अंधेरा (उड़िया कहानी) : सरोजिनी साहू
Andhera (Oriya Story) : Sarojini Sahu
मैंने अनेक बार कुसुना (चावल वाली देसी दारु) पी है।
भूजे हुए चनों के साथ कुसुना।
सूखी चिंगुडी मछलियों के साथ कुसुना।
बरसाती कीड़ों के साथ कुसुना।
हर बार मैने उसको मना किया, तू कुसुना बनाना बंद कर। नशा केवल आदमी को नहीं, बल्कि पूरे समाज को खा जाता है। दारु बनाना छोड़कर अनेक ऐसे काम है जिसे तुम कर सकती हो। सिलाई कर सकती हो, चटाई बुनने का काम कर सकती हो, मिट्टी खोदने का काम कर सकती हो, मजदूरी का काम कर सकती हो, धान रोपने का काम कर सकती हो, पत्थर काटने का काम कर सकती हो, बीड़ी बांधने का काम कर सकती हो, मगर कुसुना बनाना बंद कर दे।
उसने मेरी सारी बातें सुनी, मगर कुछ भी नहीं बोली।उसमे जैसे दारु बनाना छोड़कर दूसरे अन्य काम करने का साहस ही नहीं था, उसकी आंखों से यह साफ-साफ झलकता था। फिर भी वह कहने लगी, वह सिलाई-बुनाई या पत्थर तोड़ने का काम भले ही कर लेगी, मगर यह गंदा काम और कभी नहीं करेगी।
मेरे लिए क्या? मैं तो उस गांव की रहने वाली नहीं थी, आज इस गांव तो कल उस गांव रिपोर्ट तैयार करना मेरा काम था। शिशु-मृत्यु अनुपात,अनाहार मृत्यु, बच्चें बेचना, गरीबी रेखा के नीचे के लोगों का हिसाब, कितने मलेरिया-ग्रस्त तो कितने कुपोषण के शिकार। भूखे लोगों का मैं फोटो उठाती थी। झुर्री पड़े कपाल पर दुर्भाग्य की रेखा स्पष्ट दिखाई देने वाले बुजुर्गों के फोटो खींचती थी। मेरे लिखने वाले खाते में सभी का ठीक-ठीक हिसाब रहता था। इस गांव से उस गांव लौटकर आते समय मैं देखती, सुखनी को दिए हुए सारे रंगीन धागे ज्यों के त्यों पड़े रहते। बेग बुनने के लिए दिए नए कपड़ों को वह कुसना हांडी को ओढ़ा देती थी। चटाई बुनने के लिए दिए पैसों से वह चावल खरीदती, सूखी मछलियां और रानू (कुसुना तैयार करने के लिए उपयोगी द्रव्य) खरीदती।
मैने उसको खूब गाली दी। तुम लोग अपने सात जन्मों में भी मनुष्य नहीं बन सकते हो। तुम लोगों को दूध में नहला देने या शहद लगाकर साफ कर देने से भी अपनी आदतों से बाज नहीं आओगे। वह उत्तर दिए बिना ही हीं- हीं कर हंसने लगी। उसकी उस हंसी से शरीर में मानो रोंगटे खड़े हो जाते थे। हंसना भी इतना भयानक हो सकता है! जिसने यह बात नहीं सुनी हो उसके लिए तो अंदाज लगाना भी नामुमकिन है। देखने में उसका चेहरा अच्छा नहीं है, काले-कलूटे चेहरे पर दिखाई देते टूटे-फूटे, टेडे-मेड़े दांत। यदि मैं उसको पहले से नहीं जानती या देखा नहीं होता तो डर से मैं अपना रास्ता बदलकर भाग जाती।
गांव के अधिकांश लोगों के घर मैं जाती थी। वे सभी मुझे प्यार करते थे। मेरा आदर सम्मान करते थे। वास्तव में मैने किसी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया है, तब मुझे खराब गिनने का कोई कारण ही नहीं था। जो भी हो, मेरा सुखनी के घर जाना कोई पसंद नहीं करता था। वह अकेली औरत थी। उसके आगे-पीछे कोई भी नहीं, तब उसको पसंद नहीं करने के क्या कारण हो सकते है? मुझे आश्चर्य होने लगा। सर्वे रिपोर्ट लेते समय मेरी उसके साथ की गई बात-चीत। मैने पूछा, “पति?”
