अडिग वीरत्व–हमीरजी गोहिल : गुजरात की लोक-कथा
Adig Veertava-Hamirji Gohil : Lok-Katha (Gujrat)
ईसा की पंद्रहवीं शताब्दी की बात है, अरठीला के भीमजी लाठिया के तीन राजकुमार हुए—दुदाजी, अरजणजी और हमीरजी। बड़ी राजकुमारी उमादे को जूनागढ़ के राजा मोकलशी के साथ ब्याहा था। अरठीला और चोटिला की गद्दी दुदाजी सँभालते थे। गढ़ाणी के ग्यारह गाँव लेकर अरजणजी वहीं रहते थे। सबसे छोटे हमीरजी को समढियाणा का गाँव हिस्से में आया था। उनके काका और भीमजी के भाई वरसंगदेव को धामेल गाँव जमींदारी में मिला था।
अरजणजी और हमीरजी के बीच भेद पड़ा। उसमें एक दिन गढाणी के दरबार में दो मुर्गों के बीच लड़ाई छिड़ी। दोनों मुरगे लहूलुहान हो गए। एक मुरगा अरजणजी का था और दूसरा मुरगा हमीरजी का। दोनों पक्ष की ओर से चुनौतियाँ दी जा रही हैं। संयोगवश अरजणजी का मुरगा भागा। अपने मुरगे को पराजित होता देखकर अरजणजी उग्र हो उठे। वे खड़े होकर हमीरजी के मुरगे के सिर पर लगे लाठी से प्रहार करने।
हमीरजी ने कहा, ‘हाँ-हाँ भाई, ये तो लड़ाई कहलाती है। इसमें एक जीतता है तो दूसरा हारता है। इसमें रोष करने की जरूरत नहीं। आप को गुस्सा आ रहा हो तो मुझको मारो न। वेचारे मुरगे का क्या दोष है?’
अरजणजी विरोधी हो गए थे। हमीरजी से बोले, ‘तुझको चरबी चढ़ी है। जा निकल जा। मेरा नाम सुनाई दे, वहाँ तक मत रहना।’
अरजणजी ने हमीरजी की अवमानना की। हमीरजी को बड़ा आघात लगा। बात का बतंगड़ हो गया। उनके पास दो सौ मर्द राजपूत थे। उन सभी ने प्रण लिया कि हमीरजी विवाह करेंगे उसी दिन वे भी विवाह करेंगे। अपने इन दो सौ भाई-बंधुओं को लेकर तिरस्कृत हमीरजी मारवाड़ में चले गए।
इधर रोष दूर होने पर अरजणजी के दुःख का पार नहीं था। भाई के बिना कलपने लगे। कहीं भी अच्छा नहीं लगता था। अरजणजी रंग-रूप में बहुत भद्दे थे। वे काले, छोटी काठी के और मुँह पर चेचक के दाग निकले थे। उनकी एक आँख भी शीतला में चली गई थी, परंतु दानशीलता अरजणजी के पास चक्कर लगा गई थी।
एक दिन माणसुर नामक एक चारण दान लेने की आशा से गढाणी आ पहुँचा। अरजणजी ने उसको रोका, जमीन दी, लेकिन थोड़े समय में उसको पता चला कि बाहर से लोहे जैसा दिखनेवाला अरजणजी अंदर से भाई के वियोग में दुःखी है। वर्षा की ऋतु है। अनराधार वर्षा हो रही है। सौराष्ट्र की धरती पर उस समय 100-100 इंच पानी गिरा था। अरजणजी माणसुर गढवी से कहते हैं, ‘बाप, लक्ष्मण जैसे मेरे भाई के चले जाने के बाद गढाणी की जमींदारी जहर जैसी लगती है। कोई उसको वापस लाए।’ कहते–कहते तो अरजणजी की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी।
माणसुर गढवी को यह बात दिल से छू गई। ‘हमीरजी को वापस न ले आऊँ तब तक गढाणी का पानी अग्रा है।’ ऐसा प्रण लेकर देवीपुत्र हमीरजी को खोजने निकल पड़ा।
जूनागढ़ के राजा मोकलशी की दो रानियाँ थीं। बड़ी वाली रानी देवणदेवी। देवणदेवी का भाई वीजोवाजा जूनागढ़ का दीवान था। छोटी रानी तो गोहिल राजकुमारी उमादे। उमादे को अपने भाई अरजणजी की चिंता हुई। उन्होंने राजा से अपने भाई को जूनागढ़ बुला लेने की हठ की।
राजा ने कहा, ‘रानी एक म्यान में दो तलवार नहीं समाती हैं। दिल्ली का बादशाह सोरठ और सोमनाथ पर नजर गड़ाए हुए है। ऐसे समय में मेरी दोनों भुजाएँ बलवान बनें, ऐसा चाहता हूँ, परंतु ईश्वर न करे और दो हिम्मती पुरुषों के बीच मतभेद हो तो सोरठ का मटियामेट हो जाएगा।’
रानी उमादे बोली, ‘जूनागढ़ के राजा होकर इस तरह से कमजोर वचन क्यों कहते हैं?’
