आलिया के मन्दिर में : डेविड रेन
(29 वर्षीय डेविड रेन अँग्रेजी के युवा लेखक हैं। वह अक्सर इंग्लैण्ड और स्पेन में रहते हैं। प्रारम्भ के कई वर्षों तक आप इंग्लैण्ड और अमरीका की गुप्त पत्रिकाओं में कविताएँ लिखते रहे। आपने लन्दन के कई प्रमुख पत्रों के लिए विएतनाम और अल्जीरिया से सम्बन्धित लेख लिखे हैं। कुछ कहानियों के अतिरिक्त उन्होंने अपना पहला उपन्यास भी लिखा है।)
रिजुआना का रंग हरा था। शाम की हवा में थोड़ी-थोड़ी गर्मी की खुनक थी। बड़ी खुशगवार खुनकें। सिख लड़के अपने कमर तक लम्बे काले बालों को सुखाकर कंघी करके बाँध चुके थे। उनके माता-पिता सफेद शीतल संगमरमर वाले गुरुनानक के गुरुद्वारे पर पूजा करने गये थे और हम केले की हरी-हरी चौड़ी झालरों के नीचे बैठे नशे की फूँक लगाने में डूबे हुए थे। इसे मेरा दोस्त हिरोहिको अफगानिस्तान से लाया था।
धीरे-धीरे अँधेरे की चादर फैलने लगी और रोशनी के रहे-सहे नुमाइन्दे घरों की दीवारों के अन्दर कैद होकर टिमटिमाने लगे। दिल्ली में उन दिनों ब्लैक आउट चल रहा था और हर रात यह डर खड़ा रहता था कि पाकिस्तानी बम न बरस पड़ें। हम सबमें एक युद्धपरक उत्तेजना उसाँसें लिया करती थी। करीब-करीब हर रात एकेक से गोले दगते। सर्च लाइटें रात के आसमान की छानबीन करतीं और लाखों हिन्दुस्तानी बाशिन्दे घरों से निकलकर सड़कों में जमा हो जाते। उनकी आँखें आसमान की ओर ताकती रहतीं। लेकिन हमें कभी एक भी वायुयान न दिखा और न सुनने में ही आया।
कुछ उत्साही किस्म के लोगों ने पब्लिक पार्कों में खाइयाँ खोद रखी थीं। कुछ जो उनसे ज्यादा व्यावहारिक किस्म के प्राणी थे, उन्होंने उन खाइयों को कूड़े से पाटना चालू कर दिया था।
गर्मियों भर हम और डालिया आसमान में रोशनी के शहतीरों का घूमना और हवाई तोपों का दगना सुनते रहे थे। वे हमारे ज्यादा नजदीक थीं, सितारों से ज्यादा। उनसे हमें सुकून मिलने लगा था।
एक छोटा-सा ढोल बजा। हिरोहिको ने अपना माल किरमिच के एक झोले में भरा और हम तीनों गुरुद्वारे के अहाते से होते हुए खाना खाने के लिए चल पड़े। चपातियों के ऊपर हरी सब्जी रखकर सैण्डविच बनाकर खाने लगे। डालिया ने कुल्हड़ों में पानी डाला। उसका हाथ हिल नहीं रहा था और पानी ठण्डा था। साफ भी।
मुझे पता था कि कलाकार बन जाना कोई आसान बात नहीं है लेकिन डालिया की खूबसूरती भी तो गजब की थी। उसने मुझे कलाकार बनाके छोड़ा। उसके बाल क्या गजब के थे, लम्बे-लम्बे, काले कमर को चूमते हुए, चेहरे को छोड़कर कन्धों को ढके लहराते घने-घने बाल। उसका कोमल, धरती की तरह गोरा शरीर, गुलाबी रंग के पंजाबी कुर्ते और सफेद सलवार में बेहद फबता था। रात में वह केवल हल्का कुर्ता डालकर नंगे पैरों मेरे पास घास पर चलकर आती थी। यह उसके शरीर की खूबसूरती थी जो मुझे कलाकार बनाने में सहायक हुई थी।
गुरुद्वारा बहुत दूर तक फैला हुआ था। उसके बगल में कुछ सिख परिवार रहते भी थे। डालिया भी अपने बाप और भाई के साथ एक छोटे-से सफेद पुते मकान में रहती थी। उसकी माँ उसे जनमते ही स्वर्ग सिधार गयी थी। उसके भाई का नाम राजू था। राजू नहीं चाहता था कि डालिया दूसरे लड़कों से हेल-मेल बढ़ाए, इसलिए वह हमेशा डालिया के आगे-पीछे बना रहता था। लेकिन अब वह कॉलेज में था और उसका समय कॉलेज में निकल जाता था। उसकी उम्र थी अठारह साल, मगर था वह बड़ा आदर्शवादी। वही वह डालिया के साथ लागू करता था।
