आचार्य शिवपूजन सहाय (संस्मरण) : वीरेंद्र नारायण
Acharya Shivpujan Sahay (Hindi Sansmaran) : Virendra Narayan
यों एकबार और भी उनके घर गया था। पर वह खास मौका था इसलिए उनके बारे में कुछ विशेष नहीं जान सका। वह बीमार भी थे। हाँ इतना समझ में आया कि वे बड़े जिद्दी हैं, गाँधी जी की तरह। इस जिद्दी शब्द पर घबराने की बात नहीं है। मामूली आदमी में यही गुण जिद्दी कहलाता है तो बड़े आदमियों में दृढ़ता। बात एक ही है। हाँ, तो वह बीमार थे और काफी सख्त बीमारी के बावजूद अपनी लड़की का ‘दान’ उन्होंने 1030 बुखार में किया। उन्हें समझाया जाता तो सिर्फ अपना निश्चय भर प्रकट करते, न कोई दलील देते, न सुनते। राम जाने क्यों!
दूसरी बार दशहरे के मौके पर उनके घर जा रहा था। खास टमटम किया गया था और स्टेशन से लगभग ग्यारह मील का रास्ता। मैंने बंगला साहित्य में शरत् बाबू और रवि बाबू के समर्थकों की उठापटक की चर्चा छेड़ दी। हमलोग दोनों आदमी टमटम के बीच बैठकर गप लड़ाते जा रहे थे। उस साहित्यिक युद्ध के समय वह कलकत्ते में ही थे और ‘फर्स्ट हैंड इंफारमेशन’ मिल रहा था। घर पहुँचा तो हर्ष और उल्लास के बीच हम लोगों का स्वागत हुआ। थोड़ी देर बाद गाँव का एक गरीब लाठी टेकता हुआ दरवाजे पर आया।
“प्रणाम सरकार।”
“का हऽ होऽ, समाचार अच्छा बा नु?”
“सरकार लोग के किरपा। हमार अरज…”
“हाँ, अधिका ना मीलल, दस गज ला देली हैं।”
“भगवान अपने के सुखी राखत!”
और उन्होंने अपनी गठरी में से दस गज मोटिया कपड़ा निकाल कर उस बूढ़े को दिया। हाँ, उनकी नजर ऐसी थी कि कोई जाने नहीं, देखे नहीं!
उनके घर का सबसे बड़ा अकर्षण है उनका पुस्तकालय। वह हिंदी जगत की अमूल्य निधि है। करीब चार हजार चिट्ठियाँ जिनसे कितनों के जीवन पर विचित्र प्रकाश पड़ता है। दिन भर ‘लाइब्रेरी’ में व्यस्त रहते। किताबों की झाड़पोंछ नीम के पत्ते और नेपथेलीन की गोली से उनका सिंगार चलता रहता। शाम को की ग्रामीण बूढ़ा आ निकलता–
“का हो, कब अइलऽ?”
“आजे अइली हँ।”
“तूँ त अइलऽ, दिन भर लेबरेरी में रहलऽ और भिनसरवा चल देल। बुझाते नइखे कि…”
“का कहीं बाबा, छुट्टी ना मिले। दू-एक दिन में का कइल जाओ!”
