अभिनय कला (निबंध) : महादेवी वर्मा
Abhinay Kala (Hindi Nibandh) : Mahadevi Verma
हमारे प्राचीन समाज में अभिनय कला का कितना महत्त्वपूर्ण विकास हुआ, यह नाटक के रूपकादि 28 प्रकारों तथा नाट्यशास्त्र से प्रकट हो जाता है।
अवश्य ही आज हमें उस समय का अभिनय संबंधी साहित्य कुछ अधिक संकीर्ण बंधनों में बँधा जान पड़ेगा । प्रायः सभी नायक-नायिकाओं को एक ही सी रूपरेखा में अवतीर्ण होना पड़ता था तथा सभी कथानकों का सुख में ही अंत निश्चित था। आधुनिक दृष्टिकोण से चाहे हम इसे एक बड़ी भारी त्रुटि समझ लें; परंतु वास्तव में यह त्रुटि नहीं है। तत्कालीन विचारों की दृष्टि में किसी समाज की प्रारंभिक अवस्था बालक की अवस्था से भिन्न नहीं होती। अतः दोनों के ज्ञान प्राप्ति के साधनों में भी बहुत अधिक समानता रहती है। बालक के मन पर समवयस्क बालकों के हँसने रोने तथा उनके अन्य कार्यों का उतना स्थायी और अनुकरण की प्ररेणा देनेवाला प्रभाव नहीं पड़ता, जितना उससे बहुत बड़े व्यक्ति के कार्यों और चेष्टाओं का । वह स्वभाव से ही अपने बड़े होने का स्वप्न देखना पसंद करता है, अतः अपने से बड़े व्यक्तियों के प्रत्येक कार्य को विशेष ध्यान से देखकर उसका अनुकरण करने की चेष्टा किया करता है। इसी प्रकार साधारण जनता के चित्त पर विशिष्ट व्यक्तियों के त्याग और बलिदान, सुख और दुःख, संपत्ति और विपत्ति का जैसा अनुकरणशील प्रभाव पड़ता है, वैसा अपनी श्रेणी के व्यक्तियों के कार्यों तथा उनके सुख-दुःख का नहीं पड़ता । बालक के अनुकरण का पात्र बड़ा व्यक्ति है तथा सर्वसाधारण के अनुकरण का पात्र विशिष्ट व्यक्ति, जिसके चरित्र का आदर्श सन्मुख रख कर वह अपने जीवन का निर्माण करना चाहता है। समाज में विरागियों की संख्या कम नहीं; परंतु राजकुमार सिद्धार्थ का विराग ही हमारे अंतस्तल में अंकित रह जाता है। अनेक साध्वियाँ कष्ट सहती हुई प्राण देती रहती हैं; परंतु मैथिली जैसी सती की अग्नि परीक्षा ही हमारे हृदय में दीपक की तरह जलती रह सकती है। हम उसी का अनुकरण करना चाहते हैं, जो हमारा अग्रगामी हो ।
संभवतः मानव-समाज की इसी दुर्बलता को देख कर प्राचीन काल के कलाविदों ने विशिष्ट व्यक्तियों के आदर्श चरित्रों को अभिनय के लिए चुना। इन चरित्रों के उत्थान-पतन, अंतर्द्वन्द्व तथा आपत्तियों से जनता अधिक प्रभावित होती थी। इसके अतिरिक्त अभिनय का आरंभ भी देव मंदिरों में देव-देवियों के चरित्र-चित्रण द्वारा हुआ था, फलतः उसमें साधारण चरित्रों को प्रमुखता मिलना अधिक सामाजिक विकास और विस्तृत दृष्टिकोण की अपेक्षा रखता था । वैसे उसमें विदूषक तथा अन्य साधारण चरित्रों का समावेश रहता अवश्य था; परंतु कथानक का नायकत्व किसी विशिष्ट व्यक्ति को मिलना अनिवार्य था। इस प्रयत्न से नायक-नायिकाओं में कुछ एकरूपता अवश्य आ गई; परंतु इससे समाज की उद्देश्य सिद्धि और कला के विकास में बाधा नहीं पड़ी ।
