आविष्कार : विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'
Aavishkar : Vishvambharnath Sharma Kaushik
( १ )
प्रोफेसर चन्द्रायण विज्ञान के प्राचार्य थे। वैसे तो वह पदार्थ तथा रसायन-शास्त्र दोनों में प्रवीण थे; परन्तु उन्हें विशेष अनुराग रसायनशास्त्र से था।
उन्होंने अपने घर में अपनी एक निजी प्रयोगशाला बना रक्खी थी। वह जो कुछ खा-पीकर बचा पाते थे, वह सब इस प्रयोगशाला पर खर्च कर देते थे।
रात के बारह बज चुके थे। प्रोफेसर साहब नित्यानुसार अपनी प्रयोगशाला में काम कर रहे थे। इसी समय स्प्रिट-लेम्प पर एक परी-क्षण-नलिका को गर्म कर रहे थे। पत्नी की आहट पाकर नलिका पर दृष्टि जमाये हुए ही उन्होंने कहा-"आज अभी सोई नहीं?"
पली जमुहाई लेते हुए बोली—"नींद ही नहीं पड़ती।"
"क्यों
"क्या पता ! अकेले पड़े-पड़े नींद भी नहीं आती। कोई बात करने वाला होना ही चाहिए।"
सहसा नलिका से प्रकाश का एक पुज निकल कर वायु में विलीन हो गया।
"तुम्हें अपने इस खेलवाड़ से ही छुट्टी नहीं मिलती।"
प्रोफेसर साहब मुसकरा कर बोले--"तुम इसे खिलवाड़ समझती हो शीला !"
"और नहीं तो क्या है?"
"यदि इन खेलवाड़ों में से मेरा एक भी सफल हो जाय तो उससे जानती हो, मानव जाति का कितना उपकार हो सकता है?"
"जब मेरा ही उपकार नहीं होता तो मानव-जाति का क्या उपकार होगा।"
"बिना अपने उपकार का बलिदान किये मानव-जाति का उपकार नहीं होता।" प्रोफेसर ने परीक्षण नलिका में एक तरल पदार्थ डालते हुए कहा।
तरल पदार्थ डालते ही नलिका में से एक सुनहला प्रकाशपुंज निकल कर वायु में विलीन हो गया।
"बस, यही आतिशबाजी करते-करते जीवन समाप्त हो जायगा और समस्त अभिलाषाएँ मन में ही रह जायेंगी। अभी तक सन्तान का मुख देखना भी नसीब नहीं हुआ।"
"सन्तान ! सन्तान की चिन्ता मुझे नहीं है। सन्तान हो जाय तो अच्छा, न हो तो अच्छा।"
"मन समझाने के लिए चाहे जो समझ लो।"
"मन तो संसार समझाता है शीला, वास्तविकता को तो कदाचित् ही कोई जान पाता है। हम भारतीयों का तो समस्त जीवन मन समझाने में ही समाप्त हो जाता है।"
"हम वास्तविकता का पूर्ण ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं ! हमारे वेद-शास्त्रों में क्या नहीं है?"
प्रोफेसर साहब परीक्षण नलिका को लेम्प पर से हटाकर हँसने लगे और शीला की ओर मुंह करके बोले—"हमारे घर में खजाना गढ़ा है, परन्तु जरा उसमें से एक रुपया निकाल कर दिखाओ, तो जानूँ। वेद-शास्त्रों में सब कुछ है, इस धारणा ने ही हमें इस पतन के गर्त में गिराया है। आज जिस रेडियो का एक स्विच घुमाकर तुम सैकड़ों हजारों मील पर बोलते-गाते हुए आदमी का कण्ठ-स्वर सुन लेती हो—वह रेडियो, क्या तुमने कभी विचार किया है शीला, वेद के अन्दर से निकाल कर नहीं रख दिया गया। इसके पीछे एक प्राणी की समस्त आयु की तपस्या और त्याग की शक्ति लगी हुई है। उस प्राणी ने सांसारिक सुखों को लात मार कर न जाने कितनी रातें अकेले प्रयोगशाला में बिताई होंगी। जब कि संसार यौवन की मदिरा के नशे में अपनी प्रेयसी को अङ्क में लिये सुखनिद्रा में व्यतीत करता रहा होगा, उस समय यह प्राणी अकेला भोजन तथा निद्रा का तिरस्कार करके और कदाचित अपनी प्रेयसी की भावनाओं की उपेक्षा करके अपने कार्य में तल्लीन रहा होगा। उसी महात्मा के जीवनोत्सर्ग, अपने को मानव-कल्याण के लिए मिटा डालने की भावना के फल का आज संसार रसास्वादन कर रहा है। न जाने कितने आदमी उसका नाम भी नहीं जानते, परन्तु उसके त्याग और तपस्या से लाभान्वित हो रहे हैं।"