“दुनिया के का समाचार हऽ। तनी हमरा लोग के…”
और फिर वह ग्रामीणों के बीच ऐसे घुलमिल जाते मानों उन्होंने कभी शहर देखा ही नहीं। ग्रामीणों की ही तरह कमर से ऊपर का हिस्सा खुला, छोटी-सी लुंगी और हड्डियों का ढाँचा मात्र।
रात को खीर बनी थी। हमलोग खाने बैठे तो वह अंदर आकर सारा इंतजाम देख गए। खीर पर नजर पड़ी। बेटी को पुकार कर बोले–“खीर में फल ना डाललू हऽ। माँग लेवे के नु चाहीं।”
खड़ाऊँ खटखटाते हुए गए और हाथ में कई तरह के सूखे फल ले आए। हम लोगों को खीर का कटोरा वापस कर देना पड़ा। जब वह लौट कर आया तो उसमें सूखे फल के अलावा इत्र भी था। शाहाबाद के उस ठेठ देहात में भी जरूरत की चीजें उनके बक्सों में सुरक्षित हैं–सूखा फल, इत्र, बढ़िया जर्दा, कागज, कलम, स्याही, पिन, टैग, ब्लाटिंग, पेपर, निब इत्यादि-इत्यादि।
सुबह नहाने के समय मैंने उन्हें जूते के पालिश की खाली डिब्बियाँ साफ करते पाया। मन में अजीब कौतूहल हुआ पर एक दिन उनके काम करने वाले कमरे में जाते ही सारे कुतूहलों का समाधान हो गया। उन्हीं चीजों को, जो और घरों में कूड़ा बन जातीं, वे सहेज कर रखते। जूते की पालिश के डिब्बों को साफ कर उसमें पिन, टैग, निब इत्यादि रखते। अखबार के रैपर को कैंची से सफाई से काटकर रखते और उस पर लेख लिखते। उनके गाँव में अनके पत्र-पत्रिकाओं की फाइलों के साथ रैपर की फाइल देखकर तो मैं हैरत में रह गया और वे अपनी सहज सरलता में कहते गए–यह भी देखने की चीज़ है। हिंदी पत्रकारिता के विकास की इस कड़ी को भी हमें नहीं भूलना चाहिए।
उनकी दूसरी लड़की का गौना होने वाला था। हम लोंगों ने सारे सामान साथ-साथ खरीदे। लिस्ट बनाते समय उनके सुझावों से मैं चकित रह गया। सुई-डोरे से लेकर माथे के क्लिप तक, पैर रंगने से लेकर माथे की बिंदी तक नहीं भूले और जब सामान पसंद करना होता तो मुस्कुरा कर कहते–इहे ठीक होई, लाल रंग रहे के चाहीं! जब लड़की विदा हो रही थी तो मुझे महर्षि कण्व की याद आ रही थी। मैं उन्हें देख रहा था पर वह बेटी को समझा रहे थे–“काला बक्स में तोहार सब कपड़ा हऽ। और लाल बक्स आपन सास के दीहऽ…।” सुबह लड़की विदा हुई। हम लोग कुछ दूर पहुँचा कर लौट आए। वह दरवाजे पर बैठे थे। हँसते हुए उन्होंने कहा–“हमार घर आज साँचो सून हो गईल।” उन्होंने उसी हँसी में कहा–“बेटी त इहे दिन खातिर रहेली। उनकर का भरोसा हऽ। भगवान उनका के सुखी राखस।” हमलोग लौटने लगे तो वही चर्चा थी “बिंदू ने कितनी बार कहा कि बाबू जी कुछ दिन घर पर रहिए, मैं आपको अच्छा खाना खिलाऊँगी, आपका स्वास्थ्य गिरता जा रहा है। पर कभी नसीब ही नहीं हुआ। क्या करें।” मुझे लगा कि यह महर्षि कण्व का बीसवीं सदी संस्करण है। बिना माँ के चार बच्चों का लालन-पालन जिस असीम धैर्य और स्नेह की अपेक्षा रखता है वह सहज कल्पना की बात है। उन्हें अपने बच्चों के लिए माँ-बाप, दोनों का काम करना पड़ा। उनकी पत्नी का देहांत तब हुआ जब उनका छोटा लड़का सिर्फ दो वर्ष का था। इस बुढ़ापे में भी जिस परिश्रम और लगन का वह परिचय देते हैं उसके भीतर अपने बाल-बच्चों की यह मंगलभावना भी छिपी है। अभी तक कोई भी लड़का इस लायक नहीं बन सका कि अपने पैरों पर खड़ा हो सके। फिर वह किस तरत अवकाश ले लें। और प्रवृत्ति उनकी ऐसी है कि अपने नाम से जिस किसी चीज को जुड़ जाने देंगे, उसकी सर्वांग-सुंदरता के लिए कुछ भी नहीं उठा रखेंगे। हालाँकि उनका शरीर अब आराम चाहता है। और साहित्य की यह माँग है कि अशक्त होने के पहले वे कुछ चीजें तो लिख ही जाएँ क्योंकि उनके बाद यह काम किसी के बस का नहीं।
