अंधेरे देश, कंजे राजा और गंजे महामंत्री की कथा : मृणाल पाण्डे

Andhere Desh Kanje Raja Aur Ganje Mahamantri Ki Katha : Mrinal Pande

(लेखिका को इसकी मूल लोक कथा तमिल से कवि ए के रामानुजन द्वारा किये अंग्रेज़ी अनुवाद में मिली जो उनकी लोककथाओं के संकलन ‘ए फ्लावरिंग ट्री’ में है। आप भी पढ़िए-)

एक देश था। वहाँ बीस बरस से एक कंजा तथा क्रांतिकारी विचारों वाला निर्बुद्धि राजा राज करता था। राजा ने सलाह मशविरा करने और योजनायें लागू कराने के वास्ते ऐसा गंजा निर्बुद्धि महामंत्री नियुक्त किया था जो राजा के मंहगाई मिटाने और देश-विकास की बाबत क्रांतिकारी विचारों से हमेशा एकदम सहमत रहे।

कंजे राजा तथा गंजे महामंत्री ने मिल कर मंत्रणा की कि देश में क्रांतिकारी सुधारों की शुरुआत कहाँ से की जाये?

तय हुआ कि पहले गरीबी को हटाया जाये जो मंहगाई से और मंहगाई चीज़ों के दाम बढने से पैदा होती है। इसलिये अब से देश में हर चीज़ का दाम तांबे की एक दमड़ी होगी। जो कहीं भी एक दमड़ी से महंगा सामान बेचता पाया जायेगा, उसकी चमड़ी खींच ली जायेगी।

अंय? सोने से लेकर पत्ते के दोने तक के लिये दमड़ी से अधिक मोल मांगने पर चमड़ी खिंच जायेगी?

बाज़ार सन्न रह गया। अगले ही दिन से देश में हर जिनिस दमड़ी के भाव बिकने लगी। देश के मूर्ख कोषाध्यक्ष ने राजकोषीय घाटा पूरने के लिये दामों में कुछ तो अंतर कायम रखने की वकालत की, तो उसको देश निकाला दे दिया गया। उसकी जगह नया कोषाध्यक्ष बिठाया गया। वह राजा और महामंत्री से सदा सहमत रहता था।

मंहगाई कम करने में मिली क्रांतिकारी सफलता के बाद राजा और महामंत्री में सलाह बनी, कि अब विकास की गति बढाने को भी एक और नया शाही फरमान निकाला जाये।

इस फरमान में प्रजा को सूचित किया गया था, कि अब से सारे राज्य में दिन को रात और रात को दिन माना जायेगा। जो निस्तेज चेहरेवाले युवा बेरोज़गार दिन भर निठल्ले गलियों में लटर सटर फिरते अंडबंड अफवाहें फैलाते रहते हैं, उनको व्यस्त बना कर स्वस्थ तन तथा मन से जुडे रचनात्मक कामों से जोड़ा जायेगा।

अगले ही दिन सभी चौपालों में तेल चुपड़े मल्लखंभ लग गये। हुकुम हुआ कि सारे युवा बेरोज़गार जो रात गये बेवजह बहस और अड्डाबाज़ी करते थे, वे अब पुलिस निगरानी में रात भर इन मल्लखंभों पर चढेंगे और उतरेंगे।

राजवैद्य द्वारा जनता को बताया गया कि इससे युवाओं की देशविरोधी गतिविधियाँ कम होंगी और साथ ही रात भर मल्लखंभ पर चढने उतरने से उनका स्वास्थ्य भी बेहतर हो जायेगा।

इस तरह ‘सबका स्वास्थ्य, सबका विकास‘ नामक दूसरी क्रांतिकारी योजना भी लागू कर दी गई। इस बार जिस भी सरकारी कर्मचारी ने बहस करने की कोशिश की, उसको देश निकाला दे दिया गया। एक नया स्वास्थ्य विभाग बना, जो खांसी से खसरे तक और कोविड से कैंसर तक के उपचार के लिये आयुर्वेद कहो तो नाना अवलेह और चूरन, होमियोपैथी कहो तो मीठी गोलियाँ और नेचरोपैथी कहो तो करेले लौकी का रस लिख देता था।

जब जिसका जैसा हुकुम। बाकी रोगी का बचना न बचना तो भगवान के हाथ है, राजवैद्य बोले!

