अनन्तर (कहानी) : जैनेंद्र कुमार

Anantar (Hindi Story) : Jainendra Kumar

जिनको परम आदरणीय मानते आए थे, उन्हीं को हम बहुत से जन मिलकर अभी फूँक फाँक कर लौटे हैं। बाँस की अर्थी पर उनकी देह को कसकर बाँधा और कन्धों पर लिये-लिये जुलूस में हम तेजी से चलते चले गये । लकड़ी के ढेर में उसे रखा, आँच दिखायी और राख कर दिया। सारे रास्ते भर हम पुकारते गये थे - 'राम नाम सत्य है, राम नाम सत्य है !' मानो राम के नाम के सत्य के आगे मौत झूठ हो जाती हो । मानो नियति के आघात पर वह हमारा एक उत्तर हो ।

मैं घर आ गया। रोना-कलपना थमा था। एक सन्नाटा मालूम होता था। माँ चुप थीं और जिधर देखतीं, देखती रह जाती थीं ।

मैंने कहा, "माँ, उठो, चलो । बालकों को कुछ देखो - भालो, वे भूखे हैं।"

माँ ने मुझे देखा। जैसे वह कुछ समझी नहीं हैं। माफी चाहती हैं कि भाई, मुझे कोई कुछ सुनता नहीं है, माफ करना मुझे कुछ सूझता नहीं है ।

मैंने पास पहुँचकर कहा, "माँ, हम किस दिन के लिए हैं। और बालक छोटे हैं, उनके लिए अब तुम्हीं तो हो । "

माँ ने इस बात को सुना। सुनकर क्या समझा ? वही फटी आँखों से देखती रहीं । फिर हठात स्वस्थ होकर कहा, "हाँ, चलो। चुन्नू बेटा, इधर आ । ऐसा क्यों हो रहा है! मैं अभागिन तो अभी हूँ । आ मेरे बेटे !"

चुन्नू चौदह बरस का था । मुँह लटकाए सबकी आँखों को बचाना चाह रहा था। वह अकेला था और इधर-उधर घूम रहा था। उसे जाने कैसा लग रहा होगा । नाते-रिश्तेदारों से दूर-दूर रह रहा था। माँ जब कपार पर दोहत्थड़ मारकर रो रही थीं, तब इस चुन्नू ने उन्हें अपने गले लगाकर समझाया था। अब माँ स्वस्थ हुईं तो जैसे मुश्किल से उसके आँसू रोके रुक रहे थे।

"आ बेटे, यहाँ आ । बाप नहीं, पर माँ तो है। यहाँ आ, बेटे !"

चुन्नू बरामदे की टीन के नीचे खड़ा परली तरफ सूने में देख रहा था। वह काफी देर से खड़ा था। अब उसने दोनों हाथों में मुँह ढका और बैठकर बिसूरने लगा।

यह देखा, माँ झपटी आयीं और उसे अंक में भरकर बोलीं, “क्यों रोता है बेटे, तेरे बाप तो सरनाम होकर गये हैं। सब के मुँह पर उनका नाम है। ऐसे भाग्य पर क्या रोया जाता है, बेटे ?"

चुन्नू माँ के कन्धे से लगकर अब फफक उठा। माँ भी रो आयीं। आँसू गिराती जाती थीं और समझाती जाती थीं, "बेटा, तुझे क्या फिकर है! किसका बेटा है, यह तो याद कर। उन्होंने कैसी मुसीबतें सहीं, पर क्या मन कभी कच्चा किया। उनका बेटा होकर तू मन कच्चा करता है! मैं हूँ, तब तुझे कोई फिकर नहीं ! आज तेरे बाप को दुनिया रो रही है। ऐसे कितने भाग्यवान जनमते हैं? उसी का बेटा होकर तू रोता है !"