“नहीं है।”
“नहीं है मतलब मर गए हैं।”
“वह काम ढूंढने गए हैं।”
“काम खोजने? मजदूरी करने? बंधुआ मजदूर बनकर? कहां?”
“मुझे नहीं मालूम।”
“सास, ससूर,लड़के, लड़कियां ?”
“मर गए हैं।”
“कौन- कौन मर गए हैं, सही- सही बताओ।”
“सास मर गई है, ससुर मर गया है, बच्चें मर गए हैं।”
“तुम्हारा और कौन-कौन हैं?”
चुपचाप बैठी रही सुखनी। मेरी बात का जबाव नहीं दिया उसने। मैं उस दिन लौट आई थी,एक किलोमीटर छोटी-छोटी झाडियोंवाले जंगल को पार करके मुख्य रास्ते पर दिन के तीन बजे आखिरी बस पकड़ने के लिए और शहर लौटने पर उस सीधी-सादी औरत के चेहरे और उसका निर्विकार व्यवहार भूल नहीं पा रही थी। उसके भीतर का अकेलापन मानो एक बहुत बड़ा रहस्य हो। या फिर उसके बात-चीत करने का ढंग? किसी भी अकेली औरत का गांव में गुजर-बसर करना बहुत ही कष्टकर था। फिर उम्र भी कितनी? अधिक से अधिक पचीस से तीस के अंदर होगी भी या नहीं। शहर होने से कहीं न कहीं पेट भरने का काम मिल जाता। शायद गांव के खेतों में काम करती होगी मगर पूछने पर उत्तर नहीं मिला। पति बंधुआ मजदूर होकर कहीं गया है और लगता है फिर कभी नहीं लौटा। उसी समय अचानक मन में वह दृश्य सामने आ रहा था, अंधेरे घर के अंदर चूल्हे के अंदर धधकती आग कई लपटें दिखा रही थी। घर के अंदर दम घोटने वाला काला धुंआ, खपरैल की फांक से बाहर निकलता धुंआ और बरामदे में पांव पसार कर बैठी एक औरत निर्विकार भाव में। “सास मर गई, ससुर मर गया, बच्चें मर गए।” मानो जैसे उसे कोई शोक नहीं, दुःख नहीं। वह पत्थर की मूरत हो जैसे।
मुझे क्या? मेरा तो घुमक्कड़ जीवन। केवल तथ्य इकट्ठा करने का काम। तथ्य-संग्रह करके शहर के किराये के मकान में बैठकर केवल रिपोर्ट लिखने का काम। आज इस जिले में तो छह महीने बाद और किसी दूसरे जिले में। अभी मुझे पांच गांवों में घूमना पड़ता है। हमारे मेस के क्रांति और सूरमा मेरे इस काम को बहुत पसंद करते हैं। कहते हैं कॉलेज पूरा होने के बाद हम दोनो तुम्हारे साथ जाएंगे।
सुखनी ने चार कटोरी कुसना पी लिया और अपने भीतर के निबुज घर में नहीं रह सकती थी। वह उल्टा-पुल्टा बकवास करना प्रारंभ कर देती थी। उस दिन लौटने से पहले कौतुहलवश मैं उसके घर गई। उसके घर मेरा जाना किसी को पसंद नहीं था, इस वजह से उन्होंने अपने- अपने रास्ते पकड़ लिए थे। मैने उसके बरामदे में खड़े होकर आवाज लगाई, “सुखनी घर में हो?”
