आवाज़ें (कहानी) : भीष्म साहनी

Aawaazein (Hindi Story) : Bhisham Sahni

अब मुहल्ला रच-बस गया है, इसका रूप निखरने लगा है, दो-तीन पीढ़ियों का समय निकल जाए, नई पौध सिर निकालने लगे, बच्चे-बूढ़े-जवान, सभी गलियों में घूमते-फिरते नज़र आने लगें, तो समझो मुहल्ला रच-बस गया है। शुरू-शुरू में तो केवल जमीन तैयार की जाती है, अंकुर तो वर्षों बाद ही फूटते हैं। जब तीन-तीन पीढ़ियाँ एक साथ रहने लगें, एक पीढ़ी ढलने लगे, दूसरी नई-नवेली चहकने-बोलने लगे, आये दिन नए-नए किस्से सुनने को मिलें, कहीं सिर फुटौवल हो तो कहीं ढोलक बजे, तो समझो मुहल्ला रच-बस गया।

इसी इलाके में, दसियों साल पहले, दिन को सुअर घूमते थे और रात को सियार बोलते थे। तब यहाँ पर कच्ची सड़कें थीं, मटमैली-सी, जिन पर मुहल्ले के गिने-चुने निवासी साँझ पड़ने पर, धीरे-धीरे चहलकदमी करते थे। तब तो यहाँ बिजली भी नहीं थी–कहीं पर टिमटिमाते हरीकेन लैंप तो कहीं पर टिमटिमाती मोमबत्तियाँ अँधेरे से जूझती नज़र आती थीं। हर शाम, मुहल्ले में इसी बात की चर्चा रहती कि कब बिजली आएगी। खम्भे लग चुके थे, उन पर तारें भी बिछ चुकी थीं, पर बिजली का कहीं पता नहीं था।

मुहल्ले के सभी निवासी एक-दूसरे से अपरिचित थे, कोई सिंध से आया था, कोई पश्चिमी पंजाब से। कोई किसी लहजे में बात करता, कोई किसी बोली में, कोई मुलतान की बोली बोलता, कोई शिकारपुर की, कोई पोठोहार की, कोई गुजरांवाला की। वे अभी तक अपनी पोशाक भी नहीं बदल पाए थे। कहीं पर ढीली पगड़ी, सलवार, कहीं पर वास्कट, कहीं पर कोट। कोई पेशावरी ढंग से पगड़ी बाँधता, कोई लाहौरी ढंग से। पगड़ी की बनावट से ही अनुमान लगा लिया जाता कि यह आदमी कहाँ से आया होगा। घुटनों तक लंबा कोट और टेढ़ी पगड़ी ही बता देती कि यह आदमी जेहलम में दूकानदार रहा होगा; कुछ लोग अभी भी नीचे सलवार और ऊपर गले में नकटाई बाँधते थे, देखते ही पता चल जाता कि किसी छावनी में सरकारी कारिन्दा रहा होगा। कुछ मूँछों के अंदाज से पता चल जाता–घनी, लटकती मूँछों वाला आदमी आढ़ती रहा होगा, और चुस्त मूँछोंवाला छोटा-मोटा साहिब-ए-जायदाद।
सभी अपने-अपने संस्कार लेकर आए थे। पश्चिमी पंजाब के देहात से आनेवाला मक्खनलाल अभी भी मुहल्ले में तहमद बाँधे घूमता था, घुटा हुआ सिर, बलगमी देह, नीचे तहमद और देसी जूते। सस्ते ‘पोपट’ मारका सिगरेट पीता और चुटकी बजाकर राख झटकता था, और आँखें बंद करके कश खींचता था। न जाने यह कैसे हुआ पर वहाँ पाकिस्तान से अपनी गाय और उसका बछड़ा भी लेता आया था। सलोनी-सी किरमिची रंग की गाय थी और छोटा-सा चितकबरा बछड़ा जो सारा वक्त अपनी माँ के आसपास कूदता रहता था। मुहल्ले में वही एक आदमी था जिसके आँगन में गाय बँधी रहती थी।

‘‘भांड़ा-टिंडर, कपड़ा-लत्ता सब वहाँ छोड़ आए हैं, पर अपनी बुलबुल को तो नहीं छोड़ सकते थे ना? क्यों जी? हम ही जानते हैं हम कैसे इसे ला पाए हैं। हमने सोचा, और नहीं, घर का दूध-दही तो होगा, गौ माता की सेवा तो करेंगे। बाजार का दूध तो निरा पानी होता है, उसे कौन पिए!’’

वकील माणिकलाल ने उससे कहा भी कि देखो, मक्खनलाल, इन नई बस्तियों में सरकार गाय-भैंस नहीं रखने देगी, जिस पर मक्खनलाल ने गाय के गले में हाथ डाल-कर उसे दुलारते हुए कहा, ‘‘इस बुलबुल को तो यहाँ से कोई निकाल नहीं सकता जी, इसके दूध की लस्सी तो आप सबको भी पिलाएँगे…’’ यों संस्कारों की बात है, मक्खनलाल अपने आँगन की दीवार के पास ही पेशाब करने भी बैठ जाता था। वकील माणिकलाल ने जब उसे समझाया–दोनों मिन्टगुमरी से आए थे, हालाँकि इस मुहल्ले में पहुँचकर ही उनका परिचय एक-दूसरे के साथ हुआ था–देखो मक्खनलाल, इस तरह गली में पेशाब नहीं करते, तो बड़ी सादगी से बोला था :

‘‘क्यों जी, अपने ही घर के सामने तो करता हूँ, किसी दूसरे के घर के सामने तो नहीं करता। आप इत्मीनान रखें मजाल है किसी दूसरे के घर जाता–घनी, लटकती मूँछों वाला आदमी आढ़ती रहा होगा, और चुस्त मूँछोंवाला छोटा-मोटा साहिब-ए-जायदाद।

सभी अपने-अपने संस्कार लेकर आए थे। पश्चिमी पंजाब के देहात से आनेवाला मक्खनलाल अभी भी मुहल्ले में तहमद बाँधे घूमता था, घुटा हुआ सिर, बलगमी देह, नीचे तहमद और देसी जूते। सस्ते ‘पोपट’ मारका सिगरेट पीता और चुटकी बजाकर राख झटकता था, और आँखें बंद करके कश खींचता था। न जाने यह कैसे हुआ पर वहाँ पाकिस्तान से अपनी गाय और उसका बछड़ा भी लेता आया था। सलोनी-सी किरमिची रंग की गाय थी और छोटा-सा चितकबरा बछड़ा जो सारा वक्त अपनी माँ के आसपास कूदता रहता था। मुहल्ले में वही एक आदमी था जिसके आँगन में गाय बँधी रहती थी।

कुछेक परिवार सिंधियों के थे। सिंधी ‘साईं’ सफेद कुर्ता और चौड़े पायँचोंवाला चमचमाता सफेद पाजामा पहनते, सिर पर काले रंग की किश्तीनुमा टोपी। लगता, जैसे आते समय पाकिस्तान से नए कपड़े सिलवाकर लाए हैं। और कमीज पर सुनहरे बटनों की लड़ी। कोई विरले ही होगा जिसने कमीज में सुनहरी बटन न लगा रखे हों। सिंधी स्त्रियाँ घरों में से निकलतीं तो शोख कपड़ों में, कहीं पर अधकटे बाल कंधों पर झूलते, कहीं पर लिपिस्टिक, रंग-रोगन, लगता हिंदुस्तानी लड़कियों को उनके पिछड़ेपन से ‘आज़ाद’ कराने आई हैं।

दिन-भर ये लोग न जाने कहाँ-कहाँ भटकते रहते, पर शाम को बस्ती में थोड़ी-बहुत रौनक होती। शाम के वक्त ये एक-दूसरे से परिचय बढ़ाते, भविष्य के बारे में अटकलें लगाते, म्युनिसिपैलिटी और सरकार को बुरा-भला कहते, कोई-कोई अपनी जगह ऐंठता भी। विरले ही कोई यह कहने से चूकता हो–सिवाय शायद मक्खनलाल के कि पीछे पाकिस्तान में उसके कितने घर थे, कितनी दूकानें थीं, कितने नौकर-चाकर थे, अपनी किस्मत की दुहाई तो मक्खनलाल भी देता, पर साथ ही ठहाका मारकर यह भी कहता :
‘‘क्यों जी, पाकिस्तान नहीं बनता तो हम दिल्ली की सैर कहाँ कर पाते? वहीं कस्बे में ही पड़े सड़ते रहते, वाह गुरु महाराज, तेरियाँ बरकताँ, तूने दिल्ली दिखा दी। अब सारी उम्र तेरी दिल्ली की सैर करेंगे। क्यों जी?’’
पता नहीं चल पाता कि हँसी में कह रहा है, या व्यंग्य में।

वकील माणिकलाल को सड़क के बीचोबीच चलने की आदत थी। छाती तानकर और मुँह ऊँचा करके चहलकदमी करता, और सदा अकेला चलता; जैसे ताँगे में से खोल दिए जाने पर घोड़ा सड़क के बीचोबीच चहलकदमी करता है। माणिकलाल की मुद्रा कहती हुई जान पड़ती, मैं वह नहीं हूँ जो तुम समझ बैठे हो–एक शरणार्थी–यह तो न जाने भाग्य के किस थपेड़े ने यहाँ पहुँचा दिया, वरना इस समय मिन्टगुमटी में आनरेरी मैजिस्ट्रेट होता। और यहाँ पर भी मजबूरी में, इस बस्ती में तुम लोगों के बीच पटक दिया गया हूँ।

सभी घर एक जैसे थे, एक बराबर क्षेत्रफल में बने हुए दो-मंजिले घर। सभी की बनावट एक जैसी थी; सामने आँगन, आँगन के पीछे दो कमरे, साथ-साथ जुड़े हुए, पीछे बरामदा, आँगन में से ही ऊपर को सीढ़ियाँ जाती थीं, ऊपर की मंजिल पर भी वैसे ही दो कमरे, और उनके सामने एक छोटी-सी बालकोनी। नीचे सभी के आँगन जुड़े हुए थे और बीच में छोटी-सी दीवार थी जो लगभग दो फूट ऊँची रही होगी, इस कारण, हमसाए अपने-अपने आँगन में बैठे हुए भी, एक-दूसरे के साथ हँस-बोल सकते थे, बच्चे दीवार के आर-पार आँखमिचौली खेलने लगे थे, बुजुर्ग आर-पार खड़े अपनी-अपनी आपबीती सुनाया करते, जवानों के बीच नई-नई दोस्तियाँ पनपने लगी थीं।

धीरे-धीरे जिंदगी के तौर-तरीके भी कुछ-कुछ बदलने लगे थे, अपने-अपने संस्कारों के बावजूद, पुराने बंधन ढीले पड़ने लगे थे। कुछ बहुओं ने सिर ढकना अभी से छोड़ दिया था। लाला दीवानचंद के बेटे ने एक फटीचर-सी मोटर-साइकिल खरीद ली थी, और उसकी बहू, लाला दीवानचंद की आखों के सामने, कूदकर अपने पति के पीछे चढ़ बैठती। लाला दीवानचंद अपने परिवार के साथ जेहलम से आए थे। जब जेहलम में थे तो उनकी बहू कभी भी सिर ढके बिना घर से बाहर नहीं निकलती थी। ताँगे पर भी बैठती तो मुँह-सिर लपेटकर, पिछली सीट पर, गुच्छा-मुच्छा होकर, जब कि उसका पति अगली सीट पर गाड़ीवान के साथ बैठता था। उनका एक साथ बैठना बेशर्मी माना जाता था। पर अब सिर ढकना तो दूर रहा कई बार बह अपनी चुन्नी को कमर में बाँध लेती और खिले-खिले चेहरे के साथ हँसती हुई कूदकर अपने पति के पीछे बैठ जाती थी और लाला दीवानचंद देखते रह जाते थे। और अब तो बहू नौकरी की तलाश में भी जाने लगी थी।

