अनदेखा भाव (उड़िया कहानी) : बंदिता दाश
Andekha Bhaav (Oriya Story) : Bandita Dash
बेहद अक्खड़ की तरह खड़ा था वो पेड़। न कोई चिंता, न कोई डर। यद्यपि माँ और बाबा इसके लिए अकसर आपस में झगड़ते थे। माँ तो गुस्से में कहती, ‘ये कटेगा, तभी मैं खाना खाऊँगी, वरना आज से मेरा उपवास है।’ काफी समझाने-बुझाने के बाद ही वह खाती। थोड़े दिनों बाद फिर यही घटना दोहराई जाती। फिर वही-वही बात, उसी की पुनरावृत्ति।
आँगन के विस्तार को नजरअंदाज कर पेड़ अपनी टाँगें पसार बढ़ रहा था, सीना फुलाए, पूरी तरह लापरवाह। दादाजी के पिता ने यह पेड़ लगाया था। यह जितना बढ़ता था, दादी का गर्वीला बातूनीपन उतना ही बढ़ता जाता था। पहलेपहल वह बहुत खुश होती थीं, क्योंकि उनके ब्याह की पहली सालगिरह के उपलक्ष्य में ही यह पेड़ लगाया गया था। उन दोनों ने ही उस पेड़ की देखरेख कर उसे बड़ा किया था। किंतु एक दिन यही पेड़ दुःख का कारण बनेगा, इसका उन्हें अंदाजा नहीं था।
सारे आँगन में पसरते हुए पेड़ जब घर के शीर्ष को छतरी की तरह ढकने लगा, तब घर की महिलाओं को काफी परेशानी होने लगी। गरमियों में तो उसकी छाँव तले समय आराम से कटता; लेकिन सर्दियों में न तो कुछ सुखाया जा सकता था, न ही थोड़ी धूप सेंकने को मिलती थी। वह एक छत्र की तरह गर्व से सिर उठाए खड़ा था। सचमुच, एक अनिंद्र, जाग्रत् प्रहरी की तरह वह हमारे घर की रखवाली कर रहा था। झड़े हुए पत्तों को बुहारने का काम परिया की माँ का था। वह कभी-कभी पेड़ पर बहुत बड़बड़ाती थी। दरअसल दादी की सख्त हिदायत थी कि आँगन हमेशा पूरा साफ-सुथरा रहना चाहिए। आँगन में एक भी पत्ता पड़ा हुआ नजर आता तो दादी चिड़चिड़ाने लगतीं। परिया की माँ पर बिगड़ती। परिया की माँ इसीलिए पेड़ पर गुस्साती। बाबा ने पेड़ के चारों तरफ एक चबूतरा बनवा दिया था, लेकिन दादी ने दक्षिण की तरफ वाला हिस्सा तुड़वा दिया था। इसलिए चबूतरा केवल तीन तरफ ही था। कोई हमारे घर आता तो सबसे पहले इसी चबूतरे पर बैठता। मामा घर से भारवाह आते तो पेड़ तले चबूतरे पर बैठ सुस्ताते, पसीना सुखाते। माँ से बतियाते हुए नानी की चिट्ठी उन्हें दादी की नजर से बचाकर पकड़ाते। चबूतरा पार करने की उन्हें इजाजत नहीं थी। मैं उसे लक्ष्मण रेखा मानता था।
दीदी जब अपने ससुराल से आतीं तो पहले उस चबूतरे पर बैठतीं। दादी माँ दौड़कर आतीं, अवाक् होकर उसे अपनी बाँहों में भर लेतीं और रुलाई की एक लंबी सी लहर खींच देतीं। इसके बाद जमी हुई शिकायतों का पिटारा, जिसे वे औरों के सामने खोल न पाती थीं, दीदी के सामने पूरा खोल देतीं। दादाजी की टोकाटाकी के बाद ही दीदी घर में प्रवेश कर पातीं। और ऐसा हर बार होता था।
चबूतरे पर चटाई बिछा कर लूडो या चौसर, बाघ-बकरी, ताश, चौपाल, धप्पा आदि खेल खेलना; गुदड़ी की सिलाई, किताब-खाता लेकर पढ़ाई का बहाना, रामायण-महाभारत पढ़ना, बाबा के कान में फुसफुसाकर कुछ कहना, दादीमाँ से कहानियाँ सुनना; दादाजी की तरह-तरह की चर्चाएँ, मजदूरों को काम की ताकीद, उनको मजदूरी में दिए जानेवाले अनाज की नाप-तौल—ऐसी न जाने कितनी बातें, कितने खेल, कितने काम वहीं होते। कुल मिलाकर हमारे घर के सारे कामों का साक्षी था वह चबूतरा।
