अकेली मझली साँहिली-आँधी और बरसात (नेपाली कहानी) : असीत राई

Akeli Majhli Sanhili-Andhi Aur Barsat (Nepali Story) : Asit Rai

चट्टान की तरह मजबूत छाती वाली आँधी और बरसात के गहन अंधकार को लताड़ती-पछाड़ती मेरे घर को काले,के पिता के कटरेको,चेचक के दाग वाले महाजन की अट्टालिका को, लहलहाते मकई के पौधों को, खिलने वाली इस्कुस की कतारों को रगड़ती-रौंदती हुई पृथ्वी की छाती पर लातें और मुक्कों से वार करती जा रही थी।

फिसलन-भरी राहों में गोर्खाली पुत्री, साहिली जबरन गिरती-पड़ती गोद में तीन माह के शिशु को दबाए बढ़ती जा रही है। साहिली ऐसे चल रही है मानो उसके लिए वर्षा नहीं हो रही है, आँधी बरसात ने मानो उसे अंकवार कर रखा हो। रात पथ-प्रदर्शक की भाँति हो। हिम्मतवाली साहिली, हस्ते की पुत्री की कुछ रूँआसी आँखों में क्यों प्रतिरोध,आक्रोश की चिनगारी रह-रहकर निकल रही है ? उसके रोएँ काँटों की मानिंद खड़े हैं-जाड़े से नहीं, स्वयं के हृदय के विद्रोह से। उसके हृदय की आँधी के आगे यह आँधी-बरसात नगण्य हैं।

गड़...ड़...ड़...दुं...दुंग !! दुंग !!! की गड़गड़ाहट वातावरण में मानो लगातार थप्पड़ चला रही हो, मानो हृदय निकल गया हो। शरीर की मांसपेशियों व खून की नली में बर्फ-सी जम गई हो। बिजली की चमक जहाँ जाती है आँखें उसके साथ चली जाती हैं। वह निश्चिन्त हो गई अब।"यदि मैं नहीं रहती तो..."वह अपने हृदय की गति के साथ-साथ ताल मिलाने लगी पल-भर के लिए।

केहाँ...केहाँ...गोद का शिशु सारे शरीर में चींटियों द्वारा काटे जाने की तरह रोने लगता है। पहली बार पृथ्वी पर आया कोमल मानव, यहाँ इस तरह की आँधी, बरसात, भूकम्प, दिल दहलाने वाला भू-स्खलन-डरावना भू-स्खलन होगा उसे क्या पता ? वह भयभीत, चिंघाड़ता माँ के मातृत्व से परिपूर्ण दूध से अक्खड़ निर्भय बनना चाहता है, माँ के स्तन को मुँह में लिये वह निश्चित-सा हो जाता है-चभाक, चभाक !!

बेचारी साहिली मन ही मन बेटे को आशीर्वाद देती है, 'बेटा, तुम कलट-मिट्टी में घुसी माता की छाती का दूध पीकर हिम्मती बनना, साहसी बनना। कल छाती पर कटाव की मिट्टी जम जाएगी, हृदय में भयंकर भूकम्प आ जाएगा। सावधान!सावधान ! केशराशि में अब न रुक सकने के कारण बहती पानी की धारा को अपनी हथेली से दोबारा पोंछने के बाद उसने समझा कि कंधे पर भार उठा बेटे की छाती को ढक दिया। अंधकार में ढके दो-चार घरों को पार करने के बाद आँधी-बरसात से जूझती एक घर से आते मद्धिम प्रकाश के हाथ ने मानो बुलाया, वह नीले काँटे में खिंचती मछली की तरह प्रकाश की ओर बढ़ चली। अलसाये अन्धकार में नीरवता को थप्पड़ जड़ते हुए एक कुत्ता अपने घर के मालिक को जगाने लगा-कौन है ? कौन है ? चोर है क्या? हे गृहस्वामी ! हे मालिक!

घर के अन्दर एक सुगबुगाहट हुई। ड्योढ़ी पर कदमों को टेकती एक तरफ गोद में बच्चे को दबाये साहिली उल्टे पाँव लौटने को हुई। नीले-काले भय से ग्रसित : अब शिशु रोदन करने लगा।

"कौन है ?" कहता हुआ दरवाज़ा खुलने की आवाज़ के साथ-साथ बत्ती के प्रकाश में एक वृद्ध चेहरा बाहर निकला। कत्थई रंग की लम्बी पूंछ और छोटे कद वाला एक कुत्ता भौंकते हुए बत्ती के प्रकाश में साकार होता वृद्ध के पाँवों में लोटने लगा।

बाबू!

