अधूरी मूरत (कहानी) : रांगेय राघव
Adhoori Murat (Hindi Story) : Rangeya Raghav
मैं जिस छोटी सी दुकान में नौकर था वह शहर के उस हिस्से में बसी हुई थी जो बहुत ही पुराना था। बड़ी सड़कों की रौनक वहां घुस ही नहीं सकती थी; क्योंकि उनके लिए हाथ-पांव फैलाने की कोई गुंजाइश ही नहीं थी। इसी से यह सोचना कोई कठिन काम नहीं है कि वहां कितने आराम-चैन से काम होता था ।
मुहल्ला क्या था ! एक जमाने में वहां के लोगों के सामने बड़े-बड़े मुसव्विर घुटने टेक देते थे। किताबों के ढेर में हिसाब लिखते-लिखते जब मैं सिर उठाकर बाहर देखता तो उस सामंतयुगीन नगर के पुरानेपन की वह स्नेहमयी सांत्वना मेरे हलचल से भरे हृदय में एक व्यक्तिगत संतोष बनकर उतर जाती । मुझे लगता यह उस जीवन का एक खंडहर है जिसके विषादों के ऊपर जिसकी ममता की एकांगिता है, जिसके धुंधलके ऊपर किसी की प्रतीक्षा में जलते हुए दीपक का कोमल प्रकाश है, जिसकी दासता में भी सुहागिन का छोह-भरा प्यार है ।
और फिर पत्थर की मूर्तियां बनानेवाले दस्तकारों का वह अथक परिश्रम ? जैसे उस पृष्ठभूमि में एक बहुत ही करुण तन्मयता थी जिसकी विवशता हो जाने की इच्छामात्र का वरदान बनकर अपने आप ही पत्थर पर तेज आरी बनकर घिस - घिसकर काटा करती थी ।
बूढ़ा हरचरन सामने ही बैठता। उसके दो जवान लड़के, एक दस-बारह वर्ष का नाती, बगल में कमरे के जंगले से बंधी गाय, जो कभी बैठकर जुगाली करती, या उठकर सानी में रह-रहकर मुंह चलाती । पत्थर, सफेद मटमैले । हरचरन की सफेद दाढ़ी के बाल उसके वक्षस्थल को ढंक देते, सिर प्रायः गंजा हो चुका था और आंखों पर काले फ्रेम का चश्मा लगाकर वह चुपचाप पत्थरों की मूर्ति को आखिरी उस्तादी हाथ लगाता, लड़के मूर्तियां गढ़ते । नाती अभी केवल पत्थर काटता । उस घर में स्त्रियां भी हैं, छोटे-छोटे बच्चे भी हैं, जैसे गाय के साथ बछड़ा भी ... और एक अनवरत धार-सा चलता यह जीवन, जैसे समय एक तेज आरी है जो जीवन रुपी कठोर पत्थर को काट देती है और फिर मनुष्य प्रयत्न करके उन टुकड़ों को नवजीवन देने का प्रयत्न करता है ।
आज मुझे नौकरी करते अनेक दिन बीत गये हैं, मुझे अपने जीवन से उतना ही असंतोष है, जितना इस पथ को मोटरों का अभाव है, भेद है तो केवल इतना कि यह पथ जानते ही नहीं कि मोटर है क्या, और मैं दुर्भाग्य से कल्पना भी करने का आदी हो चुका हूं ।
वृद्ध हरचरन ने मुझे स्नेह से देखा था और कहा था - "जब मन करे तब चले आया करो बाबू ।"
और मेरा दफ्तर, जिसे अपनी तपस्या का गर्व है कि वह भी संघर्ष के इस विराट चक्र से अपना दांत गड़ाकर अपना अस्तित्व बता देना चाहता है और हरचरन की वह दूकान जिस पर एक सुबह की किरन आती है, दिन-भर कमरे में रेंगती है और सांझ हुए भारी कोहरे में ऐसे छिप जाती है जैसे कपड़ों में कोई गोरा बदन लाज से लिपटकर मुंह छिपा लेता है ।
बूढ़ा हरचरन पुकारकर कहता- "बाबू ! क्या हो रहा है ?"
