अमृत-प्रतीक्षा (उड़िया कहानी) : सरोजिनी साहू

Amrit-Prateeksha (Oriya Story) : Sarojini Sahu

गर्भवती नारी को घेरकर वे तीन
कर रहे थे अजस्र अमृत-प्रतीक्षा
मगर बंद करके सिंह-द्वार
सोया था वह महामहिम
चिरनिद्रा में मानो रूठकर
सोया हो बंद अंधेरी कोठरी के अंदर
एक अव्यक्त रूठापन
बढ रहा था तेजी से हृदय स्पंदन
नाप रहा था स्टेथो उसके हृदय की धडकन
देखो !

अचानक पहुँच जाता था पारा
रफ़्तार 140 धड़कन प्रतिमिनिट
सीमातीत,
प्रतीक्षारत वे तीन, कर रहे थे अजरुा अमृत-प्रतीक्षा
बंद थे जैसे विचित्र कैद में
प्रतीक्षा की थकावट ने,
कर दी उनके
नींदों में भी नींदहीनता
सपनीली नींदो में स्वप्नहीनता
ना वे जमीन पर पैर बढा सकते थे
ना वे, गगन में पंछी बन उड सकते थे।
प्रतीक्षारत वे तीन,
कर रहे थे अजस्र अमृत-प्रतीक्षा
कि कब
निबुज कोठरी का दरवाजा खोल
मायावी जठर की कैद तोड
सुबह की धूप की तरह
हँसते-हँसते वह कहेगा
“लो, देखो मैं आ गया हूँ।
भूल गया मैं सारा गुस्सा,
सारा रुठापन,
विगत महीनों की असह्य यंत्रणा”
कब वह घड़ी आएगी
जब खत्म होगी वह अजरुा अमृत-प्रतीक्षा
कब होंगे वे सब मुक्त बंद कैद से,
जब होगा वह महामहिम जठर मुक्त ?
कहीं ऐसा न हो
गर्भवती नारी के साथ-साथ
उनको भी लेना होगा पुनर्जन्म
एक बार फिर नया जन्म

पारामिता के शरीर से झरने की भाँति पसीना बह रहा था । उसकी आंखो में नींद का नामोनिशान न था। कुछ देर पहले ही एक नर्स उसको जगाकर चली गई।

“अरे ! बेबी कहाँ है ? शिशु-विशेषज्ञ डा. साहब आए हैं, बेबी का चेक-अप करेंगे। पर, बेबी कहाँ है ?”

तन्द्रालु पारामिता ने आश्चर्य-चकित होकर कहा ,

“बेबी ? कैसी बेबी ? यहाँ तो कोई बेबी नहीं है।”

अचानक उसे याद आ गया,एक मैडम सुबह उसके पेडू को देखकर बोल कर गई थी “ऐसा लग रहा है कि तुम्हारे बेबी का आकार छोटा है। हमने शिशु-विशेषज्ञ डा.साहब को खबर कर दी हैं,वह यहाँ आकर एक बार बेबी का आकार देख लेंगे।”

उस चश्मीच गंजे डॉक्टर ने बडे ही गंभीरतापूर्वक पारामिता के पेडू की जाँच की। बोलने लगे “सचमुच बच्चे का आकार तो छोटा लग रहा है।” फिर कुछ सोचते हुए एक पर्ची पर कुछ दवाइयाँ लिखकर वहाँ से चले गए। पारामिता ने उस पर्ची को एक चटाई के नीचे संभाल कर रख दिया। उसे आश्चर्य हो रहा था, प्रसव में तो बहुत कम दिन बचे हैं इतने कम दिनों में पेट के अंदर ही बच्चे का आकार बड़ा कर देंगे ये लोग !जिस प्रकार बच्चों की किताबों में ‘टॉम-थम्ब’ की कहानियों का जिक्र आता है, कहीं वह उसकी तरह तो पैदा नहीं होगा ? ऐसे बामन बच्चे को लेकर क्या करेगी ? किस प्रकार अपना सारा जीवन-यापन करेगी ? यही सोचकर पारामिता डर से काँपने लगती थी। क्या वास्तव में उदरस्थ शिशु का स्पंदन इतने धीमे है जैसे कि यह आदमी का बच्चा न होकर किसी दूसरे प्राणी का बच्चा है ? ऐसी ही कई बातें पारामिता ने पहले से ही सुन रखी थी कि किसी-किसी के तो विकलांग बच्चे भी पैदा होते हैं। जितना ही इस संदर्भ में वह सोचती, उतना ही वह अनजाने भय से सिहर उठती। ना तो उसके पास पार्थ था, ना ही पापा। बाथरुम के पास खाली जगह पर, अकेली माँ अपने शरीर को समेटकर कर सोई हुई थी। अगर पार्थ और पापा में से कोई भी पास में होता तो वह उन्हें डॉक्टर की पर्ची दिखाती तथा दवाइयों के बारे में पूछती। उसे यह बात मंजूर थी कि भले ही उसका बच्चा सुंदर नहीं हो तो भी कोई दुःख की बात नहीं है, मगर उसकी हार्दिक मनोकामना थी कि उसके एक स्वस्थ बच्चा पैदा हो।

