अभागा कृपण (जर्मन कहानी) : केस्पर फ्रेडरिक गोट्सचलक

Abhaga Kripna (German Story in Hindi) : Kaspar Friedrich Gottschalck

तीस वर्षीय युद्ध के दौरान पहाड़ में रहनेवाले पड़ोसियों ने शीघ्रता से अपनी धन-संपत्ति क्वेटिनबर्ग के किले में पहुँचा दी, ताकि सेना के उत्पात और लूट से उसकी रक्षा हो सके। कहा जाता है कि यह सारा संचित धन अब भी भूमिगत गृहों में, शराब खींचनेवाली तांबे की डेगों में छिपा पड़ा है और किले के भूत सावधानी से उसकी चौकसी कर रहे हैं।

ऐसा हुआ कि एक रविवार को वहाँ का एक निवासी गँवार की तरह सोचता हुआ, ऊपर लटके खंडहरों और इर्दगिर्द के स्थानों को खोजता हुआ पुराने किले की ओर आया, जो क्रम से पृथ्वी की ओर से नीचे की ओर जाता प्रतीत होता था। उसने उग्रगंध की घास और झाड़ियों में रास्ता बनाया और निरंतर आगे तब तक चलता रहा, जब तक एक अँधेरे रास्ते के द्वार तक नहीं पहुँच गया। उसके कौतूहल ने उसे और आगे बढ़ाया। अब वह भूमिगत था। उसने जमीन पर एक गोल छिद्र देखा जहाँ रोशनी की एक पतली रेखा पड़ रही थी। जैसे ही वह एक तरफ खड़ा हुआ उसे बड़ी ओढ़नी लपेटे एक भूत दिखाई दिया। वह जगह एकाएक प्रकाशमय हो गई और भयभीत गँवार ने अपने सामने सोने के चमकते टुकड़ों से भरे प्रसिद्ध शराब खींचनेवाली डेगों को देखा, जिनकी बाबत उसने अपनी परदादी से सुन रखा था।

वह सोचने लगा कि क्या करे? घर लौट जाए या सोने का टुकड़ा उठा ले! तभी भूत बोला—‘‘तुम एक टुकड़ा ले सकते हो और प्रतिदिन पुनः एक लेने के लिए भी आ सकते हो, परंतु एक समय में एक ही लेना, अधिक नहीं।’’

यह कहकर भूत लुप्त हो गया और आदमी ने सोने के टुकड़े पर हाथ रख दिया। उसने उस स्थान पर निशान लगा दिया तथा धड़कते दिल के साथ, आधा प्रसन्न और आधा डरा हुआ, वह शीघ्रता से वापस लौटने लगा। भूत के उपहार को हजार बार टकटकी लगाकर देखता हुआ वह अपने घर चला गया।

अगले दिन उसने उस सुखकर प्रयोग को दोहराया। वास्तव में भूत तो वहाँ नहीं था, परंतु सोने से भरी शराब खींचनेवाली तांबे की डेग वहाँ थी। उसने दूसरा टुकड़ा लिया और अपने रास्ते चल दिया। इसी तरह दूसरे, तीसरे और चौथे दिन—प्रतिदिन सोने के टुकड़ों का उपहार लाते हुए इस क्रम को एक वर्ष बीत गया।

एक गँवार, दरिद्र का जर्जर घर इस क्रम से एक आलीशान मकान में बदल गया; कई एकड़ भूमि उसमें मिलाई गई; पशुओं के झुंड उसकी भूमि पर चरते नजर आते थे। गाँव का कोई गँवार वह सबकुछ नहीं कर सकता था जो इसने किया, परंतु संपत्ति बढ़ने के साथ ही यह गँवार उतना ही उत्तेजित होने लगा—‘मैं किसके लिए परिश्रम करूँ? मैं बैठकर आराम कर सकता हूँ।’