राज्य में अब घर से खेत खलिहान तक दिन का काम काज रात को निबटाया जाने लगा। दिन में सब लोग सिर्फ सोते थे।

गाय गोरू, कुत्ते बिल्ली, बकरियाँ और भेडें सबको भी दिन में सोने और रात को खाने अथवा चरने की आदत डाल दी गई। औरतें अब रात होने पर चूल्हे-सिगडी सुलगा कर घरवालों के नाश्ता पानी और जिनावरों के लिये सानी पानी का काम करतीं। पनिहारियाँ रात को कुएं पर पानी लेने जातीं। बच्चे पाठशाला, और कारीगर कारखाने।

अगर कोई इस कानून को तोडता हुआ पकड़ा गया तो उसको तुरत सूली पर चढाने का एक कानून भी नई क्रांतिकारी योजना के साथ साथ घोषित हुआ था।

अब मरने से भला कौन नहीं डरता? कोविड कैंसर से बचने को पापड़ या गोबर तक खाने को कहा जाता तो रोगी मान जाते।

इस महान क्रांतिकारी योजना को भी सफल हुआ देख कर राजा और महामंत्री बड़े खुश हुए।

एक दिन शहर में एक गुरु चेले का आगमन हुआ। वे क्या देखते हैं? दिन का समय था पर सडकें, उपवन, चरागाह, खेत सब सूने भांय भांय कर रहे थे। सारे कारखानों, सरकारी अर्धसरकारी या निजी कार्यालयों पर ताले लगे थे, पाठशालायें भी बंद थीं और शहर वीरान। एक बिल्ली ने भी उनका रास्ता नहीं काटा, न ही किसी गली में उन पर कोई कुत्ता भौंका।

भूखे प्यासे गुरु चेला दिन भी शहर में घूमते रहे, हर गली मुहल्ले में सोता पड़ा देख चकित होते रहे।

अचानक क्या देखते हैं कि जैसे ही सूरज डूबा, शहर जाग गया।

हर कहीं सुबह जैसी चहल पहल हो गई। गायें रंभाने लगीं, कुत्ते भौंकने लगे। बिल्लियाँ दीवारों पर बैठ कर खुद को चाटने और मछली बाज़ार पर नज़र रखने लगीं।

घरों के भीतर बाहर धुंआ उठने लगा। साथ ही पति पत्नी, माँ बच्चों के सामान्य दैनिक झगड़ों के सुर उभरने लगे।

रात गहराई। अब तक शहर के सब बाज़ार सज चुके थे। गाहकों की आवक से भरपूर रौनक थी। हलवाई भट्टियों पर कढाव से ताज़ा कढा दूध जमुहाते सर खुजाते गाहकों को कुल्हडों में दे रहे थे। ताज़ा पूड़ी, साग और जलेबियाँ भी उपलब्ध थीं। उधर कुंजड़े माली फल फूल शाक भाजी ले कर पटरियों पर डटे चिल्ला रहे थे, कि ताज़ा मौसमी शाक लेते जाओ!

गलियों में दूध दही के फेरीवाले घूम घूम कर हाँक लगाते थे, दईं लो दईं, छाछ छाछ, दूध लो ताज़ा दूध!

