आचार्य चाणक्य (कहानी) : आचार्य चतुरसेन शास्त्री
Acharya Chanakya (Hindi Story) : Acharya Chatursen Shastri
अब से कोई दो हज़ार वर्ष से भी अधिक पुरानी बात हम कर रहे हैं। उस समय पाटलिपुत्र में शूद्र राजा महाधननन्द सिंहासन पर विराजमान था। यह महानृपति एकराट्, एकच्छत्र था। इसके पिता महापद्मनन्द ने अपने काल के सब क्षत्रिय राजाओं का संहार करके, पुत्र के लिए एकच्छत्र राज्य निष्कण्टक किया था।
धननन्द का प्रताप प्रचण्ड था। उसके पास दो हज़ार युद्ध रथ, बीस हज़ार अश्वारोही, चार हज़ार रणोन्मत्त हाथी तथा दो लाख पदाति थे। महाविचक्षण, कूटराजनीति-विशारद वररुचि कात्यायन और सुबुद्धि शर्मा उपनाम राक्षस-उसके मंत्री थे। महापद्मनन्द से पहले, उस काल में उत्तर भारत में सोलह महाजनपद थे। इनमें से पौरव, ऐक्ष्वाकु, पांचाल, हैहय, कलिंग, अश्मक, कौरव, मिथिला, शूरसेन और वीतिहोत्र महाजनपदों को महापद्मनन्द ने ध्वस्त किया था। इस प्रकार उसका महाराज्य, रावी नदी के पूर्वी तट को छू गया था। उन दिनों वाराणसी, पाटलिपुत्र और तक्षशिला में प्रसिद्ध विश्वविद्यालय थे, जिनमें तक्षशिला विश्वविश्रुत था। यहाँ 103 छत्रधारी राजाओं के उत्तराधिकारी राजपुत्र पढ़ते थे, तथा दिग्दिन्त के महामेधावी छात्र आते रहते थे।
चैत्र के शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी थी। पाटलिपुत्र में उस दिन बड़ी धूमधाम थी। राज-प्रासाद में महोत्सव हो रहा था और सब नगर-नागर राजाज्ञा से आनन्द मना रहे थे। ठौर-ठौर दुन्दुभी-भेरी बज रहे थे। लोग दीन-दुखियों को अन्न-वस्त्र बाँट रहे थे। हाट-बाज़ार, घर, बाहर सभी जगह लोग आनन्दोत्सव में मग्न थे। पुर-वधुएँ मंगलगान और मंगलोपचार कर रही थीं। नगर-नागरों ने अपने-अपने घर के द्वार पर मंगल-कलश, तोरण आदि सजाये थे। वे मंगलसूचक शंखध्वनि कर रहे थे। राज-प्रासाद में बड़ा उल्लास था। जिधर देखिए उधर नृत्य-गान-पान-गोष्ठी हो रही थी। आज सभी के लिए राज-प्रासाद का प्रांगण खुला था।
सब कोई वहाँ जा-आ सकते थे-याचकों को यथेच्छ वर मिल रहा था। ठौर-ठौर बन्दीगण और कुशलवी प्रशस्ति-गान कर रहे थे। ब्राह्मण स्वस्त्ययन पाठ कर रहे थे। यज्ञ-हवन-दान-पूजन-बलि-स्तवन-जहाँ देखिए वहीं कुछ न कुछ हो रहा था। मृदंग-मन्जीर-तूणीर के निनाद से दिशाएँ पूरित हो रही थीं। आज परम आनन्द का दिन था। महाराज धननन्द की नयी रानी ने एकमात्र महाराज्य के एकमात्र उत्तराधिकारी पुत्र को जन्म दिया था। महाराज की आज्ञा से राज्य-भर के बौद्ध विहारों, चैत्यों तथा देव-स्थानों में शिशु सम्राट् के दीर्घ जीवन की प्रार्थना हो रही थी। राज-प्रासाद में एक वृहत् राज-सभा के बीच नवजात शिशु को भारत का भावी सम्राट् उद्घोषित और अभिषिक्त किया गया था। इस समय महाराज धननन्द का प्रबल प्रताप तप रहा था। नवजात शिशु सम्राट् की अभ्यर्थना के लिए सब सामन्त, करद राज्यों के राजे, भूस्वामी तथा वणिक्-सार्थवाह बहुमूल्य उपानय लेकर आये थे। उनके लाये स्वर्णरत्न, मुद्रा, कौशेय-पाटम्बर, हाथी-घोड़ा-रथ-यान-पालकियों की राज-प्रासाद में इतनी रेलपेल हो रही थी कि उपानय वस्तुओं को यथास्थान रखने और मनुष्यों को खड़े होने का स्थान ही नहीं मिल रहा था।