जहाँ जवान लोग अपने अतीत से नाता तोड़ रहे थे, वहाँ बुजुर्ग लोग अपने अतीत के साथ फिर से नाता जोड़ पाने की कोशिश में थे। लाला दीवानचंद अपने घर के आँगन में हवन-संध्या का आयोजन करने लगे थे और अपने धर्मभाइयों को ढूँढ़-ढाँढ़ कर अपने ही घर में साप्ताहिक सत्संग लगाने लगे थे। बाजार से एक हवन कुंड खरीद लाए थे, जो हवन कुंड न होकर लोहे का बना कूड़ादान ज्यादा नजर आता था।

डाक्टर मोहकमचंद की सोच दूसरी थी। डाक्टर मोहकमचंद पेशावर से आया था और जब भी वह बोलता तो सुननेवालों को पेशावर का किस्साखानी याद हो आता था। पेशावर में वह केवल डाक्टरी किया करता था, पर मस्ती में आ जाने पर उसके सिर पर यह धुन सवार हुई कि समाज-सेवा करनी चाहिए। या तो उसने बहुत मार-काट देखी थी उसका असर रहा हो, या उसके दिल में लीडर बनने की ललक कसमसाने लगी हो, भगवान् जाने, पर वह सुबह एक वक्त मरीज देखने से पहले लोगों की अर्जियों पर तस्दीकी दस्तखत करता, कोई बिजली के लिए तो कोई पानी के कनेक्शन के लिए। अर्जी पर अपना दस्तखत करते समय उसे अपार संतोष का अनुभव होता। उसने अपने नाम की एक छोटी-सी मोहर भी बनवा ली थी। मोहर लगाने से पहले उसे मुँह के पास अपनी साँस से गरमाता और फिर ठप्पा लगा देता। इसके बाद तीन घंटे तक मरीजों को देखता और फिर सभी अर्जियाँ थैले में डालकर अपनी साइकिल पर सवार हो जाता, और सात मील तक पैडल मारता चाँदनी चौक में जा पहुँचता जहाँ बिजली-पानी के दफ्तर थे।
सब अपनी-अपनी धुन की बात है। तरह-तरह के लोग, तरह-तरह के संस्कारों-विचारों वाले लोग मुहल्ले में आकर बस गए थे।

वकील माणिकलाल का घर चार नंबर ब्लॉक में था, पर घूमने, चहलकदमी करने वह आठ और नौ ब्लॉक की सड़कों पर आया करता था, क्योंकि यहाँ पर रौनक ज्यादा रहती थी और वह ‘इम्प्रेस’ मार सकता था कि लोग उसे देखें और कहें कि ‘‘देख, वकील माणिकलाल जा रहा है।’’ यहाँ नए मुकद्दमे हासिल करने की गुंजाइश भी ज्यादा थी, इसी सूझ के बल पर ही वह लोगों के साथ भी मेलजोल बढ़ाने लगा था।

मकान अलॉट होने पर उसी ने सबसे पहले अपने घर की टीप-टाप शुरू करवा दी थी। आँगन की दीवार में फाटक लगवाया–पहले कहीं पर भी फाटक नहीं था–हमसायों के साथ लगनेवाली दीवार को ऊँचा उठाया–छोटी दीवार से बेपर्दगी होती है–आँगन में पक्का फर्श बिछवाया था।
‘‘हमारे रहने लायक तो हो जाए। कुछ तो अपने स्टैंडर्ड के मुताबिक हो जाए।’’
वह हर राह जाते से कहता।
ऐन जब फर्श बिछ गया, फाटक और खिड़कियों-दरवाज़ों पर हरा रंग पुत गया, और माणिकलाल के नाम की संगमरमर की शिला गेट की बगल में लग गई तो उसने मुहल्ले के लोगों को ‘पार्टी’ देने का निश्चय किया।
यह इस बस्ती में पहली पार्टी थी और बिल्कुल अपनी तरह की थी।

बहुत दिनों से बस्तीवालों के बीच इस बात की चर्चा चल रही थी कि मिल-बैठने की कोई व्यवस्था होनी चाहिए, महीने में एकाध बार, ताकि लोग एक-दूसरे के ज्यादा नजदीक आ सकें। पहले विचार हुआ था कि यह बैठक इंजीनियर आहूजा के घर पर की जाए, उसी ने सबसे पहले इसका सुझाव भी दिया था, और उसकी दो जवान बेटियाँ थीं जो मेहमानों की देखभाल कर सकती थीं, वकील माणिकलाल ने बात काट दी थी :
‘‘बैठक करोगे तो वही पानी-बिजली का रोना रोते रहोगे। करना है तो चाय-पार्टी करो। चलो, तुम मेरे घर आओ, मैं पार्टी करूँगा।’’
लोग खुशी से मान गए थे। पर सभी ने आग्रह किया कि सादा-सी पार्टी हो, बस चाय-बिस्कुट, ताकि किसी को बोझ महसूस न हो। इस पर वकील माणिकलाल बोला था :
‘‘मेरे घर आओगे तो क्या बिस्कुट खाओगे? वकील माणिकलाल की नाक कटवाओगे? उसके मुँह पर कालिख पोतोगे?’’
लोग चुप हो गए थे और तारीख मुकर्रर हो गई थी। इसे लोगों ने माणिकलाल की मेहमाननवाजी समझा था।
वकील माणिकलाल बस्ती का बेताज बादशाह बनना चाहता था, साथ ही साथ वह अपनी वकालत चला पाने की फिक्र में भी था, और बस्ती के ‘पिछड़े’ हुए लोगों के सामने ऊँची सोसाइटी क्या होती है, इसकी मिसाल भी पेश करना चाहता था।

पर बात बनते-बनते रह गई। बस्ती के लोगों को एटिकेट सिखाने में वह कामयाब नहीं हो पाया। उसने अपनी इंतजाम में कोई कसर उठा नहीं रखी थी, तीन मेज जोड़कर एक लंबा मेज तैयार कर लिया था। और फिर नेप्किन और छूरी-काँटे और खाने के लिए ढेर सारा सामान न जाने कहाँ-कहाँ से बटोर-बटोरकर इकट्ठा कर लिया था, पर बात नहीं बन पाई। कारण जब पार्टी बड़े करीने से चल रही थी, वह मुहल्लेवालों को शाइस्तगी के सबक सिखा ही रहा था और लोग ‘इम्प्रेस’ हो रहे थे, जब पार्टी में मक्खनलाल पहुँच गया था।

अब तक मुहल्ले में मक्खनलाल को मनचले युवकों द्वार ‘डब्बू’ की संज्ञा दी जाने लगी थी। घुटा हुआ सिर और बलगमी देह–‘बुलबुल’ के खालिस दूध का पला हुआ–छोटी-सी तोंद और चेहरा भी कुछ-कुछ तपा हुआ, वकील माणिकलाल की पार्टी में वह मैली तहमद पहने ही पहुँच गया था। वह भी अढ़ाई गजी और गोंद के नीचे मोटी गाँठ द्वारा बँधी हुई और जिसका एक तिकोन-सा पल्ला नेफे में से खिसक आया था। और फर्श पर उसके साथ-साथ घिसट रहा था।
सदा की भाँति वह हाथ जोड़े-जोड़े आया :
‘‘माफ करना जी, देर हो गई। यही शाम का वक्त होता है दो पैसे कमाने का। माल सँभालते-समेटते देर हो गई।’’

उस दिन भी मक्खनलाल का घुटा हुआ सिर पसीने की हल्की-सी परत से चमक रहा था। जिस समय वह अंदर आया उस समय वकील माणिकलाल किसी बड़ी कंपनी के अपने शेअरों की बात कर रहा था और सुननेवालों पर ‘इम्प्रेस’ मार रहा था। मक्खनलाल का यों गँवारों की तरह अंदर घुस आना उसे अखरा। बैठते ही ‘डब्बू’ ने अपना ‘पोपट’ मारका सिगरेट सुलगा लिया, और दो-तीन सीधे कश खींचे और फिर चुटकी बजाकर फर्श पर ही सिगरेट की राख झाड़ता हुआ आसपास बैठे लोगों का अभिवादन करने लगा।
इंजीनियर आहूजा की बेटी ने चाय का प्याला उसकी ओर बढ़ाया तो ‘डब्बू’ ने हाथ जोड़ दिए।
‘‘नहीं बहिन जी, हम तो लस्सी-दूध पीनेवाले आदमी है। चाय-कॉफी से हमारा कुछ नहीं बनता।’’
और फिर गुढ़क कर हँस दिया, और चुटकी मारकर सिगरेट की राख फर्श पर छिड़क दी। सिगरेट के दो कश और लगाए और सिगरेट के ठूँठ को फर्श पर फेंककर उसे जूती तले मसल दिया।
‘डब्बू ने सबका ध्यान अपनी ओर खींच लिया था। वह बोलता भी गहरी खरज आवाज में था जो सारे घर में गूँजती थी और बैठता तो टाँगे फैलाकर।
चाय-पार्टी में ज्यादा मर्द ही थे, स्त्रियाँ थीं तो, या तो वकील माणिकलाल के घर की या कप्तान की दोनों पत्नियाँ या फिर आहूजा इंजीनियर की दो बेटियाँ।
कप्तान की बीवियाँ, पहले तो वकील माणिकलाल की पत्नी के साथ बैठ गई थीं, पर फिर छोटी पत्नी उठ खड़ी हुई, और यह दिखाने के लिए वह जवान लड़कियों के बीच ही फबती है, इंजीनियर आहूजा की बेटियों के पास जा बैठी।
डब्बू की ऊँची खरज आवाज फिर सुनाई दी। हाथ बाँधकर इंजीनियर आहूजा से कह रहा था :
‘‘कहीं छोटा-मोटा काम हमें भी दिलवा दो इंजीनियर साहिब, आप लोगों की तो ऊपर तक पहुँच है।’’
मक्खनलाल दिल्ली में आने के कुछ ही दिन बाद करोल बाग में ठेला लगाने लगा था। हेंक लगाकर कपड़ा बेचा करता था। नई बस्ती के लोग अपने कार-व्यापार की चर्चा कम ही करते थे। मक्खनलाल का इस तरह से बोलना, वणिक माणिकलाल को अखरने लगा। मक्खनलाल कहे जा रहा था :
‘‘ओ बादशाहो, वह भी कोई काम है? बेसवा की तरह, सारा दिन ग्राहकों को बुलाते रहो ‘‘लट्ठा, चाभी,…चार आने छींट जापानी…चार आने…।’’
उसने मुँह टेढ़ा करके, अपनी ही नकल उतारते हुए ऊँची आवाज में कहा, ‘‘बोल-बोल कर तो मेरा मुँह टेढ़ा हो गया है जी, और आवाज ऐसी बैठ गई है कि ठीक ही होने में नहीं आती।’’ फिर, अपनी तर्जनी सामने करके ‘अखाण’ सुनने लगा :
‘‘सियाने कह गए हैं जी–उत्तम खेती, मद्धम व्यापार, निखिद्ध चाकरी!’’
‘निखिद्ध चाकरी’ पर उसने तर्जनी को जोर से झटका, पानो उसने पते की बात कह दी हो कि किसी की चाकरी करना सबसे बुरा है। पर वास्तव में वह ‘निखिद्ध’ चाकरी कर पाने के लिए ही इंजीनियर आहूजा से इल्तजा कर रहा था।

