आचार्य शुक्ल की काव्य-दृष्टि और आधुनिक कविता (निबंध) : केदारनाथ सिंह
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल की काव्य-दृष्टि की चर्चा करते समय, एक रचनाकार की हैसियत से मेरे सामने सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि उसमें अपने लिए मैं क्या पाता हूँ ? आज का नया रचनाकार किस स्तर पर शुक्लजी के काव्य-संबंधी चिन्तन से जुड़ता है या फिर नहीं जुड़ता, इस पर बहुत कम विचार किया गया है। मैं यहाँ स्पष्ट कर दूँ कि इससे किसी विचारक या आलोचक के ऐतिहासिक महत्त्व में कोई अन्तर नहीं आता कि वह बाद की पीढ़ी के लिए प्रासंगिक ठहरता है या नहीं । पर इस बात की पड़ताल हमें अनेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों तक ले जा सकती है कि कोई पूर्ववर्ती विचारक या आलोचक आगे आनेवाले कवि या लेखक को क्या देता है या फिर नहीं देता । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के आलोचक व्यक्तित्व की दीर्घ छाया किसी न किसी रूप में लगभग पूरे आधुनिक साहित्य पर पड़ी है और उनके निधन के 43 वर्ष बाद भी उस व्यक्तित्व की सजीव उपस्थिति साहित्य की कक्षाओं और आलोचना-गोष्ठियों में लगातार महसूस की जाती रही है। पर यह एक विचित्र विडम्बना है कि सम्पूर्ण आधुनिक हिन्दी कविता जिस तरह से अपने विकास के रास्ते खोजती रही है, उसमें एक रचनाकार के निकट आचार्य शुक्ल के कविता-संबंधी विचार सूत्र सक्रिय रूप से बहुत कम साझीदार रहे हैं। यह बात केवल नितांत समकालीन कविता के बारे में ही सच नहीं है, बल्कि स्वयं छायावादी कविता का विकास भी लगभग इसी रूप में घटित हुआ था - बहुत कुछ आचार्य शुक्ल के व्यक्तित्व के समानान्तर, परन्तु आचार्य शुक्ल के बावजूद ।
आधुनिक काल में हिन्दी कविता के भीतर जो दूरगामी परिवर्तन घटित हुए भाव से लेकर भाषा तक उनके प्रति आचार्य शुक्ल का दृष्टिकोण क्या है, इसकी पड़ताल कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण हो सकती है। यहाँ मैं उनकी काव्य-दृष्टि पर विचार करते समय इसी ऐतिहासिक संदर्भ को अपने सामने रखना चाहता हूँ। 'कविता क्या है,' 'काव्य के लोकमंगल की साधनावस्था', 'रसात्मक बोध के विविध रूप' और 'काव्य में प्राकृतिक दृश्य' आदि प्रसिद्ध लेखों में उनके काव्य-संबंधी चिंतन के आधारभूत सूत्र हमें अवश्य मिलते हैं, पर मुझे लगता है कि उनका सबसे उत्तेजनापूर्ण, मौलिक और विचलित करनेवाला काव्य-चिंतन उनकी व्यावहारिक आलोचना में ही मिलता है। सूर, तुलसी और जायसी की कविता पर विस्तारपूर्वक विचार करने के साथ-साथ उन्होंने अपने समय तक के लगभग पूरे काव्य पर समग्र रूप से और अलग-अलग, दोनों रूपों में विचार किया था। यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि आचार्य शुक्ल जिसे आधुनिक कविता का प्रथम, द्वितीय और तृतीय चरण कहते हैं, उसकी समाप्ति के बाद प्रगतिवादी काव्य- आंदोलन का सूत्रपात भी उन्हीं के जीवनकाल में ही हो चुका था। तात्पर्य यह कि वे एक अत्यन्त तीव्र गति से घटित होनेवाले विराट साहित्यिक परिवर्तन के साक्षी थे। जो काव्यबोध उनके भीतर विकसित हुआ था, वह इसी विराट संदर्भ की उपज था। हम