एक बार वह अपने कमरे में बैठे थे। बाहर किसी ने पुकारा। उठ कर बाहर गए। देखा निराला जी हैं। फिर दोनों गले मिले। लगभग 10 मिनट तक दोनों निस्पंदन मौन गले-से-गले लगे बुत बने खड़े रहे। दोनों की आँखें नम, दोनों का स्वर रुँधा हुआ। निराला जी और उनकी इस स्थिति की कल्पना कर कभी हँसी आती है और कभी करुणा उमड़ती है। एक 6 फीट ऊँचा तो दूसरा 5 फीट कुछ इंच, एक विशालकाय तो दूसरा अस्थिपंजर मात्र, एक बिलकुल लापरवाह तो दूसरा हर छोटी बात के प्रति जागरूक और सचेष्ट! लेकिन फिर भी दोनों की इन विभिन्नताओं में कितनी एकता है! दोनों सरल हृदय, दोनों साधक प्रकृति वाले, दोनों एक दूसरे के कमाल के कायल और अंतत: दोनों कितने बेचारे, कितने निरीह! छपरा में वह अध्यापन कर रहे थे तो मैंने एकबार पत्र लिखा था कि स्वास्थ्य बहुत गिर गया है इसलिए आप कुछ व्यवस्था कीजिए। उन्होंने जो पत्रोत्तर दिया वह आज भी मेरे दिमाग पर छाया हुआ है–मेरी ही तरह मेरा स्वास्थ्य भी बेचारा है। उसकी चिंता मत कीजिए।
एक स्थानीय प्रकाशक के यहाँ कई लोग निमंत्रित थे। मैं भी उनमें एक था। समय से सभी लोग आ गए। सिर्फ वही नहीं आए थे। सभी लोगों को इंतजार था। एक ब एक वह आ धमके, बेतहाशा तेज चलते हुए। हाथ जुड़े हुए, चेहरे पर बाल सुलभ मुस्कान! आते ही सफाई देने लगे–‘का कहीं, तनी…भेंटा गईलन। काफी देर हो गईल।’ चर्चा चल रही थी ‘हिमालय’ के पुन: प्रकाशन और उसके भावी संपादक की। कई नाम सामने आए। सभी तरह-तरह की टीका-टिप्पणियाँ कर रहे थे। अंत में उन्होंने कहा ‘हिमालय ना निकली, निकली बटखरा’! फिर तो जोरों का कहकहा लगा! हँसी रुकने पर अपनी बात का मानो उपसंहार करते हुए बोले–हाँ महाराज, हिमालय निकालल आसान ना हऽ। मुझे वह दिन याद है जब हिमालय का प्रकाशन बंद होने जा रहा था, या उनका संबंध-विच्छेद हो रहा था उस संस्था से। साथ के एक मित्र ने हिमालय के बंद होने की चर्चा की तो रुँधे गले से वह कहने लगे–आदमी बेटे के मरने पर भी संतोष कर ही लेता है। जिस साध से हिमालय को उन्होंने बढ़ाया वह उनके दिल में ही रह गया! आज तक जितने भी पत्रों का उन्होंने संपादन किया, सभी को पुत्रवत प्यार किया! प्रूफ की एक भी गलती, भरती का एक लेख, नहीं, किसी लेख की एक भी कमजोर पंक्ति उनका सिर दर्द बन जाती।
अभी सरकारी क्वार्टर मिला है और वह उसी में रहते हैं। उनके अलावा वहाँ उनका कोई रिश्तेदार नहीं लेकिन हर रोज क्वार्टर पर दस आदमियों का खाना बनता है और कभी-कभी बेमौके कोई अतिथि आ गए तो सभी को खिला-पिलाकर…। घर के सभी लोगों की सभी जरूरतें पूरी हो जाएँगी तभी अपने ऊपर खर्च करेंगे। और उनके घर का दायरा इतना बड़ा जो उनके लिए पैसा बचता ही नहीं। कोई भी साहित्य के क्षेत्र में आ जाए, इतने से ही वह उनका अपना हो जाता है। इस स्वभाव के कारण बुरी तरह पिस चुके हैं, हजारों रुपए बर्बाद हो चुके। लेकिन उसी साधुवाली बात, जो बार-बार डंक खाकर भी बिच्छू को पानी से निकाल कर ही दम लेता है।