गुरु चेला दिन भर के भूखे थे। दोनों ने बनिये की दूकान से पकाने का कुछ सामान खरीदा। साथ ही उससे शहर की बाबत थाह भी ली। बनिये और गाहकों ने उनको राजा की क्रांतिकारी योजनाओं के बारे में बताया जिनकी तहत नगरवासी दिन भर सोते और रात भर काम करते हैं। और जब पैसे देने चले तो पता चला कि राजाजी के क्रांतिकारी हुकुम की तहत इस शहर में हर सामान की कीमत है बस एक दमड़ी। दमड़ी सेर आटा, दमड़ी सेर दाल, दमड़ी सेर तेल-घी, दमड़ी में हर माल ।

खाना पकाते खाते हुए बुद्धिमान गुरु को लगा कि कुछ तो गड़बड़ है। हाथ मुंह धो कर गुरु ने चेले से कहा, ‘चल बच्चा, यह जगह हमको खतरनाक प्रतीत होती है। आगे कहीं चलते हैं जहाँ दिन का मतलब दिन और रात का मतलब रात हो।

मेरे गुरु कहते थे कि कुटिलाई में सौ पर एक चोर भारी पडता है, हज़ार पर काना, एक लाख पर ऐंचाताना,यानी भेंगा। और ‘ऐंचाताना कहे पुकार, मैं तो गया कंजे से हार।’

इसलिये एक कंजे तथा झक्की राजा के ऐसे राज में हमारा टिकना उचित नहीं जहाँ आल्लेडी रात को दिन और दिन को रात बना दिया गया हो । और हर माल का दाम हो बस एक दमड़ी! कुछ तो गड़बड़ है बेटा, और जान ले कि अभी और जाने क्या क्या अघट घटेगा ।

चेले को यह भाषण नहीं सुहाया। बोला ‘गुरुजी, आप नाहक ऐसे शंकालु हो! इतना सस्ता, सुंदर शहर कहाँ मिलेगा? देखिये न कहीं झगडा न बहसबाज़ी। युवा रात भर बॉडी बनाते हैं। और हम साधुओं को इतने कम में भरपेट खाना मिल गया। गुरुजी, मेरा तो कहीं और जाने को मन नहीं। यहीं टिक कर रुका जाये। आराम से दिन भर सोयेंगे, शाम को दो तीन जन से इतनी भिक्षा मिल जायेगी कि रोज़ सस्ता सुंदर स्वादिष्ट भोजन करेंगे।’

‘मूरख, ‘गुरु बोला, ‘जो भी इतना सुंदर, इतना सस्ता हो, वह कभी टिकाऊ नहीं होता। शहर के लोगबाग दानी ज्ञानी नहीं, परम डरपोक और अपनी ज़मीन जायदाद के मोह की वजह से यहाँ पडे हुए हैं। हम मोहमाया से कोसों दूर रमते जोगियों को इस मुरदों का गाँव बन चुकी बस्ती में काहे टिकना?

कंजे निर्बुद्धि राजा और गंजे महामंत्री के राज में कल क्या हो, किसने जाना? चल!’

गुरु ने बहुत समझाया पर चेला अड़ा रहा। हार कर गुरु बोला, ‘ठीक है, तुझे रुकना है तो रुक। मैं तो चला।’

पौ फटते गुरु चल दिया, और चेला शहर के लोगों की तरह ही पेड़ तले पसर कर आराम करने लगा।

अगले कुछ दिन चेले ने काफी मस्ती की। उसे केले, घी से महकता भात दाल बहुत पसंद थे। एक घंटा भिक्षा मांग कर रोज़ाना छक कर भरपेट केले, घी से महकता भात और दाल खाता। फिर चारेक कुल्हड़ दूध पी कर ऊँघता। होते होते वह साँड सरीखा मुटाता गया। पेड़ तले लेटा लेटा वह अक्सर सोचता, भला किया जो उसने गुरु की न मानी। वरना वह भी उनकी तरह भूखा प्यासा थके पैरों से जंगल पहाड़ नापता होता।

पर सुशासन के चिराग तले भी अंधेरा तो बना रहता ही है। एक दिन भर दोपहरी में जब शहर सोता था, एक चोर नगरसेठ के घर में घुसा। भीतर से भरपूर माल मत्ता ले कर वह भागने को था कि नगरसेठ के परिसर की पुरानी पत्थर की दीवार ढह गई। और निकलने से पहले ही चोर दीवार के नीचे माल समेत दब कर मर गया।

जब रात हुई और लोग जागे तो शहर में हल्ला मचा कि हाय नगरसेठ की कोठी की मुई दीवार तले पिच कर चोर मर गया।