पारामिता को ऐसा अनुभव हो रहा था कि उसके अंतरतम से शिशु-रोदन की एक आवाज सुनाई पड़ रही है, और अगर कुछ समय तक अकेली रही तो वह रो पड़ेगी। जितने भी डॉक्टर देखने आए सभी की राय एक ही थीं, “बेबी का आकार बहुत छोटा है !” पारामिता को पहले से ही इस बात की जानकारी थी कि पाँच पाउंड से कम वजन वाले बच्चे पैदा होते ही या तो मर जाते हैं, या फिर जल्दी ही किसी न किसी रोग से ग्रस्त हो जाते हैं। वे ज्यादा दिनों तक जिन्दा नहीं रह पाते। जिस बच्चे के लिए पारामिता ने इतनी प्रतीक्षा, इतनी पूजा-अर्चना और इतनी साधना-आराधना की , आज इस बच्चे के बारे में कोई सोच भी नहीं रहा है। यही सोचकर पारामिता के मन में अपने आत्मीय-जनों के प्रति एक खटास-सी पैदा हो गई।

क्या कर रहे हैं ये सब लोग ? आपस में लड़-झगड़ रहे हैं अपने लिए या उसके बच्चे के लिए ? या तो इन लोगों ने एक दूसरा मुखौटा पहन लिया है या फिर अपने असली मुखौटों को उतारकर दूसरे प्रकार के आदमी बन गए हैं। जिस पार्थ के साथ वह विगत चार सालों से गृहस्थ-जीवन यापन कर रही थी , वह पार्थ तो यह नहीं लग रहा है। जिस मम्मी-पापा को बचपन से देखती आई हैं , क्या ये वही मम्मी-पापा हैं ?

सोने के कुछ समय पहले ही उन लोगों में काफी तेज वाक-युद्ध हुआ था। एक छोटी-सी बात पर, वह भी सोने की बात को लेकर। पता नहीं, क्यों हर छोटी-मोटी बात को लेकर उनके बीच में मत-भेद होता रहता था ? पारमिता की समझ में नहीं आ रहा था पार्थ का त्याग करना उचित था अथवा मम्मी-पापा का ? एक छोटी-सी खाली जगह के लिए तीन-तीन जनों की दावेदारी ! खाना खाकर पार्थ सबसे पहले उस जगह पर जाकर लेट गया ,लेटते ही उनकी आँखें लग गईं । सचमुच में ऐसे ही उनको नींद आ गई, या वह जान-बूझकर वहाँ सोए थे। पार्थ का इतना लंबा-चौड़ा शरीर ! ऊपर से सूटकेस, बास्केट, सुराही, टिफिन कैरियर आदि फिर कहाँ से बचती कुछ खाली जगह ? चाहती तो मम्मी, पार्थ को मृदु-भाषा में समझा-बुझाकर वहाँ से उठा सकती थी, मगर उनका इस तरह सोना मम्मी को बिल्कुल पसंद नहीं आ रहा था। जैसे ही पापा बाथरुम से निकले, वह बोलने लगी, “देखिए, मेरी पान की डिबिया उधर पड़ी है, और दामाद जी तो यहाँ हर समय ऐसे सोए रहते हैं कि चाहने से भी पान की डिबिया नहीं ला पा रही हूँ। खाना खाने के बाद कब से इच्छा हो रही है कि पान का एक बीड़ा खा लूँ, पर दामाद जी तो......”

पापा ने मुँह पर अँगुली “श..श..श” कहते हुए मम्मी को चुप रहने का संकेत किया। पारामिता ने झुककर पान की डिब्बी उठाई। पार्थ को थोडा सरकाकर बोलने लगी, “अभी तक सो रहे हो ! पापा आठ किलोमीटर दूरी से साईकिल पर जाकर हमारे लिए खाना लाते हैं। क्या उनको थकान नहीं लगती ? क्या उनको विश्राम की जरुरत नहीं हैं ? थोड़ा उधर सरकिए ?”

“और कहाँ सरकूँगा ? पूरा तो बेड के नीचे घुस गया हूँ।” नींद में ही बड़बड़ाने लगा था पार्थ।

“तो क्या पापा नहीं सोएँगे ?”

