अजगर की अंतड़ी (मणिपुरी कहानी) : एलाङ्बम दीनमणि

Ajgar Ki Antadi (Manipuri Story) : Elangbam Dinamani

"मणिपुर का इम्फाल या इम्फाल का मणिपुर दूसरों की नकल मारने में अग्रणी रहा है, माहिर और बेमिसाल। शर्म-हया की परवाह या ऊँच-नीच का संकोच है ही नहीं। किसी का कहा सुन तो लेते हैं, कहनेवाले का मन रखने के लिए-सर झुकाकर, सोचने-विचारने का कष्ट कभी भूलकर भी नहीं करते। रोकटोक, सुझाव आदि फीके पड़ जाते हैं। यह तो गनीमत है कि टोकनेवालों की ओर आँख उठाकर देखने का अपराध शायद ही कोई करता है। आर्थिक लाभ की थोड़ीसी गुंजाइश मिली कि सभी एक-के-बाद-एक आरा मशीन खोलने लगते हैं। परोक्ष रूप में, अफवाह फैली कि मोरेह' में क्रय-विक्रय का सिलसिला लाभप्रद है। तुरन्त मोरेह के प्रेमनगर , मुहब्बतनगर, इम्फालवालों से खचाखच भर जाते हैं। ङारी ! हाँ, ङारी शब्द किसी नव-व्यवसायी के मुँह से निकला कि हर कोई जमीन-जायदाद बेचकर ङारी तैयार करने में लग जाता है। तैयार करनेवाले खाली घड़े के दाम में दो सौ प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हो जाती है। इम्फाल को मोल-तोल करने की आदत नहीं है। इम्फाल स्वयं ङारी की गंध से सुशोभित है। एक समय ऐसा था कि स्कूलों की स्थापना की जा रही थी। पहाड़ों, झीलों, नद-नदियों तथा घने जंगलों में, विद्यालय ही विद्यालय नजर आते थे। फिर महाविद्यालयों की स्थापना तीव्र गति से की जाने लगी। एक मुहल्ला और एक महाविद्यालय का हिसाब रहा होगा। अब प्रत्येक जिले में एक-एक विश्वविद्यालय स्थापित करने की सम्भावना बन रही है। एक जिला और एक विश्वविद्यालय का हिसाब चलेगा अब। स्थापना की बात अब तक तो सुनने में नहीं आई। लेकिन अन्दर ही अन्दर, हो सकता है उपकुलपति-पद के लिए कइयों की दौड़-धूप शुरू हो गई हो। फिलहाल नन्हें बच्चों के लिए पश्चिमी धुन की शैक्षणिक संस्थाएँ धड़ाधड़ खोली जा रही हैं। म्लेच्छ भाषा से सम्मोहित इम्फाली डैडी और मम्मियाँ, नन्हें स्कूलों के सरों और सिस्टरों के दाँतों की सफेदी की चकाचौंध से चुंधियाकर, अपने मुन्ने के लिए स्कूली वर्दी सिलवाने के लिए अपनी तन्ख्वाह गिरवी रख रहे हैं। ऋण से क्या होता है ! उऋण होने का सामर्थ्य इम्फाल में अवश्य है।"

यह था कृष्णदास का एकान्त भाषण। रामदास ने धीरे-धीरे कहना आरम्भ किया
"बस करो यार, काफी हो चुका। तुम तो अध्यापक की आदत छोड़ते ही नहीं हो। मुझे भी थोड़ा-बहुत बोल लेने दो ! वैसे तो भई, अपनी-अपनी भलाई के लिए कोई कुछ भी करे इसमें किसी के बाप का क्या बिगड़ता है ! जो करना है सो करे। आबादी होगी तो काम-धंधे अनेक होंगे। मुँह अधिक होंगे तो अलानी-फलानी चीजें भी अधिक होंगी, वरना शौचालय लबालब कैसे भरेंगे? तुम्हारे-हमारे जमाने में क्या ऐसा हुआ था? इतने राजनैतिक दल कहाँ थे? अब देखो, दलों की संख्या का क्या कहना ! एक दल स्थापित हुआ फटाफट। नाम रखा गया-फलाना। फिर दिन ढलतेढलते टूट गया। थोड़े ही समय में एक नया दल बन गया, नाम रखा गया वही, फिर कोष्ठक में लिखा जाने लगा एस०, टी०, यू., विजेड-। इसके बाद मैं तो कह देता हूँ, तीन-तीन कोष्ठकों का इस्तेमाल किया जाने लगेगा, जैसे-मणिपुर चिलम-खाँसी दल [एफ (ओ० (पी.)]] समझे साब? ठीक है, होने दो ! सब-कुछ हो सकता है। एक पार्टी एक सदस्य का हिसाब चलेगा। अरे भाई मेरे, यही तो गणतन्त्र है, लोगतन्त्र, ठोक-तन्त्र। हर एक महीने में कोई-न-कोई त्यौहार मनाया जाता है। लगता है, ये त्यौहार काफी नहीं हैं। इसलिए हर तीन-तीन महीने के अन्तराल पर चुनाव का एक और त्यौहार जोड़ दिया जाना आवश्यक हो गया है। नेता की मूल शक्ति की पहचान चुनाव में ही होती है। है न? क्यों हरि?"

लगता है, हरिदास का नम्बर आ गया है। वह आराम से कहने लगा
"लग रहा है, हमारी बैठक समाप्त होनेवाली है। राजनीति की बहस आ पहुँची है अब। दारोगाजी का कहना, सब सही तो है ! इसी को कहते हैं, पोस्टमार्टम,-मरणोपरान्त चीर-फाड़ ! केवल दल का शीर्षक बदलता है, सदस्य वे ही पुराने हैं-हम, तुम और वह। बात एक-सी है। सरकार के इस शासन-क्षेत्र में कई अनेक प्रकार की दौड़ दौड़ते हैं, छलाँग मारते हैं, कूदते हैं। कहीं खींचातानी चल रही है तो कहीं फ्लोर-क्रॉसिङ हो रहा है। कहीं महा शंकाएँ हो रही हैं तो कोई-कोई लघुशंका"! सब-कुछ हो रहा है, चल रहा है। सब बढ़िया है, मस्त है। अरे यार, ये ढेर सारी घटनाएँ समाचार के लिए ही तो हैं ! अन्यथा आकाशवाणी में समाचार कैसे गरजेगा? दूरदर्शन में 'रुकावट के लिए खेद है' का सीधा प्रसारण कैसे किया जाएगा? होने दो सब-कुछ। देखते रहो ! यदि नहीं देखना है तो आने दो सौ-सौ सदस्य, सौ-सौ दल, सौ-सौ निर्वाचन-क्षेत्र, सौ मुख्य मंत्री, दो सौ मन्त्रालय ! बस, ऑपरेशन खत्म।"

