अँधेरे के भागीदार (कहानी) : एजाज़ राही
Andhere Ke Bhagidar (Story in Hindi) : Ejaz Rahi
इकतीसवीं मंज़िल की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए आशंकाओं की असंख्य चींटियाँ आहिस्ता-आहिस्ता उसके ज़ेहन में अपने नन्हे-मुन्ने पंजे गरोड़ती चली आ रही थीं।
अब क्या होगा?
यह सवाल भूत की तरह उसके स्नायुओं पर सवार होकर उसके तने हुए कन्धों को निरन्तर नीचे धकेल रहा था। क़दम-क़दम तय होती सीढ़ियों के साथ उसके अन्दर से कोई चीज़ टूट-टूटकर चारों तरफ़ बिखरती जा रही थी। पीला-मटियाला धुआँ उसकी गहरी नीली आँखों के गिर्द दायरा तंग करता जा रहा था। कभी-कभी ऊपर उठते हुए क़दम आने वाले अपरिचित, अचींहें लम्हों की आशंकाओं में उलझकर रुक जाते, मगर फिर अनदेखे लम्हे की ख़्वाहिश उसके अन्दर से फिसलती हुई उसके रुकते क़दमों को आगे बढ़ाने लगती। लेकिन फिर वही - अब क्या होगा? और अब क्या होगा की जद में आने वाली यक़ीन की सारी रस्सियाँ धीरे-धीरे टूटने लगती हैं।
उसने आखि़री सीढ़ी पर पहुँचकर जब पीछे देखा तो दूर नीचे घोर अँधेरा भय की पालथी मारे उसे घूर रहा था। सामने दरवाज़ा बन्द था।
"पीछे गहरा घुप अँधेरा। सामने बन्द दरवाज़ा।"
वह बड़बड़ाया। सोच की चिड़िया दुख के कंकरों से उसके अहसास को ज़ख़्मी करने लगी। उसने ख़्वाहिश के पबिंजरे में बन्द सारे कबूतर उड़ा दिये कि पीछे गहरा घुप अँधेरा और सामने बन्द दरवाज़े ने उसकी पोर-पोर में दौड़ती जिज्ञासा की रगें काट दी थीं और अब वह गहरे घुप अँधेरे की तरह ठहराव के उन लम्हों से गुज़र रहा था जहाँ सोच के सारे रंग सियाह हो चुके थे और रौशनी की सारी लहरें दम तोड़ रही थीं।
अज़रा की बेकफ़न लाश - मेरे घर के दरवाज़े पर पड़ी थी। उसके जिस्म के कुछ हिस्सों को गिद्धों ने नोच लिया था, जहाँ से ताज़ा-ताज़ा लहू बहकर ज़मीन के सीने को सैराब कर रहा था। हर दरवाज़े के सामने अज़रा की लाश पड़ी थी और उसके जिस्मों से बहने वाले लहू ने पद्मा को सुर्ख़ कर दिया था। और जब सुर्ख़ पद्मा में सैलाब आया, तो मेरा, हमारा सबकुछ बह गया। अन्ना से बहादुरी के इतिहास के पृष्ठ तक।
बूढ़े फ़ौजी की आँखों के अनुभव की कुठाली से एक-एक शब्द लोहार के हथौड़े की तरह एक नियमितता के साथ उसकी जड़ होती अनुभूतियों पर चोटें लगा रहा था।
"तो फिर क्या अज़रा बे क़ब्रो-कफन और गिद्धों के नोचने का खेल बनी रहेगी?" उसकी टाँगों में लहू की सलाखें मोम की तरह पिघलने लगीं, उसने दीवार का सहारा लिया और वहीं बैठ गया।