पापा का नाम सुनते ही पार्थ झट से उठ गया था और चिल्लाकर कहने लगा,

“मैं तो सोने नीचे जा रहा था। क्यों मुझे मना कर रही थी ?”

“आप ही तो बोल रहे थे, नीचे तो बैठने के लिए भी जगह नहीं है।”

“तुम्हें क्या दिक्कत है ? मैं नीचे बैठूँ या बाहर घूमुँ ?”

“इतना गुस्सा क्यों कर रहे हो ? दोपहर घूमने-फिरने का समय है ?”

“गुस्सा नहीं करूँगा तो क्या करूँगा ? नीचे नहीं जा सकता, बाहर भी नहीं घूम सकता, यहाँ सो भी नहीं सकता, तब और क्या करूँ ? कहाँ जाऊँ ? कहिए ”

पापा बेड-शीट और तकिया अपने साथ ले जाते हुए बोले “तुम शांति से सो जाओ, बेटा ! इन लोगों की बातों पर ध्यान मत दो। मैं जा रहा हूँ ऊपर वाली मंजिल में वहाँ बढ़िया हवा आती है। वहाँ जाकर सो जाऊँगा। चिन्ता मत करो।”

“आप यहाँ सोइए, मैं नीचे जा रहा हूँ। ऊपर और कहाँ सो पाएँगे ? वहाँ तो भवन-निर्माण का काम चल रहा है। सीमेन्ट के बोरें पड़े हैं ,सारी फ़र्श धूल-धूसरित हैं और कामगार व मिस्त्री लोगों के काम करने की खटखट की आवाज से परेशान हो जाओगे।”

“मुझे कोई परेशानी नहीं होगी। तुम आराम से यहाँ सो जाओ, बेटा !” यह कहते हुए पापा बेड शीट और तकिया लेकर बाहर चले गए। उनको बाहर जाता देख पार्थ मुँह फुलाकर नीचे चला गया।

पारामिता का मन दोनों पार्थ और पापा के लिए दुःखी हो रहा था। उसको लग रहा था कि ऊपर मंजिल जहाँ काम चल रहा है, केवल छत ही बनी होगी। उस आधे तैयार मकान में जमीन पर बेड-शीट बिछाकर धूल भरे माहौल में बूढे-पिताजी सोते हुए बार-बार करवटें बदल रहे होंगे , दो घंटे से किस प्रकार असहनीय यंत्रणा को सह रहे होंगे । उधर शायद नीचे पार्थ को भी थोड़ी-सी जगह नहीं मिली होगी। वह इस भरी दुपहरी में तपती धूप के अंदर यहाँ-वहाँ भटक रहे होंगे या फिर नर्सिंग होम के दरवाजे के सहारे खड़ा होकर सिगरेट पी रहे होंगे। वहीं नजदीक में एक नेपाली दरबान स्टूल पर बैठे-बठे झपकी लगा रहा होगा।

उसका मन बार-बार उनके लिए कराह रहा था कि एक बार ऊपर जाकर पापा को देख आएँ और एक बार नीचे जाकर पार्थ को। मगर क्या करे ? उसके लिए सीढ़ी चढ़ना-उतरना मना है।

इतना कुछ घटित होने के बावजूद भी जैसे कुछ भी घटना नहीं घटी हो, माँ अनजान-सी बनकर पान बना रही थीं। उन दोनों के जाने के बाद पास वाले बेड में सो रही पारामिता की हम-उम्र जयन्ती को देखकर वह बोलने लगी थीं,

“इतना गुस्सा किस बात के लिए ? बोलो तो बेटी ! हम लोग उनकी पत्नी और बच्चे के लिए यहाँ पडे हुए हैं या नहीं ? सच बता रही हूँ उनके तेवर देखकर मुझे यहाँ रहने का कतई मन नहीं हो रहा है। लेकिन बेटी को इस हालत में छोड़कर घर जाने से लोग क्या कहेंगे ?”

पारामिता की तरफ देखकर फिर जयंती को बोलने लगी,

“माँ मंगला देवी को नमन करती हूँ कि कितनी जल्दी मेरी बेटी को बच्चा हो जाए !”

