अलिप्त (कहानी) : गुरुदत्त

Alipt (Hindi Story) : Gurudutt

कृष्णकिशोर लाहौर के एक कॉलेज में अंग्रेजी का प्राध्यापक था । साहित्यिक अभिरुचिवाले अन्य व्यक्तियों की भाँति ही कृष्णकिशोर भी स्वप्न- लोक में विचरण किया करता था । वह कहानियाँ लिखकर पत्रिकाओं में प्रकाशित करवाता । उसकी कहानियों की खूब माँग थी । वह आश्चर्यकारक चरित्रों के चित्रण के लिए प्रसिद्ध था । जिस प्रकार उसका अपनी लेखनी पर अधिकार था , वैसी ही उसकी वाणी भी थी और जब कभी उसको अपने मन- भावने लेखकों के विषय पर बोलने का अवसर मिलता , तब वह उस लेखक के मुख्य -मुख्य चरित्रों का चित्रण विस्तारपूर्वक करता ।

एक दिन कालिदास की शकुंतला का चित्रण उसने अपनी कक्षा में प्रारंभ किया । निमीलित -नयन वह बोलता ही गया । उसके द्वारा किया गया शकुंतला की सुंदरता का वर्णन बहुत ही रोचक था । उसने शिख से लेकर नख तक शकुंतला के सौंदर्य का वर्णन किया । इस वर्णन में पर्याप्त समय व्यतीत हो गया, किंतु उसकी वाणी में इतना माधुर्य

और इतनी रोचकता थी कि पीरियड की घंटी बजने पर भी किसी छात्र ने उसका ध्यान इस ओर आकृष्ट नहीं किया । वह स्वयं तो मानो अध्यापन -कक्षा में था ही नहीं । उस समय उसका मस्तिष्क , सहस्रों वर्ष पीछे प्रागैतिहासिक युग में , जबकि कुमारिकाएँ निर्भय होकर सघन वनों में भ्रमण किया करती थीं और जब दार्शनिक - गण नगरों की अपेक्षा वन्य - जीवन को प्राथमिकता देते थे, विचरण कर रहा था । उसने अपने मस्तिष्क में एक आश्रम कन्या का चित्र अंकित कर लिया था और अब कल्पना की उड़ानें भरता हुआ वह उसका चित्रण कर रहा था ।

यथासमय उसका चित्रण पूर्ण हुआ और श्रोता - छात्रों के साथ- साथ वह स्वयं भी निमीलित नेत्रों से स्वयं-निर्मित दृश्य का अवलोकन करने लगा । वह दृश्य इतना आनंददायक था कि कुछ क्षणों के लिए वह मुर्छना - लोक में विचरण करने लगा । छात्र भी इतने मंत्रमुग्ध से हो गए थे कि अपने - अपने स्थानों पर मानो उन्हें स्थिर कर दिया गया हो , इस प्रकार वे निश्चल बैठे हुए थे। कुछ ही क्षणों में कृष्णकिशोर ने अपने नेत्रों को खोला और अध्यापन -कक्षा एवं छात्रों की वहाँ पर उपस्थिति से उसके मस्तिष्क में अंकित वह काल्पनिक दृश्य तिरोहित होने लगा । वह अपनी साधारण स्थिति में आ गया और अपने सम्मुख बैठे छात्रों से उसने पूछा, " क्या समय हुआ है? "

" दो पीरियड बीत गए हैं । "
" ओह , मुझे खेद है कि मैंने बहुत समय ले लिया । अब आप जा सकते हैं । "
इस प्रकार छात्र शांतिपूर्वक कक्षा से बाहर हो गए और कृष्णकिशोर अध्यापक -कक्ष में चला गया ।

ठीक इसके दूसरे दिन उसको एक पत्र प्राप्त हुआ । इसे पढ़ने पर वह विचित्र स्थिति में पड़ गया । उसने उस पत्र को बार - बार पढ़ा , मानो उसमें से वह कुछ ढूँढ़ना चाहता हो , किंतु पाने में असमर्थ रहा । पत्र कोई बहुत लंबा नहीं था । उसमें कुछ ही पंक्तियाँ थीं , जो इस प्रकार थीं -

महोदय ,
कल का आपका शकुंतला का वर्णन निश्चित ही मेरा वर्णन था । मैं देख रही थी कि आपकी आँखें अर्ध निमीलित थीं और उनकी पुतलियाँ मुझ पर केंद्रित थीं । निस्संशय आपने नख से शिख तक मेरा ही वर्णन किया है और यह बात तो मुझ पर तब और भी स्पष्ट हो गई, जब आपने चिबुक पर तिल का उल्लेख किया । निश्चित ही वह तिल आपने मेरी चिबुक पर देखा था ।

आपकी व्याख्या इतनी विस्तृत थी और इस प्रकार विस्तृत की गई थी कि मुझे इसमें संदेह ही नहीं रहा कि आप मुझसे प्रेम करते हैं । यदि ऐसा है, जैसा कि मेरा विश्वास है, तो मैं आपको चेतावनी देती हूँ कि भविष्य में आप सावधान रहें । इसका परिणाम बहुत ही बुरा भी हो सकता है ।