शीला बोली—"हमारे ऋषियों ने भी ऐसे ही त्याग और तपस्या करके संसार का कल्याण किया।"
"निस्सन्देह, परन्तु हमने क्या किया? हमने केवल उनके सिद्धान्तों को ले लिया, व्यावहारिकता को छोड़ दिया। बिना व्यावहारिकता के केवल सिद्धान्तों पर मनुष्य की आस्था और श्रद्धा अधिक दिनों तक नहीं टिक सकती।"
शीला जमुहाई लेकर बोली—"तुम क्या कर रहे हो यह बताओ।"
"मैं भी कुछ कर ही रहा हूँ। इस अनन्त प्रकृति सागर के तट पर छिछले जल में खड़ा हुआ इस प्रयत्न में लगा हूँ कि कदाचित् कोई छोटा मोटा मोती हाथ लग जाय।"
"लग चुका !" कहकर शीला उठी और चली गयी।
प्रोफेसर के मुख पर एक मन्द मुस्कान आ कर विलीन हो गई और वह पुनः अपने कार्य में लग गया।( २ )
शीला दुखी रहती थी। उसकी धारणा थी कि वह एक पागल व्यक्ति के पल्ले बांध दी गई है। वह यौवन की सीमा को पार कर रही थी, उसकी वयस पैंतीस वर्ष से ऊपर हो चुकी थी। विवाह के पश्चात् कदाचित कुछ वर्ष तो उसने पति के साथ सुख पूर्वक बिताये, परन्तु उसके पश्चात् वह पति के प्रमपूर्ण व्यवहार से वंचित हो गई। उसका हृदय अब भी प्यासा था, उसका चित्त अब भी पति से प्रेमी के व्यवहार की मांग करता था, परन्तु उसे मिलती थी केवल उपेक्षा और निराशा।
प्रयोगशाला उसके लिए उतनी ही दुखदायी थी जितनी कि, एक सौत हो सकती है। उसका वश चलता तो वह प्रयोगशाला को नष्ट कर डालती।
सहसा एक दिन रात के दो बजे प्रयोगशाला में असाधारण खट-पट सुनकर वह जाग पड़ी। पहले तो कुछ क्षण पड़े ही पड़े सुनती रही—ऐसा प्रतीत होता था कि प्रयोगशाला में कोई कूद-फांद रहा है। अन्त में वह उठी और प्रयोगशाला में पहुंची। वहाँ जाकर उसने देखा कि, उसके पति महोदय हाथ में एक छोटी शीशी लिये हुए पागलों की भांति नाच रहे हैं ! यह दृश्य देखकर उसके चित्त में घृणा उत्पन्न हुई—उसने सोचा कि प्रोफेसर महोदय विक्षिप्त हो गए। वह कुछ कर्कश स्वर में बोली—"यह क्या हो रहा है? क्या इसी प्रकार संसार का कल्याण होगा? संसार का कल्याण करने के पागलपन में तुम अपना मनुष्यत्व भी खोये दे रहे हो।"
प्रोफेसर ने लपक कर शीला के गले में हाथ डाल दिया और बोले—"शीला, जो मैं चाहता था वह मिल गया। इस शीशी को देखो, इस शीशी की पांच बूंदें तुम्हें सोलह वर्ष का यौवन प्रदान करने की क्षमता रखती हैं। इसकी पांच बूदें मनुष्य के शैथिल्योन्मुखी रक्त कोषों में पुनः इतनी गति ला सकती हैं कि उसका रूप रंग तथा शक्ति नवयौवन में पदार्पण करते हुए मनुष्य जैसे हो जायँ। मेरी शीला अब पुनः सोलह वर्ष की युवती हो जायगी।"
यह कहकर प्रोफेसर ने शीला का मुख चूम लिया !
शीला विश्वास तथा अविश्वास के मध्य में झूलती हुई बोली—"क्या कहते हो।”
"मैं सत्य कहता हूँ शीला! अब तुम पर फिर से नवयौवन आ जायगा।"
शीला विश्वास की ओर ढुलकती हुई प्रसन्न मुख होकर बोली "सच ?"
