Aazaadi Ki Ladayi (Hindi Nibandh) : Munshi Premchand
आजादी की लड़ाई (हिन्दी निबंध) : मुंशी प्रेमचंद
आजादी की लड़ाई शुरू हो गई। महात्मा गाँधी ने छः अप्रैल को समुद्र के तट पर डंडी में गुलामी की बेड़ी पर पहला हथौड़ा चलाया और उसकी झंकार सारे देश में गूँज उठी। पहले किसी की समझ में न आया कि महात्मा जी क्या करने जा रहे हैं। मजाक भी उड़ाया गया। एक गवर्नर ने अपने खुशामदी टट्टूओं को जमा करके अपने दल के फफोले फोड़ते हुए इस संग्राम को दु:खमय प्रहसन बतलाया। गवर्नर साहब को क्या मालूम था, कि यह दु:खमय प्रहसन दो सप्ताह ही में आजादी का एक प्रचंड प्रवाह सिद्ध हो जाएगा, जिसे नौकरशाही की सारी संगठित शक्ति भी न रोक सकेगी। वह सब किया गया, जो ऐसी परिस्थितियों में स्वेच्छाचारी शासन किया करता है। हमारे नेता चुन चुनकर जेल भेज दिए गए, अफसरों को नए-नए अधिकार दिए गए, वायसराय ने भी अपने स्वरक्षित अस्त्र निकला लिए, यहाँ तक कि इस लू और गर्मी में देवताओं को पर्वतशिखरों से दो-एक बार उतरकर नीचे आना पड़ा, जो भारत के इतिहास में अनहोनी बात थी, लेकिन स्वराज्य-सेना के कदम आगे ही बढ़े जाते हैं। जैसे बच्चे हार जाते हैं, तो दांत काटने लगते हैं, वही हाल नौकरशाही का हो रहा है। कहीं निहत्थी जनता पर डंडों और गोलियों की बौछार हो रही है कहीं जनता में फूट डालने की कोशिश हो रही है, (जिस गवर्नर का हमने ऊपर जिक्र किया है, उसी ने एक-दूसरे मजमे में जमींदारों को इन विद्रोहियों की खबर लेने की सलाह भी दी थी) फिल्मों पर रोक लगाई जा रही है। तार की खबरों का सेंसर किया जा रहा है। हमने इन सब बातों की कल्पना पहले ही कर ली थी। कोई बात हमारी आशाओं के खिलाफ नहीं हुई। अंग्रेजों की दानवता का नाच हम देख चुके हैं। कायरता, कमीनापन, निर्दयता आदि गुणों में इस जाति से बाजी ले जाना मुश्किल है। फिर भी हमारा जो कुछ अनुमान था, उससे कुछ ज्यादा ही हो रहा है। न कोई कानून है, न कायदा, न नीति, न धर्म। बस जिधर देखिए, लबड़-धों-धों, एक घबराए हुए आदमी की बौखलाहट। एक ही अपराध के लिए दो महीने से दो साल तक की सजा और वह भी कठोर। मगर हम इन बातों की शिकायत नहीं करते। इन्हीं अन्यायों से तो हमारी विजय है। सन्निपात मौत के चिह्न हैं।
हम तो महात्माजी की सूझ-बूझ के कायल हैं। जो बात की, खुदा की कसम लाजवाब की! न जाने कहाँ से नमक-कर खोज निकाला, कि उसने देखते- देखते देश में आग लगा दी। कोई दूसरा ऐसा कर नहीं , जो गरीब से गरीब आदमी से वसूल किया जाता हो, और न कोई दूसरा कर ऐसा है , जिसका ऐसेम्बली में इतना विरोध किया हो। अगर हमारी स्मृति भूल नहीं करती तो शायद 1924 में ऐसेम्बली ने इस कर को अस्वीकार कर दिया था और वाइसराय को इसे अपनी स्वेच्छा से स्वीकार करना पड़ा