‘‘नौकरी में कोई फिकर-फाका तो नहीं ना, साफ-सुथरी चीज है, वक्त पर गए, वक्त पर घर लौट आए, क्यों जी? पर ठेला लगाओ तो मा-याँ न दिन को चैन, न रात को आराम,’’ कहते-कहते उसे भान हुआ कि उसके मुँह से गाली निकल गई है, वह क्षण-भर के लिए खिसियाया और फिर हाथ बाँध दिय :

‘‘माफ करना जी, आप लोग तो पढे-लिखे आलिम-फाजिम हो, हम जाट-बूट मुँह में से माँ-याँ, कभी-कभी गाली निकल जाती है।’’ डब्बू ने कहा फिर कमीज के पाकेट में से सिगरेटों की डिब्बी निकालकर एक और सिगरेट सुलगा ली।
वकील माणिकलाल को लगा–पार्टी खटाई में पड़ती जा रही है। पर डब्बू बोले जा रहा था।
‘‘घर में से निकाल-निकालकर आदमी कितने दिन तक खा सकता है। क्यों जी? बीबी के जेवर बेचकर तो घर की आधी किस्त चुकानी है, फिर घर में चार जीव खाने वाले। क्यों जी?’’
फिर वह हाथ की उँगलियों पर एक-एक करके गिनने लगा कि रोटी-भाजी पर कितना खर्च आता है, आटे-दाल पर कितना, बच्चों के कपड़े-लत्ते, स्कूल की फीस पर कितना…
‘‘क्यों जी, ऐसे कितने दिन तक काम चलेगा? आप मुझे काम दिलवा दो, फिर देखो, मैं कैसी आप लोगों की खिदमत करता हूँ।’’
‘‘डब्बू की बातों से कुछ लोग झेंपने लगे थे, पर कुछ हँसने-बोलने भी लगे थे। कुल मिलाकर तनाव ढीला पड़ने लगा था। हाँ, वकील माणिकलाल मन-ही-मन कुढ़ रहा था–इस गँवार ने सारी पार्टी चौपट कर दी है। पर डब्बू मजे में बतियाए जा रहा था।
उन दिनों डब्बू ही था जिसने मुहल्ले में थोड़ी-बहुत शोहरत हासिल कर ली थी। और बहुत-से लोग उससे कन्नी काटने लगे थे।
डब्बू के बारे में कहा जाने लगा था कि घर में से निकलने पर जो स्कूटर व मोटर-साइकिल सामने से जाता देख लेता उसी को हाथ देकर खड़ा कर लेता था, और अभी मोटरसाइकिल वाला पूछ ही रहा होता कि उसे क्यों रोका गया है कि डब्बू कूदकर पीछे बैठ जाता था।
‘‘मुझे रास्ते में कहीं उतार देना।’’
‘‘मैं तो कन्नाट प्लेस जा रहा हूँ।’’
‘‘ठीक है, कन्नाट प्लेस ही में उतार देना।’’
अगर मोटरसाइकिल वाला कहता कि वह चाँदनी चौक को जा रहा है तो डब्बू भी यही कह देता, ठीक है, मुझे चाँदनी चौक उतार देना।

एक बार डब्बू किसी स्कूटर या मोटरसाइकिल के पीछे बैठ जाए तो उसे उतारा नहीं जा सकता था। स्कूटरवाले के ठिकाने पर पहुँचकर ही उतरता था। वास्तव में वह किसी काम से नहीं, केवल हवाखोरी के लिए चढ़ बैठता था। ठेलेवाला काम उसे रास नहीं आया था, या तो उससे ऊबकर या यह सोचकर कि काम तो होता ही रहेगा, दिल्ली की थोड़ी सैर तो कर लें, वह निकल पड़ता था। और स्कूटर पर बैठते ही गाने लगता, कोई लंबी तान छेड़ देता।

मुहल्ले के लोगों का ध्यान डब्बू की ओर तब से जाने लगा था जब एक रात वह अपने घर के सामने खड़ा चिल्ला रहा था। उस वक्त भी वह हाथ जोड़े हुए था, और सामने ही जमीन पर बैठी अपनी बुढ़िया माँ से चिल्ला-चिल्ला कर बिनती कर रहा था :
‘‘चल अंदर! रब्ब दा वास्ता ई, चल अंदर। गली-मुहल्ले के साहमणि मेरी मिट्टे पलीद न कर। चल अंदर!’’
‘चल अंदर’ किसी गीत की स्थायी पंक्ति-सा लग रहा था।
माँ गुमसुम जमीन पर बैठी थी। डब्बू माँ का हाथ पकड़कर खींचता तो वह फाटक को दोनों हाथ से पकड़ लेती और एड़ियाँ रगड़ने लगती और फाटक के साथ चिपक जाती।
इस पर डब्बू और ज्यादा ऊँची आवाज में चिल्लाता :
‘‘ओ माए, मैनू बख्श दे! चल अंदर! मैनू रुसवा न कर, चल अंदर!’’
बुढ़िया माँ चुप्पी साधे थी। न हूँ, न हाँ। पर जब भी वह उसे खींचता वह फाटक के पल्ले से चिपक जाती और एड़ियाँ रगड़ने लगती।
अंत में लाचार होकर डब्बू ने दोहत्थड़ पीट दिया :
‘‘अंदर नहीं चलेगी तो मेरा गड़ा मुर्दा देखेगी।’’
इस पर बुढ़िया दहाड़ मारकर रो पड़ी।
अब तक सारा मुहल्ला जाग पड़ा था, लोग बालकनियों में आ गए थे। डब्बू के दोनों बच्चे–दोनों बेटे–भी भागते हुए बाहर आ गए थे।
बालकनियों में खड़े लोग जानना तो चाहते थे कि क्या बात है, माँ-बेटा क्यों झगड़ रहे हैं, पर नीचे कोई नहीं उतरा, सभी जानते थे कि दूसरे दिन डब्बू स्वयं ही सभी को सुना आएगा कि कलह किस बात को लेकर उठी थी।

‘‘ओह जी, वही झगड़ा जो पराचीन से चला आ रहा है!’’ वह दूसरे दिन डॉक्टर मोहकमचंद की दूकान के सामने खड़ा सुना रहा था, ‘‘सास-बहू का झगड़ा, और क्या! मैं अपनी माँ से कहता हूँ, भली लोक, तू ही चुप हो जा। अब मैं अपनी घरवाली पर रोज हाथ उठाऊँ, यह भी तो अच्छा नहीं लगता। गाँव की बात दूसरी थी, पर यह तो दिल्ली है। मुल्क का दारुलखिलाफा है…बात क्या हुई जी, मेरी घरवाली के मुँह से निकल गया कि मायके में उसे रोज खाने के साथ दही मिलता था। अब मैंने कहा, तू फिकर नहीं कर। गाय का दूध सूख गया है पर अगली सू के बाद फिर से घर से दूध-दही होगा। वह चुप हो गई। पर मेरी माँ कहाँ चुप रहनेवाली थी। कहने लगी, ‘इतने ही बड़े राजे-रजवाड़े थे तेरे माँ-बाप, तो दहेज में दो भैंसे दे देते।’ माँ कभी सीधी बात नहीं करती, हमेशा लगाकर बात करती है, भले ही अगले आदमी का दिल लूस जाए। यह भगवान ने औरत जात को कैसा टेढ़ा बनाया है, डाक्टर साहिब, आप ही कुछ बताओ। बीवी फिर भी चुप रही। मेरी घरवाली में यह बड़ा सिफत है, आगे से बोलती नहीं है, चुप रहती है, पर जब बोलती है तो सीधा छाती में तीर मारती है कि अगला तड़प जाए। अबकी बार मुँह नीचा किए-किए ही बोली, ‘किसी के घर में भैंसें बाँधने की जगह होती तो वे भैंसें भी भेंज देते।’ इस पर माँ को ताप चढ़ गया, ‘ले सुन ले। सुन ले बरखुरदार, तेरे बाप को कंगाल कह रही है। यह आई महल-माड़ियोंवाली, हवेलियोंवाली…’ और माँ ने रोटी की थाली आगे से पटक दी, ‘‘इसके हाथ की रोटी खाऊँ, बुरी वस्त खाऊँ…’ और बड़बड़ाती बाहर निकल गई। यह किस्सा है, मेहरबान बाहर इसने भूख हड़ताल कर दी। यह गांधी बाबा जो घर-घर में भूख हड़ताल करना सिखा गया है, कभी माँ भूख हड़ताल कर बैठती है, कभी घरवाली…’’

पर पार्टी में मक्खनलाल अपने रंग में था। पार्टी भी धीरे-धीरे रंग पकड़ने लगी थी, लोग बतियाने लगे थे, कोई मुल्तानी बोली में, कोई पेशावरी में, कोई पोठोहारी में, और इनके बीच तहमद पहने बैठा मक्खनलाल, टाँगें फैलाए अपनी ही रौ में बोले जा रहा था। अगर किसी को कोफ्त हो रही थी तो वह वकील माणिकलाल था, जिसे उसका ‘गँवारुपन’ अखर रहा था।
सहसा मक्खनलाल चहक कर बोला :
‘‘गाना होना चाहिए, बादशाहो। महफिल में रंग तो मौसीकी से आता है।’’ और अपनी ही उर्दूदानी पर गुढ़ककर हँसने लगा :

‘‘हम छोटे थे तो हम झलार पर तफरीफ के लिए जाते थे। पूरा आमों का पछड़ा लेकर जाते, आमों को ठंडी रेत में दबा देते, और ‘सरदाई’ बनाते। फिर घंटे-दो-घंटे झलार में अश्नान करते। हमारे झलार का पानी गर्मियों में ठण्डा और जाड़ों में गुनगुना, फिर पेड़ के नीचे आम चूसते और ‘सरदाई’ पीते, वाह बहिश्त था बहिश्त! तब महमूदा गाता था, कभी टप्पे, कभी हीर, कभी मिर्जा-साहिबां। खूब मजा रहता था। कुछ सुनाओ जी…सुनाओ, गाना हो जाए…’’
उसने एक ओर खिड़की के पास बैठी तीन लड़कियों को संबोधन करते हुए कहा, पर तीनों शर्मा गईं और नजर नीचे कर ली। वकील माणिकलाल को डब्बू का लड़कियों से गाने के लिए कहना भी बुरा लगा। वह कुछ कहने ही जा रहा था कि कहीं से आवाज आई :

‘‘तुम ही कुछ सुनाओ, मक्खनलाल!’’
मक्खनलाल हँस दिया :
‘‘मेरी तो आवाज ही फटे ढोल जैसी है। मैं क्या गाऊँगा। इधर कितने नौजवान बैठे हैं। गाओ बेटे, कुछ सुनाओ।’’
पर कोई गाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
‘‘ओ, रीत तो करो! आज पहली बार मुहल्लेदार मिल बैठे हैं। अब यही हमारी बिरादरी है, यही सुख-दुख के साथी हैं, रीत तो करो।’’
‘‘तुम ही रीत करो, मक्खनलाल!’’
यही सही, और कोई नहीं गाता तो हम ही सही।’’
उसने सिगरेट फर्श पर फेंका, खँखारा। मूँछों के पल्ले दाएँ-बाएँ किए, घुटे सिर पर हाथ फेरा और आँखें बंद करके गाने लगा :

‘‘सूहे वे चीरे वालिया, मैं कहनी आं
कर छतरी दी छाँह, वे छावें बहनी आं’’
(लड़की अपने प्रेमी से कहती है : अपना छाता खोल दो ताकि मैं साए में बैठ जाऊँ!)

