुल मुखर्जी की दरिद्र विधवा ग्यारह वर्ष की लड़की को लेकर निमंत्रण रखने आई थी। वह लड़की उन्हें बहुत पसंद आई। केवल यह लड़की अत्यंत सुंदरी हो, सो ही नहीं, इतनी सी उम्र में ही लड़की अशेष गुणवती है-यह भी उन्होंने दो-चार बातें करके ही समझ लिया था।

माँ मन-ही-मन बोली, 'अच्छा, पहले तो लड़की दिखाऊँगी; तब फिर कैसे पसंद नहीं होगी, देखा जाएगा!'
दूसरे दिन दोपहर का समय, सत्य भोजन करने के लिए माता के कमरे में घुसते ही स्तब्ध खड़ा रह गया। उसके खाने की जगह के ठीक सामने आसन बिछाकर माँ ने बैकुंठ की 'लक्ष्मीदेवी' को हीरा-मुक्ताओं से सजाकर बैठा रखा था।
माँ घर में घुसते ही बोली, 'खाने के लिए बैठ!'
सत्येंद्र जैसे सोते से जगा। वह हड़बड़ाता हुआ बोला, 'यहाँ क्यों और कहीं मुझे खाने को परोस दो।'
माँ मंद-मंद मुसकराती हुई बोली, 'तू सचमुच ही विवाह करने तो जा नहीं रहा है। इस छोटी सी लड़की के सामने तुझे लज्जा क्यों आती है?'
'मैं किसी से लज्जा नहीं करता,' कहकर सत्य पेंच जैसा मुँह बनाकर सामने बिछे आसन पर बैठ गया। माँ चली गई। दो मिनट के भीतर ही वह भोजन-सामग्री को थोड़ा-बहुत मुँह में डालकर उठ गया।

बाहर वाले कमरे में घुसते हुए देखा, मित्र लोग आ जुटे हैं और चौसर-छक्के डाले जा रहे हैं। उसने पहले से ही दृढ आपत्ति प्रकट करते हुए कहा, 'मैं किसी तरह नहीं बैठ सकूँगा, मेरा सिर भारी हो रहा है!' कहकर कमरे के एक कोने में सरक, तकिये पर माथा रखकर, आँखें बंद करके सो गया। मित्रों को मन-ही-मन कुछ आश्चर्य हुआ, एवं खेलनेवालों की कमी होने के कारण चौसर उठाकर शतरंज बिछा ली। शाम तक बहुत हार-जीत हुई, परंतु सत्य एक बार भी नहीं उठा, एक बार भी नहीं पूछा, कौन हारा, कौन जीता! आज यह सब उसे अच्छा ही नहीं लग रहा था।
मित्रों के चले जाने पर, वह मकान के अंदर पहुँचकर सीधा अपने ही कमरे को जा रहा था। रसोईघर के बरामदे में से माँ ने पूछा, 'इस समय सोने जा रहा है रे?'
'सोने नहीं, पढ़ने जा रहा हूँ। एम.ए. की पढ़ाई सरल नहीं है न! समय नष्ट करने से कैसे चलेगा?' कहकर वह गूढ़ संकेत कर धम्-धम् करता हुआ ऊपर चढ़ गया।

आधा घंटा बीत गया, उसने एक पंक्ति भी नहीं पढ़ी। टेबल के ऊपर पुस्तक खुली पड़ी थी; कुर्सी को हिलाता हुआ, ऊपर की ओर मुँह किए वह छत की कड़ियों को गिन रहा था; तभी अचानक ध्यान-भंग हो गया! उसने कान खड़े करते हुए सुना-'झम्!' फिर थोड़ी देर बाद-'झम-झम!' सत्य ने सीधे उठकर बैठते हुए देखा, वही सिर से पाँव तक गहने पहने हुए लक्ष्मीदेवी-जैसी लड़की धीरे-धीरे पास आकर खड़ी हो गई। सत्य टकटकी लगाए देखता रहा।

लड़की ने कोमल कंठ में कहा, 'माँ ने आपकी राय पूछी है।'...
सत्य ने क्षणभर मौन रहकर प्रश्न किया, किसकी माँ?'
लड़की ने कहा, 'मेरी माँ!' सत्य उसी समय प्रत्युत्तर नहीं ढूँढ़ सका, क्षण भर बाद बोला, 'मेरी माँ से पूछते ही पता चल जाएगा।'
लड़की लौटी जा रही थी, सत्य ने अचानक प्रश्न कर डाला, 'तुम्हारा नाम क्या है?'
'मेरा नाम राधारानी है।' कहकर वह चली गई।

2.
किसी प्रकार राधारानी जबरदस्त ध्यान भुलाकर, सत्य एम.ए. पास करने के लिए कलकत्ता चला आया है। विश्वविद्यालय की समस्त परीक्षाओं में उत्तीर्ण न होने तक किसी भी प्रकार नहीं, बहुत संभव है बाद में भी नहीं, वह विवाह ही नहीं करेगा! कारण, गृहस्थी में पड़ जाने से मनुष्य का आत्मसंभ्रम नष्ट हो जाता है, इत्यादि-इत्यादि। तो भी रह-रहकर उसका संपूर्ण मन जैसे न जाने कैसा हो उठता है, कहीं भी कोई नारी-मूर्ति देखते ही, एक अन्य छोटा सा मुख उसके पास ही प्रकट होकर, उसको ढंकता हुआ अकेला विराजमान हो उठता है, सत्य किसी भी प्रकार उस लक्ष्मी-प्रतिमा को भूल नहीं पाता। सदैव से ही वह नारी के प्रति उदासीन रहा है; अचानक यह उसे क्या हो गया है कि राह-घाट में कहीं भी, एक विशेष उम्र की किसी लड़की को देखते ही उसे अच्छी तरह देखने की इच्छा हो उठती है, हजार चेष्टाएँ करने पर भी वह जैसे किसी प्रकार आँखें नहीं हटा पाता। देखते-देखते अचानक शायद अत्यंत लज्जित होकर, संपूर्ण शरीर बार-बार सिहर उठता है और वह उसी समय किसी भी एक रास्ते को पकड़कर शीघ्रतापूर्वक खिसक जाता है।

सत्य को तैरकर स्नान करना बहुत अच्छा लगता था। उसके चोर-बागान के निवास से गंगा नदी दूर नहीं है, प्रायः ही वह जगन्नाथ घाट पर स्नान करने के लिए आता।

आज पूर्णिमा है। घाट पर खूब भीड़ हो गई है। गंगा-तट पर आकर वह जिस उड़िया ब्राह्मण को सूखे कपड़ों की जिम्मेदारी सौंपकर पानी में घुसता है, उसी की ओर चले आते हुए, एक जगह बाधा पाकर रुककर -देखा–चार-पाँच लोग एक ओर देख रहे हैं। सत्य उन लोगों की दृष्टि का अनुसरण करके देखते हुए आश्चर्य से स्तब्ध रह गया।