रानी के अत्यधिक आग्रह से रा’मोकलशी लाचार हो गए। अरजणजी को जूनागढ़ बुलवाया और सोरठी सेना का सेनापति नियुक्त किया। एक रानी का भाई राज्य का अधिकारी और दूसरी का भाई फौज का अधिकारी। वीजावाजा ने अरजणजी के काका वरसंगदेव की पुत्री से विवाह किया था। अंदर-ही-अंदर संबंध जुड़ गए थे।
वीजावाजा और अरजणजी मिलकर मेलपूर्वक सोरठ का कार्यभार चलाते हैं। इसमें मुसलिम सूबा समसुद्दीन सोरठ के राजा से खिराज वसूलने चला आ रहा है। अरजणजी और वीजाजी ने खिराज के बदले लड़ाई करने का निर्णय किया। जूनागढ़ और सूबा के फौज के बीच युद्ध हुआ। अरजणजी ने अप्रतिम शौर्य दिखाया। सूबा की घोर पराजय हुई।
जूनागढ़ में अरजणजी ने जीत का बाजा बजवाया। उसका एक दोहा कहा जाता है—
अरजणजी एक आँख, साले मन सुलतानने,
वीजा ने बब्बे आँख, (पण) जाया कोई जाणे नहीं।
हमीरजी को ढूँढ़ने निकला, माणसुर गढ़वी घूमते-घामते मारवाड़ में आ पहुँचा। हमीरजी से भेंट हुई। गढ़वी ने विस्तार से दिल की बात बताई। बड़े भाई अरजणजी शोक से दुःखी हैं जानकर हमीरजी हिल उठे। आँखों से आँसू निकल पड़े। राजपूतों के दो सौ घोड़ों के साथ हमीरजी ने गढ़ाणी की पगडंडी पकड़ी। हमीरजी के गढ़ाणी पहुँचने पर गोहिल कुल में आनंद का ठिकाना नहीं रहा। अरठीला से दुदाजी आए। धामेल से काका वरसंगदेव आए। एक नहीं मिले अरजणजी। वे तो जूनागढ़ थे।
दुदाजी और उनकी रानी हमीरजी को अरठीला लेते आए। हमीरजी आए हुए हैं, यह जानकारी अरजणजी को देने के लिए स्वयं दुदाजी उल्लासपूर्वक जूनागढ़ जाने के लिए रवाना हुए।
दिल्ली के सिंहासन पर उस समय मुहम्मद तुगलक द्वितीय का शासन था। जूनागढ़ में अपने सूबा समसुद्दीन की हार होने पर बादशाह ने उसको बदलकर जफरखान को गुजरात का सूबा नियुक्त किया। जफरखान मूलतः राजस्थान का था। कुछ समय बाद वह सूबा से गुजरात का स्वतंत्र बादशाह हो गया था। जफरखान ने आकर तुरंत सोमनाथ में बादशाही थाना तैयार किया। रसूलखान नामक एक मुसलिम को थानेदार नियुक्त किया। जफरखान मूर्तिपूजा का कट्टर विरोधी था। उसकी नजर सोमनाथ पर थी।
रसूलखान को जफरखान का आदेश आया कि मंदिर में हिंदुओं को अधिक संख्या में एकत्र न होने दिया जाए।
ऐसे में शिवरात्रि का मेला लगा। रसूलखान और उसके आदमी मारपीट करके लोगों को बिखेरने लगे। बात बिगड़ गई। लोग उत्तेजित हो गए और रसूलखान को उसके कुटुंब सहित मार डाला। यह खबर जफरखान को मिलते ही वह आग-बबूला हो उठा। सोरठ को मसलने के लिए उसके हाथ कुलबुला उठे। धर्मांधता, मूर्तिपूजा, समसूद्दीन की हार, रसुलखान की मौत ऐसी कितनी बातें उसके दिल में काँटे की तरह चुभने लगीं।
जाफर ने सोरठ पर चढ़ाई की। दुर्ग, किले के दरवाजा तोड़ डाले—ऐसे हाथी को साथ लिया। भयानक तोप घसीट लाई गईं। काबुली, मकराणी, अफघानी और पठानी सैनिकों की फौज लेकर जाफरखान चला आ रहा है।
हमीरजी अरठीला में रुके हैं। उनको इस बात की कोई खबर नहीं है। छत्रपाल, सरवैया, पातणजी भट्टी, सध सोलंकी, शिहोर के जानी ब्राण नानजी महाराज, जैसे भाई-बंधुओं के साथ जंगल में खेलकर हमीरजी दरबारगढ़ में आए। सभी को कड़ाके की भूख लगी थी। हमीरजी भोजन के लिए जल्दबाजी करने लगे, इसलिए दुदाजी की पत्नी (हमीरजी की भाभी) ने कहा, ‘देवरजी, इतनी अधिक शीघ्रता क्यों दिखा रहे हैं, खाकर तुरंत सोमनाथ की मदद में जाना है?’