जानते हैं कि उन्हें परंपरा से कविता का जो रूप, आस्वाद और इतिहास मिला था, उसे उन्होंने एक श्रेष्ठ इतिहासकल्पी आलोचक की तरह पूरा सम्मान दिया पर उस सब कुछ को ज्यों का त्यों स्वीकार नहीं किया। उन्होंने अपने समय के विशेष कोण पर खड़े होकर हिन्दी की सौन्दर्य चेतना के पूरे विकास का वस्तुपरक मूल्यांकन किया और सतह से दूरी या निकटता के अनुपात में शिखरों का नया क्रम निर्धारण किया। यह सब कुछ करने के पीछे इतिहास की एक गहरी समझ तो थी ही, पर उसी के साथ-साथ एक सर्वथा नयी सौन्दर्य दृष्टि और नया काव्यबोध भी था, जो उनके काव्य-संबंधी पूरे विश्लेषण के पीछे सक्रिय था । यदि ध्यान से देखें तो इस काव्यबोध पर कुल मिलाकर आधुनिक परिवेश का दबाव कुछ अधिक ही था। इस बात के प्रमाण हमें सूर, तुलसी और जायसी की समीक्षा में भी मिल सकते हैं। जहाँ तक आधुनिक कविता का प्रश्न है, शुक्लजी काव्य में घटित होनेवाले परिवर्तनों का संबंध सीधे बदलती हुई परिस्थितियों से जोड़ते हैं और साथ ही एक विशेष प्रकार की आधुनिकता के महत्त्व पर बल देते हैं। यह आधुनिकता उनके निकट एक मूल्यपरक शब्द है। थोड़ा विचित्र लग सकता है, पर यह एक तथ्य है कि हिन्दी आलोचना में आधुनिकता शब्द का प्रथम प्रयोग आचार्य शुक्ल ने ही किया था । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र को हिन्दी कविता में नये युग के प्रवर्तकका श्रेय देते हुए अन्त में उन्होंने यह टिप्पणी भी की थी, “पर उनकी कविताओं के विस्तृत संग्रह के भीतर आधुनिकता कम ही मिलेगी।” कहने की आवश्यकता नहीं कि आचार्य शुक्ल द्वारा प्रयुक्त होनेवाला यह आधुनिकता शब्द सन् 60 के आसपास हिन्दी - आलोचना में चर्चित होनेवाले आधुनिकतावाद से सर्वथा भिन्न है। आधुनिक कविता या उन्हीं के शब्द का इस्तेमाल करें तो 'नयी धारा' की कविता से उनका क्या तात्पर्य है। उन्होंने आधुनिक हिन्दी कविता के प्रथम उत्थान की चर्चा के संदर्भ में इसकी ओर एक महत्त्वपूर्ण संकेत किया है। इस नवीनता या आधुनिकता से उनका तात्पर्य था - "काव्य को देश की बदलती हुई परिस्थिति और मनोवृत्ति के मेल में लाना।" कविता की इस बदलती हुई परिस्थिति या परिवर्तन के संबंध में शुक्लजी की अपनी कुछ विशेष धारणाएँ थीं, जिन पर यहाँ संक्षेप में विचार करना आवश्यक है।
यह असंदिग्ध है कि रीतिकाल के बाद जो क्रांतिकारी परिवर्तन हिन्दी कविता में घटित हुआ, आचार्य शुक्ल काफी दूर तक उसे अपनी सहानुभूति देते हैं। पर कुल मिलाकर इस परिवर्तन के प्रति, जिसे बाद में उन्होंने परिवर्तनवाद की संज्ञा दी, उनकी प्रतिक्रिया थोड़ी मिश्रित थी । आधुनिक काल में रीति काल की चमत्कारवादी परंपरा से मुक्ति को वे आवश्यक मानते हैं, पर साथ ही यह भी कहते हैं, “हमारे साहित्य में रीतिकाल की जो रूढ़ियाँ हैं वे किसी और देश की नहीं, उनका विकास इसी देश के साहित्य के भीतर संस्कृत में हुआ है।" अतः वे उससे यानी रीतिकालीन परंपरा से उस प्रकार के पार्थक्य की बात को स्वीकार नहीं करते जैसा कि अंग्रेजी की स्वच्छंदतावादी कविता में अपनी पूर्ववर्ती कविता के साथ पाया जाता है। उनकी मान्यता है कि चूँकि स्वच्छंदतावाद से पहले की अंग्रेजी