उपानय भेंट अर्पण करने को राजा लोग पंक्तिबद्ध चले आ रहे थे। उनके साथ दास-दासी उपानय सामग्री लिये बोझ से दबे दिन-भर खड़े रहकर थक गये थे; पर अभी उनकी बारी ही नहीं आयी थी। दण्डधर-द्वारपाल-कंचुकी उन्हें दम-दिलासा दे रहे थे-ठहरो, अभी ठहरो! आपका उपानय भी स्वीकार होगा। और जिसका उपानय राज-प्रासाद में पहुँच जाता था, वह कृतकृत्य हो प्रासाद के रास-रंग में आनन्द-मग्न हो जाता था।
दासियाँ, गणिकाएँ सब आगन्तुकों को गन्ध-माल्य-पान से सत्कृत कर रही थीं। अतिथि उन सुन्दरियों के सान्निध्य में उनके दिये हुए चन्दन का अंगों पर लेप किये हँस-हँसकर माध्वी-मैरेय-गौड़ीये आसव पान कर उल्लास में सराबोर हास्य-विनोद-आलिंगन का आनन्द ले रहे थे। सुवासित मदिराओं की वहाँ जैसे नदी बह रही थी। भाँति-भाँति के माँस-मिष्ठान्न-पकवान पक रहे थे और अतिथि तृप्त होकर खा-पी रहे थे। राज-पार्षद नगर में घूम-फिरकर बछड़े, मेढ़े, भैंसे, हरिण आदि पशु और आखेटक तीतर, बटेर, लावक, हरित, हंस, चक्रवाक आदि पक्षी मार-मारकर रसोई में पहुँचा रहे थे। आहार-द्रव्यों का पहाड़-सा लगा था, जो खत्म होता ही न था; और भी आता जाता था।
धीरे-धीरे संध्या हो चली। नगर असंख्य दीप-मालिकाओं से जगमगा उठा। राज-पथ पर अब भी हाथी, रथ, शकट, शिविकाओं की भरमार थी। परन्तु राज-महालय के पृष्ठ भाग की संकरी गली में अन्धेरा था। वहाँ एक स्त्री शरीर को आवेष्टन से लपेटे जल्दी-जल्दी महालय के गुप्त द्वार की ओर जा रही थी। इसी समय महालय के गुप्त द्वार की ओर से एक पुरुष निकला। पुरुष तरुण था, उसकी कमर में खड्ग बँधा था तथा बहुमूल्य कौशेय-परिधान पर वह असाधारण महार्ध रत्नाभरण धारण किये हुए था। मद्य के मद में उसके नेत्र लाल हो रहे थे-वाणी स्खलित हो रही थी और उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। उसके साथ एक सेवक था जो उसका धनुष और तूणीर लेकर पीछे-पीछे चल रहा था।
स्त्री को आते देख उसने स्खलित वाणी से कहा, “ठहर जा, ऐ ठहर जा!”
इसके बाद उसने चर से कहा, “चरण, देख तो, यह कोई सामान्य प्रतीत होती है। सुन्दरी भी है, या यों ही टेसू है?”
चर ने आगे बढ़कर स्त्री का आवरण खींचकर उतार दिया। स्वर्ण की भाँति उसकी अंगदीप्ति से गली का अन्धकार उज्ज्वल हो उठा।
“अहा, सुन्दरी है महाराज!”
“युवती भी है या ढड्डो है?”
“नवीन वय है, यौवन का उभार खूब है!”
“तो देख, अच्छी तरह देख!”
चर ने निश्शंक अंग-प्रत्यंग टटोलने आरम्भ कर दिये, सूंघकर श्वासगंध ली। स्त्री लाज से सिकुड़ गयी और भय से थर-थर काँपने लगी।
चर ने कहा, “रमण योग्य है महाराज, गुदगुदा-संपुष्ट यौवन है!”