खिड़की के पास बैठी तीनों लड़कियाँ खी-खी कर हँस दीं, फिर अपनी हँसी को दबा पाने के लिए मुँह में रूमाल ठूँसने लगीं। फिर भी जब हँसी नहीं रुकी तो एक-एक करके वहाँ से भाग गईं। वह तो गनीमत थी कि उनकी पीठ डब्बू की ओर थी और वह देख नहीं पाया।

‘‘सूहे वे चीरे वालिया, फुल तोरी दा
बाझ तेरे भाई वे नहीं कुझ लोड़ी दा।’’
मक्खनलाल अब चुटकी बजा-बजाकर गाए जा रहा था। न सुर, न लय, पर वह चुटकी बजाता, सिर हिलाता जा रहा था। आँखें अभी भी बंद थीं। पर तीसरे पद पर आते-आते उसकी आवाज काँपने लगी :

‘‘सूहे वे चीरे वालिया, फुर किकरां दे
किकराँ लाई बहार, मेले मितरा दे।’’
(बबूल के पेड़ पर फूल खिल उठे हैं; बहार आ गई है, मित्रों के मिलन के दिन आ गए हैं।)
गाते-गाते उसकी आवाज लड़खड़ाने लगी और वह एक ही पंक्ति को दोहराता चला गया :
‘‘किकरां लई बहार, मेले मितरां दे!’’
और फिर तो इस पंक्ति के अंतिम चार शब्द ‘मेले मितरां दे…’ वह बार-बार अपनी भावविह्वल आवाज में दोहराने लगा, उसे सुनते हुए लगता जैसे ग्रामोफोन की सूई एक जगह पर आकर अटक गई है, पर शीघ्र ही मक्खनलाल भावविह्वल होकर रो पड़ा :
‘‘हाय ओए रब्बा, कित्थे लिया सुटिया ई!’’
(हे भगवान, तूने मुझे कहाँ लाकर पटक दिया है।)
सुनने-वाले बहुत से लोगों के दिल भर आए थे, कुछेक की आँखें नम भी हो गई थीं।
…मेले मितरां दे!
…मेले मितरां दे!
…मेले मितरां दे!
वह गाये जा रहा था, और रोये जा रहा था।

मक्खनलाल को रेने की भी तमीज नहीं थी। उसकी आँखें भी बह रही थीं और नाक भी बह रही थी और वह दोनों हथेलियाँ खोले गाए जा रहा था।
…मेले मितरां दे!
…मेले मितरां दे!
फिर वह चुप हो गया, आँखें खोल दीं और रुँधे गले से बोला :
‘‘माफ करना जी…’’ और झुककर, अपनी तहमद का एक पल्ला उठाकर उससे पहले आँखें पोंछीं, और फिर नाक सुड़का और फिर कुर्सी के साथ पीट लगाकर बैठ गया।
‘‘यह माँ-याँ गीत ही ऐसा है जी, दोस्त-यार आँखों के सामने आ जाते हैं। यहाँ तो मैं अभी भी परदेशी हूँ जी, दिल अभी तक ठिकाने ही नहीं आया…’’
पार्टी पर इसका अजीब असर हुआ। एक प्रकार की स्निग्धता-सी आ गई, लगा जैसे वे सब एक ही नाव में बैठे हैं। और जिनती देर नाव को चलते रहना है, उतनी देर उन्हें इसी नाव पर बने रहना है।

ये सब वर्षों पहले की बातें हैं, लगता है कि एक युग बीत चुका है। बहुत-से लोग मर-खप चुके हैं बहुत-से नए लोग मुहल्ले में रहने आ गए हैं। पहले जो मुहल्ला खाली, खाली लगा करता था अब खचाखच भर गया है। तौर-तरीके बदल गए हैं, रहन-सहन बदल गया है। ‘शरणार्थी’ शब्द पीछे ही कहीं कब का गुम हो चुका है।

मुहल्ला वही है पर उसका नक्शा बहुत कुछ बदल गया है। प्रत्येक घर के आँगन की दीवारें ऊँची उठ गई हैं, अब एड़ियाँ उठाकर भी देखो तो पड़ोस का आँगन नहीं देख पाओगे। कहीं-कहीं पर तो दीवारों के ऊपर लोहे की नुकीली सलाखें या काँच के टुकड़े भी खोंस दिए गए हैं–सुरक्षा के लिए। बहुत-से लोगों ने घरों में कुत्ते रख लिए हैं जो घरों के फाटक के पीछे हर राह जाते पर भौंकते रहते हैं। सुबह होने पर अनेक घरों की मालकिनें या मालिक अपने कुत्तों को हवाखोरी और ‘दिसा-पानी’ के लिए मुहल्ले की सड़कों पर ले जाते हैं। कहते हैं इससे कुत्ते का बदन खुल जाता है। अनेक घरो के सामने मोटरें खड़ी रहती हैं। मुहल्ले की आबादी बहुत बढ़ गई है, सभी ने घरों में किराएदार रख छोड़े हैं, कई लोगों ने तो अपने घरों पर दो-दो मंजिल और बना ली हैं, बारह और तेरह ब्लाकवालों ने निचली मंजिल पर दूकानें बना दी है, छोटी-छोटी दूकानें, कहीं दर्जी बैठता है तो कहीं घड़ीसाज, तो कहीं पान-सिगरेटवाला। मार्कीट की ओर जानेवाली सड़क पर तो घरों के नीचे दूकानें ही दूकानें खुल गई हैं। एक-एक घर में चार-चार परिवार रहने लगे हैं। मुहल्ला सचमुच रच-बस गया है।

पुराने लोगों में वकील माणिकलाल अभी भी जिंदा हैं। पर बहुत बूढ़ा हो गया है। चलता अभी भी सड़क के बीचोबीच है, पर पीठ झुक गई है, छड़ी के सहारे रास्ता टटोल-टटोल कर चलता है। कभी-कभी रास्ता भटक जाता है और किसी अनजान आदमी के घर के सामने जा खड़ा होता है। वहाँ ठिठका खड़ा रहता है मानो उसे सुध ही न हो कि कहाँ पहुँच गया है। अक्सर घरवाले उसे पहचान लेते हैं और घर का नौकर या परिवार का कोई आदमी उसे उसके घर तक छोड़ आता है।

वर्षों पहले की उस पार्टी का अच्छा असर हुआ था कि डब्बू को नौकरी मिल गई थी और उसने करोल बाग में ठेला लगाना और गज-गज छींट बेच पाने के लिए हेंक लगाना छोड़ दिया था। यह नौकरी उसे डॉ. मोहकमचंद के असर-रसूख से मिली थी। डॉ. मोहकमचंद आदमी पहचानता था और उस पार्टी में ही वह समझ गया था कि डब्बू काम आनेवाला व्यक्ति है, जो इसके साथ भलाई करेगा उसके लिए जान की बाजी लगा देगा।

नई नौकरी में डब्बू किसी फैक्टरी के गोदाम के बाहर बैठने लगा था। गोदाम में से जितना माल उठवाना होता तो उसकी पर्ची फैक्टरी के दफ्तर में से बनकर आती थी। डब्बू का काम था पर्ची की पड़ताल करना, और उसी हिसाब से गोदाम में से माल उठवा देना। फैक्टरी में से पर्ची आती, जिस पर बाकायदा ठप्पा लगा होता। यह उस पर अपनी ‘चिड़ी’ मारता, रजिस्टर में चढ़ाता और माल उठवा देता। सीधा-सा काम था, सुबह नौ बजे जाओ, शाम पाँच बजे घर आ जाओ, अल्लाह-अल्लाह, खैर-सल्लाह, न अपनी जेब से पैसा लगता था न कोई जौखिम न कोई चिंता। डब्बू संतुष्ट रहने लगा था। सुबह सवेरे हर रोज सबसे पहले डॉ. मोहकचंद की दूकान के सामने जा खड़ा होता और हाथ जोड़कर कहता, ‘‘आपका दिया खाते हैं, हमें भी कोई खिदमत का मौका दो।’’ यह उसका रोज का दस्तूर बन गया था। डॉ. मोहकमचंद जवाब में मुस्करा देता और अपने पेशावरी अंदाज में हाथ झटककर उसे चले जाने को कहता।
‘‘बताऊँगा, बताऊँगा, जब वक्त आएगा, अब जा, अपना काम देख। रोज-रोज मेरा मगज चाटने नहीं आया कर।’’
इस पर मक्खनलाल हँसकर सिर झटक देता। ‘‘बेहतर, जनाब’’ कहता और अपने जुड़े हुए हाथ माथे को लगाकर वहाँ से चल देता, पर दूसरे दिन वहाँ फिर पहुँच जाता।

तभी नगरपालिका के चुनाव आ गए और बस्ती के बहुत-से लोगों के आग्रह पर डॉ. मोहकमचंद ने भी खड़ा होने का फैसला कर लिया। डब्बू के शरीर में तो जैसे बिजली दौड़ गई। उसे खिदमत करने का मौका मिल गया था। डॉ. मोहकमचंद के निर्वाचन अभियान में कूद गया और जी-तोड़ मेहनत करने लगा। गोदाम से लौटते ही, तहमद बाँध लेता, और सड़क पर निकल आता और सिगरेट के कश छोड़ता निर्वाचन क्षेत्र की तीनों बस्तियों के घर-घर जाने लगा। कोई पूछता तो बड़े जोश-खरोश से अपने पाकिस्तानी अंदाज में कहता :
‘‘इंशा अल्लाह, हमारा बटेरा जीतेगा!’’
मानो नगरपालिका चुनाव बटेरों की लड़ाई रहा हो जिसमें उसने अपना बटेरा छो़ड रखा हो।

डॉ. मोहकम सचमुच चुनाव जीत गया था। उस दिन मक्खनलाल भागता हुआ बाजार गया था और एक ‘ढोलची’ को पकड़ लाया था। डॉ. मोहकमचंद की दुकान के सामने ढोल बजा, उसके गले में हार डाले गए, और डब्बू के इसरार पर जुलूस निकाला गया जो चुनाव-क्षेत्र की तीनों बस्तियों में घूमा, उस दिन बस्ती में दिन भर ढोल बजता रहा, डब्बू अपने पैसे से लड्डू बनवा लाया और मुहल्ले में लोगों में बाँटता रहा, उनका मुँह मीठा करवाता रहा।

यह भी बहुत पुरानी घटना जान पड़ती है अतीत के घटाटोप में खोई हुई। उसके कुछ ही साल बाद नगरपालिका का दूसरा चुनाव जीत जाने के बाद; डॉ. मोहकमचंद भी दुनिया से कूच कर गया था। बस में बैठा चाँदनी चौक की ओर जा रहा था, जब बैठे-बैठे ही एक ओर लुढ़क गया था। तब मक्खनलाल ने डॉ. मोहकमचंद की अर्थी का वह आयोजन किया था कि किसी राजा की शोभा-यात्रा क्या रही होगी।