दुःखांत कथानकों के विषय में प्राचीन कलाविदों के विचार हमारे विचारों से भिन्न थे। उनकी दृष्टि में जो कुछ सुंदर, सत्य और कल्याणमय था, उसका नाश संभव ही नहीं था। उसे अमरता का चिरंतन अधिकार था। केवल कुत्सित, कुरूप, असत्य और अमंगलकर ही मृत्यु का अधिकारी था। परंतु कुत्सित असत्य को वे अपने कथानक में प्रमुख स्थान नहीं देते थे, अतः उसका दुःख या मृत्यु में अंत असंभव ही था। जैसे प्रयत्न से वे अपने अभिनय के लिए आदर्श चरित्र चुनते थे, वैसी ही सतर्कता से वे उस चरित्र को नष्ट होने से बचाते थे । आपत्तियों और बाधाओं के आँधी-तूफानों में लोहा लेना उन्हें अच्छा लगता था, दुःख के अथाह समुद्र को पार कर जाना उनका लक्ष्य था; परंतु पराजय और वह भी कुत्सित के द्वारा सुंदर की, असत्य के द्वारा सत्य की, मृत्यु के द्वारा जीवन की पराजय उन्हें असह्य थी। इस तर्क के युग में हमें चाहे यह इच्छा उपहासास्पद जान पड़े; परंतु जीने के इच्छुक के लिए यह मृत्युंजय मंत्र का प्रभाव रखती है। वास्तव में यदि मनुष्य को सत्य और सौंदर्य की अमरता में विश्वास न हो, तो उनके प्रति उसका आकर्षण भी न रह जावे, इस साधारण सत्य को प्राचीन कलाकारों ने भलीभाँति समझा था। इसी से वन की हरिणियों के साथ खेलनेवाली भोली शकुंतला, भरी सभा में राजा पति के द्वारा मिथ्यावादिनी ठहराई जा कर भी आधुनिक युग की निराश रमणी की तरह न आत्महत्या कर सकती है और न प्रतिशोध लेने को पागल हो उठती है। उसका सौंदर्य, उसकी सरलता, उसका विश्वास और उसका अयाचित प्रेम ऐसे शाश्वत् गुण हैं, जिनका नष्ट होना तो संभव ही नहीं, साथ ही जिनके बिना दुष्यंत का दर्पपूर्ण पुरुषत्व भी पूर्ण नहीं हो पाता। उसके लिए यदि पृथ्वी पर दुष्यंत से मिलन संभव नहीं, तो वह उससे अंतरिक्ष में मिलेगी; परंतु मिलेगी अवश्य । इस दृष्टिकोण से चाहे हम सहमत न हों; परंतु इसे कला के लिए बाधक सिद्ध करना कठिन होगा। आज तक शकुंतला से अधिक सुंदर और सरल चरित्र की सृष्टि हम नहीं कर सके हैं और भविष्य में कर सकने की संभावना भी कम है। शकुंतला की मृत्यु या उसके चिर वियोग से नाटक चाहे दुःखांत होता चाहे नहीं; परंतु सौंदर्य और सत्य में हमारे विश्वास की अवश्य ही दुःखमय मृत्यु हो जाती ।