"कुछ बना रहे हो ?" मैंने उस दिन केवल बात बदलने के लिए पूछा ।
"कुछ नहीं बाबू," वृद्ध ने उठकर आगे आते हुए कहा - " वह हैं न सक्सेना बाबू, अमरीकनों के दफ्तर में नौकरी कर ली है न ? सो एक तस्वीर दे गये हैं कि ऐसी मूरत बना दो। किसी गोरे को देंगे। वह ही बना रहा था ।"
उठकर मैंने देखा, तस्वीर अमरीका की प्रसिद्ध 'आजादी की मूर्ति' थी । हाथ में मशाल उठाये ।
"बनाई कुछ ?" मैंने पूछा ।
"चेहरा तो बनाया है।"
देखा, वह मुख स्पष्ट ही भारतीय था। मैंने हंसकर कहा--"लेकिन चेहरा तो हिन्दुस्तानी है ।"
वृद्ध अप्रतिभ होने लगा । मेरे मुख से निकला - "तो क्या हुआ ? हिन्दुस्तानी आजादी की मूरत सही ।"
वृद्ध ने सुना फिर धीरे से कहा - "लेकिन बाबू, यहां लेगा कौन ?” शब्द मेरे कानों में वज्र की कड़क की भांति गूंज उठे। और एक कलाकार कह रहा था..!
दोपहर का वक्त था । जाड़े की धूप की वह नीरव तन्द्रा मध्यकालीन संस्कृति की मुझे बार-बार याद दिला देती थी। इसी समय मेरा ध्यान टूट गया। अजनबी के स्वर ने प्यासे दिल का तार छुआ। और गूंज झनझनाती हुई फैल गई। मैंने देखा, वृद्ध बैठा अपना सितार टुनटुना रहा था। दलित जाति के उस दरिद्र कलाकार को देखकर न जाने क्यों मेरा मन भीतर-ही-भीतर रो उठा । युगों की संस्कृति को किस राख ने ढंक दिया है आज जो उसके भीतर के शोले को बुझा देना चाहती है ! किंतु यह उस कंडे की आग है जो धूप में सूखकर कड़े हुए शरीर में तपिश बनकर समाई हुई है जो बुझेगी नहीं, नहीं बुझेगी, धुआं देती रहेगी, सुलगती रहेगी। सितार पर वह उंगलियां चल रही हैं। मुझे लग रहा है कि सामने रखा पत्थर का टुकड़ा अब शीघ्र गा उठेगा। और वृद्ध मग्न होकर गा रहा था-
प्रभु मोरे अवगुन चित न धरो,
समदरसी है नाम तिहारो
चाहे तो पार करो......
स्वर चढ़ता है, स्वर उतरता है । उस आरोहन-अवरोहन में न जाने मनुष्य की कौन-सी पीड़ा कसक-कसककर रो रही है कि मेरी इस नीरसता की आधुनिकता को आज भारत की युग-युग की संस्कृति आत्मा का रोदन बनकर बार-बार कंपा रहा है जैसे वृद्ध की उंगलियां उस तार को, और दोनों की वह अज्ञात पुकार शून्य के निर्मल प्रसार में धीरे-धीरे घुली जा रही है, मिली जा रही है।
मेरी आंखों के सामने उस शांति का भव्य चित्र खिंचता जा रहा है जिसमें अपनी सीमित तृष्णा ही सन्तोष बनकर दीपक के नीचे का अंधेरा बनकर सिमटकर रह गयी थी ।
गीत रुक गया । वृद्ध ने मुस्कराकर कहा - "क्यों मियां करीम ?"