जिस फैक्टरी में मक्खनलाल काम करता था, वहाँ उसकी अच्छी साख बन गई थी। अब उसका आत्मविश्वास भी बढ़ गया था, वह देसी पोशाक की जगह पैंट पहनने लगा था, हाथ भी कम जोड़ता था, और उसके हाव-भाव से भी लगता था कि जिंदगी के घोड़े पर सवार वह मजबूती से उसकी पीठ पर बैठा है और लगाम को खींचकर रखे हुए है, और घोड़ा उसी ओर जाएगा जिस ओर वह लगाम को मोड़ेगा।

फैक्टरी के गोदाम में वह बड़ी मुस्तैदी से अपना काम कर रहा था। फैक्टरी के दफ्तर में से पर्ची बनकर आती, वह उसी हिसाब से गोदाम में से माल उठवा देता, पर्ची पर अपनी ‘चिड़ी’ मारता, और रजिस्टर में दर्ज कर देता।

पर अंदर ही अंदर गोलमाल चल रहा था। डब्बू की आँखें उकाब की आँखों की तरह लोगों के रहस्यों को पकड़ती थीं। डब्बू को हवा हो गई कि कहीं से झूठी पर्ची बनकर आ रही है और गोदाम में से माल उठ रहा है। उसने एक ऐसी पर्ची पकड़ ली और पर्ची लानेवाले को दबोच लिया। माल उठवानेवाले ने रिश्वत देने की कोशिश की। इसने उसे घूँसा जड़ दिया। बात मालिकों तक पहुँची। अब फैक्टरी का खैरख्वाह होने के नाते, झूठी पर्ची को पकड़ा तो इसने, पर उलटा मुअत्तल भी यही हो गया। यह भौचक्का-सा रह गया। बात क्या हुई! यह भागा हुआ फैक्टरी के मालिकों के पास गया, उन्होंने मिलने से इनकार कर दिया। यह दौड़ा हुआ डॉ. मोहकमचंद के पास गया। तब डॉक्टर मोहकम जीता था। डॉ. मोहकमचंद को खुद यकीन नहीं आया कि डब्बू गलत काम कर सकता है। हाँ, घूँसा मारनेवाली बात उसे भी गलत लगी थी। डॉ. मोहकमचंद ने अपनी तरफ से कोशिश की, मक्खनलाल की ईमानदारी की जामनी भी दी, पर फैक्टरी के लोगों के साथ टक्कर लेना आसान काम नहीं था। मोहकमचंद का खत लेकर कभी वह फैक्टरी के मैनेजर के पास जाता, कभी फैक्टरी के मालिक के घर। मालिक दिल्ली के दक्षिणी भाग में रहता था, जबकि मैनेजर दिल्ली के पश्चिमी इलाके में। कुछ ही दिनों में डब्बू बेहाल हो गया। सारा दमखम काफूर हो गया। उसे लगने लगा जैसे वह किसी भँवर में फँसा छटपटा रहा है और उसमें से निकल नहीं पा रहा। पूरे छः महीने की दौड़-धूप के बाद उसे नौकरी पर बहाल कर दिया गया। तब तक वह बहुत हाँफ चुका था, और थककर चूर हो चुका था। पर फिर भी खुश था। मुहल्ले में घर-घर जाकर उसने लोगों को यह खुशखबरी सुनाई।

‘‘इज़्ज़त रह गई गरीबनवाज़, इज़्ज़त रह गई।’’
पर डॉक्टर मोहकमचंद के चले जाने के बाद वह बुझा-बुझा-सा रहने लगा और मुहल्ले के जीवन में से जैसे ओझल होता गया, दूर होता गया।

मक्खनलाल अभी जिंदा है। यों पुराने लोगों में अब कोई विरले ही मुहल्ले में देखने को मिलता है। जो बहुत बढ़ा गए हैं, वे एक तरह के कमरों में बंद हो गए हैं, या ऊपर की छतो पर टँगे हुए हैं। जिस घर में कप्तान रहा करता था, वह मकान तीन हाथ बिक चुका है। तीसरे मालिक ने तो सारा मकान गिराकर फिर से बनवाया है। कितने मकान गिराकर फिर से बनाए गए हैं।
आहूजा इंजीनियर भी अब नहीं रहा। साठ साल की उम्र में उसे कसरत करने का शौक चर्राया था, अपने बुढ़ापे को लंबा खींचना चाहता था। दिल का रोग ले बैठा और अपनी पत्नी और दो जवा बेटियों को छोड़कर चलता बना। पर मुहल्ले के जीवन पर इसका कोई असर नहीं पड़ा। कुछ आँधियाँ ऐसी चलती हैं जो आदमी को उड़ा ले जाती हैं, पर बाहर किसी को खबर तक नहीं होती कि कहीं किसी के जीवन में कोई आँधी आई थी।
सुबह का वक्त है। नवंबर महीने की धुंध अभी हवा में से छँट नहीं पाई है। चौथे और आठवें ब्लाक के चौराहे पर लीला अपने कुत्ते को लिए खड़ी है और प्रोफेसर दीनदयाल से अपने कुत्ते की शिकायत कर रही है। प्रोफेसर दीनदयाल घूमने निकला है। कुत्ते की जंजीर लीला के हाथ में है, और मोटा-ताजा, ब्राउन रंग का कुत्ता, जीभ निकाले कभी दीनदयाल के चेहरे की ओर देखता है, कभी उसे आकर सूँघने लगता है।
‘‘इन दिनों खाता-पिता ही कुछ नहीं।’’ लीला कह रही है, ‘‘मैं पूछती हूँ, तुम्हें क्या गम है, खाते क्यों नहीं, हड्डियों का ढाँचा निकल आए हो? पर नहीं, किसी की सुने तो!’’ फिर कुत्ते को मुखातिब होकर कहती है, ‘‘यह तेरे अंकल हैं। सुषमा यहाँ पर रहती थी या नहीं? यह उसके पिताजी हैं, नमस्ते कर।’’
कुत्ता जीभ निकाले-निकाले ही अँगड़ाई लेता है और सिर झटक देता है।

‘‘सुबह-सुबह ही मुझे घर में से खींच लाता है, उठ, मुझे बाग में ले चल। ऐसा नखरेबाज है, बाग में पहुँचकर ही रफा-हाजत करेगा, मजाल है कहीं और कर जाए। मैं इससे कहती हूँ, ये तेरे नखरे मेरे घर में ही चल सकते हैं, किसी और घर में होता तो आटे-दाल का भाव पता चल जाता। यह नहीं खाना, वह नहीं खाना, इधर ले चल, उधर ले चल…’
प्रोफेसर दीनदयाल अटपटा-सा महसूस करने लगा है। बात बदलने के खयाल से कहता है :
‘‘घर में सब ठीक-ठाक हैं? तुम्हारे सास-ससुर कैसे हैं? मक्खनलाल जी को बहुत दिनों से देखा नहीं?’’
‘‘ठीक हैं, दोनों मजे में हैं, सास-ससुर तो अब सबसे ऊपर की मंजिल पर रहते हैं ना, वे अब नीचे थोड़े ही रहते हैं।’’
तभी मैंने कहा, ‘‘बहुत दिनों से नहीं आए पहले तो अक्सर आँगन की दीवार के पीछे खड़े नजर आ जाया करते थे।’’
‘‘नीचेवाली मंजिल किराए पर जो चढ़ा दी है। एक प्रापर्टी डीलर को दी है। हमने पहले तो सोचा कि एक कमरा और बाथरूम इनके लिए रख छोड़ें, पर नया किराएदार नहीं माना। वह सारी की सारी निचली मंजिल लेना चाहता था।’’
प्रोफेसर दीनदयाल ने सिर हिलाया और शिष्टाचार निभाते हुए सिर हिलाने लगा। पर फिर भी उसके मुँह से निकल ही गया :
‘‘ऊपर की मंजिल पर तो टँगे रहते होंगे।’’

प्रोफेसर दीनदयाल का इस परिवार के साथ अच्छा परिचय रहा है। बूढ़ा बुजुर्ग मक्खनलाल अक्सर आँगन की दीवार के पीछे खड़ा होता तो उनसे दो बातें हो जाया करती थीं। और प्रोफेसर दीनदयाल सोचा करता था कि बूढ़ों के लिए अपनी धुँधलायी आँखों के बावजूद, चलती सड़क पर आँखें लगाए रखना, आते-जाते लोगों को देखते रहना, जिंदगी के साथ जुड़े रहना होता है, उसी से वे जिंदगी का रस खींचते हैं। फिर उसने मक्खनलाल को उनके जीवन के दिनों में देखा था, तब वह स्वयं छोटा-सा था पर मक्खनलाल पर सबकी नजर बरबस जाती थीं।

‘‘उन्हें नीचे उतरने की जरूरत ही क्या है’’, बहू कहती है, ‘‘उन्हें खाना ऊपर ही मिल जाता है। ऊपर हवा भी ज्यादा साफ है, बाबूजी सिगरेट बहुत फूँकते थे। नीचे थे तो जब मन में आता था, सिगरेट की डिब्बी खरीद लाते थे, अब कौन नीचे उतरेगा और सिगरेटों की डिब्बी लाएगा? सिगरेट जैसी बुरी तो कोई भी इल्लत नहीं। बुरी आदत तो बुढ़ापे में भी छूट जाए तो गनीमत है।’’
कुत्ता जंजीर खींचने लगा है, बोर होने लगा है, लीला कहती है :
‘‘चलती हूँ बेटा, चलती हूँ। देख तो रहा है, बात कर रही हूँ।’’ फिर मुस्कराकर प्रोफेसर साहब से कहती है, ‘‘यह नहीं मानेगा जी, यह हर बात में अपनी करता है।’’ और मुड़कर अपने घर की ओर घूम गई है।
हर बार लीला से मिलने पर उसके ससुर मक्खनलाल का ज़िक्र आता है तो प्रोफेसर दीनदयाल के दिल में टीस-सी उठती है। जिंदगी इंसान के साथ कैसे-कैसे खेल खेलती है।

मक्खनलाल के दो बेटे थे। जवान होने पर दोनों ने कारोबार किया। एक ने दूकान खोली, दूसरा घर-घर जाकर माल बेचने लगा। दोनों की किस्मत चमकी। काम चल निकला, वारे-न्यारे होने लगे। फिर एक ने छोटी-सी फैक्टरी लगा ली, दूसरे को निर्यात का काम मिल गया। कुछ ही वर्षों में, जब मक्खनलाल और उनकी पत्नी बुढ़ापे में प्रवेश कर रहे थे, दोनों बेटे खूब धन कमा रहे थे। बूढ़े माँ-बाप कभी एक के घर में तो कभी दूसरे के घर में रहने लगे थे।
लगभग पाँच बरस पहले–उन दिनों मक्खनलाल और उसकी पत्नी अपने फैक्टरीवाले बेटे के पास रहते थे–बड़े बेटे ने अपना अलग से मकान बना लिया था। एक दिन बेटे ने बाप से कहा–चलो पिताजी, आपको किसी डॉक्टर से दिखवा लाऊँ। माँ भी चलें। गाहे-ब-गाहे डॉक्टर को दिखाते रहना चाहिए। दोनों को उसने अपनी मोटर में बैठाया और चल पड़ा। पर डॉक्टर की ओर ले जाने की बजाय, बेटा उन्हें बस्ती की ओर ले आया, अपने भाई के घर, और घर के सामने मोटर खड़ी कर दी। माँ-बाप ने देखा तो बड़े खुश हुए कि बेटा रास्ते में हमें छोटे बेटे से मिलाने ले आया है। वे बड़ी उत्सुकता से बाहर निकल आए।