सीने से शिशु को चिपकाए दुबले चेहरे वाली साहिली थकान से चूर, भीगे वस्त्रों में एकाएक वृद्ध के पैरों में झुक जाती है। वृद्ध के हाथ से बत्ती छूट जाती है, वह स्पर्श से ही बेटी को पहचान जाता है। हस्ते प्रकाश में बेटी को आँखों के सामने देखकर भी किंकर्तव्यविमूढ़ सा बैठा रहा।

साहिली के आँसू हस्ते को सचेत करते हैं। वह बेटी की गोद से शिशु को लेकर अन्दर जाता है। साहिली कुछ क्षणों के लिए अपने आप में खो जाती है, तदुपरान्त बत्ती लेकर अन्दर चली जाती है।

हस्ते खाट पर बैठा अपने नाती को प्यार से सहलाता रहा। बहुत देर के बाद उसे अपनी बेटी की उपस्थिति का ज्ञान हुआ। उसने सिर उठाकर बेटी की ओर 'क्यों क्या हुआ?' जैसे प्रश्नों-भरी नज़रों से देखा। कुछ देर बाद साहिली नयी साड़ी-ब्लाउज-ओढ़नी में चेहरे पर मुस्कान लिये आकर वृद्ध के सामने खड़ी हो गई, सोये शिशु को नये वस्त्रों में लपेट साहिली छाती से लगाती है। हस्ते आनन्द से हँसने लगता है।

दो बोरों को जमीन पर बिछाकर साहिली लेट जाती है। इच्छा न रहते हुए भी हस्ते खाट पर एक तरफ करवट ले लेता है। "क्यों ऐसा क्या हुआ बेटी?" मन की जिज्ञासा का समाधान होने के साथ आँखों की चेतना खो जाती है। सपने में वह साहिली की रोदन-भरी आवाज़ को सुनता है-'बाबू! संसार के पापियों के बीच आप महापापी हैं। धिक्कार ! थू...थू...!' वह टप-टप गिरते आँसुओं का अनुभव करता है। हीनता का अनुभव करता हुआ चेहरा खुजलाने लगता है। आप मेरी ही तरह की हजारों बेटियों की दुर्दशा और उन पर होते अत्यारों के खिलाफ आवाज़ नहीं उठा सकते। आवाज़ के बगैर कुछ भी नहीं होता, बाबू। आप अपने ही खून, अपने ही मांसपिण्ड, अपने हृदय के टुकड़े पर इस आघात को कैसे सह रहे हैं ! धन्य है बाबू, धन्य ! आज कुछ तो कहें, कुछ तो बोलें !"

हस्ते की गली हुई आँखों की पुतलियों के आस-पास विवशता के आँसू आ जाते हैं। बहुत-बहुत बोलकर हृदय की गाँठों को खोलते, सान्त्वना देने का मन होते हुए भी उसके स्वर नहीं फूटते। एक अदृश्य हाथ जोरों से उसके गले को दबाने लगता है, वह हिल भी नहीं सकता, साँस की गति में अन्तर आ जाता है, 'मैं अब ऐसे ही मर जाऊँगा।' वह मन ही मन कहता है। उसकी बेटी निश्चिन्त है, मानो उसके बाबू को कुछ हुआ ही नहीं है। साहिली और चिल्लाती है।

"बाबू, जहाँ जीवित रहने का रहने का सरल रास्ता नहीं मिलता ऐसे संसार में जीवन देने के लिए लाकर भी क्यों पीछे हटते हैं ? इस विवशता और विषमता के मध्य कदम क्यों बढ़ाया? आज अपनी बेटी को देखो-उसकी माँग में सिन्दूर क्यों नहीं चमक रहा है ? कलाई में चूड़ी क्यों नहीं खनकती? चेहरे पर यह विरक्ति क्यों है ? उसके हृदय में यह भयंकर आँधी-बरसात क्योंकर चल रही है ? क्या मेरा युवा जीवन कामुक नर-पिशाचों की भूख को मिटाने के लिए है ? क्यों? आखिर क्यों? यदि मैं चाहती तो अपने नारीत्व को लुटाती हुई आनन्द और हर्ष मना सकती थी, झोंपड़ी को महल बना सकती थी-मैं स्वयं हँसती हुई जी सकती थी। लेकिन मेरे भीतर की वह नारी मर गई, क्यों मरी ! कैसे मरी? इतना जानने का मुझे अधिकार नहीं है।"