एक मुसलमान हाथ में साइकिल लिये द्वार पर खड़ा था । हैंडिल पर दो थैले लटके थे।
आगन्तुक ने कहा - "वह तो खूब बिकी कल ।"
"कौन सरस्वती ?" वृद्ध ने सिर उठाकर पूछा।
"खूब बनाई है गुरु," करीम ने कहा - "कल तो आफताब साहब भी फड़क उठे देखकर | पहले कहा करते थे कोई मुसलमान मूरत लाओ क्या रोज-रोज हिन्दू मूरत ले आते हो। गुरु, मैं कहता था कि मुसलमानों के यहां रिवाज ही नहीं है। और फिर पत्थरों में क्या हिंदू, क्या मुसलमान..."।
वृद्ध गर्व से मुस्कराया जैसे उसके हाथ में पत्थर भी किसी संस्कृति का द्योतक है । मैंने अनुभवमात्र किया। नहीं जानता वृद्ध क्या सोच रहा था। उसने धीरे से कहा- "करीम मियां ! यह हवा बढ़ती जा रही है। हम तो ताजमहल भी बनाते हैं । सोचते ही नहीं कि यह किसी मुसलमान जगह की मूरत है।"
करीम ने कहा-''बकने दो गुरु ! करीम को तो हिन्दू मूरत पैसा देती हैं।"
"और" वृद्ध ने हंसकर कहा - " न कहोगे हरचरन ताज पर पलता है ?" दोनों हंसे ।
"तो" करीम ने सोचते हुए कहा- "तीन और देना वैसी ।"
वृद्ध ने नाती की ओर देखा। नाती उठा। तीन सरस्वती की छोटी-छोटी मूर्तियां निकाल लाया अलमारी से । करीम ने उन्हें सहेजकर थैले में रख लिया और कहा- "फिर मिलेंगे इन्शा अल्ला..."
वृद्ध ने सितार फिर उठा लिया और गा उठा-
'समदरसी है नाम तिहारो...' गीन अपने आप में पूर्ण है, क्योंकि मन की अतृप्ति उसका आधार है क्योंकि जो टीस है वही रागिणी है, जो गूंज है वही उसका प्रसार है...
एक नदी है, एक नाला है जिसमें मैला नीर भरा है, किन्तु जब दोनों मिल जाते हैं, तब उनका नाम सुरसरि धार पड़ जाता है...
और मेरे अतीत की वह आत्मविह्वलता आज विश्वास बनकर गरज उठना चाहती है क्योंकि वह मनुष्य की उस सतह की बात है जहां मनुष्य अपने संकोचों में पड़- कर मनुष्य से मनुष्य की तो क्या, अपने सम्बन्धों में आये पत्थर तक से घृणा नहीं करता, क्योंकि दोनों के मनुष्यत्व को कायम रखनेवाली रोटी का सवाल है ... भूख के सम्राट के अश्वमेध को रोकने का युद्ध है...
मैंने एक अंगड़ाई लेकर अपनी उदासी को दूर करने का प्रयत्न किया । वृद्ध उस समय गम्भीर होकर कुछ सोच रहा था। उसकी उस भव्य आकृति को देखकर मुझे कुछ क्षण के लिए मनुष्य की केवल एक झलक दिखाई दी, जिस सिर को काटकर थाल में रख दिया जाये तो पता भी न चले कि यह किसी प्राचीन ऋषि का है, या किसी प्रेम-विह्वल सूफी का, या मनुष्य की अपराजित चेतना के प्रतीक गुरुदेव का ....
सामने वही अधूरी मूरत रखी है । वही भारतीय मुख है। धीरे-धीरे ऊपर उठा हाथ बनता जा रहा है । एक दिन इसमें मशाल बन जायेगी और फिर आजादी की यह मूरत ...