उसने दरवाज़े में रुककर हाल का जायजा लिया। उसको सब चेहरे परिचित नज़र आये। किसी एक चेहरे में भी अपरिचय या घृणा के भाव दिखायी न दिये। आज तो सभी एक दूसरे का हिस्सा दिखायी दे रहे थे।
"वेलकम ऐल्यूस" बूढ़े फ़ौजी ने हॉल के मध्य से नारा लगाया।
"थ्री चीयर्स फार ऐल्यूस।"
"ऐल्यूस दी ग्रेट।"
"हीरो ऑफ़ दि डे।"
पूरे हॉल में एक शोर-सा मच गया। वह नाभि तक फ़िक्र की दलदलों में धँसा हुआ हौले-हौले चलता लोगों के बीच आ खड़ा हुआ।
"दी ग्रेट सुपर मैन"
हमेशा की तरह जफर ने हाँक लगायी और पहले के खि़लाफ़ सारा हॉल "दि ब्लैक सुपर मैन" की ताल पर झूमने लगा। उसे यूँ लग रहा था जैसे एक अनजानी ख़ुशी हर एक के रंग व रेशे में दाखि़ल हो गयी है। लेकिन वह क्यों अजनबियत महसूस कर रहा था? उसे ये सब अजीब-अजीब-सा क्यों लग रहा था? उसे ये सब श्मशान के गिर्द नृत्य करते प्रेत लग रहे थे। वह अधखुली आँखों के साथ क्षण-क्षण गुम होते दृश्यों की कड़ियाँ जोड़ने लगा। लेकिन बर्फ़ पर स्केटिंग करती सुन्दरियों की तरह हर दृश्य उसकी पकड़ से फिसलता रहा और गलीज गलियों से फूटने वाली सीलन आमेज़ अंधकार के सिवा उसके सामने कुछ न था।
"दि ग्रेट सुपर मैन", अनदेखा भय क्षणों के आहत बदन पर सवार उसके चारों तरफ़ जाल बुनता रहा। उसने उस जाल को तोड़ने की कोशिश की, लेकिन उसके जिस्म के साथ बँधा हुआ आशंकाओं का भारी पत्थर उसे नीचे, लगातार नीचे लिये जा रहा था।
"दि ग्रेट सुपर मैन"! अचानक उसे सारा जिस्म लरजता हुआ महसूस हुआ। त्रासदपूर्ण क्षणों की सरसराहट उसके चिन्तन के दरीचों पर ख़ौफ़नाक पलों का इतिहास लिख रही थी।
"ज़लज़ला।" वह बड़बड़ाया, और उसने लोगों के जहन के बन्द दरवाज़ों पर आवाज़ देनी चाही। लेकिन उसकी आवाज़ अपने ही होंठों के घेरे तोड़ न सकी।
"ज़लज़ला।" उसने चीख़ने की कोशिश की, लेकिन ठाठें मारते हुए समुद्र के शोर में उसकी आवाज़ एक कंकरी की तरह जा सोई।
"ख़ामोश," वह पूरी ताक़त से चीख़ा।
और पूरा हॉल एकदम चुप के तालाब में उतर गया और तमाम विस्मित पथरीली आँखें उसके चेहरे पर जम गयीं।
"ज़लज़ला" लरजती आवाज़ में उसने एक-एक चेहरे को घूरते हुए कहा।
ज़लज़ला! एक साथ कई आवाज़ें एक दूसरे के चेहरे पर हैरत की लकीरें खींचने लगीं। "ज़लज़ला, लेकिन ज़लज़ला क्यों। हम सब तो उसकी रीढ़ की हड्डी हैं। हम सब - हम सब।"
कई आवाज़ों के बदन से ख़ौफ़ के बच्चे जन्म लेने लगे।
"ज़लज़ला", उसकी आवाज़ पहले की तरह लरजती रही।
"तुम महसूस नहीं कर रहे पूरी इमारत काँप रही है। ज़लज़ले ने इमारत की नींव तक को हिलाकर रख दिया है।"
"यह झूठ है। इसकी बुनियादें हम हैं और हम सब नफ़रतों की दहलीज़ें पार करके अब एक हो चुके हैं।" कई एक ने विरोध किया।