‘‘अब आप दोनों यहीं पर बिराजिए।’’ बेटे ने हाथ जोड़कर कहा, वह भी अपने बाप की तरह हाथ जोड़कर बात करता था–‘‘अब छोटा बेटा आपकी सेवा करेगा। आपके कपड़े-लत्ते भिजवा दूँगा।’’ और आगे बढ़कर घर की घंटी बजा दी। और पेश्तर इसके कि भौचक खड़े माँ-बाप मुँह से कुछ कहे, या घर के अंदर से कोई बाहर आए, मोटर चलाकर रवाना हो गया।

तब से मक्खनलाल और उसकी पत्नी यहीं पर रहते हैं। पहले निचलीं मंजिल पर रहते थे, पर नया किराएदार आ जाने पर दोनों को सबसे ऊपरवाली मंजिल पर भेज दिया गया है।

अकेली लीला ही अपने कुत्ते को हवाखोरी और ‘दिसा-पानी’ के लिए लाई हो, ऐसा नहीं है, बहुत-से कुत्ते हवाखोरी को निकले हैं। सबके मालिकों ने उनके लिए ठिकाने ढूँढ़ रखे हैं, हवाखोरी के रास्ते भी ढूँढ़ रखे हैं। सामने पड़ जाने पर सभी एक दूसरे पर गुर्राते हैं, अपने-अपने ढंग से अभिवादन करते हैं।
धुंध अभी छँट ही रही थी कि स्कूली बच्चे सड़कों पर निकल आए हैं, अपने-अपने स्कूल की बस की ओर लपकते हुए। किसी ने माँ का हाथ पकड़ रखा है, किसी ने नौकर का।

यह मुहल्ले में दिन का सबसे सुहावना समय है। धूप की पहली किरनें छतों पर से दीवारों पर आड़ी-तिरछी उतरने लगीं हैं। अब शीघ्र ही युवतियाँ और महिलाएँ भी सड़कों पर उतरेंगी, कंधों से बैग लटकाए, किसी-किसी के बालों में फूल, तेज-तेज कदम बढ़ाती हुई, जहाँ तक बन पाया बनी-ठनी अपने-अपने काम पर जाती हुई, इनके ताजादम चेहरों को देखकर कोई नहीं कहेगा कि इनके घरों के बंद दरवाजों के पीछे तरह-तरह की विसंगतियाँ, तरह-तरह के संकट इन्हें झकझोरते रहते हैं। अपनी-अपनी बसों में बैठते ही ये अपनी साथियों के साथ चहकने लगती हैं।

अब मर्द निकले हैं, किसी ने दाढ़ी बनाई है, किसी ने नहीं बनाई; कोई नहाया है, कोई नहीं नहाया; विरले ही कोई चुस्त-दुरुस्त नजर आता है। मुँह लटकाए, दुनिया भर का बोझ कंधों पर उठाए, झींकते, कोसते, अपने-अपने धंधों पर जाने लगे हैं। लगभग सभी घर से देर से निकले हैं। घड़ी में वक्त देखकर सभी सिर झटक देते हैं, ‘‘देखा जाएगा जो होगा। वार्निंग ही देगा न। दे दे वार्निंग, हम किसी से नहीं डरते,’’ और अपने शरीर को जैसे खींचते हुए बस स्टाप की ओर बढ़ने लगे हैं।

ग्यारह-एक बजे का वक्त होगा, जाड़ों की निखरी धूप। मुहल्ले के वातावरण में स्निग्धता-सी आ गई है जब धूप में बैठने को, टहलने को मन करता है। लीला का ससुर वयोवृद्ध मक्खनलाल घर की तीसरी मंजिल से धीरे-धीरे उतर आया है, और अब सड़क पर आ गया है। हफ्ता-दस दिन में उसका धैर्य चुक जाता है और वह जरूर एक बार विद्रोह करता है कि बेटा काम पर गया है, बहू ‘किट्टी पार्टी’ पर चली गई है, अब दो बजे लौटेगी, बच्चे स्कूल में बैठे हैं और मक्खनलाल दाएँ-बाएँ देखकर, नौकर की आँखें से बचकर बाहर निकल आया है। धीरे-धीरे चलता हुआ, धूप में चहलकदमी करता हुआ वह मार्कीट की ओर जाने लगा है। फिर भी उसकी चाल को देखकर लगता है इसे पैरोल पर कुछ देर के लिए छोड़ा गया है।
मार्कीट की ओर जानेवाली सड़क का मोड़ मुड़कर उसने सीधा ‘लाला’ की दूकान का रुख कर दिया है। वहाँ यह घड़ी-भर के लिए बैठेगा। सिगरेटों की डिब्बी खरीदेगा, एक सिगरेट तो वहाँ बैठे-बैठे ही फूँक डालेगा, फिर डिब्बी को कमीज के नीचे, बंडी के जेब में छिपाकर रख लेगा, और सड़क पर आँखें गाड़ देगा, और हफ्ते-भर के लिए सड़क पर की रौनक को अपने अंदर आत्मसात करता रहेगा।

‘लाला’ की दूकान पर आनेवाले किसी ग्राहक ने इसे पहचान लिया है। पहले तो यह धुँधलाई आँखों से उसकी ओर देखता रहा, फिर सहसा उसका चेहरा किसी बच्चे के चेहरे की तरह खिल उठा है, और यह हाथ बढ़ाकर उसका कंधा थपथाने लगा है। पर फिर दो वाक्यों में ही दोनों के बीच का वार्तालाप खत्म हो गया है। कुशल-क्षेम से आगे दोनों के लिए कुछ कहने को रह नहीं गया है। उसने बहू-बेटी के बारे में पूछा है, पर बुजुर्ग ने नजर नीची कर ली है। ‘‘सब ठीक है, कुशल मंगल है।’’ वह कहता है। घर की बात कौन किसी से करता है। बेटे-बहू की इज्जत का ध्यान भी तो उसे रखना है।
कुछ देर तक यहाँ बैठने के बाद वह धीरे-धीरे चलता हुआ गोसाईं की दूकान पर जाकर बैठेगा। वहाँ धूप अच्छी पड़ती है, और वहाँ पर अखबार भी देखने को मिल जाती है। गोसाईं के साथ इधर-उधर की दो बातें भी हो जाती हैं।
तभी पैरोल का वक्त खत्म हो जाएगा, बहू किट्टी पार्टी से लौटने को होगी और बुजुर्ग धीरे-धीरे चलता हुआ बहू के लौटने से पहले ही फिर से घर की सीढ़ियाँ चढ़ जाएगा, अगले दस-बीस दिन के लिए।
बुढ़िया तो लगता है अब एक ही बार नीचे उतरेगी। लोगों की नजर से तो वह अभी से अलोप हो चुकी है। यों भी, जिस तेजी के साथ वह सिकुड़ती जा रही है, वह शीघ्र ही मुट्ठी-भर हड्डियों का ढाँचा रह जाएगी, और फिर किसी भी दिन, ‘छूमंतर’ हो जाएगी।

आठ नंबर ब्लॉक के नुक्कड़वाले घर में से सरला बीबी बाहर निकली है, हाथ में छोटा-सा छाता और आँखों पर काला चश्मा लगाए हुए। घर का आँगन पार करते ही उसने छाता खोल लिया है और मार्कीट की ओर जाने लगी है। काला चश्मा लगाने का एक लाभ यह भी होता है कि आसपास के लोगों के प्रति दूरी का-सा भास बना रहता है।

मार्कीट में से सरला बीबी घर के लिए सौदा-सूद खरीदेगी, और वहाँ से पाँच नंबर ब्लॉक में अपनी एक सहेली के घर जा बैठेगी, वह भी काला चश्मा लगाती है और उसके पास भी रंग-बिरंगा छाता है। वह भी सरला बीबी की भाँति इंग्लैंड से लौटकर आई है। दोनों एक-दूसरी का एकाकीपन बाँटती हैं, दोनों अपने-अपने हमसायों के कमीनेपन और भौंडेपन की चर्चा करती हैं, जिससे दोनों को त्राण मिलता है। लंच से पहले सरला बीबी फिर से काला चश्मा लगाए और सिर पर सतरंगा छाता खोले घर लौट जाएगी।

सरला बीबी अकेली रहती है, शादी नहीं हुई। यह वही सरला बीबी है जो वर्षों पहले, उस रोज जब चाय पार्टी हुई थी तो अपनी सहेलियों के साथ खिड़की के पास बैठी थी, मक्खनलाल के गाने पर वह अपनी हँसी नहीं रोक पाई थी, और उठकर भाग गई थी। यह उन्हीं इंजीनियर आहूजा की बेटी है, जो अपनी उम्र लंबी कर पाने के चक्कर में पैंसठ साल की उम्र में कसरत करने लगा था और भगवान् को प्यारा हो गया था।
सरला बीबी घर से निकली ही थी और पटरी के सामने जैसे कीचड़ और पानी से बच-बचकर सड़क पर पहुँच ही रही थी कि ऊपर से किसी ने उस पर कूड़ा फेंका है। पर सरला बीबी बच गई है, कूड़ा उस पर नहीं पड़ा।

यह कूड़ा उसकी किराएदारिन ने उस पर फेंका है। यही उसका अभिवादन करने का ढंग है। अगर कूड़ा सरला बीबी के सिर पर पड़ भी जाता तो भी सरला बीबी ऊपर की ओर आँख उठाकर नहीं देखती। ‘‘यह लोग कमीना हरकत करता, हम सब जानता, पर हम इनके मुँह नहीं लगेगा।’’ उसने यह धारणा बना ली है। सरला बीबी ने अपने किराएदारों से बोलचाल बँद कर रखी है। पर कुछ लोगों का कहना है कि अगर सरला बीबी चिल्लानेवाली स्त्रियों में से होती, तो ऐसा नहीं होता। औरतों को चिल्लाना आना चाहिए, मुहल्ले में जितनी औरतें चिल्लाती हैं, वे सब सरला बीबी की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं, सभी की धाक है, काश कि सरला बीबी भी चिल्ला पाती।

भगवान् के घर रवाना होने से पहले आहुजा साहब दो मकान खरीद गए थे, साथ-साथ जुड़वाँ। दोनों बेटों को डॉक्टर बनाया, जो अब दोनों विलायत में रहते हैं, दो बेटियों को ब्याह, जो अब अपने-अपने घर रहती हैं, एक लखनऊ में, दूसरी बंबई में। और इसके बाद पल्ला झाड़ गए। पीछे रह गईं उनकी वृद्धा पत्नी और मँझली बेटी सरला बीबी और दो घर। अब आहूजा इंजीनियर को क्या मालूम था कि जमाना बदल जाएगा और विलायत में जानेवाले बेटे लौटना नहीं चाहेंगे, और माँ-बेटी निपट अकेली पड़ जाएँगी। एक बार गर्मी के दिनों में दोनों माँ-बेटी विलायत गईं, एक भाई ने टिकिट भेजे थे। पूरे छः महीने तक रहीं। दूसरी बार, कुछ बरस बाद अकेली सरला बीबी गई–तब दूसरे भाई ने टिकिट भेजा था। पर वह अभी विलायत में ही थी कि पीछे घर में डाका पड़ गया। डाका डालनेवालों ने बुढ़िया को कुर्सी के साथ बाँधा और उसकी आँखों के सामने सारा सामान, विलायत से लाए हुए सभी ट्रांजिस्टर और वी.सी. आर. और जी. सी. आर. और जाने क्या-क्या बाँधकर ले गए। बुढ़िया की हिचकी बँध गई, पर वह चिल्लाई नहीं। इस सहयोग से आश्वस्त होकर डाका डालनेवालों ने बुढ़िया को जिंदा छोड़ दिया, जान से नहीं मारा।