पारामिता की तरफ देखकर जयंती हँसने लगी। यह समस्या तो उसके साथ भी थी। बहुत सारे डॉक्टरों व अस्पतालों का चक्कर काटने के बाद वह यहाँ पहुँची थी। उसने ऑपरेशन तो पहले भी नहीं करवाया था। जयंती की फैलोपियन टयूब में श्लेष्मा बनने की बीमारी थी, इसलिए शादी के बारह साल गुजर जाने के बाद भी मातृत्व-सुख से वह वंचित थी। ऐसा क्यों होता है ? पृथ्वी के किसी भू-भाग में अकाल तो किसी भू-भाग में हरियाली ही हरियाली।

जयंती की माँ एक दिन बता रही थी, “घर में खेती-बाड़ी है, धन-संपति की कोई कमी नहीं है मगर उपभोग करने वाला कोई वारिस नहीं है। बेटी की यही चिन्ता मुझे ज्यादा खाए जाती है। यही कारण है, मैं अपना घर-बार छोड़कर यहाँ पड़ी हुई हूँ। इसके पापा सब-डिविजनल ऑफिसर है, उनके पास तो बिल्कुल फुर्सत नहीं है। मेरा बेटा ब्रह्मपुर मेड़िकल कॉलेज में पढ़ता है। उसने हमें इस नर्सिंग-होम में भर्ती करवाया है। उसको बीच-बीच में फोन करने के लिए बोली थी। इससे बढ़कर और मैं क्या करुँगी ? अगर मैं यहाँ से चली जाऊँगी तो मेरा दामाद कुछ भी नहीं कर पाएगा। देख नहीं रहे हो, किस प्रकार दामाद बेचैन हो रहे हैं ? बेटे का एक दोस्त इस नर्सिंग-होम में काम करता है इसलिए ध्यान रखने के लिए बेटा उसको हमारे बारे में बता कर गया है।”

पारामिता इस बात को अच्छी तरह जानती है कि जयंती की माँ अपने दामाद को बिल्कुल पसंद नहीं करती है। छोटी-मोटी हर बात पर टोकती रहती है और अगर दो-चार लोग मौजूद हों तो कहना ही क्या ! ताने पर ताना मारकर दामाद की खिल्ली उड़ाती है। इतना अपमानित करने के पीछे एक ही कारण है जयंती का पति पढ़ा-लिखा नहीं है, वह केवल खेती-बाड़ी करता है ! चूँकि जयंती का रंग काला था, अतः उसकी शादी में कई अड़चने आ रही थी। कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी नहीं कर पाई थी कि उसकी शादी इस लड़के के साथ करवा दी गई। दामाद के पास वैसे तो बहुत सारे खेत-खलिहान हैं, मगर जयंती के पिताजी के तुल्य ओहदे वाले नहीं हैं। यही सोचकर जयंती की माँ उनको बार-बार नीचा दिखाती थी।

कभी-कभी तो जयंती अपमान के इन घूंटों को चुपचाप पी जाती थी, पर कभी-कभी बरदाश्त से बाहर होने पर वह अकेले बैठकर रोने लगती थी। यह देखकर पारामिता का मन बड़ा दुःखी हो जाता था। एक बार उसने जयंती को समझाया भी था यह कहकर-

“खासकर इन फालतू-बातों को लेकर आपका रोना-धोना अनुचित है। आप तो खुद बड़ी समझदार औरत हैं। इतना संवेदनशील होने से चलेगा ! ऊपर से आपकी तबीयत भी ठीक नहीं है। नीचे जो दो टाँके लगे हुए हैं, वे भी पक गए हैं। उनमें सेप्टिक हो गया है। उस दिन डॉक्टर भी बता रहे थे कि धीरे-धीरे यह संक्रमण शरीर के दूसरे हिस्सों में फैल रहा है। इस हालत में रोने-धोने से घाव भरने में भी परेशानी होगी।”

“मुझे कुछ भी नहीं चाहिए, न बाल-बच्चा और न ही कोई घर-बार” रोते-रोते बोलने लगी थी जयंती। “अभी तक तो मेरा कोई बच्चा नहीं है, और आगे नहीं होगा तो क्या होगा ? नहीं होगा। दूसरी बात मैं कितने साल और जिन्दा रहूँगी ? जब एक चीज का अभाव है, तब इतनी सारी बातें सुननी पड़ती है, इतना कुछ सहन करना पड़ता है। माँ के मन में जब जो कुछ आता है, बकती जाती हैं। मैं उनकी धर्म-पत्नी हूँ तथा इनकी बेटी हूँ। इसलिए ये दोनों ही मुझ पर जितना चाहें उतना गुस्सा निकाल सकते हैं।”