जिसे महाराज कहकर पुकारा गया था-वह व्यक्ति आगे बढ़ा। उसने घूरकर स्त्री को देखा-स्त्री ने फूलों का शृंगार किया था, मुख पर लोध्र-रेणु मला था, चरणों में अलक्तक, होठों पर लाक्षा-रस, कंठ में मणिहार और कानों में हीरक-कुंडल, वक्ष पर नीलमणि जटित कंचुकी। अवस्था कोई बीस बरस। जूड़े में शेफालिका के फूल।
पुरुष ने भली भाँति ऊपर से नीचे तक निहारकर कहा, “अच्छा शृंगार किया है! सुन्दरी, चल, आज का शृंगार मुझे दे! मेरे साथ विहार कर।
स्त्री ने भयभीत होकर कहा, “नहीं-नहीं, मेरे आज के शृंगार को खंडित मत कीजिए! आज का शृंगार मैंने महाराजाधिराज के लिए किया है।”
“मैं भी एक प्रकार से महाराजाधिराज ही हूँ! उनका भाई हूँ। क्यों रे चरण, क्या कहता है?”
“आप महाराजाधिराज हैं, महाराज!”
“बस तो ला, आज का श्रृंगार तू मुझे दे!” उस महाराज नामक व्यक्ति ने स्त्री का हाथ पकड़ लिया।
“नहीं-नहीं, मुझे छोड़ दीजिए, छोड़ दीजिए महाराज!”
"अरे चरण, इस मूर्खा को समझा! यह अपने सौभाग्य को ठुकरा रही है।”
“हतभाग्या है री तू! नहीं जानती महाराज प्रसाद में रत्नाभरण देते हैं!”
परन्तु स्त्री ने ज़ोर लगाकर अपना हाथ छुड़ा लिया और उस तरुण को पीछे धकेल दिया। तरुण मद्य के नशे में लड़खड़ा रहा था। धक्का खाकर भूमि पर गिर गया। गिरे ही गिरे उसने कहा, “पकड़ रे चरण, उसे पकड़! देख भाग न जाए।”
चरण ने आगे बढ़कर कहा, “क्या कोड़े खाएगी?”
“कोड़े नहीं रे चरण, तू अभी इसका सिर खड्ग से काट डाल, दुर्भाग्या ने इतना अच्छा माध्वी का मद मिट्टी कर दिया। काट ले इसका सिर!”
चरण ने आगे बढ़कर उसका हाथ ज़ोर से पकड़ लिया। इसी बीच उठकर, तरुण ने दो-तीन लात उसके मारी। स्त्री ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी। गली में दस-पाँच आदमियों की भीड़ जुट गयी। भीड़ में एक ब्राह्मण भी था। ब्राह्मण बड़ा ही कुरूप, काला और दरिद्र था। उसकी कमर में एक मैली शाटिका थी, कन्धे पर मैला जनेऊ। उसके दो बड़े-बड़े दाँत होंठ से बाहर निकले हुए थे। उसकी टाँगें टेढ़ी थीं और वह कुछ लड़खड़ाता-सा चलता था। जो लोग स्त्री के आर्तनाद को सुनकर एकत्र हो गये थे, उन्होंने देखा-महाराजाधिराज महाप्रतापी धननन्द के छोटे भाई उग्रसेन से किसी स्त्री का वाद-विवाद है, तो वे सब आतंकित हो, खड़े-के-खड़े रह गये। किसी ने भी स्त्री के पक्ष में कुछ कहने का साहस नहीं किया। परन्तु ब्राह्मण ने आगे बढ़कर कहा, “कैसा विवाद है? स्त्री पर कौन अत्याचार कर रहा है?”
ब्राह्मण की धृष्ट वाणी सुनकर चरण ने कहा, “अरे ब्राह्मण, क्या तू हमारे प्रबल प्रतापी महाराज उग्रसेन को नहीं जानता, जिनके चरण-नख सब जनपद-नरपतियों के मुकुट मणियों की दीप्ति से प्रतिबिम्बित हैं? तू राज-काज में व्याघात करने वाला कौन है? भाग यहाँ से!”
परन्तु ब्राह्मण इस बात से आतंकित नहीं हुआ। उसने कहा, “राह चलती स्त्री पर अत्याचार करना, क्या राज-काज है?”
“तो अत्याचार कौन करता है ब्राह्मण, हमारे रसिक महाराज तो उससे केवल आज रात का शृंगार माँगते हैं। वे उन सब सामान्याओं को शुल्क में रत्नमणि देते हैं, जो उन्हें एक रात रति देती हैं।”
“भन्ते ब्राह्मण, मैं सामान्या नहीं हूँ, राज-महालय की दासी हूँ! महाराजाधिराज की अन्तेवासिनी हूँ!”
“तो महाराज उग्रसेन, आप इस पर बलात्कार क्यों करते हैं?”