मैंने कॉलेज में पढ़ते हुए न जाने कितनी रातें इसी पेड़ के नीचे जागते हुए काटी हैं। वह वक्त था नई-नई कविताएँ रचने का। प्रकृति का सौंदर्य निहारते हुए, भावों को कागज पर उतारने को उत्सुक। चंद्रमा ऊपर आसमान में होता, पेड़ के घने पत्तों पर अटकी चाँदनी हमारे आँगन पर उतर न पाती। चारों ओर एक श्वेत शीतल उज्ज्वलता बिखर जाती। कहीं-कहीं पत्तों से छनकर आती चंद्रकिरणें मेरे मन को और अधिक कवितोन्मुखी कर देतीं, आनंद से भर देतीं। बेहद अपना सा लगता था वह सब। मानो मैं उसके साथ एकात्म हो गई हूँ, खुद ही खुद से बातें करती। वह जैसे मुझे पहचानते हों, मेरे अंतरतम को पढ़ पा रहे हों। मैं उसे समझ पाती थी, महसूस कर पाती थी उसकी वेदना को। हम दोनों ही खामोशी की भाषा में एक-दूसरे का सुख-दुःख बाँट लेते थे। वह वृक्ष, मैं मनुष्य...हम दोनों की मनःस्थिति एक सी हो जाती थी उस पल।
एक दिन अचानक दादाजी चल बसे। बुढ़ापा ही वजह थी। उन्हें अर्थी पर दक्षिणमुखी लेटा दिया गया। बाबा लाई और कौड़ियाँ बिखेरते हुए आगे-आगे चलते रहे, पीछे-पीछे कीर्तन दल और आत्मीय स्वजन। दादी माँ चबूतरे पर धम्म से गिरकर बेहोश हो गईं। माँ और पड़ोस की औरतों ने किसी तरह उन्हें सँभाला। बाद में रात के अँधेरे में उनके दर्द भरे करुण क्रंदन को हमारा पेड़ भी सुन रहा था। हरदम बकबक करनेवाली औरत, रातोरात एक गुमसुम, मौन योगी बन गई थी। कभी-कभी वह बैठे-बैठे पेड़ को सहलाती रहतीं। गोया किसी अपने को पास पाकर दुलार रही हों। अपना दर्द दिल में दबाए-छुपाए, बाहर से हिम्मत दिखाते हुए भी मन-ही-मन कसमसाती रहती थीं किसी कपोत की तरह। रात होती, घरवाले सो जाते, दादी माँ बैठी रहतीं चबूतरे पर...एकाकी विलाप करतीं। पेड़ सब सुनता रहता, कुछ कह भले ही न पाता हो, लेकिन समझता सब कुछ था। सहना उसकी तकदीर में लिखा है, यह बात वह अपनी खामोशी से बयाँ कर देता था।
‘सहनशीलता अपनाए हुए व्यक्तित्व से विपत्ति भी हार मान जाती है’, यह बात दादाजी यदाकदा कहते थे। और यही बात मैंने उस पेड़ से सीख ली थी। उसकी सहनशक्ति थी असीम...अप्रमेय, जिसे मैंने भी अपने जीवन-पथ में पाथेय बना लिया। कभी-कभी गुनगुनाते हुए मैं उसे कहती, “हम दोनों हार नहीं मानेंगे, चाहे जितने आँधी-तूफान आएँ। यहाँ तक कि मौत भी अपने बर्फीले कदमों से चलकर आए तो हम दोनों अचल मेरु की तरह अटल रहेंगे, तन के रहेंगे जीवन के ऊँचे-नीचे, पथरीले राजपथ पर।” इस बात को मैं और पेड़ एकात्म भाव से आत्मसात् कर, समय के साथ कदम-दर-कदम बढ़े चले जा रहे थे।
समय पंख लगाए उड़ रहा था। मैं, जो बच्चा कहलाता था, अब एक गबरू जवान बन गया था। पेड़ भी बढ़ रहा था, पहले से अधिक घनी और गर्वीली काया लिये। सूर्य-चंद्र के साथ उसका संपर्क घनिष्ठ हो चला था। वह हर मौसम में बदलता रहता था, पहले से अधिक बलिष्ठ हो जाता।