"अरे क्यों-क्यों, दो सौ क्यों? सौ-सौ का हिसाब लगाते जाओ, फिर एकाएक दुगुना काहे को?"
"रे भाई, तुम तो मास्साब ही बने रहोगे। राज्य-मंत्रालय नहीं होंगे क्या? हर एक मंत्री को एक-एक अतिरिक्त पोर्टफोलियो दे दिया जाएगा, मन रखने के लिए। काम? अरे प्यारे भगवन, काम मंत्री थोड़े ही करता है ! हम ही लोगों को करना है न,-मैं, तुम और वह-हम, जनता। जनता पुल नहीं बनाएगी तो उद्घाटनसमारोह के पलभर के बाद पुल कैसे ढह पाएगा? आकाश में थोड़ी-सी घटा घिर आई कि नदी के किनारे कैसे टूट पाएँगे? हम अक्लमन्द अभिभावकगण परीक्षा के दिनों में दौडधूप नहीं करेंगे तो ससुरे मास्टर लोग, हमारे नालायक बच्चों को कैसे पास करा पाएँगे? पचास हजार की पोटली दूध के टिन में घुसेड़कर हम नहीं देंगे तो सुअर-पोतों को डॉक्टरी पढ़ाई के लिए चुनने की हिम्मत कौन बन्दर करेगा? बीस के लाल-लाल नोट लेकर हमने मतदान किया, तभी तो ये लोग सत्ता में आए हैं कि नहीं? अन्यथा कौन बेवकूफ सभा-क्षेत्र में झूले पर बैठकर पेंग लेगा? सब तमाशा ही तो है ! करने दो मनमानी ! जितना करें, उतना ही कम है। बड़ी-बड़ी रकम खर्च करके खरीदा हुआ पद ही तो है ! मनमाने तरीके से इस्तेमाल किया जाना चाहिए। जब चाहा दफ्तर गया, जब चाहा लौट आया। पद का मालिक ही मनमानी नहीं करेगा तो क्या खुदा करेगा? पठन-पाठन से मुक्त होने के लिए तो अध्यापक बना है, अन्यथा डॉक्टर बनकर नकद के हिसाब से ऑपरेशन करता और नसों के साथ रासलीला रचाता। खैर, छोड़ो इन बातों को। प्यारे मित्रो, याद रखो-अब चुनाव करीब आ गया है।"
"अच्छा ! तुम्हें कैसे पता?"

"लो ! हो गई छुट्टी ! अरे दोस्त, जो बुद्धि थी तुम्हारे मस्तिष्क में, थोड़ी ही सही, वह भी तीस साल की नौकरी के दौरान खर्च कर डाली। अक्ल में छाले पड़ गए हैं ! देखते नहीं हो, राजनैतिक कार्यालयों के चारों ओर धारा 144 लागू कर दी गई है। प्रत्येक दल के दो-दो अध्यक्ष हुए कि नहीं? यार, तुम तो दिन में चार-चार घंटे अखबार चाटते हो न ! जानते-वानते तो कुछ भी नहीं। अरे भाई, जिस दिन दल के सभी सदस्य महासचिव होंगे, उसी दिन से ठीक तीन महीने बाद, एक चुनाव तो अवश्य ही होगा-चाहे प्रधान चुनाव हो, चाहे उप, चाहे प्रधान-उप या चाहे सहायक उप-प्रधान चुनाव। देखना अब, थोड़े ही दिनों में नेताओं की भरमार होगी, मीटिंगों की बौछारें पड़ेंगी। जहाँ कहीं भी छोटा-मोटा मैदान दिखाई देगा, वहाँ माइक के फूल खिलेंगे। नेतानुमा लोग गला फाड़-फाड़कर अपने प्रतिद्वंद्वियों की आलोचनाप्रत्यालोचना करने में मस्त होने लगेंगे-यह चोर है वह घूस खाता है फलाना फलाने-फलाने करता है वह यह है, यह वह है भीमसेन ने जो कुछ छिप-छिपकर खाया था, अब शकुनि की गुदा से होकर ऊँची-ऊँची मीनारों की चोटियों से निकल पड़ेगा। कोई चोर, चोरों के सामने किसी चोर को पकड़ने का प्रयास करेगा। फिर अन्ततोगत्वा होगा चुनाव, और पड़ेगा मत-पत्र मत-पेटी में। मतदान के लिए हमें भी एक दिन की छुट्टी तो मिलेगी ही। उसी दिन चलेंगे पल-भर के लिए मतदान-कक्ष और लगाएँगे मोहर शेर पर या बिल्ली पर, गधे पर, छछून्दर, गाय, इन्द्रवधू पर, या हथेली पर, मस्तिष्क पर, आँख, कान, नाक या या तो पुरुष के उस पर।" -"हट् ! असभ्य पदों का प्रयोग वर्जित है। अनौचित्य है।"
"क्यों-क्यों? अनुचित क्यों होगा भई? मुँह में बोलते हो, फिर मत-पत्रों पर चित्रित करने में क्या हानि होगी, भई? हम छाप सकते हैं।"
"नहीं छाप सकते।" "मगर क्यों?"
"कहा न, नहीं कर सकते हो चित्रित। देश के कायदे-कानून भी तो हैं ! समाज में प्रथा का स्थान सुरक्षित रखा जाता है।"
"किसका कायदा, किनके कानून? हम भी तो कानून बनानेवालों में हैं! गणतंत्र की काया हैं हम, अभिन्न इकाई हैं। गणराज में प्रत्येक इकाई स्वतंत्र हुआ करती है, मेरे दोस्त !"
"हैं, स्वतंत्र अवश्य हैं। लेकिन तुम अकेले अपने टेढ़े ढंग से स्वतंत्र नहीं हो सकते।"
"गणतंत्र में कौन तिरछा नहीं होता, जनाब ? टोकरी-भर कानून सिर पर ढोकर, आलयों में शीशे के पर्दे के पीछे कौन क्रीड़ा नहीं करता है भाई मेरे !"
"क्रीड़ा करो, चाहे कीचड़ उछालो, लेकिन जनतंत्र में अनौचित्य का कोई स्थान नहीं है।"
"अनौचित्य हर कोई करता है, मुझे भी करने का हक है।" "तब पड़ेगी लाठी ! हाथ-पाँव बँधवाकर मारे जाओगे, फिर?"

"बिल्कुल सही। वही मेरा भी पॉईंट है। लीक से विचलित होनेवालों पर तो बेंत पड़ना चाहिए। समझाने-बुझाने से काम नहीं बन पाया तो लाठी का प्रयोग करना होगा। गणतंत्र तो समझदारों के लिए है। अब अगर समझ से काम लेने से इन्कार किया तो सब बेकार है। धड़ाम-धड़ाम, खटाक-खटाक, धाँय-धाँय से काम लिया जाना चाहिए। इसमें एकाध व्यक्ति को तो पीड़ा हो सकती है, लेकिन शेष जनता को तो फायदा मिलेगा। यह भी सेवा है-देश-सेवा, जन-सेवा।"
"वही होता चला आया है, भाईजान !" "नहीं। यह जनाबे-आली की अपनी राय है।" "बिल्कुल वही होता चला आया है। शायद तुमने नहीं देखा हो।"