वास्तव में करुण रस का परिपाक अंत पर निर्भर भी नहीं रहता। कितने ही दुःखांत कथानक ऐसे हैं, जिनके अंत हमें प्रसन्न कर देते हैं खिन्न नहीं, और कितने ही सुखांत ऐसे हैं जिनके अंत में हम जीवन पर मँडराती हुई विषाद की छाया देख कर अस्थिर हो उठते हैं। भवभूति के उत्तररामचरित का अंत हमें उतना करुणा से आर्द्र नहीं करता, जितना राम और सीता का अंतर्द्वन्द्व । अभिनय में आनंद या करुणा की प्रधानता दर्शकों के मनोभावों द्वारा आँकी जानी चाहिए, कथा के सुख या दुःखमय अंत से नहीं। अभिनय यदि हमारे सुख-दुःख के संघर्ष, जीवन की जटिल समस्याओं और मानव हृदय के आजीवन न मिटने वाले अंतर्द्वन्द्व की दुरूहता को यथार्थ रूप से चित्रित कर सके तो वह सकरुण है, यदि वह सत्य, शिव और सुंदर की अमरता का ज्ञान करा सके तो वह आनंदमय है । उस युग की अभिनय कला का यही मूलमंत्र था और बहुत समय तक रहा।
वर्तमान काल में हमें अभिनय कला का जो परिचय मिला, वह व्यवसायी पारसी थियेटर कंपनियों के रंगमंच पर ही मिल सका। यह आश्चर्य का विषय है कि हिंदी नाटकों के आविर्भाव से लेकर अब तक हमारा कोई रंगमंच नहीं रहा । व्यक्तिगत रूप से कभी कुछ व्यक्तियों ने मनोविनोद के लिए किसी नाटक का अभिनय कर भी लिया तो उससे किसी स्थायी रंगमंच की स्थापना नहीं हो सकी।
फलतः हमारा हिंदी नाटक साहित्य जितनी अध्ययन की वस्तु है, उतनी अभिनय की नहीं। उसमें अभिनय, अभिनेता तथा दर्शकों का उतना ध्यान नहीं रखा जाता, जितना अध्ययनशील पाठकों का । इसी से हमें उनका, पाठ्य पुस्तकों की तरह अध्ययन अभिनय से अधिक सुगम जान पड़ता है। यदि अपना कोई रंगमंच रहता तो उसकी कठिनाइयों को ध्यान में रखते हुए हम इस कला के द्वारा अपनी संस्कृति, अपने आदर्श और अपने इतिहास को सर्वसाधारण के हृदयों में जीवित रख सकते थे। जो व्यवसायी थियेटर कंपनियाँ जनता की रुचि से लाभ उठाने आईं, उन्हें हमारी संस्कृति का, इस कला के महान् सामाजिक लक्ष्य का न ज्ञान था और न उन्हें इसकी आवश्यकता ही जान पड़ी। जनता कोई भी खेल देखने के लिए मचले हुए बालक के समान व्यग्र हो रही थी। उसे न अभिनय विषयक कोई ज्ञान था औ न उसके सम्मुख रंगमंच की कोई रूपरेखा थी, जिससे वह इन कम्पनियों के अभिनय और मंच की तुलना कर सकती। यदि उसके सम्मुख मंच पर अप्सराएँ उड़ने लगतीं, तो भी उसे कौतुक मिश्रित प्रसन्नता होती और कठपुतलियाँ नाचतीं, तो भी उसने जो देखा उसी की प्रशंसा की और उसके कौतुक प्रिय स्वभाव से लाभ उठा कर यह व्यवसाय बिना सामाजिक या सांस्कृतिक लक्ष्य के, बिना अभिनय कला के ज्ञान के दिनोंदिन वृद्धि पाने लगा ।