"ज़लज़ले की कुदालें लम्हा बुनियादों को खोखला कर रही हैं।" वह सुनी अनसुनी करके कहता रहा, "लेकिन तुम महसूस नहीं कर रहे। तुम महसूस नहीं करते। तुम हमेशा की तरह इस बार भी महसूस नहीं करोगे।" बूढ़ा फ़ौजी हँसा, फिर दूसरा, फिर तीसरा। और हौले-हौले उसके फ़िक्रजदा चेहरे पर क़हक़हों का टिड्डीदल टूट पड़ा।
"सुनो" उसने क़हक़हों के कच्चे घरौंदों पर अपनी सोच का पत्थर फेंका।
"अभी कुछ देर में यह इमारत जब रेत के घरौंदे की तरह पश्चिम से चलने वाली हवा के कन्धों पर ज़र्रा-ज़र्रा होकर बिखर जायेगी और हम सब जो हमेशा ख़ुशफहमियों की ज़मीन पर भविष्य की फ़सलें बोने के आदी हो चुके हैं, किसी जंगली सड़क की तरह उस तेज़ अक्कड़ की जद में आकर अपना वजूद खो देंगे। और फिर कौन जाने - कब किसे इसकी ज़रूरत महसूस हो।"
"लेकिन मैं तो सुलह का समझौता कर चुका हूँ।"
"मैं भी"
"मैं भी"
"हम सब भी"
"हम सब! वह विष भरी हँसी हँसा। हम सब, हम सब क्या हैं, हम सब कौन हैं...पुतलियाँ...सिर्फ़ पुतलियाँ...लेकिन...रस्सी कौन हिला रहा है?" उसकी आवाज़ कमज़ोर हो गयी थी। "कौन जाने इस ठिठुरा देने वाली सर्दी से बचने के लिए आग चुराने के जुर्म में हम कब तक अन्धे कुएँ में लटके रहेंगे। रस्सी हिलाने वाला यही चाहता है। लेकिन कब तक...आखि़र कब तक...लेकिन वह बूढ़ा कहाँ है।" उसने लोगों में बूढ़े की तलाश करते हुए कहा।
"कौन-सा बूढ़ा। कौन-सा बूढ़ा। हम सब अपने-अपने अस्तित्व को बचाने के लिए सियाह चमकीले रेशों को खुरदुरी सफ़ेदी की नज़र कर चुके हैं। तुम किस एक की बात करते हो?"
"वह... जो हमारी तरह आग बोकर अनाज के पकने का इन्तज़ार नहीं करता। उसने कहा था। इंजन पर क़ब्ज़ा कर लो... देखो...देखो इमारत फिर काँपने लगी।"
पूरी इमारत लट्टू की तरह घूमने लगी। वह भी लड़खड़ा गया।
"कुदालों की आवाज़ें लोगां को क्यों नहीं सुनायी दे रही हैं। वे उन खुफ़िया हाथों को क्यों नहीं देख रहे हैं, जो उनकी ख़्वाहिशों के बाग़ में चहचहाती फाख़्ताओं को क़त्ल कर रहे हैं।"
उसने सोचा और उसी लम्हे उसके कानों में बूढ़े वक्ता की आवाज़ गूँजने लगी,
"तुम किधर जा रहे हो।"
बूढ़े वक्ता ने मुरझायी हुई पलकों वाले जर्द चेहरों को घूरते हुए एक-एक आँख की दहलीज़ पार करनी चाहिए।
"तुम किस गाड़ी में सवार हो?"
बूढ़े वक्ता की गोल-गोल तेज़ आँखें मेज़ के इर्द-गिर्द बैठे हुए लोगों के लिए सवाल बनी, उनके दिलों तक उतरती चली जा रही थीं।
"गाड़ी किस दिशा को जा रही है?"
बूढ़ा वक्ता लफ़्ज़ों की झोली से एक-एक लफ़्ज़ हैरान लोगों की तरफ़ उछालता जा रहा था, "गाड़ी का इंजन कौन चला रहा है?"