‘क्यों भाभी, सोमनाथ पर संकट है?’
‘लो, इतना भी पता नहीं है? बादशाही सैन्य की छावनी उसको तोड़ने के लिए चली आ रही है। गुजरात के सूबा की फौज सोमनाथ के मार्ग में है।’
हमीरजी भौचक्के से बैठ गए। भाभी से बोले, ‘क्या बात कहती हैं? कोई राजपूत पुत्र सोमनाथ के लिए मरने निकले ऐसा नहीं है? महादेव पर राजपूतों के देखते विधर्मियों की फौज चढ़ेगी? रजपूताई नष्ट हो गई है?’
दुदाजी की पत्नी ने निराश होकर कहा, ‘राजपूत तो अपरंपार हैं, पर सोमनाथ की मदद करे, ऐसा कोई नहीं दिखता और यह कोई शिकार करना थोड़े है? जबरदस्त फौज के विरुद्ध शंकर की मदद में जाना है और बहुत लगती हो न तो हथियार धारण करो देवरजी! तुम भी कहाँ राजपूत नहीं हो?’
हमीरजी की भाभी स्त्री सहज ढंग से बोल गईं, परंतु हमीरजी को आग लग गई। ताना मारना हड्डी-हड्डी में चुभ गया।
भाभी को कहा, ‘भाभी, मेरे दोनों भाइयों को खूब वंदन कहना। मैं सोमनाथ की मदद में जा रहा हूँ।’
दुदाजी की रानी ने हमीरजी को बहुत समझाया, परंतु वे एक से दो न हुए। अपने जाने के बाद भी किसी को समझाने न भेजने की राम कसम दे दी। दो सौ मरजिया साथियों के साथ हमीरजी ने सोमनाथ का मार्ग पकड़ा। सूबा के डर से प्रजा दिग्मूढ़ थी। रजवाडे आंतरिक कलह से बिखरे हुए थे। युद्ध का आान करना कठिन था। ऐसे समय में हमीरजी ने मौत के मंडप में परछन करने का निर्णय किया था।
घर लूटे अबणा हरे, त्यां न लिये तलवार,
ज्ञान तणी वातुं करे, इ पण एक गमार।
हमीरजी कन्हैया कुँवर जैसे दो सौ भाई-बंधुओं के साथ सोमनाथ के रास्ते चले जा रहे हैं। रास्ते में एक कुटिया आई। आधी रात का समय था। चारों और सन्नाटा फैला था। रात के सन्नाटे को चीरती हुई मरशिया की आवाज सुनाई दी। कुटिया में एक वृद्धा चारण्य मरशिया गा रही है—
सौ सूतो संसार, सायर जात सुवे नहीं,
घट मां घुघरमाण, नाखीने हाल्यो नागाजणो।
सवारे सौ कोई, मोकाणे आवे मलक,
रात न रोवे कोई, नांधु वणनी नागडा।
वृद्धा आई का रोना सुनकर मानो पवन ठहर गया। हमीरजी भी रुक गए। कुटिया में जाकर पूछा, ‘माँ, किसका मरशिया गा रही थी?’