उसके मन को लगा, एक साथ इतना रूप उसने और कभी किसी स्त्री-शरीर में नहीं देखा। लड़की की उम्र अठारह-उन्नीस से अधिक न थी। पहनावे में सीधी-सादी, काली पाड़ की धोती, संपूर्ण शरीर आभूषणहीन घुटनों के बल बैठी हुई, मस्तक पर चंदन की छाप लगवा रही थी एवं उसी का परिचित पंडा एकाग्रचित्त से, सुंदरी के कपोल और नाक पर चंदन की रेखा खींच रहा था।

सत्य पास जाकर खड़ा हो गया। पंडा सत्य से यथेष्ट दक्षिणा पाया करता था, इसी से उसने रूपसी के चंद्रमुख की खातिरदारी त्याग करके, हाथ के छापे रखते हुए 'बड़े बाबू' के सूखे वस्त्रों के लिए हाथ बढ़ा दिया।

दोनों की आँखें चार हुई। सत्य झटपट कपड़ों को पंडे के हाथ में दे, शीघ्रतापूर्वक सीढ़ियाँ पार करके पानी में घुस गया, मगर आज उससे लहरें नहीं काटी जा सकीं, किसी प्रकार स्नान पूरा करके जब वह वस्त्र बदलने के लिए ऊपर आया, तब तक वह असामान्य रूपसी चली गई थी।

उस दिन उसका मन दिन भर गंगा-गंगा करने लगा एवं दूसरे दिन अच्छी तरह सबेरा होने से पहले ही माँ गंगा ने उसे ऐसी जोर से खींचा कि वह विलंब न करके, छूटी से एक वस्त्र खींचकर गंगा-यात्रा को चल दिया।

घाट पर आकर देखा, अपरिचिता रूपसी अभी-अभी स्नान करके ऊपर आई है और पहले दिन की भाँति आज भी ललाट को चित्रित करा रही है। आज भी चारों आँखें मिलीं, आज भी उसके सर्वांग में बिजली दौड़ गई, और वह किसी प्रकार कपड़े छोड़कर शीघ्रतापूर्वक चल दिया।

3.
रमणी प्रतिदिन बहुत अँधेरे ही गंगा-स्नान करने आती है, सत्य यह जान गया। इतने दिन जो दोनों का साक्षात्कार नहीं हुआ, उसका एकमात्र कारण है-पहले सत्य स्वयं ही बहुत अबेर करके स्नान करने आता था।

जाह्नवी-तट पर ऊपर-ही-ऊपर, आज सात दिनों से दोनों की चार आँखें मिल रही हैं, परंतु मुँह से बात नहीं निकलती। शायद उसकी आवश्यकता भी नहीं थी। कारण, जिस जगह आँखों की बात होती है, उस जगह मुँह की बात को चुप ही रह जाना पड़ता है। अपरिचिता रूपसी जो भी हो, उसने आँखों से बात करते हुए शिक्षा दी है एवं उस विद्या के पारदर्शी, सत्य के अंतर्यामी ने भीतर, हृदय में उसे अनुभव कर लिया है।

उस दिन स्नान करके वह कुछ अन्यमनस्क की भाँति लौट रहा था, अचानक उसके कानों में पड़ा, 'एक बात सुनिए!' मुँह उठाकर देखा, रेलवे लाइन के उस पार वही रमणी खड़ी हुई है। उसकी बाई बगल में जलपूर्ण छोटा सा पीतल का कलश और दाहिने हाथ में गीला कपड़ा है। उसने सिर झुकाकर इशारे से बुलाया। सत्य इधर-उधर देखकर पास जाकर खड़ा हो गया। उसने उत्सुक नेत्रों से देखते हुए कोमल कंठ से कहा, 'मेरी नौकरानी आज नहीं आई है, दया करके मुझे कुछ आगे तक पहुँचा दें तो बहुत अच्छा हो!'

और दिन वह दासी को साथ लेकर आती थी, आज अकेली है। सत्य के मन में विविधा होने लगी। यह काम अच्छा नहीं है, मन को एक बार ऐसा भी लगा, परंतु वह, 'ना' नहीं कह सका। रमणी उसके मन के भाव का अनुमान कर कुछ हँस गई। इस हँसी को जो हँसना जानता है, उसके लिए संसार में कुछ भी अप्राप्य नहीं है! सत्य ने तुरंत ही 'चलिए' कहकर उसका अनुसरण किया। दो-चार कदम आगे बढ़कर रमणी ने फिर बात की, 'दासी बीमार है, वह आ नहीं सकती; परंतु मैं भी गंगा-स्नान किए बिना रह नहीं सकती। आपको भी देखती हूँ, यही बुरी आदत है!'...
सत्य ने आहिस्ता से उत्तर दिया, 'जी हाँ, मैं भी प्रायः गंगा-स्नान करता हूँ।'
'यहाँ आप कहाँ रहते हैं?'
'चोरबागान में मेरा घर है।'
'मेरा मकान जोड़ासांकू में है। आप मुझे पथरिया घाट के मोड़ तक पहुँचाकर बड़ी सड़क से चले जाइएगा।'
'ठीक है!'

बहुत देर और कोई बात नहीं हुई, चीतपुर के रास्ते पर आकर रमणी मुड़कर खड़ी होती हुई, फिर वैसी ही हँसी हँसकर बोली, 'पास ही हम लोगों का मकान है, अब चली जाऊँगी नमस्कार!' 'नमस्कार' कहकर सत्य गरदन झुकाए हुए झटपट चला गया। उस दिन भी उसकी छाती के भीतर न जाने क्या होता रहा, वह लिखकर बताना असाध्य है। जवानी में कामदेव के पुष्पबाण का आघात जिन्हें सहना पड़ा है, केवल उन्हीं को अनुमान हो सकेगा, केवल वे ही समझ सकेंगे उस दिन क्या हुआ; सब लोग न समझेंगे।

किस उन्माद के नशे में डूबकर जल, स्नान, आकाश, वायु सब रंगीन दिखाई देने लगे, समस्त चैतन्य जगत किस तरह चेतना खो बैठा है, एक मुखड़ा प्राणहीन चुंबक-शलाका की भाँति केवल इसी एक ओर झुक पड़ने के लिए प्रतिक्षण उन्मुख बना रहा।...