हस्ते के कान में कहीं से बेटी की आक्रोश-भरी आवाज़ गूंज रही है, एक अज्ञात भारी हाथ द्वारा अभी भी उसका गला दबता जा रहा है। उसकी साँस बन्द हो जाएगी ऐसा लग रहा है।

'बाबू, अब मैं नारी नहीं पुरुष हृदय लेकर बाँचूंगी,संघर्ष करूंगी, प्रतिकार लूँगी, धिक्कार है, इस नारीत्व को, नारी जन्म को थू!' उसने अपने उन्नत वक्ष पर थूककर कसकर मुक्के से प्रहार किया। लो उसकी छाती सती जा रही है-साहिली की जगह एक दूसरा नवयुवक खड़ा नजर आया।

हस्ते को आश्चर्य लग रहा था गले पर से अदृश्य हाथ हट गया था। उसने लम्बी साँस ली। वह जग गया। भयाक्रान्त भारी बोझ से दबा होने जैसी एकाकी दृष्टि चारों ओर फेरी। प्रकाश की किरणें दीवारों के प्रत्येक छेद और झरोखे से सिर निकाले झाँकने लगी-मर गया क्या? मर गया क्या ?

वह कुछ सुगबुगाया, 'मरा नहीं है,' उसने स्वयं से कहा। नहीं यह घर भी खड़ा है, नहीं तो प्रकाश की लोलुप किरणें क्यों एकटक देखती रहतीं। छत से आयी ज़मीन पर पानी में आए घाम को देखकर उसकी आँखों और हृदय ने आश्चर्य प्रकट किया। खुले दरवाजे से रेंगती गई उसकी आँखों ने देखा-सफा, स्वच्छ दिन। अभी-अभी मेहतर द्वारा परिश्रम से की गई सफाई की तरह, फिर झट से रात की घटना-अभी-अभी देखा हुआ वह स्वप्न आँखों में समा गया।

ढुंग...ढुंग...की आवाज़ के साथ साहिली गरम चाय के मग को लिए हस्ते की खाट के पास आकर बैठ गई निश्चित! भय को नहीं साहिली के निर्दोष चेहरे को उसकी आँखें देखती रहीं। साहिली की घुसी, विक्षिप्त, व्याकुल आँखों ने बहुत याचना की। साहिली के सामने विकटता की, कठिनाई की, जटिलता की दीवारें खड़ी हो गईं-साहिली अवाक् रह गई। अभी हस्ते की प्रिय आँखों ने देखा।

अभी पिता की विशेष आँखें पुत्री के साथ थीं,हस्ते मात्र देखता रहा, देखता रहा। - उसके हृदय में भावनाओं की लहरें मचल रही थीं, अपने आप में विवश भावनाओं की लहरें...।

साहिली नहीं समझ सकी, कुछ भी नहीं समझ सकी-पिताजी क्या कह रहे हैं। उसने सहानुभूति जतायी-बेचारी !

उसने सोचा, यहाँ न्याय कहाँ है? कौन न्याय करेगा?

साहिली को समाज ने ठगा, लूटा, धोखा दिया, अन्याय किया। परन्तु उसके पिता हस्ते जन्म-जन्म के मूक, न बोलने वाले गूंगे हैं।

वह किसके साथ लड़े ? किससे न्याय माँगे?

