बड़ी आग के बाद : बोलीविया की लोक-कथा

After the Great Fire : Lok-Katha (Bolivia)

एक बार की बात है कि यूराजरे में दो कबीलों में बहुत ज़ोर की लड़ाई हो गयी। कुछ समय के बाद एक कबीले को लगा कि अब उनमें लड़ाई काफी हो गयी अब दोनों कबीलों में शान्ति हो जानी चाहिये।

सो जैसे ही उन्होंने शान्ति प्रस्ताव रखने की सोची कि वहाँ के सारारूमा नाम के एक नीच जादूगर ने उनके कान में फुसफुसा कर बताया कि दूसरा कबीला उनके साथ क्या करना चाह रहा था। उसने उनसे कहा कि वे लोग तुम्हारे ऊपर हमला करना चाहते हैं। तुमको जो कदम उठाना है वह तुम्हें अभी उठाना चाहिये जब तक कि यह जमीन सूखे से अभी भी सूखी है। इस बीच अगर बारिश हो गयी तो तुम फिर कुछ नहीं कर पाओगे। तुम दुश्मन की जमीन पर आग लगा दो तो फिर वे तुमको कभी तंग नहीं करेंगे।

यह कह कर वह दूसरी तरफ दौड़ गया और उनसे जा कर कहा कि तुम्हारे दुश्मन तुम्हारी जमीन पर आग लगाने की सोच रहे हैं। जल्दी करो इससे पहले कि वे तुम्हारी जमीन पर आग लगा दें तुम वहाँ जा कर उनकी जमीन पर आग लगा आओ।

बस फिर क्या था बहुत जल्दी ही दोनों तरफ की जमीनों में आग लगा दी गयी और दोनों तरफ की जमीने जलने लगीं। उस आग में केवल दो लोग बचे – एक आदमी और एक औरत। उन दोनों ने इस लड़ाई को बुरे से बुरा होते देखा था। उन्होंने दूसरी तरफ वालों को बहुत समझाया कि यह लड़ाई अच्छी नहीं है वे सुलह कर लें पर किसी ने सुना ही नहीं।

सो उन्होंने काफी दिन के लिये अपने लिये खाने का सामान लिया और दोनों जमीन के नीचे जा कर छिप गये। और इस तरह से उस भयंकर आग से बच गये। इस तरह से इस बड़ी आग के बाद धरती पर केवल वे दोनों ही बचे।

जमीन के नीचे से वे दोनों आग देखते रहे और धुँआ सूँघते रहे। कुछ दिन बाद जब आग से हुई बर्बादी कुछ कम हुई तो आदमी ने अपने उस छेद से यह देखने के लिये एक डंडी बाहर निकाली कि देखूँ तो कि अब बाहर का क्या हाल है। पर उसने तो तुरन्त ही आग पकड़ ली।

यह देख कर वह बोला — “अरे अभी तो बहुत जल्दी है।” और यह कह कर वह फिर से अपनी जमीन के नीचे बनायी रहने की जगह चला गया।

अगले दिन उसकी पत्नी ने देखने की कोशिश की पर उसकी डंडी काली पड़ गयी। उसके बाद वे आठ दिन तक अन्दर रहे। दसवें दिन कहीं जा कर उनकी डंडी न तो जली और न ही काली पड़ी।

तब कहीं जा कर वे अपने जमीन के नीचे वाले घर में से निकल कर ऊपर जमीन पर आये। उन्होंने चारों तरफ देखा तो आदमी बोला — “अरे यहाँ तो सब जगह राख ही राख पड़ी है।”

उसकी पत्नी भी बड़बड़ायी — “उफ़ यहाँ तो हम कुछ पहचान ही नहीं पा रहे हैं।”

कहीं भी कोई भी घास या पेड़ दिखायी नहीं दे रहा था और आदमी और जानवर का तो कहीं कोई पता ही नहीं था। चारों तरफ जमीन सपाट पड़ी थी। टखने टखने तक ऊँची राख पड़ी थी और वह राख भी तेज़ हवाओं से इधर से उधर दौड़ रही थी।

अचानक अपने सामने उनको वह नीच जादूगर सारारूमा दिखायी दे गया। आग की लपटों की तरह उसका लाल शाल उसके चारों तरफ लहरा रहा था। उसने कुछ गुर्राते हुए कहा — “कैसा लगा तुम्हें मेरा यह खेल? अब तुम दोनों भी जल्दी ही मरोगे।”

आदमी बोला — “हमको मरने की जरूरत नहीं है।”

औरत बोली — “हाँ हमको मरने की जरूरत नहीं है हम लोग ज़िन्दा रहेंगे।”

वह फिर गुर्रा कर बोला “अगर तुम ज़िन्दा रहे तो यह तो तुम्हारे लिये और भी बुरा होगा क्योंकि फिर तो तुम लोग बड़ी दर्दनाक हालत में ज़िन्दा रहोगे और इस राख भरी जमीन पर भूख से मरोगे।”

पत्नी अपनी जेब में बीजों को महसूस करती हुई बोली — “यह ठीक है कि अभी सूखा है पर बाद में जब बारिश पड़ेगी तब हम पेड़ लगायेंगे।”

अचानक सारारूमा सिकुड़ने लगा और जैसे ही वह साइज़ में छोटा होने लगा राख में से घास के नये पत्ते निकलने लगे।

उसने अपने हाथ फेंकते हुए कहा — “तुम ऐसा क्यों समझते हो कि तुम लोग दूसरे लोगों से अलग हो? जैसे कि और लोग इस लड़ाई की बर्बादी में मरे हैं उसी तरह से तुम लोग भी इस लड़ाई की बर्बादी में मर कर ही रहोगे।”

आदमी बोला — “यह तो हम नहीं कह सकते कि आगे क्या होगा पर हम ज़िन्दा रहने की कोशिश करेंगे।”

तब तक पेड़ भी हरे हो कर बढ़ने लगे थे। सारारूमा अब एक बच्चे के साइज़ का रह गया था। वह गुस्से में चिल्लाया — “केवल तुम्हीं लोग हो जो ज़िन्दा रह गये हो बाकी सब मर गये।”

आदमी बोला — “तुम देखना समय बदलेगा चीज़ें बदलेंगीं।”

औरत बोली — “हमारे बच्चे होंगे।” उसी समय जानवरों ने भी राख में से अपना मुँह बाहर निकालना शुरू कर दिया।

अचानक सारारूमा का शाल आखिरी बार उसके शरीर से लिपटा और वह एक धूल का बवंडर बन कर वहाँ से उड़ गया।

(साभार सुषमा गुप्ता जी, जिन्होंने लोक-कथाओं पर उल्लेखनीय काम किया है.)

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