"बिल्कुल सच !"
"तो लाओ पांच बूँद पिला दो।"
"अभी नहीं ! उसके पहले तुम्हारे शरीर की शुद्धि करनी पड़ेगी। पेट तथा आंतों को बिल्कुल साफ करना पड़ेगा।"
"परन्तु तुम्हें यह कैसे विश्वास कि, जो वस्तु तुम बनाना चाहते थे, वह बन गई।"
प्रोफेसर उसे मेज के पास ले गया। मेज पर एक पिंजरे में चूहे का एक जोड़ा था।
"इस जोड़े को देखो शीला!"
"ये चूहे तो बड़े सुन्दर और चपल हैं।"
"परन्तु कल ये दोनों पिंजरे के एक कोने में मृतप्राय पड़े हुए थे मैंने इन्हें जो रासायनिक पदार्थ खिलाये उससे ये दोनों वैसे ही हो गये थे जैसा कि, एक सत्तर बरस का बूढ़ा हो जाता है।"
"फिर क्या हुआ ?"
कल मैंने इस पदार्थ की चौथाई-चौथाई बूँद इन दोनों को दी थी—अब आज इन्हें देखो—इनमें कितना जीवन है। अब तो ये दोनों बच्चे से जान पड़ते हैं।
"बड़ी अद्भुत वस्तु है। इससे तो हम लाखों रुपये कमा लेंगे?"
"रुपये की बात सोचती हो शीला ! यह पदार्थ क्या रुपयों से खरीदा जा सकता है? संसार भर की धनराशि भी इसकी एक बूँद नहीं प्राप्त कर सकती। इसको ले सकती है केवल जगत् के कल्याण की, मानव जाति के उपकार की भावना।"
"इसका पहिला प्रयोग तो चूहा पर हो चुका, दूसरा किस पर होगा?" शीला ने पूछा।
"तुम पर शीला। सबसे प्रथम तुम इसकी अधिकारिणी हो, क्योंकि तुमने इसके निर्माणकाल में मेरे वियोग, मेरी सहचरहीनता का क्लेश भोगा है!"
शीला गद्गद् होकर पति से लिपट गई!
× × ×
शीला एक बिस्तर पर अज्ञानावस्था में लेटी है। प्रोफेसर उसके पलँग के पास बैठे हैं। कालेज से उन्होंने एक सप्ताह की छुट्टी ले ली है। प्रोफेसर रात-दिन शीला के पलंग के पास ही रहते हैं। क्रमशः शीला का शरीर परिवर्तित होने लगा। उसकी ढीली पड़ती हुई खाल पुनः खिंचकर नवयौवना तरुणी की जैसी हो गई, उसके बाल जिन पर कालिमा का रङ्ग कुछ फीका हो चला था, पुनः काले तथा चमकीले हो गये, उसकी ढलती हुई मांस-पेशियाँ फिर सुदृढ़ तथा पुष्ट हो गई, उसके गौर वर्ण में जो पीलापन आ चला था वह लालिमा में परिवर्तित हो गया!
एक सप्ताह पश्चात् प्रोफेसर ने शीला की बेहोशी दूर की। उसे फलों का रस पीने को दिया। तीन-चार दिन में शीला उठकर बैठने लगी।
शीला ने पूछा---"क्या हुआ था?"
"तुम्हें क्या मालूम होता है शीला?"
"मुझे तो अपने शरीर में एक अद्भुत शक्ति और उल्लास का अनुभव हो रहा है।"
"अच्छा अब अपना मुँह देखो!" यह कहकर प्रोफेसर ने उसके हाथ में एक दर्पण दिया। दर्पण में अपना मुँह देखकर शीला के नेत्र विस्फारित हो गये। वह बोली---"क्या सचमुच मैं ऐसी हो गई हूँ।"
"बिलकुल! प्रत्यक्ष को प्रमाण की क्या आवश्यकता। अपने हाथ- पैर देखो।"
शीला ने अपनी बाँहें तथा अन्य अङ्ग देखे और प्रसन्न होकर बोली---"ये तो वैसे ही हो गये जैसे कि सोलह-सत्रह बरस की उमर में थे।" यह कहकर शीला ने हर्ष-विभोर होकर नेत्र मूंद लिये।
( ३ )
क्रमशः जब प्रोफेसर की पत्नी के काया-कल्प की बात लोगों को ज्ञात हुई तो वे प्रोफेसर को लगे घेरने! बड़े-बड़े लखपती बुड्ढाञ्ची प्रोफेसर की खुशामद करने लगे कि, वह वस्तु उन्हें भी दी जाय और जितना रुपया वह चाहें ले सकते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य वैज्ञानिक भी प्रोफेसर से मिल कर उस पदार्थ के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करने के लिए आने लगे। परन्तु प्रोफेसर ने सबको एक ही उत्तर दिया---"संयोगवश मेरी पत्नी मेरी प्रयोगशाला का कोई पदार्थ खाने से ऐसी हो गई। मुझे अभी पता नहीं लगा कि, वह पदार्थ क्या है। मैं उसका अन्वेषण कर रहा हूँ।" लोग निराश होकर वापस चले जाते थे।
एक दिन शीला ने कहा---"तुम यह पदार्थ कब खाओगे?"