दूसरे दिन सबेरे सत्य ने जगकर उठते हुए देखा, धूप निकल आई है। एक पीड़ा की लहर उसके कंठ तक को आलोकित करती हुई जम गई। उसने निश्चित रूप से समझा, आज का दिन तो एकदम व्यर्थ हो गया है। नौकर सामने से जा रहा था, उसे बुरी तरह धमकाते हुए कहा, 'हरामजादे, इतनी देर हो गई; मुझे तू हिला भी नहीं सकता था? जा, तुझ पर एक रुपया जुर्माना किया!'
वह बेचारा हतबुद्धि हो देखता रहा, सत्य दूसरा कपड़ा लिये बिना, नाराज मुँह से घर से निकलकर बाहर चल दिया।

सड़क पर आकर किराए की गाड़ी की एवं गाड़ीवान को पथरिया घाट के भीतर होकर चलने का हुक्म देकर, रास्ते के दोनों ओर प्राणपण से आँखें बिछा रखी; परंतु गंगा-तट पर आकर घाट की ओर देखते ही उसका संपूर्ण क्षोभ जैसे ठंडा हो गया; अपितु मन को लगा जैसे अचानक ही मार्ग पर पड़े हुए किसी अमूल्य रत्न को उठा लिया।
गाड़ी से उतरते ही वह कोमलतापूर्वक हँसते हुए, अत्यंत परिचित की भाँति बोली, 'इतनी देर क्यों? मैं आधे घंटे से खड़ी हुई हूँ, जल्दी नहा लीजिए, आज भी मेरी दासी नहीं आई!'
'एक मिनट सब्र कीजिए', कहकर सत्य शीघ्रतापूर्वक जल में जा घुसा। तैरना उसका न जाने कहाँ गया! वह किसी प्रकार शरीर को दो-तीन डुबकी देकर लौट आया और बोला, 'मेरी गाड़ी कहाँ गई?'
रमणी ने कहा, 'मैंने उसे भाड़ा देकर विदा कर दिया।'
'आपने भाड़ा दिया?'
'दे ही दिया। चलिए!' कहकर फिर एक भुवनमोहिनी हँसी हँसकर वह आगे बढ़ चली।
सत्य एकदम मर गया कि चाहे यह निरीहता हो, चाहे अनभिज्ञता हो; एक बार में ही संदेह हो जाता है, यह सब क्या है?
रास्ते में चलते-चलते रमणी ने कहा, 'कहाँ घर बताया था, चोरबागान में?'
सत्य ने कहा, 'हाँ!'
'वहाँ क्या केवल चोर ही रहते हैं?'
सत्य ने चकित होकर कहा, 'क्यों?'

'आप तो उन चोरों के राजा हैं!' कहकर रमणी तनिक गरदन घुमाकर कटाक्षपूर्वक हँसती हुई, फिर चुपचाप हंस की चाल से चलने लगी। आज बगल का घट अपेक्षाकृत बड़ा था, भीतर गंगाजल छलाछल-छलाछल शब्द से, अर्थात्-'ओरे मुग्ध अंधे युवक, सावधान! यह सब धोखा है, सब ठगी है,' कहकर उछल-उछलकर बार-बार व्यंग्य तिरस्कार करने लगा।

मोड़ के पास आने पर सत्य ने संकोचपूर्वक कहा, 'गाड़ी-भाड़ा तो...।' रमणी घूमकर खड़ी हो गई, अस्फुट कोमल-कंठ से उत्तर दिया, 'यह तो आपने ही दिया है।'
सत्य ने इस इशारे को न समझकर पूछा, 'मैंने कैसे दिया?'
'मेरे पास और है क्या, जो दूंगी। जो था, वह सभी तो तुमने चोरी-डकैती से ले लिया।' कहकर उसने आश्चर्य से मुँह फिर लिया; शायद अपनी उच्छ्वसित हँसी के वेग को जबरदस्ती रोकने लगी।

इस अभिनय को सत्य देख नहीं पाया, इसी से इस चेरी के प्रच्छन्न इंगित ने तीव्र तड़ित्-रेखा की भाँति उसके संदेह के जाल को भीतर तक विदीर्ण करते हुए छाती के अंत:स्थल तक प्रकाशित कर डाला। उसे क्षणभर को इच्छा हुई उन दोनों महावर लगे पाँवों में लोट जाए; परंतु पलक मारते ही गंभीर लज्जा से उसका माथा इस तरह झुक गया कि वह एक बार प्रियतमा के मुँह की ओर आँख उठाकर देख भी नहीं सका, चुपचाप नीचा मुँह किए धीरे-धीरे चला गया।

उसी फुटपाथ पर, उसके आदेशानुसार दासी उसकी प्रतीक्षा कर रही थी; पास आकर बोली, 'अच्छा दीदीमणि, बाबू को इस तरह क्यों नचाती फिरती हो? कहती हूँ, कुछ है भी या नहीं? दो पैसा खींच सकोगी न?'
रमणी हँसकर बोली, 'सो नहीं जानती! परंतु बेवकूफ लोगों की नाक में रस्सी डालकर घुमाने में मुझे अच्छा लगता है।'

दासी भी कुछ देर तक हँसकर बोली, 'यह भी तुम्हीं कर सकती हो! परंतु कुछ भी कहो दीदीमणि, देखने में जैसे राजकुमार हैं, जैसी आँखें और मुँह है, वैसा ही रंग भी है। तुम दोनों, सच मानो खड़े होकर बातें कर रहे थे तो लगता था, जैसे गुलाब के दो फूल खिले हुए हों।' रमणी मुँह बिचकाकर हँसती हुई बोली, 'अच्छा चल! पसंद आ गया हो तो, न हो तो तू ही ले लेना।' दासी भी हारनेवाली नहीं थी, उसने जवाब दिया, 'नहीं दीदीमणि, वह वस्तु प्राण रहते अन्य किसी को नहीं दे सकोगी, यह कहे देती हूँ!...'

4.
ज्ञानियों ने कहा है-असंभव घटना आँखोंदेखी होने पर भी नहीं कहनी चाहिए। कारण, अज्ञानी लोग उस पर विश्वास नहीं करेंगे। इसी अपराध से श्रीमंत बेचारा किसी श्मशान में जा चुका है। खैर, कुछ भी हो, यह एकदम सच्ची बात है कि सत्य जैसे आदमी ने उस दिन घर लौटकर 'टेनिसन' की कविताएँ पढ़ीं, एवं 'डॉन जॉन' की कविताओं का बंगला अनुवाद करने बैठ गया। वह इतना बड़ा हो चुका था, परंतु इस बार भी इस संशय का कणभर भी उसके मन में नहीं उठा कि दिन के समय में, शहरी राह-घाट में, ऐसे अद्भुत प्रेम की बाढ़ संभव भी हो सकती है या नहीं अथवा उस बाढ़ का प्रवाह यदि सर्वांग को डुबाता हुआ उठा, तो वह निरापद भी रह सकेगा या नहीं....

दो दिन बाद स्नान करके घर लौटते हुए मार्ग में, अपरिचिता ने अचानक कहा, 'कल रात थियेटर देखने गई थी, सरला का कष्ट देखते ही छाती फटने लगती है, है न!' सत्य ने सरला का नाटक नहीं देखा था, 'स्वर्णलता' नामक पुस्तक अवश्य पढ़ी थी, धीरे से बोला, 'हाँ, बहुत बार दुःख पाकर ही उसकी मृत्यु हुई।'

रमणी दीर्घ निश्श्वास छोड़ती हुई बोली, 'ओफ! कितना भयानक कष्ट! अच्छा, सरला ने अपने पति को इतना प्यार क्यों किया, और उसकी जिठानी क्यों नहीं कर सकी, कह सकते हैं?'