"नहीं देखा है का मतलब है नहीं हुआ। तुम्हारी यह सेवा कागजों पर हुई होगी या पोथियों में। फाइलों में तो सब-कुछ ठीक चल रहा है। यातायात के पुल और रास्ते आदि कितने अच्छे हैं ! बिजली कितनी नियमित है ! शुद्ध जल हर जगह उपलब्ध कराया जाता है। नशीले पदार्थों पर पूर्ण रूप से रोक लगा दी गई है। क्या बताऊँ भैये, स्वर्ग स्वयं हार गया है। मैं समझता हूँ, महाविकास योजना के महानिदेशक, प्रधान तकनीकी श्री विश्वकर्मा सिंह जी, पदमबादी ब्रह्माजी शर्मा, शिक्षा-सचिव श्रीमती कुमारी सरस्वती देवीजी, ये सब नवीकरण सत्र में प्रशिक्षण हासिल करने के लिए मणिपुर पधारना चाह रहे होंगे।"

"नहीं वैद्य जी, देवी-देवताओं पर व्यंग्य करना घोर अपराध है। भक्तजनों के हृदय को ठेस पहुँचेगी।"
"नहीं मास्टर साबजी, यह व्यंग्य की बात नहीं है। ज़रा देखो तो हमारे घरों में जलते बल्ब को ! क्या इसकी रोशनी से, भोजन के समय खाद्य पदार्थ दिखाई देते हैं? खाद्य पदार्थों की बात छोड़ो, माचिस जलाकर देखना पड़ता है कि बल्ब जल रहा है कि नहीं। है कि नहीं?"

"यही तो हमारी-तुम्हारी करनी का नतीजा है। बिजली-कर किसी हालत में जमा मत करो। बत्ती जलाते रहो दिन-रात, इधर-उधर अगल-बगल से चोरी-छिपे तार जोड़-जाड़कर खूब जलाते रहो। घर में लगे मीटरों को चुम्बक वगैरह लगाकर रुकवा दो। तब बिजली की शक्ति दिन-ब-दिन बढ़ती जाएगी। लोक्ताक प्रोजेक्ट की योजना जो है, वह हमारी घरवालियों के मायके से दिया गया दहेज है। आयकर को जमा करने का अपराध भूलकर भी मत करना ! जमा हो भी गया तो लौटाने की धुन में दौड़धूप करते रहो। अरे भगवन, इम्फाल नदी का पुल तो बाँस से बन सकता है, लेकिन आयकर-अधिकारी बाबू का भव्य भवन हम-जैसों की सहायता के बिना कैसे पूरा होगा? करोड़पति अधिकारी दरिद्र जो ठहरा। है न? मंत्रिमंडल से उसका कोई भाईचारा भी तो नहीं है। हम नहीं बनवाएँगे तो और कौन बनवाएगा?"

"शतप्रतिशत सही। हम ही लोगों की सहायता से तो महाशय क्लर्क साहब के मकान की तीसरी मंजिल पूरी हो सकेगी न! इतनी बड़ी पे-स्लिप बनवाने के लिए हमने पचास का एक नोट दिया तो क्या दिया ! पचास रुपए क्या रुपए हैं? कुल मिलाकर बेचारा सालभर में पचास हजार, केवल पचास हजार कमा पाया। बेचारे को थोड़ा-बहुत तो मिलना चाहिए। उसने भी कुछ हजार खर्च किए होंगे क्लर्की प्राप्त करने की कोशिशों में, है कि नहीं? मदद भी तो करनी है न हमें ! सो हमने की।"

"अब समझा। समझ गया भई, तुम्हारी ये बातें। शिकायत के सिवा और कुछ नहीं हैं। अतृप्ति और रोष की अभिव्यक्ति ही हैं। जानी-पहचानी बातें हैं। देश हमारा पथभ्रष्ट हो चुका है, ढह गया है, सड़-गल चुका है, कीड़े पड़ चुके हैं-यह हम अच्छी तरह जान चुके हैं। लेकिन करें भी तो क्या करें? कर भी क्या सकते हैं हम? हाँ, ज्यादा-से-ज्यादा हम दासत्रय इस खुले मैदान के किसी कोने में हवाखोरी के लिए और साथ ही घर की बहू-बेटियों को तंग न करने के लिए, एकान्त में बैठकर इस तरह चर्चा और विचार-विमर्श कर सकते हैं, बस। हम भी इसी बहाव में बहते चले आए थे न अवकाश-प्राप्ति की पूर्व-संध्या तक। अब नखरा क्या दिखाना है? आराम फरमाते जाओ!"

"यह नखरेवाली बात नहीं है यार, सही कह रहा हूँ। हमें कुछ-न-कुछ करना है। कुछ करने का वक्त आ गया है, मित्रो ! यह समाज, अब कहीं का नहीं रहा है। यह जा चुका है काम से ! लेकिन, अब हमें बचाना होगा। ठीक है, इसमें हमारा क्या है ! जमाना गुजर चुका है। जब बुलावा आएगा, तब चलते बनेंगे। लेकिन प्रश्न है-आनेवाली पीढ़ी का क्या होगा? वह भी कहीं की न रही तो? नहीं मेरे दोस्त, चलते-चलते कुछ सुधार तो करते जाएँ। इसी देश और समाज में परिवर्तन लाना होगा। भयंकर विस्फोट होने से पहले इसे ठीक से बनाना होगा। पूरी तरह बिगड़ा तो नहीं है, लाइलाज तो नहीं है ! सुधर सकता है।"

"जानते हैं, सुधारने से सब-कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन कैसे सुधारा जाए, यही तो समस्या है। सुधार के उपाय के बारे में सोचते-सोचते कई सिर जुड़कर एक गधे का सिर बनता चला जा रहा है। एक को हमने सबसे ज्यादा अक्लमंद समझकर वोट डालकर चुना था। वह बुद्धिमान लोमड़ी नहीं, अपितु सर्वश्रेष्ठ उल्लू निकला। ये सब बेकार है, दोस्त ! जानते नहीं हो, यह सब हुआ है हमारी मौजूदा शासन-पद्धति से। सो, मैं समझता हूँ सबसे बेहतर यह रहेगा कि सबसे पहले हम शासन-पद्धति को बदल डालें।"

"बिल्कुल ठीक है। बदल डालने की चेष्टा करें। लेकिन भाइयो, यह कोई आसान काम नहीं है। इसलिए गौर से विचार करके, सोच-विचारकर काम लेना चाहिए। फिलहाल आज तो हम काफी थक गए हैं, चलो लौट चलें अपने-अपने घर। मुश्किल कदम है, उठाने में शीघ्रता नहीं करनी चाहिए।"
सर्वमान्य बात है। दोनों ने भी हाँ में हाँ मिलाई। उठकर तीनों विपरीत दिशाओं में चलते बने।