था। कर का व्यापक नियम है, कि वह विलास की वस्तुओं पर लगाया जाना चाहिए। जो चीज जीवन के लिए उतनी ही आवश्यक है, जितनी हवा और पानी, उस पर कर लगाना नीति-विरुद्ध है। अंग्रेजी राज्य के पहले, भारत में यह कर कभी न लगाया गया था। आज भी दुनिया-भर में भारत ही एक ऐसा देश है, जहाँ नमक पर कर लगाया जाता है। मुसलिम स्मृतिकारों ने तो नमक, हवा और पानी पर कर लगाना निषिद्ध बतलाया है, पर हम 150 वर्षों से यह कर देते आए हैं, और मजा यह कि जिस वस्तु पर दो आना मन लागत न आवे, उस पर सवा रुपये मन कर लिया जाता है जो लागत का दस गुना है। सबसे बड़ी बात यह है, कि इस कर को सामूहिक रूप से निहायत आसानी से तोड़ा जा सकता है। ऐसा कोई भूभाग नहीं, जहाँ लोनी मिट्टी न हो और शहर या गाँव, दोनों ही जगहों के आदमी बड़ी संख्या में जमा होकर इसे तोड़ सकते हैं, और सरकारी नमक को बाजार से निकाल बाहर कर सकते हैं। नौकरशाही ने एड़ी-चोटी का जोर लगाया, जितना पशुबल, संभव था, उससे काम लिया, पर कर टूट गया। जिस नियम के भंग करने वालों को सरकार दंड न दे सके, जिसकी रक्षा करने के लिए डंडे के सिवा और कोई दूसरा साधन न हो , वह कानूनी देवताओं में भले स्वरक्षित रहे, पर व्यावहारिक रूप से वह टूट गया और सरकार के लिए अब इसके सिवा कोई उपाय नहीं है, कि इस कर को मंसूख कर दे और अपनी हार स्वीकार कर ले। गवर्नमेंट सोचती होगी कि जब नमक के बड़े-बड़े कारखाने खुल जाएँगे, तो हम उसे जब्त कर लेंगे और इस तरह आजाद नमक को सिर न उठाने देंगे, लेकिन हमारे पास इस चाल का यही जवाब है कि हम अपने- अपने घरों में नमक बनाना उतना ही जरूरी समझ लें, जितना भोजन बनाना। फिर हम देखेंगे कि सरकार अपना नमक कैसे हमारे गले मढ़ती है। लक्षणों से मालूम होता है, कि नमक आंदोलन असर कर रहा है, और नमक के व्यापारियों ने सरकारी नमक मंगाने में आना-कानी शुरू कर दी है। सरकार के इस प्रचंड दमन के फलस्वरूप बाज बड़े शहरों में जनता भी शांति के आदर्श को न निभा सकी, और कराची, बम्बई, पूना और कलकत्ता आदि शहरों में कुछ गोलमाल हुआ, जिससे पुलिस को अपने दिल के अरमान निकालने का अच्छा मौका मिल गया, पर इन दुर्घटनाओं का दोष अगर किसी के ऊपर है, तो वह सरकार है। अगर वह सत्याग्रहियों को कायदे के अनुसार पकड़ लेती, तो कहीं कुछ न होता, जलूसों को रोकना, सत्याग्रहियों को डंडों से पीटना जनता से अगर न देखा जाए, तो हम उन्हें क्षम्य समझते हैं। अगर नौकरशाही को यही विश्वास है, कि निरस्त्र जनता पर लाठियों का प्रहार करके, वह उन पर धाक जमा सकती है, तो यह उसकी भूल है। इन चारों स्थानों में ही पुलिस ने जिस गुंडेपन का परिचय दिया है, वह असभ्य से असभ्य जातियों को कलंकित करने के लिए काफी है।
क्या मुसलमान कांग्रेस के साथ नहीं हैं?
