अहिल्या (कोंकणी कहानी) : चंद्रकांत केणी

Ahalya (Konkani Story) : Chandrakant Keni

"नाम"? उसने पूछा।

"अहिल्या," उसने जवाब दिया।

"सुना हुआ लगता है।"

जवाब में वह केवल मुसकराई, थोड़ा सा शरमाई । अँगूठे से जमीन कुरेदने का प्रयास करने लगी।

"'अहिल्या' शब्द का अर्थ क्या है ?" अपनी टटोलती नजरों से उसे निरखने के बाद उसने पूछा।

"पता नहीं। "

"नाम तो पता चल गया, अब बताओ उम्र क्या है तुम्हारी ?"

लज्जा से उसके गाल आरक्त हो उठे। निचला होंठ दाँतों तले दबाते हुए वह बुदबुदाई - "तीस"।

"तीस कोई कम उम्र नहीं है। अगर शादी हो जाती तो अब तक बच्चों की माँ बन चुकी होती ।" उसने कहा ।

उसकी यह बात उसे बिल्कुल नहीं सुहाई। कोई और प्रसंग होता तो वह उसे टका सा जवाब देती। शरीर को चिपकनेवाली उसकी ललचाई आँखें नोच लेती, पर आज वह लाचार थी, रविवार पैंठ में बेचने लाई गई भेड़ की तरह, जहाँ उसका भविष्य तय होता है "खरीदनेवाला उसे मारेगा या पालेगा ?

"शिक्षा ?” अचानक धमाके की तरह आए प्रश्न से उसकी विचार-श्रृंखला टूट गई।

'दसवीं क्लास ।"

'दसवीं पास ?"

'नहीं, दसवीं में थी तब पढ़ाई छूट गई। "

'क्यों ?"

"माँ गुजर गई । " माँ की याद में उसकी आँखें भर आईं। लगा कि आज अगर माँ होती तो यह नौबत नहीं आती।

"जो गई, सो गई। अब तुम क्यों रो रही हो?" उसने मजाक उड़ाया। मन-ही-मन वह क्रोध से तिलमिला उठी, पर उसने अपने क्रोध पर काबू किया।

"क्या सचमुच तुम्हें अपने नाम का अर्थ नहीं मालूम ? अब मेरा नाम पुरुषोत्तम यानी 'पुरुषों में उत्तम', 'अच्छों में अच्छा पुरुष, समझी ?" उसने कहा।

उसने सिर्फ सिर हिलाया, पर मन- -ही-मन हँस पड़ी। सोचा कि 'अच्छों में अच्छा पुरुष ऐसा होता है तो फिर बुरा पुरुष कैसा होगा ?' बातचीत काफी देर तक चली। शेर के शिकंजे में फँसी बकरी की तरह उसकी दशा हो गई थी। कब छुटकारा पा सकूँगी, वह सोचने लगी। वैसे तो वह काफी ढीठ है। पिछले तीस साल उसने दुनिया देखी है। ऐसे पुरुषों के साथ कैसे पेश आना चाहिए, उसे भलीभाँति पता है। वह खब्बो ! पुरुषों के गाल पर लगाए तमाचे का असर क्या होता है, इसका अनुभव वह बहुत बार ले चुकी है, पर आज वह बेबस थी। वह उसके घर आया था। खुद उसकी मौसी ने ही उसे शेर की गुफा में धकेल दिया था ।

हाथ में चाय के कप और नाश्ते की प्लेट रखी ट्रे। यों तो नर्वस होने की उसे आदत नहीं है, पर कप-से- -कप टकराकर जब आवाज होने लगी, तब उसे पता चला कि उसके हाथ काँप रहे हैं। कँपकँपी को रोकने के प्रयास में उसके हाथ कुछ अधिक ही काँप उठे।

तपाई पर ट्रे रखी और आदत के अनुसार पीछे का पल्लू आगे लेकर उसने मुँह पोंछा, पर खुद उसे ही वह भद्दा लगा। उसने पल्लू से लटक रहे धागे को तोड़ दिया और पल्लू ठीक करने की कोशिश में थोड़ा आगे खींच लिया। तब तक उसने गरदन ऊपर उठाकर उसे देखा नहीं था। जब सिर ऊपर उठाया, तब पाया कि उल्लू की जैसी दो आँखें उसे घूर रही हैं। उन घूरती आँखों को देखकर उसके मन में टीस उठी।