पारामिता इस बात को समझ नहीं पाती थी कि इंसान-इंसान के बीच आत्मीयता का इतना अभाव क्यों ? मानो सभी ने अपनी स्वेच्छा से स्वतंत्र जीवन जीना स्वीकार कर लिया हो तथा उनके बीच में संदेह, अविश्वास और नफरत के कुँहासे की अभेद्य दीवार खड़ी हो गई हो । इस पार से उस पार किसी को कुछ भी नहीं दिखता है। जयंती से पहले, इस बेड पर हेमा बेहेरा भर्ती थी। वह पूर्णतया अनपढ़ , अपरिष्कृत तथा देहाती औरत थी। उसके पास परिचारक के तौर पर उसके पति साथ थे, जो कलकत्ता की किसी जूट-मिल में कैजुअल-कामगार के रूप में काम करते थे। उन पति-पत्नी के बीच पारामिता ने अप्रेम,अविश्वास और संदेह की प्राचीर का अनुमान कर लिया था। हेमा बेहेरा के पहले इस बिस्तर पर एक अधेड-उम्र की वृद्धा औरत भर्ती थी और परिचारक के रूप साथ में थे उनके पति, जो कुछ ही दिनों में नौकरी से सेवा-निवृत्त भी होने वाले थे। उनका एक बेटा भुवनेश्वर में बड़ा आफिसर था। दोनों बूढ़ा-बूढ़ी का स्वभाव एक दूसरे से सर्वथा विपरीत था। एक उत्तर चलता था तो दूसरा दक्षिण। मगर गृहस्थ-धर्म में बँधे हुए थे। उनका अपना खून उनका बेटा उन लोगों से कटा-कटा रहता था। पारामिता कई दिनों से इस बात पर गौर कर रही थी, जितने भी लोग इस कैबिन में आए, आते समय एक आत्मीयता के बंधन में बँधे हुए थे परन्तु इस छोटे-से दसफुट गुणा बारह फुट आकार के घर के आधे भाग में साथ-साथ रहने के कुछ ही दिनों के बाद उनमें एक वैर-भाव जागृत हो जाता था। एक-दूसरे के प्रति असहिष्णुता कभी-कभी तो अपने चरम को पार कर जाती थी। तब वह यह समझ नहीं पाती थी कि यथार्थ में कौन-सा रिश्ता अच्छा है ? केबिन में आते समय का प्रेम-भरा रिश्ता अथवा केबिन में रहते समय रिश्तों के जिन रूपों को पारिमिता ने देखे वे रिश्ते ?

उस बूढ़ी औरत का एपीसीटोमी का ऑपरेशन हुआ था। पारामिता जिस दिन इस नर्सिंग-होम में भर्ती हुई थी, अपना सामान सूटकेस, बास्केट आदि कैबिन में लाते समय उस अधमरी अवस्था में पड़ी हुई बूढ़ी को देखा था। एक हाथ में सलाइन लगा हुआ था, जिसको पकड़कर उनके पति एक फोÏल्डग-चेअर में बैठे हुए थे। उसको कुछ ही देर पहले ऑपरेशन थियेटर से बाहर लाया गया था। पास में न सगे-संबंधियों की भीड़ थीं न ही किसी को कोई तत्परता या व्यस्तता थी।

बेटे को छोड़़कर उन बूढ़ा-बूढ़ी के पास कोई भी मिलने वाला नहीं आता था। सुबह कच्चे नारियल का पानी, बिस्कुट तथा दिन में ग्यारह बजे पूर्व-निश्चित किसी होटल से खाना लेकर उसका बूढ़ा पति आता था। दिन में तीन बजे हार्लिक्स तथा रात को खाने को दो रोटी दी जाती थी बूढ़ी को। इस प्रकार की दिनचर्या थी इन लोगों की। इस प्रकार उनके दिन-रात कट रहे थे।

पारिमिता को आश्चर्य लगता था ऑपरेशन होने के छः-सात दिन बाद भी उस वृद्धा औरत का हाल-चाल पूछने कोई नहीं आया। एक बार उनकी बहू जरूर आई थी दोपहर के समय में उनको देखने। केवल तीस-पैंतीस मिनट रूकी और लौट गई। जाते समय उसका मूड़ उखड़ा हुआ था। पारामिता इसके लिए अपने मम्मी-पापा को दोषी मान रही थी। बहुत ही मामूली-सी घटना थी। जब बहू पारामिता के साथ बात कर रही थी तब बुढ़िया को खूब जोर से पेशाब लगा था। वह अपने बिस्तर से उतर कर जमीन पर केंचुए की तरह रेंगती-रेंगती बाथरूम के तरफ जा रही थी। बूढ़ी का बिस्तर से उतरना, रेंगते हुए बाथरूम की तरफ जाना और पुनः बिस्तर पर चढ़ना, ये सभी दृश्य पापा की नजरों में आ गए। पता नहीं क्यों वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाए। बहू की तरफ इशारा करते हुए बोलने लगे, “बेटी, तुम भी जाओ उनके साथ। बूढ़ी है, कहीं गिर न जाए।”

बहू रूमाल से खुद को हवा देते हुए बोली, “वह खुद का काम खुद कर लेती हैं। उनको पकडने की कोई जरूरत नहीं है।”

माँ से भी नहीं रहा गया, वह तुरंत बोल पडी, “तब दूसरा समय था, अब दूसरा समय है। उनकी तबीयत खराब है ना !”