सत्य ने संक्षेप में उत्तर दिया, 'यह स्वभावजन्य है!' रमणी बोली, 'ठीक यही बात है! विवाह तो सभी का होता है, परंतु सभी स्त्री-पुरुष क्या परस्पर समान रूप से प्रेम कर पाते हैं? नहीं कर पाते! कितने लोग हैं, जो जीवन-पर्यंत यह नहीं जान पाते कि प्रेम क्या वस्तु है। जानने की क्षमता ही उनमें नहीं होती। देखिए, कितने ही लोग गाने-बजाने को, हजार अच्छा होते हुए भी मन लगाकर नहीं सुन पाते; कितने ही लोग किसी तरह नाराज नहीं होते, नाराज हो ही नहीं सकते! लोग उनके बहुत गुण गाते हैं, परंतु मेरी तो निंदा करने की इच्छा होती है!'

सत्य ने हँसते हुए कहा, 'क्यों?' रमणी ने उद्दीप्त कंठ से उत्तर दिया, 'उन्हें अक्षम कहकर! अक्षमता में थोड़े-बहुत गुण भी हो सकते हैं, परंतु दोष अधिक हैं। यही जैसे सरला का जेठ-स्त्री के इतने बड़े अत्याचार पर भी उससे नाराज नहीं होता।'
सत्य चुप बना रहा। उसने फिर कहा, 'और उसकी स्त्री, यह प्रमदा भी कितनी शैतान औरत है! मैं होती तो राक्षसी का गला दबा देती।'
सत्य ने हँसते हुए कहा, 'होती किस तरह? प्रमदा नामक सचमुच कोई स्त्री तो थी नहीं, केवल कवि की कल्पना...।'

रमणी बीच में ही रोककर बोली, 'तो ऐसी कल्पना की ही क्यों गई?... अच्छा सब लोग कहते हैं-सभी मनुष्यों के भीतर भगवान् हैं, आत्मा है, किंतु प्रमदा के चरित्र को देखकर नहीं लगता कि उसके भीतर भी भगवान् थे। तुमसे सत्य कहती हूँ। कहीं भी बड़े-बड़े लोगों की पुस्तकें पढ़कर मनुष्य भले बनें, मनुष्य को मनुष्य प्यार करें, सो तो नहीं। ऐसी पुस्तकें लिख दी हैं कि पढ़कर मनुष्य पर मनुष्य की घृणा उत्पन्न होती है, विश्वास नहीं होता कि सचमुच ही सब मनुष्यों के हृदय में भगवान् का निवास होता है।'

सत्य ने चकित होकर उसके मुँह की ओर देखते हुए कहा, 'तुम शायद बहुत पुस्तकें पढ़ती हो?'
रमणी बोली, 'अंग्रेजी तो नहीं जानती, बँगला की जो भी किताबें निकलती हैं, सबको पढ़ती हूँ, किसीकिसी दिन सारी रात पढ़ती हूँ, यही तो बड़ी सड़क है। चलो न हमारे घर, जितनी पुस्तकें हैं, सब दिखाऊँगी।'
सत्य चौंक उठा, 'तुम लोगों के घर?'
'हाँ, हम लोगों के घर, चलो, चलना ही होगा तुम्हें!'
अचानक सत्य का मुँह पीला पड़ गया, वह भयभीत होकर कह उठा, 'नहीं, नहीं, छिह छिह!' 'छिह छिह कुछ नहीं, चलो!'
'नहीं-नहीं, आज नहीं... आज रहने दो,' कहकर सत्य काँपते हुए पाँवों से शीघ्रतापूर्वक चल दिया। इस अपरिचिता प्रेयसी के प्रति गंभीर श्रद्धा-भाव से आज उसका हृदय भर गया।

5.
सवेरे के समय स्नान करके सत्य धीरे-धीरे घर लौटा। उसकी दृष्टि क्लांत-सजल थी। आँखों की पलक उस समय भी गीली थे। आज चार दिन बीत गए, उस अपरिचिता प्रियतमा को वह देख नहीं पाया है, फिर वह गंगा-स्नान करने नहीं आई।
आकाश-पाताल की न जाने क्या-क्या बातें उसने कुछ दिन से की हैं, उनकी सीमा नहीं। कभी-कभी मन में दुश्चिंता भी उठी है, शायद वह बची ही न हो, शायद वह मृत्यु-शैया पर! कौन जाने!
वह गली तो जानता है, परंतु और कुछ नहीं पहचानता। किसका मकान है, कहाँ मकान है, कुछ भी नहीं जानता। मन में सोचा-सोच-विचार, आत्मग्लानि से हृदय जला जा रहा है कि उस दिन क्यों नहीं चला गया, क्यों उसके सविनय अनुरोध की उपेक्षा कर दी थी...
वह सचमुच ही मुझसे प्रेम करती थी। आँखों में नशा नहीं, हृदय में गहरी प्यास थी। उसमें छल-कपट की छाया भी नहीं थी; जो थी, वह सचमुच ही नि:स्वार्थ, सचमुच ही पवित्र, हार्दिक स्नेह था।
'बाबू!'

सत्य ने चौंकते हुए देखा, उसकी वही दासी जो साथ आती थी, सड़क के किनारे खड़ी हुई है। सत्य घबराकर समीप आ, भारी गले से बोला, 'क्या हुआ उन्हें?' कहते ही उसकी आँखों में पानी भर आया, सँभाल नहीं सका। दासी ने मुँह नीचा करके हँसी छिपा ली, शायद हँसी आ जाने के भय से ही मुँह नीचा किए हुए बोली, 'दीदीमणि बहुत बीमार हैं, आपको देखना चाहती हैं।'
'चलो,' कहकर सत्य तुरंत स्वीकृति दे, आँखें पोंछकर साथ चल दिया। चलते-चलते पूछा, 'क्या बीमारी है? बहुत अधिक बढ़ गई है क्या?' दासी ने कहा, 'नहीं, सो तो कहीं, परंतु ज्वर अधिक है।'

सत्य ने मन-ही-मन हाथ जोड़कर मस्तक पर रखे और कुछ नहीं पूछा। मकान के सामने आकर देखा-बहुत बड़ा मकान है, दरवाजे के समीप बैठा एक हिंदुस्तानी दरबान ऊँघ रहा है। दासी से पूछा, 'मेरे जाने से तुम्हारी दीदीमणि के पिता नाराज तो नहीं होंगे? वे मुझे पहचानते नहीं।...
दासी ने कहा, 'दीदीमणि के पिता नहीं हैं, केवल माँ हैं। दीदीमणि की भाँति वे भी आपको बहुत प्यार करती हैं।'
सत्य ने और कुछ न कहकर भीतर प्रवेश किया।

सीढ़ियों पर चढ़कर तीसरी मंजिल के बरामदे में आकर देखा–पास-ही-पास कमरे हैं। बाहर से जितना भी दिखाई पड़ता है, लगता है-वे सब चमत्कारपूर्ण ढंग से सजे हुए हैं। किसी कमरे से उच्च-हास्य के साथ तबला और घुंघरू का शब्द आ रहा है। दासी ने हाथ से दिखाते हुए कहा, 'यही घर है-चलिए।' दरवाजे के सामने आकर वह हाथ से परदे को हटाती हुई बहुत उच्च कंठ से बोली, 'दीदीमणि, यह लो अपने नागर को!'