ये दासत्रय मित्रता में घनिष्ठता के द्योतक रहे हैं। बचपन के जानी दोस्त हैं। पढ़ाई-लिखाई में तीनों काफी हद तक तेज थे। शक्ल-सूरत भी तीनों की मिलतीजुलती है। तीनों की झक-सनक भी लगभग एक-सी थी। एक ही सत्र में तीनों साथ-साथ पढ़े, एक ही साल में मैट्रिक पास हुए, एक ही दिन में कॉलेज में प्रविष्ट हुए, एक ही साल में तीनों की पढ़ाई सम्पूर्ण हुई। एक ही रात में तीनों अपनी-अपनी प्रेमिकाएँ भगा ले आए थे। एक ही महीने में तीनों के विवाह रचाए गए थे। कई साल, अवधि के अन्त तक, अपनी-अपनी नौकरियों में काफी व्यस्त रह चुके थे। एक दास विश्वविद्यालय में अध्यापक था, दूसरा सरकारी हस्पताल में चिकित्सक और तीसरा पुलिस-विभाग में डी. एस. पी.। सेवा में जब थे, तब ये तीनों आपस में मुश्किल से मिल पाते थे, लेकिन अब सेवा-निवृत्ति के पश्चात् तीनों की मित्रता पूर्ववत् जीवित हो चली है। साल-भर हुआ है अवकाश प्राप्त किए। जान-पहचान के लोग तीनों को दासत्रय कहकर पुकारते हैं।

ये तीनों दास काफी समझदार थे। शुरू से तीनों के मस्तिष्क में एक टेढ़ी हवा का बहाव था जिसके लिए तीनों मशहूर थे। बेमौसम रुख की कई घटनाएँ आज भी सुनी और सुनाई जाती हैं। बेटों, बहुओं तथा पोतों को भी सारी बातें मालूम हैं। सच है तीनों का अपना जमाना था, अपने-अपने मौसम भी थे।

अध्यापक दास स्वभाव से कम बोलता था; नशे का सेवन हर घंटे के अन्तराल पर करता था। दारोगा दास साधु आदमी था; उसका ललाट सदा तिलक से सुशोभित रहता था। नशे के रूप में ज़रदा तक नहीं खाता था। कभी-कभार सादा पान चबा लेता था। वैद्यदास तो 'जी हाँ' का आदमी था। वह सब-कुछ कर और खा लेता था। आता भी सब-कुछ था। खाने-पीने में किसी भी प्रकार की रोक-टोक नहीं थी। कोई भी । प्रस्ताव हो, बिना उसके आर-पार से होता ही नहीं। हाँ, एक बात जरूर है, चूंकि एम०बी०बी०एस० की शिक्षा उसने अपने पिताश्री की सुदृढ़ प्रेरणा तथा उनके वज़नी दबाव से पाई थी, इसलिए सुई का प्रयोग करना और दवाओं के नाम याद करना उसके लिए असंभव तो नहीं, लेकिन मुश्किल अवश्य थे। बोलने में वह कभी नहीं थकता था। किसी भी माहौल में वही, केवल वही बोलता जाता था, बोलता ही जाता था। लेखन में काफी रुचि लेता था। तीनों मित्र पाठन में तो समान रूप से रुचि लेते थे, पढ़ते भी बहुत थे। अवकाश-प्राप्ति के बाद ये तीनों बड़े प्रेम से शान्तिमय आराम फरमा रहे हैं।

बरसात आदि के पश्चात् जब मौसम आमतौर पर खुश्क रहने लगता है, तब ये तीनों दास मिलकर मैदान में फिर से बैठने लगते हैं। छात्र-जीवन के जमाने की तरह तीनों खुले दिल से बातें करते हैं। स्वदेश या परदेश से संबंधित किसी भी समाचारपत्र से कोई भी विषय उठा लेते हैं और उस पर चर्चा और परिचर्चा करने लगते हैं। कभीकभी तर्क-वितर्क की नौबत भी आ जाती है। तीनों जोश में आने लगते हैं, और गुस्से में चेहरे लाल हो जाते हैं। जब कभी रक्त खौलने का माहौल बन जाता है, तब सामने रखी सिगरेट और माचिस की डिबियों का सहारा लेते हैं और इस प्रकार तीनों की चर्चा बेमौसम गरमी की तरह दब जाती है। किसी दिन तीनों की चर्चा का विषय कन्फ्यूशियस से शुरू होकर सॉक्रेटिस की ओर मुड़ जाता है और एरिस्टोटल और प्लेटो पर केन्द्रित होकर श्रेष्ठ विद्यार्थी अलेक्ज़ांद्र के मूल्यांकन पर विराम लेता है। एक दिन मूल्यांकन की शुरूआत कार्ल मार्क्स से, फिर नीत्शे पार करके गांधी और सुभाष पर तीनों चक्कर काटते रहे, फिर अन्त में कौटिल्य पर पूर्णविराम की रेखा खींची। एक और दिन तीनों रूस में जार-राज्य के वातावरण का निरीक्षण करने के बाद, नक्सलवादी होते हुए कश्मीर-पंजाब तक आए, फिर बीच में राजा पुरु के एक राजा का दूसरे राजा के प्रति व्यवहार' पर इठलाते रहे। बैठक के दौरान प्रोफेसर दास बीच-बीच में उमर खय्याम का पैगाम देता रहता है। किसी दिन कवि नजरुल इस्लाम और हिजम इरावत के तुलनात्मक अध्ययन के पश्चात् डॉ. कमल की माधबी के साथ वारुणी' त्यौहार का मजा लेने लगते हैं। लौटते वक्त मिनुथोङ् की ओर मुड़कर जेहरा के घर जाकर उससे चिलम भरवाने लगते हैं। सत्तर साल की उम्र में ये तीनों दोस्त काफी जवाँ हो चले हैं।

समय की रफ्तार का कोई भी असर तीनों पर पड़ा ही नहीं है। वास्तव में अवकाश-प्राप्ति के पश्चात् एक नया-सा जीवन आरम्भ हुआ है और यूँ ही जारी है। पतझड़ या वसंत का भाव जो है-मौसम पर कम, पौधे पर अधिक निर्भर करता है। केवल वसंत में फूल खिलेंगे-ऐसी कोई बात नहीं है। अंकुर जब निकलने लगता है, तब वसंत को आना ही होता है। कौन कहता है गूलर में फूल नहीं लगते? क्या मल्लिका वसंत में ही खिलती है? कुंद फूल का भी यही हाल है।

एक दिन ये बूढ़े जवाँ असल में बहुत क्रोधित हुए। अध्यापक महाशय तो खैर, स्वभाव से कम बोलते और ज्यादा सुनते रहे हैं, लेकिन शेष दो दास पर्याप्त सीमा तक क्रोधित हुए। दोनों के बीच तू-तू-मैं-मैं तक की नौबत आने लगी। दोनों के चेहरे लाल हो गए। दोनों की बहस अत्यधिक गरम हो चली है। इत्तिफाक से कहीं दोनों भिड़ जाते तो एक तो जमीन पर गिर ही जाता, या दोनों साथ-साथ भूमिष्ठ हो जाते। वैद्यदास का कहना है "क्यों नहीं होगा? सब-कुछ हो सकता है। सारे-के-सारे भ्रष्टाचार रोके जा सकेंगे। यदि मैं न दूँ, तुम न दो, तो कोई अधिकारी या मन्त्री घूस कैसे खाएगा? खाने की हिम्मत कौन कर सकेगा?"