बहू बिना कुछ बोले उठकर बाथरूम के अंदर चली गई। सास के अंदर से बाहर आने के बाद वह ससुर को बिना मिले ही लौट गई । बूढे के आने के बाद पारामिता के पापा इस बात को जितना बल देकर कह रहे थे, परन्तु बूढ़ा-बूढ़ी दोनों इस विषय पर कुछ भी रूचि नहीं दिखा रहे थे। यह सब देखकर पारामिता को ऐसा लग रहा था मानो जीवन के इस मोड़ पर उनके पास बोलने के लिए कुछ भी शब्द नहीं थे, क्योंकि जीवन के इस कड़वे सत्य को उन्होंने यथार्थ रूप से स्वीकार कर लिया था तथा आगे सुधार हो ,इस बारे में वे कुछ भी आशान्वित नहीं थे।

एक दिन पारामिता चुपचाप बैठकर शून्य को निहार रही थी। वह बूढ़ा आदमी फोÏल्डग-चेअर में बैठकर दोनों टाँगों को ऊपर की तरफ उठा लिया था। सीलींग-फेन की तरफ अपलक देखते हुए वह बोल रहा था,

“बेटी ! समझी, मैं वृन्दावन जा रहा था। पर अब कहाँ जाऊँगा ? आधे रास्ते में यहीं पर अटक गया हूँ। पता नहीं, क्या पाप किए थे मैंने ? इस उम्र में भी वृन्दावन जाने का संयोग नहीं बन रहा है।”

बुढ़िया नींद में सोई हुई थी। पारामिता के पापा दोपहर का खाना लाने बुआ के घर गए हुए थे। माँ पास के केबिन में किसी के साथ बातचीत कर रही थीं । इधर वह बूढा कहता ही जा रहा था,

“बेटी, मैं सेवा-निवृत हो गया हूँ। बहुत दिनों तक मैंने नौकरी कर ली। कहीं पर भी आना-जाना नहीं कर पाया। कभी-कभार छुट्टी मिलने पर पुरी-तीर्थ की तरफ जाता था। मन में बहुत बड़ी इच्छा थी कि जब मैं सेवा-निवृत हो जाऊँगा, तो एक बार वृन्दावन अवश्य जाऊँगा। यही तो मात्र एक इच्छा थी, बेटी ! जब मैं वृन्दावन जाने की तैयारी कर रहा था, तब यह बूढ़ी कहने लगी कि वृन्दावन जाने से पहले बहू-बेटा को मिलते हुए जाना। बेटे को मेरे कमर के दर्द के बारे में भी बताना, ताकि वह मुझे किसी अच्छे डॉक्टर को दिखा देगा। इस बाबत मैं भुवनेश्वर आया था और देखो, यहाँ अटक कर रह गया। बेटा कहने लगा, जब तक मैं माँ को किसी डॉक्टर से नहीं दिखा लेता हूँ, आप मत जाइएगा। आप पहले उन्हें गाँव में छोडकर, फिर जहाँ जाना हो वहाँ प्रस्थान कर लीजिएगा। देख रही हो बेटी, मेरा यह वृन्दावन !”

उस बूढे की इन बातों में बेटे के लिए उतनी नहीं, जितनी बुढ़िया के लिए विरक्ति मालूम पड़ती थी। मानो बूढ़ी एक केकड़ा हो तथा उनके पाँव को जोर से जकड़ ली हो। उनके लिए एक-दूसरे से अलग होना तभी संभव है जब उनमें से कोई एक मर नहीं जाता। एक दिन बूढ़ी रात को दस बजे अपने बिस्तर से झुक-झुककर चली गई थी। भुवनेश्वर से उनका बेटा कार लेकर लेने आया था। बूढ़ा-बूढ़ी जितने भी दिन यहाँ भर्ती थे, बेटा मिलने केवल दो ही बार आया था वह भी इसी रात की तरह नौ-दस बजे के समय। बहुत हडबड़ी में रहता था और कुछ कहते हुए चला जाता था। बैठकर भी नहीं, खडे-खडे बातें करता था

“कैसी हो ?”

वृद्धा माँ इससे पहले कुछ उत्तर देती, वह अपने बुजुर्ग पिता की तरफ देखते हुए बोलने लगता था

“पापा, डॉक्टर ने दवाई लिखी हैं ? लाना है तो पर्ची दो, मैं लेकर आता हूँ।”

यह सुनकर वह बूढ़ा शेल्फ में पर्ची ढूँढना शुरु कर देता और बुढ़िया रोते-रोते नाक में बोलती-

“मेरे प्यारे बेटे ! क्यों तुमने मुझे अपना खून दिया ? मेरे बेटे के शरीर से कितना खून मैंने ले लिया ? मुझे अब जिन्दा रह कर क्या करना है ? मैं तो अब मर जाऊँगी। अहा ! अहा ! मेरे बेटे के शरीर से इतना खून ले लिया मैने !....”