चबूतरे पर बैठकर जिस दिन मैंने अपनी नौकरी लग जाने की घोषणा की, कमर से झुक चुकी दादीमाँ ने तत्काल मेरी शादी करने का फरमान सुना दिया और पड़ोस की, पूर्व निर्धारित बहती नाकवाली लड़की को, स्वर्ण नासिका वाली बताकर मुझे हामी भरने को मजबूर कर दिया। मेरा विवाह हुआ, बहू घर आई, मेरी बेटी ने जन्म लिया। इन सभी घटनाओं का साक्षी रहा वह पेड़।
दादी माँ अब और कुछ कर नहीं पातीं...किसी सहारे से ही उठ-बैठ पाती हैं। माँ का काम बढ़ गया है। परिया की माँ भी ज्यादा बड़बड़ाने लगी है। दादी माँ का काम और ऊपर से मेरी बेटी का काम, माँ तो दादी बनने का सुख भी भली-भाँति भोग नहीं पातीं। दया आती है बेचारी माँ पर। और बाबा...वो तो एकदम निर्लिप्त, निर्विकार हैं। वे सदा से ऐसे ही हैं।
न जाने कैसे अचानक, बगैर किसी अंदेशे के, पेड़ का एक हिस्सा सूखने लगा। सभी चिंतित हो उठे, ऐसा कैसे हो गया? पेड़ के दक्षिणी हिस्से में चबूतरा नहीं था। उस ओर की ही एक डाल पहले सूखने लगी। मैंने कई बार देखा है, दादी माँ उसी ओर से खोद-खोदकर जड़ें निकालती थी और किसी-न-किसी आगंतुक को दिया करती थीं। पूछो तो पान भरे मुँह से कहती, ‘तू अभी बच्चा है, तू क्या समझेगा? तुम्हारे पास तो डाॅक्टर हैं, वैद्य हैं, हमारा सहारा तो ये पेड़-पौधे ही हैं।’ मैं वह जड़ें उखाड़ने का रहस्य समझ नहीं पाता था। इतना गौर भी नहीं करता था। पेड़ सूखने का कारण, हो न हो, जड़ें उखाड़ना ही है, मेरी यह धारणा अब पक्की हो चली थी। इसीलिए दादीमाँ को सुनाते हुए मैं ऊँची आवाज में बोला, “तुम ऐसे जड़ें उखाड़ती रहोगी तो पेड़ बचेगा कैसे? मरने दो।” यह बात सुनकर माँ मुझ पर चिल्लाई, थोक में डाँट पड़ी। बाबा अलग गुस्सा हुए। मैं मन-ही-मन सोच रहा था कि मैंने तो ठीक ही बोला, फिर ये लोग उल्टा मुझपर क्यों गुस्सा हो रहे हैं? ओहो! पेड़ दादी माँ का है ना, इसीलिए। या फिर वे बूढ़ी हो गई हैं इसलिए। मुझे लगा मैं बेकार ही बोला, एक साधारण सी बात पर इतनी सहानुभूति? मुझे माजरा कुछ समझ नहीं आया।
पेड़ का सूखते जाना घरवालों के दुःख का कारण बन रहा था। मेरे लिए भी यह कष्टदायक था, ऐसा लग रहा था कि मेरा कोई अपना आदमी तकलीफ में हो। बाबा ने शिवजी को चढ़ा जल लाकर पेड़ पर छींटा, शालिग्रामजी के स्नान का जल भी छींटा गया। किसी ने कहा कि शनिवार के दिन भोर में, बासी मुँह, सोना या चाँदी पानी में डालकर उस पानी को छींटने से मरा हुआ वृक्ष भी जीवित हो जाता है। माँ ने वह भी करके देख लिया। यह सब देख दादी माँ एक दिन बोलीं, “अरे, तेरे दादाजी की फोटू लाकर रख दे इसके नीचे, यह उन्हें ही हेर रहा है।” यह सुनकर मैं कुछ बोलने ही वाला था कि परिया की माँ बोल उठी, “ओहो! बाँझ पेड़ के लिए इतनी तकलीफ? फल तो एक नहीं देता ये ओऊ (एक किस्म का फल), उसकी इतनी चिंता?” नासमझ परिया की माँ, क्या जाने कि इस घर के लोगों और इस पेड़ के बीच कैसा अनोखा रिश्ता है। दादी माँ ने सुना, उनकी आँखें भर आईं। मुझे भी बुरा लगा। यह महज एक पेड़ नहीं, इस घर का सदस्य है। हरेक की अपनी-अपनी भावनाएँ थीं, पेड़ की भी। फर्क बस इतना ही था कि वह अपनी बात हमारी तरह कह नहीं पाता था। खामोशी से वह जो कुछ भी कहता, उसे समझने के लिए बस एक संवेदनशील हृदय की आवश्यकता थी।