किसीने कहा ... "बाबू ! "
देखा, एक औरत है। लेकिन मन नहीं किया देखने को । उसकी जवानी उसकी बाढ़-सी वृद्धावस्था के हाथों में एक धरोहरमात्र है जैसे महाजन के पास किसान का वह खेत, जो हैं किसान के ही नाम लेकिन जिनकी फसल पर उसका अपना कोई अधिकार नहीं है ।
वह पैसा मांग रही है, देख रही है, इधर-उधर किसी को न पाकर जैसे मेरी जवानी पर रहम खाकर मुस्करा रही है, फिर मांग रही है, किन्तु कोई उत्तर न पाकर चली जा रही है, वैसी ही जैसे कि यहां कहीं से इस तरह, या किसी की ठोकर खाकर, गाली खाकर चलती चली आ रही है और आने-जाने की मेहनत पर आत्म-सम्मानहीनता का मुलम्मा चढ़ाने के कारण ही जिसके पेट के भीतर की सांपिन को रोटी नाम का वह जहर मिलता है जिसको चर के, निगल के वह फुंकारती है और इन्सानियत के घमण्ड करनेवालों की सभ्यता पर बार-बार फन मारती है, पटकती है ।
चलते-चलते उसका हाथ उठ रहा है, वह उसकी ओर दिखा रही है जिसके लिए पूर्वजों ने लिखा था कि वह हर जगह है लेकिन वास्तव में जो कही नहीं है। उसका वक्ष-स्थल खुल गया है क्योंकि कपड़े उसके शरीर को जीवितावस्था में भी नहीं ढंक सकते जैसे कि मुर्दों को कफन...
और वह, मुझे लगा जैसे वह भी हाथ में मशाल उठाये एक अधूरी मूरत थी जिसको लेने को कोई तैयार न था क्योंकि इसके भी एक भारतीय चेहरा था...
मैंने देखा । वृद्ध ऐसा बैठा है जैसे वह किसी घोर चिन्ता में पड़ गया है। उनके सफेद बालों पर धूल का एक छोटा सांधे में से छनता गोला चमक रहा है। लड़कों के पांव घुटनों तक पत्थर के बुरादे से सफेद हो चुके हैं, नाती का मुंह तक सफेद लग रहा है और सामने अधूरी मूरत रखकर कलाकार कुछ सोच रहा है, कुछ देख रहा है और न वह कुछ सोच ही पाता है, न देख ही; क्योंकि वह शायद भूल गया है कि उसे पत्थर काटना है, पिघलाना नहीं है, गलाना नहीं है...
सांझ हो गई थी। मैं बस्ती के पिछवाड़े के एक तालाब के पास की छतरी में बैठा था । देखा बूढ़ा, हरचरन सांझ की उठती धूलि में धीरे-धीरे पत्थर की उन दसियों बरस पुरानी सीढ़ियों पर टहल रहा था । उतरते अंधकार में पीछे बसे कुम्हारों के कच्चे मकानों के छप्परों में छन-छन करता सा धुआं मिलकर सारे गगन को उदास उदास-सा कर देता था । बगल में एक फूल वाटिका है ऐसी जैसी राजपूत - मुगल मिश्रित चित्रकला का कोई नमूना हो, जिसके बीच बारहद्वारी, एक शिवालय, एक कुआं और फिर उसमें कोई एकांत बस्ती । तालाब का पानी गंदला है ।
वही भिखारिन वहां चुल्लू मे भर-भरकर पानी पी रही है। इस समय वह एक आवारे के साथ है जो उसे बच्चे के रूप में शायद भीख मांगने का एक नया बहाना रात उतरते ही सीढ़ियों पर ही दे जायेगा और भिखारिन समझेगी कि इक्के वाला सिर्फ दुअन्नी दे गया है, बाकी तो सब परमात्मा की देन है ।
मैंने देखा, वृद्ध उन्मन-सा घूम रहा था। मैंने कहा--"क्यों गुरु कैसी रही ?"