‘विधवा हूँ बाप, पुत्र की मरशिया गा रही थी। युवान योद्धा पुत्र अभी पंद्रह दिन पहले वापस आया है।’
हमीरजी बोले, ‘माँ, पुत्र के मरने के बाद भी लाड लड़ाती हो तो मेरा मरशिया गाओगी? मुझको सुनना है।’
चारण्य का नाम लाखबाई। हमीरजी को बोली, ‘अरे बाप! ये क्या कह रहे हैं? तुम्हारा मरशिया गाकर इस पाप से मुझे किस भव में छुटकारा मिलेगा?’
हमीरजी ने कहा, ‘माँ, हम मृत्यु के मार्ग पर हैं। सोमनाथ की मदद में निकले हैं। इस मार्ग में वापस नहीं आते।’
हमीरजी ने दिल खोलकर बात की। आई लाखबाई शूरवीर राजपूत की जवांमर्दी पर फिदा हो गई। दिल से आशीष दी, फिर कहा, बेटा हमीरजी तुम विवाहित हो?
‘नहीं आई।’
तो रास्ते में जो मिले, उसके साथ विवाह कर लेना। रण में अप्सरा कुँवारे का वरण नहीं करतीं।
‘परंतु आई, हम मरनेवाले को कौन लड़की देगा?’ हमीरजी ने शंका व्यक्त की।
‘बाप, तुम्हारी कमर की शूरवीरता पर मुग्ध होकर कोई अपनी कन्या तुमसे ब्याहे तो मना मत कहना। मेरा कहा मानना।’ इतना कहकर आई लाखबाई बहली में बैठकर सोमनाथ के रास्ते निकल पड़ी। हमीरजी से बोली, ‘तुझसे पहले मैं सोमनाथ जाकर राह देखूँगी।’
***
रास्ते में द्रोणगढडा आया। वेगडाजी नाम के भील सरदार की गीर में काफी प्रतिष्ठा थी। तीन सौ भील उसके पास तैयार रहते थे और बुलाने पर डेढ़ हजार भील योद्धा इकट्ठा कर सकता था। गीर से लेकर शिहोर के पास सरोड पहाड़ तक वेगडाजी की तीर चलती। सभी भील सोमनाथ को मानते थे और जूनागढ़ के राजा के शासन को स्वीकार करते थे।
वेगडा की एक जवान कन्या है नाम राजबाई। एक बार कोई जेठवा राजपूत तुलसीश्याम की यात्रा पर जा रहा था। रास्ते में वेगडा ने घेरा। भीलों और राजपूतों के बीच लड़ाई हुई। जेठवा राजपूत मारा गया, परंतु मरते-मरते अपनी छोटी लड़की वेगडा को सौंपकर सिफारिश की, ‘भाई, इस लड़की को पालना-पोसना और बड़ी होने पर कोई अच्छा राजपूत देखकर इसका हाथ पीला कर देना।’
वेगडा भी दमदार दुश्मन था। छोटी बालिका को अपनी पुत्री की तरह पाला-पोसा। वह राजबाई सयानी हो गई है। लड़ाई का जमाना है। दूसरे की थाती घर रखने में अब वेगडा को भी सिर पर भार लगता है। उसमें उसको पता चला है कि चारण आई सोमनाथ जा रही है। रास्ते में फिर से आई लाखबाई की बहली रोकी। दो जून तक रोका। पुत्री के लिए किसी अच्छे राजपूत का ठिकाना पूछा।
आई लाखबाई बोली, ‘हमीरजी लाठिया सोमनाथ की सहायता में निकला है। तुझको मना नहीं करेगा। उसके साथ राजबाई को ब्याह दे। आदमी मर्द राजपूत है।’
आई लाखबाई के कथनानुसार वेगडा भील अपने तीन सौ तूरीणधारी भीलों के साथ गीर में काणवा कुटीर के पास पड़ाव डाला। हमीरजी की अब कोई साध नहीं थी। सिर तो सोमनाथ को चढ़ा चुके थे। धीरे-धीरे काणवा कुटीर के पास आए। कुटीर के नजदीक शीगवडों नदी बहती थी। हमीरजी और उनके मित्र उसमें नहाने लगे। वे नहाते–नहाते आनंद-प्रमोद में लग गए और दूर निकल गए। बहुत देर के बाद निकले तो घोड़ा गायब था।
हमीरजी ने अपने आदमियों को पास के पहाड़ों पर नजर डालने के लिए भेजा। आदमियों ने आकर खबर दी कि थोड़ी दूर पर कोई पड़ाव है और घोड़ा वहाँ हिनहिना रहा है। सभी वापस भीलों के पड़ाव तक आए। वेगडा भील आगे आया। परिचय पूछा, ‘हमीरजी गोहिल आप स्वयं हैं? आपकी ही तो राह देख रहे हैं।’
हमीरजी बोले, ‘आप कौन हैं?’