वह अपने घर के भीतर से बाहर आई और मुझे देखकर हंसने लगी। उसकी हंसी आकर्षक नहीं थी, वरन बहुत ही भयंकर थी। निशब्दता में उसकी हंसी इतनी भयंकर होगी, इस बात का मुझे तब तक अंदाज न था।
तुरंत भीतर जाकर उसने एक कटोरी कुसुना लाकर बरामदे में रख दिया।
“तेज धूप में आ रही हो, पी लो जरा। प्यास मिट जाएगी।” वह कहने लगी।
“धत्! क्या कह रही हो मैं दारु-वारु नहीं पीती हूं। उठा, उसको उठा यहां से।”
“यह दारु नहीं है, कुसुना है। पीकर देखो। तुम्हारे शरीर की थकान उतर जाएगी।” सुखनी ने कहा- “मेरे घर में चाय नहीं है, पखाल भी नहीं है, साग-सब्जी नहीं है। मेरे घर आकर इस तरह बिना खाए जाओगी?”
“मुझे नशा नहीं होगा?” मैने डरकर उससे पूछा। वह ऐसे हीं हीं कर हंसने लगी, जैसे सर- सर करते सांप पास में से चला गया हो।
“तुम नहीं पीओगी तो मैं पी लूंगी, हो गया?” कहते-कहते एक ही घूंट में एक कटोरी कुसुना सुखनी पी गई। पहले की तरह यह औरत इतनी गंभीर नहीं थी, बल्कि वाचाल की तरह जो-तो मुंह में आ रहा था, बोल रही थी, “तुम्हारा नाम किसने सुखनी दिया था” मैने पूछा था।
“मेरा नाम किसने सुखनी सोचा था? नाम था गंधर्वी। बचपन में मां-बाप मर गए थे। हम तीन छोटी-छोटी बहिनें थी। मेरी एक बहिन मेरे से तीन साल बड़ी। मुझसे छोटी एक बहन। बड़ी बहिन ने बहुत कष्ट से मजदूरी कर हमारा पालन-पोषण किया। लोगों ने उसे कहा दुखनी। मैं किसी के भी घर मजदूरी करने नहीं गई। घर पर रहकर घर का काम करती। लोगों ने मुझे कहा सुखनी। और मेरी छोटी बहिन राऊरकेला जाकर एक बाबू के घर काम करने लगी। वह उनके घर में बेटी बनकर रह गई। लोगों ने उसका नाम दिया बुधनी।
मेरी दीदी ने शादी-ब्याह नहीं किया और बूढ़ी हो गई। बुधनी की कब शादी हुई, पता नहीं। और मेरा नाम जिसने सुखनी दिया- ‘देख रहे हो मैं कितनी सुखी हूं?’ कहते-कहते खिखियाकर हंसने लगी सुखनी।
“तुझे आज बहुत नशा हो गया है, मैं जा रही हूं कहकर उसके बरामदे से मैं उठ गई, वह मेरा हाथ पकडकर कहने लगी, बैठो जरा, इतनी क्या जल्दी है?”
उसके मुंह से भयंकर बदबू आ रही थी। मुझे उबकाइयां आने लगी। मैने उसे कहा, “नहाती-धोती नहीं हो। साफ-सुथरे कपड़े भी नहीं पहनती हो। छिः। कितनी बदबू आ रही है तुम्हारे शरीर से। दूसरी बार जब आऊंगी तब तुम मुझे साफ-सुथरी दिखाई देनी चाहिए।”
“दूसरी बार जब आओगी तो मेरे लिए माचिस की डिबिया लेते आना” सुखनी ने कहा।
“क्यों? तुम्हारे यहां अखंड धूनि जल रही है।” उसके चूल्हे की तरफ हाथ दिखाकर मैने कहा।
“माचिस की तीलियां नहीं है तभी तो आग रखनी पड़ती है।” सुखनी ने कहा। यहां की औरतें बहुती कपटी है। मुझे थोड़े -से अंगारे भी लेने नहीं देती है।
सुखनी के घर से कुछ ही कदम आगे निकली ही थी कि पूतना बूढ़ी और परी ने आवाज लगाई। ये दोनों ही आदिवासी गाव की अनुभवी औरतें थी। मुझे जो कोई खबर या तथ्य चाहिए होता इन दोनों से प्राप्त होते थे। गांव में सवर्ण जातियों के कई घर थे, मगर उनका अलग साम्राज्य और इनका अलग।
“उस गंदी के घर से कुसुना पीकर आ रही हो बहिन जी?” पूतना बूढ़ी ने पूछा।
“नहीं, नहीं किसने कहा?”