वृद्ध ने मुझे चौंककर देखा। कहा - "बदल गया बाबू । जमाना उनके हाथ नहीं रहा जिन्होंने उसे पाल-पोसकर इतना बड़ा किया था।"
मैं नहीं समझा । वृद्ध छतरी पर आ बैठा । उस प्रशांत सन्ध्या की नीरवता में पक्षियों की लौटती गुंजार का कलरव, फिर अनन्त आकाश के प्रसार का वह दाहक सूनापन, और अंधकार के थपेड़ों में कांपता निस्वन प्रकाश — जिसके सामने वह भव्य वृद्ध, जिसकी उदासीनता युग की दुरूह उलझन के समान मुझे ही विह्वल कर उठी जैसे एक दिन नचिकेता यम के सामने उस जीवन और मृत्यु के प्रश्न करते समय अपने भावों से व्याकुल हो उठा होगा ।
वृद्ध ने कहा - "एक दिन हम इसी ताल पर खेले हैं, यहीं जवानी में हमने भंग घोटी है, देवी के पाठ किये हैं, नौटंकियां हुई हैं। जब यहां चांदी की पाड़ें बांधी थीं, रात-रात भर भगत होती थीं..."
और एक दीर्घ निःश्वास ।
"कहां गईं वे सब गुरु ?" मैंने पूछा ।
"कहां गईं ?" वृद्ध ने धीरता से कहा, "वही तो तुम नहीं समझ सकते बेटा । वह तुम्हारे पैदा होने के पहले ही गोरा मालिक ले गया। तुम तो कीचड़ में पैदा हुए हो..."
मुझे लगा जैसे मैं उस गन्दे जल पर भनभनानेवाला केवल एक मच्छर हूं और वृद्ध वह पुराना पेड़ है जो अपनी अनेक जटाओं को लटकाकर जल पर छा रहा है।
"वह दूर कैसी रोशनी है ?" वृद्ध ने पूछा ।
"वहां आज कोई नेता जेल से छूटकर आये हैं। सेठ ने दावत दी है।" मैंने कहा ।
"मगर सेठ तो लड़ाई के एक ठेके से लाखों कमा गया। अच्छा ही है। बड़े नेता पैसेवालों को ढूंढ़ रहे हैं जो पैसे देगा वही ताकत पायेगा।"
मैंने देखा, बूढ़ा एक बहुत बड़ा सत्य कह रहा था। लेकिन मन नहीं माना । नेता तो हमने बनाया है । सेठ तो कल सरकार के साथ था, मुंह से लड़ाई की निन्दा करता था छिपकर, रुपये कमा रहा था लड़ाई के बल पर, खुलकर हमीं तो कल भी नेता के लिए तड़प रहे थे। नेता हमारा है, आज तक हमसे लिया है। फिर ले ले । आज तक हमने अपना खून दिया है। आज हड्डियां देने को तैयार हैं। सेठ तो वह नफा देगा जो उसने मजदूरों का पेट काटकर बचाया है, चोरबाजारी करके निकाला है। हम पैसा देंगे, हमारी सरकार बनेगी।
वृद्ध ने फिर कहा---"बाबू ! दिन बड़े खराब आ रहे हैं ।"
मैंने कहा - "गुरु, बुरा न मानना। जब से होश संभाला है तब से बुजुर्गों को यही कहते सुना है । न जाने अच्छे दिन कब आएंगे ? "
वृद्ध ने अन्यमनस्क होकर कहा ..."यही तो रोना है कि अब वे शायद कभी नहीं आएंगे।"
मैंने देखा, आकाश और पृथ्वी, पेड़, छतरी, ताल, मैं, वृद्ध सब अंधकार में डूब गए थे। सबको जैसे समदरसी ने एक कर दिया था। किन्तु कैसी साम्राज्यशाही-सी है यह समदरसिता जिसके लिए इतने अन्धकार की आवश्यकता है। क्यों हम अभी तक केवल एक मैला नीर-भरा नाला हैं ...क्या हमारा नाम कभी भी सुरसरि नहीं पड़ेगा, क्या सदा ही जीवन ऐसे विभक्त होकर बहता रहेगा ?
और फिर कुम्हारों की बस्ती से किसी औरत के रोने की आवाज । वह आवाज ऐसी चौंका गई जैसे एकदम अन्तराल में कांप कर दीपक फक करके बुझ जाये और मनुष्य को लगे कि वह आकाश से पृथ्वी पर गिर गया है।
मैंने कहा- "गुरु, कौन रोती है ?"