कविता पर लैटिन प्रभाव - जोकि एक विदेशी प्रभाव था - अधिक था, इससे वहाँ के रोमांटिक कवियों का उससे विद्रोह करना जायज़ था। पर देसी संदर्भ की उपज होने के कारण रीतिकाल के प्रति वैसा ही विद्रोह शायद हिन्दी कवियों के लिए पूरी तरह उचित नहीं । स्पष्ट है कि यहाँ शुक्लजी, परिवर्तन का जो एक विशेष देसी चरित्र होना चाहिए, उस पर बल देते हैं, उस पर विद्रोह के पीछे देश की जो ऐतिहासिक परिस्थितियाँ सक्रिय थीं, उनके अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते। इस देसीपन की उनके पास अपनी एक व्याख्या है, जो इस प्रकार है-
“जब-जब शिष्टों का काव्य पंडितों द्वारा बँधकर निश्चेष्ट और संकुचित होगा तब-तब उसे सजीव और चेतन प्रसार देश की सामान्य जनता के बीच स्वच्छंद बहती हुई प्राकृतिक भावधारा से जीवनतत्त्व ग्रहण करने से ही प्राप्त होगा ।"
मैं यहाँ ‘सामान्य जनता’ पद पर जोर देना चाहूँगा ।
एक ऐसे समय में, जब मुद्रण कला के विकास के फलस्वरूप काव्य का प्रत्यक्ष श्रोता परोक्ष पाठक में बदल गया था और कविता अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति- प्रणाली, दोनों में ही विशेषीकरण की ओर बढ़ती जा रही थी, शुक्लजी द्वारा कविता के विकास के संदर्भ में 'सामान्य जनता' शब्द का इस्तेमाल तथा उसके स्वच्छंद बहती हुई भावधारा से जीवनतत्त्व ग्रहण करने की बात महत्त्वपूर्ण है। उनकी इस मान्यता के साथ आज का नया रचनाकार भी कहीं न कहीं अपने को जुड़ा हुआ महसूस कर सकता है। आगे इसी क्रम में उन्होंने काव्य रूपों में होनेवाले परिवर्तनों की भी चर्चा की है और बाह्याकार में होनेवाले इस परिवर्तन को समय के अनुरोध से आवश्यक भी माना है। हम जानते हैं कि रीतिकाल में जो कविता कुछ थोड़े से काव्य-रूपों में बँधकर रह गई थी, आधुनिककाल में उसमें भारी परिवर्तन हुआ और भारतेन्दु के साथ नये काव्य रूपों की खोज की जो प्रक्रिया आरंभ हुई थी, वह किसी न किसी रूप में आज भी चल रही है। पर शुक्लजी इस सारे परिवर्तन को एक सीमा तक ही स्वीकार करते हैं - केवल वहीं तक, जहाँ तक 'शिक्षित जनता' की स्थिति के साथ उसका सामंजस्य हो । उनके शब्द हैं, “अनेक रूपों (यहाँ उनका तात्पर्य काव्य रूपों से है) की धारणा करनेवाला तत्त्व यदि एक है तो शिक्षित जनता की बाह्य और आभ्यंतर स्थिति के साथ सामंजस्य के लिए काव्य अपना रूप भी कुछ बदल सकता है और रुचि की विभिन्नता का अनुसरण करता हुआ एक साथ कई रूपों में भी चल सकता है।" यहाँ ध्यान देने की बात है कि शुक्लजी केवल शिक्षित जनता की वाह्य और आभ्यंतर स्थिति के साथ सामंजस्य को महत्त्व देते हैं, जो उनके कथन के आशय को थोड़ा सीमित करता है। यह तत्कालीन काव्यबोध पर क्रमशः विकसित होते हुए नवशिक्षित मध्यवर्ग के बढ़ते हुए दबाव का परिणाम है। इस प्रकार 'सामान्य जनता' की स्वच्छंद भावधारा से प्रेरणा लेकर केवल 'शिक्षित जनता' की स्थिति के साथ सामंजस्य का यह आग्रह थोड़ा असंगतिपूर्ण लगता है। परन्तु यह उस समय के उभरते हुए मध्यवर्ग का अपना अन्तर्विरोध था, जो किसी न किसी रूप में कला के समस्त रूपों को प्रभावित कर रहा था।