कुछ महीनों की बात है कि उनकी बड़ी बहन का देहांत हुआ! समाचार मिला तो कहने लगे–“मेरे भाग्य में किसी स्वजन से अंतिम भेंट नहीं लिखा है। माँ, बाप, तीन पत्नियाँ, भाई, बहन किसी से भी अंतिम भेंट न हो सकी।” उनकी व्यथा सहज ही समझी जा सकती थी। गाँव पर पढ़ाई-लिखाई की कोई व्यवस्था नहीं रहने के कारण इसी बहन के घर पर रह उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा पाई थी। जिसने चढ़ती जवानी से लेकर बुढ़ापे तक साहित्य की अटूट सेवा की और बदले की कभी लालसा नहीं पाली, जो अपना ‘संसार’ बसाने के लिए हमेशा लालायित ही रहा, जिसे बुढ़ापे में नौकरों पर रसोई के लिए निर्भर रहना पड़ रहा हो उसकी किसी स्वजन की निकटता के लिए आतुरता स्वभाविक ही है। पुराने लोगों में जिन लोगों ने उनकी कार्य-कुशलता और सूझ-बूझ की दाद दी थी, उनकी स्मृति अभी तक जिंदा है। आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू श्यामसुंदर दास की कार्यप्रणाली, संपादक का दबदबा, विनम्रता, आत्मसम्मान और खास आदतों के बारे में उनके मुँह से दर्जनों कहानियाँ सुन चुका हूँ। द्विवेदी अभिनंदन ग्रंथ का संपादन तो आपने किया था, लेकिन उत्सव के मौके पर वह उसमें शामिल न हो सके। पुत्र शीतला से बुरी तरह पीड़ित था। स्वयं द्विवेदी जी मिलने घर पर आए थे। उनकी तरह के आदमी की सेवाओं की सच्ची इज्जत द्विवेदी जी जैसे व्यक्ति ही कर सकते थे।
आज उनके पीले-पिचके गाल, नाटे कद, झूलती हुई बंडी और धँसी हुई आँखों को देखकर कोई कल्पना भी नहीं कर सकता कि जवानी में या गृहस्थी उजड़ जाने के पहले उनका कैसा चेहरा रहा होगा। जिन्होंने देखा है, चर्चा होते ही उनका गला भर आता है। बनारस की गोष्ठी, उनका कहकहा, लाल रोबीला चेहरा, इत्र से महमह कपड़ा, पान के सुवासित बीड़ों और जरदे से फूला हुआ गाल–सब कुछ जैसे सपना हो गया। स्वयं वे भी बनारस के दिनों की कहानियाँ कहते-कहते आर्द्र हो उठते हैं। अब तो मुस्कान के नाम पर होठों की बीच की लकीर कुछ तिरछी हो जाती है, नाक पर लटकते हुए चश्मे के ऊपर से एक उड़ती हुई निगाह डाल लेते हैं।
कहा यह जाता है कि उनके जन्म के पहले कई भाई पैदा होकर चल बसे। शायद उनकी माँ को पुत्रयोग नहीं था। इसीलिए इनके जन्म के समय यह व्यवस्था की गई कि माँ की नज़र पहले अपने बच्चे पर न पड़ कर किसी अन्य नवजात पशु पर पड़े। व्यवस्था के अनुसार उनकी माँ को पहले एक नवजात बछड़ा दिखलाया गया जो जल्द ही परलोक सिधार गया और उनका अपना बच्चा बच गया। इस तरह सभी भाइयों मे वह बड़े हुए। उनके बाद उनके और तीन भाई हुए।