"हिम्मत की है, इसलिए पैसा खाया है। पैसा नहीं दिया तो नियुक्ति नहीं हुई। नियुक्ति के लिए पेश किया और फिर काम बन पाया। फिर तो तनख्वाह मिलती रही, कार्यालय में काम करें या न करें।"
"जिनका काम नहीं बना उनका क्या होगा?"
"पैसे की कंजूसी की है, तभी तो कुर्सी नहीं मिली। बस, कुर्सी से वंचित हुए तुम लोग मलमूत्र भूनकर नहीं खाओगे, तो क्या करोगे?" __"तो इन्साफ कहाँ रहा?"

"यह तुम्हारा इन्साफ का इन्तजार तुम्हें मुबारक हो ! हमारी संतान को डॉक्टरी पढ़नी ही है। अध्यापकों को दावत दी और वह उत्तीर्ण हुई। चुनी गई, फिर पढ़ाई हुई, डॉक्टर बनी। न्याय-मरीचिका के पीछे दौड़नेवाले तुम-जैसों की बीमार संतान का इलाज किया, पचास का एक ताजा नोट मिले बिना उसका ऑपरेशन नहीं किया जाएगा। फिर तो तुम ही लोग अस्पताल के आँगन के खुले कोने में पड़े रहोगे और मुँह मरोड़-सिकोड़कर दर्द सहते रहोगे।"

"खिलानेवाले तुम और खानेवाला वह-दोनों को खटाक से समाप्त कर दिया जाए और परीक्षा में नकलबाजी करनेवालों को खुले आम धाँय-धाँय से उड़ा दिया जाए, तो सारा-का-सारा सिलसिला रुक जाएगा। दोनों को खुले मैदान में फाँसी के तख्ते पर लटका दिया जाए तो मामला खत्म!"

"तुम्हारी क्या मजाल जीरो शून्य? तुम्हारे हाथ में तो सिर्फ दो ही फंदे हैं। इनसे क्या होता है? बेरोक-टोक लटकाने का अधिकार तुम्हें दे भी दिया जाए तब भी, जानते हो कतार में कितने लोग खड़े होंगे? सैकड़ों की तादाद में नहीं, हजारों की भी नहीं, लाखों की संख्या में लाखों ! समझे साब?"
"सब-के सब अनुचित करनेवालों को एकत्र करके उन्हें बिजली का करेण्ट लगवाया जाए तो पल-भर में हुइस!"
"खूब रही ! जहाँ से बिजली आती है न, वहाँ तुम्हें घूस लिये बगैर अन्दर घुसने नहीं दिया जाएगा यार, याद रखो ! मारना क्या, खुदकुशी का मामला भी कोटे के हिसाब से चलता है। कुछ-न-कुछ लिये बिना मरने नहीं दिया जाएगा, भगवन !"
"यह तो हुआ बेकायदे का मामला। सरकार किसलिए बैठी है भला! कायदेकानून भी तो हैं हमारे मुल्क में।"
"यह तो पोथे की बात हुई। गणतंत्र के चिर-लंकाकांड में रावण-मस्तिष्क की खान अब कहाँ सूखी पड़ी है, माई-बाप ! इसमें तुम्हारे पचासों वादे धूप में बर्फ की तरह गल रहे हैं, सड़ रहे हैं।"
"तब, तुम्हारे इन दो-चार सड़े-गले वादों को मिटाकर एक नया ताजा वाद बनाएँ, तो?"

"नहीं बाबू, वाद कभी पुराना नहीं पड़ता। पुराना पड़ जाता है ताजा इन्सान याने हम। हम-तुम बाबा आदम के जमाने में फिर से रह रहे हैं, लौहयुगीन लोहा बजा रहे हैं और लौहध्वनि में हम नाग की भाँति नाच रहे हैं। ये सब गूलर के फूल ही तो हैं, भाई के लाल जी ! हम अपने खुर मार-मारकर झुरमुट पर सींग मारने की चेष्टा कर रहे हैं।"
"तब तुम ही बताओ, इस हालत में हमें क्या करना चाहिए?"
"करना चाहिए सब्र हाँ, सब्र मिलकर सहना।"
"सहते रहना कायरता की निशानी है। अकलमंद लोग स्वयं सह नहीं पाते और दूसरों को भी सहने नहीं देते। उपाय ढूँढ निकालना पड़ेगा। नई नीति का आविष्कार करना होगा, नई राजनीति बनानी होगी, नए सिद्धान्त का प्रयोग करना होगा।"
"वादों की गरम मलाइयों से बनी हैं हमारी राजनैतिक पद्धतियाँ। ढेर सारे कायदों के होते हुए तुम क्या नई नीति बनाओगे, पण्डितजी?"
"ढेर सारे जितने भी हैं, सब-के-सब बेकार हो गए हैं। अब सुधार लाना होगा। परिवर्तन लाना ही होगा।"
"ठीक है लाओ सुधार, परिवर्तन। यदि ला सकोगे तो यह तुम्हारा गणतान्त्रिक स्वर्ग माना जाएगा। एक ऐसी नीति का आविष्कार कर डालो जो सर्वमान्य हो और हर एक को प्रिय हो।"
"मैंने एक खोज निकाली है, जो नई है और संपूर्ण सत्य है।"

"अच्छा !" अध्यापक दास की आँखें पूर्ण रूप से गोल-गोल हुईं। ऐसा मालूम पड़ा, मानो आश्चर्य की सजीव मूर्ति जमीन पर अभी-अभी गिरने वाली हो। *शक्तितर्क में सक्रिय भाग लेनेवाले उस दास को कैसा लगा-यह तो मालूम नहीं, लेकिन प्रोफेसर साहब के आश्चर्य का तो बुरा हाल हो चला है। उसके चकित चेहरे से तो ऐसा लगता है, कोई नया और ताजा पाठ्यक्रम भरी कक्षा में लाया गया है। उसकी आँखें एकाएक खुलीं, हालाँकि वह सोया हुआ नहीं था। उसकी आँखों में सुकरात के सामने प्लेटो और एरिस्टोटल उकडूं बैठे दिखाई दिए। कलिंग टाइप के एक रणक्षेत्र में आठ-आठ घोड़ों के द्वारा खींचे गए एक टैंक पर कोई एक पीताम्बरधारी-सा वृद्ध बैठा हुआ है। उसके आगे गांडीव-सी बन्दूक हाथ में लिये कोई एक लौह टोपीवाला नवयुवक खड़ा-खड़ा कुछ प्रश्न कर रहा है। इन दोनों के बगल में एक घनी लम्बी चोटीवाला पतंजलि-सा हट्टा-कट्टा पुरुष 'दास केपिटा'सा एक मोटा पोथा बगल में दबाए प्रकाशपुंज की तरह खड़ा है। बगल में मरुभूमि के एक छोटे-से पहाड़ से पूर्ण रूप से सफेद दाढ़ीवाला एक व्यक्ति कफनी की आड़ में दोनों हाथ आसमान की ओर उठाकर चिल्ला रहा है-'यदा यदा हि धर्मस्य"।' दारोगा दास के मुँह से यह वाक्य निकला कि, "क्या है, सुनाओ तो ज़रा !" तभी मास्टर जी का स्वप्न टूटा और वह जाग-सा गया। डॉक्टर दास जी की भाषणनुमा बहस आगे बढ़ी