यह 'सामंजस्य' शुक्लजी की काव्य-संबंधी अवधारणा में एक मूल्यपरक शब्द है, जिसे वे काव्य की एक सौन्दर्यबोधात्मक विशिष्टता के रूप में स्वीकार करते हैं। वे इस सामंजस्य को पूरे भारतीय काव्य की प्रमुख विशिष्टता मानते हैं और इसके विपरीत जो स्थिति हो सकती है उसके बारे में स्पष्ट शब्दों में कहते हैं, "भाव क्षेत्र में असामंजस्य की स्थिति का भी एक स्थान अवश्य है, पर यह कोई व्यापक और स्थायी मनोवृत्ति नहीं ।" शुक्लजी की इस मान्यता के आलोक में यदि हम समकालीन कविता की पड़ताल करें तो थोड़ी कठिनाई हो सकती है, क्योंकि वहाँ भाव-क्षेत्र में असामंजस्य की स्थिति कुछ अधिक प्रखर रूप में दिखाई पड़ेगी। जाहिर है, जिस सामाजिक संतुलन की पृष्ठभूमि से जुड़कर शुक्लजी के काव्य-संबंधी विचार निर्मित हुए थे, वह बाद में चलकर अनेक दबावों के चलते निरंतर बिखरता गया और इस स्थिति ने कम या अधिक कला के सभी रूपों को प्रभावित किया। अतः शुक्लजी की सामंजस्यमूलक परिकल्पना आगे आनेवाले काव्य के संदर्भ में लगभग उसी प्रकार अप्रासंगिक हो गयी, जैसे प्रथम महायुद्ध के बाद विकसित होनेवाली अंग्रेजी कविता के संदर्भ में आई. ए. रिचर्ड्स का संवेगों के संतुलन का सिद्धांत ।
उन्नीसवीं शताब्दी के बाद की हिन्दी कविता में जो क्रान्तिकारी परिवर्तन आया, वह लगभग सभी स्तरों पर घटित हुआ। पर उसका सबसे सीधा और प्रत्यक्ष प्रभाव कविता की भाषा और छंद पर देखा जा सकता है। और सब बातों को छोड़ भी दें तो यह एक सर्वविदित तथ्य है कि छंद की जो परंपरागत मान्यता चली आ रही थी, उनमें आधुनिक काल में आकर बहुत उलटफेर हुआ । तुक की जगह अतुकांत ने और छंद की जगह मुक्तछंद और बाद में शुद्ध लय ने ले ली। शुक्लजी इस परिवर्तन को 'अतुकांत' तक तो स्वीकार करते हैं, पर इससे आगे नहीं। जिस मुक्तछंद को निराला ने मानवमुक्ति के प्रयास के साथ जोड़कर देखा था, उसके प्रति शुक्लजी के भीतर एक संशय का भाव है, जिसे वे इन शब्दों में व्यक्त करते हैं-
"इधर कुछ दिनों से बिना छंद के पद्य भी बिना तुकांत के होना तो बहुत ध्यान देने की बात नहीं - निरालाजी-ऐसे नयी रंगत के कवियों में देखने में आते हैं। यह अमेरिका के एक कवि वाल्ट व्हिटमेन की नकल है, जो पहले बंगला में थोड़ी बहुत हुई।"
आगे शुक्लजी एक विदेशी आलोचक की मार्फत यह भी कहते हैं, "ऐसी रचनाओं में छंदोव्यवस्था का ही नहीं, बुद्धितत्व का भी प्रायः अभाव है।" हम जानते हैं कि मुक्तछंद की जो परंपरा निराला से आरंभ हुई थी, वह उसके बाद की कविता में अभिव्यक्ति का प्रमुख माध्यम - बल्कि एक हद तक कहें तो केन्द्रीय माध्यम बन गयी। शुक्लजी ने मुक्तछंद के इस विकास को कोरी विदेशी नकल मानकर टाल दिया । पर वास्तविकता यह है कि यदि इसे हम एक विदेशी प्रभाव मान भी लें जो कि वस्तुतः वह नहीं था तो साहित्यिक आदान-प्रदान की दुनिया में कोई भी प्रभाव आकस्मिक नहीं होता । यह एक ऐसी दुनिया है जहाँ कोई भी प्रभाव तभी सक्रिय रूप से काम करता है, जब उसके लिए ग्राहक समाज की युगीन परिस्थितियाँ पूर्णतः पर्युत्सुक और परिपक्व हों। अतः चाहे वह मुक्त छंद हो, चाहे स्वच्छंदतावादी काव्य के साथ उभरकर आनेवाला नया प्रगीत काव्य- ये दोनों ही निश्चित रूप से केवल बाह्य प्रभाव नहीं थे। शुक्लजी की काव्य-रुचि और स्वाद - बोध की यह सीमा थी कि वे इस उभरती हुई नयी काव्यात्मक संभावना को सही-सही परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित नहीं कर सके थे।