‘वेगडा भील!’
‘ओ हो-हो! वेगडा भील! गिर का सिंह, बहुत अच्छा हुआ। सोमनाथ की सहायता में जाते हुए तुमसे मुलाकात हुई।’
वेगडा ने आग्रह करके हमीरजी को बरबस रोका। अकेले में राजबाई (राजल) को कहा, ‘बेटा, हमीरजी द्वार पर आए हैं। वे हैं तो थोड़े दिन के मेहमान, पर तू कहती हो तो उनके साथ तेरा विवाह करें। रजपूताई को उज्ज्वल करे, ऐसा व्यक्ति है।’
जेठवा कुल की सौंदर्यवान कन्या के मुख पर शरम की लाली दौड़ गई। मूक सम्मति दे दी। वेगडा ने हमीरजी को एक ओर बुलाकर बात की। आई लाखबाई की कही सीख हमीरजी के दिल में थी। लग्न के लिए कबूल किया। हमीरजी लग्न करेंगे, तभी हम सब विवाह करेंगे, ऐसे प्रणधारी राजपूत भी सहमत हुए। गिर में भील पुत्रियों के साथ दो सौ राजपूतों और राजल के साथ हमीरजी का समूह लग्न संपन्न हुआ। ढोल और शहनाई बज उठी। मौत के मंडप में परछन के लिए जाते हुए युवकों ने हर्षोल्लास से गिर को मस्त कर दिया।
हमीरजी और राजबाई के विवाह के बाद सम्मान का समय आया। हमीरजी के मित्रों के पास उन्हें देने लायक कोई सोना-चाँदी या जमीन जांगीर तो थी नहीं, परंतु गाढ़े गीर के जंगल में आकाश के मंडप तले और वनराई के बिछौने पर तमाम युवकों ने अपना युवा मस्तक हमीरजी को सन्मान में दे दिया। हमीरजी कहें, तब मरने का वचन देते हैं। इतिहास में अद्वितीय इस मस्तक चढ़ाने की होड़ के तिलक के बीच हमीरजी और राजबाई का लग्न हुआ। द्रोणगढडा पंद्रह दिन तक विवाह के रंग में रँगा रहा।
***
राजल के साथ एक रात का सांसारिक सुख भोगकर हमीरजी सोमनाथ का युद्ध लड़ने निकल पड़े। वेगडाजी और उनके भीलों ने भी सोमनाथ की मदद के लिए साथ पकड़ा।
घर जाता ध्रम पलटता, त्रिया पंडता ताव,
(इ) तानों दिन मरणरा, कोण रंक कोण राव।
माणसुर गढवी भी झोंपड़ी, टीले और गाँव की आबादी को शाबासी देता हुआ घूम रहा है। राजपूत, काठी, आहिर, मेर, भरवाड़, रबारी युवानों को सोमनाथ की ओर चलायमान किया है।
वेगडाजी को उनके जासूसों द्वारा जाफरखान की फौज का समाचार मिलता है। बादशाही फौज सोरठ के सिवान को रौंदती चली आ रही है। राजाओं और ठाकोरों को दंडित करते हुए आ रही है। सेना को रोकनेवाला कोई नहीं निकला। वेगडाजी, हमीरजी और अन्य शूरवीर सोमनाथ के प्रांगण में राह देख रहे हैं। पुजारी और प्रभास के नगरजन चौकन्ने हो कर खड़े हैं। जाफरखान को बिना रोक-टोक के सोमनाथ को रौंद देना था। उसे समाचार मिला था कि कोई भूला-भटका सिरफिरा ही सामना करेगा।
वेगडाजी का पड़ाव सोमनाथ के मंदिर के बाहर था। प्रभास और सोमनाथ को हमीरजी ने सँभाला था। विजय के नशे में मत्त हुआ जाफरखान जब ठीक प्रभास के चौक में आ गया, तब वेगडाजी के भीलों के तीक्ष्ण तीरों ने बादशाही फौज की अगुआनी की। बहादुर हाथों से छूटते बाण मुसलिम सेना को त्रस्त कर रहे थे। एक ओर देवालय को तोड़ने का प्रबल जुनून है तो दूसरी ओर मंदिर को बचाने की अजब जिजीविषा है। हाथी पर सवार जाफरखान ने सैन्य का संहार होता देखकर तोप को आगे करने का हुक्म दिया।