ठण्डी हवा ने साहिली के शरीर को सिहराते हुए हृदय को छप-छप भिगो दिया। वह नरमाई हुई चूल्हे की ओर गई।

कुछ दिनों से खाँसी से निचोड़ दिया गया हस्ते प्राण-पण से वातावरण को विरक्त बनाता हुआ खाँसने लगा।

वह बिछौने के मन-पसन्द अंकपाश से जबर्दस्ती उठकर घाम की नंगी जीभ से चाटकर, चूसकर पीली हो रही ड्योढ़ी पर पहुँचा। आँखों-देखे सभी दृश्यों को स्वयं सामने पाकर वह मुसकराने लगा। सुन्दर स्वरों में एक चिड़िया मधुर गीत गा रही थी।

'हुँआ ss...हुँआ sss' वातावरण को थप्पड़ मारते शिशु के तीखे क्रन्दन से उसने स्वयं को संयत किया। वह अन्दर चल गया।

फूल जैसे शिशु को जतन के साथ गोद में लेकर उसके गालों पर, ललाट पर, सिर में और हाथों पर एकसाथ चुम्बन देता रहा। साहिली गगरीसे गिरतेजल कीआवाज़ के साथ आनन्दित होती रही-हँसती रही। गगरी से बर्तन में डाले गए जल के कारण उठे बुलबुलों की भाँति साहिली के हृदय में भी आनन्द के भाव उतरते रहे।

दिन अपने-आप ही स्वच्छ होता गया। बहुत दिनों से पोटली बना लटकाकर रखी मस्याम की दाल और ताजे ढुंग-ढुंग साग की सब्जी के साथ भोजन करने के लिए पिता-पुत्री एकसाथ चौके में बैठे। साहिली का दाहिना हाथ भोजन करने में और बायाँ हाथ शिशु के क्रोक्रो (बाँस से बना पालना) के संग हिल रहा था।

हस्ते हर कौर के साथ साहिली को निहारता मगर साहिली अपने पिता के आशय को न समझ कभी दाल कभी सब्जी परोसती रही।

साहिली ने दिन में दो घण्टे लगाकर पिता के पुराने घनिष्ठ पड़ोसी दोस्त रिमाल बूढ़े के यहाँ से गाय का हरा गोबर लाकर लाल मिट्टी के साथ मिला, पपड़ी उखड़ती, धब्बों से दागदार दीवार व जमीन को लीप-पोतकर सुन्दर बना दिया। दादा की ज़मीनसी सुरक्षित धुआँ-सी टूटी-फूटी चार टोकरियों को खेत में जलाकर मल बना डाला। घर अब साफ-स्वच्छ रहने लायक बन गया, आँगन के सामने की डील (ऊँची परती भूमि) की सिस्नु (काँटेदार पत्तों व डालों वाली हरी पौध) को काटकर ऊपर-नीचे क्यारी बना चार बकरियों के लिए दो दिन के चारे के लिए घास निकाल ली। घर के सामने की कुछ ज़मीन को मिर्च, बैंगन और टमाटर रोपने के खयाल से कोड़कर ठीक किया।

देखते ही देखते बाहुपाश में जकड़ी रहने वाली सुन्दरी की तरह दिन भी घृणायुक्त दागदार झुर्रियों वाले चेहरा लिये सिसकियाँ-सी भरने लगा। माँग का सिन्दूर अभी लुट गया था। अनजानी सुस्त चाल में सहानुभूति दिखाती शरीर को खुजलाती बढ़ने लगी।

साहिली ने अपनी गोरी पिंडली में चिपटे खून चूसते जोंक को कुछ भी परवा न करते हुए पत्थर से चटनी की तरह रगड़ दिया और एक बार संध्या की धूमिल छाया में ढकते दूर सामने वाले गाँव को देखती पृथ्वी की ओर बढ़ी। उसी समय हस्ते भी लकड़ी के बोझ से दबा-थका आ पहुँचा। 'धम्म' से एक टिन पर बोझ गिरा दिया। 'हुँआऽऽ... हुँआऽऽ...रोता शिशु नींद से जाग गया। थकान से चूर शरीर में रक्त-संचार जो रुकावट आ गई थी, शिशु का तीखा रोदन उसमें स्फूर्ति भर गया। नारलो (भारी ढोक्के में सहायक रस्सियों से बनी) खुकुरी, (एक विशेष बड़ा धारदार चाकू) टोपी को बोझे के ऊपर ही छोड़कर दौड़ा। साहिली भी पंक से बने पाँवों से बर्तन ज़मीन पर ही छोड़कर जब घर पहुँची तो उसने देखा-शिशु हस्ते की गोद में खेल रहा था।

आज की रात कितनी स्वच्छ है! कहीं पर भी दाग नहीं है। आकाश में तारे मानो अब गिरे तब गिरे। नीरवता भी कभी कोई साँस नहीं फेरती।