घर की आर्थिक हालत इन्हीं के जन्म के बाद से सुधरने लगी। इसलिए भी इनका बड़ा लाड़-प्यार होता। पिता धर्म परायण थे और माँ कुशल गृहिणी। दोनों ही का बालक पर बड़ा ही गहरा प्रभाव पड़ा और आज भी वे दोनों गुण उनमें प्रचुर मात्रा में हैं। अपनी वर्तमान अवस्था में उन्हें सबसे बड़ा दुख इस बात का है कि वह जी भर कर रामायण का पाठ नहीं कर सकते। रामायण के प्रति साहित्यिक और धार्मिक, दोनों पहलुओं से उनकी बड़ी ममता है। गृहस्थी में वे कितने कुशल हैं यह उनके साथ रहकर ही जाना जा सकता है। खाने-खिलाने का शौक उतना ही है और चर्चा होते ही आर्द्र कंठ से कहते हैं–अब तो लोगों में वह जिंदादिली ही नहीं रही। नहीं तो साठ बरस की उम्र में…उन्होंने बनारस में मुझसे कहा था कि सावन झर झर झरत हौ और तू घर में बैठल हौ। चल, बगीचा में दाल बाटी बनी। सावन झरता हो, कोयल कूकती हो, हवा में सिहरन छा गई हो तो क्या खाया जाए, उनसे पूछिये, उनसे सीखिए। इस सिलसिले में वह प्रसाद जी की तारीफ करते नहीं अघाते। उनका जर्दा, उनका इत्र…।
हाँ, तो बचपन लाड़-प्यार में बीता। पता नहीं किन परिस्थितियों ने उस समय के इस बालक को बिगड़ने से बचाया, शायद माँ-बाप की कड़ी निगरानी ने ही। बचपन से ही इन्हें पढ़ने-लिखने का शौक समाया और गाँव पर पढ़ाई-लिखाई की अच्छी व्यवस्था नहीं रहने के कारण वह अपनी बड़ी बहन के यहाँ पढ़ने चले गए। साहित्य के प्रति अभिरुचि शायद इन्हें वहीं मिली। क्योंकि इनके बहनोई बड़े ही साहित्य-प्रेमी थे और बड़े ही परिश्रम से उन्होंने पुस्तकालयों की एक सूची तैयार की थी जो दुर्भाग्यवश नष्ट हो गई। प्रारंभिक शिक्षा बहन के घर पर रह कर पाने के बाद आरा स्कूल में आप दाखिल हुए। शायद उस समय उम्र की कोई कैद थी इसलिए एक वर्ष आपको गँवाना पड़ा और तब कहीं मैट्रिक की परीक्षा में बैठ सके। जहाँ तक मुझे ज्ञात है; कॉलेज का मुँह विद्यार्थी की हैसियत से आप नहीं देख सके।
छोटी उम्र में शादी हो गई थी और ससुराल बहुत धनी था। स्वयं भी परिवार के सबसे बड़े लड़के थे इसलिए शादी पूरे हौसले से हुई। लेकिन शादी के कुछ ही दिनों के बाद पत्नी का देहांत हो गया। फिर कुछ दिन बाद दूसरी शादी हुई। घरवालों ने पढ़ाई के ऊपर इतना अधिक खर्च करना उचित नहीं समझा इसलिए उन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई स्वावलंबी होकर चलाई। इसके लिए उन्हें क्या-क्या करना पड़ा होगा यह तो राम जाने, इतना मालूम है कि उन्हें कभी-कभी सड़क की रोशनी के प्रकाश में पढ़ना पड़ता था।
मैट्रिक तक की पढ़ाई खतम करने के बाद आपको अपनी जीविका के लिए बनारस की अदालत में भी कुछ दिनों तक काम करना पड़ा। वहीं इन्हें अपने पुराने शिक्षक से मुलाकात हुई। वह आरा के कोई बंगाली अध्यापक थे। उनकी जिद से आप पुन: आरा चले आए और स्कूल में अध्यापन कार्य शुरू किया। लेकिन उन्हीं दिनों गाँधी जी के असहयोग आंदोलन की एक लहर ने उन्हें इतनी दूर ला पटका कि फिर अँग्रेज़ी सल्तनत के दौरान में कभी सरकारी नौकरी का नाम भी नहीं लिया।