चोर का बड़ा भाई धडधडाता हुआ राजा के दरबार में न्याय मांगने जा पहुंचा। बोला ‘हम खानदानी चोर हैं सर, और चोरी हमारा पारंपरिक धंधा है हुज़ूर। एक तो वैसे ही रात के दिन बन जाने से हमारा सेंधमारी का काम मंदा पड रहा था, तिस पर आज हमारा एक हुनरमंद सरगना नगरसेठ के घर के परिसर में मारा गया है। हमारे बाप दादों के हुनर बचाइये। मेरे भाई चोर को जिस दीवार ने दबाया है, उसके मालिक को पकड़ कर सज़ा और हमको हमारे भाई की मौत का मुआवजा दिलवाया जाये।’

समुदाय विशेष की भावनायें आहत हो गईं हैं, राजा बोले। बिलकुल, महामंत्री ने कहा।

फिर कंजे राजा तथा गंजे महामंत्री ने चोर को भरोसा दिलाया कि उनकी बिरादरी को जल्द से जल्द न्याय मिलेगा। और चोर की मौत की वजह बनी दीवार के मालिक को कड़ी से कड़ी सज़ा दी जावेगी।

अब चोर की मौत के आरोपी नगरसेठ को तलब किया गया। सेठ काफी समय से बीमार चल रहा था फिर भी उसे अधमरी दशा में ही चारपाई पर धर कर दरबार में लाया गया।

‘जब दीवार गिरी तब तुम कहाँ थे?’ राजा ने पूछा।‘

‘दिन का टैम था सर, सबकी तरह मैं भी दवा खाकर सो रहा था । मुझे क्या पता कि दीवार कब कैसे गिर गई । वैसे सर, यह दीवार बहुत पुरानी, मेरे बाप के वक्त की है । मेरी बजाय तो जिसने इतनी कमज़ोर दीवार बनाई उस मिस्तरी को सज़ा मिलनी चाहिये।’

कंजा राजा गंजा महामंत्री सहमत हुए। समरथ को नहिं दोष!

अब दीवार चिननेवाले राज़ मिस्तरी को हाथ पैर बंधवा कर बुलाया गया। वह अब तक बहुत बूढा हो चुका था। पीठ झुक कर कमान बन गई थी। हाथ पैर कांपते थे।

लरजती आवाज़ में बूढा गिडगिडा कर जो बोला उसका सार था कि उसे भली तरह याद है जब वह यह दीवार बना रहा था, तो उस समय खुद वह बीसेक बरस का बाँका जवान था। गुलाबी जाड़े का मौसम था, और त्योहार से पहले दीवार पूरी करनी थी। पर तभी उसका ध्यान लगातार कुछ भटकने लगा। वजह ये, कि कुछ दिनों से नगर की जानीमानी वेश्या, बी छमकछल्लो अपना रेशमी लंहगा घुमाती हुई दीवार की साइट के पास से लगातार गुज़रने लगी थी।

‘अब हुज़ूर मरद इंसान हूं। चढती जवानी में हमरे बगल से कोई घाघरा जो घूम्यो, तो आप जानो राजा हो कि राज मिस्तरी, आंख कहीं जाती है, हाथ कहीं जाता है। हो सकता है कि उन घडियों में हाथ हिल जाने से चूने गारे के मिक्स में पानी कमती या बेशी हो गया होगा, जिसकी वजह से चहारदीवारी पुख्ता नहीं बन पाई हो।

‘पर हुज़ूर अगर ईमान से जाँच हो तो मेरा ध्यान भटकाने की गलती तो वेश्या की ही साबित होगी।’

‘सही है,’ राजा बोले, ‘ॠषि मुनि हों कि राजा या राजमिस्तरी, सभी किंवदंतियों के अनुसार मरदों की हर गलती की असली वजह हमेशा कोई न कोई औरत ही होती है।

महामंत्री ने हाँ में हाँ मिलाई, ‘बिलकुल सही फरमाया, तिस पर वह औरत एक वेश्या हो तब तो कोई शक की गुंजाइश ही नहीं।’

