आकाश, सरदर्द और डूबता सूरज (कहानी) : शंकर दयाल सिंह

Akash, Sardard Aur Doobta Suraj (Hindi Story) : Shanker Dayal Singh

घाटी में चारों ओर गहरा कुहासा छाया हुआ था । सड़क की कतार बने सफेदा और पहाड़ पर खड़े ऊँचे-ऊँचे चीड़ के वृक्षों का अस्तित्व उन्हीं में छिप गया था। सूरज तीन दिन से नजर न आया था। एक खामोश आलसपन घेरे रहता था। ऊपर पहाड़ पर शायद बर्फ बरसी हो, तभी तो यह ठंडक चेस्टर, कोट, ओवरकोट आदि को फाड़कर सीने के भीतर घुस जाना चाहती थी ।

खानसामा ने आकर चाय का प्याला टेबल पर 'खट' से रखा, तो अजित का ध्यान भंग हुआ । सामने बैठी शीला पर उसने एक उड़ती नजर डाली, जेब से । 'गोल्ड फ्लेक' निकालकर जलाई और चाय का एक घूँट होंठों से लगाता हुआ हँस पड़ा, तो शीला भी हँस दी।

'तुम हँसी क्यों ?" अजित ने सिगरेट का दूसरा कश खींचते हुए शीला की ओर ताका ।

" इसलिए कि तुम हँसे ।" उसने मुसकरा भर दिया।

" वाह ! यह भी कोई जवाब हैं। मैं हँसा तो आप भी हँसे और मैं जब चुप रहूँ, तो सरकार भी चुप हो जाएँ।"

खानसामा इसी समय बड़े अदब के साथ आकर बगल में खड़ा हो गया - " सा'ब, अंडा, टोस्ट वगैरह कुछ और लाऊँ ?"

" कुछ नहीं ।" अजित बोला और जब वह जाने को हुआ, तो उसने फिर टोककर पूछा, "खानसामा, यह कुहासा कब तक ऐसे ही छाया रहेगा ? न चाँद नजर आता है, न सूरज । सारा मजा किरकिरा हुआ चाहता है।"

खानसामा महबूब अधेड़ उमर का, औसत कदवाला, गोरा चिट्टा आदमी था। वर्ष में शायद ही कभी नहाता हो, किंतु कपड़े साफ पहना करता था। जिंदगी के दिन उसने साहबों की खिदमत में ही गुजारे थे। बोलने - चालने में उस्ताद था। पहले अंग्रेज साहबों के जमाने में काफी रुपए पैदा हो जाते थे; किंतु इधर हिंदुस्तानी साहब एक- एक पैसा जोड़कर काम चलाते थे । पर चूँकि महबूब साहबों को खुश करने की कला जानता था; कब, कहाँ, क्या बोलना चाहिए, इस गुर में वह निपुण था, इसलिए औसत खानसामों से उसकी आमदनी अधिक होती थी। इस समय साहब का मूड अच्छा था और वह ऐसे मौके पर चूकनेवाला न था । अतः फौरन बोला, “सा'ब, कुहासे में वास्तव में घाटी का मजा कहाँ, जो सूरज की रोशनी में। यों तो आसमान की रंग आज बेहतर नजर आती है और लगता है कि कुहासा आज छँटेगा। तो सा'ब, उसके बाद घाटी की शोभा जी भरकर मेम साब के साथ देखना।" इतना कह वह हँसता हुआ चला गया, तो अजित और शीला भी हँसे बिना न रह सके।

और सचमुच दोपहर होते-होते कुहासा छँटने लगा और सूरज की रोशनी छनती हुई आ लगी। होटल के बाहर आकर अजित ने घाटी की ओर देखा, तो उसका मन अनायास आनंद से भर गया। टेनमर्ग का यह धानी अंचल सूरज के सुनहले प्रकाश में सुनहला रंग लेकर खिल उठा। सफेदा, चीड़ आदि वृक्षों की शोभा निखर उठी। अंचल में बाजरे और भुट्टे के आदमी भर-भर के पौधे हिल-हिलकर हँसने लगे और सेब तथा अखरोट के पेड़ों में लगे छोटे-छोटे फल पीली धूप में चमकने लगे।