तीव्र हँसी और कोलाहल उठा। भीतर जो कुछ देखा, उससे सत्य का संपूर्ण मस्तिष्क उलट-पुलट हो गया। उसे लगा, जैसे वह अचानक बेहोश होता हुआ गिरा जा रहा है। किसी तरह दीवार को पकड़कर, उसी जगह आँखें बंद करके वह चौखट के ऊपर बैठ गया।

कमरे के भीतर तख्त था, गद्दी-चादर आदि के बिछौने के ऊपर दो-तीन सभ्य वेश-धारी पुरुष बैठे थे। एक आदमी हारमोनियम, एक तबला लिए बैठा था, एक अन्य व्यक्ति दत्तचित हो शराब पी रहा था...और वह? वह शायद, अकेली नाच रही थी। दोनों पाँवों में घुंघरू बँधे हुए थे, संपूर्ण शरीर विविध प्रकार के आभूषणों से भूषित था, सुरा-रंजित दोनों आँखें झूम-झूम रही थीं। झटपट समीप आकर, सत्य का एक हाथ पकड़ खिलखिलाकर हँसती हुई बोली, 'दोस्त को मिरगी की बीमारी है क्या? लो भाई,ऐटयारी मत करो, उठो—इस सबसे मुझे बड़ा डर लगता है।'

प्रबल तड़ित्-वेग से हतचेतन मनुष्य जिस तरह काँपता हुआ हिलने लगता है, उसके कर-स्पर्श से सत्य नीचे से ऊपर तक उसी प्रकार काँपकर घबराने लगा। रमणी ने कहा, 'मेरा नाम श्रीमती बिजली है. तम्हारा नाम क्या है भाई? बाबु? बाबु?'

सब लोगों ने 'हे-हे' करके अट्टहास मचा दिया। दीदीमणि की दासी तो हँसी से भरकर एकदम मेज के ऊपर जा लेटी—'क्या रंग लाती हो दीदीमणि!'
बिजली कृत्रिम रोषभरे स्वर से उसे थोड़ा धमकाती हुई बोली, "ठहर, बकबक मत कर-आओ, उठ आओ,' कहकर जबरदस्ती सत्य को खींच लाकर, एक चौकी के ऊपर बैठाकर, उसके पाँवों के समीप घुटने टिकाकर बैठ गई और हाथ जोड़कर गाना आरंभ कर दिया

'आजु रजनी हम भागे पो हायनु
पेखलूँ पिया मुख-चंदा।
जीवन यौवन सफल करि मानलु
दश-दिश भेल निरदंदा।।

आज मझु गेह, गेह करि, मानलु
आजु मझु देह भेल देहा।
आजु वहि मोहे अनुकूल होयल
टूटल सबहुँ संदेहा।।

सोह कोकिल अब लाख-लाख डाकउ
लाख उदय करु चंदा।
पाँच-बाण अब लाख-बाण होउ
प्रलय पवन बहु मंदा।।

अब मझु जबहुँ पिया-संग होयत
तबहुँ मानव निज देहा-

जिस आदमी ने शराब पी रखी थी, उसने उठकर सत्य के पाँवों के समीप दंडवत् प्रणाम किया। उसे नशा चढ़ रहा था, रोता हुआ बोला, 'पंडितजी महाराज, मैं बड़ा पातकी हूँ, थोड़ी पद-रज दें।' भाग्य की विडंबना से, आज स्नान के उपरांत सत्य कुछ धूलि-भरे कपड़े पहने हुए था।
जो व्यक्ति हारमोनियम बजा रहा था, वह थोड़ा-बहुत होश में था, उसने सहानुभूति के स्वर में कहा, 'क्यों बेचारे का झूठमूठ तमाशा बना रहे हो!'

बिजली हँसती-हँसती बोली, 'वाह, झूठमूठ कैसे? यह तो सचमुच का तमाशा है, तभी तो ऐसे आमोद के दिन घर लाकर तुम्हें तमाशा दिखा रही हूँ। अच्छा, सिर-फिरे बाबू, सच तो बता भाई-तू मुझे क्या समझता था? प्रतिदिन गंगास्नान को जाती हूँ, कर्म से ब्राह्मण भी नहीं हूँ-मुसलमान, क्रिस्तान भी नहीं हूँ। हिंदू-घर की इतनी बड़ी उम्र की लड़की, सधवा हो सकती है अथवा विधवा-किस मतलब से प्रीति करने चला था, बोल तो? ब्याह करने के लिए या भुलावा देकर उड़ा ले जाने को?'

एक भारी हँसी मच गई। तदुपरांत सब लोग मिलकर कितनी ही बातें करने लगे, सत्य ने एक बार भी मुँह नहीं उठाया। किसी भी बात का जवाब नहीं दिया। वह मन में क्या सोच रहा था, उसे किस तरह कहा जाए और कहने पर भी समझेगा कौन! खैर रहने दो।

बिजली अचानक चकित होकर उठ खड़ी होती हुई बोली, 'वाह, मैं भी खूब हूँ! ओ श्यामा, जल्दी आ! बाबू के लिए खाना ले आ, स्नान करके आए हैं-वाह, मैं केवल तमाशा ही कर रही हूँ।' कहते-कहते उसका थोड़ी देर पहले का व्यंग्य-विद्रूप से जलता कंठ-स्वर, अकृत्रिम स्नेह के अनुपात से सचमुच ही ठंडा हो गया।

थोड़ी देर बाद दासी ने एक थाल में खाने की वस्तुएँ लाकर हाजिर कर दीं।
बिजली अपने हाथ में थाल लेकर फिर घुटने नवाकर बैठती हुई बोली, 'मुँह उठाओ, खाओ!'
अब तक सत्य अपनी संपूर्ण शक्ति को एकत्र कर स्वयं को सँभाले हुए था; इस बार मुँह उठाकर शांत भाव से बोला, 'मैं नहीं खाऊँगा!'
'क्यों? जाति चली जाएगी? मैं क्या भंगिन या चमारिन हँ?'
सत्य ने उसी भाँति शांत-कंठ से कहा, 'वह होती तो खा लेता। आप जो कुछ हैं, ठीक हैं!'
बिजली खिलखिलाकर हँसती हुई बोली, 'हाय बाबू भी छुरी-छुरा चलाना जानते हैं, देख रही हूँ।' कहकर फिर हँसी, परंतु वह केवल शब्द मात्र था, हँसी नहीं थी; इसी से और कोई उस हँसी में योग नहीं दे पाया।
सत्य ने कहा, 'मेरा नाम सत्य है, बाबू नहीं। मैंने छुरी-छुरा चलाना कभी नहीं सीखा, परंतु अपनी भूल पहचानकर उसे सुधारना सीखा है।'
बिजली अचानक न जाने क्या बात कहने जा रही थी, परंतु उसे दबाकर बोली, 'मेरा छुआ नहीं खाओगे?'
'नहीं।'
बिजली उठ खड़ी हुई। उसके परिहास के स्वर में इस बार तीव्रता मिली हुई थी, जोर देकर बोली,'खाओगे! मैं कहे देती हूँ तुमसे, आज न सही कल अन्यथा तुम दो दिन बाद खाओगे।'