"वही होगी," वृद्ध ने विचलित स्वर से कहा- "मुलुआ की मां ! मुलुआ कटौनी के खिलाफ मिल के हड़ताली मजदूरों में था न ? आज पुलिस ने गोली चलाई । जख्मी हुआ था। मर गया होगा ।"
जैसे यह मौत का वर्णन उस घोर विवशता का दूसरा रूप है जिसे क्लाइव और वारेन हेस्टिग्ज की देशभक्ति कह कहकर गोरे हर्ष से ताली पीटते हैं ।
मैंने देखा । पूछा --"पुलिस को बुलाया, आपस में समझौता नहीं किया ? इससे तो अपना नुकसान है न ?"
"बीच में हिन्दू-मुसलमान का सवाल उठा दिया," वृद्ध ने रोककर कहा ।
मैं कांप उठा। कहा - "लेकिन गुरु, यह तो फूट का रास्ता है। हम सब तबाह हो जायेंगे ।"
वृद्ध ने कहा- "और मैंने कहा ही क्या है मेरे दुधमुंहे ! तेरा वक्त था कि तेरी हथेलियां गुलाबी रहतीं और देखता हूं आज हिन्दुस्तान की जवानी की हालत, तो मन करता है नाखूनों से सीना फाड़कर बाहर नाली में फेंक दूं कि मैं यह सब नहीं देख सकता, नहीं देख सकता...
सीढ़ियों पर शायद कुछ हलचल है। अंधेरा है, भिखारिन है, इक्केवाला है...
और रात है, वृद्ध का हृदय इसलिए रो रहा है, कि मैं जवान हूं, जब मुझे किसी लड़की से प्रेम करना चाहिये, लेकिन मैं गुलाम हूं और मेरा यह अधिकार भी छीन लिया गया है...
और अंधेरा छा रहा है। क्योंकि समझौता करने का मतलब किसीके सत्ता-स्वार्थ पर चोट है, और फिर हराम का बच्चा पैदा नहीं हो सकेगा, ऐश की भूख बाप न बनेगी, औरत का मां होना पाप होगा और वह बच्चा होगी गरीबी ...उस पर इंसानियत की झेप मिटाने का ढोंग - भीख, और अंधेरा गहरा होता जा रहा है।
दीपक का धुंधला प्रकाश कमरे की दीवारों पर कांप रहा था। दरवाजे जाड़े के मारे बन्द कर लिए थे !
मैं कुछ देर बैठा, फिर धीरे से मैंने पूछा... "तो गुरु, मूरत तो अभी अधूरी पड़ी है ! आखिर पूरी होगी भी या यों ही पड़ी रहेगी ?"
वृद्ध ने उदासीनता से कहा- "हो जाएगी।"
मैंने फिर कहा - " अपने-आप हो जाएगी ?"
वृद्ध चुप रहा। कमरे में सन्नाटा वैसे ही हिल उठा जैसे दीवारों पर छायाएं हिल रही थीं। पत्थरों के कोने चमक रहे हैं, उनमें एक उज्ज्वलता जैसे मुस्करा रही है, वे कुछ कहना चाहते हैं, जैसे गुलामी भी, जो कुछ कराना चाहती है आज खिले होंठों से, क्योंकि हर एक आंसू वही तपिश है जिसे निकालकर इंसान ने आज एक-दूसरे पर जुल्म करने के लिए परमाणु बम बनाया है और वह उसे लाकर फिर से आंसू नहीं बनाना चाहता क्योंकि उल्लुओं को जागीरें देने से कहीं कठिन है इंसान के लिए झोंपड़ी बना देना।
वृद्ध ने चौंककर कहा - "बाबू ! मुझे नहीं मालूम मुझे क्या हो गया है, लेकिन पूरी करने को मन नहीं करता ।”
"यह पत्थर सफेद होता तो कहीं ज्यादा अच्छा लगता। कुछ मटमैला है। सफेद क्यों नहीं लेते ?"
