अग्नि श्रृंगार (कहानी) : डॉ. शोभा घोष
Agni Shringar (Hindi Story) : Shobha Ghosh
पद्मिनी अपने श्रृंगार कक्ष में आदम कद दर्पण के सम्मुख खड़ी है। काली घुंघराली अलकें, कमान सी भौहें, खंजन-सी आँखें और सौंदर्य की स्वर्गीय दिप्ति से प्रकाशित मुख-मंडल, रूप की गौरव गरिमा और प्रकाश से दर्पण ही नहीं, पूरा श्रृंगार कक्ष आलोकित हो उठा।
क्या यही वह सौंदर्य है जिसकी सुरभि कश्मीर से कन्याकुमारी तक पूरे देश में फैली हुई है? क्या यही वह रूप है जिसकी गंध पा यवन सम्राट अल्लाउदीन लोलूप भौंरे की तरह मेवाड़ का चक्कर काट रहा है? रूप की गंध, मादकता और आकर्षण कभी कभी कितना घातक होता है? कितना ज़हरीला? रूपराशि पद्मिनी ने अपना चेहरा दर्पण में फिर-फिर देखा। उसे अपने सौंदर्य से घृणा हो आई। यह रूपराशि उसके निष्कलंक चेहरे पर, निष्कलुष चरित्र पर कालिख पोत गयी है। शिराओं में खून खौलने लगा। आँखें आग उगलने लगीं। लगा कि दर्पण के सम्मुख एक जहरीली नागिन फुफकार मार रही हो। ज्वालामुखी भभक उठा हो, प्रशांत सागर में ज्वार उठ गया हो।
भृकुटियां तन गयीं। नासिका कम्पित हुईं। भुजाएं फड़क उठीं। कमर से कसी कटार अपनी रक्त-प्यासी जिह्वा लपलपाने लगी। पद्मिनी का संपूर्ण शरीर काँप उठा इस कल्पना से और कितनी घृणित कल्पना? उसके रूप सौंदर्य से आकृष्ट हो कर यवन सम्राट ने उसकी प्रिय मातृभूमि पर चढाई कर दी है और रूपराशि पद्मिनी को प्राप्त करने के लिए उसकी सेना मेवाड़ का घेरा डाले पड़ी है। एक नारी के लिए आज प्रिय मेवाड़ भूमि पर संकट आ पड़ा है और उसकी स्वतंत्रता खतरे मैं है।
एक नारी के सौंदर्य की बलिवेदी पर हज़ारों वीर अपने प्राणों की बलि चढ़ा चुके हैं। यह सब केवल एक नारी के लिए, केवल एक नारी के रूप के लिए? दुनिया क्या कहेगी? और इतिहास क्या कहेगा? पद्मिनी का आरक्त मुखमण्डल दर्पण में प्रतिच्छवित हो उठा। विचार श्रृंखलाओं ने क्रोध के आवेग का अवरोध किया। इसी अप्रत्याशित राष्ट्रीय संकट की घड़ी को टालने के लिए पद्मिनी ने आत्म-सम्मान से राष्ट्र-सम्मान से समझौता किया था। मेवाड़ की महारानी की प्रति छवि देखकर आक्रमणकारी यवन सम्राट वापस लौट जायेगा, इस घृणित प्रस्ताव पर पद्मिनी ने अपनी स्वीकृति दी थी। पर यवन का विश्वास, आक्रमणकारी का आश्वासन, भोले राजपूतों का कोरा भ्रम सिद्ध हुआ। इतिहास बार-बार यही कहता आया है कि देश ने जब-जब आक्रमणकारी पर विश्वास कीया है, धोखा खाया है। आक्रमणकारी यवन सम्राट को भी दर्पण में पद्मिनी की प्रतिछवि से संतोष न हो सका। वह अपना वचन, आश्वासन भूल बैठा। रूपराशि पद्मिनी को अंकशायिनी बनाने का यवन सम्राट का निश्चय और सुदृढ़ हो गया। मेवाड़ का घेरा और दृढ होता गया। दुर्ग का एक-एक द्वार हजारों राजपूतों की बलि के बाद टूटने लगा। दुर्ग के रक्षकों की संख्या काम होने लगी। और एक दिन वह घडी भी आ गयी की राणा यवन सम्राट की सेना द्वारा बंदक बना लिए गए। अल्लाउद्दीन ने पद्मिनी के पास सन्देश भिजवाया की यदि वह अपनी ख़ुशी से शाही-हरम में आ जाएगी तो वह बंदी राणा को मुक्त कर देगा। मेवाड़ की महारानी ने साहसपूर्वक उक्त प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था और पांच सौ पालकियों में दसियों के साथ वह यवन सम्राट के खेमे की और चल पड़ी थी। खेमे में पहुँचते ही पालकियों से तलवार लिए राजपूत निकल पड़े और रंगरलियां मानते हुए यवनो पर टूट पड़े। मेवाड़ की महारानी बंदी राणा को मुक्त करके दुर्ग में वापस लौट आयी थी। वीर राजपूतानी का वह शौर्य विश्व इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ बना हुआ है।