सत्य गरदन हिलाकर बोला, 'देखो, भूल सभी से होती है। मेरी भूल कितनी बड़ी थी, उस सबको खूब समझ गया हूँ, आपसे भी भूल हो रही है। आज नहीं, कल नहीं, दो दिन बाद नहीं, इस जनम में नहीं, आगामी जन्म में भी नहीं किसी भी समय आपका छुआ नहीं खाऊँगा! आज्ञा दीजिए, मैं जाऊँ, आपके निश्श्वास से मेरा रक्त सूखा जा रहा है।'

उसके मुँह पर गंभीर घृणा की ऐसी सुस्पष्ट छाया पड़ी कि वह शराबी की आँखों से भी नहीं छुप सकी। उसने सिर हिलाकर कहा, 'बिजली बीबी, अरसिकेषु रसस्य निवेदन! जाने दो, जाने दो, सबेरे-सबेरे ही इसने सारा मजा मिट्टी कर दिया।'...

बिजली ने जवाब नहीं दिया, स्तंभित होकर सत्य के मुँह की ओर देखती हुई खड़ी रही। वास्तव में उससे भयानक भूल हो गई थी। वह तो कल्पना भी नहीं कर सकती थी कि ऐसा मुँहचोर व्यक्ति इस तरह भी बोल सकेगा। सत्य आसन छोड़कर उठ खड़ा हुआ। बिजली मृदु स्वर में बोली, 'थोड़ा और बैठो।'...
शराबी सुनते ही चिल्ला उठा, 'ओ हूँ-हूँ, पहली चोट में थोड़ा जोर दिखाएगा, जाने दो, जाने दो, डोर ढीली करो, डोर ढीली करो...।'
सत्य कमरे के बाहर आ गया, बिजली ने पीछे से आकर राह रोकते हुए धीरे-धीरे कहा, 'वे लोग देख लेते, इसी से अन्यथा मैं हाथ जोड़कर कहती हूँ, मुझसे बड़ा अपराध हो गया है।'
सत्य दूसरी ओर मुँह करके चुप बना रहा। उसने दुबारा कहा, 'यह बगलवाला कमरा मेरे लिखने-पढ़ने का कमरा है। एक बार देखोगे नहीं? एक बार आओ, माफी चाहती हूँ!'
'नहीं' कहकर सत्य सीढ़ियों की ओर अग्रसर हुआ। बिजली पीछे-पीछे चलती हुई बोली, 'कल मुलाकात होगी?'
'नहीं।'
'तो क्या कभी मुलाकात नहीं होगी?'
'नहीं।'
रुदन से बिजली का कंठ रुद्ध हो गया। थूक निगलकर जोर लगाकर गले को साफ करती हुई बोली, 'मुझे विश्वास नहीं होता कि फिर मुलाकात नहीं होगी, परंतु तो भी यदि न हो तो बताओ, मेरी इस बात पर विश्वास करोगे?'..

भग्न स्वर सुनकर सत्य चकित हो गया, परंतु इन पंद्रह-सोलह दिनों से जो अभिनय उसने देखा है, उनके आगे तो यह कुछ भी नहीं है। तो भी वह मुँह फेरकर खड़ा हो गया। उस मुख की प्रत्येक रेखा पर सुदृढ अविश्वास को पढ़कर बिजली की छाती फट गई, परंतु वह क्या करेगी? हाय, हाय! विश्वास कराने के सभी उपाय उसने जैसे कूड़े-करकट की भाँति अपने ही हाथ से झाड़कर फेंक दिए थे।
सत्य ने पूछा, 'क्या विश्वास करूँ?'

बिजली के होंठ काँप उठे, परंतु स्वर नहीं निकला। आँसुओं के भार से बोझिल दोनों नेत्र क्षणभर के लिए ऊपर उठाकर नीचे कर लिए। सत्य ने उन्हें भी देखा, परंतु आँसू क्या नकली नहीं होते! बिजली मुँह उठाए बिना भी समझ गई, सत्य प्रतीक्षा कर रहा है; परंतु उस बात को वह किसी प्रकार भी मुँह से बाहर नहीं निकाल सकी, जो बाहर निकलने के लिए उसकी छाती के अंजर-पंजरों को तोड़े-फोड़े दे रही थी।

वह प्यार करती थी। उस प्यार की बात को सार्थक करने के लिए वह इस रूप की भंडार देह का भी शायद एक फटे हुए कपड़े के टुकड़े की भाँति त्यागकर सकती थी, परंतु कौन उसका विश्वास करेगा! वह तो दागी आसामी है। अपराधी के सौ करोड़ चिह्न सर्वांग पर लगाए, विचारक के सामने खड़ी होकर आज वह किस प्रकार मुँह पर लाए कि अपराध करना ही उसका पेशा अवश्य है, परंतु इस बार वह निर्दोष है। जितना विलंब होने लगा, उतना ही वह समझने लगी-विचारक उसे फाँसी का हुक्म देने बैठा है; परंतु किस तरह वह रोकेगी उसे? सत्य अधीर हो उठा था, वह बोला, 'जा रहा हूँ!'

बिजली तब भी मुँह नहीं उठा सकी, परंतु इस बार बोली, 'जाओ! परंतु जिस बात पर अपराध में डूबी रहने पर भी मैं विश्वास करती हूँ, उस बात का अविश्वास करके तुम अपराधी मत बनना–विश्वास करो-सभी के शरीर में भगवान् वास करते हैं, जीवनपर्यंत वे शरीर को छोड़कर नहीं जाते।' कुछ ठहरकर कहा, 'सभी मंदिरों में देवता की पूजा नहीं होती, तो भी वे देवता हैं। उन्हें देखकर सिर चाहे न झुक सके, परंतु उन्हें ठुकराकर भी नहीं जाया जा सकता।' कहकर, पद-शब्द सुनकर उसने मुँह उठाकर देखा-सत्य धीरे-धीरे चुपचाप चला जा रहा था।

+++
स्वभाव के विरुद्ध विद्रोह किया जा सकता है, परंतु उसे बदला तो नहीं जा सकता। नारी-शरीर पर सैकड़ों अत्याचार चल सकते हैं, परंतु नारीत्व को अस्वीकार करने से नहीं चलेगा। बिजली नर्तकी है, तथापि वह नारी भी है। जीवनभर हजारों अपराधों की अपराधिनी रही तो भी उसकी यह देह, नारी-देह ही तो है! घंटेभर बाद जब वह कमरे में लौटकर आई, उस समय उसकी लांछित-अर्धमृत नारी-प्रकृति अमृत के स्पर्श से जगकर उठ बैठी थी। इस अत्यंत थोड़े से समय के भीतर ही उसके संपूर्ण शरीर में न जाने कैसा अद्भुत परिवर्तन हो गया था, उसे शराबी तक खूब समझ गया। वह मुँह खोलकर कह बैठा-'क्यों बिजली, आँखों की पलक तो भीगी हुई हैं! भैया रे, लौंडा भी एक ही जिद्दी था; ऐसी वस्तुएँ भी मुँह में नहीं डालीं। दो, दो, थाली जरा आगे तो बढ़ा दो रे!' कहकर स्वयं ही थाली खींचकर खाने लगा।

