ऐ बगुला, सफेद टीका देता जा ... (असमिया बाल कहानी) : सतीशचन्द्र चौधुरी/সতীশ চন্দ্ৰ চৌধুৰী
Ai Bagula Safed Teeka Deta Ja (Assamese Baal Kahani in Hindi) : Satish Chandra Choudhury
मुर्गे की बाँग के साथ-साथ सुशील जग उठा। उस समय बाहर बूँदा- बाँदी हो रही थी। उसने बगीचे के फूलों की ओर देखा । बगीचा फूलों से लदा हुआ है। आज रामू और चीमू फूल बटोरने नहीं आये। सुशील सोचने लगा, इसका कारण क्या हो सकता है ? देर करने से पिताजी यहाँ पहुँच जायेंगे। पिताजी ने उन्हें फूल बटोरते हुए देख लिया तो गालियाँ देने लगेंगे । पहले भी कभी-कभी ऐसा हुआ है। रामू और चीमू को सुशील रोज इस तरह इंतजार करता था। आज भी उसने यही किया। लेकिन आज उनके आने के आसार ही नहीं दीखते। अब तो उसके स्कूल जाने का समय हो जायेगा। जब वे नहीं आये तो सुशील स्कूल जाने को निकल पड़ा। पैंट के जेब में रामू और चीमू के लिए दो टुकड़े रोटी लेता गया। रामू और चीमू का घर उसके स्कूल जाने के रास्ते में पड़ता है।
रामू - चीमू रोज फूल बटोरने यहाँ आते थे। उस समय सुशील उन्हें रोज रोटी खाने को देता था । रोटी खाकर वे मारे खुशी के नाचने लगते थे । लेकिन आज वे क्यों नहीं आये। यह समझ में नहीं आया। वह बहुत से कारण सोचने लगा। रामू चीमू की बात वह बार-बार भूलना चाहता है- लेकिन कहाँ भूल पाता है। उसे बार-बार उस दिन की बात याद आती है जिस दिन उनसे उसका परिचय हुआ था ।
उस दिन वह अपने दादा के साथ नदी किनारे घूमने गया था। वहाँ से जब लौट रहा था तो दादा ने कहा, 'मुन्ना, उन दो बच्चों को तो देखो !'
सुशील ने घूमकर देखा कि दो लड़के आकाश में उड़ते हुए बगुलों से कुछ कह रहे हैं।
'बगुला ऐ, टीका देता जा । '
'कौन सा टीका भाई ?'
'सफेद टीका लगा जा ।'
दोनों फिर एक साथ गा गाकर बगुलों को बुलाते हैं।
'बगुला ऐ, सफेद टीका लगा जा
हमारी बातें सुनता जा
बगुला ऐ, सफेद टीका लगा जा ।'
सुशील को ये लड़के बहुत अच्छे लगे। वह उनके पास जा पहुँचा । बच्चों का नाम पूछा गया तो रामू और चीमू बताया। कुछ ही दिनों में सुशील के साथ उनकी दोस्ती हो गयी। इनसे दोस्ती के कारण सुशील के पिता ने अपने बेटे को बहुत भला-बुरा कहा। लेकिन सुशील कभी भी इनसे दोस्ती न छोड़ सका, बल्कि दोस्ती बढ़ती ही गयी।
रामू और चीमू यहाँ के नहीं थे। अपने रोजगार के लिए यहाँ आकर स गये थे। इनके माँ-बाप मरे हुए जानवरों की हड्डी इकट्ठी करते और बाहर के बाजार में बिक्री करते थे। इसी व्यवसाय से किसी तरह गुजारा चलता था। रामू की माँ रोज भगवान की पूजा करती थी और इसीलिए रामू और चीमू फूल लाकर माँ को दिया करते थे । इन्हीं फूलों को लाने हेतु दोनों भाई रोज पौ फटते ही आकर यहाँ से फूल बटोर-बटोर कर ले जाते थे। लेकिन आज़ क्या हुआ! आज वे क्यों फूल बटोरने नहीं आये? सुशील को इस विचार ने तंग कर रखा था ।
इस तरह सोचता- सोचता सुशील उनके घर के नजदीक जाकर रुक गया। सुशील ने पूछा कि आज फूल बटोरने वे क्यों नहीं आये? लेकिन उनमें से किसी ने कुछ नहीं कहा। इतने में रामू के माँ-बाप आगे आये और कहने लगे कि हम लोग आज यह जगह छोड़कर जा रहे हैं। रामू और चीमू भी चले जाएँगे। सुशील को इस बात से बहुत दुख हुआ। लेकिन रामू की माँ ने उसे बताया 'हाँ, छोटे बाबू, हमारा हड्डी उठाने का काम फिलहाल यहाँ खत्म हो गया। अब नई जगह की तलाश में यह स्थान छोड़ रहे हैं दूसरी जगह हम हड्डी उठाने का काम करेंगे। इस बात से सुशील को बड़ा कष्ट पहुँचा। वह रामू और चीमू की ओर देख रहा था। वे भी सुशील की ओर एकटक देख रहे थे । उनकी आँखों से आँसू टपक रहे थे ।
अंत में रामू अपने माँ-बाप के साथ जाने लगा। उसके बाबा ने गाड़ी में घोड़े जोत दिये। रामू और चीमू ने सुशील से विदा ली। दोनों फूट-फूट कर रोने लगे। सुशील भी रो रहा था। उनकी गाड़ी चलने लगी। पहले आहिस्ता- आहिस्ता, फिर तेजी से ।
उस चलती हुई गाड़ी की ओर सुशील एकटक देखता रहा । हठात उसको रामू और चीमू के लिए लाये हुए रोटी के टुकड़ों की याद आई। उसने उसे अपनी जेब से निकाला। लेकिन तब तक गाड़ी बहुत दूर पहुँच चुकी थी। रोटी के टुकड़े हाथ में लेकर गाड़ी के पीछे वह दौड़ना चाहता था कि पीछे से किसी ने उसे गोद में उठा लिया। मुड़ कर देखा तो उसी के दादाजी हैं। वह दादाजी की छाती में चिपककर फफक-फफक कर रोने लगा। दादाजी के मुँह से निकला, 'शिशु भगवान होता है। उसके सामने जाति-धर्म-भाषा की कोई दीवार नहीं होती।'
सुशील बार-बार दोहराने लगा-
'ऐ बगुला, सफेद फूल लेता जा ।
ऐ बगुला, सफेद टीका देता जा ।'
(अनुवाद : चित्र महंत)