“भन्ते ब्राह्मण, इन्होंने मुझे लात मारी है, मेरा शृंगार खंडित किया है।”
“अरी तो क्या हुआ? महाराज ने एक लात मार ही दी तो क्या हुआ? महाराज के चरण-स्पर्श से तो तू सत्कृत हो गयी। चल-चल, आज रात हमारे महाराज की अंकशायिनी हो।” चरण ने उसे हाथ पकड़कर घसीटते हुए कहा।
उग्रसेन ने कंठ से मुक्ता-माला उतारकर उसके ऊपर फेंकते हुए कहा, “ले अप्सरे, लात का मूल्य, और चल मेरे साथ!”
“नहीं, मैं नहीं जाऊँगी!”
“तो चरण, काट ले इसका सिर!”
चरण ने कोष से खड्ग खींच लिया। ब्राह्मण आगे बढ़कर स्त्री और सेवक के बीच में खड़ा हो गया। उसने कहा, “वह सामान्या नहीं है! तुम उसे बलात् नहीं ले जा सकते, उस पर अत्याचार भी नहीं कर सकते!”
उग्रसेन नशे में धुत हो रहा था। उसने लड़खड़ाते कदम उठाकर, आगे बढ़ते हुए क्रुद्ध स्वर में कहा, “क्यों नहीं ले जा सकते? हम पृथ्वी के स्वामी हैं! पृथ्वी की सब वस्तुओं के स्वामी हैं! क्यों रे चरण?”
“हाँ महाराज, आप पृथ्वी के स्वामी हैं!” चरण ने कहा।
पर ब्राह्मण पत्थर की अचल दीवार की भाँति उसके आगे खड़ा था। उसने कहा, “अरे ब्राह्मण, हट जा! तूने राजाज्ञा नहीं सुनी, मुझे इस स्त्री का सिर काट लेने दे।”
“तू मेरे रहते ऐसा नहीं कर पायेगा, रे अधर्मी शूद्र।”
“अरे हमीं को शूद्र कहता है?”
“और तेरा यह महाराज भी शूद्र है! परन्तु शूद्र यह जन्म ही से है, कर्म से तो चांडाल है!”
यह सुनकर उग्रसेन आपे से बाहर हो गया। उसने कहा, “चरण, पहले इस ब्राह्मण ही का शिरश्च्छेद कर!”
परन्तु ब्राह्मण ने तेजी से लपक कर ज़ोर का एक मुक्का चरण की मुष्टि पर मारा। खड्ग चरण के हाथों से छूटकर भूमि पर गिर गया। उसे फुर्ती से उठाकर, ब्राह्मण ने चरण के कन्ठ पर रखकर कहा, “अरे धृष्ट शूद्र, आ, आज तुझे देवता की बलि दूंगा!” चरण ब्राह्मण के चरणों में लोट कर गिड़गिड़ाकर प्राण-भिक्षा माँगने लगा। तब ब्राह्मण ने कहा “अच्छा, तुझे छोड़ता हूँ! इस कुलांगार राजपुत्र की बलि दूंगा!”
वह नग्न खड्ग लेकर उग्रसेन की ओर बढ़ा। उग्रसेन ने भयभीत होकर कहा, “सारा नशा खराब कर दिया।”
इसी समय महामात्य वररुचि कात्यायन, तीन-चार सशस्त्र प्रतिहारों के साथ वहाँ आ निकले। उन्हें देखते ही उग्रसेन ने चिल्लाकर कहा, “आर्य, महामात्य, यह ब्राह्मण मेरा शिरच्छेद करना चाहता है; इसे पकड़कर सूली पर चढ़ा दो!”
महामात्य वररुचि कात्यायन महावैयाकरणी और त्रिकालदर्शी ज्योतिष में पारंगत वृद्ध पुरुष थे। उनका विशाल डीलडौल, बड़े-बड़े नेत्र थे और उज्ज्वल प्रतिभा थी। वे शुभ्र परिधान धारण किये थे। उन्होंने ब्राह्मण के निकट जाकर, उसे पहचानकर कहा, “तुम हो, विष्णुगुप्त?”
“मैं ही हूँ, आर्य कात्यायन!”
“विवाद का कारण क्या है?”
“यह इस शूद्र राजकुमार से पूछो!”