उसकी एक भी बात बिजली के कानों में नहीं पड़ी। अचानक अपने पाँवों में बँधे दिखाई देने वाले घुंघरुओं ने जैसे बिच्छुओं की भाँति उसके दोनों पाँवों में डंक मार दिया, उसने झटपट उन्हें खोलकर फेंक दिया।
एक आदमी ने पूछा, 'खोल भी दिए?'
बिजली मुँह उठाकर थोड़ा हँसती हुई बोली, 'अब इन्हें नहीं पहनूंगी!'
'अर्थात?'
'अर्थात् अब कभी नहीं! बाईजी मर गई।'

शराबी संदेश चबा रहा था। बोला, 'किस रोग से बाईजी?' बाईजी फिर हँसीं। यह वही हँसी थी। हँसती हुई बोली, 'जिस रोग से दीपक जलने पर अँधेरा मर जाता है, सूर्य निकलने पर रात्रि मर जाती है, आज उसी रोग से तुम लोगों की बाईजी सदैव के लिए मर गई भाई!'

6.
चार वर्ष बाद की बात कह रहा हूँ। कलकत्ता के एक बड़े मकान में जमींदार के लड़के का अन्नप्राशन है। खाने-पीने का विशाल आयोजन समाप्त हो चुका है। संध्या के बाद बाहर वाले मकान में, प्रशस्त आँगन में महफिल का प्रबंध करके आमोद-आह्लाद, नृत्य-गायन का आयोजन चल रहा है। एक ओर तीन-चार नर्तकियाँ हैं; यही नृत्य-गायन करेंगी। दूसरी मंजिल के बरामदे में चिक की आड़ में बैठी राधारानी अकेले नीचे के जन-समागम को देख रही थी। निमंत्रिता महिलाओं का अभी शुभागमन नहीं हुआ था।

चुपचाप पीछे से आकर सत्येंद्र ने कहा, 'इतना मन लगाकर क्या देख रही हो, बताओ तो?' राधारानी अपने स्वामी की ओर मुड़कर देखती हुई मुसकराकर बोली, 'जिसे सब लोग देखने आए हैं, बाईजी की साज-सज्जा...परंतु अचानक तुम यहाँ?'
पति ने हँसकर जवाब दिया, 'अकेली बैठी हो, इसी से एक बात कहने आया हूँ।'
'ऐसा?'
'सचमुच! अच्छा देख रही हो तो बताओ तो, उनमें सबकी अपेक्षा तुम्हें कौन सी अधिक पसंद है?'
'इधरवाली' कहकर राधारानी ने उँगली उठाकर जो स्त्री सबसे पीछे, अत्यंत सीधी-सादी पोशाक पहने बैठी थी, उसे दिखा दिया।
पति ने कहा, 'वह तो अत्यंत रुग्ण है।'
'सो भले ही हो, यही सबसे अधिक सुंदरी है! परंतु बेचारी गरीब है, शरीर में गहने-वहने इन सबकी भाँति नहीं है।'
सत्येंद्र गरदन हिलाकर बोला, 'यह होगा, परंतु इन सबकी मजदूरी कितनी है, जानती हो?'
'नहीं।'
सत्येंद्र ने हाथ से दिखाते हुए कहा, 'ये तीस-तीस रुपए की हैं और जिसे गरीब कहती हो, उसके दो सौ रुपए!'
राधारानी चौंक उठी, 'दो सौ! क्यों, वह क्या बहुत अच्छा गाती है?'
'कान से कभी सुना नहीं। लोग कहते हैं-चार-पाँच वर्ष पहले बहुत अच्छा गाती थी; परंतु अब गा सकेगी या नहीं, कहा नहीं जा सकता।'
'तब इतने रुपए देकर क्यों लाए?'
'इससे कम पर वह नहीं आती। इतने पर भी आने को राजी नहीं थी, बहुत मना-मनूकर लाई गई।'
राधारानी और अधिक चकित होकर पूछने लगी, 'रुपए देकर भी मनाना-मनूना क्यों?'

सत्येंद्र समीप ही एक चौकी खींचकर बैठता हुआ बोला, 'उसका पहला कारण, उसने व्यवसाय छोड़ दिया है। गुण उसका कितना भी हो, इतना रुपया कोई सहज ही देना भी नहीं चाहता, उसका भी आना नहीं होता, यही उसकी बात है। दूसरा कारण मेरी अपनी ही गरज है।'
इस बात पर राधारानी ने विश्वास नहीं किया। तो भी आग्रह से आगे खिसककर बैठती हुई बोली, 'तुम्हारी गरज लाख होगी, परंतु व्यवसाय क्यों छोड़ दिया?'
'सुनोगी?'
'हाँ, बोला।'
सत्येंद्र क्षणभर चुप रहकर बोला, 'उसका नाम बिजली है। एक समय, किंतु यहाँ पर लोग आ जाएँगे रानी, घर में चलोगी?'
'चलूँगी, चलो', कहकर राधारानी उठकर खड़ी हो गई।

+++
पति के पाँवों के पास बैठकर, सबकुछ सुनकर, राधारानी ने आँचल से आँखें पोंछ ली। अंत में बोली, 'इसीसे आज उसका अपमान करके बदला लोगे? यह बुद्धि तुम्हें किसने दी?'

इधर सत्येंद्र की आँखें भी शुष्क नहीं थीं, बहुत बार गला भी भर आया था। वह बोला, 'अपमान अवश्य है, परंतु उस अपमान को हम तीन लोगों के अतिरिक्त और कोई नहीं जान सकेगा। कोई जानेगा भी नहीं।'

राधारानी ने जवाब नहीं दिया। एक बार फिर आँचल से आँखें पोंछकर बाहर चली गई। निमंत्रित भद्रपुरुषों से महफिल भर गई थी एवं ऊपर बरामदे में बहुत सी स्त्रियों के कंठ का सलज्ज चीत्कार चिक के आवरण को भेदता हुआ आ रहा था। अन्यान्य नर्तकियाँ तैयार हो चुकी थीं, केवल बिजली उस समय भी सिर झुकाए बैठी थी। उसकी आँखों से पानी गिर रहा था। लंबे पाँच वर्षों में उसका संचित किया हुआ धन प्रायः समाप्त हो चुका था, उसी के अभाव की ताड़ना से बाध्य होकर फिर वही कार्य अंगीकार करके आई थी, जिसे उसने शपथ करके त्याग दिया था, परंतु वह मुँह उठाकर खड़ी नहीं हो पा रही थी। अपरिचित पुरुषों की तृष्णा दृष्टि के सम्मुख शरीर जैसे पत्थर की भाँति भारी हो उठेगा, पाँव इस तरह दुहरे होकर टूट पड़ना चाहेंगे। इसकी वजह दो घंटे पहले कल्पना तक नहीं कर सकी थी।