नीले रंग का सूट और लाल रंग की टाई। सफेद रंग की शर्ट के सिर्फ कॉलर ही बाहर दिख रहे थे। बाल काले थे, लेकिन वे डाई किए हुए हैं, इस बात को वह मन-ही-मन जानती थी। इन दिनों वह जब भी आईने के सामने बाल सँवारने खड़ी हो जाती, तो एकाध चंदेरी तार उसके सिर में भी चमक उठता नजर आता। वह कम से कम पचास-पचपन का तो होगा ही ।

घूरते घूरते वह हँस पड़ा। टूथपेस्ट के विज्ञापन में चमकनेवाले दाँतों की तरह उसके दाँत चमक उठे। उसने मन-ही-मन सोचा कि दाँत भी नकली होंगे।

पर एक बात सच है, वह जवान दिख रहा था। उल्लू की तरह आँखोंवाला होकर भी उसमें विशेष मर्दानगी थी। मौसी का पसंद किया हुआ दूल्हा ।

'दूल्हा' शब्द ही अब मानो अपना अर्थ खो बैठा है। फिर भी, जो सेहरा बाँधकर वेदी पर चढ़ता है, वह 'दूल्हा' ही कहलाता है। उसने मुझे पसंद किया तो मेरा भी उद्धार होगा। मौसी और पिता भी चैन की साँस लेंगे। वह जानती है कि वह उनके लिए अब बोझ बन गई है। भगवान् ने भले ही उसे सुंदर रूप नहीं दिया, पर भरा-पूरा शरीर दिया है। छोटी उम्र में ही देखनेवालों की नजरों में उसका कद भर जाता था । पर-पुरुषों की भूखी नजरें उसके शरीर को बींध देती थीं।

उसने सोचा कि किसी का घर सँभालने में ही अब उसके जीवन की सार्थकता है । मन तो पहले से ही मर गया है, इसलिए भावनाओं का सवाल ही नहीं उठता। किसी ने कभी उसकी पसंद-नापसंद की परवाह ही नहीं की, पर अब पुरुषोत्तम को देखने के बाद उसे उसमें कोई बुराई नजर नहीं आई। आँखें मूँदकर उसने भगवान् से माँगा कि वह उसे पसंद करे ।

आरंभ में चुप्पी को तोड़ते हुए, जब उसने पूछताछ शुरू की, तब उसमें क्रोध उबलने लगा था। फिर भी, ठंडे दिमाग से सबकुछ सहकर उसने मन- ही मन कहा कि एक बार तुम्हारी बीवी बनूँ तो फिर तुम्हें सिखाऊँगी।

पूछताछ पूरी हुई और उसने एक विलक्षण सवाल किया- " अगर मैंने तुम्हें पसंद किया तो तुम्हें खुशी होगी ?"

इतनी ढीठ होने के बावजूद वह शरमाई । नजरें झुकाकर उसने 'हाँ' में गरदन हिलाई, पर उसके हाथ आगे करते ही वह पीछे हट गई।

"तुम्हें पता है न ? मेरी पहली पत्नी मर गई है। मैं तुम्हें अँधेरे में नहीं रखना चाहता। तुम्हारे पिताजी ने अगर तुम्हें नहीं बताया हो तो मैं तुम्हें बता देता हूँ। मेरी दूसरी पत्नी बनकर तुम आना चाहोगी न ? दो वक्त का खाना और इज्जत का जीना मैं तुम्हें दे दूँगा । मेरी कोई औलाद नहीं है, यह कमी तुम पूरी करोगी, यही मेरी तुमसे अपेक्षा है। इस उम्र में किसी वासनापूर्ति के लिए नहीं, पर वंश बढ़ाने की भावना से ही मैं शादी के लिए तैयार हुआ हूँ।"