धनुषधारी भील जाफरखान का मंसूबा भाँप गए। उन्होंने सोमनाथ के चारों तरफ घनी झाड़ियों में, वृक्षों में छिपकर बाणवर्षा शुरू की। सूबा के तोपची तोप पर सिर नवाए चीत्कार करके मरने लगे। जाफर क्रुद्ध हुआ। तोपचियों के मरने पर दूसरी पंक्ति को आगे किया। तोप के मुख से आग उगलते गोले वनराजी पर गिरने लगे। गोलों का भोग बनकर भील मरने लगे। होते-होते तीन सौ के करीब भील बाकी रह गए। बचने का कोई रास्ता न देखकर वेगडाजी और बचे योद्धा सूबा की फौज पर टूट पड़े। भाला और तलवार का युद्ध जम गया। भील सैनिक कम होते जा रहे हैं, फिर भी मचक नहीं देते। ‘मारो–काटो’ की आवाज से युद्ध क्षेत्र गूँज रहा है।
वेगडाजी की नजर जाफरखान के मस्तक पर है, परंतु उसका हाथी फौज के बीच में है। भीलों के पराक्रम को देखकर जाफरखान आगबबूला हो गया और अपने एक भरोसे पात्र सरदार को वेगडाजी को मारने के लिए हाथी सहित आगे किया। युद्ध का प्रशिक्षण पाया हुआ हाथी वेगडा पर सूँड़ उठाकर प्रहार किया, परंतु वेगडाजी ने तलवार की एक जोर के आघात से सरदार का मस्तक नारियल की नरेली की भाँति उड़ा दिया। दूसरी तलवार से हाथी के सूँड़ को काट दिया। उस सूँड़ में लिपटा हुआ वेगडाजी का विशाल देह भील सैनिकों के मृत देहों के बीच जाकर गिरा। वेगडाजी के मरते ही सेना बिखर गई। बाकी बचे सैनिकों को जाफरखान की तोप ने समाप्त कर दिया। भीलों की काली देह से बहते हुए लाल रुधिर को जाफरखान अपलक नेत्रों से देखता रहा।
***
वेगडाजी युद्ध कर रहे थे तब हमीरजी सोमनाथ और पाटण की रक्षा कर रहे थे। सोमनाथ की मदद में मरने आए लोगों के उत्साह में बाढ़ आ रही थी। हमीरजी सबको समझाकर शांत कर रहे थे। सूबा की फौज के आगे केवल कट-मर जाने के लिए युवान नहीं आए थे, लेकिन जीवित रहेंगे, तब तक कोई भी सोमनाथ का कंकड़ भी नहीं निकाल सकेगा, ऐसा आत्मविश्वास योद्धाओं के दिल में लहरा रहा था। जाफरखान सोमनाथ पर चढ़ा आ रहा है, यह बात ज्ञात हुई, तब से अहर्निश शिवमंदिर में पूजापाठ चल रहा है। जाफरखान के पास युद्ध की काबिल सेना है। सोमनाथ की रक्षा में आए वीरों के पास तीर, बंदूक, तलवार, त्रिशूल और परशु, जैसे हथियार हैं।
वेगडाजी की पंक्ति टूटते ही जाफरखान ने सोमनाथ के गढ़ के लिए हल्ला बोला, परंतु हमीरजी सावधान थे। सुलगते हुए तीरों की बौछार के साथ पत्थर के गोले गिरने लगे। पर यह पछाड़ अल्पकालीन थी, यह सभी जानते थे। रात के समय मंदिर में घंटा आरती हो रही है। मंदिर और महासागर दोनों आमने-सामने हुंकार दे रहे हैं। हमीरजी ने व्यूह के विचार के लिए सभी को इकट्ठा किया। मर जाने की अपेक्षा रक्षण करना महत्त्वपूर्ण है, यह समझा रहे हैं। जाफरखान ने तीन तरफ से सोमनाथ के गढ़ को घेरा है। तोप आगे करके गढ़ पर जलते हुए गोले फेंक रहा है। गढ़ में सूराख होने लगा है। आग न फैले इसलिए लोग भीगे हुए गद्दे लेकर दबा रहे हैं। ऐसा ही चलता रहा तो थोड़ी देर में गढ़ टूट जाएगा।