बुढ़िया भावुकतावश अपने बेटे का हाथ छूने की कोशिश करने लगी , तभी बूढे ने शेल्फ से खोजकर वह पर्ची निकालकर बेटे को थमा दी । बेटा कहने लगा था,

“बस, आधे घंटे में सारी दवाइयाँ ले आता हूँ।” यह कहते हुए वह आँधी की तरह निकल जाता था। पारामिता को ये सब किसी उद्भट नाटक के दृश्यों की भाँति लगने लगता था। ऐसा लगने के पीछे एक कारण यह भी था, वोल्टेज की कमी की वजह से कमरे का ट्यूबलाइट टिम-टिमा रही थी। इसलिए शाम होते ही ये लोग बैड-लैम्प जला देते थे। जैसे ही बेटा आता था वह ट्यूबलाइट ऑन कर देता था। उस ट्यूबलाइट की मद्धिम टिमटिमाहट में बेटा किसी रंगमंच के पौराणिक उद्भट नाटक के पात्र की तरह चित्र-विचित्र रहस्यमयी भाव भंगिमायुक्त दिखाई देता था और कमरे के सारे परिदृश्य रंगारंग प्रोग्राम की तरह ।

नर्सिंग-होम से डिस्चार्ज होने वाले दिन वह वृद्ध आदमी भोर में जल्दी उठ गया था। उठते ही अपनी दैनिक-दिनचर्या से निवृत होकर उसने अपनी ललाट पर चंदन का टीका लगाया। बेड व शेल्फ के आस-पास उपयोग में लाई हुई दवाइयों के जितने खाली डिब्बे थे, उन सबको पास में रखी हुई कचरे की पेटी में डालकर अपना बक्सा व बेडिंग तैयार किया। वृद्धा ने भी तैयार होकर एक सुंदर-सी साड़ी पहन ली। फिर बाल कंघी कर अपने हाथ से माँग में सिंदूर भर लिया । इसके उपरांत मुख में इलायची के दो दाने डालकर अपने बिस्तर पर सज-धजकर बैठ गई। लेडी डॉक्टर के राउंड पर आने से पूर्व ही बूढे ने कार्यालय में जाकर नर्सिंग-होम के खर्चे का भुगतान कर दिया। लेड़ी डॉक्टर ने बुढ़िया को चेक-अप के बाद वहाँ से डिस्चार्ज होने की अनुमति दे दी। अब दोनों बेटे के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे जो यह कहकर गया था कि नौ-दस बजे वह कार लेकर उनको लेने आएगा। प्रतीक्षा करते-करते दस बज गए, फिर ग्यारह फिर बारह..... मगर बेटा नहीं आया था। जैसे ही बारह बजे, वैसे ही एक नर्स और उसके पीछे स्ट्रेचर पर सलाइन लगा हुआ एक अधमरे -रोगी के साथ उस रूम में घुस आए। मगर वे लोग बिस्तर के पास पहुँचते ही रूक गए।

“ऐ मौसी ! उठ, उठ ” बोलकर वह नर्स चिल्लाने लगी।

बिस्तर से उठने में बुढ़िया को जैसे कष्ट हो रहा हो, देखकर नर्स गुस्से में बोलने लगी

“जल्दी उठ न ! कैसे अजीब लोग हैं ये ? सुबह से डिस्चार्ज हो गए हैं, परन्तु अभी तक बिस्तर छोड़ने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।”

“जा रही हूँ बेटी, जा रही हूँ।”

बुढ़िया असमंजस की स्थिति में थी। समझ नहीं पा रही थी कि कहाँ जाए ? इसी अंतराल में रोगी के साथ वाले सगे-संबंधी लोग भी वहाँ पहुँच गए थे।

पारामिता के पापा ने उन्हें अपने पास बुलाया। उनको वहाँ मात्र ढाई फुट गुणा तीन फुट की जगह मिली थी। इतनी कम जगह में बुढ़िया पापा के पास दीवार के सहारे सटकर बैठी थी, जबकि बूढ़ा नीचे उतर कर अपने बेटे की प्रतीक्षा कर रहा था। जब लौटकर रूम में आया तो बूढ़ी को इस तरह बैठा देखकर बहुत दुःखी हो गया।

“क्या करेंगे, जी ? बेटा भुवनेश्वर से अभी तक नहीं आया। मैं बेटे के पास चला जाऊँ क्या ? इतना विलंब क्यों हो गया उसको ? अगर अभी मैं भुवनेश्वर जाता हूँ तो शाम तक गाड़ी लेकर लौट आऊँगा।” यह कहते-कहते बूढे ने अपनी बची हुई दवाइयों के डिब्बे, बेडिंग व बक्सा सभी लाकर पारामिता के पास खाली छोटी-सी जगह पर एक के ऊपर एक रख दिए।