“मुझे नहीं पता है क्या? तुम उसके बरामदे में नहीं बैठी हुई थी? कुसुना कटोरी पड़ी हुई नहीं थी ?”
“तो?”
“देखकर चलो, ओ, बहिनजी। फिर मत कहना पूतना ने नहीं कहा था।”
“क्यों नहीं जाऊंगी उसके घर को, पूतना?” मैने पूछा।
परी ने मेरे प्रश्न का उत्तर दिया, “देख नहीं रही हो, ठूंठ की अकेली औरत कैसे बैठी हुई है। गांव से औरत-आदमी मिलाकर पचीस, तीस गए, रास्ता बनाने की हैसियत से। वह नहीं गई क्यों? न उसके आगे न उसके पीछे, गोद में लेने के लिए बच्चे तक नहीं, मजदूरी करके दो पैसा नहीं कमा सकती? घर के भीतर अकेली बैठी रहती है, तब उसे पैसा-कोड़ी कहां से मिलता है जो अपना घर चलाती है? तुम तब भी नहीं समझोगी तो क्या बताऊं?”
तुम्हें भी पता चल जाएगा, बहिन जी। और कुछ दिनों के बाद बता चलेगा।” पूतना ने कहा था। उस गांव में मैं कभी रात नहीं रुकी। यू.पी. स्कूल की मास्टरणी पवित्रा पटेल और मैं साथ- साथ लौटती थे बस पकड़ने के लिए। हल्का-हल्का जंगल पार करके आते समय सारे रास्ते पवित्रा पटेल मेरे काम, मेरे घर, पिता,भाभी इत्यादि की बात पूछते-पूछते चलती थी। वह नहीं समझ पाई थी कि मेरे घर में आर्थिक असुविधा नहीं होने पर भी मैं सीधे इस फालतू काम के लिए इतने दूर क्यों आती हूं। वह कहती थी, यह अच्छा गांव नहीं है। हर समय सवर्ण हरिजनों का न होने से आदिवासी और सवर्णों के बीच लड़ाई -झगड़ा चलता रहता था।जिसके अलावा इस अंचल में नक्सलवादी भी घुस आए हैं।
“वास्तव में?”
“तुम जो खबरें इकट्ठा करती हो, क्या करोगी? तुम क्या अखबार वाली हो?”
उसके पास उसने मेरे हाथ देखकर कहा, इस हाथ पर दाग कैसा? डायन के हाथ पर खोखला तिनका लगाकर खून पी जाने जैसा।
मैं हंसने लगी थी। बस आने पर हम उसमें चढ़ गए थे। उसे सीट मिल गई थी, मुझे नहीं। वह अपने हिस्से की जगह में से मुझे आधी जगह दे रही थी। मैने मना कर दिया। हम दोनो मुश्किल परिस्थिति में होने की वजह से और बात नहीं कर पाए।
बचपन से ही मुझे एडवेंचर अच्छा लगता था। कुछ कर दिखाने का जज्बा हर समय मन में लगा रहता था। अगर मैं यह काम नहीं करती तो हिमालय चढ़ जाती। अगर हिमालय पर नहीं चढ़ती तो इंगलिश चैनल पार कर लेती। पैराशूट से नीचे उतरती अथवा बिना पानी पीए जिंदा रहती। अगर कुछ भी नहीं होती तो एक बहादुर लेखिका तो जरुर बनती। ये सारी बातें मैं सोच रही थी, मगर मैं पवित्रा पटेल को कह न सकी।
शिक्षिका के रुप में इसी बीजापाली उच्च प्राथमिक स्कूल में पढ़ाती थी पवित्रा। सुंदरगढ़ से आना-जाना करती थी। उसका आदमी बाजार में व्यापारियों को बैंगण, मूली, गोभी, बेचता था। वे किसी एक जगह बैठकर नहीं रह सकते थे। पवित्रा पटेल ने कहा था। किसी भी काम को करने में शर्म-लाज नहीं आती थी। लड़कियों को पढ़ाना हो, पुलिस हो या नर्स, शिक्षिका हो या आंगनवाडी सुपरवाइजर, जो नौकरी,काम मिलता, वे लोग करते। पवित्रा ने कहा था कि सरकार और उसकी नौकरी को स्थायी नहीं करेगा। फिर भी लाभ है। शिक्षिका होने के नाते ट्यूशन से पांच हजार रुपयों की कमाई हो जाती है।