इसके बाद बुढ़िया तीन साल तक जिंदा रही। तभी से माँ-बेटी ने अंदर से दरवाजे खिड़कियाँ बंद किए रहने का फैसला कर लिया। भाइयों तक ने विलायत से यही लिखा था कि दरवाजे-खिड़कियाँ बंद रखा करो, बल्कि बाहर खुलनेवाले दरवाजों के ताक भी बदलकर लोहे के ताक लगवा लो। और माँ-बेटी ने ऐसा ही किया था।

इंग्लैंड के समय बिताने का असर इतना तो जरूर हुआ है कि सरला बीबी आस-पास के लोगों से अपने को ऊँचा और अलग समझने लगी है, कि से मेलजोल नहीं बढ़ाती, मेलजोल बढ़ाने का मतलब है, उनके स्तर तक नीचे उतरना।
‘‘ये लोग हमारे घर के सामने कमीना हरकत करता, हम सब जानता, पर हम उनको मुँह नहीं लगाता…’’
वह अपने लहजे को जान-बूझकर विदेशी पुट देते हुए कहती है।

जब कभी करला बीबी अपने घर की खिड़की खोलती है तो तीखी बदबू का भभूका बाहर की ओर से अंदर आता है, ‘‘न जाने कितना लोग इधर कमीना हरकत करता।’’ वह बड़बड़ाकर कहती है और खिड़की को फिर से बंद कर देती है। उसका इशारा कोहली के कारिदों की ओर है। एक घर छोड़कर दूसरे घर की निचली मंजिल में कोहली ने अपने स्कूटरों का वर्कशप खोल रखा है। अब रिहायशी इलाके में वर्कशाप का क्या मतलब? पर वर्कशाप है और वहाँ दिन-भर खट-खट लगी रहती है, और कोहली के कारिंदे उठ-उठकर सरला बीबी के घर की दीवार के साथ ‘कमीना हरकत’ करते हैं। सरला बीबी इंग्लैंड में रह कर आई है। और साथ में अपनी ऊँची तहजीब का सुरक्षा कवच लेती आई है। वह समझती है कि यह कवच उसे बचाए हुए है, जिंदा रखे हुए है, पर वास्तव में वह उसे निपट अकेला करता है, अगर सरला बीबी अपनी भारतीयता बनाए रखती और चिल्लाती, झगड़ती हाथ पसार-पसारकर गालियाँ देती, तह शायद कोहली के कारिंदे उसकी खिड़की के नीचे ‘कमीना हरकत’ नहीं करते। स्त्री में चंडी का रूप ही शायद उसका सबसे बड़ा सुरक्षा कवच है। मुहल्ले में यहाँ-वहाँ जितनी भी स्त्रियाँ चंडी का रूप धारण किए हुए हैं, सभी अधिक सुरक्षित हैं।
सरला बीबी घर को लौट रही है–काले चश्मे में से आसपास देखती हुई, फिर घर में घुसते ही उसने दरवाजा अंदर से बंद कर लिया है।

यह आदमी जो उजले कपड़े पहने, चिकना-चुपड़ा, बाल कंघी किए हुए, शेव किए हुए अपनी ही दूकान के चबूतरे पर आकर टाँग पर टाँग रखकर बैठा है, सिगरेट सुलगा ली है और हर राह जाते परिचित को सिर झुकाकर दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहा है, यही कोहली है। आज सोमवार है और इसकी वर्कशाप बंद है, इसी कारण वह उजले कपड़े पहने चिकना-चुपड़ा बना बैठा है, वरना हफ्ता-भर चीकट मैले कपड़े और तेल से सने हाथ लिए वर्कशाप का काम देखता है। इस वक्त उसे देखकर कोई नहीं कह सकता कि शाम पड़ते न पड़ते यह आदमी नशे में धुत्त, दहाड़ता हुआ, सड़क के बीचोबीच पहुँच जाएगा। कुछ लोगों का कहना है कि तब उसे उस अन्याय का बोध होने लगता है जो जायदाद के बँटवारे के समय इसके साथ हुआ था।

इसका बाप भी, वर्षों पहले, लीला दीवानचंद साप्ताहिक सत्संग में आया करता था। वह आढ़ती था और सारा वक्त खाट पर बैठा अपनी बहियाँ बाँचता रहता था। फिर एक दिन, खाट पर बैठे ही बैठे, एक बही पर झुका हुआ ‘चलाणा’ कर गया था।

उसकी आँखें बंद करने की देर थी कि बहनें और भाई जायदाद पर टूट पड़े थे। बड़ी बहन तो चील की तरह झपटी थी। और बीमार माँ की आँखों के सामने जेवरों का डिब्बा उड़ा ले गई थी। अंत में बँटवारा हुआ और दो-दो कमरे सभी के हिस्से में आए। पर बड़ी बहन और भाई के बीच झगड़ा आँगन को लेकर होने लगा। भाई ने आँगन के एक हिस्से में छप्पर डालकर वर्कशाप खोल दी, बहन तिलमिला उठी और रोज़ गाली-गलौज होने लगा। तभी से कोहली पीने लगा था। नशे में होता तो उसमें अपार साहस ठाठें मारने लगता। तब वह छाती फुला लेता और दहाड़ता हुआ सड़क पर आ जाता और सारे कुनबे को गालियाँ देने लगता। एक बार तो उसने अपनी बहन के मुँह पर चाँटा भी जड़ दिया था।

पर अब झगड़ा तो लगभग खत्म हो चुका है, जायदाद बाँटी जा चुकी है, पर शराब का नशा हर चौथे-पाँचवें बराबर बना हुआ है। अब भी पीने के बाद दहाड़ता है, सड़क के बीचोबीच पहुँच जाता है और किन्हीं अमूर्त शत्रुओं को संबोधन करके चिंघाड़ता है, गालियाँ बकता है, कभी-कभी पत्नी पर बरस पड़ता है, पर यह एक कहे तो पत्नी दस सुनाती है। सीढ़ियों का दरवाजा अंदर से बंद कर लेती है, ताकि यह पिए हुए बाहर ही पड़ा रहे, ऊपर नहीं आ सके। और अगर नशे की हालत में ऊपर पहुँच जाए तो अब तो इसका बेटा भी इसे घूँसे मारने लगा है, और इसे फर्श पर भी पटक देता है। बेटे ने भी होश सँभाल ली है और जवानी में कदम रखने लगा है।

पर इस समय तो कोहली अपनी वर्कशाप के चबूतरे पर बैठा, हर राह जाते परिचित को झुककर नमस्कार कर रहा है, उसके चेहरे का भाव तो ऐसा है जैसे अभी-अभी मंदिर से लौटा हो, कुछ-कुछ गौतम बुद्ध के चेहरे के भाव जैसा।
दोपहर ढलने लगी है, साये लंबे होने लगे हैं, नवंबर मास की खुनकी फिर से हवा में फैलने लगी है, अभी थोड़ी देर में ही अँधेरा पड़ने लगेगा, साये उतरने लगेंगे।

दफ्तरों में काम करनेवाली युवतियाँ-स्त्रियाँ मुहल्ले में लौट रही हैं कंधों पर से बैग लटकाए हुए तेजी से कदम बढ़ाती हुई। नीलम को अपना बेटा सड़क पर ही खेलता मिल गया है, उसे उसने लपक कर बाँहों में ले लिया है और छाती से लगाए-लगाए ही चूमती-पुचकारती हुई घर की सीढ़ियाँ चढ़ने लगी है। दफ्तर बंद होते ही यह घर पहुँचने के लिए अधीर हो उठती है। और जैसे नाक की सेंध भागती हुई आती है। कमला का बेटा घर पर नहीं है, कमला घर जाने के बजाय सीधा उसे ढूँढ़ने निकली है, और भागती हुई कभी एक के घर तो कभी दूसरे के घर उसे ढूँढ़ने लगी हैं।

इन औरतों के लिए दिन का यह सबसे सुहावना समय है, स्निग्ध और सुंदर, जब ये बच्चों को अपने हाथों से कुछ खिलाएँगी, इनकी दिनचर्या सुनेंगी, इनके साथ बतियायेंगी, पर आधा-पौन घंटा बीतते न बीतते, दिन के डूबते उजाले के साथ ही यह ‘अंतराल’ समाप्त हो जाएगा और गृहस्थी की चक्की फिर से चलने लगेगी।

इन्हीं औरतों में देवकी भी है, वही जिसने बाल कटवा लिए हैं, और भड़कीले पीले रंग की सलवार-कमीज पहने, अभी-अभी मोड़ काटकर अपने घर के अंदर गई है। घर क्या है, केवल एक कमरा है, और पीछे एक छोटा-सा बाथरूम। मुहल्ले के लोग कहते हैं कि देवकी ने दिल्ली ही किसी बस्ती में फ्लैट बुक करवा रखा है। और वह बनकर तैयार हो चुका है, पर यहाँ से हिलने का नाम नहीं लेती।

देवकी किसी फैक्टरी के दफ्तर में काम करती है, नौकरी पक्की है। इसका पति इसे और इसके दो बच्चों को छोड़कर किसी दूसरी औरत के साथ भाग गया है। कहते हैं, धर्म बदलकर उसने उस औरत के साथ शादी भी कर ली है, और अलग से रहने लगा है। इसकी सास इसके पीछे पड़ी है कि घर से निकल जाए, घर खाली करे। और यह कहती है कि कोई देखे तो मुझे निकालकर। मैं उलटे इसे और इसके बेटे को जेल भिजवा दूँगी। लोग कहते हैं, इसे अपनी नौकरी का बड़ा ज़ोम है, पक्की नौकरी है, पेंशन वाली नौकरी है, इसीलिए किसी से कम नहीं खाती, इसीलिए बाल कटवा दिए हैं और भड़कीले कपड़े पहनती है। शुरू-शुरु में बात दूसरी थी, देवकी घबरा गई थी, कि क्या मालूम सास निकाल ही दे। पहले सारी निचली मंजिल इसके पास थी, जब इसका पति इसके साथ था, और माँ ऊपर की मंजिल पर रहती थी। फिर सास ने एक कमरा छीना और उसे किराए पर चढ़ा दिया। अपने दो कमरों में से भी एक कमरा किराए पर चढा दिया। बेटे ने, जो कमरे पिछले आँगन में, एक के ऊपर दूसरा, बनवाए थे, वे भी किराए पर चढ़ा दिए। पर फिर देवकी डट गई, कगार पर पहुँची ही थी कि समझ गई कि अब या तो नीचे पाताल में, या फिर अपने बल-बूते पर, अपने पाँवों पर। इस बीच उसकी नौकरी भी पक्की हो गई थी। अब तो उसकी सास भी इससे मुँह छिपाने लगी है। बल्कि अब तो सुबह-शाम मंदिर जाने लगी है, मतलब कि मन की शांति के लिए उसे पूजा-पाठ की जरूरत पड़ गई है।