वृद्ध ने मुझे घूर कर देखा। शब्द बहुत सध कर निकले - "सफेद पत्थर गोरा मालिक अपने काम में लाता है, तभी उसकी मूरत भी अच्छी होती है ।" वृद्ध चुप हो गया। भीतर कोई बच्चा रो रहा है। बाहर सन्नाटे की लाश पर कफन बनकर कोहरा अपनी सिमटनों को मिटाता जा रहा है क्योंकि लाश बढ़ती जा रही है, क्योंकि यह मुर्दापन भी किसी नये जीवन के लिए संघर्ष कर रहा है, जिसमें यह मजबूरियां किसी उगने-वाले सूरज का इन्तजार कर रही हैं...
मैंने कहा - "लेकिन मूरत अधूरी क्यों रहेगी ?"
वृद्ध ने खांस कर कहा -- "अगर मूरत पूरी करने में रह जाऊंगा तो खाऊंगा क्या ?"
बात मुझे कचोट उठी । मैंने कहा, "तो क्या गणेश-वणेश ही बनाते रहोगे ? रटी - रटाई चीजें, सिर्फ इसलिए कि पैसा मिलता है ?"
वृद्ध ने मुड़कर दूसरी ओर देखकर कहा, "बच्चे हो न, तभी ऐसी बातें करते हो ? मैं मजदूर हूं। जो पैसा देगा उसका काम करूंगा ?"
"मैंने मना किया ?" मैंने पूछा - "लेकिन जिसका दाम सेठ और महाजन देगा वह सेठ और महाजन की चीज होगी ! वही जिसमें तुम सिर्फ रोटियों के गुलाम रहो, उसकी हिम्मत पर और जिसके पैसे पर तुम होगे, वह तुम्हारी चीज होगी, जिसके पीछे तुम्हारी वह कुर्बानी होगी जो किसी अखबार में नहीं निकलेगी लेकिन तुम उस अधूरी चीज को पूरा कर सकोगे जिसको यदि नहीं करोगे तो बेकार है तुम्हारे हाथों की वह मेहनत जिसके पीछे तुम्हारे ईमान की कसम है ।"
वृद्ध ने मेरी ओर तीव्र दृष्टि से देखा और कहा - "हिम्मत नहीं पड़ती ।"
मैं हंस उठा। पूछा - "तो क्या इस मूरत की हिन्दुस्तान को कोई जरूरत नहीं ! हिन्दू-मुसलमानों में से कोई भी नहीं खरीदेगा ?"
वृद्ध चुप ही रहा। दीपक नहीं हिल रहा था; पर हिलती लौ की हिलती छाया के कारण, दीपक तो क्या, लगता है जैसे सारा कमरा थर्रा उठा है।
वृद्ध का बदन एक बार सिहर उठा जैसे वह कुछ भी नहीं सोच पा रहा था ।
मैंने कहा, "तो क्या तुम्हारी कला तुम्हारे हुनर के मुंह से यही आवाज निकाल रही है ?"
वृद्ध कुछ नहीं बोला । उसने अपनी दाढ़ी पर हाथ फेरा। आज शायद वह एक क्षण अपनी लम्बी यात्रा का एक अल्प त्वरित सिंहावलोकन कर रहा था - समय की वह धूप जिसमें इंसान का सारा कालापन आज दुःखों में पक-पककर सफेद हो चुका है, पवित्र... स्निग्ध...
मैंने उठते हुए कहा - "एक बार गोरा मालिक देखता कि जिसका हकदार वह अपने को समझता था आज हम उसीके घर में उसी को ललकार रहे हैं।"
"लेकिन घर तो हमारा लुट रहा है," कहते हुए वृद्ध ने कांपते हाथ से मेरा हाथ पकड़ लिया। देर तक मुझे देखा और वृद्ध के आकुल कंठ से निकला - " लेकिन मूरत अधूरी नहीं रहेगी..."
और भीतर बच्चा हंस रहा था ।
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