अभी तक तो सरकार के लिए यह कहने की गुंजाइश बाकी थी, कि इस आंदोलन में केवल कांग्रेस के गरम दल वाले हो शामिल हैं, लेकिन दिन-दिन उस पर यह हकीकत खुलती जाती है , कि आजादी की लड़ाई में देश के सभी दल मिले हुए हैं। और अगर उसके मिलने में कुछ कसर थी, तो वह सरकार की हिमाकत और पागलपन की बदौलत पूरी हुई जाती है। पुरानी कहावत है – बुरे दिन आते हैं, तो बुद्धि भी भ्रष्ट हो जाती है। इस वक्त ऐसा जान पड़ता है, कि अंग्रेजों के बुरे दिन आ गए हैं, नहीं तो अंग्रेजी कपड़े को अन्य देशों के कपड़ों से कम महसूल पर लाने का प्रस्ताव पास करने की जरूरत ही क्या थी। गैर सरकारी बहुमत इस प्रस्ताव के विरुद्ध था, पर सरकार ने अपनी जिद से उसे पास करके ही छोड़ा। नतीजा क्या हुआ ! आज पं. मदनमोहन मालवीय, मि. केलकर, मि. अणे, मि. हसन इमाम हमारे साथ हैं और व्यापारी-दल तो बिलकुल अलग ही हो गया। अब सरकार को माडरेटों में नाम लेने के लिए दो-चार लिबरल और रह गए हैं। हमें आशा है, कि उसकी कोई नई हिमाकत यह कमाल भी कर दिखाएगी। हालांकि लिबरलों के विषय में हमें संदेह है कि कोई अनीति, कोई अत्याचार इन्हें जगा सकता है। इनकी आशा अपार है और धैर्य अनंत। वायसराय, सेक्रेटरी, अंडरसेक्रेटरी और भी जिसकी वाणी की कुछ इज्जत है, कह चुके कि डोमिनियन स्टेटस अभी बहुत दूर है , लेकिन हमारे लिबरल भाई हैं, कि उस ‘बहुत दूर’ को ‘बहुत नजदीक’ समझने के लिए बेकरार हैं। लिबरलों की राजनीतिक डिनर-पार्टी ड्राइंग-रूम तक महदूद है , इसलिए सरकार के अंतिम आधार अगर लिबरल हों, तो यह सरकार और लिबरल दोनों ही के लिए आपस में हाथ मिलाने और बधाइयाँ देने का अवसर हो सकता है। अगर इस तिनके का सहारा सरकार लेना चाहती है, तो शौक से ले, मगर सरकार ने शुरू से जिस हिन्दू-मुसलिम वैमनस्य की उपासना की है, उसे इस संकट के अवसर पर कैसे भूल जाती | कहा जा रहा है, और लिखा जा रहा है कि मुसलमान इस आंदोलन में कांग्रेस के साथ नहीं हैं। मुसलमान नेता जत्थेदार बन-बनकर कैद हों, मार खाएँ, कितनी ही कांग्रेस कमेटियों के प्रधान और मंत्री हों, लेकिन फिर भी यही कहा जाता है, कि मुसलमान कांग्रेस के साथ नहीं हैं। जमैयतुल-उलमा जैसा सर्वमान्य मंडल पुकार-पुकार कर कह रहा है, कि नमक का महसूल इसलामी शरीयत के खिलाफ है, पर कहने वाले कहे जाते हैं – मुसलमान इस आंदोलन के साथ नहीं। मालूम नहीं, वह यह कह-कहकर किसे धोखा देना चाहते हैं। हाँ, हम यह मानने को तैयार हैं कि हमारे खान बहादुर, साहबान, जिनकी संख्या ईश्वर की दया से, अंग्रेजों की असीम कृपा होने पर भी, बहुत ज्यादा नहीं हैं मगर खाँ साहब नहीं हैं तो बेशक हमारे साथ तो राय साहब भी तो नहीं है। यों कहिए कि यह उन लोगों का आंदोलन है, जो अपने सारे संकटों का मोचन एकमात्र स्वराज्य ही को समझते हैं। जो गरीब हैं, भूखे हैं, दलित हैं, या जो गैरत से भरा हुआ, देशाभिमान से चमकता हुआ हृदय रखते हैं, और यह देखकर जिनका खून खौलने लगता है, कि कोई दूसरा हमारे ऊपर शासन करे ! इसमें न हिन्दू की कैद है , न मुसलमान की। दोनों ही समान रूप से यह संकट झेल रहे हैं, तो दोनों समान रूप से शरीक हैं। मुसलमान आजादी के प्रेम में हिन्दूओं से पीछे रह