शाम के साए उतर चुके हैं, अँधेरा गहराने लगा है। लोग अपने-अपने घरों में जा चुके हैं, जब मार्कीट की ओर से शोर सुनाई देने लगा है। आवाजें आ रही हैं, जैसे भोंपू पर कोई ऊँचा-ऊँचा बोल रहा है। शाम के झुटपुटे में कोई भोंपू पर क्यों बोलेगा? चुनाव तो अभी बहुत दूर हैं और मनादी दिन के वक्त होती है, मनादी भी और इश्तहारबाजी भी। इस समय भोंपू पर कौन बोल रहा है?
पहले, घरों के बच्चे, फिर जवान, फिर अधेड़ उम्र के लोग, अपने-अपने घरो से निकल आए हैं, स्त्रियाँ छज्जों-बालकनियों पर आ गई हैं।
मार्कीट की ओर से काले रंग का एक स्कूटर-रिक्शा दाएँ-बाएँ से ढका हुआ, धीरे-धीरे चलता आ रहा है। उसी में बैठा कोई आदमी भोंपू पर बोल रहा है। स्कूटर-रिक्शा के पीछे-पीछे बहुत-से लोग भी धीरे-धीरे चले आ रहे हैं।
कोई अनहोनी-सी बात जान पड़ती है। क्योंकि पीछे-पीछे आते लोगों में से कोई भी नहीं बोल रहा है, पर बराबर स्कूटर-रिक्शा के पीछे-पीछे चले आ रहे हैं।
स्कूटर नजदीक आ रहा है। आवाज ऊँची उठ गई है :
‘‘अगर किसी ने, बस्ती के किसी आदमी ने, किसी दूकानदार ने, चढ्डा की मदद की तो याद रखो, हमसे कोई बुरा नहीं होगा। सभी लोग कान खोलकर सुन लें…’’
स्कूटर-रिक्शा आगे सरकता आ रहा है। ढाबे के पास पहुँचते-पहुँचते लोगों की भीड़ बहुत बढ़ गई है, आसपास के लोग इकट्ठा हो गए हैं।
ढाबे से थोड़ा आगे बढ़कर, स्कूटर सहसा खड़ा हो गया है। सड़क के पार, दूकानों की पाँत में पहली दूकान चढ्डा की है। दूकान बंद पड़ी है और उसका लोहे का पर्दा गिरा हुआ है।

सहसा लोहे के पर्दे पर पथराव होने लगा है। स्कूटर-रिक्शा के पीछे-पीछे आने वाले लोग भड़क उठे हैं, सड़क के किनारे से ढेले-पत्थर जो मिला है, उठा-उठाकर दूकान के पर्दे पर मारने लगे हैं। पर्दे पर पत्थर-ढेले पड़ते हैं तो ठक्-ठक् की आवाज आती है, जो रात के बढ़ते अँधेरे में भयावह-सी लगती है। पर जितने ज्यादा पत्थर पड़ते हैं, उतना ही ज्यादा लोगों का गुस्सा भड़क उठता है।
‘ठक्! ठक्! ठक्! ठक्!’
सहसा कोई चिल्लाता है :
‘‘मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!
दहेज का कीड़ा, मुर्दाबाद!
मुर्दाबाद!
चढ्डा मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!’’

कुछ मुद्दत पहले चढ्डा के बेटे की शादी हुई थी। बहुत-से हमसाए, दूकानदार उसकी शादी से शामिल भी हुए थे। चढ्डा ने मुहल्ले में लड्डू भी बाँटे थे। पर कुछ दिन पहले खबर मिली थी कि चढ्डा की नवविवाहिता बहू जल मरी है। चढ्डा की दूकान बंद पड़ी रहने लगी थी और लोग तरह-तरह के कयास लगाने लग गए थे। फिर खबर मिली कि चढ्डा लापता है, कहीं भाग गया है और उसका बेटा पकड़ा गया है और मामला संगीन है।
पटरी पर खड़ा एक आदमी, अपने साथ खड़े हुए व्यक्ति को कोहनी मारकर कहता है :
‘‘वह लड़का देखते हो?’’
‘‘कौन-सा?’’
‘‘वही, जो नंगे सिर, स्कूटर-रिक्शा के पीछे खड़ा है? उसी की बहन जल मरी है। यह लड़की का भाई है। न जाने क्यों इन लोगों के साथ चला आया है।’’
जलने वाली लड़की का भाई अभी भी बेसुध-सा स्कूटर-रिक्शा के पीछे खड़ा इस अटपटे, भयावह दृश्य को देखे जा रहा है।
लोहे के पर्दे पर अभी भी पत्थर पड़ते जा रहे हैं। फिर, जुलूस में से कोई आदमी आगे, दूकान की ओर बढ़ गया है, उसके हाथ में बड़ा-सा डिब्बा है। डिब्बे को जमीन पर रखकर उसमें से एक बड़ा-सा बुश निकालकर वह लोहे के पर्दे पर कुछ लिखने लगा है :
‘‘दहेज का कीड़ा! दहेज का

लोभी कुत्ता! चढ्डा मुर्दाबाद! मुर्दाबाद!’’

वह कोलतार से लिख रहा है। एक-एक अक्षर लिखने पर उसमें से कोलतार की बूँदे चू-चू कर नीचे गिर रही हैं। शब्दों के नीचे, ऊपर से नीते तक, लकीरें-सी पड़ती जा रही हैं।
आसपास खड़े लोग चुप हैं।
स्कूटर-रिक्शा में से, उसके गिरे पर्दों के पीछे से फिर से आवाज़ आने लगी है। भोंपू पर कोई आदमी कह रहा है :
‘‘कोई आदमी भी चढ्डा की मदद न करे। उसके हाथ खून से रँगे हैं। उसने एक मासूम लड़की की जान ले ली है…’’
लगता है, ये लोग लड़की के संबंधी हैं, अपना गम और गुस्सा रोक नहीं पाए, उसी हड़बड़ी में चले आए हैं। वरना तैयारी करके आते, सधे हुए नारे लगाते, सुव्यवस्थित ढंग से मुजाहिरा करते। ये तो अपनी भड़ास ही निकाल पाएँगे।
स्कूटर-रिक्शा आगे निकलने लगा है। आसपास खड़े लोग बिखरने लगे हैं पटरी पर खड़े दूकानदार बतियाने लगे हैं :
‘‘यह उबाल कुछ दिन तक रहेगा फिर ठंडा पड़ जाएगा। मुकदमा चलेगा, फिर घिसटेगा क्या मालूम वर्षों तक घिसटता चला जाए।’’
स्कूटर-रिक्शा आगे निकल गया है।

मुहल्ले के लोगों को उस बहू का चेहरा याद है जो जल मरी है। ब्याह के बाद दूल्हा–चढ्डा का बेटा–उसे मुहल्ले के दो-एक घरों में ले गया था। चार नंबरवाले घर में रहनेवाला परिवार चढ्डा के संबंधियों में से हैं। बालकनी में खड़ी, चार नंबरवाले ती अधेड़ उम्र की स्त्री साथवाले घर की स्त्रियों को सुना रही है :

‘‘हमारे घर आई थी। इतनी बच्ची-सी तो थी! उससे तो किनारी-गोटेवाला दुपट्टा ही नहीं सँभाला जा रहा था। बड़ी हँसमुख थी। हमने कहा, गाना सुनाओ तो झट से गाने लगी। बड़ी जल्दी हिल-मिल गई। यहीं बैठे-बैठे हमारे बच्चों के साथ ‘गीटे’ खेलने लगी थी। पता नहीं, अंदर खाते क्या हुआ है, अंदर की भगवान् जाने…’

‘‘नहीं, नहीं, पकड़ा गया है। बाप-बेटा दोनों पकड़े गए हैं। और यह भी गलत है कि लड़की खुद जल मरी थी। तफतीश में लड़के ने कबूल किया है कि उसने बहू के कपड़ों को आग लगाई थी। उसने सीधे से आकर लड़की के सिर पर मिट्टी का तेल छिड़का था तो वह लड़का बोला : ‘मैंने जब तेल छिड़का तो वह समझी मैं उस पर पानी डाल रहा हूँ। वह हँसने लगी थी। उसे तेल की बू आई तब भी वह नहीं समझी…कचहरी में खड़ा लड़का नीम पागल-सा हो रहा था।’’
स्कूटर-रिक्शा आँखों से कब का ओझल हो चुका है, भोंपू की आवाज रात के अँधेरे में डूब गई है।
पर मुहल्ला अभी शांत नहीं हुआ है।
कोहली पीकर सड़क पर आ गया है और सड़क के बीचोबीच खड़ा दहाड़ने लगा है :
‘‘कौन है इधर चिल्लानेवाला? यह क्या शोर है? कौन है, इधर सामने आए, पकड़ो इसे, तेरी माँ की…’’
और उसके सड़क के किनारे से पत्थर उठा लिया है।
‘‘मैं सिर फोड़ दूँगा। कौन है, इधर सामने आए?’’
कोहली का एक कारिंदा उसे धकेलता हुआ आँगन में ले गया है। और उसे ऊपर चले जाने का आग्रह कर रहा है।
‘‘पर सीढ़ियों पर दरवाजा बंद है,’’ कारिंदे के मुँह से सहसा निकल जाता है जिस पर कोहली अपनी पत्नी पर चिल्लाने लगा है :
‘‘खोल दरवाजा, खोल! तेरे बाप का घर है?’’
और हाथ में उठाया हुआ पत्थर सीढ़ियों के दरवाजे पर दे मारता है।
ऊपर से उसकी पत्नी चिल्लाने लगी है। एक अजीब धड़कन-सी दहशत-सी, मुहल्ले के माहौल में फैल गई है, इन आवाजों के कारण।

रात के ग्यारह बजा चाहते हैं। हाँफता मुहल्ला अब धीरे-धीरे रात की गोद में लुढ़कने लगा है। गलियाँ सूनी पड़ती जा रही है, गलियों में कुत्ते निकल आए हैं और एक-दूसरे के पीछे भागने और कहीं-कहीं पर अभी से भौंकने लग गए हैं। घरों की रोशनियाँ धीरे-धीरे बुझ रही है। किसी-किसी घर में से रोशनी रोशनदानों में से छन-छनकर आ रही है। परीक्षाओं में बैठनेवाले छात्र-छात्राएँ अपनी-अपनी किताबों पर झुके हुए हैं। कहीं-कहीं पर कोई चिंतित बाप अपने बेटे से कह रहा है :
‘‘अगर ८० प्रतिशत से ऊपर नंबर नहीं लिए तो दाखिला नहीं मिलेगा, यह समझ लो, आगे की पढ़ाई ठप्प हो जाएगी। खूब जमकर आगे बढ़ना चाहते हो तो जमकर पढ़ो, यही वक्त है…’’
बेटा अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से पिता के चेहरे की ओर देखे जा रहा है। बाप की बातें सुनते हुए हर बार उसकी आँखों में आतंक-सा घिरने लगता है।
‘‘अभी नहीं, तो कभी नहीं, बेटा, खूब जमकर पढ़ो। अगर तुम्हारी सेकंड डिवीजन आई तो मैं कुछ नहीं कर सकूँगा। तुम्हें दाखिला नहीं मिल पाएगा। यह अच्छी तरह समझ लो। यही वक्त है…’’
परेशान, थके हुए बेटे की बोझिल आँखें फिर से किताब के पन्ने पर लौट आई हैं।
मुहल्ला सचमुच रच-बस गया है।

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