'आपको बुला रही हैं।' बिजली ने मुँह उठाकर देखा, पास ही खड़ा हुआ है एक बारह-तेरह वर्ष का लड़का। उसने ऊपर के बरामदे की ओर निर्देश करते हुए दुबारा कहा, 'माँजी आपको बुला रही हैं।'
बिजली विश्वास नहीं कर पाई। जिज्ञासा की, 'कौन बुला रही हैं?'
'माँजी बुला रही हैं।'
'तुम कौन हो?'
'मैं घर का नौकर हूँ।' बिजली गरदन हिलाकर बोली, 'मुझे नहीं, तुम फिर पूछकर आओ।'
बालक थोड़ी देर बाद लौट आकर बोला, 'आपका नाम बिजली है न? आप ही को बुला रही हैं, आइए मेरे साथ, माँजी खड़ी हुई हैं।'
'चलो', कहकर बिजली झटपट पाँवों के घुंघरू खोलकर उनका अनुसरण करती हुई अंदर प्रविष्ट हो गई। मन में सोचा, गृहिणी की कोई विशेष फरमाइश है, इसलिए वहाँ बुलाया गया है।

शयन-गृह के दरवाजे के समीप राधारानी बालक को गोद में लिए खड़ी हुई थी, त्रस्त-कुंठित पाँवों से बिजली के सामने खड़े होते ही वह आदरपूर्वक हाथ पकड़कर उसे भीतर खींच लाई, एक चौकी के ऊपर जबरदस्ती बैठाकर मुसकराती हुई बोली, 'दीदी, पहचानती हो?'

बिजली आश्चर्य से हतबुद्धि हो रही। राधारानी गोद के लड़के को दिखाती हुई बोली, 'छोटी बहन को शायद पहचाना नहीं दीदी, इसका दुःख नहीं है, परंतु इसे न पहचान पाने पर सचमुच ही झगड़ा करूँगी।' कहकर मुँह दबाकर मंद-मंद मुसकराने लगी।

ऐसी हँसी देखकर भी बिजली कोई बात न कह सकी, परंतु उसका अंधकारपूर्ण आकाश धीरे-धीरे स्वच्छ हो आने लगा। उस अनिंद्य सुंदर मातृमुख से सद्य:विकसित गुलाब जैसे शिशु के मुख की ओर उसकी दृष्टि बँधी रह गई। राधारानी निस्तब्ध थी। बिजली निर्निमेष आँखों से देख-देखकर अचानक उठ खड़ी हुई, दोनों हाथ फैलाकर शिशु को गोद में लेकर, जोर से छाती से चिपटाकर झर-झर करती हुई रो पड़ी।

राधारानी ने कहा, 'दीदी, समुद्र को मथकर विष तो स्वयं पी लिया और समस्त अमृत इस छोटी बहन को दे दिया है। उन्होंने तुमसे प्यार किया था, इसीलिए मैंने उन्हें पाया है।'

सत्येंद्र के एक छोटे से फोटोग्राफ को हाथ में उठाए बिजली टकटकी बाँधे देख रही थी। मुँह उठाकर मुसकराती हुई बोली, 'विष का विष ही तो अमृत है बहन! मैं वंचित नहीं रह आई! उसी विष ने इस घोर पापिनी को ऊपर कर दिया है।'

राधारानी ने इस बात का उत्तर न देते हुए कहा, 'मुलाकात करोगी दीदी?'
बिजली क्षणभर आँखें बंद करके निश्चय करती हुई बोली, 'नहीं दीदी। चार वर्ष पहले जिस दिन वे अछूत को पहचानकर घोर घृणा से मुँह फेरकर चले गए थे, उस दिन घमंड में भरकर मैंने कहा था, 'फिर मुलाकात होगी, तुम फिर आओगे, परंतु मेरा वह घमंड रहा नहीं और वे नहीं आए, परंतु आज देख रही हूँ, क्यों दर्पहारी ने मेरा वह दर्प नष्ट कर दिया। वे नष्ट करके अब किस तरह गढ़ेंगे, निकालकर अब किस तरह लौटाएँगे, इस बात को मेरी तरह और कोई नहीं जानता बहन!' कहकर वह फिर एक बार अच्छी तरह आँचल से आँखें पोंछकर बोली, 'प्राणों की ज्वाला से भगवान् को निर्दय, निष्ठुर कहकर अनेकों दोष दिए हैं, परंतु अब देख रही हूँ, इस पापिष्ठा पर उन्होंने कैसी दया की है। उस दिन उन्हें लौटाकर ले जाती तो मैं तो सब ओर से मिट्टी हो जाती! उन्हें भी नहीं पाती, स्वयं को भी हार जाती!'

रुदन से राधारानी का गला अवरुद्ध हो गया था, वह कुछ भी नहीं बोल पा रही थी। बिजली ने फिर कहा, 'सोचा था, कभी मुलाकात होने पर उनके पाँव पकड़कर एक बार और माफी माँगकर देखूँगी, परंतु उसकी अब जरूरत नहीं है। इस चित्र को केवल दे दो दीदी, मैं जा रही हूँ।' कहकर वह उठ खड़ी हुई।

राधारानी ने भारी स्वर से पूछा, 'फिर कब भेंट होगी दीदी!'
'भेंट अब नहीं होगी बहन! मेरा एक छोटा सा मकान है, उसे बेचकर जितनी जल्दी हो सकेगा, चली आऊँगी। अच्छी बात है, बता सकती हो बहन, उन्होंने क्यों अचानक इतने दिनों बाद मुझे स्मरण किया? जब उनका आदमी मुझे बुलाने गया था, तब तो कोई एक झूठा नाम बताया था?' लज्जा से राधारानी का मुँह लाल हो उठा, वह नीचा मुँह किए चुप रह गई।

बिजली क्षणभर सोचकर बोली, 'समझ गई। शायद मेरा अपमान करने के लिए ही न! नहीं! इसके अतिरिक्त इतनी चेष्टा करके मुझे बुलवाने का तो कोई अन्य कारण दिखाई नहीं देता।'

राधारानी का मस्तक और भी झुक गया। बिजली हँसकर बोली, 'तुम क्यों लजाती हो बहन, तो भी उनसे भूल हो गई। उनके चरणों में मेरा शतकोटि प्रणाम कहकर बता देना, यह नहीं हो सकता। मेरा अपना अब कुछ नहीं है। अपमान करने पर, संपूर्ण पाप उन्हीं के शरीर से लगेगा।'
'नमस्कार दीदी।'

'नमस्कार बहन! आयु में बहुत बड़ी होने पर भी तुम्हें आशीर्वाद देने का अधिकार तो मुझे नहीं है, मैं तन-मन से प्रार्थना करती हूँ बहन, तुम्हारे हाथ का नोया अक्षय बना रहे, जा रही हूँ।'

  • शरतचंद्र चट्टोपाध्याय की बांग्ला कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी में
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