जाएँ, यह असंभव है। मिस्र, ईरान, अफगानिस्तान और तुर्की यह सब मुसलमानों ही के देश हैं। देखिए अपनी आजादी के लिए उन्होंने क्या-क्या किया और कर रहे हैं। वह कौम कभी आजादी के खिलाफ नहीं जा सकती। दो-चार मौलवी , दो-चार ‘सर’, दस-पाँच ‘आनरेबुल’ यह हांक लगाये जाएँगे, शौक से लगावें। हिन्दू हों या मुसलमान , जो अंग्रेजी राज्य में धन और अधिकार के सुख लूट रहे हैं, वे अंग्रेजी सरकार के परम भक्त हैं, और रहेंगे और रहना चाहिए। वे किसी के तो नमक हलाल बने रहें। जिसे अपने जीवन-निर्वाह के लिए अपने बाहुबल पर भरोसा नहीं है, जो अंग्रेजों की शरण आकर कोई ओहदा पा जाना ही अपनी जिंदगी का निर्वाण समझता है, वह हमेशा उस पक्ष की तरफ रहेगा, जहाँ उसे सफलता का पूरा भरोसा है। ऐसे लोग खतरे की तरफ भूलकर भी न आवेंगे। अमेरिका के गुलाम भी तो ’गुलामी की आजादी’ की लड़ाई में मालिकों के पक्ष में लड़े थे। ऐसे गुलाम प्रकृति के लोग हमेशा रहेंगे और उनके रहने से किसी आंदोलन का नाश नहीं होता। मगर हमें यह कोशिश करते रहना चाहिए, कि हमारी इस मुसाहलत की हालत में हवा का झोंक न लगने पाए, नहीं तो वह घातक हो जाएगा। कहीं अछूतों को हमसे भड़काने की कोशिश की जाएँगी और की जा रही है, कहीं हिन्दू-मुसलमानों को लड़ा देने के मंसूबे सोचे जाएँगे। हमें इन सब चालों को तीव्र दृष्टि से देखते रहना चाहिए। क्या जमाने की खूबी है, कि जिन लोगों ने अछूतों को उससे कहीं ज्यादा दलित किया है, जितना कट्टर-से-कट्टर हिन्दू-समाज कर सकता था, वह आज अछूतों के शुभचिंतक बने हुए हैं। बेगार की सख्तियों का दोष किस पर है, हिन्दू- समाज पर या सरकार पर? उन्हें अपढ़ रखने का दोष किस पर है, हिन्दू- समाज पर या सरकार पर? उन्हें ताड़ी, शराब, गांजा, चरस पिला पिलाकर कौन रुपये कमाता है, सरकार या हिन्दू समाज ? प्रारंभिक शिक्षा का बिल सरकार ने पेश किया था, या स्वर्गीय मि. गोखले ने? उसे किसने धनाभाव का बहाना कर नामंजूर कर दिया, हिन्दू-समाज ने या सरकार ने? हमें पूरा विश्वास है, कि जिस सरकार ने कितनी ही अछूत जातों को जरायम पेशा बना दिया, उसकी शुभ-चिंतना पर हमारे दलित-समाज के नेता लोग भरोसा न करेंगे। हिन्दू-समाज अपने दलित भाइयों के प्रति अपना कर्त्तव्य समझने लगा है और वह दिन दूर नहीं है , जब आर्य और अनार्य, ऊँच और नीच की कैद नाम को भी बाकी न रहेगी। संभव है, देहातों के कट्टर हिन्दू कहीं-कहीं अब भी उनके साथ वही पुराना बर्ताव करते हों, लेकिन विचारशील हिन्दू-समाज अब उस अन्याय को कायम न रहने देगा।
आजादी की लड़ाई में कौन लोग आगे हैं?
इस लड़ाई ने हमारे कॉलेजों और यूनिवर्सिटियों की कलई खोल दी। हमने आशा की थी, कि जैसे अन्य देशों में ऐसी लड़ाइयों में छात्रवर्ग प्रमुख भाग लिया करते हैं, वैसे यहाँ भी होगा, पर ऐसा नहीं हुआ। हमारा शिक्षित समुदाय, चाहे वह सरकारी नौकर हो, या वकील, या प्रोफेसर, या छात्र, सभी अंग्रेजी सरकार को अपना इष्ट समझते हैं और उसकी हड्डियों पर दौड़ने को तैयार हैं। प्रत्यक्ष देख रहे हैं कि निन्नानवे सैंकड़े ग्रेजुएटों के लिए सभी द्वार बन्द हैं, पर निराशा में भी आशा लगाए हुए बैठे हैं, कि शायद हमारे ही तकदीर जाग जाएँ। देख रहे हैं, कि