अजित शीला को पकड़कर कमरे से बाहर ले आया । बाँह में - बाँह डालकर उसने उसे घाटी की शोभा को दिखाया और फिर खड़े ही खड़े प्रोग्राम बना कि खाने के बाद कुछ देर आराम किया जाएगा और फिर टेनमर्ग के नीचे घाटी में घूमने चला जाएगा।

अजित ने कम उम्र में ही एम.ए. किया था और उसे फक्र था कि उसने कभी भी जिंदगी में सेकंड स्टैंड न किया है, बराबर फर्स्ट आता रहा। साथ ही, जब से उसकी शादी हुई है, वह अपने को परम सौभाग्यशाली मानने लगा है। शीला उसके अनुरूप ही पत्नी मिली है। परिष्कृत विचार, भोला-भाला मुखड़ा । रूप- गुण, आचार-विचार, रहन - सहन - सबमें निपुण | साहित्य में रुचि रखनेवाली । अजित ऐसी ही पत्नी चाहता भी था । सो दोनों एक-दूसरे से प्रसन्न थे। नया यौवन, नया जीवन । दोनों का जी न माना -सैर के लिए चल पड़े कश्मीर !

***

घाटी मानो सपनों से सोकर उठी थी । अजित और शीला टेनमर्ग की घाटी के लोक अंचल में सैर करने उतर गए थे और खानसामा महबूब कभी आगे, कभी पीछे रास्ता दिखाता चल रहा था।

यों तो कश्मीर का चप्पा-चप्पा सौंदर्य और शोभा को अपने में समेटे रहता है, सब कहीं आसमान में रंगीनी और धरती में नयापन नजर आता है, पहाड़ों पर बादलों के टुकड़े चहल- कदमी करते नजर आते हैं और वृक्षों पर पक्षियों का कूजन सुषमा में चार चाँद लगाए रहता है। पर टेनमर्ग का यह धानी अंचल कुछ ऐसा मनहर और लुभावना है कि अपने सामने अन्य कश्मीरी अंचलों को पीछे छोड़ देता है। हवा हौले-हौले गुदगुदाते हुए चलती है, बाजरे और भुट्टे के खेतों के बीच से कभी-कभी कश्मीरी युवतियों का दर्द भरा गीत शुरू होता है, तो हृदय में घुस जाता है और सूरज जब युवा होकर घाटी की ओर ताकता है तो पेड़-पौधे, लता - गुल्म- सभी सुनहला रंग ग्रहण कर लेते।

टेनमर्ग के नीचे कल-कल, छल-छल करता हुआ पथरीला नाला बहता है, उसे फिरोजपुर नाला कहते हैं। सूरज की रोशनी बहते पानी पर चमचमा रही थी और पहाड़ी नाला अपने वेग के साथ बह रहा था। जहाँ-तहाँ गाँववालों ने ऊपर से दो-तीन लकड़ियाँ रखकर पार होने के लिए पुल बना रखा था। अजित ने शीला का हाथ पकड़कर डोलती लकड़ी के तख्ते से धीरे-धीरे उसे पार किया। और तब वे बाजरे के खेत में तंग पगडंडी के सहारे घुसे ।

महबूब आगे-आगे चला जा रहा था। अवसर पाकर बोल पड़ा, "सा'ब, गाँव की पगडंडी ऐसी ही होती है। पतली और गंदी तुम्हें और मेम साब को बड़ी तकलीफ होती होगी।"

अजित खुद भी इसे महसूस कर रहा था। पर हार कैसे मान जाए ! हँसकर बोला, "मेम साहब को बहुत शौक है कि कश्मीर के गाँव को देखें। और तकलीफ ऐसी क्या होगी। " कहकर उसने शीला की ओर देखा । साड़ी के पल्ले को एक हाथ से थोड़ा उठाकर वह किसी कदर धीरे-धीरे चल रही थी ।

बाजरे के खेत से बाहर आने पर बाईं ओर चार-पाँच घरों की एक बस्ती दिखाई दी। पास ही खेत पर एक किसान दिखाई दिया, जो एक साहब को देखकर ठिठक गया। महबूब ने उससे अपनी भाषा में बातें कीं, फिर साहब की ओर मुड़कर बोला, "सा'ब, यह गाँव मायन है। "