हमीरजी ने दो सौ सौनिकों को तैयार किया। सोमनाथ का दरवाजा खुलते ही घोड़े सवार तोप के गोले की भाँति टूट पड़े। हाथी के कुंभस्थल पर भाले की बौछार होने लगी। लगभग सौ घुड़सवारों ने तोपचियों पर हमला किया। साँझ हुई तब तक जाफरखान के सैन्य को भयभीत करके बचे हुए सैनिक गढ़ में वापस आ गए। पूरे दस दिन तक हमीरजी और वेगडाजी ने जाफरखान के सामने मुकाबला किया। आखिरकार वह दिन आ ही गया। गढ़ के ऊपर थाली में रखा हुआ मूँग झनझाने लगा। गढ़ के पाए में सुरंग खोदी जा रही थी। हमीरजी ने ऊपर से पानी डालकर सुरंग को निष्क्रिय बना दिया। सोमनाथ को बचाने आए सभी शूरवीर एकत्र हुए। हमीरजी ने व्यूह समझाया। दूसरे दिन सुबह के सूर्यनारायण आकाश में क्रीड़ा के लिए निकलें कि तुरंत गढ़ खोल देना है और बलिदान कर देना है।
‘सभी तैयार हो जाओ।’ हमीरजी ने यह बोला तो ‘हर-हर महादेव’ का जयघोष गूँज उठा। पूरी रात कोई नहीं सोया। सोमनाथ के मंदिर में मौत को प्यार करने के लिए अबील-गुलाल उड़ता रहा। मरजिया वीरों ने शंकर-दादा को भी उस रात सोने नहीं दिया। हमीरजी ने सुबह नहा-धोकर शंकर की पूजा की, हथियार से सज्जित होकर लाखबाई का पैर लागे। ‘आई आशीष दीजिए। कानो-कान मौत के मीठे गीत सुनने की वेला आ गई है।’
प्रांगण में थोड़ी देर सन्नाटा फैल गया। आई जगत पर बैठी हुई माला फेरते हुए बोली, ‘धन्य है वीर तू। सोरठ की मृतप्राय होती मर्दानगी का तूने पानी रखा है।’ इतना कहकर करुणार्द्र स्वर में लाखबाई मरशिया गाने लगी। मंदिर के गोल गुंबद में उसकी प्रतिध्वनि होने लगी—
वे लो आव्यो वीर, सखाते सोमैया तणी,
हीलोणवा हमीर, भाला नी अणीए भीमाउत।
माथे मुंगीपर खरू मोसाण वसा वीस,
सोमैया ने शीष, आप्युं अरठीला धणी।
***
योद्धाओं में शौर्य की झनकार फैल गई। सूरज महाराज ने किनारी दिखाई कि सोमनाथ के गढ़ का दरवाजा शीघ्रता से खोल दिया गया। आषाढ़ के काले बादलों को चीरकर बिजली चमकती है, वैसे ही मर्द योद्धा जाफरखान की फौज पर टूट पड़े। अचानक हुए आक्रमण से जाफरखान भी भौचक्का हो गया। घमासान युद्ध हुआ। साँझ हुई तब तक सूबा के लश्कर को एकाध कोस दूर ढकेल दिया था। हमीरजी और उनके सैनिक सोमनाथ में प्रवेश किए, परंतु किसी का हाथ झूल रहा है तो किसी का पैर टूट गया है किसी की अँतड़ियाँ बाहर निकल गई हैं। अंग-प्रत्यंग कट गए हैं, परंतु खून की बूँद-बूँद से भक्ति और मर्दानगी टपक रही है।
दूसरा दिन भी इसी तरह बीता। अब मात्र दो सौ लोग बाकी रह गए हैं। जाफरखान का मुकाबला कैसे हो सकता है, हमीरजी ने अंतिम युद्ध सोमनाथ के सान्निध्य में लड़ने का निश्चय किया। जाफरखान भी अधिक समय नहीं देना चाहता था। तीसरे दिन की सुबह उगते ही उसने गढ़ पर तीन तरफ से आक्रमण किया। शिवलिंग को गंगाजल से स्नान कराकर, एक-दूसरे को अंतिम वंदन करके बचे हुए दो सौ शूरवीर रण मैदान में उतरे।