संभवत: यहीं आरा में उन्हें अपने साहित्यिक गुरु श्री ईश्वरी प्रसाद शर्मा से भेंट हुई और कालक्रमानुसार वह उन्हीं के सहारे कलकत्ता पहुँचे। यहीं से उनके साहित्यिक जीवन का श्रीगणेश हुआ। मरवाड़ी सुधार समिति के पत्र से आपने अपना संपादन कार्य शुरू किया। उन्हीं दिनों की चर्चा है कि वह एक बार प्रेस के लिए कुछ पांडुलिपियों का संपादन कर ले गए थे। किसी प्रतिष्ठित साहित्यिक की उन पांडुलिपियों पर नजर पड़ी। संपादन देख कर वह दंग। उन्हें सहसा विश्वास ही नहीं हो सका कि इतनी कम उम्र का यह युवक भी इतनी संजीदगी से इतना सर्वांगपूर्ण संपादन कर सकता है। लेकिन प्रतिभा से कौन इंकार कर सकता है। फिर तो कलकत्ते में उनकी ऐसी धाक जमी कि कुछ पूछिए मत और ‘मतवाला’ के प्रकाशन ने उन्हें हिंदी जगत के एक अन्यतम हास्यरस लेखक और कुशलतम संपादक के रूप में प्रसिद्ध कर दिया। उनकी संपादन कला या उनके संपूर्ण व्यक्तित्व का एक ऐसा पहलू है जो उन्हें एक साथ ही देवत्व और बेचारगी की साकार प्रतिमा बना देता है। वह है उनकी ईमानदारी। किसी पत्रिका पर उनका नाम जाएगा और उसके लिए एक निश्चित रकम मिलेगी ऐसा उन्हें कभी नहीं भाया। पत्रिका पर उनका नाम जाएगा तो पत्रिका के साथ उनका काम भी जाएगा और नाम चाहे न भी जाए, काम तो जरूर जाएगा। इसलिए उनकी कलम के नीचे से जो भी गुजरी, उनकी छाप लेकर। हाँ, उस प्रक्रिया में उसका अपना रूप नष्ट न हो, यही उनकी कोशिश रहती और यही उनका कमाल भी।
साहित्यिक जीवन का कलकत्ते में श्रीगणेश कर वे बनारस पहुँचे। तब तक उनकी एक मात्र संतान ‘बासंती’ का शीतला के प्रकोप से निधन हो चुका था। पत्नी इतनी मर्माहत थीं कि कलकत्ता और बनारस की चिकित्सा के बावजूद नहीं बच सकीं और नैहर में प्राणत्याग किया। उन्हें समाचार मिला तो आकर अंतिम संस्कार किया और दूसरी बार अपनी गृहस्थी का उपसंहार।
इस समय उनकी अवस्था 59 वर्ष की है। इतने लंबे अर्से में उन्हें कहाँ-कहाँ और किन-किन पत्रों का संपादन करना पड़ा यह उनके सिवा कोई नहीं बता सकता। लेकिन कई बार दैवी कुचक्र या आत्मसम्मान पर आघात पहुँचने के कारण उन्हें अपना कारोबार समेटना पड़ा। एक बार हिंदू मुस्लिम दंगे के कारण उन्हें लखनऊ से सिर्फ धोती पहने भागना पड़ा। कुछ साथ ले चलने की गुंजाइश नहीं थी। उनके भाग निकलने के बाद मकान में आग लगा दी गई। उसमें उनकी कितनी चीजें नष्ट हो गईं इसका ठिकाना नहीं क्योंकि उनके जैसा संग्रही प्रवृत्ति का व्यक्ति अपने साथ कितनी चीजें रखे होगा यह तो सहज ही समझा जा सकता है। अभी हाल में उनके घर चोरी हुई। चोरी का समाचार मिला तो मैं उनसे मिलने गया। उस चोरी की चर्चा होते ही वह कहने लगे–मैं तो लुट गया। मैंने समझा घर में जो कुछ रुपया-पैसा रहा होगा वह सब कुछ चला गया शायद। पर उन्होंने बताया कि रुपये-पैसे की तो उतनी चिंता नहीं, अपने जीवन में जितनी भी चिट्ठियों को मैंने महत्त्वपूर्ण समझा था, उन सभी को एक कलमदान में छाँट कर रख दिया था। चोर उसे उठा ले गए और कुछ नहीं पाने पर कुएँ में फेंक दिया। सभी चिट्ठियाँ नष्ट हो गईं। सिर्फ महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाबू राजेंद्र प्रसाद की एक-एक चिट्ठी बच पाई है। इस तरह बहुत कुछ गँवाने, बहुत बार बिस्तर लपेट कर इधर से उधर आने-जाने में उन्हें व्यक्तिगत नुकसान तो हुआ ही, उनके द्वारा संगृहीत अमूल्य साहित्यिक निधियाँ भी नष्ट हुईं।