सुखनी ने मगर इसके विरपीत कहा था। तुम मुझे रास्ता बनाने के काम में जाने के लिए कह रही हो, रुपयों से मेरा क्या होगा? कितने पेट पालने हैं? एक पेट तो है? दो पत्ते बीनने से तो पेट भर जाता है। इतना ऊपर नीचे करने से क्या फायदा? तुम नहीं जानती हो कि वहां जो ठेकेदार है, उनका मुंशी है, रोलर-ड्राइवर है, हेल्पर है, इंजिनियर है, ये लोग इस गांव के भेड़िए हैं। एलेनी (एलएंटी) रोड होने पर गांव की सारी जवान लड़कियों के पेट में किस-किस का बच्चा आया, किसी को पता नहीं चला। कैसे कहेंगे, स्वयं तक नहीं जानते थे कि कौन उसके बच्चे का बाप है।
“ तुझे भी? क्या कह रही है तू”- हंसते-हंसते मैने कहा था।
“मैं देखने में सुंदर नहीं हूं, कह रही हो, बहिन जी? इन मर्द लोगों का क्या है? मुंह पर गमछा बांध देने से चेहरा फिर दिखता है क्या? मेरा घरवाला और क्या करता था?”
सुखनी से बातचीत करने के लिए उसे कुसुना पीना पड़ता है। उससे बात करने के लिए यह अपराध भी मैने किया। जबकि उसका आदमी कहीं मजदूरी करने गया और उसके बाद उसके देवर की भी कोई खबर नहीं। कुसुना से उसका लगाव। उसकी प्यास बुझती है। उसकी भूख मिटती है। मैने उसको चार कटोरी के बदले में छह कटोरी पीने के लिए उकसाया, फिर भी उस रहस्यमयी औरत को जान नहीं पाई। वास्तव में वह रहस्यमयी थी या लोगों ने उसे रहस्यमयी बना दिया था, पता नहीं था।
“तुम कहां जा रही हो, बहिनजी? बैठो, मेरी कहानी तो सुन लो। मेरा आदमी भी ऐसा ही था। मेरा चेहरा उसे खराब लगता था इसलिए मेरे मुंह को गमछे से ढक लेता था। बिसिन और बलराम के साथ कहां गया कि और फिर नहीं लौटा। बूढ़ा - बूढ़ी, देवर, पेट के बच्चों - सभी का भार मेरे कंधों पर आ गया। मैने भगवान से प्रार्थना कि मुझे संसार से उठा ले। मेरे बच्चे भूख से तड़प -तड़पकर मर गए।
बूढ़ा- बूढ़ी दोनो का उदास मुंह देखा नहीं जाता था। उस दिन चौदह-पन्द्रह वर्ष का नौजवान लड़का अगरिया घर की बकरी चराने गया था। लोगों के खेतों में मैं मजदूरी करने जाती थी। भूख से तड़पते बूढ़ा-बूढी दोनो जंगली कुकरमुता खाते थे। दिनभर वमन करके मेरे आने समय मर गए थे। मुहल्ले वाले घर में घुस गए थे। कहने लगे, मैने बूढ़ा-बूढी को खा लिया है। पेट में आग लगी थी, कहकर बूढ़ा-बूढ़ी ढूंढ करके मेरी सिंदुरी मुंह वाली देवी को भी तितर बितर कर दिया था। पोटली में दो मुट्ठी चावल थे कुसना बनाऊंगी सोचकर हाट से एक नई हांडी लाई थी। सब कुछ इधर-उधर बिखेर दिया था।”
“बहिन जी, कहिए तो मैं क्यों तंत्र करूंगी?”