" बस, इतना छोटा सा ?" अजित ने आश्चर्य से पूछा ।

"यही, सा'ब, यहाँ गाँव की भला थाह लगेगी ! दो घर यहाँ तो दो घर दो मील दूर, ऐसे ही सब बसे रहते हैं। " महबूब हँसकर बोला।

चार ही घर थे। जब गाँववालों ने देखा, तो बच्चे-बूढ़े- जवान सभी जमा हो गए। न जाने कहाँ का साहब आया है। गाँव का एक बूढ़ा अब्दुल्ला आगे बढ़ा, झुककर अदब के साथ साहब को 'सलाम' किया।

अजित को बड़ा अजीब सा लग रहा था। कश्मीर - यहाँ शोभा हैं, सुषमा है, रंगीनी हैं, प्रकृति की अनमोल मनभावन छटा हैं। बच्चों को उसने पॉकिट से पैसे निकालकर दिए और बूढ़े अब्दुल्ला के हाथों पर दो रुपए का एक नोट रख दिया । बूढ़े के झुर्रियोंवाले गाल पर मुसकराहट दौड़ गई। उसने अपने बेटे को डाँटकर कुछ कहा, वह दौड़कर अंदर गया, पुरानी सी एक खाट लाया और अजित तथा शीला दोनों उस पर बैठ गए। अजित ने खानसामा महबूब के हाथ में सिगरेट का टिन देते हुए सब को बाँट देने को कहा। अब सबके मुँह से फकाफक धुआँ निकल रहा था और आँखों से एक भाव, मानो ऐसे साहब ही रोज कश्मीर आया करें, तो कितना अच्छा होता । इतने में बूढ़ा अब्दुल्ला अपने हाथ में लकड़ी का एक बरतन लिये आया और खाट पर उसने रख दिया, "सा'ब, हम गरीबों के पास है ही क्या जो तुम्हारी खिदमत करें। "

अजित ने इशारा किया, तो खानसामा बोला, "सा'ब, यह कश्मीर का मेवाफल जरदालू है।"

शीला अब तक देखने में ही लगी थी, उसकी मूक सेवा भावना और निरीहता को । उसका साहित्यिक हृदय बार-बार रीझ उठता था। दोनों ने फल खाए, पानी पिया। इसी समय अजित की आँखें ऊपर उठीं। खिड़की से झाँकती हुई दो आँखें, गुलाब की नाई सुकुमार गाल, तरल होंठ, कानों में बड़ी-बड़ी बालियाँ, पीछे की ओर करीने से सजाए बाल, हलकी हलकी सी मुसकराहट और आँखें झुक गईं।

अजित उठकर खड़ा हो गया। ओह ! यही है वास्तविक कश्मीर ।

कुछ दूर तक बहुत लोग उसे छोड़ने आए और जब जाने लगे तो बड़ी अदब से झुककर 'सलाम सा'ब, 'सलाम' मेम सा'ब' कहकर गए।

घाटियों में सूरज बड़ी जल्दी डूब जाता है। फिरोजपुर नाले के पास पहुँचते-पहुँचते सूरज डूबने लगा और ठंडक बढ़ गई। खानसामा ने बताया कि ऊपर पहाड़ पर खिलनमर्ग में बर्फ की बरसा हुई है, इसी कारण ठंडक में सिहरन है ।

फिरोजपुर नाला पार करते समय एक अप्रत्याशित घटना घट गई। वही लड़की आकर सामने खड़ी हो गई और बड़ी बेफिक्री के साथ उसने अजित के सामने हाथ फैला दिया, "सा'ब, एक सिगरेट । "

अजित ने पॉकेट से एक सिगरेट निकालकर दे दी। लड़की ने फिर माचिस माँगी और सिगरेट का एक कश बड़ी जोर से खींचा। अजित ने देखा, उसके होंठों की तरलता और बढ़ गई, उसके गालों की लाली और फैल गई, उसकी आँखें और चमक उठीं। अजित के मुँह से आपसे आप निकल पड़ा, "तेरा नाम ?"