कहते-कहते माँ अवश भाव से फूट उठीं और बच्चे की हिचकी बँध आयी।

मैंने पास जाकर माँ को खींचकर अलग करते हुए कहा, "माँ, क्या कर रही हो। चलो उठो। चुन्नू, ओ चुन्नू, चल उठ । हाथ-मुँह धोकर आ और कुछ पानी-वानी पीले, सवेरे से भूखा है ! तुझे काहे का सोच है। चल उठ ।"

पर इस प्रसंग को छोड़िए । ज्यों-त्यों दिन कटा। दिन तो कटता ही है। कोई मरे, पर जीने वाले को जीना काटना है। बिलखो तो, हँसो तो। होते-होते शाम आ गयी। जग धुँधला हो चला। सबके मन भारी थे । आये चले गये। घर में बस घर के रह गये थे। कह लो तो मुझे ही बाहरी कह लो । पर मैं अपने से ज्यादा इस घर का था। इसे समझाता, उसे बहलाता, घर के कामों को सँभाल रहा था । काम तो कोई रुकता नहीं। साँस है तब तक साँसत है। रंज में रहोगे और खाना-पीना भूल जाओगे तो कब तक ? कुछ और काम भूल जाओगे तो कब तक ? समय तो रुकता नहीं। और काम जब कोई रुकता है तो वही बाद में सिर पर बोझ बना खड़ा दिखाई देता है । और कोई विशेष घटना घटती है तब तो काम बढ़ ही जाता है। चाहे कभी फुर्सत हो, तब फुर्सत नहीं मिल सकती, और रंज भी एक काम है जिसके लिए फुर्सत चाहिए।

रात हो आयी। दिन की ले-दे निबटी । अँधेरा ऊपर से उतरने लगा। वह अँधेरा अनजाने जैसे चारों ओर छा आया। क्या अँधेरा अभाव ही है ? पर उस अँधेरे में अपना रूप था। उसमें एक भाव था । वह मानो मित्र की भाँति हमें गोद में ले लेना चाहता था।

दस बज गये, ग्यारह बज गये। मैंने कहा, "माँ, सोओ। चुन्नू, अरे सोता क्यों नहीं ?"

चुन्नू अपनी खाट पर बैठा था। वह सो नहीं रहा था। अँधेरे में एक ओर धीमी लौ से जलती लालटेन रखी थी। वह भरसक दूर थी। इस अँधेरे में चुन्नू क्या देख रहा था। चौदह बरस की उम्र, नवें में पढ़ता है। क्या वह सोच रहा था कि उसके बाप का क्या हुआ ? लेकिन दुनिया में कौन बताएगा कि उसके बाप का क्या हुआ ?

मैंने जोर से कहा, "चुन्नू, क्यों बैठे हो ! सोते क्यों नहीं ?"

चुन्नू ने मेरी तरफ देखा, जैसे सहमा हो, और चुपचाप खाट पर लेट रहा।

मैंने कहा, "और माँ, तुम क्यों बैठी हो ? सो जाओ।"

माँ ने कहा, "सो जाऊँगी, बेटा!"

मैंने खाट पर जाकर अपने हाथों से लेकर उन्हें लिटा दिया। गिनती की हड्डी थी। बोझ नहीं के बराबर था । फिर भी साहस बाँध जिये जाती थीं। चुन्नू के बाप की बीमारी में इन्होंने कुछ नहीं बचाया। धन बहाया और तन भी बहा दिया। इसमें ऐसी हो गयीं। बीमारी ने भी एक बरस खींच लिया। मैंने कहा, "माँ, अब सोओ।"

माँ ने कहा, “सोने जाती हूँ । पर पराये दुःख में तुम क्यों दुःख पाते हो भैया ? जाओ, अब तुम आराम करो। "

मेरा मन भीग आया। मैंने जान लिया कि मैं पराया नहीं हूँ, तभी मेरे दुःख का यहाँ इतना ख्याल है। मैंने कहा, "माँ, यह तुम्हारे ऊपर है कि बच्चों को पता न चले कि उनके बाप नहीं रहे। इसलिए तुम सो जाओ ताकि तन्दुरुस्ती बच्चों के खातिर तुम्हारी बनी रहे । तुम खुश न दीखोगी तो बच्चे कैसे खुश दीखेंगे।"