वह उसकी प्रतिक्रिया जानना चाहता था, पर उसका चेहरा पहले की तरह ही निर्विकार था । क्षण भर कोई कुछ नहीं बोला, तब उसने नजरें उठाकर उसकी ओर देखा । वह उसे देख रहा था। नजरों से नजरें मिल गईं। और उसके चेहरे पर मुसकान खिल उठी ।

उसकी मुसकान में मानो उसे अपना जवाब मिल गया था। वह उठकर अंदर जाने लगी। उसे पता था कि बंद दरवाजे के भीतर मौसी और पिताजी दीवार से कान लगाकर सबकुछ सुन रहे होंगे। उसे 'देखने आएँगे' इसीलिए पिताजी ने मौसी को बुला लिया है। शादी तय हो गई तो मौसी खुश होगी, बहन के ऋण से मुक्त होने का समाधान उसे प्राप्त होगा। कल रातभर उसने अहिल्या को यही समझाने का प्रयास किया था ।

"शादी के बिना जिंदगी अर्थहीन होती है और समाज की बुरी नजरें शादी होने तक सताती हैं। तुम्हारे पिताजी की भी उम्र हो चुकी है। मैं भी मर जाऊँ तो तुम कुँवारी रहकर अकेली क्या करोगी ?"

मौसी का कहना उसे सही लग रहा था। वैसे भी उसकी जिंदगी का अब कोई विशेष अर्थ नहीं रहा था।

छोटी उम्र में ही उसे प्यार हो गया। सारा सुख भोग लिया। अब उसे किसी भी सुख की अपेक्षा नहीं थी। अब शादी के लिए 'हाँ' कहने में उसका कोई नुकसान नहीं था ।

वह दरवाजे की ओर मुड़ गई तो उसने आवाज लगाई, “अहिल्या, अब एक अंतिम सवाल। अपने बारे में मैंने तुम्हें बताया, पर तुम इतने साल कुँवारी कैसे रही, यह तुमने नहीं बताया ?"

यह प्रश्न उसके लिए अनपेक्षित था। सच बताने का डर उसे नहीं था, पर उसने इतना ही कहा, "मेरा नसीब, और क्या बताऊँ ? "

कमरे का दरवाजा खोलकर वह बाहर निकली। उससे बिना कुछ पूछे ही पिताजी कमरे में चले गए, शादी का मुहूरत तय करने।

कहानी का पूरा मजमून मैंने पढ़ डाला और इसे लेकर आईं लेखिका से मैंने पूछा, "यह कथा पूरी हो गई या और लिखना बाकी है ?"

"आगे कैसे लिखूँ, यह मेरी समझ में नहीं आ रहा है, इसीलिए आपके पास लेकर आई हूँ।" उसने कहा ।

मेरे सामने लगभग पचास वर्ष की एक स्त्री बैठी थी, जो यह कहानी लेकर आई थी। सामान्य तौर पर कहानी लेकर आनेवाले लेखकों से मैं कहता हूँ कि 'कहानी पढ़कर फिर बताता हूँ।' पर यह औरत बिल्कुल हिलने का नाम नहीं ले रही थी। 'कहानी पढ़कर देखिए ' यह जिद उसने ठानी। तब मैंने वह कहानी पढ़ ही डाली ।

"कहानी अच्छी हैं, पर उसे मैं कैसे पूरी करूँगी ? तुम्हारे दिमाग में जो कुछ भी है, वह लिख डालो, फिर देखेंगे, " मैंने कहा ।

"वही मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं कैसे लिखूँ ?"

"तुम कहना क्या चाहती हो ?"

"मुझे पूरी कहानी बतानी है। "

अब तक मैंने उससे उसका नाम गाँव या पता कुछ नहीं पूछा था, पर मैंने अनुमान लगाया कि 'यह उसी की आत्मकथा होगी।' मैंने पूछा, “तुम्हारा नाम क्या है ?"