हमें इन रंगमंचों से अकस्मात् कभी भी कोई महत्त्वपूर्ण सामग्री भी मिलती रही, यह अस्वीकार करना सत्य की उपेक्षा करना होगा; परंतु अधिकांश में वहाँ सस्ती उत्तेजना बढ़ाने वाले गीत, कामुकता को प्रश्रय देने वाले नृत्य और विकृत प्रभाव वाले चरित्रों का ही प्राधान्य रहा। इन रंगमंचों ने वह दिया जिसे रासधारी, राधाकृष्ण के बहाने देने का निष्फल प्रयत्न करते थे और इन्होंने वह छीन लिया जिसे रासलीला वाले, सफलता- पूर्वक देते थे। इनके पास साधन थे । चमत्कृत कर देने वाले दृश्य चकाचौंध कर देने वाला प्रकाश, कौतूहल उत्पन्न कर देने वाली वेश-भूषा और असंयत अभिनेता-अभिनेत्रियों के दल ने विकृति को भी प्रकृति के रूप में दिखाया । परन्तु यदि यह व्यवसायी रंगमंच न होते, तो अभिनय कला की ओर हमारा ध्यान न जाता ।
उसके उपरान्त जो मूक चलचित्रों का युग आया, उसे अभिनय के विकास का विशेष श्रेय मिलना उचित है। उसके निकट रंगमंच का स्थान संकोच न हो कर वाणी का संकोच था। उसे सभी प्रकार के अन्तर्द्वन्द्व तथा परिवर्तनों को केवल मुख के भाव तथा अंग की चेष्टाओं से ही प्रकट करना पड़ता था, अतः अभिनय-कला की ओर विशेष ध्यान देना अनिवार्य हो उठा । अवाक् चित्रों को सफलता तो मिली; परन्तु रंगमंच अपनी वाणी के कारण आकर्षक बना रहा। उसकी सजीवता, उसका संगीत और उसकी रंगीनी अनेकों व्यक्तियों को अपनी ओर खींचती रही । प्रायः उसकी तुलना में मूक चलचित्र छाया से जान पड़ते थे ।
परन्तु सवाक् चलचित्रों के आविर्भाव के साथ अभिनय- कला का एक ऐसा अभूतपूर्व नवीन युग आरम्भ हुआ है, जिसके उज्ज्वल भविष्य के विषय में किसी को सन्देह नहीं होता, यह कहना तो कठिन है; परन्तु यदि इसे केवल व्यवसाय का साधन न बनाया जावे तो अवश्य ही यह हमारी सामाजिक प्रगति में सहायक रहेगा। इसकी भी अपनी कठिनाइयाँ हैं। इसमें स्थान का संकोच है। न अभिनेता अभिनेत्रियों के सामने प्रशंसा के लिए उत्सुक, सजीव और जागरूक दर्शक समूह रहता है-और न दर्शकों के सम्मुख भावतन्मय जीवित जाग्रत अभिनेता-अभिनेत्री । इस छाया काया के सम्मेलन को कला का चरमोत्कर्ष ही सजीव बना सकता है। उसकी अनुपस्थिति में यह जीवित जन-समूह के सामने चित्रमय जगत् मात्र रह जाता है। अभिनेताओं की कठिनाइयाँ भी कम नहीं। हमारे सत्य सुख-दुःख भी दूसरों को प्रभावित करने पर अधिक सत्य जान पड़ते हैं। तब फिर अभिनीत सुख-दुःखों को दूसरों के सहयोग की कितनी अपेक्षा रहती होगी, इसकी कल्पना कठिन नहीं । जहाँ प्रत्येक भाव की प्रतिध्वनि बनने के लिए उत्सुक हृदय नहीं, वहाँ कुछ निश्चित क्षणों में किसी विशेष भाव को उसकी चरम सीमा तक पहुँचा देना सहज नहीं हो सकता। इस कार्य के लिए जिस कला की आवश्यकता होती है, वह निरंतर साधना और मानव-स्वभाव के विस्तृत अध्ययन पर जितनी निर्भर है उतनी किसी बाह्य उपकरण पर नहीं ।