"मैं!" प्रोफेसर ने कुछ चौंककर कहा।
"हाँ, तुम।"
"परन्तु मेरा तो ऐसा कोई इरादा नहीं है।"
"क्यों?"
"मुझे यौवन की इच्छा नहीं। यौवन पाने से मेरा चित्त अपने लक्ष्य की ओर से हट जायगा।"
"परन्तु तुम्हारा लक्ष्य तो तुम्हें मिल गया?"
"अभी बहुत कुछ बाकी है शीला! मैं एक ऐसे पदार्थ की खोज में हूँ जो मनुष्य के जीवन को यथेच्छा दीर्घ कर सके।"
"मुझे जवान बनाकर स्वयं बूढ़े ही बने रहना चाहते हो?"
"मुझे इसी में प्रसन्नता है।"
"परन्तु मुझे तो नहीं है। तुम्हें बूढ़ा नहीं देखना चाहती।"
"यदि संसार का कल्याण चाहती हो तो मुझे इसी दशा में रहने दो शीला।"
"संसार गया भट्टी में! मैं संसार का सुख भोगना चाहती हूँ। यदि यौवन पाकर भी उसे व्यर्थ गँवा दिया तो उससे क्या लाभ?"
"यदि मैं स्वयं संसार का सुख लूटने लगूँगा तो फिर संसार का हित-साधन कैसे कर सकूँगा। यह तो सोचो।"
"आखिर तुम संसार के पीछे इतने पागल क्यों होते हो। हमने संसार का हित करने का ठेका नहीं लिया है।"
इस प्रकार शीला ने बहुत कहा पर प्रोफेसर ने शीला की बात नहीं मानी। उसने कहा "मैं यह पदार्थ केवल उस समय खाऊँगा जब मैं समझ लूगा कि, मेरा अभीष्ट पूरा हो गया और अब मुझे संसार का सुख लूटने के अतिरिक्त और कुछ नहीं करना है।"
"ऐसा दिन कभी न आयेगा।"
"न आवे! मुझे उसकी चिन्ता भी नहीं है।"
"तो तुम अपने आविष्कार से न रुपया ही कमाते हो, न स्वयं ही उसका उपयोग करते हो, तब तुम्हारे इस परिश्रम से तुम्हें क्या लाभ हुआ?"
"मैंने अपने लाभ की बात तो कभी सोची भी नहीं।"
इस प्रश्न को लेकर शीला ने इतना झगड़ा मचाया कि, पति से रुष्ट होकर और कभी न आने की बात कहकर वह मायके चली गयी।
प्रोफेसर महोदय अकेले रह गये।
अन्त को एक दिन लोगों ने प्रोफेसर को अपने घर से लापता पाया। उसके कुछ मित्रों ने उसके घर में प्रवेश करके देखा कि, प्रयोगशाला की सब वस्तुएँ टूटी-फूटी पड़ी हैं। मेज पर एक कार्ड रक्खा हुआ है। उस पर लिखा है---"मैं संसार का त्याग कर रहा हूं, मेरी खोज न की जाय! मैं अपना शेष जीवन किसी निर्जन स्थान में प्रकृति के साथ क्रीड़ा करके बिताऊँगा। क्योंकि जब तक मनुष्य में स्वार्थ-त्याग, विश्व- प्रेम तथा मानव-कल्याण की भावना उत्पन्न नहीं होती, तब तक लोकहित की दृष्टि से कोई भी आविष्कार किया जाय उसका सदुपयोग न होकर केवल दुरुपयोग ही होगा।"