"कहानी में जो लिखा है, वही अहिल्या । "

मैंने अचरज से उसके चेहरे की ओर देखा । वहाँ कोई भाव उदित नहीं हुए थे।

"अर्थात् यह तुम्हारी ही कहानी है ?" मैंने पूछा।

“हाँ।”

"फिर आगे लिखने में क्या बाधा है? जो कुछ भी हुआ है, सब लिख डालो, " मैंने सुझाया, “तुम्हारी उस पुरुषोत्तम से शादी हुई न ?”

पल्लू की आड़ में छिपे मंगलसूत्र को दिखाते हुए उसने कहा, “यह उसी ने मेरे गले में बाँधा है। माथे पर कुमकुम पिछले सत्रह वर्षों से उसी के नाम से लगा रही हूँ, पर अब एक अजीब स्थिति पैदा हो गई है। उसने मुझे त्याग दिया है।"

मैंने कहा, “ घरेलू झगड़े कहानियों में क्यों ला रही हो ? किसी हितचिंतक को बताकर झगड़ा मिटा दो।"

"मुझे इन झगड़ों की चिंता नहीं है, पर मुझे यह सब लिखना है। हालाँकि मैं लेखिका नहीं हूँ। मुझसे यह सब नहीं होगा, इसीलिए आपसे कह रही हूँ कि आप लिखिए।"

"यह सब लिख दिया तो तुम्हारे पति की प्रतिक्रिया क्या होगी ?"

"जो हुआ है, उससे भयावह और क्या होगा ? वह बेहद शक्की आदमी हैं, परंतु उसकी प्रतिक्रिया कुछ भी हो, मैं कह रही हूँ, आप लिखिए। "

"सत्रह साल तुमने उसके साथ गृहस्थी चलाई, है न?"

"हाँ, तब तो वह अधेड़ था, अब बूढ़ा हो गया है, लेकिन अब उसपर बुढ़ापे में मानो जवानी सवार हो गई है। मुझपर शक करता है और खुद तीसरी बीवी लाने के सपने देखता है।"

अहिल्या ने शादी के बाद भी कभी अपने नाम का अर्थ जानने की कोशिश नहीं की थी। उसे ऐसी जरूरत ही नहीं पड़ी। उसके लिए नाम केवल पुकारे जाने का साधन मात्र था। उसने इस बात पर कभी विचार ही नहीं किया था कि नाम का भी कोई अर्थ हो सकता है। और माँ-बाप ने भी उसका नाम अर्थ समझकर रखा होगा, ऐसा उसे कभी लगा नहीं ।

“मेरा नाम, अहिल्या," उसने बात आरंभ की। तब मैंने उससे पूछा, "अब तो 'अहिल्या' शब्द का अर्थ तुम्हें पता चल गया होगा ?"

वह मुसकराई। उसने कहा, “मेरे पति ने मुझे बताया। वह बार-बार मुझे अहिल्या के बारे में बताता है और कहता है कि तुम भी अहिल्या के समान हो, पर वह किस्सा बाद में सुनाती हूँ, उसके पहले मेरी शादी के पूर्व की खबर सुनिए। "

तब गोवा की आजादी का संघर्ष अपने अंतिम चरण में था । अंत्रुज प्रदेश के एक गाँव में अहिल्या का जन्म हुआ। वह आठवीं कक्षा में थी, तब उसे एक शिक्षक पढ़ाने आया। वह अठारह उन्नीस साल का नवयुवक था। वह शिक्षक कुछ अलग ही प्रकार का था। बच्चों को कहानियाँ सुनाता, कवायदें सिखाता, प्रभातफेरियाँ निकालता और ध्वजवंदन के कार्यक्रम करता। स्कूल के बाद उसकी ये काररवाइयाँ चलती रहीं।

पुर्तगालियों के राज्य में ही सही, मगर एक ओर बसे इस गाँव की ओर किसी का कभी ध्यान नहीं जाता था और शिक्षक अपने पेशे से अलग कुछ करेगा, ऐसा गाँव के लोगों को भी कभी नहीं लगा ।

उस शिक्षक का नाम अहिल्या ने मुझे बताया, पर वह प्रकाशित न करने की उसने मुझे कसम भी दिलाई। स्कूल में उसे बच्चे 'भाईसर' कहते और गाँव के लोग भी उसे 'भाई' ही कहते।