सोमनाथ के प्रागंण में युद्ध खेला जा रहा है। सोमनाथ का एक-एक रक्षक अडिग किले की भाँति मचक नहीं दे रहा। दोपहर होते-होते मंदिर के मैदान से खून की नाली समुद्र में जा मिली। मंदिर की जगत पर मुसलिम सिपाहियों का एक दल पहुँच गया, लेकिन साधु, जोगी, रबारी, भरवाड, अतीत, ब्राण, कोली, खांट जैसे मरजिया अरगल की भाँति चिपककर जयनाद करते हुए युद्ध लड़ते हुए शंकर के बाण के नजदीक सिपाहियों को पहुँचने नहीं देते हैं।
साँझ होने की वेला आई। मर मिटने में कोई-कोई ही बचा है। हमीरजी युद्ध लड़ रहे हैं। पूरा शरीर कट-कटकर धज्जी बन गया है, फिर भी मचक नहीं दे रहे हैं। जाफरखान ने इशारा किया। हमीरजी को घेरे में ले लिया गया। एक साथ दस तलवारें उन पर गिरीं। वह आखिरी योद्धा भी शिवलिंग की रक्षा करते हुए गिर पड़ा और सोमनाथ महादेव के बाण पर जाफरखान के सिपाही तलवार की पहली चोट पड़ी।
हमीरजी के युद्ध को आई लाखबाई गढ़ की ड्योढ़ी पर चढ़कर देख रही थी। साँझ हुई, हमीरजी मारे गए और सोमनाथ भी टूटा। आई ने मुँह ढककर मरशिया गाया—
रडवडिये रडिया, पाटण पारवती तणा,
काँकण कमण पछे, भोय ताहणा भीमाऊत।
वेण तुहारी वीर, आवी ने उवाटी नहीं,
हाकम तणी हमीर, भेखड हूती भीमाऊत।
सोमैया के गढ़ की ड्योढ़ी पर एक तरफ लाखबाई मरशिया गा रही थी तो दूसरी तरफ सामने ही सोमनाथ का मंदिर सूबा सैनिकों के हाथ लुटकर टूट रहा था।
शीश राखे शीश जात है, शीश खोवे शीश होय,
जैसे बाती दीप की, कटी उजिवायी होय।
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हमीरजी गोहिल इतिहास का अद्भुत पात्र है। स्व. कवि कलापी के वे पूर्वज हैं। कलापी ने पितृऋण अदा करते हुए ‘हमीरकाव्य’ नामक काव्य भी लिखा है। मेघाणीजी ने रा’गंगाजणिया नामक अपने उपन्यास में हमीरजी की थोड़ी बात ‘रा’ मांडलिक के मुख से कहलवाई है। इस पर रामजी भाई वाणिया ने ‘धन्य सौराष्ट्र धरणी’ नाटक लिखा है। 1962 में चीन युद्ध के समय में (यह लिखनेवाला) सौराष्ट्र संगीत-नाटक अकादमी का स्थापक सचिव था। तब सौराष्ट्र के चार जिलों में बीस गाँव में यह नाटक लेकर घूमा था। उसने उस समय संरक्षण फंड में 50 हजार नकद और 111 ताला सोना दिलवाया था।
हमीरजी के पूर्वज सेजकजी गोहिल के भाई विसाजी को धंधुका के खसगाम की कोणी कन्या के साथ प्रेम हुआ और उसे ब्याहा, इसलिए वे खसिया कहलाए। हमीरजी का लग्न भील पालित कन्या के साथ होने से उनके वंशज अलग हुए। अभी अधिकतर वे लोग ऊना विस्तार में बसे हुए हैं।
इतिहास को हमीरजी का स्मरण इसलिए करना पड़ता है कि जब सौराष्ट्र की रजपुताई नष्ट हो रही थी, तब अपने थोड़े से मित्रों के साथ वे सूबा जाफरखान की जंगी फौज के सामने सोमनाथ का रक्षण करने आगे बढ़े थे। सोरठ के सिरमौर समान जूनागढ़ के राजा मोकलशी कौटुंबिक कलह से बिखर गए थे। अरजणजी और वीजाजी आपस में ही कट मरे और सौराष्ट्र के अन्य रजवाड़े हिम्मत हार बैठे थे, तब वेगडाजी, हमीरजी और उनके शार्गिंदों ने शौर्य का उज्ज्वल इतिहास आलेखित किया था।
सोमनाथ के मंदिर के बाहर वेगडाजी की और मंदिर के मैदान में हमीरजी का देहरा प्रतापी व्यक्तित्व की याद दिलाता और शौर्य का उज्ज्वल इतिहास आलेखित करता हुआ खड़ा है।
(साभार : जयमल्ल परमार)