“वह जरूर आएगा, आप इतना बेचैन क्यों हो रहे हो ?” बुढ़िया ने कहा।

“आयेगा, और कब आएगा ?” झुंझलाकर बोला बूढ़ा।

“साढ़े बारह बजने जा रहे हैं।”

फिर कुछ सोचकर उसने अपना बंद पैकिंग खोला तथा टिफिन-कैरियर बाहर निकाला।

“सुबह-सुबह घर चले जाएँगे, सोचकर मैंने कल से होटल में खाने का आर्डर भी निरस्त करवा दिया था। अब तेल-मसाले युक्त खाना खाना पड़ेगा।”

न तो वह बूढ़ा भुवनेश्वर जा पाया था, न ही केबिन में शांति से बैठ पाया था। केवल ऊपर नीचे हो रहा था। शाम हो गई थी। ऐसा लग रहा था मानो वृद्ध दम्पति के शरीर से प्राण निकल गए हों और बची रह गई हो जैसे दो प्रेतात्माएँ, दो प्रतिच्छायाएँ, दो वाकहीन अस्थिपंजर और मात्र दो अस्तित्व। बेटा हर-बार की तरह रात को दस बजे आया था। उसे अपनी गलती के लिए जरा-सा भी पछतावा नहीं था। ऐसा बर्ताव करने लगा था, जैसे कुछ भी नहीं हुआ हो।

“चलो, चलिए, सब सामान तैयार हैं ?”

उस बुढ़िया के बिस्तर पर जो मरीज लाया गया था, वह थी हेमा बेहरा। एक देहाती औरत। पारामिता के साथ बातचीत करने के लिए बहुत ही बेताब थी, परन्तु उसकी कुत्सित हँसी और लगातार बकबक करने की आदत देखकर पारामिता उसे बिल्कुल पसंद नहीं करती थी। यह बात हेमा बेहेरा की समझ में अच्छी तरह से आ गई थी। वह बोलने लगी-

“मेरे पास बहुत सारे जेवरात हैं, आप जिस तरह से मुझे देख रही हो, वैसी मैं नहीं हूँ। जब सारा जेवर पहन लूँगी तो एक सुन्दर रानी की तरह दिखूँगी।”

इसी बात को बार-बार दोहराती थी वह। पारामिता उसकी इन बातों को सुनकर चौंक गई। सोचने लगी इस औरत की आँखे क्या एक्स-किरणों से भी ज्यादा भेदक क्षमता वाली हैं ? जो बखूबी किसी के भी मन की बातें पढ़ लेती हैं। जरूर ही इस औरत ने दीर्घ एकाकी जीवन जिया होगा। यही वजह हो सकती है कि एकाकीपन ने उसे इतना संवेदनशील बना दिया कि पलक झपकते ही वह हवा की गंध, पानी का रंग और किसी के दिल की व्यथा सब कुछ पढ़ लेती है , उदाहरण के तौर पर उसने एक ही निगाह में पारामिता की नफरत को पढ़ लिया था।

हेमा बेहरा की बातचीत से पता चलता था कि वह अपने पति से संतुष्ट नहीं थी। बातों-बातों में उनकी शिकायत करती रहती थी । जबसे उसे होश आया था तबसे वह अपने पति को गालियाँ दिए जा रही थी। जबकि उसका पति दिखने में बड़ा ही भद्र व सहनशील स्वभाव का दिख रहा था। अपनी पत्नी की हर प्रकार की बातें मान लेता था, यहाँ तक कि कई बार तो उसकी बेतुकी बातों को भी सहन कर लेता था। फिलहाल उसका ऑपरेशन हुए एक ही दिन बीता था, वह मछली-भात खाने की जिद्द करने लगी। उसके पति ने नर्स और नर्सिंग स्टाफ की आँखों में धूल झोंककर उसके लिए मछली-भात का प्रबंध किया । उसने एक दिन पारामिता की मम्मी से भी कहा था-

“मौसी, मैं उसको कुछ भी नहीं कहता हूँ, उसके जो मन में आए, वह करे। बचपन से ही उसके माँ-बाप नहीं हैं, इसलिए मैं कभी भी इसको डाँट-फटकार नहीं करता हूँ। पाँच बीघा जमीन भी इसके नाम से करवा दिया हूँ। एक बड़ा-सा घर भी बनवा दिया हूँ। सोने-चांदी के जेवर भी तैयार करवा दिया हूँ।

(अनुवादक : दिनेश कुमार माली)

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