भाई स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेनेवाला एक नवयुवक था। अपनी ओर से वह लोगों के मन में देशभक्ति जाग्रत् करने का काम करता था और गुजारे के लिए शिक्षक की नौकरी करता था ।

अहिल्या के घर के पीछे नारियल का एक गोदामनुमा कमरा था। वहीं पर वह रहता और खुद ही खाना बनाकर खाता था। उन दिनों घर में अहिल्या की बड़ी बहन भी थी। वह अकसर अहिल्या के हाथों ही भाई के लिए खाना भिजवाती ।

"स्कूल छूटते ही मैं पढ़ने के लिए भाई के यहाँ जाती। वह मुझे पढ़ाता था और होमवर्क के बाद गांधी, नेहरू, सुभाष, सावरकर की कहानियाँ सुनाता।"

शिक्षक और शिष्या का रिश्ता ही कुछ अलग होता है। अहिल्या युवावस्था में कदम रख रही थी। फिर भी, भाई के घर जाती और उसके साथ पहाड़ी पर जाकर कवायदें करती, लेकिन इस बात को अहिल्या के पिताजी ने कभी गंभीरता से नहीं लिया।

"पर मैं पूर्णतया भाईमय हो गई थी। उसका सहवास मुझे बेहद प्रिय लगता था । हम एक-दूसरे के बहुत करीब आ गए थे। उसने मुझसे वादा किया था कि मेरे एस.एस.सी. पास होते ही हम दोनों शादी कर लेंगे। "

जब अहिल्या दसवीं में थी, तब दो विपरीत घटनाएँ एक ही साथ घटीं। उसकी बड़ी बहन ब्याहकर ससुराल गई और केवल दो दिन की बीमारी से माँ की मृत्यु हो गई। अंतिम संस्कार की तैयारियाँ चल रही थीं और तभी अचानक पुलिस की जीप उनके दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई । अहिल्या की माँ के अंतिम संस्कार में आए गाँव के लोग अचानक आई पुलिस को देखकर भयभीत हो उठे। उन दिनों पुलिस के नाममात्र से लोग डर जाते थे। स्वतंत्रता आदोलन से किसी का संबंध होने के शक मात्र से उसे पालमंत्री (बेंत की छड़ियों) से मारा जाता। बदन से खून बहने लगता था, बहुतेरों को जान से भी मार दिया जाता था ।

उस दिन पुलिस भाई को पकड़ने आई थी। किसी ने भाई की ओर इशारा किया और पुलिस ने उसे हथकड़ी पहना दी। फिर उसके घर की तलाशी लेकर बहुत सारे कागज और पुस्तकें जब्त कर ली गई और भाई को लेकर जीप चली गई।

सारा गाँव हमारे आँगन में मौजूद था, पर एक ने भी पुलिस को नहीं रोका और न ही किसी ने हमदर्दी जताई। जीप के निकलने पर ही उन्होंने अहिल्या की माँ की अर्थी उठाई।

इस घटना का वर्णन कर अहिल्या हँस दी। मुझे उसकी हँसी विचित्र लगी। यह औरत पागल तो नहीं है न, ऐसा मुझे संदेह हुआ। मेरे मन की बात शायद उसकी समझ में आ गई और उसने कहा, "जिंदगी में मैंने इतने तनाव सहे हैं कि मेरे सारे आँसू ही सूख गए हैं। आपको यकीन नहीं होगा कि मुझे कभी रोना आता ही नहीं। गंभीर समय पर भी मुझे ऐसी सूखी हँसी आती है। मैं मजाक नहीं कर रही हूँ।"

मैंने उसकी ओर गौर से देखा। लगा कि वह सच बोल रही है। मुझे उसपर तरस आया और मैंने उससे पूछा, "यह कब की बात होगी ?"