कांग्रेस के आंदोलन से ही अब थोड़े-से ऊँचे ओहदे हिन्दुस्तानियों को मिलने लगे हैं, फिर भी राजनीति को हौआ समझे बैठे हुए हैं। या तो उनमें साहस नहीं, या शक्ति नहीं, या आत्मगौरव नहीं, उत्साह नहीं। जिस देश के शिक्षित युवक इतने मंदोत्साह हों, उसका भविष्य उज्जवल नहीं कहा जा सकता। हमारा वकील समुदाय तो इस संग्राम से ऐसा भाग रहा है, जैसे आदमी की सूरत देखते ही गीदड़ भागे। हमारे बड़े-से-बड़े नेता – जिनकी जूतियों का तस्मा खोलने के लायक भी यह लोग नहीं – धड़ाधड जेलों में बन्द किए जा रहे हैं, पर यह हैं कि अपने बिलों में मुँह छिपाए पड़े हैं। यहाँ तक कि स्वदेशी वस्तु- व्यवहार की प्रतिज्ञा पर दस्तखत करते हुए भी उसके हाथ काँपने लगते हैं और कलम हाथ से छूटकर गिर पड़ती है। और आजादी का नमक देखकर तो उन्हें जूड़ी-सी चढ़ आती है। हमें यह देखने का अरमान ही रह गया, कि कोई वकील किसी जत्थे का नायक होता। नहीं, वह तमाशा देखना भी खतरनाक समझते हैं। बस, मुल्ला की दौड़ मस्जिद तक। कचहरी गए, और घर आए। उन्हें दीन-दुनिया से कोई मतलब नहीं। इस बेगैरती का भी कोई ठिकाना है । अभी किसी सरकारी पार्टी में शरीक होने का नेवता मिल जाए, तो मारे खुशी के पागल हो जाएँ। नेवते के कार्ड के लिए बड़ी-बड़ी चालें चली जाती हैं, नाक रगड़ी जाती हैं, और वह कार्ड तो साक्षात् कल्प-वृक्ष ही है। गोरी सूरत देखी और माथा जमीन पर टेक दिया। ऐसे लोगों के दिन अब गिने हुए हैं। स्वाधीन भारत में ऐसे देशद्रोहियों के लिए कोई स्थान न होगा। वह जनता, जिसे यूनिवर्सिटियों की हवा नहीं लगी, और आंदोलनों की तरह इस संग्राम में भी आगे-आगे हैं। हमारे छोटे-छोटे दुकानदार , मजदूर, पेशेवर ही सैनिकों की अगली सफों में हैं और भविष्य उन्हीं के हाथ में है। लक्षण कह रहे हैं, कि सूट-बूट वाले अंग्रेजों के गुलामों की वही हालत होने वाली है, जो रूस में हुई है।
यह लोग खुद अपने पाँव में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। जनता और सब मुआफ कर देती है; पर देशद्रोह को वह कभी मुआफ नहीं करती। राष्ट्रीय संस्थाओं को देखिए – गुजरात विद्यापीठ, काशी विद्यापीठ, अभय-आश्रम, गुरुकुल-कांगड़ी, प्रेम-विद्यालय वृन्दावन आदि ने अपने-अपने सिपाहियों के जत्थे भेजे और भेज रहे हैं। उनके छात्र जान हथेली पर रखे मैदान में निकल पड़े हैं, पर यूनिवर्सिटियों ने भी कोई जत्था भेजा? हमें तो खबर नहीं। यूनिवर्सिटियों में भी कोई प्रोफेसर आगे बढ़ा? कहाँ की बात ! अपने लोग यह रोग नहीं पालते। आनंद से भोजन करें, रूसी उपन्यास पढ़ें, ताश खेलें, ग्रामोफोन या रेडियो का आनंद उठायें, या इस झंझट में पड़ें? जिंदगी सुख भोगने के लिए है, झींकने के लिए नहीं। काश यह यूनिवर्सिटियाँ न खुली होतीं, काश आज उनकी ईंट-से-ईंट बज जाती, तो हमारे देश में द्रोहियों की इतनी संख्या न होती। यह विद्यालय नहीं, गुलाम पैदा करने के कारखाने हैं। स्वाधीन भारत ऐसे विद्यालयों को जड़ खोदकर फेंक देगा।
देहातों में प्रोपेगंडे की जरूरत