‘मामला काफी गहरा है। पता करो कहाँ है वह मोहतरमा? पकड़ बुलाओ उसे।’ हुकुम हुआ।

अगले दिन थर थर काँपती बी छमकछल्लो दरबार में हाज़िर की गईं। हाय रे बुढापा! कभी मादक रहा उसका रिझानेवाला भरापूरा बदन अब ढल चुका था। कभी हिरनी सी रही पर अब चुंधियाई आंखों में सुरमा भी चमक नहीं लाता था। हर गली के रसिया कभी उसका गाना सुनते न अघाते थे, पर अब शहर के सबसे सुरीले रहे बी के गले में बुढापे का घुंघरू खनकने लगा था।

’सच सच कहो,’ राजा ने कडक कर कहा,’जब ये मिस्तरी, जो तब एक बाँका नौजवान होता था, नगरसेठ की चहारदीवारी बनाता था, तो तुम जान बूझ कर इसके करीब से कुछ दिन तक बार बार गुज़रती रहीं या नहीं?’

‘बोलो!’ महामंत्री गरजे ।

कई पुरानी कहानियां बी छमकछल्लो की सुरमेदार किंतु चुंधियाई आंखों में एक साथ कौंध गईं।

‘हाँ हुज़ूर भली तरह याद है,‘ वह बोली। ‘पर अन्नदाता, मेरे बार बार उस गली से गुज़रने की वजह भी सुनें। हुआ ये था कि गली के नुक्कड़ पर जो नाथू सुनार बैठा करता था उसको मैंने अपने लिये एक जोड़ी कंगन बनाने की खातिर पाँच तोला सोना दिया था। हुनरमंद तो था, पर बड़ा ढीला था कमबख्त। जब कभी गहना गढने को दो, तो बार बार अपनी दूकान के चक्कर कटवाता था हमसे।

‘पर त्योहार का बखत था। कमाई का समय। सो हुज़ूर जाना भी तो ज़रूरी था न? क्या पता नाप जोख ठीक से करे न करे? टैम पे दे न दे? अंय?

‘सारी गलती उसी मुए सुनार की है। न वो मुझसे इतने चक्कर लगवाता, न इस गरीब मिस्तरी का ध्यान भटकता, न गारे चूने में पानी कम बेशी होता, न दीवार गिरती, न चोर दब मरता।’

‘मोहतरमा की बात में दम है,’ राजा महामंत्री से बोले। महामंत्री ने भी सहमति में गोल हंडे जैसा सर हिलाया, बजा फरमाया हुज़ूर, अब जाके असली अपराधी की शिनाख्त हुई है।’

आनन फानन विशेष सिपाही दस्ता जा कर बूढे नाथू सुनार को पकड़ लाया।

आरोप सुन कर नाथू रोने लगा: ‘हुज़ूर, बी छमकछल्लो मेरी पुरानी गाहक हैं, सो झूठ नहीं कहूंगा कि मुझे उनका गहना गढने में देरी लग गई। पर वजह यह थी कि त्योहार का टैम था और मेरे सबसे बड़े गाहक लंदानी सेठ की रखैल का हार मुझे छमकछल्लो बी के कंगनों से पहले फिनिश करना था।

‘बडा प्रेशर था हुज़ूर मुझ गरीब पर। आप तो जानो हो जित्ता बडा सेठ उत्ता ही अधीर होता है। और गुस्सा तो उनकी नाक की नोंक पर धरा रहता है। अब आपै कहें, त्योहार सर पर हों, तो मुझे अधैर्यवान लेकिन मालदार लंदानी सेठ की रखैल और छमकछल्लो तवायफ में से प्रायरिटी किसे देना था?’

