Andha Punjivad (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
अंधा पूँजीवाद (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
जिधर देखिए, उधर पूँजीपतियों की घुड़दौड़ मची हुई है। किसानों के खेती उजड़ जाए उनकी बला से। कहावत के उस मूर्ख की भाँति जो उसी डाल की जड़ काट रहा था, जिस पर वह बैठा था, यह समुदाय भी उसी किसान की गर्दन काट रहा है, जिसका पसीना उसी की सेवा में पानी की तरह बह रह है।
पहले जब किसान निपट मूर्ख था, उसके लिए गोरे और काले पूँजीपतियों में कोई अन्तर न था। साँप और नाग दोनों ही उसके लिए समान थे। मि. बुल और सेठ पुनपनवाला दोनों ही को देखकर वह काँप उठता था। तब धीरे-धीरे उसने कुछ राजनैतिक ज्ञान सीखा, राष्ट्र और जाति जैसे शब्दों से उसका परिचय हुआ और भोले बालकों की भांति जो हरेक वस्तु को मुँह में डाल लेते है, इस सरल व्यक्ति ने भी सेठ पुनपुनवाला के वैष्णव तिलक और हिन्दू धर्म के प्रति असीम श्रद्धा और उसके नाम को उजागर करने वाले धर्मशालों, मंदिरों और पाठशालों को देखकर, उनको अपना उद्धारक समझा। यही सेठ पुनपुनवाला तो है, जिनके नाम और यश की कथाएँ मोटे मोटे अक्षरों में समाचार पत्रों में छपती हैं। ऐसे राष्ट्र-प्रेमी सेठजी से उसने मन में बड़ी बड़ी आशाएँ बाँध लीं। ये अपने है, अपने देश के हैं, कितने ही स्वार्थी क्यों ने हो विदेशियों से तो अच्छे ही होंगे। इतना पुण्य कमाया है, तभी तो लक्ष्मी ने उनके ऊपर कृपा की है। अपने दु:खी देशवासियों के लिए उनके मन में कहाँ तक दया न होगी।
लेकिन जब पुनपुनवाला के मिलों में उसकी ऊख की खरीद होने लगी, जब उनकी आढ़तों में उसका अनाज या सन तौला जाने लगा, तब उसे अनुभव हुआ कि सेठजी बाहर से जितने बड़े धर्मात्मा और देशभक्त है, भीतर से उतने ही लुटेरे और बंधुद्रोही भी है, और धर्म और देश प्रेम का यह आडंबर उन्होंने केवल अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए रच रखा है। पहले तो उसे सहसा अपनी आँखों पर विश्वास न आया। सेठ पुनपुनवाला जिनके नाम से ऐसी ऐसी धर्म-संस्थाएँ चलती हैं कभी इतने पाषाण हृदय नहीं हो सकते। यह उनके मुखतारों और मुनीमों का चक्र है। उसने सेठजी से अपना दर्ददिल कहने की अनुमति चाही, लेकिन बेकार, सेठजी के उसे दर्शन न हुए, उनके दरबानों ने उसे धक्के देकर निकाल दिया, यहाँ तक कि जब उसने रोना शुरू किया तो धर्मात्मा सेठ पुनपुनवाला खुद हंटर लेकर दौड़े। तब अभागा कृषक समझ गया कि इन सेठजी से उसने व्यर्थ आशाएँ बाँधी थीं। वहीं उसे दूसरा अनुभव यह हुआ, और जिससे उसे और मर्मवेदना हुई, कि मि. बुल इन सेठ पुनपुनवाला से कहीं खरे, सच्चे और सज्जन है। उनके मिल में उसकी ऊख चटपट तुल जाती है, और तुरन्त दाम मिल जाते हैं। रौकड़ियों और प्यादों को कुछ न कुछ चटाना जरूर पड़ता है – और इसमें उसे लेशमात्र भी आपत्ति नहीं है – पर यदि इसकी शिकायत की जाए तो मि. बुल उसे सुनने और दूर करने के लिए तैयार रहते हैं। उनकी आढ़ती में भी ज्यादा धाँधली नहीं होती।
बिलकुल यही दृश्य आजकल बिहार में देखने में आ रहा है। बिहार में शक्कर के इतने मिल खुल गए है कि वह भारतवर्ष का खंडसाल हो गया है। वहीं की भूमि में उपजी हुई ऊख सफेद शक्कर बनाने के लिए बहुत ही ऊपयक्त है। बिहार ही क्यों, संयुक्त प्रांत के उत्तर पूर्व भाग में भी उसी तरह की जमीन है। इन मिलों में किसानों के साथ सफाई का व्यवहार किया जाता है, वहाँ भारतीय मिलों में इन गरीबों को तरह-तरह से सताया जाता है, कई कई दिन उनकी ऊख नहीं खरीदी जाती, यहाँ तक की जब ऊख सूखने लगती है, तो उसे नाममात्र का दाम देकर गिरवा लिया जाता है। मिल के समाने गरीब किसानों को कई-कई दिन वर्षा और ठंड में पड़ा रहना पड़ता है, क्लर्कों और मुंशियों की खुशामदें करनी पड़ती हैं, तब भी कोई उसकी नहीं सुनता। इसके प्रतिकूल अंग्रेजी मिलों में उनके ठहरने और जानवरों को बाँधने के लिए टीन के छप्पर डाल दिए गए है। मैनेजर और अधिकारी भी ज्यादा इंसानियत से पेश आते हैं। हमसे यह वृतान्त बिहार के एक सज्जन ने जिन्हें इस व्यवसाय का प्रत्यक्ष अनुभव है बयान किया है, इसलिए सत्य होने में कोई संदेह नहीं हो सकता। भारतीय पूँजीपतियों की नृशंसता इतना बढ़ गयी है कि बिहार सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ता है और उसने एक सरकुलर निकाल कर मिल के प्रबन्धकों को चेतावनी दे दी है कि वे ऊख की खरीद के दर लिखकर नगर के मुख्य-मुख्य स्थानों पर लगा दें, जिसमें किसानों को कोई धोखा न दे सके । बिहार सरकार ने शक्कर के बाजार-दर और शक्कर की तैयारी की लागत आदि का परता मिलाकर यह हिसाब लगाया है कि तैंतीस – चौंतीस में ऊख की खरीद सात आने मन के हिसाब से होनी चाहिए। अगर कोई मिल इस तरह की विज्ञप्ति न निकालेगी या इस दर से ऊख ने खरीदेगी तो उस पर पाँच सौ रुपये जुर्माना होगा। हम निजी मुआमलों में सरकार का पड़ना बहुत अच्छा नहीं समझते, लेकिन इस अवसर पर बिहार-सरकार की कार्रवाई पर उसे धन्यवाद देना अपना कर्त्तव्य समझते हैं। हमें आशा है कि हमारे प्रांत में भी किसानों को पूंजीपतियों के पंजे से बचाने की कोशिश की जाएगी। अब किसान-सभाओं के कार्यकर्ताओं का यह काम है कि वह मिल वालों पर कड़ी निगाह रखें और किसी को बेराह चलते देखें तो सरकार को सूचना दें। यह आशा करना कि पूंजीपति किसानों की हीन दशा से लाभ उठाना छोड़ देंगे, कुत्ते से चमड़े की रखवाली करने की आशा करना है। इस खूंखार जानवर से अपनी रक्षा करने ले लिए हमें स्वयं सशस्त्र होना पड़ेगा।
[‘जागरण’, 6 नवम्बर 1933]