दादी माँ ने मुझे पास बुलाया। मैंने सोचा, आज डाँट पड़ेगी, परिया की माँ को भी बकेगी दादी माँ। लेकिन वह प्यार से मेरा हाथ थामकर बोली, “बाबू रे! इस फलविहीन ओऊ वृक्ष की दखिनी जड़ को कमर में बाँधने से एकशिरा (अंडकोष वृद्धि) का रोग ठीक हो जाता है। यह बात तेरे दादा ने मुझे बताई थी। आसपास के गाँवों से इतने लोग इसीलिए हमारे घर आते हैं और इनके बच्चे ठीक हो जाने पर वे खुश होकर फिर से आभार प्रकट करने आते हैं। पर तेरे दादा लोगों को कहते, “हमें नहीं, उस पेड़ को धन्यवाद बोलो। उसकी फेरी लगाकर मत्था टेको और एक बाल्टी पानी सींचो।” लोग उसके उपकार के प्रति इसी भाँति आभार प्रकट करते। केवल इसीलिए तो हम यह भूल जाते कि यह वृक्ष फल नहीं देता, पत्ते झड़ते रहते हैं, आँगन में धूप नहीं आती। अरे, यह पेड़ है, तभी तो दसियों गाँवों के लोग उपकृत होते हैं। उसे बुरा-भला मत बोल रे! वह अपनी मर्जी से सूख रहा है तो अपनी ही मर्जी से फिर हरा हो जाएगा। तू तो अब सब कुछ जान ही गया है। मेरे दिन पूरे हों तो तू लोगों का उपकार करना। वह बेचारा फल तो दे नहीं पाता, इसी तरह लोगों का थोड़ा उपकार करके पेड़ की जून से मुक्ति पा लेगा। बेटा, तेरी-मेरी तरह यह भी इस घर का ही एक हिस्सा है, इसकी देखभाल करना। तेरे दादाजी और उनके पिताजी, जिन्हें तू डबल दादा कहता है, बहुत खुश होंगे। आशीषों से झोली भर देंगे तेरी।” मैं बिल्कुल अवाक् हो गया था, तो यह रहस्य है इसके पीछे! सच्चाई जाने बगैर मेरा मत दे देना गलत था; मैं मन-ही-मन खुद को धिक्कारने लगा।
पेड़ में सचमुच नई-नई कोंपलें निकलने लगीं। लेकिन दादी माँ धीरे-धीरे बिस्तर पकड़ने लगीं। पेड़ जब तक पूरा हरा-भरा होता, दादी माँ चल बसीं। मुझे तो लगा कि दादी माँ अपनी बची हुई उम्र उस पेड़ को दे गईं। सबके मना करने पर भी मैंने दादी माँ के शव को पेड़ की सात परिक्रमाएँ करवाईं। उनकी अस्थियों को कुछ दिनों तक पेड़ पर ही टाँगें रखा। बाबा माँ नाराज हुए, उनके साथ मेरी पत्नी भी। हालाँकि मैंने किसी की भी कोई बात नहीं सुनी। एक दिन उन अस्थियों को पेड़ के कोटर में डाल दिया और खाली कपड़े की पोटली लेकर दादी माँ की अस्थियों का गंगा में विसर्जन करने निकल पड़ा। घरवालों को झूठमूठ समझा दिया था। मुझे यकीन था कि इससे दोनों ही खुश होंगे। न फलनेवाला पेड़ और फलनेवाली दादी माँ, दोनों एकाकार होकर अनंत काल तक समाज का उपकार करते रहें...चुपचाप, खामोशी से। गंगा में ‘अस्थि विसर्जन’ कर लौटा तो सीधा पेड़ के नीचे माथा टेका। हवा न चलते हुए भी पेड़ में हलचल हुई, मेरी देह को उसका शीतल स्पर्श मिल रहा था। मुझे लगा कि पेड़ खुश होकर मुझे सहला रहा है।
(अनुवाद : विजय अग्रवाल)