हस्ते खाट पर पाँव पसारे लेटा था। साहिली थोड़ी फुर्सत पाकर माँज-माँजकर सजाई काँसे की थाली, कटोरी और ताँबे की गगरी में अपना ही प्रतिबिम्ब देखने की चेष्टा कर रही थी। बच्चा माँ के स्तन को मुँह में लगाए स्वप्न में चूसने लगा। साहिली की आँखों में नींद नहीं अधीरता, व्याकुलता और पीड़ा की लहरें हिलोरें ले रही थीं।

साहिली से, चिरपरिचित एक चेहरे ने कहा, "साहिली, जीवन से हार मत मानना। जीवन को यूँ ही न ठुकरा देना, कीचड़ से, पीड़ा की आँधी से बचाना। मिलन व विछोह जीवन का नियम है। तुम्हें अपने शिशु को समय की आँधी-बरसात से लड़ने की शक्ति प्रदान करके सामर्थ्यवान बनाना है। समझी साहिली ? जीवन में दसों दिशाओं से आँधी-बरसात आते हैं। तुम एक अबला हो। तुम्हारे साथ अभी यौवन है, समय है, भविष्य बनाने का समय है। भविष्य के लिए एक सहारा खोजो। मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ।" साहिली मानो पहाड़ पर से गिरी हो। उसका चेहरा भयाक्रान्त हो गया जोंक लगने की तरह। लम्बी साँस फेरती बच्चे के मुँह से नितम्ब छुड़ा उतान पर गई।

"साहिली, घर-बार किए बगैर नहीं होगा, मैं तुम्हें बहुत ही सुख में रखूगा-रानी की तरह। मृत पति की याद में जीवन क्यों बर्बाद कर रही हो? क्या मिलेगा तुम्हें !"

"काहिंला जी...।"

वह जोर से चिल्लाई। उसने गौर से देखा-उस काहिंला भोटिया के चेहरे को जो वासना-युक्त चेहरा, कामुक चाहत लिये आँखें और पीले दाँत दिखाते हुए हँस रहा था। साहिली को सपने जैसा लगा।

नायलोन जैसी चर्म से ढकी चिरपरिचित नर-कंकाल साहिली के पास से सिर को झुकाए चला गया। साहिली ने अपने पति को पहचाना। सारे रोंगटे खड़े हो गए। छोटे दिल से दायें हाथ से ढिबरी को जरा नजदीक खींचकर तकिये के नीचे दबी बीड़ी (चुरोट) को होंठों से दबा पलकों को उठाती-गिराती जलाने लगी।

धुएँ के छल्लों के दौरान वह स्वयं को बहुत देर तक डुबोये रही। हाथ से ढूँठ बीड़ी को फेंककर एक लम्बी उच्छ्वास निकालती सोचने लगी-

वह (पति) दुबला, रोगी, सीधा, डरपोक और आत्मबल से हीन आदमी था। मेरा और उसका जीवन मात्र माया के वशीभूत ही था।

वह अपने सीधेपन व कायरता के कारण छला गया। मेरे पिता ठहरे सीधे-सादे गूंगे। समय और परिस्थिति की चेतना-विहीन, आँधी-बरसात सब मूक होकर सहने वाले विद्रोह की बझी चिंगारी. पत्थर की तरह है।

यह अबोध है...

वह सोचती जा रही थी-यह समाज जाल, प्रपंच, स्वार्थ, मौकापरस्ती और विश्वासघात से घिरा हुआ है। एक अबला ? मैं। पुनः साहिली ने बीड़ी जलाई और स्वयं के बारे में सोचने लगी। उसने स्वयं को जाँचा, एक शक्ति-सम्पन्न नारी को पाया। यहाँ भूकम्प, बिजली, आँधी-बरसात, तूफान का मुकाबला करते हुए, मनुष्य को ऐसे ही बचना पड़ता है। रोगी और भुक्तभोगी होकर नहीं।

सपने में वह अपने नौजवान बेटे से बोल रही थी-'बेटे.पथ्वी पर के सभी विरोधों को पराजित कर मैंने स्थिति और समय को वश में कर लिया है। अब तुम यहाँ की आँधी-बरसात और विषमताओं को मिलाते हुए एकछत्र राज करो। यह पृथ्वी तुम्हारी अभागिन माँ की छाती है !'

अनुवादक-ओमनारायण गुप्त

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