कलकत्ते से आप बनारस आ गए थे। वहाँ इनकी तीसरी शादी की चर्चा चल रही थी। लड़की वालों को वर पसंद था। लेकिन उभय पक्ष की राय थी कि वर भी लड़की को देख ले तो अच्छा हो। गाँव वाली बात, शादी के पहले लड़की कैसे दिखाई जाए! तय यह हुआ कि लड़की की शादी में एक फोटो की जरूरत है। स्टेशन पर फोटोग्राफर से फोटो खिंचाकर भेज दिया जाएगा। घरवालों और गाँव वालों को यही कह सुन कर लड़की स्टेशन पर लाई गई और वहाँ फोटोग्राफर बन कर उन्होंने लड़की देख ली। लड़की देख ली और शादी की स्वीकृति दे दी। लेकिन उसी समय दुर्भाग्यवश बनारस में दोमंजिले की छत से गिर कर उन्होंने अपना पैर तोड़ लिया। कुछ लोगों ने लड़की वालों को बहकाया। स्वयं भी वह पैर टूट जाने से इतने हताश थे कि जीवन भर निकम्मे पड़े रहने की ही बात सोचते थे। इसलिए उन्होंने भी शादी से बाज आने की सलाह देते हुए लड़की वालों को कई पत्र लिखे। आत्मविश्लेषण का उतना सुंदर नमूना शायद अन्यत्र देखने को मिले। लेकिन लड़की वाले अड़ गए और शादी होकर रही। उस शादी में शरीक होने वालों में दो से मेरी मुलाकात हुई है। दोनों जब उस बारात का वर्णन करने लगते हैं तो हँसी के मारे पेट में बल पड़ जाते हैं। संक्षेप में इतना ही कह दूँ कि दूल्हा से लेकर सभी बाराती भाँग के नशे में धुत। कोई नहा रहा था तो साबुन की पूरी टिकिया घिस देने के बावजूद नहाना खतम नहीं कर रहा था। दूल्हे ने बैठ कर जो साहित्य चर्चा शुरू की तो बारात दरवाजे लगाना मुश्किल हो गया। गाँव वालों को भी बड़ी परेशानी उठानी पड़ी और जब बारात लौटने लगी तो गाँव वालों ने बदला लेना चाहा। खैर किसी तरह समझा-बुझा कर बारात लौटी।
पैर टूटने के ही दिनों में श्री रामलोचन शरण बिहारी से उनका परिचय हुआ और वह बनारस से लहेरियासराय चले आए। फिर तो उनका जो क्रमबद्ध शोषण शुरू हुआ वह अपनी कहानी आप बन गया। धीरे-धीरे लहेरियासराय के चंगुल से थोड़ा छुटकारा पाकर वह छपरा कॉलेज में अध्यापक नियुक्त हुए। तीसरी पत्नी से उनकी चार संतानें हुईं–दो लड़कियाँ और दो लड़के। गृहस्थी की गाड़ी अच्छी तरह चल रही थी कि पत्नी का देहांत हो गया। इस बार भी उन्हें पत्नी से अंतिम भेंट नहीं लिखा था। पत्नी घर पर ही मरीं। फिर चार बच्चे-बच्चियों का लालन-पालन जिस असीम धैर्य और स्नेह से उन्होंने किया वह वही कर सकते थे। धीरे-धीरे छपरा भी छूटा और ‘हिमालय’ का संपादन उन्होंने शुरू किया। ‘हिमालय’ के प्रकाशन और उसके बंद होने की कहानी इतनी ताजा है कि उसे दुहराने की अभी जरूरत नहीं।
इस समय वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद के मंत्री और हिंदी साहित्य सम्मेलन, बिहार की पत्रिका ‘साहित्य’ के अवैतनिक संपादक हैं। सरकारी नौकरी के प्रथम परिचय की कहानी कुछ कम मनोरंजक नहीं। लेकिन सरकारी पद पर रह कर भी जिस प्रजातांत्रिक परिपाटी का उन्होंने परिषद की कार्यवाही में निर्वाह किया है वह उन्हीं का काम है। इस समय यह निस्संकोच कहा जा सकता है कि साहित्य संबंधी काम करने वाली सभी गैर सरकारी और सरकारी संस्थाओं में इसी का काम सबसे ज्यादा ठोस और महत्त्वपूर्ण है।