कई बार एक आलोचक जो कहता है, उससे कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण वह होता है जो वह नहीं कहता । पूरी आधुनिक कविता के मूल्यांकन के संदर्भ में आचार्य शुक्ल कहाँ अपनी व्याख्या में अधिक मुखर होते हैं और कहाँ एक विलक्षण सावधानी के साथ केवल संकेत करते हैं, अथवा चुप रह जाते हैं-इसकी छानबीन की जानी चाहिए, क्योंकि उनकी काव्य-दृष्टि को समझने के लिए यह आवश्यक है। आचार्य शुक्ल का ही पाठक जानता है कि छायावादी कविता पर विचार करते समय उनकी सौंदर्य-चेतना सबसे अधिक यदि परितृप्त हुई थी तो पंत के काव्य से हम यह भी जानते हैं कि इसका एक बहुत ठोस और प्रत्यक्ष कारण था - पंत की कविता में प्रकृति का होना । इस पर बार-बार विचार किया गया है और पुनः विचार करने की आवश्यकता है कि आचार्य शुक्ल का यह जो आत्यन्तिक प्रकृति-प्रेम है, उसके मूल कारण क्या हैं? मुझे ऐसा लगता है कि इसका एक बड़ा कारण स्वयं आचार्य शुक्ल के अपने काव्य में ढूँढ़ा जा सकता है। उनकी लगभग सारी कविताएँ प्रकृति के किसी न किसी मार्मिक रूप को उद्घाटित करनेवाली कविताएँ हैं। मुझे यह बराबर लगता रहा है कि आधुनिक हिन्दी कविता के संबंध में अपना मत स्थिर करते समय शुक्ल जी के निकट उनके अपने ही सर्जनात्मक अनुभव के भीतर से विकसित काव्यबोध एक निर्णायक भूमिका निभाता है। यही कारण है कि वे जिन दो कवियों को अपनी सबसे अधिक सहानुभूति देते हैं, वे द्वितीय उत्थान के कवि श्रीधर पाठक और तृतीय उत्थान के कवि सुमित्रानंदन पंत हैं। परन्तु आधुनिक कविता के संदर्भ में प्रकृति के तत्त्व पर इतना अधिक जोर देना थोड़ा विचित्र लगता है और शुक्लजी के संपूर्ण काव्य-चिंतन के साथ इसकी संगति बैठाने में कई बार कठिनाई भी महसूस होती है। काव्य में व्यक्ति वैचित्र्य के चित्रण का विरोध करनेवाले आचार्य शुक्ल का यह प्रकृति-प्रेम भी कई बार विशेष प्रकार का वैचित्र्य ही जान पड़ता है। यह लक्ष्य करने योग्य है कि यह प्रकृति-तत्त्व उनके काव्य- निर्णय का एक नियामक तत्त्व बन जाता है, जिसके चलते किसी एक कवि का कृतित्व उनके लिए अधिक महत्त्वपूर्ण हो जाता है। (जैसे पंत का) और जिसके अभाव में कई बार काव्य की अन्य विशिष्टताओं की उपस्थिति भी उनका ध्यान आकृष्ट नहीं कर पाती ।
काव्य-भाषा के संबंध में शुक्लजी ने अनेक स्थलों पर विस्तारपूर्वक विचार किया है । परन्तु खड़ी बोली काव्य भाषा की चर्चा करते समय उन्होंने उस पर उतने विस्तार से विचार नहीं किया है, जितना अवधी या ब्रजभाषा पर ऐसा जान पड़ता है कि खड़ी बोली काव्य-भाषा को लेकर उनके भीतर जो एक विशेष प्रकार की परिकल्पना बनी थी, वह उसी अर्थ में लोकभाषा के आदर्श के अनुरूप नहीं थी, जिस अर्थ में जायसी या तुलसी की भाषा । उदाहरण के लिए आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी की पद्य रचना पर विचार करते समय, उन्होंने द्विवेदीजी के इस कथन पर कि “गद्य और पद्य का