"1956-57 की बात होगी", अहिल्या ने जवाब दिया, “मैं तब 16- 17 साल की रही हूँगी। उसके बाद मेरा स्कूल बंद हो गया। घर सँभालने की जिम्मेदारी मुझ पर आ गई। हर दिन बड़ी आशा लेकर मैं भाई का इंतजार करती थी कि वह आएगा। पर वह कभी लौटा ही नहीं।"

स्कूल के आवास में पुर्तगाली झंडा उतारकर भारतीय झंडा फहराने का आरोप भाई पर लगाया गया था। किसी ने शिकायत की थी और भाई गिरफ्तार हो गया था ।

गाँव के लोगों ने कुछ दिन भाई को याद किया। फिर वे उसे भूल गए। स्कूल के व्यवस्थापकों ने भी सरकार से दुश्मनी क्यों मोल लें, ऐसा सोचकर एक ' पुर्तगाल- द्रोही' शिक्षक को नौकरी से निकाल दिया था । अहिल्या अब जवान हो गई थी। वास्तव में हुआ क्या है, यह उसे अच्छी तरह से पता था । जिस आईने में वह अपना रूप निहारती थी, वही मानो चूर-चूर हो गया था। न वह खुलकर रो सकती थी और न ही अपना मन किसी के सामने खोलकर रख सकती थी।

पर कुछ ही दिनों में उसे पता चला कि वह माँ बननेवाली है। किसे बताएगी ? मौसी के यहाँ जाकर उसे ही सबकुछ बता दिया।

उसी रात मौसी उसे लेकर वापस घर आई। उसने पिताजी से बात की।

"ऐसा नहीं लगता कि वह जीते-जी वापस लौटेगा और लौट भी आया तो पुलिस उसे चैन से जीने नहीं देगी। उसका खयाल ही दिमाग से निकाल देना बेहतर होगा । अहिल्या के भविष्य की सोचते हुए लगता है, उसे गोवा से बाहर ले जाकर उसका गर्भपात कराना ही ठीक होगा।" पिताजी ने निश्चय किया।

अहिल्या पर मानो गाज गिर गई थी। उसे लगा कि पाँव तले धरती खिसक रही हैं, पर एक गलती करने के बाद अब विरोध करने का साहस उसमें नहीं था।

वह गोवा से बाहर होकर आई और पूरी तरह से बदल गई। माँ की मृत्यु के बाद घर का उत्तरदायित्व उसी के ऊपर आ गया था, पर इस आघात से मानो वह एकदम से वयस्क हो गई। उसका बचपना ही खत्म हो गया। गाँव के लोग भला-बुरा कहते । उनका एक-एक शब्द दिल पर गहरा घाव कर देता, पर उनको उलटा जवाब देने का मनोबल उसमें नहीं था।

भविष्य का चित्र एकदम अस्पष्ट था। मौसी उसे समझाती थी। कहती थी - " शादी के लिए तैयार हो जाओ।" पर वह इसके लिए तैयार नहीं होती थी, मानो जिंदगी के प्रति उदासीन हो गई हो ।

इसी दौरान गोवा स्वतंत्र हो गया। उसे लग रहा था कि अब तो भाई आएगा। उसके पिताजी ने बहुत लोगों से पूछताछ की। पुलिस भीड़ के बीच में से उसे पकड़कर ले गई थी, पर आगे उसका क्या हुआ, किसी को पता नहीं चला। कोई कहता, उसे अफ्रीका भेज दिया है तो कोई कहता, उसे मार डाला है।

“स्वतंत्रता सेनानियों का तो मान-सम्मान होता है, पर मेरे नायक का तो कुछ पता ही नहीं चला, " अहिल्या मन-ही-मन क्रोध से उफन रही थी। उसने निश्चय किया, अब शादी नहीं करनी है।

अपनी पूर्व जिंदगी की कहानी बताते बताते अहिल्या पसीने से तर-ब- तर हो गई, पर बोलते-बोलते उसकी भाषा काफी धारदार बन गई थी और शब्दों में तल्खी महसूस हो रही थी।

"यह है मेरी पूर्व जिंदगी। इसी पृष्ठभूमि पर मात्र पिताजी और मौसी को अच्छा लगे, इसीलिए मैं शादी के लिए राजी हो गई बिना किसी सुख की अपेक्षा किए। इस जन्म में मेरे हिस्से सुख लिखना शायद भगवान् भूल गया था। फिर मैंने सोचा कि जो इतनी उमंग के साथ मुझसे ब्याह करने आया है, उसे सुख नहीं दे पाई तो कम-से-कम दुःख तो नहीं दूँगी। पर जो हुआ सो एकदम विपरीत। "

"उससे तुम्हें क्या शिकायत है ? वह तलाक क्यों लेना चाहता है ?"