“हे भगवान !” मैने कहा था। मनुष्य कैसे शैतान बनता है और कैसे भगवान, उसे मैं समझ गई थी। पूतना बूढ़ी का मंतव्य अब मेरे सामने स्पष्ट होने लगा था। सुखनी का एकाकीपन और विवशता अब मुझे स्पर्श कर रही थी। उसके एकाकीपन के अखंड धुनि का प्रतीक जैसे उसके चुल्हे में धधक रहा हो, थोड़ी -सी आग बनकर। राख से ढकी हुई आग की कई लपटें अभी भी उसके जिंदा रहने की सूचना दे रही हो जैसे। समय- असमय जिंदगी जिस प्रकार कुरुपता भर देती है जीने के रास्ते में, जिसको हटाने की शक्ति मानो किसी में न हो। वह जैसी हालत करके आई थी या नशे के कारण उसके पास बैठना संभव नहीं था, वह दीवार के सहारे बैठे-बैठे ढुलक गई थी। मैने उसे दस रुपए दिए और कहा, “कुसना नहीं पीना। भात- भूजा खाना।” उसने पैसे लेकर कमर में खोंस लिए।
मैं जानती थी सुखनी के घर मेरा आना-जाना गांव के अधिकांश लोगों को पसंद नहीं था. मानो मेरा जैसे किसी अपराधी के साथ संपर्क हो, उसी प्रकार संदेह और अविश्वास की आंखों से वे लोग मुझे देखते थे। गांव में कुछ संपन्न परिवार भी थे, उन्हें छोड़कर मैं इस मूर्ख अशिक्षित औरत के पास क्या करती हूं?, जो हफ्ता, दस दिन में उसके पास आ जाती हूं।
अपनी तरफ से आत्मीयता दिखाते हुए एकाध आदमी मुझे उपदेश देने नहीं आएँ हो, ऐसी बात नहीं थी।
“आप नहीं जानती हो, सुखनी का देवर क्यों नक्लववादियों के साथ मिल गया?”
“तो?” मेरे दृढ़ स्वर ने उसी क्षण उनको संकुचित कर दिया। मेरे मन में आया कि वे लोग झूठी कहानी बना रहे हैं। उन्हें आश्चर्य होने लगा कि मैं नक्सलवादियों के नाम से डर क्यों नहीं रही हूं।
वह अगरिया घर की बकरी चराता था। कलकत्ता से बकरी लाकर अनलोड होने से छह दिन पहले राजगांगपुर के पठान आकर बकरी खरीदते समय इस बाबू ने छुपकर एक बकरी पार कर ली थी। अगरिया ने उसे रस्सी से बांधकर पीटा था। मार खाते समय उसने पत्थर का एक टुकड़ा उठाकर फेंका था, जिससे गांव के मुखिया का सिर फूट गया था और वह बेहोश हो गया था। लोगों ने उसे दौड़ाया। दौड़ते -दौड़ते वह जंगल की तरफ किधर भागा पहाड़, पर्वत कूदते-फांदते फिर दिखाई नहीं पड़ा।
वर्णन करते युवक के चुप होने पर दूसरा अधेड़ उम्र का आदमी उस बात को आगे बढाने लगा। उस दिन से गांव का मुखिया लकवाग्रस्त होकर पड़ा हुआ हैं। एक तरफ से उठ नहीं पा रहा है।
जंगल के उन पहाड़ों में खो जाने से क्या कोई नक्सलवादी बन जाता है? हाथी के पैरों से रौंदा न गया हो, कोई कह सकता है? जंगली जानवरों का शिकार भी तो हो सकता है।
“आप क्या कटक की रहने वाली हो? इतनी दूर से यहाँ क्या करने आई हो?” अधेड उम्र वाले आदमी ने पूछा।
“काम करने” मैंने बहुत ही छोटा उत्तर दिया था।
“हमारे गांव में क्या काम?”