अब तक हमारे आंदोलन शहरों ही तक महदूद रहे हैं , लेकिन नमक-कर-भंग देहातों में भी जा पहुँचा है। सत्याग्रही दलों का देहातों से पैदल निकलना ऐसा प्रोपेगंडा है, जिसके महत्त्व का अनुमान नहीं किया जा सकता। नौकरशाही का आतंक देहातों पर शहरों से कहीं ज्यादा छाया हुआ है। वहाँ सब-इंसपेक्टर का दर्जा ईश्वर से कुछ ही कम होता है और कांस्टेबुल तो खदमुख्तार बादशाह ही है। कोई आंदोलन जिससे पुलिस के रोब-दाब में फर्क पड़े, उसकी हवा भी वहाँ नहीं पहुँचने पाती। मगर अब समय आ गया है, कि हमारे स्वयंसेवक बड़ी संख्या में देहातों में पहुँचें और जुलूसों से लोगों में राजनैतिक भाव भरें और उन्हें आने वाले महासंग्राम के लिए तैयार करें। अगर देहातों में यह आग लग गई, तो फिर किसी के बुझाये न बुझेगी। हम यह मानते हैं, कि देहातों में नौकरशाही दमन के कठोर-से- कठोर शास्त्रों का प्रहार करेगी, जमींदारों को भड़काएगी, तरह-तरह की ग़लतफ़हमियाँ फैलाएगी, पर हमें इन कठिनाइयों का सामना करना है। हमें यह समझा देना है, कि इस राज्य में सबसे ज्यादा हमारे देहात ही सताए जाते हैं, और स्वराज्य में सबसे ज्यादा हित देहात वालों का ही सिद्ध होगा।
हिन्दू-मुसलिम बांट-बखरे का प्रश्न
भारतीय एकता के विरोधी यह कहते कभी नहीं थकते, कि जब तक हिन्दुओं और मुसलमानों में हिस्से का समझौता न हो जाए, मुसलमान इस संग्राम में शामिल नहीं हो सकते। इस कथन में कितनी सच्चाई है, उसे मुसलिम जनता अब समझने लगी है। वह यह है, कि जब तक एक तीसरी शक्ति इन दोनों जातियों के वैमनस्य से फायदा उठाने वाली रहेगी, एकता का सूर्य कभी उदय न होगा। पूरी एकता तो स्वराज्य मिल जाने पर ही हो सकती है। हिस्से का निश्चय करने के लिए एक से अधिक बार कोशिशें की गईं, यहाँ तक कि आज भी सर तेजबहादुर सप्रू सर्वदल-सम्मेलन करने में लगे हुए हैं, मगर उन कोशिशों का फल क्या निकला? समझौता न हुआ, न हुआ। कोई रोजगार शुरू किया जाता है, तो पहले ही से यह निश्चय नहीं कर लिया जाता, कि हम इतने रुपये फी सैंकड़े नफा लेंगे। पहले तो इसके लिए पूंजी जमा की जाती है। फिर संगठन शुरू होता है, तब माल की तैयारी होती है, इसके बाद खपत का सवाल होता है, आखिर में नफे का प्रश्न आता है। यहाँ पहले ही से नफे के हिस्से तय करने की सलाह दी जाती है। अरे भाईजान, पहले पूंजी तो लगाओ, अभी नफे का क्या सवाल है? हिन्दुस्तान अगर इतने दिनों की गुलामी से कुछ सीख सका है, तो वह यह है कि समाज के किसी अंग को असंतुष्ट रखकर राष्ट्र दुनिया में उन्नति नहीं कर सकता। हमें विश्वास है, कि भारत इस सबक को अब कभी न भूलेगा। महात्मा गांधी ने तो यहाँ तक कह दिया है कि मुसलमान जितना चाहें ले लें, इसमें हिस्से का सवाल ही नहीं। स्वराज्य के अधीन राजपद धन कमाने का साधन नहीं, प्रजा की सेवा का साधन होगा। हम तो यही समझे बैठे हैं। अगर उसमें भी हमारे मुसलमान भाई राजपदों या मेम्बरियों में बड़ा हिस्सा लेने का आग्रह करेंगे, तो स्वराज्य-सरकार उनके मार्ग में बाधक न बनेगी। उस वक्त राजपद वही स्वीकार करेंगे, जो देश के लिए त्याग करना चाहेंगे, धन-लोलुप और विलासी जनों के लिए स्वराज्यशासन में कोई स्थान न होगा।
मशीनगन और शांति