रात का ही समय ऐसा था जब हम दोनों मिल सकते थे और अपनी भावनाओं को सही ढंग से व्यक्त कर सकते थे।
पेड़ों के नीचे लेटकर हम धौरी गायों का चर्र-चर्र करके घास उचारना और नाराज कीड़ों की तरह गोलों का दगना सुनते रहते। दिन ढले जब हवा नम होकर भारी होने लगती, हम स्लीपिंग बैग के ऊपर लेटकर अँधेरा झुकने का इन्तजार करते। बाद में हम अन्दर जाते। हम बमों की, रोशनी की और तोपों की बातें करते - हमीं क्या, सारी दिल्ली यही बातें करती रहती थी। लेकिन कभी कोई बम नहीं गिरा। हमारा प्यार कुछ ऐसा नहीं था कि आप अपनी तरफ से छोड़ दें। और न ऐसा था कि जिन्दगी भर चल जाए। यह निश्चित था कि यह एक दिन महज एक याद बन जाएगा लेकिन याद ऐसी होगी जो काफी दिनों तक जिन्दा रहेगी।
मैं जब नार्वे के अपने शहर से चला था तो बर्फ पिघल रही थी। अपनी बोल्स बैगेन से नेपाल आया, जहाँ मेरी भेंट हिरोहिको से हुई। फिर दिल्ली हम दोनों साथ आये। काठमाण्डू में मेरी कार तीन हजार रुपये में ब्लैक मार्केट में बिकी। गर्मियों भर मैं दिल्ली में इस कोशिश में रहा कि मेरे लिए इस बेकार करेंसी का पौण्ड या डालर में एक्सचेंज मिल जाए। यह गैरकानूनी काम था, जो मुश्किल भी।
लेकिन बाहरी सिखों की शानदार मेहमाननवाजी! मैं उसी के बल पर रह सका और रामसिंह की लड़की को प्यार करने लगा।
चित्र बनाने की मेरी ख्वाहिश ने मुझे सड़क पर ला छोड़ा, ताकि मैं अपने काम को और अच्छी तरह समझ सकूँ और इतनी रुचि जाग्रत कर लूँ कि फिर उसे अपनाये रह सकूँ। डालिया से मैं इसी तरह मिला था। वह मेरे लम्बे-लम्बे बाल देखकर हँसती रही थी। उसने मुझसे कहा कि मैं सिखों की तरह साफा बाँधा करूँ ताकि बाल गन्दे न होने पाएँ। प्यार का सिलसिला बढ़ाने का यह एक अच्छा तरीका था।
एक शाम जब राजू देर तक कॉलेज में था, हमने एक स्कूटर टैक्सी किराये पर की और बेंगर्स में डिनर खाने चले गये। खाने के लिए जगह बहुत बढ़िया थी वह, लगे कि आप किसी शाही जगह में खाना खा रहे हैं। डालिया को भी जगह पसन्द आयी। मैंने हवाइयन स्टीक मँगाया और डालिया ने ‘मद्रास करी’ मँगायी। फिर हम दोनों ने आइसक्रीम की डबल प्लेटें मँगायीं। क्या लज्जत थी।
“मैं माँ बननेवाली हूँ।” उसने कहा।
उदासी का वहाँ कोई नाम नहीं। बल्कि अच्छा लगा। मुझे कोई चिन्ता नहीं हुई और मैं अपनी आइसक्रीम खाता रहा।
“कुछ समझे?” उसने पूछा, “मैं बच्चे की माँ बनने वाली हूँ, बच्चा हमारा और तुम्हारा!”
“समझा।” मैंने कहा और उसका हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाने लगा।
“बेहद प्यार करती हूँ तुम्हें!” उसकी आँखों की चमक प्यार के छलछलाये आँसुओं से दुगुनी हो गयी।
“और आइसक्रीम मँगाऊँ?” मैंने पूछा।
“नहीं, अब और नहीं खा सकूँगी।”
“तब फिर बिल मँगाता हूँ।”
हम कनाट प्लेस पार करके नेहरू पार्क में थोड़ी देर टहलते रहे।
“तुम दिल्ली से बाहर चले जाओ। यहाँ रहना तुम्हारे लिए खतरनाक है। मेरे बाप को पता चलेगा तो तुम्हें जान से मार डालेगा।”
“हम साथ-साथ नहीं जा सकते?”