"उसे संतान चाहिए अपना वंश चलाने के लिए। अपनी और मेरी उम्र का उसे बिल्कुल खयाल नहीं है। सारा समय मुझे कोसते हुए 'बाँझ' कहता है। मुझसे अब यह सब सहा नहीं जाता। "

"क्या वह सचमुच एक और शादी करना चाहता है ?"

"ऐसा वो कहता है। अब औरतें भी काफी सस्ती हो गई हैं और कुँवारी लड़कियों की संख्या भी कम नहीं है। क्या मैंने नहीं की उससे शादी ? कुँवारी अधेड़ लड़कियों को लगता है कि सुहागन बनकर मरें। इसके लिए कोई भी पुरुष चलता है। इसीलिए कहती हूँ, गलती उसकी नहीं है। "

"पर संतान ही चाहिए तो रिश्ते में से एकाध बच्चा वह गोद क्यों नहीं ले लेता ?" मैंने पूछा।

"उसे अपने ही खून की संतान चाहिए। सिर्फ बच्चा पाने से वह संतुष्ट नहीं होगा। अपनी पहली पत्नी को भी उसने ऐसे ही सताया होगा, इसलिए बिस्तर पकड़कर वह मर गई। अब मेरे पीछे पड़ा है, पर मैं उसकी एक नहीं सुनती । उलटा बोलती हूँ, इसलिए आए दिन हमारे घर लड़ाई-झगड़े होते रहते हैं। वह मेरी हँसी उड़ाता है, मुझे नीचा दिखाता है, मुझपर बेकार के इलजाम लगाता है, शक करता है।"

"शक ? कैसा शक?" मैंने पूछा।

"वह मेरे नाम की आलोचना करने लगा। ग्रंथालय से पुस्तकें लेकर आया । एक शब्दकोश भी लाया । उसमें उसने पढ़ा- अहिल्या यानी बंजर, ऊसर जमीन। शुरू-शुरू में उसी अर्थ से वह मुझे सताता था। कहने लगा कि मैं बाँझ हूँगी, यह मेरी माँ को पता था, इसीलिए उसने मेरा नाम 'अहिल्या ' रखा । मेरा कलेजा फट जाता। लगता था कि 'भाई' से संबंध के बारे में बता दूँ, पर बुद्धि भावना पर हावी हो गई।

"पर राम ने अहिल्या का उद्धार किया, यह तुमने उसे नहीं बताया ?"

"मुझे कहाँ पता था ? वह बात भी उसी ने मुझे बताई । एक कोश में लिखा था- - अहिल्या गौतम ऋषि की पत्नी है। फिर वह गौतम ऋषि पर पुस्तक लाया। उसने मुझे पढ़कर सुनाया कि सारा दोष अहिल्या का ही था । बूढ़ा ऋषि अपनी पत्नी पर शक करता है और शाप देता है, तब वह शिला बन जाती है और फिर राम उसका उद्धार करता है। वह अपने आपको गौतम ऋषि समझता है और मुझपर शक करता है। दूसरे पुरुष के साथ जाना होता तो मैं यह सब सहती ही क्यों ?"