“आर्य, मैं निवेदन करती हूँ! मैं राज-दासी हूँ, महाराज के लिए मैंने शृंगार किया था। इन्होंने मेरा शृंगार खंडित कर दिया और बलात्कार से रति-याचना करते हैं। स्वीकार न करने पर, शिरच्छेद करने को उद्यत हैं।” स्त्री ने वररुचि के चरणों पर गिरकर कहा।
“तो हम भी तो महाराज ही हैं। यह स्त्री आज का श्रृंगार हमें दे, हम शुल्क देंगे।”
“कुमार, तुम्हारा व्यवहार गर्हित है, तुम इस समय सुरा-पान से मत्त हो। जाओ, राज-प्रासाद में जाओ!” कात्यायन ने कहा।
“अरे, हमारा सेवक होकर हमीं को आँखें दिखाता है! राज-कोप का भी तुझे भय नहीं है? अमात्य शकटार जैसे सपरिवार अन्धकूप में पड़ा है, वैसे ही तुझे भी अन्धकूप में डाल दूंगा!”
“राजकुमार, मैं तुम्हारे कुल का सेवक अवश्य हूँ! परन्तु मैं महान नन्द साम्राज्य का महामात्य हूँ। प्रजा का न्याय-शासन करना मेरा कर्त्तव्य है। राजकुल के पुरुष होने के कारण मैं तुम्हारे ऊपर शासन नहीं कर सकता; परन्तु तुम्हारा प्रजा पर, प्रकट राजपथ में इस प्रकार नीति-विरुद्ध कार्य करना अन्यायपूर्ण है। जाओ, प्रासाद में जाओ!”
“इस सामान्या को मैं ले जाऊँगा। ओहो, आधा प्रहर रात्रि तो इस झगड़े ही में व्यतीत हो गयी! खैर, साढ़े तीन प्रहर ही सही! चल मेरे साथ।” उसने फिर उस स्त्री का हाथ पकड़ लिया।
स्त्री ने रोते-रोते कहा, “आर्य महामात्य, आप राज्य के रक्षक हैं। इस आततायी से एक असहाय अबला की रक्षा नहीं कर सकते?”
वररुचि ने कहा, “कुमार, छोड़ दो उसे!”
“वह कोई कुलस्त्री नहीं है!”
“न सही, स्त्री तो है!”
“तो स्त्रियाँ तो सब ही पुरुषों के लिए भोग्य हैं!”
अब तक ब्राह्मण विष्णुगुप्त खड्ग लिये चुपचाप खड़ा था। अब उसने आगे बढ़कर कहा, “तुम्हें धिक्कार है कात्यायन! तुम इस कंलकी कुल के सेवक हो-इसलिए इस राजकुमार के अत्याचार से स्त्री की रक्षा नहीं कर सकते। परन्तु मैं सेवक नहीं हूँ। मेरे रहते यह मद्यप इस स्त्री को छू भी नहीं सकता!”
“अरे ब्राह्मण, हट जा, मेरी जो इच्छा होगी करूँगा!”
कात्यायन अब खड्गहस्त होकर आगे बढ़े। उन्होंने कहा, “तुमने ठीक धिक्कारा, विष्णुगुप्त! ब्राह्मण होकर शूद्र की दासता धिक्कार योग्य ही है! पर प्रजा पर शासन तुम्हारा नहीं, मेरा काम है; आवश्यकता होगी, तो इस राजकुमार का शिरच्छेद मैं ही करूँगा!”
“सब नशा खराब कर दिया। इस अमात्य को सवेरे शकटार के पास, अन्धकूप में कैद करूँगा। चल चरण, लौट चल! ऐसा अच्छा नशा खराब हो गया!” यह कहता हुआ उग्रसेन, लड़खड़ाते पैर रखते हुए, वहाँ से चला गया।
विष्णुगुप्त ने पुकारकर कहा, “अपना यह खड्ग तो लेते जाओ, राजकुमार!” और उसने वह खड्ग हवा में उछाल दिया। फिर स्त्री से कहा, “चलो, मैं तुम्हें राज-द्वार तक पहुँचा दूँ!”
“नहीं विष्णुगुप्त, कष्ट न करो। मैं इसे अपने साथ महालय ले जाता हूँ चल शुभे, तुझे अन्तःपुर में सुरक्षित पहुँचा दूँ।” यह कहकर, महामात्य कात्यायन उस स्त्री को साथ लेकर राज-महालय की ओर चले गये। विष्णुगुप्त भी एक ओर को चल दिया। भीड़ के लोग उस कुरूप ब्राह्मण के साहस की चर्चा करते हुए तितर-बितर हो गये।