"यह सारा मामला शासन-पद्धति पर निर्भर करता है। इसलिए पद्धति और सिद्धान्त में परिवर्तन का लाया जाना अत्यन्त आवश्यक है। सुनो और देखो मैंने कौनसी नई और ताजा नीति खोज निकाली है। अच्छा, तुम तो जानते ही हो कि परिवार का प्रधान जो है वह होता है घर का सबसे बड़ा बुजुर्ग। देश का सबसे बड़ा बुजुर्ग राजा बनेगा। उसका चयन कम्प्यूटर ही करेगा।"
"ओ...मोनार्की !" अध्यापक दासजी ने कहा।
"अरे सुन तो लो पहले ! उम्र में सबसे बड़ा होना एकमात्र योग्यता नहीं है। अक्ल का दुरुस्त होना भी जरूरी है, तभी वह बुद्धिमान और समझदार होगा।"
"ओ, फिलॉसफर किंग!" अध्यापक जी ने अपने भाव व्यक्त किए।

"अरे सुनो तो ! उसका कोई भी नहीं होना चाहिए-बेटा, बेटी, रिश्तेदार कोई भी नहीं। उम्र सत्तर वर्ष से कम नहीं होनी चाहिए-न्यूनतम सत्तर साल। राजा का पद सम्भालते हुए तीन साल, तीन महीने, तीन दिन और तीन घंटे होते ही उसे बिजलीकुर्सी पर बैठाकर जान से मार दिया जाना चाहिए।" "अच्छा ! टाइरेनिज्म !" अध्यापक दास जी की राय बदली। "रुको यार, पूरा सुन लें पहले।" दारोगा दास ने रोका।
"यह राजा सदा यहाँ, वहाँ, हर जगह भ्रमण करता रहेगा, निरीक्षण करता रहेगा। कहीं भी अधिक देर तक वह रुकेगा नहीं। उसे बैठकर करने का काम नहीं दिया जाएगा।"
"अच्छा।" अध्यापक दास शान्ति से सुनने लगा।

"तीन व्यक्ति उस राजा के साथ हमेशा रहेंगे। नियम बनानेवाला व्यक्ति, नियम को लागू करनेवाला और कार्यान्वित करनेवाला-ये तीन व्यक्ति। भ्रमण करते समय या निरीक्षण के दौरान किसी भी सिलसिले में राजा अपनी इच्छा व्यक्त करेगा, एक व्यक्ति फटाफट कानून बनाएगा, दूसरा कानून को लागू करेगा और उसी वक्त निर्णय करेगा और तीसरा दोषी को सजा देगा। दोष तो दोष ही है, चाहे बड़ा हो चाहे छोटा। हर दोष की एक ही सजा होगी-मौत। अविलम्ब जान से मार दिया जाना है। जान लेने के कई उपाय रखे जाएँगे। लेकिन हाँ, हर मौत खुले-आम, क्रियान्वयनकार्यालय के ठीक सामने होनी चाहिए।"
"अच्छा तो ज़रा स्पष्ट करो, दोष-गुण का निर्णय कौन करेगा?" अध्यापक दास पूछ बैठा।

"नियम-कानून को लागू करनेवाला दल ही करेगा। हालाँकि राजा ही अन्तिम निर्णय देगा और गुण-दोष की घोषणा भी वही करेगा। तीनों व्यक्तियों को सलाह देने, इनके साथ विचार-विमर्श करने तथा इनकी पूरी मदद करने के लिए कई अधिकारी और ढेर सारी संस्थाएँ होंगी। प्रजा ही विश्वस्त आधार होगी। अरे मास्टरजी साहब, सच पूछा जाए तो हम ही, केवल हम ही, गुण और दोष को जानते-पहचानते हैं। आखिर इन्सान तो हम हैं। रहस्य तो हम ही लोगों के बीच रचे गए न ! गाँठ खुलने या न खुलने की बात अलग है। सारी घटनाएँ हमारे ही सामने घटी हैं। सब बेकार हैं साब ! हम ही सत्य जानते हैं। जो हम जानते हैं, देखते हैं, वही सत्य है, नग्न सत्य। तुम ही बताओ, आज तक की जीवन-यात्रा में हम क्या-कुछ नहीं जानते? क्या हमें मालूम नहीं कि कौन क्या करता है? घटनाओं से संबंधित व्यक्तियों के नाम-धाम क्या हमें मालूम नहीं? क्यों मेरे शेर, ऊपरवाले को साक्षी
मानकर बताओ, क्या तुम कुछ नहीं जानते? अक्ल अब तक तो ठीक-ठाक है, बताओ तो !"
"खुद से संबंधित मामले को तो कौन नहीं जानेगा, यार?" अध्यापकजी का उत्तर-भरा प्रश्न है।
"हाँ, वही तो ! बस बात समाप्त। जो तुम्हें पता हो उसी को राजा तक पहुँचा दो। राजा अपने सहायकों, सलाहकारों तथा मार्गदर्शकों के साथ विचार-विमर्श करने के पश्चात् दोष और गुण का फैसला सुनाएगा। फिर पुरस्कार या सजा-सजा-एमौत। बस और क्या?"
अध्यापक बोल उठा-"यह तो हुई डिक्टेटरशिप-तानाशाही।" "अरे पूरी बात तो सुनो ! तुम तो मास्सा'ब ही निकले!"
"बिल्कुल ठीक कहा। यह बुढ़वा इस जन्म में तो अध्यापक हुआ, अगले जन्म में यह गवर्नर-योनि में पैदा होगा, देख लेना। शासक और विरोधी दलों की आपसी बहस में तुम बीच में दखल क्यों देते हो भला? चुपचाप सुनते जाओ! यह तुम्हारा विश्वविद्यालय नहीं है, समझे? बेकार दाँत दिखाते हो।"

अध्यापक दास चुप हो गया। दूसरा दास बोलता जाता है, समझाता और उदाहरण देता रहता है।
शासन-पद्धति का निर्माण एक दिन में पूरा न हो सका। पाँच दिनों के अन्दर आधी बन पाई। तेरहवें दिवस की अन्तिम घड़ी तक वैद्य दासजी ने शासन-नीति की एक रूपरेखा तीनों की संसद में पेश की। प्रस्तावित रूपरेखा पर तुरन्त बहस नहीं हो सकी। अगले दिन विचार-विमर्श ज़ोर-शोर के साथ चला।

अध्यापक दास शुरू-शुरू में इस सिलसिले को काफी हद तक हल्का समझता रहा। लेकिन अब वह भी गम्भीर होने लगा, शेष दोनों दासों की भाँति। निर्माण कार्य में वह भी सक्रिय भाग लेने लगा। खाते-पीते, उठते-बैठते हर वक्त तीनों सिद्धान्त-निर्माण की धुन में मस्त रहे। एक बहुत सारा लिखकर लाता है, दूसरा इसे सभा में पढ़ता है, फिर तीनों मिलकर काट-कूटकर संशोधन करते हैं, फिर पुनः विचार करते हैं। तत्पश्चात् एक दास सर्वसम्मति से पारित अंश को लिपिबद्ध करता है। यह कार्यक्रम डेढ़ साल तक चला। अन्त में तीन-तीन सिर मिलकर एक मोटीसी पोथी तैयार हुई। बैठकें होती रहीं और एकमात्र कमेटी बैठती रही। अन्त में प्रस्तावित अन्तिम पोथी सर्वसम्मति से पारित होने के लिए प्रस्तुत हुई। अध्यापक दास जी की अनुभवी प्रेरणा से संशोधनार्थ एक बार फिर पठन हुआ। संशोधन में एक महीना और लगा।