अहिल्या के मन की कशमकश मेरी समझ में आई और मैंने कहा, " कथा का विषय सच में अच्छा है। तुम्हारी इजाजत हो तो मैं इसे लिख दूँगा ।"

"यह केवल कहानी नहीं, सत्य घटना है। ऐसा नहीं कि गौतम ऋषि पहले जमाने में ही होते थे, आज भी हैं, पर आज इस बात का मुझे कोई गम नहीं है। "

मुझे लगा कि गौतम ऋषि की कथा इस अहिल्या पर ठीक लागू होती है। बुढ़ापे में विवाह करके वंश विस्तार बढ़ाने की चाह रखनेवाले गौतम ऋषि के पास था - तप से संचित पुण्य, पर बढ़ती उम्र के साथ देह भी थक गई है, इसका आकलन नहीं था। पुण्य से उनकी वाणी में मंत्रों की शक्ति तो आई थी, पर वार्धक्य पर मात करनेवाली कोई दवा उनके पास फिर भी नहीं थी। बढ़ती उम्र में केवल अपना वंश बढ़ाने की चाह से उन्होंने अहिल्या से विवाह किया। पुराणों में लिखा है एक दिन नदी पर से नहाकर आते वक्त उन्होंने देखा कि अहिल्या के साथ कोई दूसरा पुरुष है और उन्होंने उसे शाप दे दिया।

कथा याद आई, फिर भी मैंने अहिल्या को नहीं बताई। सिर्फ इतना ही कहा कि "गौतम ऋषि के पास संचित पुण्य था, इसीलिए उनका शाप लग गया।"

"मेरे पति के पास केवल पाप की राशियाँ हैं।" एकदम आवेश में आकर उसने कहा ।

"फिलहाल तुम दोनों साथ रहते हो या नहीं ? "

"मैंने उससे साफ कहा है, 'गले में मंगलसूत्र बाँध के मैं इस घर में आई हूँ। अब इस घर से मेरी अर्थी ही उठेगी।' "

"उसकी प्रतिक्रिया क्या रही ?"

"गुस्से से आगबबूला होकर उसने कहा, 'खुद तो बाँझ है, मेरा वंश भी निर्वंश करने चली है, राक्षसी!' तब तो मुझसे रहा नहीं गया। फिर मैंने उससे कहा कि 'अगर सच बात का पता चले तो तुम पर आकाश टूट पड़ेगा।"

मैं अहिल्या की ओर देखता रह गया। वह थरथर काँपने लगी थी, मानो शरीर में आत्मा का संचार हुआ हो। उस प्रसंग का वह वर्णन करने लगी। उसने अपने पति से कहा, “तुम मुझे पापी कहो, पर बाँझ नहीं ।" पति ने कहा, “अब तुमने खुद ही कबूल कर लिया तो अच्छा ही हुआ। तुम व्यभिचारिणी हो। 'व्यभिचार' पाप ही है। अब अगर बाँझ को बाँझ कहा तो क्यों चुभता है ?"

"मैं बाँझ नहीं हूँ। मैं बदनसीब हूँ। इसीलिए मेरा बच्चा नहीं बच पाया, पर तुम तो..."

इतने दिन केवल वाक्युद्ध होता था, लेकिन आज अहिल्या की तीखी भाषा सुनकर पुरुषोत्तम ने उसके मुँह पर जोर से तमाचा लगाया कि वह तिलमिलाकर गिर पड़ी। वह बड़बड़ाने लगा- " तुम्हारे ये लक्षण मैं खूब जानता हूँ। तब उस मास्टर के साथ रंग उड़ाती रही और अब आने-जानेवालों के साथ आँख लड़ाती हो। "

"हो सकता है, " उसने उपहास भरे स्वर में कहा, “पर मैं बाँझ नहीं हूँ। अगर पुरुष धर्म के अनुसार दो पत्नियाँ कर सकता है तो स्त्री का दूसरा पति होना अधर्म कैसे ?"

अहिल्या की कहानी खत्म हो गई। इस पूरे तथ्य को वह संसार के सामने लाना चाहती थी। मैंने उसकी सारी कहानी लिखने का उसे वचन दे दिया ।

"एक काम करना होगा," उसने कहा, “मेरा पति महाधूर्त है। कहानी प्रकाशित होने से पहले उसे कुछ पता नहीं चलना चाहिए।"

"उसे कैसे पता चलेगा ?" मैंने पूछा, "छापते वक्त मैं उसका नाम बदल दूंगा।"

"गौतम रखो, " उसने कहा, “पर मेरा नाम अहिल्या ही रहने दो।"

(अनुवाद : आशा गहलोत)

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