महारानी पद्मिनी के मेवाड़ की उसी पुत्री के चेहरे पर आज चिंता की ये रेखाएं क्यों? आशंका का दर्पण काँप उठा। मेवाड़ की महारानी का शरीर काँप रहा था, क्या भय और आशंका से? नहीं, वह राजपूतानी है। उसका शरीर मेवाड़ की मिटटी से बना है। त्यागभूमि मेवाड़ बलिदानी राजपूतों के रक्त से सनी है। मातृभूमि की मर्यादा, पूर्वजों की गौरव-शाली परंपरा अक्षुण्ण रहेगी। राजपूतों के जीवन में भय और आशंका के लिए स्थान नहीं है। मेवाड़ की रक्तरंजित धरती, उसकी संतानें इसकी माँ की रक्षा करना जानती है। यह मिटटी बार-बार लहू की धार से सींची गयी है। आज मेवाड़ की मिटटी फिर अपना मूल्य मांगती है। हम प्राणो के रक्त से मातृभूमि की मर्यादा की रक्षा करेंगे। क्षणभर में ही महारानी ने अंतिम निर्णय कर लिया। मुखमण्डल गर्व से दीप्त हो उठा। वक्ष फूल उठा। भुजाएं फड़क उठीं, दर्पण गौरवान्वित हो उठा। महारानी अब भी दर्पण के सम्मुख खड़ी थी। दासी ने आकर खबर दी - 'दुर्ग का पूर्व द्वार ध्वस्त हो चूका है। यवन सैनिक किल्ले में प्रवेश कर रहे है।'
पद्मिनी की भौहें क्षणभर को संकुचित हुई पर केवल क्षणभर के लिए, फिर वह दर्पण के सम्मुख श्रृंगार में व्यस्त हो गयी। दूसरी दासी ने आकर समाचार दिया- 'महारानी, दुर्ग का उत्तर का द्वार भी ध्वस्त हो गया।’
महारानी के चेहरे पर कोई परिवर्तन नहीं हुआ। महारानी श्रृंगार कर रही थी। दासियाँ श्रृंगार सामग्री लिए खड़ी थीं। घुंघराली अलकों में सुन्दर-सुगंधित लाल-लाल फूल, लाल रंग की साडी, माथे पर लाल बिंदी, मांग में सिन्दूर की लालिमा। ऐसा लग रहा था मानो महारानी पद्मिनी रक्त श्रृंगार कर रही हों। रत्नजड़ित आभूषणों के मध्य झिलमिलाती रूपराशि पद्मिनी ने दर्पण में अंतिम बार अपना रूप देखा।
‘महारानी! यवन सेना अंतःपुर के द्वार तक आ पहुंची है। सन्देशवाहिका दासी की बात अनसुनी करती हुई महारानी बोली - 'चिता तैयार है? मेरा साथ कौन देगा?'
श्रृंगारकक्ष में एकत्र क्षत्राणियों में हलचल-सी मच गयी, एक समवेत स्वर फूट पड़ा - 'मेवाड़ की जय! महारानी पद्मिनी की जय! हम सब आपके साथ चलेंगी महारानी। यवन सम्राट एक भी राजपूत रमणी की परछाई तक नहीं देख सकेगा, मृत्यु के बाद भी नहीं।’
महारानी पद्मिनी का चेहरा गर्व से उद्वीप्त हो उठा। चिता तैयार हो चुकी थी। महारानी का श्रृंगार समाप्त हो चूका था। दासियों ने महारानी की आरती उतारी। मंगल तिलक लगाया। आगे-आगे महारानी पद्मिनी, पीछे-पीछे मेवाड़ की वीरांगना क्षत्राणियों का समूह। देवता इस अपूर्व छवि पर मुग्ध होकर पुष्पवृष्टि कैसे न करे?
सामने चिता धधक रही थी। अग्नि देव अट्हास कर रहे थे। महारानी सीता की अग्निपरीक्षा पद्मिनी का अग्नि श्रृंगार गगनचुम्बी लपटें मेवाड़ की क्रांति गाथा अनंत अम्बर से प्रसारित कर रहीं थीं।
तभी एक दासी ने आकर निवेदन किया - 'महारानी, महाराणा ने मातृभूमि की रक्षा हेतु असंख्य यवनो को मौत के घाट उतारते हुए वीर गति प्राप्त की है।’ महारानी ने एक दीर्घ श्वास ली। सम्भवतः वह अब तक इसी समाचार की प्रतीक्षा कर रही थी महारानी पद्मिनी ने मेवाड़ को, अग्निदेवता को, और फिर मेवाड़ कुलकेतु महाराणा को प्रणाम किया। ‘महारानी पद्मिनी की जय' के नाद से सम्पूरत्न वातावरण मुखरित हो उठा।
‘मेवाड़ की जय’, महारानी पद्मिनी ने दोहराया। एक स्वर्गीय मुस्कान महारानी के अधरों पर खिल गयी । दूसरे ही क्षण महारानी प्रज्ज्वलित चिता के बीच कूद पड़ीं। गगन-चुम्बी लाल लपटों ने उन्हें अत्यंत प्रेम से अपनी बाँहों में ले लिया। रूपराशि पद्मिनी का अंतिम श्रृंगार – अग्नि-श्रृंगार समाप्त हो गया।
महारानी के बाद एक-एक कर मेवाड़ की ललानायें चिता में कूदती गयीं। अंतःपुर खाली हो चूका था। बलिदानी क्षत्राणियों की पाँत समाप्त हो चुकी थी। सब कुछ समाप्त हो गया। लेकिन मेवाड़ की आन की कीर्ति पताका आकाश में लहरा रहा था।
दूसरे दिन यवन सम्राट की सेना ने अंतःपुर में प्रवेश किया तो पाया राख की ढेरी। मुट्ठीभर राख - यही अपूर्व लावण्यमयी, अद्वितीय सुंदरी पद्मिनी के सौंदर्य का अवशेष था।