जिस दिन पोथी का अन्तिम प्रारूप तैयार हुआ, उसी दिन तीनों का सहभोज भी आयोजित हुआ। वह दिन चूँकि किसी नन्हे-से उपचुनाव का दिन था, इसलिए देश के किसी कोने में शोरशराबा हुआ था। लेकिन शान्त मस्तिष्कवाले, ये तीनों वृद्ध दारोगा दास के भव्य मकान की सबसे ऊपरवाली मंजिल के एक एकान्त कमरे में बड़े प्रेम से उल्लासभोज मना रहे थे।

भरपेट खाने के पश्चात् अन्तिम निष्कर्ष पर पहुँचते-पहुँचते तीनों सिर एक बार फिर जुट गए-इस नई राजनैतिक पद्धति का नाम क्या रखा जाए? एक दास एक शीर्षक का प्रस्ताव करता है। बहस चलती है। फिर उसी को सर्वसम्मति से रद्द कर दिया जाता है। दूसरे दास से दूसरा प्रस्ताव आता है। चर्चाएँ हुईं। फिर अनौचित्य के आधार पर प्रस्तावित शीर्षक की अवहेलना कर दी गई। एक और प्रस्ताव का संभावित प्रस्ताव पारित हुआ। उठा-पटक चलती रही। तब तक रात्रि के भोजन का समय होने लगता है। तब प्रोफेसर दासजी की तीसरी आँख खुल गई, कहने लगा "छोड़ो तुम दोनों, मुझ पर ही छोड़ो। अब तो तुम्हारी सुई और लाठी काम नहीं करेंगी। मेरा यह सुझाव सर्वश्रेष्ठ रहेगा।"

"बोलें।" "यह तो हुई राजनीति की नई पद्धति, है न?" "नितान्त नवीन, शत-प्रतिशत नई। इसमें सभी वादों का समावेश हो चुका है। इसमें निश्चित है, खेत-जन से राजधानी-जन तक का कल्याण निहित है।"

"अच्छा ! हमारी इस पद्धति में समाजवाद है, कम्युनिज्म है, गणतंत्र तो खैर है ही। डिक्टेटरशिप का अंश भी इसमें है, मोनार्की का अंश भी है।"
"अरे यार, कोई भी वाद शेष नहीं रह गया है। समस्त वादों का रूप घुसेड़ दिया गया है। गीता से, कुरान से, गुरुग्रंथ और नुमीत्काप्पा से मुख्यांश लिये गए हैं।"
"सूफीज्म, पाइथागोरियानिज्म, लाइनीङ्-लाइशोनिज्म सब-के-सब इसमें है, पंडितवर बाबू !"
"हाँ, सब-के-सब।"
"तो ठीक है, शीर्षक होगा इसका-'सर्वइज्म सिद्धान्त संहिता'। क्यों जी, कैसा रहा?"
शेष दो दास फिर से एकाएक गम्भीर हुए। एक दास का सस्वर विचार है-"हाँ तो, यह-, सर्व का तात्पर्य है सब, समस्त याने कि संपूर्ण, फिर इज्म का तो हुआ इज्म, फिर संहिता का अर्थ होगा सं-हि-ता।"
"हाँ, संहिता। ठीक है। अति सुन्दर। बस, अँचेगा।" "लेकिन संहिता पद में मतलब, संहिता से भी, याने"
"छोड़ो भी, तिरिया-तर्क वाली बात छोड़ो। रखा बस, रखा, संहिता-'सर्व इज्म सिद्धान्त संहिता'। बस समाप्त। पारित हुआ। तालियाँ !"
तीन दासों में से दो की तालियाँ बजीं। कायदे से तो प्रस्तावित शीर्षक पारित हुआ। थोड़ी देर में तीसरे दास ने भी अपनी ताली बजाई। फिर, तीनों की तालियाँ एक-साथ फिर से बजने लगीं।
दारोगाजी की मझली बहू जो कि छत से कपड़े एकत्र करने आई है, तीनों के मस्त माहौल को चोरी-चोरी देखकर मुस्कुरा उठी। हँसी रोकती हुई नीचे उतर आई।

अर्ध-उपचुनाव का परिणाम घोषित हो चुका है। मिलीजुली सरकार भी बन गई। सदस्य भले ही पुराने हों, मगर सरकार नई और ताजा लगती है। नई सरकार की सत्ता की खबर सुनते ही तीनों में एक नया और मौलिक जोश पैदा हुआ। एक दास ने थोड़ा-सा मुँह खोला कि तीनों की हा-एँ ध्वनित हुईं। तीनों का एक मत रहा-"हाँ, अब मौसम का रुख सही निकला है। सरकार नई है, हमारी पद्धति ठीक बैठेगी, जंचेगी। सरकार को यह सिद्धान्त अपनाना होगा। अब सर्वकल्याण हुआ ही समझो। हमारी नई नीति अमर रहे !"

हाल ही के पिछले चुनाव में बुरी तरह पराजित, पूर्णकल्याण के इच्छुक, भावी एम एल ओ० के पास बारी-बारी जाकर मुलाकातें की तीनों ने।
सत्तर-पचहत्तर वर्ष की उम्र को देखते हुए सबने तीनों का स्वागत किया। सबने तीनों की बातें सुनीं। एकाध नेतानुमा देशभक्त ने तीनों महापुरुषों से नजर बचाकर एकाध बार जम्भाइयाँ भी लीं। अनुभवी वक्ता ही नहीं, श्रोता भी हैं। कुछ निर्वाचित सदस्यों के पास तीनों गए हुए हैं अवश्य। इन सदस्यों को, शायद चूँकि दास-त्रय के आगमन की सूचना दे दी गई थी, इसलिए तीनों को फाटक लाँघने तक की अनुमति नहीं दी। रोक-टोक की बात सुनते ही दारोगा दास का रक्त एकाएक खौल उठा। सस्वर बड़ाबड़ाहट खुले आम फूट पड़ी

"हट साले! कल के छोकरे ! खचड़े कहीं के ! असत्य और अनुचित करने के लिए हमारी उपेक्षा की गई है। हमारी नीति इन पाजियों को मान्य नहीं है। उपेक्षा की जा रही है। नहीं ! यह नहीं हो सकता! ये सारे लोग सड़े-गले सिद्धान्तों को बगल में दबाए हमारे ऊपर नहीं बैठ सकते ! हमारी आँखें खुल चुकी हैं। ये लोग बच के कहाँ जाएँगे? भागेंगे कहाँ? आन्दोलन, आग्रह, ज़िद, डिमाण्ड"अपने अधिकार का प्रयोग करना है, जन्मसिद्ध अधिकार का ! साले !"