“सभी गांवों में काम, सभी शहरों में काम, सभी नगरों में काम।” मैं उसको धुंए में छोड़ते हुए चली आई थी।
दूसरी बार बिजापाली पहुंचकर मैने पूतना को उसका फोटो दे दिया। उस फोटो को देखकर वह बहुत खुश हो गई। बरामदे में बैठकर सेके हुए मूंगफली के दाने और पीने के लिए कुसना दी।
“तुम उस गंदी के घर कुसना पीती हो न? तुम हमारे घर पीओगी क्या?”
पूतना और सुखनी के घर आस-पास सटे हुए थे। शायद दोनो में बनती नहीं है इसलिए उसे पसंद नहीं था कि मैं सुखनी के बरामदे में बैठूं।
पूतना बूढ़ी बहुत चालाक थी। कहने लगी, “उसके देवर टिकापाली के लोगों ने देखा है। आधी रात में बंदूक चलाने आया था। मैं तुम्हारे अच्छे के लिए कह रही हूं, बहिन जी। पता नहीं किस देश से तुम आई हो। बताओ तो बहिनजी, तुम किस काम के लिए आई हो हमारे गांव में। चंदरा कह रहा था, तुम पुलिस वाली हो। तुम सुखनी के देवर को पकड़ने के लिए आई हो। लोइरू कह रहा था,तुम अखबार वाली हो। खच्चरी कह रहा था, तुम गरीब लोगों के लिए उपकार का काम करने आई हो।”
मैं जानती थी, मैं इस गांव में और ज्यादा दिन नहीं रह पाऊंगी। मेरा काम लगभग खत्म होने वाला था। मैने जितने तथ्यों और फोटों को इकट्ठा किया था, वे यथेष्ट थे। इनमें ऐसी-ऐसी खबर भी इकट्ठी की थी जो सरकारी रिकार्ड में भी नहीं थी। मुझे जाने के बाद और कहां जाना पड़ेगा, पता नहीं? आंध्र की सीमा पर किसी गांव में या केंदुझर, करंजिया या मनोहरपुर?
उस दिन सुखनी को उसके बरामदे में नहीं देखा। बंद दरवाजे में से उसके अंधेरे घर में झांकने के लिए मुझे डर लग रहा था। मैने घर के अंदर झांककर देखा। बहुत ही खतरनाक दुर्गंध बाहर आ रही थी। मैं देख रही थी अंधेरे के भीतर दीवार के सहारे बैठी हुई थी सुखनी। बाल बिखरकर कंधे के नीचे तक झूल रहे थे। यह औरत कुछ भी नहीं बोल रही थी? मर गई अथवा नशे में धुत्त होकर सो गई है। मेरा अंदर जाने का साहस नहीं हुआ। मैं अकेले- अकेले लौट आई थी। हल्का-फुल्का जंगल पार करते हुए मैं पिच रोड पर चली गई थी। मुझे आगे से पता था कि हमारी आखिरी मुलाकात अत्यधिक भयावह होगी। जो दृश्य मैने देखा, मेरा शरीर कांप उठा। मैं पूरी तरह से घटना के विरोध में होने के बाद भी किसी तरह का प्रतिरोध नहीं कर सकी थी।
शहर में बसे हुए घर में आ गई थी। स्नान करके, फ्रेश होने के बाद चाय का कप लेकर बैठी थी, कांता कहने लगी, “देखो, देखो, तुम्हारे हाथ के पास क्या हुआ है? देखने पर पता चला, सिक्के के साइज का निशान पड़ गया था। कांता कहने लगी, डायन जब खून पीती है तो ऐसा निशान बनता है। वहाँ तिनका लगाकर डायन शरीर से खून निचोड़ लेती है। ”
“ तिनका लगाकर, मैं समझी नहीं?