इस विचार के आते ही उसने अपनी भूमि में बोने के लिए नौकरों और नौकरानियों को रख लिया और स्वयं नई बाँहदार कुरसी पर बैठने लगा। अपनी अनाज की फसलों, जिनको पहले वह स्वयं बोया करता था, को देखने के लिए वह सुंदर टट्टू की सवारी से जाता था। वास्तव में शराब खींचनेवाली तांबे की महान् डेग का दैनिक साक्षात्कार ही उसका मुख्य उद्यम था। लक्ष्मी प्रतिक्षण उसकी आत्मा पर बुरी तरह छा रही थी। उसका अहंकार उसके लोभ की बराबरी करने लगा, चाहे सोने का एक टुकड़ा बीस डॉलर के बराबर ही था। उसके मन में यह भी विचार आया कि सोने के एक टुकड़े के लिए प्रतिदिन ढलुवाँ पहाड़ी पर चढ़ने का काम कुछ ज्यादा है और मन-ही-मन उसने निश्चय किया कि अगली बार वह दो टुकड़े लाएगा।

उसने ऐसा ही किया और इस क्रम को एक महीने से भी अधिक समय तक जारी रखा। फिर भी इससे उसे संतोष नहीं हुआ। उसने अपने आपसे कहा—

‘हे ईश्वर, सोने के चंद टुकड़ों के लिए यह प्रतिदिन का परिश्रम कितना कष्टदायक है! यह स्पष्ट हो गया है कि सारा खजाना मेरे लिए ही है; मैं इसे एक ही बार में ले आऊँ अथवा इस प्रकार टुकड़ों में—दोनों तरीकों का परिणाम एक ही है। अतः मैं जाऊँगा और यदि ईश्वर ने चाहा तो इस बार शराब खींचनेवाली तांबे की सुंदर डेग को एक ही झटके में खाली कर दूँगा और इस तरह भविष्य में बार-बार आने-जाने का कष्ट सहना नहीं पड़ेगा।’

तदनुसार उसने कई थैले उठाए और उनके बोझ से हाँफता हुआ पहाड़ पर गया। अच्छे रहन-सहन ने उसपर चरबी चढ़ाकर उसे मोटा बना दिया था। इसलिए वह लक्षित द्वार तक पहुँचते-पहुँचते थक गया। वह थोड़ा आराम करने के लिए बैठ गया और सोचकर प्रसन्न हुआ कि ये दुःखदायी यात्राएँ अब समाप्त हो जाएँगी। उसने एक कल्पना करनी भी शुरू कर दी कि जब वह अच्छी तरह भरे थैलों को अपने घर में खड़ा देखेगा तो फिर क्या करेगा! वह जागीरदार बनेगा या नाईट! पहले चार घोड़ोंवाली बग्घी बनाएगा, कैसी शानदार मेज रखेगा, कैसे-कैसे प्रतिष्ठित अथिति उसके आगे-पीछे होंगे और निकटवर्ती किफोसेन किले के नाईट और अपने संबंधियों के बावजूद, वह उनके साथ शराब पीएगा!

यह सब सोचते हुए वह सीधा खड़ा हो गया। अपने थैले उठाकर अँधेरे रास्ते में लुप्त हो गया। फिर वह शराब खींचनेवाली डेगों के निकट गया, जो क्रम से उसके घटाने के बावजूद, सिरे तक सोने से नई-नई भरी हुई दिखाई दे रहे थीं। वह पहले थैले के साथ एक तरफ को झुका, दोनों हाथ सोने में डाले और थैले को पहला घूँट पिलाने ही वाला था कि एकाएक सारे-का-सारा पात्र उसके हाथ से भयानक ध्वनि के साथ गिर गया तथा नीचे...और नीचे भूमिगत होता गया; उसके इर्दगिर्द लुआठी और गंधक जलने लगे और अत्यधिक निराशा में वह मूर्च्छित हो गिर गया।

उसके चमकीले स्वप्नों और हवाई किलों के साथ सारा संचित धन उससे दूर हो गया। शराब खींचनेवाली तांबे की डेग फिर नजर नहीं आईं, भले ही उसका लोभ पहले की तरह बना हुआ था। उसको सोने का एक टुकड़ा प्रतिदिन संतुष्ट कर सकता था, यदि वह जानता कि संतोष कैसे किया जाता है!

इस तरह लोभ अपने पुजारियों से बदला लेता है!

(अनुवाद : भद्रसैन पुरी)

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