- आपकी
आप भली प्रकार जानते हैं ।

अनेक बार इस पत्र को पढ़ने के अनंतर प्रोफेसर ने उसको मोड़कर अपने कोट की ऊपरी जेब में रख लिया । उसका अनुमान था कि कक्षा में कोई इस प्रकार की छात्रा होगी, जिसकी चिबुक पर तिल होगा और किसी शरारती छात्र ने उन दोनों की खिल्ली उड़ने के लिए यह दुष्कृत्य किया होगा । वह जानना चाहता था कि क्या वास्तव में कोई ऐसी छात्रा है भी कि नहीं । उस दिन कक्षा में पढ़ाते हुए उसकी दृष्टि ऐसी छात्रा की खोज करती रही थी , जिसकी चिबुक पर तिल हो । सौभाग्य से प्रथम पंक्ति में ही बैठी हुई एक ऐसी छात्रा पर उसकी दृष्टि अटक गई ।

सहसा उसके मस्तिष्क में एक विचार आया और उसने छात्रों से कहा कि कल वे मेरा प्रिय लेखक इस शीर्षक से एक निबंध लिखकर लाएँ ।

इस प्रकार दूसरे दिन उसने घर पर संशोधनार्थ ले जाने के लिए सबकी कॉपियाँ एकत्रित की । इसमें उसने उस छात्रा की कॉपी विशेष ध्यान से रखी, जिसकी चिबुक पर उसने तिल देखा था । उसे यह देखकर विस्मय हुआ कि कॉपी देते समय वह छात्रा काँप रही थी । कॉपियाँ एकत्रित करने के बाद उसने छात्रों से कहा कि उनमें से कुछ निबंधों को वह कल कक्षा में अपनी समालोचना के साथ प्रस्तुत करेगा ।

घर पर जाकर उसने इस रहस्यमय पत्र का लेख और उस छात्रा के लेख को मिलाया । उसने देखा कि दोनों में समानता है । इतनी समानता संदेह के लिए कारण ही नहीं रह गया था । इससे भी बढ़कर विस्मय की बात यह थी कि उस छात्रा का नाम भी शकुंतला था , जिसे उसने कॉपी के आवरण पर लिखा हुआ देखा । इससे यह स्पष्ट हो गया कि पत्र छात्रा ने स्वयं ही लिखा है । इससे प्रोफेसर ने यही अनुमान लगाया कि वह छात्रा स्वयं को बहुत सुंदर समझती है, जबकि उसकी यह धारणा भ्रांत है । वह प्रोफेसर के स्वप्नलोक की शकुंतला नहीं हो सकती थी ।

अगले दिन पूर्व निश्चयानुसार उसने अपनी समालोचना के साथ कुछ निबंधों को कक्षा में पढ़कर सुनाया । उसमें शकुंतला का निबंध भी सुनाया और उसकी इतनी कटु आलोचना की कि शकुंतला की आँखों में आँसू भर आए । प्रोफेसर ने भी उन आँसुओं को देखा और इससे उसके विचार कुछ और ही बन गए । उसने अनुमान लगाया कि वह छात्रा समझती होगी, क्योंकि मैं उससे प्यार करता हूँ , अतः मैं कक्षा में उसके निबंध की भूरि - भूरि प्रशंसा करूँगा, किंतु अब उसके विपरीत बात देखकर उसे आघात पहुँचा है और उसके परिणामस्वरूप उसकी आँखों में आँसू भर आए हैं । इससे प्रोफेसर ने अनुमान लगाया कि वह छात्रा स्वयं उसे प्यार करती होगी और उसके विचारों को उकसाने के लिए ही उसने वह पत्र भेजा होगा । अब ये आँसू उसकी निराशा के सूचक हैं ।

जब उसने अपने मन में इस विषय पर इस प्रकार विचार किया तो उसको सांत्वना मिली । कुछ भी हो , वह उसको प्यार नहीं कर सकता था , क्योंकि वह उसके स्वप्नों की रानी नहीं थी ।

उसी दिन सायंकाल जब वह कॉलेज से घर जा रहा था, उसने देखा कि उसी मार्ग से वह लड़की अकेली जा रही है । उसने अपनी साइकिल कुछ तेज की और जब वह उसके निकट पहुँच गया, तो उससे बोला, " शकुंतला, यह लो तुम्हारा पत्र । "

शकुंतला ने विस्मय से उसकी ओर देखा और कहने लगी, " कौन सा पत्र ? मैं इस विषय में कुछ नहीं जानती । "

" कुमारीजी, असत्य भाषण मत कीजिए । यह पत्र वापस लीजिए और यह भी जान लीजिए कि आपको यह भ्रांति हो गई थी कि आप मेरी शकुंतला का उदाहरण हो सकती हैं , पर मैंने तुम्हारे विषय में कभी इसके अतिरिक्त अन्य कोई विचार ही नहीं किया कि तुम केवल मेरी शिष्या हो । "
शकुंतला अभी भी विस्फारित नेत्रों से उसे निहार रही थी ।

उसको अन्यमनस्क - सी पा प्रोफेसर ने पुनः कहा, " मैं समझता हूँ कि इससे तुम्हें निराशा हुई है, यह इसलिए कि तुम मुझसे कुछ अनपेक्षित की अपेक्षा करती थी । तुम्हें चाहिए कि एक सुशील छात्रा की भाँति अपने अभिभावकों की आज्ञाकारिणी रहो । ईश्वर तुम्हारा भला करे । "

इतना कह उसने वह पत्र उसके सम्मुख फेंका और अपनी साइकिल पर सवार होकर आगे बढ़ गया ।
शकुंतला ने पत्र उठाया । अपनी तुच्छता का अनुभव कर उसके टुकड़े- टुकड़े कर सड़क पर फेंक दिए । प्रोफेसर किशोर अपनी साइकिल पर घर की ओर जाता हुआ गुनगुना रहा था -

" उन्मुक्त विहग की नाई , रहूँ मैं भी ,
अलिप्त, इस भव-बंधन से । "