सवाक् चित्रों से रंगमंच केवल इसलिए पराजित नहीं हुआ कि उसके मार्ग में कठिनाइयाँ अधिक थीं, वरन् इसलिए कि उसकी कला परिष्कृत रूप तक पहुँच ही नहीं पाई थी । वाक्पट रंगमंच को भुला देने के सभी उपकरण लेकर आया और जनता ने नवीन और प्राचीन की तुलना में नवीन को ही अधिक आकर्षक पाया। शक्ति का प्रयोग लाभ के लिए जितनी सुगमता से हो सकता है, हानि के लिए उससे भी अधिक सुगमता से किया जा सकता है, प्रायः शक्ति की मात्रा हानि की मात्रा से नापी तोली जाती है, लाभ की मात्रा से नहीं। इसी से प्रायः सवाक् चित्र, रंगमंच से अधिक उत्तेजक सामग्री देकर जनता की विकृत रुचि को और विकृत बना कर अपनी शक्ति का परिचय देने का लोभ न रोक सके।
इसके साथ व्यवसाय का प्रश्न भी था। जनसाधारण को उसकी रुचि के विरुद्ध कुछ देना हठी बालक को बहलाने के समान कठिन है। वह सुंदर से सुंदर वस्तु को फेंक कर उसी को लेना चाहेगा जिसके लिए उसने हठ ठाना हो । वाक्पट, रंचमंच के स्थान संकोच और मूकपट के वाणी संकोच से रहित और दोनों की विशेषताओं से युक्त होने के कारण सामाजिक विकास और जनता की रुचि को परिष्कृत करने में जितना समर्थ है, उसे विकृत करने में भी उतना ही क्षम है। उसमें कला का विकास भी संभव है और हास भी । केवल व्यावसायिक दृष्टिकोण से देखे जाने के कारण सर्वसाधारण की रुचि परिष्कृत नहीं बना सका, यह स्पष्ट है। एक ओर सुधार मंच पर, सस्ती उत्तेजनावर्धक वासनामूलक नृत्य और नर्तकियों के बहिष्कार के प्रस्ताव हो रहे थे और दूसरी ओर सवाक् चलचित्रों के रंगमंच पर अर्धनग्नता के निकृष्ट प्रदर्शन का अभिनंदन हो रहा था। एक ओर जनता को प्रगति के पथ पर बढ़ने का उपदेश दिया जाता था और दूसरी ओर असंस्कृत निर्लज्ज अभिनयों द्वारा प्रमत्त बना कर गिरना सिखाया जाता था । विनोद के लिए रखे गए दृश्य भी मर्यादा व संकोच की सीमा का अतिक्रमण कर जाते थे।
अवश्य ही अपने छोटे-से जीवन में सवाक् चलचित्रों ने हमें ऐसे अनेक कलापूर्ण चित्र भी भेंट किए हैं, जिनसे हमें अपनी संस्कृति और समाज की रुचि को अधिक परिष्कृत बना कर उसे प्रगति के पथ पर आगे बढ़ाना ही है। यदि आधुनिक युग में इतने साधनों से पूर्ण होने पर भी हमारी अभिनय-कला अपने महान् सांस्कृतिक और सामाजिक लक्ष्य से शून्य रही, तो वह हमें एक पग भी आगे न बढ़ा सकेगी। जीवन में जो कुछ कुत्सित, अस्थिर, अमंगलकर और असंस्कृत पशुत्व है, उसी में सुंदर, शाश्वत्, कल्याणमय और संस्कृत देवत्व को ढूँढ़ने के प्रयास में कला का जन्म और उसकी अभिव्यक्ति में कला की सिद्धि है। इसी से मनुष्य ने उसके बिना अपने आपको अपूर्ण अनुभव किया है और सदा करता रहेगा। अभिनय हमारी केवल प्राचीन ही नहीं, प्रिय कला भी है। यदि हम जीवन को अधिक परिष्कृत और सुंदर बनाने में इसका उपयोग करें, तो इससे व्यक्ति और समाज दोनों ही अधिक पूर्ण हो सकेंगे। वैसे विकृत मात्रा में तो औषधि भी विष हो जाती है ।
('क्षणदा' से)