शांति स्थापित करने के दो साधन हैं। एक तो मानवी है, दूसरा दानवी। एक मशीनगन है, दूसरा देश की वास्तविक दशा का समझना और उसके अनुकूल व्यवहार करना। सरकार ने अपने स्वभावानुसार मशीनगन से काम लेना ही उचित समझा है। इसका परिणाम क्या होगा, सरकार को इसकी चिंता नहीं। पुलिस और सेना उसके पास है। देश में जितने स्वाधीनता के उपासक हैं, वह सब बड़ी आसानी से तोप का शिकार बनाए जा सकते हैं। भारत गरीब है, यहाँ ऐसे आदमियों की कभी कमी न रहेगी, जो पेट के लिए अपने भाइयों का गला काटने को तैयार रहें। कांग्रेस के लोग जेल में पहुँच ही गए हैं। और दलों के इने-गिने आदमी हैं, उनको फांस लेना और भी आसान है। रहे हमारे लिबरल भाई, उनकी परवाह ही किसे है? सरकार उनकी सहायता के बगैर भी राज कर सकती है। टैक्सों को दान कर देने का उसे अख्तियार है। इस तरह वह इससे बड़ी फौज भी रख सकती है। मशीनगनों के सामने चूं करने का किसे हौसला हो सकता है। अंग्रेज अधिकारियों के वेतन बड़ी आसानी से बढ़ाए जा सकते हैं। कुछ थोड़े-से ओहदे हिन्दुस्तानियों को देकर बड़ी आसनी से काम लिया जा सकता है। समाचार-पत्रों को एकदम बन्द कर देने से फिर कहीं से विरोध की आवाज भी न आवेगी। सरकार अपने दिल में संतोष कर सकती है, कि अब किसी को कोई शिकायत नहीं रही। रिफार्म की, गोलमेज-कॉफ्रेंस की और डोमिनियन स्टेट्स की चर्चा ही व्यर्थ है। यह इसी दानवी नीति का फल है, कि आज भारत में अंग्रेजों का कोई दोस्त नहीं है। जो लोग अपने स्वार्थवश सरकार की खुशामद करते हैं , वे भी उसके भक्त नहीं हैं। ऐसा प्रजा पर राज करना, अगर अंग्रेजों के लिए गौरव की बात है, तो हम नहीं समझते, कि वह अपनी सभ्यता और उच्चता का किस मुँह से दावा कर सकती है। अगर अंग्रेजों की जगह इस वक्त हब्शी होते, तो वे भी दमन ही तो करते। दमन शासन का सबसे निकृष्ट रूप है और अंग्रेजों ने उसी का आश्रय लिया है। क्या उनका ख्याल है, कि जिस शक्ति से दबकर उन्होंने सुधार किए और कॉफ्रेंस के वादे किए, वह शक्ति अब गायब हो गई है? दमन उस शक्ति को दिन-दिन मजबूत कर रहा है। उस राज्य में लिए इससे बढ़कर कलंक की दूसरी बात नहीं हो सकती कि उसे हर एक बात के लिए मशीनगनों की ही शरण लेना पड़े। जिस राज्य में जनता पर महज इसलिए गोलियाँ चलाई जाएँ, कि वह अपने लीडरों की गिरफ्तारी पर शोक मनाने के लिए जमा होती है, उसे चल-चलाव के दिन अब आ गए हैं। पेशावर में जो हत्याकांड हुआ है, वह कभी न होता, अगर नौकरशाही ने मशीनगन और फौजी हथियारों से जनता को धमकाया न होता। वह जमाना गया, जब जनता पशुबल के प्रदर्शन से डर जाया करती थी। अब वह डरती नहीं, वह उसे अपनी पराधीनता का हेतु समझकर उसकी जड़ खोदने के लिए और दृढ़ संकल्प कर लेती है। नमक कानून टूट गया। सरकार की मशीनगनें उसको न बचा सकीं। लाखों नमक बनाने वाले आज गर्व से सिर उठाए घूम रहे हैं। आर्डिनेंस भी टूट जाएगा। कोई कानून, जिसको राष्ट्र के नेताओं ने स्वीकार नहीं किया है और जिसका केवल पशु बल पर आधार है, अब जनता उसके सामने सिर झुकाने को तैयार नहीं है। सरकार अगर आँखें बन्द रखना चाहती हैं, तो रक्खे, पर उसके आँखें बन्द कर लेने से देश की स्थिति नहीं बदल सकती। देश अब अपनी किस्मत का मालिक आप बनना चाहता है। और उसकी कीमत अदा करने का निश्चय कर चुका है। पेशावर और कराची जैसे कांड उसके पतन को और निकट ला रहे हैं।
[‘हंस’, अप्रैल 1930]