‘अरे नगरसेठ बडा आदमी होता है। यह भी कोई पूछने की बात है? पहले उसी का काम होना चाहिये।’ राजा बोले।

‘मैं होता तो मैं भी पहले सेठ का ही हार बनाता।’ महामंत्री बोले ।

‘लेकिन वह सेठ भला था कौन?’ राजा ने पूछा। पता चला वह मौजूदा नगरसेठ का बाप था जो कि अब तक गोलोकवासी हो चुका था। राजा बोला, ‘मुझे तो एक नज़र में तुमको देखते ही पता चल गया था कि हो न हो, उस दरिद्र चोर की हत्या में उसका कोई न कोई हाथ अवश्य होगा।’

‘हुज़ूर अंतर्यामी हैं।’ महामंत्री बोला।

यानी मामला घूम फिर कर वहीं आ पहुंचा जहाँ से चालू हुआ था। नगर सेठ को दोबारा बुलवाया गया। राजा बोला, ‘शेठ, अब तक यह तय हो गया है कि गलती तुम्हारे बाप की थी जो अब नहीं रहा। तुम्हारी हालत भी हमको खराब ही लगती है।’

‘लीवर का पुराना रोगी हूं सरकार अब तो हालत ये है कि छाछ तक नहीं पचती।’ सेठ गिडगिडाया। वह सचमुच मरणासन्न था। पर राजा का न्याय अपनी जगह डटा था। ‘आज तुम गंभीर रूप से बीमार हो भी तो क्या? जब बाप कर्ज छोड कर मरते हैं, तो उनको बेटा चुकाता है। तुमने विरासत में बाप की गद्दी हासिल की है, तो उनके अपराध का हिसाब भी तो तुम्हीं को चुकता करना होगा।’

‘महामंत्री बोले ,’धन्य राजा का न्याय !’

न्यायिक फैसला आते ही एक सूली तैयार की गई जिसको समारोह के साथ नगर के चौक पर रखा गया ताकि अपराधी को जनता के सामने फाँसी दी जा सके। महामंत्री ने रातों रात मुनादी भी करा दी कि अमुक दिन नगरसेठ को चोर की मौत के जुर्म में सूली पर टाँगा जायेगा।

ऐन समय अचानक एक दिक्कत पेश आई। वह यह, कि सूली तनिक मोटी बन गई थी जबकि नगरसेठ बडा ही दुबला पतला था। सूली पर चढते ही सूखी तोरई जैसा लटक कर मर सकता था। ऐसा हुआ तब तो खेल मिनटों में खतम हो जायेगा और मज़ा नहीं आयेगा न ही पबलिकसिटी होगी। पबलिक को तो धीमे धीमे खूनी बनती नाटकीय मौत ही खींचती है। जनजुड़ाव के लिहाज़ से राजाजी की मौजूदगी में एक दुबले मरघिल्ले इंसान के मरने का चित्र कोई बहुत ध्यानाकर्षक नहीं बनेगा। महामंत्री ने सोचा।

अब?

स्थिति को देखते हुए तय किया गया कि कोई निगरगंड मोटा खोज कर उसे फाँसी दी जाये ताकि जनता रात भर सकून से उसे तड़प तड़प कर दम तोडता देख सके। इससे प्रजा के दिलों में राजा के प्रति भक्ति और प्रेम के रंग और भी गहरे हो जायेंगे।

खोजते खोजते सिपाहियों को पेड़ तले पसरा मोटा तगड़ा चेला मिल गया। उसे रस्सी से बाँद कर घसीटते हुए ले चले ताकि नगरसेठ की जगह उसे राजाजी द्वारा उद्घाटित सूली पर चढा कर एक न भूलनेवाला नयनाभिराम चित्र जन मन में बनाया जा सके।

चेले ने अंत निकट जान कर गुरु को याद किया। कहाँ हो गुरु जी, अब आप ही मुझे बचा सकते हैं। वह चीखा।

घट घटव्यापी दीनदयालु गुरु सारा राग-विराग तज कर चेले को बचाने तुरत उड़ते हुए आकाश मार्ग से उतर आये। चेले ने रो रो कर उनको सब बताया। गुरु ने उससे कहा वह फिकर न करे। वे सीधे वहाँ गये जहाँ राजा और महामंत्री खडे थे। ’महाराज,’ गुरु बोले ‘आज्ञा हो तो मृत्यु से पहले दो क्षण अपने चेले से बात कर लूं? उसकी अंतिम इच्छा है।’