लोगों ने एक दूसरे को देखा। फिर सबने नहीं में सिर हिलाया व तमाम नज़रों का बोझ एक दूसरे को लौटाते हुए वे बूढ़े वक्ता की तरफ़ उन्मुख हुए। और बूढ़े वक्ता ने सवालों की बर्छियाँ मेज़ के गिर्द बैठे हुए लोगों के जेहनों में चुभोते हुए गहरी साँस ली। उसने जेब से रूमाल निकाला।
ऐनक के मोटे-मोटे शीशों को साफ़ किया, एक-एक आँख की बरौनी में लिपटी हुई जिज्ञासा को टटोलते हुए बात शुरू की...
"तुम जहाँ भी जाना चाहते हो, उस वक़्त तक मुमकिन नहीं, जब तक इंजन तुम्हारे क़ब्ज़े में न हो।" बूढ़े की आवाज़ लरज गयी। "तुम उस वक़्त तक अपनी पसन्द की मंज़िल की तरफ़ सफ़र नहीं कर सकते, जब तक इंजन पर तुम्हारा क़ब्ज़ा न हो।" उसकी आवाज़ पल-पल सियाह होती शाम की तरह डूबी जा रही थी। और जब वह माथे पर जमे पसीने के क़तरे साफ़ कर रहा था, प्रशंसा के लातादाद कंकड़ उसके बदन से टकरा-टकराकर चारों ओर बिखरते चले जा रहे थे। बूढ़े ने तकलीफ़ से कराहते हुए कहा, "तुम अपनी दुनिया को अपनी ख़्वाहिशों के मुताबिक़ बनाना चाहते हो तो इंजन पर..."
"इंजन पर क़ब्ज़ा कर लिया," एक कँपकँपाती आवाज़ आयी।
"किसने..." एक साथ कई आवाज़ें उभरी।
"उसने जो (उसका बनाया हुआ) रक्षक था।"
"मेरी आशंकाएँ सही निकलीं, अफ़सोस, सबकी कोशिशें बेकार गयीं।" रस्सी एक बार फिर हिल गयी।
"अफ़सोस", सबने ख़ौफ़ की क़लम से भविष्य के काग़ज़ पर सन्देहों के दायरे खींचे और स्तब्ध खड़े अपनी-अपनी जात के अँधेरे कुएँ में उतरने लगे। पुराने अहदनामे ने, जिसके लफ़्ज़-लफ़्ज़ में गुज़री घटनाओं की तस्वीर बीतते लम्हों का मज़ाक़ उड़ा रही थी, उन लोगों के पाँव फ़र्श से उखाड़ दिये थे जो नयी ज़िन्दगी के नये अहदनामे के नवीनीकरण के लिए जश्न मनाने जमा हुए थे।
अब उनकी लरजती टाँगों ने उनके जिस्मों के बोझे उठाने से इन्कार कर दिया। बूढ़े फ़ौजी ने अपने दोनों हाथों को सीने पर इस तरह जमा लिया था जैसे वह ख़ुद को टूटने-बिखरने से बचा रहा हो। उसने पल्टन मैदान में जनरल के उतरते हुए रैंक और झुके हुए झण्डे को टी.वी. की आँख से देखते हुए कहा...
"अफ़सोस... अब हमें तजुर्बों के ख़ौफ़नाक प्रेत भी नाकाम अमल दोहराने से नहीं रोक सकते कि हम जो अपनी ही ज़मीन को बार-बार फतह करने के आदी हो चुके हैं, उत्तरी धु्रव के सफ़ेद भेड़ियों की तरह आँख झपकने के किसी मौक़े को ख़ाली नहीं जाने देना चाहते, कभी नहीं - कभी नहीं।"
कमज़ोर-सी आवाज़ कमरे में गूँजी और लोगों ने देखा, ऐल्यूस अपने बदन में ख़ुशहाली की आग रौशन करने के जुर्म में प्रोमेथियस की जगह उल्टा लटका अपने होने की श्रद्धांजलि अर्पित कर रहा है।