माँ मानो सब समझती थीं। बोलीं, “हाँ, बेटा! अब तुम जाकर आराम करो। "

माँ को चुप लेटा छोड़कर मैं खाट पर आ रहा । अँधेरा गहरा होता जाता था । सर्दी अधिक थी। सामने तारे दीख रहे थे। बाहर चुंगी की बत्ती ठिठुरती हुई जल रही थी। उसकी रोशनी आस-पास में सिमटी थी और काँप रही थी। अब नगर सुनसान होता जा रहा था। मैंने कोशिश की कि मैं सो जाऊँ और कुछ न सोचूँ । मैंने कुछ नहीं सोचा, लेकिन नींद मुझे नहीं आयी। कुछ चारों तरफ भय मालूम होता था। वह जमकर भारी होता जा रहा था। एक तरफ लालटेन जल रही थी। मैंने उसे और दूर कर दी, मद्धिम भी कर दी। ऐसी दूर और मद्धिम कि चारों ओर और कुछ न रहा । पीला अँधेरा रह गया, जो पेट में काला था। लालटेन रखकर मैं दबे पाँव खाट पर आ रहा। आकर बैठ गया। फिर बैठकर लेट गया। माँ क्या सो सकी हैं ? और चुन्नू क्या कर रहा है ? क्या वह सो नहीं गया? मैंने धीमी साँस से कहा, 'अम्मा!'

आवाज का कोई उत्तर नहीं मिला। सोचा, आँख लग आयी होगी। चलो अच्छा है। थोड़ी देर मैं चुपचाप लेट रहा। अनन्तर उठकर दबे पाँव जाकर देखा । चुन्नू की आँख लग गयी है। माँ अपनी खाट पर ज्यों-की-त्यों चुप लेटी हैं। न हिलती हैं न डुलती हैं। सो ही गयी होंगी। मैंने चैन की साँस ली।

बाहर आकर देखा। आसमान में तारे भरे थे, चाँद नहीं था। वे तारे कितने थे ? मैं थोड़ी देर देखता रहा। हवा ठण्डी आती थी । रोक कहीं न थी । विस्तार था और विस्तार। बस मैं था और शून्य था । तारे थे, जो शून्य को और शून्य, मुझ एक को और अकेला बनाते थे ।

इस निपट सूने में चुन्नू के पिता कहाँ खो गये हैं? कल क्या था, आज क्या है ? पर यह शून्य तो वैसा ही रहता है। रात को काला, दिन को उजाला, और हमेशा रीता । मैंने मन-ही-मन आतंक से भरकर इस शून्य को प्रणाम किया । मेरा अस्तित्व जिसका नकार है; मैं खुद होकर जिसे कभी न मान सकूँगा, उसी के प्रति मैंने रोम- रोम से कहा कि ‘हे चिर शून्य, नकार द्वारा मैं तुझे प्रणाम करता हूँ। तू अँधेरा है, चुन्नू के बाप को तू नहीं दिखा सकेगा। न तू दिखा सकता है, न दीख सकता है। पर तमाम इतिहास और तमाम काल और समूचा विस्तार जिस तुझ में नेति हो जाता है; हे महाशून्य, उसी तुझ को मैं ना कहकर प्रणाम करता हूँ। तू नहीं है, चुन्नू के बाप भी तुझमें होकर नहीं हैं, हम सभी एक रोज तुझमें होकर नहीं होंगे। सो सब-कुछ को नकार कर देने वाले हे सुनसान के मौनी, मैं नहीं ही मानकर तुझे प्रणाम करता हूँ । '