"हुश!" लड़की ने जोर से कहा और वह बाजरे के खेतों में खो गई। अजित कुछ भूलकर उसकी ओर देखता रहा । शीला को यह सब अच्छा न लगा, उसने जोर से कहा, "चलो भी तो।"

अजित चौंक पड़ा, मानो कोई स्वप्न देख रहा हो। बोला, “हाँ... चलो।”

पास खड़ा खानसामा महबूब हँस पड़ा, पर उसने अपनी हँसी बाहर फूटने न दी। उसने न जाने कितने साहबों को देखा था।

रात भर अजित को नींद नहीं आई । जब आँखें झपने को होतीं तो वह गोरे-गोरे गालोंवाली लड़की आकर खड़ी हो जाती और जब उससे वह नाम पूछता तो वह 'हुश' कहकर भाग जाती । और तब अजित आँखें खोलकर देखने लगता तो न लड़की नजर आती, न बाजरे के खेत नजर आते, न 'हुश' की आवाज सुनाई देती । बदले में लकड़ी की दीवारें, कमरे में सजी टेबल- कुरसियों, पीले परदे, डिम रोशनी और बगल की खाट पर सोई शीला ।

बड़ी मुसीबत से रात बीती और प्रातः होने के पहले ही अजित उठ बैठा, सिगरेट की लंबी-लंबी कई कशें खीची, कमीज के ऊपर स्वेटर पहना, कोट चढ़ाया और ओवरकोट डालकर बाहर निकल पड़ा।

खानसामा महबूब जग गया था, साहब को सलाम बजाया और पूछा, "सा'ब, मैं भी चलूँ?"

"कोई जरूरत नहीं। और हाँ, मेम साहब उठें, तो कहो कि मैं तुरंत आया । "

रात को रोज कुहासा गिरता था, तभी तो मार्ग में फिसलन थी । अजित किसी कदर नीचे उतर गया, फिरोजपुर नाले के पास और आगे बढ़ा, जहाँ कल वह लड़की मिली थी । और उसके आश्चर्य की तब सीमा न रही, जब तख्ते के पुल के पास पहुँचकर उसने देखा कि वही लड़की बाजरे के खेतों से निकलकर इसी ओर चली आ रही है। वह रुक गया। लड़की ने भी इसे देखा और तेज कदमों से आकर सामने खड़ी हो गई- एक बार मुसकराई मानो कुहरा फट गया हो और फिर बेफिक्री के साथ हाथ आगे बढ़ा दिया, 'सा'ब, एक सिगरेट ।'

अजित ने सिगरेट और माचिस उसके हाथों पर रख दीं, मानो वह उसका ऑडरली हो । लड़की ने सिगरेट सुलगाई, एक बड़ा सा कश खींचा और उसका धुआँ अजित के ऊपर फेंक दिया, मानो उसे दुनिया में किसी की कुछ परवाह नहीं ।

अजित सबकुछ खोई-खोई आँखों से देखता रहा और फिर उसके मुँह से अनायास वही कलवाला सवाल निकल पड़ा, "तेरा नाम ?"

लड़की ने 'हुश' कहा और वह बाजरे के खेतों में खो जाना ही चाहती थी कि अजित लपककर उसकी राह रोक ली। लड़की के माथे पर एक छोटी टोकरी थी । झटके से टोकरी गिरने लगी। लड़की उसे सँभालने में लग गई, और अजित मौका पाकर उसे पकड़ने की कोशिश करने लगा। एकाएक लड़की एटम बम की तरह बरस पड़ी, "छोड़ दो हमें। हम नारियों को अपनी अस्मत बड़ी प्यारी होती हैं, क्योंकि हम भारतीय हैं।"

अजित एक बारगी हतप्रभ हो गया। वह क्या करे, क्या न करे- कुछ भी उसकी समझ में नहीं आ रहा था। वह पास ही पड़े एक पत्थर पर हारे हुए जुआरी की तरह बैठ गया ।

सारा वातावरण शांत स्तब्ध ! एकाएक लड़की के दिल में दया आ गई।

उसने पूछा, "सेब खाओगे ?" और टोकरी से निकालकर एक सेब उसकी ओर बढ़ा दिया। अजित के मुँह से केवल एक शब्द निकला - "नहीं।" लड़की के अधरों पर गुलाब की लाली थिरकने लगी। वह उसके बिल्कुल निकट आ गई थी। उसने अपनी आँखों को जरा नचाकर पूछा, “तुमने मेरा नाम क्यों पूछा था ?"