“ऐसा मुमकिन नहीं है। मेरे पास पासपोर्ट नहीं है और हिन्दुस्तान में साथ रह नहीं सकती। तुम भूल जाते हो कि मैं सिख हूँ। मैं चला लूँगी किसी तरह।”
लेकिन कोई-न-कोई रास्ता तो होना ही चाहिए।
अब कहने को कुछ भी नहीं रह गया था। हम चुपचाप चलते रहे, पूरी तरह टूटे हुए। खतरे से मैं वाकिफ था। हर सिख सरदार के पीछे नाम में सिंह लगा रहता है। सिंह का मतलब होता है शेर और शेर अपने पराक्रम को बड़ी गम्भीरता से पहचानते हैं।
“तुम मुझे प्यार करते हो?” उसने पूछा और मेरे हाथ की पकड़ को भींचती चली गयी।
“मेरी गुलबन्नो, तुम्हें बेहद प्यार करता हूँ।”
उसके पूछने में कुछ बेताबी थी, अजीब-सी तड़प।
डालिया को राजू के घर पहुँचने से पहले पहुँच जाना था, इसलिए उसे टैक्सी में बैठाया और ड्राइवर को समझाकर विदा कर दिया।
पार्लियामेण्ट स्ट्रीट का टी-हाउस खचाखच भरा हुआ था। लोग सुरक्षा सेनाओं की रात्रिकालीन परेड देखने आये हुए थे। मैंने एक ठण्डी कॉफी का ऑर्डर दिया और इन्तजार करने लगा कि कोई सम्पर्क में आवे और मेरा काम बने। मैंने समझा था कि आज की रात तो मुझे कहीं-न-कहीं से एक्सचेंज मिल ही जाएगा।
“ए मिस्टर, अपना रुपया एक्सचेंज करना चाहते हो?” फटे चीथड़ों में एक आवारा-से लड़के ने कहा।
“कर भी सकता हूँ।”
“अभी दो मिनट में आया, बाहर मिल जाइए।” उसने कहा और तुरन्त गायब हो गया।
फुटपाथ में मारे भीड़ के कहीं तिल धरने की जगह नहीं, मगर मैंने इधर अपनी सीट छोड़ी और उसने मुझे आ पकड़ा।
“एक टैक्सी ले लेते हैं।”
उसने ड्राइवर को शहर के बीच से ले जाते हुए पुरानी दिल्ली में सदर बाजार से परे एक गली में टैक्सी ले चलने को कहा। गली में रोशनी रोयी-रोयी-सी थी। वहाँ पहुँचकर एक लकड़ी के बने घर में हम किनारे लगे जीने से चढ़कर ऊपर गये। ऊपर पहुँचे तो दरवाजा बिलकुल खुला हुआ था। एक स्टोव जल रहा था। उसके गिर्द दो औरतें खाना बना रही थीं। कमरे की हवा में धुएँ का नीलापन घुलकर जम गया था और चिकनाई के स्टोव पर जलने की गन्ध से पूरा कमरा भर गया था। बच्चे हर जगह उछल-कूद मचाये हुए थे।
कमरे के पीछे की ओर दो बिस्तर पड़े थे जिन पर परदे खिंचे हुए थे। लेकिन उन परदों के आर-पार बीच-बीच से सबकुछ दिखाई देता था। लगता था कि वे परदे ग्राहकों की सुविधा के लिए डाले गये थे लेकिन उससे उन्हें कोई फायदा नहीं होता था। परिवार में निस्संकोच वेश्यावृत्ति चलती रहती थी। सारा कमरा बड़ा गन्दा लग रहा था। उसी एक कमरे में दस आदमियों का रहना, खाना-पीना, उठना-बैठना और ऊपर से धन्धा चलाना। करीब बारह साल की लड़की पाँच रुपये के लिए अपना शरीर देने को मेरे पीछे लग गयी। मैंने कहा - मैं रुपया खर्च करने नहीं, बदलने आया हूँ तो उसने अपना भाव कम कर दिया और पाँच रुपये से तीन रुपये पर उतरकर जिद करने लगी।
“यहाँ आइए,” उस लड़के ने मेरी ओर इशारा करके कमरे को पार करके चले आने को कहा।
“आप नेपाली रुपया बदलना चाहते हैं?” एक बूढ़े-से आदमी ने अपने खिचड़ी बालों पर हाथ फेरते हुए कहा।
“हाँ, अगर सौदा ठीक-ठीक पट सके,” मैंने जवाब दिया।
“भाव तो बिलकुल वाजिब ही है,” उसने कहा और मेरे बैठने के लिए गद्दे की तरफ इशारा किया जो जमीन पर पड़ा हुआ था।
“एक डालर के कितने रुपये लेते हो?” मैंने पूछा।
“आपके पास कितने रुपये हैं?” उसने पूछा।
“तीन हजार।”
“निकालिए!”