कब मैं लौटा ? लौट कर खाट बिछाकर चाहा सो जाऊँ। पर नींद आती नहीं थी। सोचा, चलूँ चुन्नू के गले लगकर थोड़ा रो देखूँ । सबेरे से रो नहीं सका हूँ। काम की भीड़ में उसका मौका नहीं मिला। आज मैं चुन्नू क्यों न हुआ कि खुलकर रोता और सो जाता। इस समय उठकर मैं चुन्नू की खाट तक गया। वह सो रहा था । उसका एक हाथ थोड़ा करवट में दब गया था। दूसरा तकिये पर पड़ा था। मेरा जी हुआ उस हाथ को हाथ में लेकर कहूँ, 'चुन्नू भैया राजा, हम-तुम एक हैं।' और फिर हम दोनों गले लगकर रो लें। मैं धीमे से उसके सिरहाने बैठकर उसे देखने लगा । कैसा भोला चेहरा मालूम होता था! मैंने आहिस्ते से उसके हाथ को चूमा। वह सो रहा था, सोता ही रहा। मैं अचक पाँव चला आया ।

खाट पर लेटे-लेटे क्या मुझे नींद आ गयी ? शायद, पर वह रात जैसे महाकाल की ही रात थी । सारी रात गूँज - ही गूँज सुनता रहा, 'राम नाम सत्य है, राम नाम सत्य है।' कितनी अर्थियाँ उस रात निकलीं मानो वह रात शव यात्राओं के लिए ही थी । कितनी न जाने ऐसी यात्राएँ निकलीं और कितने यात्री हर एक के साथ पुकारते जाते थे। 'राम नाम सत्य है।' मानो इस राम के नाम-रूप सत्य को अपने प्रियजन की जान देकर उन्होंने अभी पाया हो और चिल्लाकर उसे मौत के कानों तक पहुँचा देना चाहते हों ।

“अरे भाइयो, बोलो, ‘राम नाम सत्य है!' जोर से बोलो जोर से।" देखता हूँ कि सामने जो अर्थी का जुलूस जा रहा है, उसी में से सहसा एक आदमी ने हाथ फेंककर कहा ।

इस पर लोगों ने जोर से गुँजारा, 'राम नाम सत्य है ! '

उस आदमी का सिर घुटा हुआ था । उसे उन्माद प्रतीत होता था । उसने कहा, " धीमे नहीं, जोर से बोलो। बोलो, 'राम नाम सत्य है !" लोगों ने जोर से पुकारा 'राम नाम सत्य है ! '

उस आदमी का चेहरा डरावना मालूम होता था । मुझे प्रतीत हो गया कि अर्थी पर जिस स्त्री का शव है वह उसी की पत्नी थी।

उस आदमी ने आवेश से कहा, "भाइयो, धीरे न पड़ो; बोलो राम नाम सत्य है ! " लोगों ने भरसक जोर से कहा, 'राम नाम सत्य है !'

मैं उस गूँज पर सहमा-सा आया । इतने में देखता हूँ कि वह आदमी मुझे ही देख रहा है। मुझे डर लग आया। देखते-देखते उसकी माथे की नसें फूल आयीं । आँखों से चिनगारी छूटने लगीं। क्या वह मुझे निगल लेना चाहता है ? उसका आकार बड़े- पर बड़ा होने लगा। वह दानव - सा लगने लगा । भय के मारे मैं... इतने में उसने मेरी ओर देखा और चीखकर कहा, "पकड़ लो इसे, यह आदमी हँसता है ! " वह मुझे पकड़ने को बढ़ा। और कई भी उसके साथ बढ़े। वे दैत्य बन आए। मैंने भागना चाहा पर भागा नहीं। पैर पत्थर थे और मैं हिल भी नहीं सकता था ।

"यही है । हँसता है, इसे बाँध लो ।"

वे इतने पास आ गये जैसे सिर पर । मेरी साँस धौंकनी-सी चल रही थी । हाय.....मैं ....I

आँख खुली तो देखा मैं पसीने-पसीने हो रहा हूँ। कहीं कुछ नहीं है, सब सुनसान है। मैंने पसीना पोंछा और अपने मन की कमजोरी पर हँसा । कुछ दीखता नहीं था । पर धीमे-धीमे आँखों ने चीन्हा कि अँधेरे में मिली-सी माँ खाट पर सीधी बैठी हैं।

मैंने कहा,"माँ!”