तीनों दास अब आगबबूला हो गए। अध्यापक दास कुछ ज्यादा कमजोर है। उसकी देह काँपने लगी। सदा कम्पित उसकी पूर्ण से पकी मूंछ रह-रहकर हिलने लगी। तीनों ने भीष्म संकल्प ले ही लिया-"इन्कलाब !"

आन्दोलन के लिए योजनाएं बनानी शुरू की। बहुत सारे दलों के पास गए। दल के सदस्यों से आन्तरिक प्रोत्साहन तो मिला, परोक्ष रूप में ही सही। लेकिन दलसंबंधी हेराफेरी-बड़े ही सुसभ्य बहाने बनाकर जुलूस में भाग लेने से शतप्रतिशत इन्कार कर दिया। नई पीढ़ी के युवा नेताओं से एक-एक करके मुलाकात की। कुछ को तो हँसी आई और बहुतों को रोना। जलती आग में घी का काम हुआ। ये तीनों बुजुर्ग क्रोध में अपने-आप जलने लगे। तीनों की चेतावनी रही-"बन्दर कहीं के ! नीच ! इन सबकी भलाई के लिए बनी हैं योजनाएँ, और ये मूर्ख लोग हैं कि कुछ जानते ही नहीं ! खैर, न लें भाग। लड़ते रहो आपस में ! नोच-नोचकर चीर-चीरकर खाते रहो ! सड़ते रहो! हम ही करेंगे बगावत! इन्कलाब!" यह रहा तीन महान राष्ट्रनिर्माताओं का अन्तिम निष्कर्ष। बेटों-पोतों ने हँसी रोक-रोककर तीनों को रोकने की कोशिशें की। लेकिन ये तीनों तो महारथी हैं।

नई सरकार की पहली सभा का दिन है। राजपथ की व्यस्तता चरम सीमा पर है। तीनों इन्कलाबी दास हाथ में छोटे-छोटे बहुरंगी झण्डे और दो-तीन तरह के नारों से चित्रित तोरण लिये सभाभवन की ओर बढ़ चले हैं।

एक दास चिल्लाता है-"सड़ा विधान" दोनों का जवाब है-"नहीं चाहिए, नहीं चाहिए !"
-नई पद्धति"
-लागू करो!
-पुरानी सरकार
-बदल डालो!
-इन्कलाब
-जिन्दाबाद ! जिन्दाबाद !

राज-पथ के अगल-बगल भारी भीड़ की कतारें खड़ी हैं। ऐसा लगता है, मानो इस ग्रह के सर्वशक्तिमान देशों के तीन राष्ट्रपति, बाहों में बाँह डालकर एकसाथ पैदल चले आ रहे हों। लोगों का आना-जाना पूर्णरूप से अपने-आप बन्द हो चुका है। सब-के-सब चित्रवत् थम गए हैं। ऊपर कोई वायुयान या अन्तरिक्षयान उड़ता, तो वह भी हाथ-पाँव सीधे पसारकर रुक जाता–कम से कम थोड़ी देर के लिए। तीनों पीछे-पीछे सुबह के स्कूलों से घर लौट रहे तथा दिन के स्कूलों को चले

आ रहे, असंख्य बच्चों की अन्तहीन कतार चली आ रही है। कतार में से एक होनहार बच्चे ने उल्लासभरे आवेश में आकर जाने-अनजाने ही, दोनों दासों के जवाब में अपनी ऊँची आवाज उठाई-"जिन्दाबाद!" उसके ठीक बगल में चले जा रहे थोड़ेसे बच्चों ने उसे कुहनी मारी। पहला बच्चा सड़क के किनारे हठात् बैठकर हँसता हुआ दर्द सहने लगा।

पूर्व-सूचना के अनुसार चौराहे पर थाने की एक छोटी-सी गाड़ी खड़ी है, जिसमें निरस्त्र सिपाही बैठे मुफ्त में तमाशा देख रहे हैं। इसमें से एक नाटा-सा वर्दीधारी पुरुष निकला और तीनों इन्कलाबियों के सामने चला आया। हाथ जोड़कर प्रणाम किया, और कहने लगा
"आइए, गाड़ी पर चढ़ें।"
"क्या कहा? तुम कौन होते हो हमें रोकनेवाले?"
"नहीं-नहीं मास्साब, रोकता थोड़े ही हूँ ! मेरा मतलब है आपको वहाँ तक पहुँचा आऊँ जहाँ आपको जाना है।"

"हट ! बड़ा आया पहुँचानेवाला! कल तक हम यह कहते चले आए थे, तुम लोग भी हमारे साथ चलो, इसमें सक्रिय भाग लो। तब तक तो मानते ही नहीं थे। और चला आया है अब लाभ का हिस्सा लेने। कोई बात नहीं, शामिल होना है तो चलो, आओ हमारे पीछे-पीछे। हम तो पैदल ही चलते हैं।"
"ठीक है डॉक्टर साब, लेकिन आप लोग उस तरफ चलें।'
"क्यों-क्यों? इधर क्यों नहीं? हम ठीक इस तरफ चलेंगे और सभा-भवन को । ही उजाड़ देंगे, उखाड़कर ही रहेंगे।"
"बात तो बिल्कुल ठीक है सर, लेकिन चूंकि आज तो बैठक का पहला दिन है इसलिए अभी सभा इधर नहीं, उधर उस लाल झण्डेवाले भवन में बैठ रही है।"
"अच्छा, तो यह बात है! डर के मारे वे लोग भाग खड़े हुए हैं? खैर, हम पीछा थोड़े ही छोड़ेंगे। चलो मार्ग बताओ। नया विधान"

वर्दीवाले ने तीनों को रास्ता दिखाया। साथ-साथ चल रही गाड़ी को पीछे, बगल में रुकवा दिया और वह भी तीनों दासों के साथ चल पडा। चौराहे से पश्चिम की ओर एक सड़क जाती है। तीनों की भव्य कतार को इस सड़क पर लाया गया है। बच्चों की कतार भी तीनों के साथ मुड़ने लगी। थोड़ी दूर चलकर एक और मोड़ आया, जिससे एक गली दाहिनी ओर को जाती है। जुलूस इस गली से होकर चलने लगा। थोड़ी ही दूर चलकर लोहे का एक चौड़ा-सा फाटक मिला, जो पहले से अपनी चरम सीमा तक खुला हुआ है। इसी फाटक से होकर तीनों को पधारने का आग्रह किया गया। तीनों का हौसला और भी बढ़ने लगा। चिल्लाते-चिल्लाते एक दास ने धूल-जमी अपनी ऐनक उतारकर कुरते के पल्ले से साफ की। रगड़ते-रगड़ते उसने ऊपर की ओर यूँही देखा। वह चौंक-सा गया। नारे का जवाब देते-देते वह रुक गया और दूसरे दास से धीरे से कहा

"अरे ! यह तो वह नहीं है!" "क्या चीज?" "यह तो भई, मेंटल अस्पताल है ! देखो तो लिखा हुआ है।" "क्या कहा?" "क्या कहा?" दास-त्रय ने पीछे मुड़कर देखा। तब तक लौह-फाटक बन्द हो चुका था।

-लेखक द्वारा अनूदित

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