“जानोगी कैसे? रात में डायन आती है चुपचाप। तिनका लगाकर खून खींच लेती है। ”
मैं हंसने लगी थी- “तू भी न कांता। तुम्हारा इतना पढ़ा लिखा होना सब बेकार।” और हंसते- हंसते याद आ गई सुखनी की कहानी। उसका अंधेरा घर। उसकी वह वीभस्त भयानक हंसी। उसका अंधेरे के भीतर दीवार से सहारा लेकर बैठने वाला दृश्य। कांता ने कहा था, डायन क्या हमारे ओडिशा में ही होती है? अभी-अभी पेपर में पढ़ा था कि लंदन में एक विच फेस्टिवल हुआ था।
इस बार जाते समय गांव के भीतर होहल्ला हो रहा था। सभी भाग रहे थे। कोई घर के भीतर जाकर लेकर आया था भुजाली। कोई डंडा। सभी के दौड़ने में एक हिंसकपन। कहां भगा रहे थे वे लोग? क्या गांव में नक्सलवादी घुस आए हैं? वो भी दिन के समय? छोटे बच्चे को पूछा था, क्या हो रहा है, रे?
बच्चे ने दौड़ते-दौड़ते हुए कहा था- “डायन पकड़ में आ गई है। आदमी को कच्चा खाने वाली डायन। कल शुकुरा के बेटे को खा गई थी।”
डायन ? मैं चमक गई। कौन है डायन? मेरे हाथ पर मेरी नजर गई। सुखनी के घर के पास पहुंचते समय भीड़ में मैने देखा कि भीड़ के अंदर खून से लथपथ, सिकुड़ी हुई डरी हुई और जीवन की भीख मांगती व्याकुल सुखनी नीचे गिरी हुई थी। उसके ऊपर भुजाली, कुल्हाड़ी, डंडे लेकर टूट पडे थे गांव के लोग। अपने आप का बचाव करने के लिए सुखनी ने जब अपने दुर्बल हाथ उठाए, तो भुजाली की एक मार ने उसे खून से लथपथ कर दिया। मेरी तरफ सुखनी की नजर पड़ी। खून से लथपथ हाथ मेरी तरफ बढ़ाने लगी। “बहिनजी, ओ बहिनजी। मैने कुछ भी नहीं किया। मुझे बचाओ।”
मेरे पांव कांप रहे थे। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हो गई थी। क्या मेरा आगे बढ़ना उचित नहीं था? इतनी उत्तेजित भीड़ का सामना करने का मुझमें साहस नहीं था? मेरे पास कैमरा था, जिससे मैने कई फोटो उठाये थे मेरे कैरियर के लिए। मैं जानती थी इस समय का फोटो सबसे ज्यादा कीमती होगा। यहां तक कि फोटो खींचने तक का साहस और मानसिकता मेरी नहीं थी। मैं सोचने लगी कि अगर पुलिस आ गई तो एक और झमेला बढ़ जाएगा। हो सकता है मुझे साक्षी भी देनी पड़े। कोर्ट जाना पड़े।
मैं दौड़ -दौड़ कर उस जगह से चली आई। अभी भी मेरे पांव कांप रहे थे, शरीर से पसीना छूट रहा था। मैं खचाखच भरे ट्रैक्टर के हेल्पर की बात भी अनसुनी कर आधी झूलती हुई अवस्था में उसमें चढ़ गई। शहर आकर मैं अपने घर के बिछौने पर लेट गई। उसकी पुकार मेरा पीछा कर रही थी- “बहिनजी, मुझे बचाओ।” खून से भरा एक लथपथ हाथ मेरी तरफ बढ़ रहा था।
मैं और कभी उस गांव को नहीं जाऊंगी। और मैं सुखनी के सामने नहीं हो पाऊंगी। उतना साहस अब मुझमें नहीं था। उसकी भयानक हंसी के भीतर एक अकेलापन था। उसके खून से लथपथ बढ़ते आ रहे व्याकुल हाथ के पीछे छुपी थी मेरी स्वार्थपरता।जो कि बनी रहेगी काल से चिरकाल तक।
(अनुवादक : दिनेश कुमार माली)