माँ न चौंकीं, न बोलीं ।

"तुम जाग रही हो ?"

माँ धीरे से बोलीं, “नहीं।”

"क्या बजा होगा ?"

" दो बजे होंगे।"

मैंने कहा, "और तुम बैठी हो ! "

बोलीं, "अभी उठी थी । "

मुझसे रहा न गया। खाट पर पहुँचकर उनके हाथ को हाथ में लेकर मैंने कहा, "माँ, ओ माँ!" माँ ने मुझे कुछ कहने न दिया । बोलीं, “तू क्यों जाग रहा है, भाई ? जाकर सो न जा, मुझे भी सोने दे।" कहकर आप ही चुपचाप खाट पर लेट गयीं ।

मैंने कहा, "मैं जानता हूँ, तुम जागती रही हो। ऐसे कैसे होगा, माँ!"

“अब मैं बेटा, किसके लिए जागूँगी !" कहकर माँ ने दूसरी ओर करवट ले ली; फिर आगे वह नहीं बोलीं ।

मैं सुन्न, कुछ देर खाट की पटिया पर बैठा ही रहा । दीखने को अँधेरा सुनसान था, और सुनने को भी वही । माँ की साँस मानो उसी अतल गर्भ में से आती लगती थी। धीरे-धीरे प्रतीत हआ वह सम पर आ रही है। तब मैं अपनी जगह आ गया । आकर लेट रहा। पर नींद न आयी थी, न आयी। बार-बार जग पड़ता था । दूर कहीं तीन बजे का घण्टा सुनकर मेरी आँखें फिर खुल गयीं। जगकर देखता क्या हूँ कि माँ वहीं खाट पर अँधेरे में मिली प्रश्नचिह्न की भाँति उठी बैठी हैं।

आँखें मलीं और देखा, हाँ, खाट पर वही बैठी हैं।

मन के भीतर का हाहाकार गुल्म बनकर उठता कण्ठ की ओर आया। गुस्से में भरकर मैं बोला, “माँ, तुम रात भर जागती ही रहोगी क्या ?"

डरी हुई-सी माँ बोलीं, “आँख खुल गयी थी, बेटा ।"

मैंने डपटकर कहा, "सो जाओ।"

बोली, "अच्छा, बेटा ! "

और बोलते के साथ ही खाट पर चुपचाप - सी लेट गयीं ।

पर दस मिनट लेटी न रहीं होंगी कि फिर बैठ गयीं। उन्होंने मुझे सोया जाना होगा। इस बार मुझसे कुछ कहते, कुछ करते न बना। वह अँधेरे में क्या चाहती थीं, क्या सोचती थीं ?

उधर से आँख फेरकर अँधेरे में ऊपर छत में आँख किये पड़ा रहा, सोचता रहा, लेकिन सोचता भी नहीं रहा। ऐसे कब झपकी आ गयी पता नहीं। लेकिन चार का घण्टा साफ कान में आकर बजा ।

आँख खुली। मुँह फेरा। देखता क्या हूँ कि माँ उठती हैं : सधी और दुबली देह । जाकर लालटेन उठाती हैं और लिये-लिये घर के काम-काज में लग जाती हैं।

देखा और मैंने कसकर आँख मींच लीं। फिर जो सोया तो उठा कहीं जाकर साढ़े आठ बजे। पाता हूँ कि सिर पर खड़ी माँ कह रही हैं, "यह सोने का वक्त है ? रे चल उठ, मुँह-हाथ धोके आ, नहीं तो तेरा दूध ठण्डा हो रहा है।"

उठके देखता हूँ कि चुन्नू माँ के सामने बैठा दूध पी रहा है। चुन्नू ने कहा, "उठिए, भाई साहब ! "

मैंने खाट से झटपट खड़े होकर कहा, "लो, अभी आया । "

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