विन्यास एक ही प्रकार का होना चाहिए" अथवा "कविता बोलचाल की भाषा में होनी चाहिए" - जो टिप्पणी की थी, वह उनके तत्संबंधी दृष्टिकोण को समझने में सहायक हो सकती है। वे द्विवेदीजी की बोलचाल की भाषा या गद्य-सुलभ भाषा पर टिप्पणी करते हुए कहते हैं, “उनमें वह लाक्षणिकता, वह चित्रमयी भावना और वह वक्रता बहुत कम आ पायी है जो रस-संचार की गति को तीव्र और मन को आकर्षित करती है ।" वस्तुतः छायावादी कविता की चित्रभाषा पद्धति की जटिलता का प्रत्याख्यान करनेवाले आचार्य शुक्ल यहाँ द्विवेदीजी की कविता से उसी चित्रभाषा की अपेक्षा कर रहे हैं जो थोड़ा विचित्र और विडम्बनापूर्ण लगता है। यह इस बात का प्रमाण है कि परोक्ष रूप से ही सही, आचार्य शुक्ल की काव्य-संबंधी मान्यता के निर्माण में छायावादी काव्य-बोध महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रहा था। जाहिर है कि आचार्य द्विवेदी की कविता यदि श्रेष्ठ कविता नहीं बन पायी थी, तो केवल इसलिए नहीं कि वह बोलचाल की भाषा में लिखी गई थी अथवा उसका वाक्य- विन्यास गद्य जैसा था। बाद की हिन्दी कविता में बोलचाल की अन्विति या लय पकड़ने की बराबर कोशिश होती रही है और उसके महत्त्वपूर्ण परिणाम सामने आए हैं। मीर या गालिब की परवर्ती कविता में भी बोलचाल की भाषा का निखरा हुआ सर्जनात्मक रूप देखा जा सकता है।
कहने का तात्पर्य यह कि प्राचीन कविता के संदर्भ में आचार्य शुक्ल की काव्य-दृष्टि जितनी स्पष्ट और प्रखर रूप से हमारे सामने आती है, आधुनिक कविता के संदर्भ में नहीं। इसका एक स्पष्ट कारण तो यह है कि उस समय बहुत कुछ ऐसा था जो बनने की प्रक्रिया में था जैसे कि खड़ी बोली काव्य भाषा । आधुनिक जीवन की बढ़ती हुई जटिलताओं के बीच स्वयं कविता की सार्थकता को लेकर भी तरह-तरह की शंकाएँ उठायी जाने लगी थीं। आज यह अत्यन्त विस्मयजनक लग सकता है कि एक ऐसे समय में जब हिन्दी कविता अपना पूर्ण परिपक्व रूप अर्जित नहीं कर सकी थी, स्वयं कविता के प्रति शुक्लजी की आस्था इन शब्दों में व्यक्त होती है, “इस परिस्थिति में मनुष्य की अपनी मनुष्यता खोने का डर बराबर लगा रहता है। उसी की अंतःप्रकृति में मनुष्यता को समय-समय पर जगाते रहने के लिए कविता मनुष्यजाति के साथ लगी चली आ रही है और चलती जाएगी।"
वस्तुतः इस परिस्थिति से शुक्लजी का तात्पर्य उस यंत्र केन्द्रित पूँजीनिष्ठ समाज-व्यवस्था से है जिसे वे अपने आसपास पनपते हुए देख रहे थे। वे बहुत तीखेपन से इस वास्तविकता का अनुभव कर रहे थे कि क्रमशः हम उस अमानवीयकरण की प्रक्रिया की दिशा में बढ़ रहे हैं जो एक पूँजीनिष्ठ समाज की अंतिम परिणति है और जिसमें सबसे अधिक क्षय मानव तत्त्व का ही होता है। आचार्य शुक्ल का यह अभिमत आज भी अर्थ रखता है कि इस क्षय से उस मानव तत्त्व को बचाने में तथा उस अमानवीकरण की प्रक्रिया के विरुद्ध हस्तक्षेप करने में कविता अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करती है, करती रहेगी।
[1985]
यह लेख मूलतः साहित्य अकादमी द्वारा आयोजित 'आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जन्म शताब्दी समारोह' के लिए लिखा गया था।
('मेरे समय के शब्द' में से)