आज्ञा मिली। गुरु चेले को कुछ दूर झाडियों में ले जा कर बोले। ‘अकल के दुश्मन, जान बचानी है तो अब मैं जैसा कहूं तू कर। यहां से हम दोनों ‘पहले मैं, पहले मैं’ कहते हुए लड़ने का नाटक करते हुए निकलेंगे। चल।’

जब झाड़ी के पीछे से गुरु चेला लड़ते हुए निकले। सब चकित हुए माजरा क्या है? रोने धोने की बजाय झगडा?

राजा बोले, ‘बात क्या है? क्यों झगडते हो?’

गुरु बोले, ‘महाराज मैं ज्योतिष जानता हूं। दरअसल मैने पंचांग में देखा कि आज एक दुर्लभ ग्रहयोग बन रहा है। आज के दिन इस नई पवित्र सूली पर जो पहले मरा, वह अगले जनम में इस देश का राजा बनेगा और दूसरे नंबर पर सूली चढनेवाला उसका महामंत्री। यह मुहूर्त इस सदी में दोबारा नहीं आयेगा। इसलिये निवेदन है, कि राजा जी इस मुटल्ले का गुरु होने के कारण पहले मुझे सूली पर चढायें, फिर इसे।’

राजा और महामंत्री परे हट कर मंत्रणा करने लगे। ऐसा मुहूर्त दोबारा नहीं आयेगा कंजे और गंजे दोनो ने सोचा। तब उसका फायदा ये दो गुरु चेले काहे ले लें? अंय?

राजा को बीस साल हो गये थे राज करते, महामंत्री को भी पद पर बीस बरस हो गये थे। इस बीच दोनों के बाल पक गये थे, दाँत टूटने लगे थे, गालों पर झुर्रियाँ और आँख तले गढे पड चुके थे। दोनो की राय हुई कि क्यों न चुस्त नये रूप में शासन का सेकंड टर्म पाने के लिये वे दोनो एक एक कर सूली पर चढ जायें? योजना बन गई। जनता से मुखातिब हो कर राजा ने वधिकों से कहा, कि अब सूली दोपहर को दी जायेगी और दोनों अभियुक्तों को मुखौटा पहना कर भेजा जायेगा।

सुबह हुई। जनता सोई हुई थी। राजा और महामंत्री मुखौटा पहन कर निकले और सिपाहियों से घिरे घिराये हंसते हुए सूली चढ गये। कुछ घंटों बाद जब अपराधी राजवैद्य द्वारा मृत घोषित कर दिये गये तो पता चला कि ये तो कंजे राजा जी और गंजे महामंत्री जी थे।

अब अचानक सबको लगा कि राजा तथा महामंत्री दोबारा जनम लेकर वयस्क हों इस सब में तो बीस साल निकल जायेंगे। तब तक देश कौन चलायेगा? सबने हाथ खड़े कर दिये। निर्बुद्धि राजा के रहते सारी प्रजा निर्बुद्धि बन चुकी थी। ज्ञान तो बस गुरु चेले में ही बचा था।

तब कुछ सयाने लोग गुरु चेले के पास राज काज संभालने का अनुरोध करने को भागे गये। पहले तो दोनो ने काफी ना नुकुर की, फिर जनहित के नाम पर राजकाज हाथ में लेने को राज़ी हो ही गये। पुराने राजा और महामंत्री की देही नगर के बाहर कौवों कुत्तों के खाने को फेंकवा दी गईं और गुरु राजा और चेला महामंत्री बन कर दरबार की शोभा बढाने लगे।

पहली घोषणा की गई। दिन फिर से दिन हो गये, रात दोबारा रात। दूसरी घोषणा कि दमड़ी का चलन बंद। दामों की तालिका बना कर सबको दे दी गई। भूल चूक लेनी देनी।

जैसे उस राज के दिन बहुरे। तैसे सबके बहुरें।

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