अब अजित से मौन नहीं रहा गया। वह बोल उठा, "क्योंकि तू कश्मीर की रानी है ।"

"रानी किसे कहते हैं, सा'ब ?" इस बार लड़की की आँखों में कलवाली तरलता फिर खेलने लगी थी।

"पास आ तो बताएँ!" अजित बोला।

इस बार लड़की बिना झिझक के पास आ गई। अजित ने उसकी फूल-सी कलाइयों पर दस रुपए का एक नोट रखा, उसकी आँखों में एक बार आँखें डालकर गौर से उसे देखा और फिर उसके गुलाब से गालों पर हलकी सी एक थपकी दी। लड़की के गोरे मुँह पर उषा की लाली थिरक उठी। उसने झटके के साथ 'हुश' कहा और फिर अजित रोके, इसके पहले ही वह बाजरे के खेतों में खो गई।

मन-मन भर भारी पाँव लिये अजित लौट आया। चाय की चुस्की और सिगरेट के कश के साथ अजित ने शीला से यह प्रस्ताव रखा कि कश्मीर आए काफी दिन हो गए, अब लौटना चाहिए। खानसामा महबूब सामान ठीक करने में जुट गया। उसी दिन वे श्रीनगर आ गए और श्रीनगर से पठानकोट के लिए तुरंत बस में जगह बुक हो गई तथा वे उसी दिन रवाना भी हो गए। खानसामा महबूब ने दबी जबान से कहा भी कि हुजूर, एकाध दिन शिकारे से 'डल' की सैर कर ली जाती, और शीला की भी यही इच्छा थी, किंतु जाने क्यों अजित का मन उचाट सा हो गया था और लगता था कि कश्मीर में अब है ही क्या, जो देखने को कहा जाए ।

श्रीनगर से पठानकोट बस से एक दिन में नहीं पहुँचा जा सकता, अतः रात उन लोगों ने वटोट के रेस्ट हाउस में बिताई ।

दूसरे दिन 'कश्मीर मेल' के सेकंड क्लास में बैठे अजित और शीला दोनों अपनी यात्रा समाप्त कर रहे थे। शीला प्रसन्न थी। रह-रहकर उसकी आँखों के सामने कश्मीर के झील-झरने, पेड़- पौधे, लता - गुल्म, भोले-भाले नर-नारी, टेनमर्ग का धानी अंचल, पहलगाँव की निराली हवा, सोनमर्ग के पहाड़ पर बर्फ की शोभा, गुलमर्ग में बादलों की आँख मिचौनी आ-जा रही थी । किंतु दूसरी ओर अजित न जाने क्यों उदास, थका-माँदा सा बैठा शून्य की ओर निहार रहा था । रह-रहकर न जाने क्यों उसकी आँखों के आगे घाटी की लड़की आकर खड़ी हो जाती थी, और जब वह पकड़ने को होता तो वह 'हुश' कहकर भाग जाती । उसकी आँखों की तरलता, उसके गालों की लाली, उसके होंठों का गुलाबीपन और उसकी सेबनुमा मुसकराहट उसे भुलाए नहीं भूलती। वह कश्मीर की एक ऐसी याद लिये जा रहा है, जिसके सामने झील और झरने हैं, सफेदा और चीड़ की शोभा बेकार है, पहलगाँव और सोनमर्ग की सुषमा का भी कोई स्थान नहीं। किंतु यह याद उसे सदा चिकोटियाँ क्यों काटती रहती है ? उसने बाहर सिर निकालकर देखा, आकाश बड़ा सा लगा, सूरज डूबने की तैयारी में था और न जाने उसके सिर में यह कैसा दर्द हुए जा रहा है। उसने बड़ी उदास नजर से शीला की ओर देखा ।

किंतु यह क्या! उसकी आँखों के आगे घाटी की वही लड़की फिर आकर खड़ी हो गई । अजित चाहता था उसे भूल जाना। किंतु वह लड़की बार-बार उसकी आँखों के आगे आकर कह जाती - 'हुश ! हमें अपनी अस्मत सबसे अधिक प्यारी है, क्योंकि हम भारतीय नारी हैं।'

लग रहा था, जैसे कोई अजित के कानों पर हथौड़े का प्रहार कर रहा हो।

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