मैंने कमर से मनीबेल्ट खोला और रुपयों का ढेर जमीन पर उँड़ेल दिया, उसने गिना-वातावरण में अपरिचय का तनाव बढ़ता-सा लगा। मैंने समझा कि पुलिस के डर से चिन्तित हो गये हैं।
“एक मिनट ठहरिए,” कहकर वह एक परदे के पीछे चला गया। वहाँ किसी से फुसफुसाकर बात करता रहा। फिर बाहर आकर एक डॉलर का नोट जमीन पर रख दिया।
“यह क्या तमाशा है?” मैंने अन्दर के गुस्से को थोड़ा संयत रखते हुए कहा और अपने रुपये बटोरने के लिए हाथ बढ़ाया ही था कि एक सिख कृपाण रुपयों की ढेरी के बीच आ गड़ा और मेरा हाथ संयोग से उसके नीचे नहीं आया।
“यह डॉलर उठाओ और रास्ता नापो।” राजू ने कहा। मैंने मुड़कर देखा तो डालिया का भाई आग-बबूला मेरे सामने था। गुस्से में मैं था ही। मैंने एक हाथ उसे रसीद करने की जी-तोड़ कोशिश की, लेकिन मेरे बाजू उनके मजबूत हाथों की पकड़ ने झुका दिये।
“चुपचाप निकलकर चले जाओ, नहीं तो जान से मार डालूँगा!” उसने दृढ़ स्वर में दाँत पीसते हुए धीमे से कहा।
“और तुम मेरा रुपया अपने कब्जे में करोगे?”
“अभी बुढ़ऊ ने कहा था न कि भाव बिलकुल वाजिब है। मेरी बहन इन सौ-दो सौ डॉलर से ज्यादा कीमती है। बोल है कि नहीं? यह एक डॉलर इसलिए है कि आज रात वह तुम्हारे पास नहीं आने की। इससे अपनी जरूरत पूरी कर लेना। हमें इज्जत करना भी आता है, मजाक भी। समझे?”
मेरे चेहरे से खून का कोई कतरा लुढ़ककर बहने को था, ऐसा मुझे साफ मालूम पड़ गया। मेरा सिर चकरा रहा था। मैं निढाल होकर गिर पड़ा।
काफी देर तक मैं अर्द्ध-बेहोशी की हालत में पड़ा रहा। सारी दुनिया मेरे सामने रफ्तार से घूमती चली जा रही थी और मुझे यह रफ्तार कहीं लिये जा रही थी, यह भी मैं जान न पा रहा था। मैंने कोशिश करके आँखें फेरीं तो देखा कि यह रफ्तार एक्सप्रेस गाड़ी की थी। सामान रखनेवाले ऊपरी हिस्से से मैंने नीचे झाँका तो कम्पार्टमेण्ट खचाखच भरा हुआ था। उन्होंने मुझे किसी बाटवाले बर्तन से मारा होगा। क्योंकि मैंने याद किया कि होश खोने के पहले ऐसी ही कोई आवाज सुनाई पड़ी थी। मेरी कमीज की ऊपर की जेब में वही एक डॉलर और कलकत्ते का टिकट पड़ा हुआ था। मैंने पड़े-पड़े महसूस किया जैसे किसी का कोमल स्पर्श मेरे चोट से भन्ना रहे सिर को सहला रहा है। मैं एक कलाकार था, यह मैं बहुत अच्छी तरह जानता था। डालिया के प्यार की यही तो देन थी - कि मैं अपनी इच्छाओं को साकार करने में लगा रह सकूँ। और मैंने उसे दी अपनी एक सन्तान!